शायद बर्फ पिघल जाए- भाग 2

सहसा माली ने अपनी समस्या से चौंका दिया, ‘‘अगले माह भतीजी का ब्याह है. आप की थोड़ी मदद चाहिए होगी साहब, ज्यादा नहीं तो एक जेवर देना तो मेरा फर्ज बनता ही है न. आखिर मेरे छोटे भाई की बेटी है.’’

ऐसा लगा  जैसे किसी ने मुझे आसमान से जमीन पर फेंका हो. कुछ नहीं है माली के पास फिर भी वह अपनी भतीजी को कुछ देना चाहता है. बावजूद इस के कि उस की भी अपने भाई से अनबन है. और एक मैं हूं जो सर्वसंपन्न होते हुए भी अपनी भतीजी को कुछ भी उपहार देने की भावना और स्नेह से शून्य हूं. माली तो मुझ से कहीं ज्यादा धनवान है.

पुश्तैनी जायदाद के बंटवारे से ले कर मां के मरने और कार दुर्घटना में अपने शरीर पर आए निशानों के झंझावात में फंसा मैं कितनी देर तक बैठा सोचता रहा, समय का पता ही नहीं चला. चौंका तो तब जब पल्लवी ने आ कर पूछा, ‘‘क्या बात है, पापा…आप इतनी रात गए यहां बैठे हैं?’’ धीमे स्वर में पल्लवी बोली, ‘‘आप कुछ दिन से ढंग से खापी नहीं रहे हैं, आप परेशान हैं न पापा, मुझ से बात करें पापा, क्या हुआ…?’’

जरा सी बच्ची को मेरी पीड़ा की चिंता है यही मेरे लिए एक सुखद एहसास था. अपनी ही उम्र भर की कुछ समस्याएं हैं जिन्हें समय पर मैं सुलझा नहीं पाया था और अब बुढ़ापे में कोई आसान रास्ता चाह रहा था कि चुटकी बजाते ही सब सुलझ जाए. संबंधों में इतनी उलझनें चली आई हैं कि सिरा ढूंढ़ने जाऊं तो सिरा ही न मिले. कहां से शुरू करूं जिस का भविष्य में अंत भी सुखद हो? खुद से सवाल कर खुद ही खामोश हो लिया.

‘‘बेटा, वह…विजय को ले कर परेशान हूं.’’

‘‘क्यों, पापा, चाचाजी की वजह से क्या परेशानी है?’’

‘‘उस ने हमें शादी में बुलाया तक नहीं.’’

‘‘बरसों से आप एकदूसरे से मिले ही नहीं, बात भी नहीं की, फिर वह आप को क्यों बुलाते?’’ इतना कहने के बाद पल्लवी एक पल को रुकी फिर बोली, ‘‘आप बड़े हैं पापा, आप ही पहल क्यों नहीं करते…मैं और दीपक आप के साथ हैं. हम चाचाजी के घर की चौखट पार कर जाएंगे तो वह भी खुश ही होंगे…और फिर अपनों के बीच कैसा मानअपमान, उन्होंने कड़वे बोल बोल कर अगर झगड़ा बढ़ाया होगा तो आप ने भी तो जरूर बराबरी की होगी…दोनों ने ही आग में घी डाला होगा न, क्या अब उसी आग को पानी की छींट डाल कर बुझा नहीं सकते?…अब तो झगड़े की वजह भी नहीं रही, न आप की मां की संपत्ति रही और न ही वह रुपयापैसा रहा.’’

पल्लवी के कहे शब्दों पर मैं हैरान रह गया. कैसी गहरी खोज की है. फिर सोचा, मीना उठतीबैठती विजय के परिवार को कोसती रहती है शायद उसी से एक निष्पक्ष धारणा बना ली होगी.

‘‘बेटी, वहां जाने के लिए मैं तैयार हूं…’’

‘‘तो चलिए सुबह चाचाजी के घर,’’ इतना कह कर पल्लवी अपने कमरे में चली गई और जब लौटी तो उस के हाथ में एक लाल रंग का डब्बा था.

‘‘आप मेरी ननद को उपहार में यह दे देना.’’

‘‘यह तो तुम्हारा हार है, पल्लवी?’’

‘‘आप ने ही दिया था न पापा, समय नहीं है न नया हार बनवाने का. मेरे लिए तो बाद में भी बन सकता है. अभी तो आप यह ले लीजिए.’’

कितनी आसानी से पल्लवी ने सब सुलझा दिया. सच है एक औरत ही अपनी सूझबूझ से घर को सुचारु रूप से चला सकती है. यह सोच कर मैं रो पड़ा. मैं ने स्नेह से पल्लवी का माथा सहला दिया.

‘‘जीती रहो बेटी.’’

अगले दिन पहले से तय कार्यक्रम के अनुसार पल्लवी और मैं अलगअलग घर से निकले और जौहरी की दुकान पर पहुंच गए, दीपक भी अपने आफिस से वहीं आ गया. हम ने एक सुंदर हार खरीदा और उसे ले कर विजय के घर की ओर चल पड़े. रास्ते में चलते समय लगा मानो समस्त आशाएं उसी में समाहित हो गईं.

‘‘आप कुछ मत कहना, पापा,’’ पल्लवी बोली, ‘‘बस, प्यार से यह हार मेरी ननद को थमा देना. चाचा नाराज होंगे तो भी हंस कर टाल देना…बिगड़े रिश्तों को संवारने में कई बार अनचाहा भी सहना पड़े तो सह लेना चाहिए.’’

मैं सोचने लगा, दीपक कितना भाग्यवान है कि उसे पल्लवी जैसी पत्नी मिली है जिसे जोड़ने का सलीका आता है.

विजय के घर की दहलीज पार की तो ऐसा लगा मानो मेरा हलक आवेग से अटक गया है. पूरा परिवार बरामदे में बैठा शादी का सामान सहेज रहा था. शादी वाली लड़की चाय टे्र में सजा कर रसोई से बाहर आ रही थी. उस ने मुझे देखा तो उस के पैर दहलीज से ही चिपक गए. मेरे हाथ अपनेआप ही फैल गए. हैरान थी मुन्नी हमें देख कर.

‘‘आ जा मुन्नी,’’ मेरे कहे इस शब्द के साथ मानो सारी दूरियां मिट गईं.

मुन्नी ने हाथ की टे्र पास की मेज पर रखी और भाग कर मेरी बांहों में आ समाई.

एक पल में ही सबकुछ बदल गया. निशा ने लपक कर मेरे पैर छुए और विजय मिठाई के डब्बे छोड़ पास सिमट आया. बरसों बाद भाई गले से मिला तो सारी जलन जाती रही. पल्लवी ने सुंदर हार मुन्नी के गले में पहना दिया.

किसी ने भी मेरे इस प्रयास का विरोध नहीं किया.

‘‘भाभी नहीं आईं,’’ विजय बोला, ‘‘लगता है मेरी भाभी को मनाने की  जरूरत पड़ेगी…कोई बात नहीं. चलो निशा, भाभी को बुला लाएं.’’

‘‘रुको, विजय,’’ मैं ने विजय को यह कह कर रोक दिया कि मीना नहीं जानती कि हम यहां आए हैं. बेहतर होगा तुम कुछ देर बाद घर आओ. शादी का निमंत्रण देना. हम मीना के सामने अनजान होेने का बहाना करेंगे. उस के बाद हम मान जाएंगे. मेरे इस प्रयास से हो सकता है मीना भी आ जाए.’’

‘‘चाचा, मैं तो बस आप से यह कहने आया हूं कि हम सब आप के साथ हैं. बस, एक बार बुलाने चले आइए, हम आ जाएंगे,’’ इतना कह कर दीपक ने मुन्नी का माथा चूम लिया था.

‘‘अगर भाभी न मानी तो? मैं जानती हूं वह बहुत जिद्दी हैं…’’ निशा ने संदेह जाहिर किया.

‘‘न मानी तो न सही,’’ मैं ने विद्रोही स्वर में कहा, ‘‘घर पर रहेगी, हम तीनों आ जाएंगे.’’

‘‘इस उम्र में क्या आप भाभी का मन दुखाएंगे,’’ विजय बोला, ‘‘30 साल से आप उन की हर जिद मानते चले आ रहे हैं…आज एक झटके से सब नकार देना उचित नहीं होगा. इस उम्र में तो पति को पत्नी की ज्यादा जरूरत होती है… वह कितना गलत सोचती हैं यह उन्हें पहले ही दिन समझाया होता, इस उम्र में वह क्या बदलेंगी…और मैं नहीं चाहता वह टूट जाएं.’’

विजय के शब्दों पर मेरा मन भीगभीग गया.

‘‘हम ताईजी से पहले मिल तो लें. यह हार भी मैं उन से ही लूंगी,’’ मुन्नी ने सुझाव दिया.

‘‘एक रास्ता है, पापा,’’ पल्लवी ने धीरे से कहा, ‘‘यह हार यहीं रहेगा. अगर मम्मीजी यहां आ गईं तो मैं चुपके से यह हार ला कर आप को थमा दूंगी और आप दोनों मिल कर दीदी को पहना देना. अगर मम्मीजी न आईं तो यह हार तो दीदी के पास है ही.’’

इस तरह सबकुछ तय हो गया. हम अलगअलग घर वापस चले आए. दीपक अपने आफिस चला गया.

मीना ने जैसे ही पल्लवी को देखा सहसा उबल पड़ी,  ‘‘सुबहसुबह ही कौन सी जरूरी खरीदारी करनी थी जो सारा काम छोड़ कर घर से निकल गई थी. पता है न दीपक ने कहा था कि उस की नीली कमीज धो देना.’’

‘‘दीपक उस का पति है. तुम से ज्यादा उसे अपने पति की चिंता है. क्या तुम्हें मेरी चिंता नहीं?’’

‘‘आप चुप रहिए,’’ मीना ने लगभग डांटते हुए कहा.

‘‘अपना दायरा समेटो, मीना, बस तुम ही तुम होना चाहती हो सब के जीवन में. मेरी मां का जीवन भी तुम ने समेट लिया था और अब बहू का भी तुम ही जिओगी…कितनी स्वार्थी हो तुम.’’

‘‘आजकल आप बहुत बोलने लगे हैं…प्रतिउत्तर में मैं कुछ बोलता उस से पहले ही पल्लवी ने इशारे से मुझे रोक दिया. संभवत: विजय के आने से पहले वह सब शांत रखना चाहती थी.

निशा और विजय ने अचानक आ कर मीना के पैर छुए तब सांस रुक गई मेरी. पल्लवी दरवाजे की ओट से देखने लगी.

‘‘भाभी, आप की मुन्नी की शादी है,’’ विजय विनम्र स्वर में बोला, ‘‘कृपया, आप सपरिवार आ कर उसे आशीर्वाद दें. पल्लवी हमारे घर की बहू है, उसे भी साथ ले कर आइए.’’

‘‘आज सुध आई भाभी की, सारे शहर में न्योता बांट दिया और हमारी याद अब आई…’’

मैं ने मीना की बात को बीच में काटते हुए कहा, ‘‘तुम से डरता जो है विजय, इसीलिए हिम्मत नहीं पड़ी होगी… आओ विजय, कैसी हो निशा?’’

जिंदगी ब्लैक ऐंड व्हाइट नहीं होती- भाग 2: आशिक मिजाज बॉस की कहानी

इधर रमला सोच रही है कि कितना अच्छा इंसान था रूपेश? जो कुछ उस के पति ने उस के बारे में बताया उस से मिल कर उस पर विश्वास नहीं होता. घर में कड़ा अनुशासन था. दोनों छिपछिप कर मिलते थे. रूपेश आदर्श और सचाई की मूर्ति था. लड़कियों की तरफ तो कभी आंख उठा कर भी नहीं देखता था. मैं उसे किताबी कीड़ा कह कर चिढ़ाती थी तो वह कहता था देखना ये किताबें ही मुझे जीवन में कुछ बनाएंगी.

‘‘और पेंटिंग…?’’ मैं पूछती.

‘‘वह तो मेरी जान है… घर आओ किसी दिन. मेरा कमरा पेंटिंग्स से भरा पड़ा है. रमला जीवन में सबकुछ छोड़ दूंगा पर चित्रकारी कभी नहीं.’’

तब रमला को उस की हर बात में सचाई लगती थी.

‘‘अरे सर,’’ मौल तो पीछे रह गया. हम काफी आगे आ गए हैं.

रमला की तंद्रा टूटी थी. सोच को अचानक ब्रेक लगा.

‘‘ओह, मिहिर हम यहीं उतरते हैं. तुम गाड़ी को पार्क कर के आओ तब तक हम मौल तक पहुंचते हैं,’’ रूपेश ने गाड़ी रोकी और चाबी मिहिर को दे कर रमला के साथ मौल की ओर चल पड़ा.

पता नहीं औफिस में आए गैस्ट पहुंच गए होंगे या नहीं, रूपेश सोच रहा था.

तभी रूपेश का मोबाइल बजा. बात खत्म कर के रमला से बोला, ‘‘हमारे गैस्ट शौपिंग के लिए नहीं आ रहे हैं… चलो सामने बैंच पर बैठते हैं.’’

बैंच पर बैठ कर पता नहीं क्यों उस का मन बेचैन था.

‘‘रमला आज मैं तुम्हें अपने जीवन का सच बताना चाहता हूं.’’

‘‘सच? कैसा सच…? मेरे पति आने वाले हैं,’’ वह घबरा गई थी कि रूपेश पता नहीं क्या कहने जा रहा है.

‘‘अभी मिहिर का फोन आया है कि उसे कुछ काम है. तब तक हम लोग शौपिंग करते हैं… मैं जानता हूं इस दुनिया में तुम से ज्यादा मुझे कोई नहीं जानता. इसीलिए जीवन का सच तुम्हारे सामने रख रहा हूं. शायद फिर कभी मौका न मिले… घबराना नहीं.

‘‘दरअसल, मैं ने 8 वर्ष पहले शादी की थी. लड़की का नाम भावना था. वह बेहद खूबसूरत और आकर्षक थी. इस से पहले मैं ने इतनी खूबसूरत लड़की न देखी थी. सच तो यह था कि भावना को दीवानों जैसा प्यार करता था.

‘‘वह अकेली थी. मांबाप नहीं थे. उस ने बताया था कि मांबाप बचपन में मर गए थे. ट्यूशन कर के खुद पढ़ी और अब भाईबहनों को पढ़ा रही हूं. अभी कुछ दिन पहले यह नौकरी मिली है. रूपेश, आई लव यू फ्रौम कोर औफ माई हार्ट. यदि हम दोनों एक हो जाएं तो मेरा जीवन सुधर जाएगा. काम कर के मैं थक गई हूं. तब मैं ने झट से शादी के लिए हां कर दी. फिर हम ने शादी कर ली.

‘‘लोगों, मित्रों और जानकारों ने मुझे बहुत समझाया कि इस से शादी कर के पछताओगे पर मैं तो उस के प्यार में पागल था. सो झटपट शादी कर ली. बहुत खुश था. जल्द ही असलियत खुल गई. वह सारीसारी रात यारदोस्तों के साथ घूमती. मैं ने उसे बहुत बार प्यार से समझाया पर उस ने यही कहा कि यह मेरी पर्सनल लाइफ है. मुझे आदमियों के साथ शराब पीना और डांस करना अच्छा लगता है. शराब पी कर आधी रात घर आती. मैं चिढ़ता तो मुझ से मारपीट करती.

‘‘उस की उपेक्षा और दुर्व्यवहार से मैं टूटने लगा था. शादी को 6 महीने बीते थे. एक दिन बोली कि रूपेश मुझे तलाक चाहिए. क्यों? मेरे पूछने पर बोली कि मेरे देर से आने पर तुम्हें एतराज है. मैं आजाद पंछी हूं. यहां मेरा दम घुटता है. मुझे छोड़ दो.
‘‘मैं फिर भी उस के प्यार में डूबा रहा. उसे छोड़ना नहीं चाहता था. मेरे मित्रों ने कहा कि इस ने कइयों के साथ ऐसा ही किया है. तुम्हारे साथ इस की तीसरी शादी
है. इस ने सभी को ऐसे ही अपने जाल में फंसाया. सभी से शादी
तोड़ कर पैसा ऐंठा है. हमारा तलाक हो गया. पैसा तो देना
पड़ा. वह पैसा पा कर खुश थी
और मैं दुनिया का सब से दुखी पति था.
‘‘मैं ने अपनेआप को शराब में डुबो दिया. सारा दिन घर में
बरामदे में कुरसी पर बैठा सिगरेटें फूंकता और आसमान ताकता रहता. लगता सारा आसमान खाली है ठीक मेरे मन की तरह. मेरे जीवन में बहुत कुछ बदल गया था जिस के लिए मैं तैयार न था पर न जाने क्यों इस बदलाव को रोकने का कोई तरीका समझ नहीं आता था. जीवन नर्क बन गया था.
‘‘सब यों ही चलता रहा. औरतों से मुझे नफरत हो गई थी. हर लड़की को देख भावना का चेहरा याद आता. ‘मुझे उस से बदला लेना है,’ यही दिमाग में रहता. आज भी यही हाल है. हर शाम एक औरत मेरे साथ होती है. मैं क्लब में जाता हूं, उस के साथ शराब पीता हूं और घर आ कर सो जाता हूं. औरत को बढि़या सा गिफ्ट जरूर देता हूं. हां, स्त्री को ‘टच’ नहीं करता हूं. न जाने क्यों छूने का मन नहीं करता.
‘‘मेरे जीवन में अब स्त्री के लिए कोई जगह नहीं है. आज तुम्हें देख कर न जाने क्यों मन खुश हो गया. मिहिर कितना खुशहाल है जिसे तुम्हारे जैसा जीवनसाथी मिला है.
‘‘एक मैं हूं… एकदम अकेला. खाली घर की सिमटी दीवारों के बीच कैद हो कर रोता हूं… रमला मैं जीवन से हार गया हूं.’’
रमला ने देखा वह फूटफूट कर रो रहा था. उस का मन उद्विग्न था. उस का मन किया रूपेश को कंधे से लगा ले. किंतु वह ऐसा नहीं कर सकी. पति कभी भी आ सकता है. इस हालत में देख कर कहीं गलत न समझे. फिर भी उस ने धीरे से कंधा थपथपाया, ‘‘तुम्हारे साथ जो हुआ वह गलत हुआ.’’
‘‘मैं क्या कर रहा हूं, क्यों कर रहा हूं नहीं जानता.’’
‘‘हां, उस समय तुम्हें किसी अपने सगे का सहारा चाहिए था,’’ रमला बहुत सोच कर बोली.
‘‘कौन था जो, मुझे सहारा देता? कोई भी तो नहीं था. एक बूढ़ी मां ही तो हैं जो अब लखनऊ में रहती हैं. आज तुम्हें ये सब सुना कर दिल तो हलका हुआ. गाड़ी में बैठा रास्ते भर मैं यही सोचता रहा कि अतीत को तुम्हारे साथ शेयर करूं या न करूं. पता नहीं मिहिर ने तुम्हारे सामने मेरी कैसी पिक्चर पेश की होगी. परंतु जो कुछ मैं ने तुम्हारे सामने कहा वही सच है. अब यह तुम्हारे ऊपर है कि तुम किसे और कितना सच मानती हो. वैसे अब मैं जीना नहीं चाहता और वह फिर रो पड़ा.
‘‘अरे, तुम लोग यहीं बैठे हो शौपिंग कर ली क्या? औफिस वालों का क्या हुआ?’’ अचानक मिहिर आ गया.
‘‘नहीं शौपिंग नहीं की. औफिस वालों का वेट कर रहे थे. उन का फोन आया कि वे लोग नहीं आ रहे हैं… रूपेश ने बताया, ‘‘हम तुम्हारा इंतजार कर रहे थे.’’
मिहिर को रूपेश के चेहरे
से लग रहा था वह टैंशन में है पर चुप रहा.
रमला के लिए यह जानना जरूरी हो गया था कि रूपेश के अतीत को पूरी तरह जाने. जो कुछ आज उस ने बताया है, वह तो बड़ी ही दुखद स्थिति है… जीवन लड़खड़ा गया है. कितनी बेसुरी जिंदगी जी रहा है वह. धोखा वह भी उस से मिला जिसे वह जान से ज्यादा चाहता था.

शायद बर्फ पिघल जाए- भाग 1

‘‘हमारा जीवन कोई जंग नहीं है मीना कि हर पल हाथ में हथियार ही ले कर चला जाए. सामने वाले के नहले पर दहला मारना ही क्या हमारे जीवन का उद्देश्य रह गया है?’’ मैं ने समझाने के उद्देश्य से कहा, ‘‘अब अपनी उम्र को भी देख लिया करो.’’

‘‘क्या हो गया है मेरी उम्र को?’’ मीना बोली, ‘‘छोटाबड़ा जैसे चाहे मुझ से बात करे, क्या उन्हें तमीज न सिखाऊं?’’

‘‘तुम छोटेबड़े, सब के हर काम में अपनी टांग क्यों फंसाती हो, छोटे के साथ बराबर का बोलना क्या तुम्हें अच्छा लगता है?’’

‘‘तुम मेरे सगे हो या विजय के? मैं जानती हूं तुम अपने ही खून का साथ दोगे. मैं ने अपनी पूरी उम्र तुम्हारे साथ गुजार दी मगर आज भी तुम मेरे नहीं अपने परिवार के ही सगे हो.’’

मैं ने अपना सिर पीट लिया. क्या करूं मैं इस औरत का. दम घुटने लगता है मेरा अपनी ही पत्नी मीना के साथ. तुम ने खाना मुझ से क्यों न मांगा, पल्लवी से क्यों मांग लिया. सिरदर्द की दवा पल्लवी तुम्हें क्यों खिला रही थी? बाजार से लौट कर तुम ने फल, सब्जी पल्लवी को क्यों पकड़ा दी, मुझे क्यों नहीं बुला लिया. मीना अपनी ही बहू पल्लवी से अपना मुकाबला करे तो बुरा लगना स्वाभाविक है.

उम्र के साथ मीना परिपक्व नहीं हुई उस का अफसोस मुझे होता है और अपने स्नेह का विस्तार नहीं किया इस पर भी पीड़ा होती है क्योंकि जब मीना ब्याह कर मेरे जीवन में आई थी तब मेरी मां, मेरी बहन के साथ मुझे बांटना उसे सख्त नागवार गुजरता था. और अब अपनी ही बहू इसे अच्छी नहीं लगती. कैसी मानसिकता है मीना की?

मुझे मेरी मां ने आजाद छोड़ दिया था ताकि मैं खुल कर सांस ले सकूं. मेरी बहन ने भी शादी के बाद ज्यादा रिश्ता नहीं रखा. बस, राखी का धागा ही साल भर बाद याद दिला जाता था कि मैं भी किसी का भाई हूं वरना मीना के साथ शादी के बाद मैं एक ऐसा अनाथ पति बन कर रह गया जिस का हर कोई था फिर भी पत्नी के सिवा कोई नहीं था. मैं ने मीना के साथ निभा लिया क्योंकि मैं पलायन में नहीं, निभाने में विश्वास रखता हूं, लेकिन अब उम्र के इस पड़ाव पर जब मैं सब का प्यार चाहता हूं, सब के साथ मिल कर रहना चाहता हूं तो सहसा महसूस होता है कि मैं तो सब से कटता जा रहा हूं, यहां तक कि अपने बेटेबहू से भी.

मीना के अधिकार का पंजा शादी- शुदा बेटे के कपड़ों से ले कर उस के खाने की प्लेट तक है. अपना हाथ उस ने खींचा ही नहीं है और मुझे लगता है बेटा भी अपना दम घुटता सा महसूस करने लगा है.

‘‘कोई जरूरत नहीं है बहू से ज्यादा घुलनेमिलने की. पराया खून पराया ही रहता है,’’ मीना ने सदा की तरह एकतरफा फैसला सुनाया तो बरसों से दबा लावा मेरी जबान से फूट निकला.

‘‘मेरी मां, बहन और मेरा भाई विजय तो अपना खून थे पर तुम ने तो मुझे उन से भी अलग कर दिया. मेरा अपना आखिर है कौन, समझा सकती हो मुझे? बस, वही मेरा अपना है जिसे तुम अपना कहो…तुम्हारे अपने भी बदलते रहते हैं… कब तक मैं रिश्तों को तुम्हारी ही आंखों से देखता रहूंगा.’’

कहतेकहते रो पड़ा मैं, क्या हो गया है मेरा जीवन. मेरी सगी बहन, मेरा सगा भाई मेरे पास से निकल जाते हैं और मैं उन्हें बुलाता ही नहीं…नजरें मिलती हैं तो उन में परायापन छलकता है जिसे देख कर मुझे तकलीफ होती है. हम 3 भाई, बहन जवान हो कर भी जरा सी बात न छिपाते थे और आज वर्षों बीत गए हैैं उन से बात किए हुए.

आज जब जीवन की शाम है, मेरी बहू पल्लवी जिस पर मैं अपना ममत्व अपना दुलार लुटाना चाहता हूं, वह भी मीना को नहीं सुहाता. कभीकभी सोचता हूं क्या नपुंसक हूं मैं? मेरी शराफत और मेरी निभा लेने की क्षमता ही क्या मेरी कमजोरी है? तरस आता है मुझे कभीकभी खुद पर.

क्या वास्तव में जीवन इसी जीतहार का नाम है? मीना मुझे जीत कर अलग ले गई होगी, उस का अहं संतुष्ट हो गया होगा लेकिन मेरी तो सदा हार ही रही न. पहले मां को हारा, फिर बहन को हारा. और उस के बाद भाई को भी हार गया.

‘‘विजय चाचा की बेटी का  रिश्ता पक्का हो गया है, पापा. लड़का फौज में कैप्टन है,’’ मेरे बेटे दीपक ने खाने की मेज पर बताया.

‘‘अच्छा, तुझे बड़ी खबर है चाचा की बेटी की. वह तो कभी यहां झांकने भी नहीं आया कि हम मर गए या जिंदा हैं.’’

‘‘हम मर गए होते तो वह जरूर आता, मीना, अभी हम मरे कहां हैं?’’

मेरा यह उत्तर सुन हक्काबक्का रह गया दीपक. पल्लवी भी रोटी परोसती परोसती रुक गई.

‘‘और फिर ऐसा कोई भी धागा हम ने भी कहां जोड़े रखा है जिस की दुहाई तुम सदा देती रहती हो. लोग तो पराई बेटी का भी कन्यादान अपनी बेटी की तरह ही करते हैं, विजय तो फिर भी अपना खून है. उस लड़की ने ऐसा क्या किया है जो तुम उस के साथ दुश्मनी निभा रही हो.

खाना पटक दिया मीना ने. अपनेपराए खून की दुहाई देने लगी.

‘‘बस, मीना, मैं इस बहस में नहीं पड़ना चाहता कि कल क्या हुआ था. जो भी हुआ उस का इस से बुरा परिणाम और क्या होगा कि इतने सालों से हम दोनों भाइयों ने एकदूसरे की शक्ल तक नहीं देखी… आज अगर पता चला है कि उस की बच्ची की शादी है तो उस पर भी तुम ताना कसने लगीं.’’

‘‘उस की शादी का तो मुझे 15 दिन से पता है. क्या वह आप को बताने आया?’’

‘‘अच्छा, 15 दिन से पता है तो क्या तुम बधाई देने गईं? सदा दूसरों से ही उम्मीद करती हो, कभी यह भी सोचा है कि अपना भी कोई फर्ज होता है. कोई भी रिश्ता एकतरफा नहीं चलता. सामने वाले को भी तो पता चले कि आप को उस की परवा है.’’

‘‘क्या वह दीपक की शादी में आया था?’’ अभी मीना इतना ही कह पाई थी कि मैं खाना छोड़ कर उठ खड़ा हुआ.

मीना का व्यवहार असहनीय होता जा रहा है. यह सोच कर मैं सिहर उठता कि एक दिन पल्लवी भी दीपक को ले कर अलग रहने चली जाएगी. मेरी उम्र भर की साध मेरा बेटा भी जब साथ नहीं रहेगा तो हमारा क्या होगा? शायद इतनी दूर तक मीना सोच नहीं सकती है.

दुविधा – भाग 3 : किस कशमकश में थी वह?

‘‘आप की बहन और जीजाजी इतनी लड़कियां दिखा चुके हैं, आप को एक भी पसंद नहीं आई? आखिर आप को लड़की में ऐसा क्या चाहिए?’’

मेरे स्वर में थोड़ी तलखी थी, शायद भीतर का कोई डर था. हालांकि यह बेवजह था लेकिन धुआं उठता देख कर मैं डर गई थी, कहीं भीतर कोई चिनगारी न दबी हो जो मेरी घरगृहस्थी को जला कर राख कर दे.

‘‘घर जा कर आईना देखिएगा, स्वयं समझ जाएंगी,’’ सुबोध धीरे से फुसफुसाया था.

इतना सुनते ही मैं वहां उस की नजरों के सामने खड़ी न रह सकी. मैं लौट तो आई लेकिन मेरा दिल इतनी जोर से धड़क रहा था मानो सीने से उछल कर बाहर आ जाएगा.

मैं सुबोध के बारे में सोचने पर मजबूर हो गई. ऊपर से शांत दिखने वाले इस समुद्र की तलहटी में कितना बड़ा ज्वालामुखी छिपा था. अगर कहीं यह फूट पड़ा तो कितनी जिंदगियां तबाह हो जाएंगी.

भले ही मेरी और प्रखर की पहचान 10 वर्ष पुरानी है. मैं ने आज तक कभी उसे शिकायत का कोई मौका नहीं दिया है, फिर भी अगर कभी कहीं से कुछ यों ही सुबोध के बारे में सुनेगा तो क्या होगा? अनजाने में ही अगर सुबोध ने अपनी दीदीजीजाजी से मेरे बारे में या अपनी पसंद के बारे में कुछ कह दिया तो क्या रवि वह सब प्रखर को बताए बिना रहेगा? तब क्या होगा? पतिपत्नी का रिश्ता कितना भी मजबूत, कितना भी पुराना क्यों न हो, शक की आशंका से ही उस में दरार पड़ जाती है. फिर भले ही लाख यत्न कर लो उसे पहले रूप में लाया ही नहीं जा सकता.

हालांकि मुझे लगता था कि सुबोध ऐसा कुछ नहीं करेगा फिर भी मेरा दिल बैठा जा रहा था. मैं सुबोध से कुछ कह भी तो नहीं सकती थी. क्या कहती, किस अधिकार से कहती? हमारे बीच ऐसा था भी क्या जिस के लिए सुबोध को रोकती. मेरी तो कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था. मैं इतनी परेशान हो गई कि हर समय डरीसहमी, घबराई सी रहने लगी.

एक दिन अचानक प्रखर की तबीयत बहुत बिगड़ गई. कई दिनों से उस का बुखार ही नहीं उतर रहा था. उसे अस्पताल में दाखिल करवाना पड़ा लेकिन बीमारी पकड़ में ही नहीं आ रही थी. हालत बिगड़ती देख कर उसे शहर के बड़े अस्पताल में भेज दिया. वहां पहुंचते ही प्रखर को आईसीयू में भरती कर लिया गया. कई टैस्ट हुए, कई बड़े डाक्टर देखने आए. उस की बीमारी को सुनते ही मेरे पैरों तले जमीन निकल गई. प्रखर की दोनों किडनियां बेकार हो गई थीं.

घरपरिवार तथा मित्रों की मदद से उस के लिए 1 किडनी की व्यवस्था करनी थी, वह भी एबी पोजिटिव ब्लड ग्रुप वाले की. किस का होगा यह ब्लड ग्रुप? कौन भला आदमी अपनी किडनी दान करेगा और क्यों? रेडियो, टीवी, अखबार तथा स्वयंसेवी संस्थाओं के माध्यम से हम हर कोशिश में जुट गए.

2 दिनों बाद डाक्टर ने आ कर खुशखबरी दी कि किडनी डोनर मिल गया है. उस के सब जरूरी टैस्ट भी हो गए हैं. आशा है प्रखर जल्दी ठीक हो जाएगा.

मैं पागलों की भांति उस फरिश्ते से मिलने दौड़ पड़ी. डाक्टर के बताए कमरे में जाते ही मेरी आंखें फटी की फटी रह गईं. मेरे सामने पलंग पर सुबोध लेटा था. मेरे कदम वहीं रुक गए. मैं कुछ भी कहने की स्थिति में नहीं थी. प्रखर के जीवन का प्रश्न था जो पलपल मौत की तरफ बढ़ रहा था. मुझे इस तरह सन्न देख कर वह बोला, ‘‘वह तो रवि जीजाजी से पता लगा कि उन के दोस्त, प्रखर बहुत सीरियस हैं. सौभाग्य से मेरा ब्लडग्रुप भी एबी पौजिटिव है इसलिए…’’

‘‘आप को पता था न, प्रखर मेरे पति हैं?’’ पता नहीं मैं ने यह सवाल क्यों किया था.

‘‘मेरे लिए आप की खुशी माने रखती है, बीमार कौन है यह नहीं.’’

शब्द जैसे उस के दिल की गहराइयों से निकल रहे थे. एक बार फिर उस ने मुझे निरुत्तर कर दिया था. मैं भारी कदमों, भारी दिल से लौट आई थी. प्रखर उस समय ऐसी स्थिति में ही नहीं था कि पूछता कि उसे जीवनदान देने वाला कौन है, कहां से आया है, क्यों आया है?

औपरेशन हो गया. औपरेशन सफल रहा. दोनों की अस्पताल से छुट्टी हो गई. प्रखर स्वस्थ हो रहा है. उसे पता लग चुका है कि उसे किडनी दान करने वाला कोई और नहीं रवि का साला सुबोध ही है, जो मेरे ही औफिस में काम करता है. वह दिनरात तरहतरह के सवाल पूछता रहता है फिर भी बहुत कुछ ऐसा है जो वह पूछना तो चाहता है लेकिन पूछ नहीं पाता.

सवाल तो अब मेरे अंदर भी सिर उठाते रहते हैं जिन के जवाब मेरे पास नहीं हैं या मैं उन्हें तलाशना ही नहीं चाहती. डरती हूं, यदि कहीं मुझे मेरे सवालों के जवाब मिल गए तो मैं बिखर ही न जाऊं.

आजकल प्रखर बहुत बदल गया है. डाक्टरों के इतना समझाने के बावजूद वह फिर से पीने लग गया है. कभी सोचती हूं एक दिन उस से खुल कर बात करूं. फिर सोचती हूं क्या बात करूं? किस बारे में बात करूं? हमारे जीवन में किस का महत्त्व है? उन 2-4 वाक्यों का जो इतने वर्षों में सुबोध ने मुझ से बोले हैं या उस के त्याग का जिस ने प्रखर को नया जीवन दिया है?

मैं अजीब सी कशमकश में घिरती जा रही हूं. प्रखर के पास होती हूं तो यह एहसास पीछा नहीं छोड़ता कि प्रखर के बदन में सुबोध की किडनी है जिस के कारण प्रखर आज जीवित है. हमारे न चाहते हुए भी सुबोध हम दोनों के बीच में आ गया है.

जबजब सुबोध को देखती हूं तो एक अनजाना सा डर पीछा नहीं छोड़ता कि उस के पास अब एक ही किडनी है. हर सुबह औफिस पहुंचते ही जब तक उसे देख नहीं लेती, मुझे चैन नहीं आता. उस के स्वास्थ्य के प्रति भी चिंतित रहने लगी हूं.

मेरा पूरा वजूद 2 भागों में बंट गया है. ‘जल बिन मछली’ सी छटपटाती रहती हूं. आजकल मुझे किसी करवट चैन नहीं. मैं जानती हूं प्रखर को मेरी खुशी प्रिय है इसीलिए मुझ से न कुछ कहता है, न कुछ पूछता है. बस, अंदर ही अंदर घुट रहा है. दूसरी तरफ बिना किसी मांग, बिना किसी शर्त के सुबोध को मेरी खुशी प्रिय है लेकिन क्या मैं खुश हूं?

सुबोध को देखती हूं तो सोचती हूं काश, वह मुझे कुछ वर्ष पहले मिला होता तो दूसरे ही पल प्रखर को देखती हूं तो सोचती हूं काश, सुबोध मिला ही न होता. यह कैसी दुविधा है? मैं यह कैसे दोराहे पर आ खड़ी हुई हूं जिस का कोई भी रास्ता मंजिल तक जाता नजर नहीं आता.

आग और धुआं- भाग 1: क्या दूर हो पाई प्रिया की गलतफहमी

करीब 2 साल तक अमित और मेरा रोमांस चला और फिर हम ने शादी कर ली. सुखद वैवाहिक जीवन के लिए दोनों तरफ के परिवारजनों ने अपने आशीर्वाद हमें खुश हो कर दिए.

जिंदगी में रोमांस करने का अपना मजा है. बहुत खूबसूरत थे वे दिन जब हम घंटों घूम कर ढेर सारी बातें करते. भविष्य के रंगीन सपने तब हमारे मन को रातदिन गुदगुदाते थे.

‘‘मैं तुम्हें बहुत खुश और सुखी रखूंगा, प्रिया. कितनी प्यारी, कितनी सुंदर और समझदार हो तुम,’’ अमित की ऐसी बातें सुन कर मैं हवा में उड़ने लगती.

‘‘जिंदगी के सफर में तुम हर कदम पर मेरे साथ बने रहोगे, तो मुझे और कुछ भी नहीं चाहिए,’’ दिल की गहराइयों से ऐसे शब्द मेरे होंठों तक आते.

शादी के बाद मैं ने रंगीन सपनों को सचाई बनते देखा. अमित की मजबूत बांहों के घेरे में मैं ने आनंद और मस्ती की असीम ऊंचाइयों को छुआ. मेरे रात और दिन महक उठे. मैं उन के साथ चलती तो प्रतीत होता मानो नाच रही हूं. उन्हें छू कर, निहार कर भी दिल नहीं भरता.

‘‘शादी से पहले मुझे कभी अंदाजा तक नहीं हुआ कि तुम जादूगर भी हो,

अमित. मुझे पूरी तरह से वश में कर के दिल जीत लिया है तुम ने,’’ मैं ने अपने दिल की यह बात मनाली में बिताए 10 दिनों के हनीमून के दौरान शायद 100 से ज्यादा बार अमित से कही होगी.

शादी के करीब 2 महीने बाद ससुराल छोड़ कर दिल्ली से हम नोएडा के छोटे से किराए के फ्लैट में रहने चले आए. ट्रैफिक जाम के कारण अमित को घर से आफिस तक आनेजाने में बहुत ज्यादा वक्त लगता था. उन्हें थकावट और चिड़चिड़ेपन से बचाने के लिए सब बड़ों की सलाह पर हम ने यह कदम उठाया था.

नोएडा में बिताए पहले 2 महीनों में मेरी वैवाहिक जिंदगी के सारे सुख और खुशियां धीरेधीरे तबाह होती चली गईं. मेरी जिंदगी में तबाही मचाने वाला यह तूफान निशा के रूप में आया.

निशा अमित के साथ काम करती थी. हमारे फ्लैट में अकसर अमित के सहयोगी दोस्त छुट्टी वाले दिन इकट्ठे हो कर मौजमस्ती करते थे. निशा ऐसे मौकों पर हमेशा उपस्थित रहती. निशा के मातापिता सहारनपुर में रहते थे. नौकरी के लिए उसे नोएडा आना पड़ा तो आरंभ में वह अपने एक रिश्तेदार के घर में रही.

कुछ दिनों में आपसी अनबन के कारण उसे वह जगह छोड़नी पड़ी. अब वह अपनी एक सहेली के साथ आफिस के पास ही हमारे जैसा फ्लैट किराए पर ले कर रह रही थी. घर  पासपास होने की वजह से वह अकसर मार्केट जाते समय फ्लैट के सामने से गुजरती तो बस हाय, हैलो ही हो पाती.

मुझे उस का व्यक्तित्व से बड़ा दिलचस्प लगता. उस का कद लंबा और फिगर बड़ी जानदार थी. मैं ने उसे हमेशा टाइट जींस और टीशर्ट पहने देखा. साधारण नैननक्श होने के बावजूद वह खूब खुल कर सब से हंसनेबोलने वाले दोस्ताना स्वभाव के कारण काफी आकर्षक नजर आती.

विवाह के तोहफे के रूप में उस ने हमें सैल से चलने वाला एक सुंदर शोपीस दिया. उस में एक प्रेमीप्रेमिका बालरूम डांस की मुद्रा में सट कर खड़े थे. ‘औन’ करने पर वे गोलगोल घूमने लगते और हलके कर्णप्रिय संगीत की लहरें हर तरफ बिखर जातीं.

‘‘प्रिया, तुम कितनी सुंदर हो. काश, मैं भी तुम जैसी होती तो कोई अमित मुझे भी अपने दिल की रानी बना लेता,’’ मेरी यों प्रशंसा कर के निशा ने पहली मुलाकात में ही मेरा दिल जीत लिया.

उस के पास वक्त की कमी नहीं थी. कार्य दिवसों मेें भी वह शाम को घूमते हुए हमारे घर पर दूसरेतीसरे दिन चली आती. कुछ दिनों में हम अच्छी सहेलियां बन गईं. किसी भी विषय पर अगर अमित और मेरे नजरिए में अंतर होता तो वह हमेशा मेरा पक्ष लेती. हम दोनों मिल कर अमित की खूब टांग खींचते.

हमारे बीच दोस्ती की जडें मजबूत हो जातीं, उस से पहले ही मुझे उस के असली रूप व मकसद की जानकारी मिल गई.

अमित के एक सहयोगी ने अपने प्रमोशन की पार्टी बैंक्वेट हाल में दी. इसी पार्टी के दौरान कविता और शिखा ने मुझे निशा के प्रति खबरदार किया. ये दोनों अमित के आफिस में ही काम करती थीं और हम पहले भी कई बार मिल चुके थे.

‘‘मैं ने सुना है कि निशा तुम्हारे घर खूब आतीजाती है,’’ कविता ने जब यह चर्चा की तब हमारे आसपास ऐसा कोई न था जो हमारी बातें सुन सके.

‘‘उस के साथ हमारा समय अच्छा गुजर जाता है,’’ मैं ने मुसकराते हुए जवाब दिया.

‘‘प्रिया, जो तुम्हारे वैवाहिक जीवन की खुशियों को उजाड़ने पर तुली है, उस लड़की को तुम्हें अपने घर में कदम नहीं रखने देना चाहिए,’’ शिखा की आंखों में चिंता व गुस्से के मिलेजुले भावों को पढ़ कर मैं बेचैन हो उठी.

‘‘ऐसा क्यों कह रही हैं आप?’’ मैं ने परेशान लहजे में पूछा.

‘‘सारा आफिस जानता है कि अमित उस के चक्कर में फंसा हुआ है. उस का

तो शौक है दूसरों के पतियों पर डोरे डालने का. तुम बहुत भोली हो और तभी हम ने आज तुम्हें आगाह करने का फैसला किया.’’

‘‘मैं ने तो आज तक अमित के साथ उसे कुछ गलत ढंग से व्यवहार करते कभी नहीं देखा,’’ मैं ने अपने पति व निशा का पक्ष लिया.

‘‘तुम्हारे सामने उन्हें कुछ करने की जरूरत ही क्या है, यार. अरे, निशा का फ्लैट है न और तुम्हारा अमित शादी के बाद भी उस से मिलने वहां जाता रहता है, प्रिया.’’

‘‘मुझे अमित ने बताया है कि कभीकभी आफिस समाप्त होने के बाद वह उस के फ्लैट पर चाय पीने निशा के साथ चले जाते हैं, लेकिन ऐसा करने में बुराई क्या है?’’

मेरे इस सवाल के जवाब में वे दोनों कुछ ऐसे अंदाज में हंसी कि अमित पर मेरा विश्वास एकदम डगमगा गया. अचानक ही मेरे मन में असुरक्षा और डर के भाव पैदा हो गए.

‘‘प्रिया, इस निशा ने जो सुंदर गोल्ड के टौप्स पहन रखे हैं, ये कुछ महीने पहले अमित ने उसे उस के जन्मदिन पर दिए थे. अब तुम ही बताओ कि कोई युवक क्या अपनी सहयोगी युवती को सोने के टौप्स उपहार में देता है?’’

‘‘निशा ने जो शोपीस तुम्हें दिया है, उस में जो लड़का है, वह अमित है, पर लड़की तुम नहीं हो. निशा सब को बताती फिरती है कि वह खुद ही वह लड़की है, क्योंकि तुम्हारा कद उस शोपीस वाली लड़की की तरह लंबा नहीं है. अमित उस शोपीस को देख कर उसे याद करता रहे, इसलिए दिया है उस ने वह उपहार.’’

कविता और शिखा की इन बातों को सुन कर मेरे मन की सुखशांति उसी वक्त खो गई. उन के जाने के बाद मैं ने अमित को ढूंढ़ने के लिए अपनी दृष्टि हाल में चारों तरफ घुमाई. अमित जिस समूह में खड़ा हो कर बातें कर रहा था, उस में निशा भी उपस्थित थी. मेरे देखते वे सब लोग अचानक किसी बात पर हंस पड़े. शायद निशा की टांग खींची थी अमित ने, क्योंकि मैं ने उसे अपने पति की पीठ पर नकली नाराजगी के साथ हलकी ताकत से घूंसे मारते देखा. उस की इस हरकत पर एक और सामूहिक ठहाका सब ने लगाया.

जिंदगी ब्लैक ऐंड व्हाइट नहीं होती- भाग 3: आशिक मिजाज बॉस की कहानी

तनहा रूपेश क्या करे? कौन उस का सहारा बन सकता है? क्या रमला खुद…

नहीं, कहीं ऐसा न हो कि उस की रूपेश के प्रति सहानुभूति उलटी उसी के पति को गलतफहमी का निशाना बना दे… नहीं कुछ और सोचना पड़ेगा. जब से वह रूपेश से मिली है, उस का उदास चेहरा आंखों के आगे से हटता ही नहीं है.

हफ्ता गुजर गया. एक शाम मिहिर झूमतागाता घर में घुसा. उस के हाथ में एक कागज था. रमला के पास जा कर प्यार से बोला, ‘‘रोमी जान एक खुशखबरी…’’

‘‘क्या?’’

‘‘मेरी प्रमोशन…’’

‘‘क्या हुआ?’’

‘‘प्रमोशन और एक ऐक्स्ट्रा इंक्रीमैंट भी मिला है. देखो, मैं ने कहा था न… तुम उसे तरीके से संभालना जानती हो.’’

मिहिर की आखिरी बात उसे छू गई. परंतु उस दिन की कोई बात बता कर मिहिर की खुशी को कम करना नहीं चाहती थी. ठीक है अभी नहीं फिर कभी बताना तो पड़ेगा ही.

आखिर एक दिन मौका देख कर रमला ने उस दिन हुई बातचीत को ज्यों का त्यों मिहिर के सामने रख दिया.

‘‘अच्छा ऐसा है… पर बौस

ने कभी किसी भी औफिस कर्मचारी को नहीं बताया कि उन के साथ इतनी भयानक दुर्घटना घटी है.

वैसे मुझे तो सुन कर भी विश्वास नहीं होता.’’

‘‘यही सच है. तभी तो लड़कियों से नफरत करता है, क्योंकि हर लड़की में उसे भावना नजर आती है.’’

मिहिर भी सोच में पड़ गया कि तभी वह औरतों के साथ कोई गलत काम नहीं करता. सिर्फ शराब पीता है, उन के साथ हंसीमजाक करता है और फिर गिफ्ट दे कर खुश होता है… हम सब मजाक उड़ाते थे. मिहिर सब सुन कर दुखी व परेशान था.

कुछ देर बाद रमला ने मुंह खोला, ‘‘एक बात कहूं?’’

‘‘हां, बोलो,’’ मिहिर पत्नी का चेहरा देख रहा था.

‘‘यदि तुम मुझे इजाजत दो तो मैं रूपेश से कुछ बातें करूं? कहीं तुम्हें बुरा तो नहीं लगेगा?’’

‘‘देखो रमला तुम मेरी पत्नी हो. हमारे बीच विश्वास और प्यार का रिश्ता है. मैं जानता हूं कि रूपेश जिसे तुम बचपन से जानती हो उसे इस हालत में देख कर कितना धक्का लगा होगा. अगर तुम्हारे प्रयास से मेरे बौस के जीवन में बदलाव आ जाए तो मुझ से ज्यादा कोई खुश नहीं होगा. यह बताओ मैं तुम्हारी कोई मदद कर सकता हूं?’’

‘‘हां, रूपेश से कहो कि हम लोग एक दिन उस के घर आना चाहते हैं.’’

‘‘ठीक है.’’

रूपेश समझ गया कि रमला उस के घर पर उस से मिल कर तय करना चाहती है कि क्या करना है.

एक रोज मिहिर और रमला दोनों रूपेश के घर पहुंचे. उस दिन इतवार था. दरवाजे पर दोनों को खड़ा देख रूपेश चौंका. शायद वह भूल गया था कि मिहिर व रमला ने आना है. अस्तव्यस्त घर, टूटी शराब की बोतलों का ढेर, फटे हुए कागज… घर नहीं, कबाड़ी की दुकान थी. रूपेश ने सोफा खाली कर के दोनों को बैठाया.

झेंप मिटाने के लिए मिहिर यह बहाना कर खिसक लिया कि शायद मैं गाड़ी को लौक करना भूल गया हूं. अभी आता हूं.

‘‘देखो, रूपेश मैं तुम्हें बचपन से जानती हूं. यह भी जानती हूं कि तुम जैसे संजीदा, सीधेसच्चे ईमानदार व्यक्ति का मन एक बार टूट जाए तो उसे समेटना आसान नहीं होता है. आज तुम वे रूपेश नहीं रहे जो 10 साल पहले थे.

‘‘तुम्हारे साथ भावना ने विश्वासघात किया. क्यों किया नहीं जानना चाहती. वह अब कहां

है, कैसी है यह भी मैं जानना नहीं चाहती पर तुम ने गहरी चोट खाई है. तुम अभी तक उसे भूले नहीं हो.

‘‘जीवन एक युद्ध है. कितनी बार हम चोट खाते हैं, हारते हैं, जीतते हैं पर यह युद्ध कभी खत्म नहीं होता. हारे हैं तो जीत भी तो उस के बाद ही है… तुम इस में अपने को दोषी क्यों मानते हो? दुखी तो भावना को होना चाहिए. गलती तो उस की है जो उस ने उच्च आदर्शों वाले रूपेश को समझने की कोशिश ही नहीं की. यहां गलती उस की है. उसे तो जरा भी पछतावा नहीं हुआ यानी वह स्वार्थी है. अच्छा ही हुआ, पीछा छूटा.

‘‘अब अतीत को भूल जाओ और खुद को संभालो. नए सिरे से जीवन को नया मोड़ दो… नए दोस्त बनाओ और खुश रहो… ‘बी क्रिएटिव.’’

रूपेश हैरान सा रमला का चेहरा देख रहा था.

‘‘वह पेंटिंग्स बनाने का तुम्हारा पैशन कहां गया? अभी भी चल रहा है न…? डूब जाओ

उस में…’’

‘‘नहीं अब मन नहीं करता,’’ रूपेश ने डूबी आवाज में कहा.

‘‘अरे, तुम्हारी व्यथा को कैनवस, ब्रश और रंगों से अधिक कौन समझेगा.

मनोस्थिति, दुख को उस पर उकेरो… कर के तो देखो रूपेश… तुम्हीं ने एक बार कहा था कि जिंदगी ब्लैक ऐंड व्हाइट नहीं होती. इस में सैकड़ों रंग हैं. कैनवस पर वे सैकड़ों रंग बिखेरेंगे तो अवसाद का काला रंग कहीं खो जाएगा.’’

रूपेश उस की बातों को बड़े ध्यान से सुन रहा था. रमला की हर बात उसे छू रही थी.

‘‘मैं अगले संडे आती हूं. हम तीनों एक पेंटिंग ऐग्जिबिशन में चलेंगे. यह प्रदर्शनी मशहूर शुचि खन्ना ने लगाई है.’’

रमला के जाने के बाद रूपेश को याद आया कि पिछली बार वह भावना के साथ एक प्रदर्शनी में गया था. भावना बोर हो रही थी, दोनों बीच से ही वापस आ गए थे. उसे बहुत बुरा लगा था पर आज नहीं…

प्रदर्शनी देख कर रूपेश पुरानी फौर्म में आ गया. आज उस में जोश था, खुशी थी. रमला व मिहिर के साथ रहते हुए अपनेआप को ऐनर्जेटिक महसूस करता था.

यों ही हंसीखुशी महीना गुजर गया. एक दिन मिहिर ने बताया, ‘‘रूपेश सर का लखनऊ ट्रांसफर हो गया है.’’

रूपेश के जाने के बाद मिहिर व रमला अकसर उस की बातें करते.

2 साल बीत गए. एक दिन उन के हाथ में खूबसूरत सा कार्ड था.

‘‘मिहिर व रमला, मैं ने रिचा नाम की एक आर्टिस्ट से विवाह कर लिया है. हमारी शैली नाम की छोटी सी बिटिया है. अगले महीने की 10 तारीख को हम दोनों को एक छोटी सी प्रदर्शनी लगानी है. इस पेंटिंग प्रदर्शनी का उद्घाटन करने तुम दोनों को आना है. आज मैं

जो भी हूं तुम लोगों की प्रेरणा से हूं. आ कर

देखो जीवन में सैकड़ों रंग बिखर गए हैं. सच जिंदगी ब्लैक ऐंड व्हाइट नहीं होती.

-रूपेश, रिचा’’

पत्र पा कर रमला खुश थी कि उस ने जीवन में किसी की जिंदगी में बदलाव लाया है. वाकई जिंदगी रंगों से भर गई है रूपेश की.

रूपेश ने कहा ही नहीं सिद्ध भी कर दिया कि जिंदगी ब्लैक ऐंड व्हाइट नहीं होती, रंगों को सिर्फ छिटकाना आना चाहिए.

दुविधा – भाग 2 : किस कशमकश में थी वह?

मेरे इतना कहते ही उस के चेहरे पर दुख की ऐसी काली छाया दिखाई दी मानो हवा के तेज झोंके से बदली ने सूरज को ढक लिया हो. उस की आंखें मेरे चेहरे पर ऐसे टिक गईं मानो जानना चाहती हों, कहीं मैं मजाक तो नहीं कर रही.

लेकिन यह सच था. एक पल के लिए मुझे भी लगा कि भले ही यह सच था लेकिन मुझे उसे ऐसे सपाट शब्दों में नहीं बताना चाहिए था. वह प्लेट ले कर डाइनिंग टेबल के दूसरे छोर की कुरसी पर जा बैठा. वह लगातार मुझे देख रहा था. वह बहुत उदास था. शायद उस की आंखें भी नम थीं. मैं ने खाना खाते हुए उसे कई बार बहाने से देखा था. वह सिर्फ बैठा था, उस ने खाना छुआ भी नहीं था. मुझे यह सब अच्छा नहीं लग रहा था लेकिन मैं क्या करती? ऐसे में उस से क्या कहती?

शादी में औफिस से बहुत से लोग आए लेकिन सुबोध नहीं आया. हां, औफिस वालों के हाथ उस ने बहुत ही खूबसूरत तोहफा जरूर भिजवाया था. क्रिस्टल का बड़ा सा फूलदान था, जिस ने भी देखा तारीफ किए बिना न रह सका.

विवाह होते ही मैं और प्रखर अपनी नई दुनिया में खो गए. हम ने वर्षों इस सब के लिए इंतजार किया था. हमें लग रहा था, हम बने ही एकदूसरे के लिए हैं. शादी के बाद हम विदेश घूमने चले गए.

महीनेभर की छुट्टियां कब खत्म हो गईं पता ही नहीं चला. मैं औफिस आई तो सहकर्मियों ने सवालों की झड़ी लगा दी. कोई ‘छुट्टियां कैसी रहीं’ पूछ रहा था,  कोई नई ससुराल के बारे में जानना चाह रहा था, कोई प्रखर के बारे में पूछ कर चुटकी ले रहा था. वहीं, कोई शादी के अरेंजमेंट की तारीफ कर रहा था तो कोईकोई शादी में न आ पाने के लिए माफी भी मांग रहा था.

सब से फुरसत पा कर जब सामने वाले केबिन पर मेरी नजर पड़ी तो वहां सुबोध की जगह कोई अधेड़ उम्र का व्यक्ति चश्मा पहने बैठा था. मेरी नजरें पूरे हौल में एक कोने से दूसरे कोने तक सुबोध को तलाशने लगीं. वह कहीं नजर नहीं आया. मैं उसे क्यों तलाश रही थी, मेरे पास इस सवाल का कोई जवाब नहीं था. पता नहीं मुझे उस से हमदर्दी थी या मुझे उस को देखने की आदत सी हो गई थी. खैर, जो भी था मुझे उस की कमी खल रही थी.

कुछ दिनों बाद मुझे पता लगा था कि सुबोध ने ही अपना तबादला दूसरे डिवीजन में करवा लिया था जो थोड़ी दूर, दूसरी बिल्ंिडग में है. सुबोध यहां से चला तो गया था लेकिन कुछ यहां ऐसा छोड़ गया था जो औफिस में यदाकदा उस की याद दिलाता रहता था. विशेष रूप से जब काम करतेकरते कभी अपनी नजर ऊपर उठाती तो सुबोध को वहां न पा कर कुछ अच्छा नहीं लगता था.

समय बीत रहा था. घर पहुंचते ही एक दूसरी दुनिया मेरा इंतजार कर रही होती थी, जिस में मेरे और प्रखर के अलावा किसी तीसरे के लिए कोई जगह नहीं थी. दिनरात जैसे पंख लगा कर उड़े चले जा रहे थे. घूमनाफिरना, दावतें, मिलना- मिलाना आदि यानी हमारे जीवन का एक दूसरा ही अध्याय शुरू हो गया था.

6 महीने कैसे बीत गए, कुछ पता ही नहीं लगा. एक सुबह मैं अपनी सीट पर जा कर बैठी तो यों ही नजर सामने वाले कैबिन पर पड़ी तो सुबोध को वहां बैठे पाया. पलभर को तो अपनी आंखों पर यकीन ही नहीं हुआ लेकिन यह सच था. सुबोध वापस लौट आया था, पता नहीं यह औफिस की जरूरत थी या सुबोध की. किस से पूछती, कौन बताता?

इस बात को कई सप्ताह बीत गए लेकिन हमारे बीच कभी कोई बात नहीं हुई. इस के लिए न कभी सुबोध ने कोई कोशिश की न ही मैं ने. मैं ने न तो उस से शादी में न आने का कारण पूछा और न उस खूबसूरत तोहफे के लिए धन्यवाद ही दिया. हमारे बीच ज्यादा बातचीत का सिलसिला तो पहले भी नहीं था लेकिन अब एक अबोला सा छा गया था.

अब जब भी हमारी नजरें आपस में यों ही टकरा भी जातीं तो न वह पहले की भांति मुसकराता और न ही मैं मुसकरा पाती. वैसे उस की नजरों को मैं ने अकसर अपने आसपास ही महसूस किया है. एक सुरक्षा कवच की भांति उस की नजरें मेरा पीछा करती रहती हैं. मैं समझ नहीं पाती कि क्या नाम दूं उस की इस मूक चाहत को?

समय इस सब से बेखबर आगे बढ़ रहा था. हमारा एक बेटा हो गया. अब मेरी जिम्मेदारियां बहुत बढ़ गई थीं. ऐसे में समय अपने लिए ही कम पड़ने लगा था और कुछ सोचने का समय ही कहां था? मेरा जीवन घर, बेटे और औफिस में ही उलझ कर रह गया था. वैसे भी मैं उम्र के उस पड़ाव पर पहुंच गई थी जहां अपनी घरगृहस्थी के आगे औरत को कुछ सूझता ही नहीं.

हां, प्रखर जरूर घर से बाहर दोस्तों के साथ ज्यादा रहने लगा था क्योंकि औफिस के बाद क्लब और पार्टियों में जाने की न तो मेरा थकाहारा शरीर आज्ञा देता, न मेरा मन ही इस के लिए राजी होता था. लेकिन प्रखर को रोकना मुश्किल था. बड़ी तनख्वाह, बड़ी गाड़ी, महंगा सैलफोन, कीमती लैपटौप, पौश कौलोनी में बढि़या तथा जरूरत से बड़ा फ्लैट वगैरह सब कुछ हो तो व्यक्ति क्लब, दोस्तों और पार्टियों पर ही तो खर्च करेगा? पहले दोस्तों के बीच कभीकभी पीने वाला प्रखर अब लगभग हर रात पीने लगा था. यह बात अलग है कि वह पीता लिमिट में ही था.

एक रात प्रखर क्लब से लौटा तो मैं बेटे को सुला रही थी. मेरे पास बैठते हुए बोला, ‘‘तुम्हारे औफिस में कोई सुबोध शर्मा है?’’

मैं इस सवाल के लिए बिलकुल तैयार नहीं थी. प्रखर सुबोध के बारे में क्यों पूछ रहा है? वह सुबोध के बारे में क्या जानता है? उसे सुबोध के बारे में किस ने क्या बताया है? एकसाथ न जाने कितने ही सवाल मेरे दिमाग में उठ खड़े हुए.

‘‘क्यों?’’ न चाहते हुए भी मेरे मुंह से निकल गया.

‘‘बस, यों ही, आज बातोंबातों में रवि बता रहा था. सुबोध, रवि का साला है. उसे घर वाले लड़कियां दिखादिखा कर परेशान हो गए हैं, वह शादी के लिए राजी ही नहीं होता. बूढ़ी मां बेटे के गम में बीमार रहने लगी है. वह तो रवि ने तुम्हारे औफिस का नाम लिया तो सोचा तुम जानती होगी. पता तो लगे आखिर सुबोध क्या चीज है जो कोई लड़की उसे पसंद ही नहीं आती.’’

प्रखर बोले जा रहा था और मेरी परेशानी बढ़ती जा रही थी. मैं खीज उठी, ‘‘इतना बड़ा औफिस है, इतने डिवीजन हैं. क्या पता कौन सुबोध है जो तुम्हारे दोस्त रवि का साला है. नहीं करता शादी तो न करे, इस से तुम्हारी सेहत पर क्या फर्क पड़ता है?’’

कुछ तो प्रखर नशे में था उस पर मेरी दिनभर की थकान का खयाल कर वह इस बेवक्त के राग से स्वयं ही शर्मिंदा हो उठा.

‘‘तुम ठीक कहती हो, अब नहीं करता शादी तो न करे. रवि जाने या उस की बीवी, अब आधी रात को इस से हमें क्या लेनादेना है,’’ कह कर प्रखर तो कपड़े बदल कर सो गया लेकिन मैं रातभर सो न सकी. कितनी शंकाएं, कितने प्रश्न, कितने भय मुझे रातभर घेरे रहे.

अगले ही दिन जब ज्यादातर स्टाफ लंच के लिए जा चुका था, मैं सुबोध के केबिन में गई. मुझे अचानक आया देख कर वह हड़बड़ा कर उठ खड़ा हुआ. मैं ने घबराई सी नजर अपने आसपास के स्टाफ पर डाली और उसे बैठने का इशारा करते हुए पूछा, ‘‘आप शादी क्यों नहीं कर रहे? आप के परिवार वाले कितने परेशान हैं?’’

एकाएक मेरे इस प्रश्न से वह चौंक उठा. शायद उसे कुछ ठीक से समझ भी नहीं आया होगा.

जिंदगी ब्लैक ऐंड व्हाइट नहीं होती- भाग 1: आशिक मिजाज बॉस की कहानी

रमलाने दीवार घड़ी में समय देखा. रात के 12 बजे थे. पति मिहिर अभी तक घर नहीं पहुंचा था. कुछ देर पहले उस ने मिहिर को फोन किया तो जवाब मिला कि दिस नंबर इज नौट रीचेबल. मन घबरा गया. मिहिर को इतनी देर कभी नहीं होती थी फिर आज क्यों? कहीं कोई दुर्घटना तो नहीं हो गई? यह नौट रीचेबल क्यों आ रहा है?

रमला के मन में बुरेबुरे खयाल आ रहे थे. सोचने लगी कि यह शहर मेरे लिए बिलकुल नया है. आसपास किसी से परिचय नहीं है. किसे जगाएगी… आधी रात हो गई है. अपने शहर आगरा में पूरी गली में अपनी पहचान वाले थे. वहां तो आधी रात को भी किसी का भी दरवाजा खटका देती थी.

मिहिर पिछले 5 सालों से दिल्ली में रह रहा है. उस के यारदोस्तों की लिस्ट भी लंबी है. औफिस के दोस्तों के साथ अकसर पिक्चर चला जाता, पर देर होने पर फोन अवश्य करता है.

अकसर बौस के साथ औफिस में रुक कर फाइलें निबटाता है तब भी देर हो जाती है.

देखना, आते ही बोलना शुरू हो जाएगा कि बौस के मेन औफिस में कल मीटिंग है. उस के ही पेपर तैयार कर रहा था. बस, देर हो गई. मिहिर बौस के बारे में कई बार बता चुका है. उसे मेहनती और ईमानदार लोगों में खास दिलचस्पी है. नालायक लोगों से नफरत है. वैसे आदमी दिलचस्प है, मेहनती है. लोगों से काम कराना भी आता है, पर पक्का छोकरीबाज है. हर शाम उस के साथ एक लड़की अवश्य होती है. खूब शौपिंग कराता है, गिफ्ट भी खूब देता है. लड़कियां उस के साथ खुश रहती हैं.

यों वह मिहिर पर भी मेहरबान है. मगर रमला उस के नाम से चिढ़ती है, क्योंकि उस ने मिहिर की प्रमोशन फाइल दबा रखी है.

‘‘तुम्हारे साथ के कितने साथी प्रमोट हो कर आगे बढ़ गए, तुम 2 साल से वहीं हो,’’ एक दिन इसी बात को ले कर रमला बहुत बिगड़ी. तब मिहिर ने कहा, ‘‘तुम से मैं इशारोंइशारों में कई बार कह चुका हूं कि बौस को शौपिंग करनी है तुम उस की हैल्प कर दो… मेरे सारे दोस्तों की पत्नियों के साथ वह शौपिंग कर चुका है. वह सिर्फ तुम से मिलना चाहता है. औफिस की सभी लड़कियां उस के साथ जा कर खुश होती हैं. औफिस गर्ल्स के साथ छिछोरापन नहीं करता है.’’

‘‘छोड़ो. तुम्हें कैसे पता ये सब… यह भी कोई प्रमोशन की शर्त है?’’

‘‘देखो मुझ से ज्यादा छानबीन मत करो. नहीं जाना तो मत जाओ,’’ मिहिर भी उस की बात पर ताव खा गया. फिर रमला को छोड़ ड्राइंगरूम में चला गया.

इस बात को काफी दिन हो गए. बात वहीं अटकी है.

तभी स्कूटर की आवाज से रमला की सोच टूटी. वह जान गई कि पति आ गए हैं. जानती है घर में घुसते ही बौसपुराण शुरू हो जाएगा. सो डोरबैल बजने से पहले ही दरवाजा खोल कर रसोई में खाना गरम करने चली गई.

खाने की मेज पर दोनों चुप थे. खाना खत्म हो गया तो मिहिर ने धीरे से कहा, ‘‘कल औफिस में बाहर से कुछ लोग आ रहे हैं. वे यहां से शौपिंग करना चाहते हैं. तुम उन की हैल्प करोगी? देखो, गुस्सा मत होना. पहले पूरी बात सुन लो. दरअसल, बौस को अपनी पत्नी के लिए बनारसी साड़ी खरीदनी है. सो तुम साथ होगी तो शौपिंग ईजी होगी. सब से बड़ी बात मैं भी उन के साथ रहूंगा.’’

रमला बड़ी देर तक सोचती रही कि वैसे साथ जाने में हरज ही क्या है. साथ

में इतने सारे लोगों… पति की इतनी सी बात तो मान ही सकती है. फिर मर्दों को औरतों के कपड़ों की पहचान कहां होती है? फिर बोली, ‘‘ठीक है चलूंगी.’’

‘‘ठीक है मैं चलने से पहले तुम्हें बता दूंगा.’’

ठीक 5 बजे शाम को मिहिर का फोन आया, ‘‘रमला जल्दी से तैयार हो जाओ. हम आधे घंटे में घर पहुंच रहे हैं.’’

रमला साड़ी बदलने अंदर गई और कुछ देर बाद दरवाजा धकेलने की आवाज से समझ गई कि दोनों आ गए हैं.

वह तैयार हो कर आई तो मिहिर को कोक सर्व करते देखा.

‘‘नमस्ते सर,’’ रमला की आंखें बौस के चेहरे पर जमीं. बौस का चेहरा कुछ जानापहचाना सा लगा.

नमस्ते के जवाब के साथ बौस का स्वर उभरा, ‘‘तुम… तुम रमला हो?’’

‘‘जी, सर. आप रूपेश, सर?’’

‘‘ओह, तो मिहिर यह तुम्हारी पत्नी रमला है,’’ वह कुछ झिझका, ‘‘वह क्या है मिहिर हम एकदूसरे को पहले से जानते हैं.’’

‘‘ओह गुड सर,’’ मिहिर इस मुलाकात से खुश था.

‘‘याद है रमला तुम अकसर पापा की दुकान पर आती थीं.’’

रमला ने हां में सिर हिला दिया.

‘‘हां, फिर सुना तुम्हारे पापा बीमार हो गए थे. शायद तुम्हारी मां और मेरे पापा एक ही हौस्पिटल में थे. बाद में मेरे पापा का इंतकाल हो गया.’’

‘‘हां, याद आया.’’

रमला और मिहिर दोनों एक ही शहर से हैं और साथ पढ़े भी हैं यह जान कर मिहिर ने मन ही मन कहा कि अब तो प्रमोशन की दबी फाइल झट से बौस की टेबल पर आ जाएगी.

बातों का सिलसिला जारी रहा. तीनों गाड़ी में आ बैठे. कुछ देर में रूपेश गाड़ी ड्राइव करने लगा. मिहिर बगल में बैठा था और रमला पीछे.

3 लोग 3 दिशाओं में सोच रहे थे… रूपेश सोच रहा था कि वह कभी रमला के प्रति आकर्षित था. तब वह 10वीं कक्षा में था. घर में कड़ा अनुशासन था. सो रमला से बात करने की हिम्मत ही नहीं होती थी.

गरमी की छुट्टियां थीं. रमला ने पेंटिंग क्लासेज जौइन कर ली थीं. एक रोज उस ने रूपेश को भी वहां देखा. दोनों का मेलजोल बढ़ा. दोनों को एकदूसरे की दोस्ती भा गई. पेंटिंग रूपेश का पैशन था. उस का मन करता रमला पास बैठी रहे और वह पेंटिंग करता रहे, पर उस के हिस्से में कुछ और ही लिखा था.

पिता को अचानक हौस्पिटल ले जाना पड़ा तो पेंटिंग क्लासेज छूट गईं. पर पैशन बरकरार रहा. एक दिन रमला उसे हौस्पिटल में मिली. मिहिर के पिता को कैंसर है जान कर बड़ा दुख हुआ.

कैसे थे वे दिन. तब रमला उसे मिली और फिर पता ही न चला कहां चली गई.

आज अचानक यहां देख कर बड़ी खुशी हुई. वैसे उस ने कभी सोचा भी न था कि रमला से यों मुलाकात होगी.

ओट 2 हाथों की- भाग 1: जब रिया की जिंदगी में नकुल ने भरे रंग

‘‘मेरे मन में इस बच्चे के लिए प्यार उमड़ता ही नहीं’’, कहा था उस ने. पर यह बात तो शुरू के दिनों की है. बाद में असहाय वेदना, बढ़ता रक्तचाप तथा अत्यधिक तनाव के बीच भी उस ने अपने गर्भस्थ शिशु के लिए कोमल भावनाएं जरूर पाली होंगी. उस के आने से सभी विपदाएं दूर हो जाएंगी, यह कामना भी की होगी. 8 वर्षीय बेटी से प्रसव के कारण 2-3 महीने दूर रहने की कल्पना ने उसे और भी दुखी किया होगा. बच्ची तो छोटा भाई या बहन मिलने के बहलावे से बहल भी गई होगी, मगर वह खुद बेटी से दूर रह कर एक दिन भी शांति से नहीं रह पाई होगी.

फिर वही हुआ जिस का अंदेशा कमोबेश सभी को था. समय से पहले मरे हुए बच्चे का जन्म, गला हुआ माथा, मुड़े हाथपांव… और अविकसित भू्रण… 8 महीने से जगी संभावना का अंत.

मैं आजकल बड़ी ढीठ हो गई हूं. जानती हैं दीदी, कल सास ने तनु से पुछवाया, ‘‘मम्मी से पूछ भुट्टा खाएगी क्या?’’

भूख से कुलबुलाते मैं ने कहा, ‘‘हां.’’

तो वह बोलीं, ‘‘बोल, जा कर ले आए.’’

अंदर सोई थी मैं, बाहर दादीपोती की आवाजें आ रही थीं. मैं ने तनु से कहा, ‘‘मेरी कमर में बहुत दर्द है. मैं अभी नहीं ला सकती.’’

सास बोलीं, ‘‘ला नहीं सकती तो खाएगी क्या?’’ तनु अंदरबाहर आ जा कर बातचीत जारी रखे थी. फिर भुट्टे आए भी और मैं ने बेशर्मी से खाए भी. आप सोच सकती हैं, दीदी. मैं कभी ऐसी हो जाऊंगी?

3-4 दिन तक मेरे जेहन में उस की ही बातें घूमती रहीं. उस से जब भी फोन पर बात होती, वह अपने अंदर का भरा सारा गुबार उड़ेल देती. कई बातें ऐसी भी होतीं, जो आमनेसामने उसे कहने

और मुझे सुनने में संकोच हो सकता था. आखिर वह मुझ से काफी छोटी है. फोन पर न मैं उस का शर्मसार चेहरा देख सकती थी न वह मेरा.

रिया रीना की छोटी बहन है और रीना मेरे बचपन की सहेली. रिया मेरे सामने बड़ी हुई. बहनों में सब से छोटी. उस के जन्म के बाद भाई के जन्म के कारण परिवार की वह लाडली बन गई.

रूप, गुण, आभिजात्य, संस्कार, शिक्षा, खानदान व पैसा ये 7 गुण ही तो देखते हैं लड़की में और रिया इन सातों गुणों में श्रेष्ठ नहीं सर्वश्रेष्ठ कही जा सकती है. लड़कों में तो गुण देखने का चलन ही नहीं है. अगर होता तो अजय के सातों खाने खाली.

लड़की सुंदर हो फिर सामान्य से भी कम दिखने वाला पति मिले तो समस्या खड़ी हो सकती है. शायद यह किसी ने नहीं सोचा. फिर न उस का काम के प्रति कोई लगाव, न महत्त्वाकांक्षा और स्वभाव, संस्कार, शिक्षा की तो बात करना ही बेमानी. उस का क्रोध ऐसा कि तीसों दिन घर में आंतक छाया रहता. कभी मम्मीपापा के साथ तो कभी बहनों के साथ तो कभी नौकरों या पड़ोसियों के साथ. रिया के आने के बाद सारा कहर उस पर बरसने लगा.

मैं अकसर सोचती रिया के घर वालों को अजय में क्या खूबी दिखी? संपन्न घर का इकलौता बेटा, घर, गाड़ी अर्थात भविष्य सुरक्षित. मगर रिया जैसी लड़की को क्या इन सब की कभी कमी हो सकती थी?

अजय के स्वभाव से परेशान उस के मम्मीपापा ने सोचा था कि समझदार, सुंदर लड़की आ कर उसे सही रास्ते पर ले आएगी, परंतु शादी के बाद स्थिति इतनी विकट हो जाएगी, इस का अनुमान तक वे नहीं लगा सके थे. अब अजय के जुल्मोसितम का निशाना थी वह पराई लड़की, जो शादी के इतने वर्षों बाद भी किसी की भी अपनी नहीं हो सकी थी. हां, विगत 8-9 वर्षों के वैवाहिक जीवन में उस के खाते में छोटी उम्र में उच्च रक्तचाप जैसा रोग और 8 वर्ष की प्यारी सी बेटी ‘तनु’ ये 2 ही जुड़ पाए थे.

इतने वर्षों बाद अनचाहे ही सही, फिर गर्भ का अंदेशा हुआ तो घबरा गई थी रिया. खुद को सामान्य करने में उसे बहुत वक्त लगा था. बड़ी मुश्किल से बीते थे वे 8 महीने… और उस का अंत भी क्या कम जानलेवा था? प्रसव के लिए दिल्ली अपने मायके चली गई थी.

डाक्टर मम्मीपापा पर बरस पड़ी थीं, ‘‘इस बार लड़की बच गई है. चाहते हैं कि वह स्वस्थ हो सके, तो कृपया उस की समस्याएं सुलझाएं, नहीं तो मर जाएगी वह.’’

इतना हाई ब्लडप्रैशर छोटी उम्र में, कभी भी कुछ भी हो सकता है. उस के मम्मीपापा कांप उठे थे.

रिया ससुराल से दिल्ली आती तब उस का उदास चेहरा सूनी आंखें व अजय के फोन आते ही कांप उठना. पर उस से इतना भर जाना कि अजय क्रोधी स्वभाव का है और मानसिक रोगी भी है. कई कुंठाएं पाल रखी हैं उस ने.

डाक्टर कहती हैं कि उस की समस्या सुलझाएं. रिया की तकलीफों का निवारण अलगाव से हो सकता है. अजय से अलगाव का अर्थ है रिया व नन्ही तनु का भविष्य, अकेलापन, लोगों की उठती उंगलियां, उस से उपजा नया तनाव.

रिया के मम्मीपापा अपनी बेटी के दुख में घुलते जा रहे थे. उस की पूरी त्रासदी के लिए स्वयं को दोषी ठहरा रहे थे. परंतु कोई आरपार का कदम उठा लेने जैसा निर्णय नहीं कर पाते थे. मेरी रीना से इस बारे में अकसर बहस होती.

उस के पापा का अपने परिवार तथा व्यवसाय क्षेत्र में बहुत नाम था पर रिया का प्रकरण न सुलझा पाने के पीछे यह बात भी रही हो कि उन के बेदाग घराने पर एक दाग लग जाएगा कि एक बेटी वापस आ गई ससुराल से… कमोबेश ऐसे ही आदर्शवादी और परंपरावादी संस्कारों के परिवेश में रिया पली थी. तभी वह सह रही थी. शुरू में उस ने अजय को समझाने की, वश में करने की बड़ी कोशिशें कीं. मगर नाकाम रही और फिर हताश हो गई.

पिछली बार मैं दिल्ली गई तो उस के पापा ने मुझे फोन कर के बुलाया था. वे रिया के बारे में मुझ से बात करना चाहते थे. मैं रीना से मिलने कई बार उस के घर गई थी पर अंकलआंटी से बस औपचारिक नमस्ते ही होता था.

रिया के जीवन से परिचित होने पर मुझे भी उन पर एक खिज सी थी, अंदर ही अंदर अच्छीभली लड़की को डुबा देने की बात कौंधती थी.

‘‘अनिता, तुम्हारी रिया से अकसर बात होती है. आखिर अजय चाहता क्या है? क्यों नहीं पटती दोनों में, तुम्हें क्या लगता है?’’ अंकल ने पूछा.

‘‘अंकल, यह सवाल ही गलत है कि अजय चाहता क्या है. एक बिगड़ा बच्चा जो चाहे उसे देते चले जाना कि बवाल न मचाए क्या ठीक है? अजय चाहता क्या है यह तो स्वयं अजय को खुद नहीं पता. न उस के मातापिता को. जहां तक रिया से न पटने की बात है, तो इस के कई मनोवैज्ञानिक कारण हैं. मुझे कहने में संकोच होता है.’’

‘‘नहीं तुम खुल कर कहो बेटी?’’

ओट 2 हाथों की- भाग 2: जब रिया की जिंदगी में नकुल ने भरे रंग

‘‘अंकल, जब रिया शादी के बाद पहली बार मुंबई गई तो दोनों के रूपरंग के अंतर को देख हर व्यक्ति चौंकता था कि ऐसे लंगूर के हाथ हूर कैसे लग गई? अजय को लगा कि लोग उस का अपमान कर रहे हैं फिर हीनता का बोध होते ही वह जबतब अन्य लोगों के सामने बेवजह रिया को फटकारने का कोई मौका नहीं चूकता. वह उसे पांव की नोक पर रखता. रिया उस की एक धमक से थरथर कांप जाती. अपने पुरुष अहम को तृप्त करने के लिए चीखतेचिल्लाते हुए यह भूल ही जाता है कि पतिपत्नी के रिश्ते की सारी आर्द्रता वह सोखता जा रहा है. 2 मिनट उस से बात करते ही, उस की मानसिक अस्थिरता का जायजा मिल जाता है. न जाने आप को कैसे… माफ कीजिएगा मुझे यह नहीं कहना चाहिए.’’

‘‘नहीं बेटी, तुम ठीक कह रही हो. उस वक्त सोचा हम ने भी था कि वह रूपरंग, व्यक्तित्व में रिया की जोड़ी का नहीं है. परंतु स्वभाव ऐसा होगा. यह कैसे मालूम होता.’’

‘‘नहीं अंकल. कुछ लोग ऐसे होते हैं जिन के चेहरे पर ही लिखा होता है कि वे क्या हैं. अजय उन में से एक है. आप उसे किस तरह नहीं समझ पाए? यह ठीक है कि रूपरंग विशेष अर्थ नहीं रखते. मगर वह एक मानसिक रोगी है. उसे किसी अच्छे मनोचिकित्सक की जरूरत है. हो सकता है

कि वह ठीक भी हो जाए, परंतु इस के लिए जरूरी है कि पहले वह खुद और उस के मातापिता यह जानें कि तकलीफ क्या है और कहां है?’’

‘‘हम ने तो रिया को हमेशा शांत रहने व समझौता करने की ही सीख दी है, अनिता. ताकि बात ज्यादा न बढ़े.’’

‘‘यही गलत कर रहे हैं आप. समझौता और सहने की घुट्टी पिलापिला कर लोग लड़कियों को नकारा बना डालते हैं. उन्हें स्वयं अपनी काबिलीयत पर भरोसा नहीं

रहता. प्रत्येक जायजनाजायज बात पर शांत रहने व समझौता करते जाने के नतीजे देखे आप ने? अजय और उग्र होता गया और रिया बीमार…

‘‘दरअसल, रिया मुझे छोटी बहन जैसी है इसलिए जानती हूं, क्षमा करें मुझे न चाहते हुए भी अप्रिय कहना पड़ा.’’

‘‘नहीं, अनिता. ऐसा मत सोचो. हम ने खुद तुम से सलाह मांगी है. समस्या सुलझाने

के लिए क्या किया जा सकता है, इस पर तुम क्या सोचती हो, क्या खुल कर कह सकती हो.

भूल तो हम से ही हुई है. इतना तो हम भी जानते हैं, बेटी.’’

‘‘अंकल रिया की समस्या बड़ी बारीकी से मैं ने समझा है. उस के कई कारण हो सकते हैं. किंतु समाधान सिर्फ 2 हैं. पहला अजय का इलाज करवाना जिस की संभावना कम से कम मुझे तो दूरदूर तक नजर नहीं आती. दूसरा है रिया के जीवन के बारे में कोई ठोस कदम उठाना.

‘‘पहला उपाय अजय और उस के मातापिता के पास है. दूसरा आप के पास. वे अपने बेटेबहू का सुखी दांपत्य चाहते होते,

तो यह काम बहुत पहले हो चुका होता. परोक्ष रूप से ही सही उन्होंने स्थिति को सुलझाने की जगह उसे और जटिल बनाया है. दूसरा उपाय करने के लिए बहुत सा साहस और दृढ़ निश्चय चाहिए.’’

‘‘अनिता, तुम अपनी सी न लगती तो क्या हम तुम से सलाह करते? हां परसों रीना बेंगलूरु से आ रही है. तब जरूर आना बेटी.’’

‘‘रीना के आते ही आप फोन कर दीजिएगा.’’

रीना आते ही मुझ से मिलने आ पहुंची. वहां उस ने अपना अधूरा फैशन डिजाइनिंग का कोर्स पूरा कर के एक छोटा सा बुटिक खोल लिया था, जो खूब चलने लगा था. सफलता का नूर उस के चेहरे को दमका रहा था.

‘‘अनि, कैसी हो भई. अच्छा हुआ, जो दिल्ली में मिल गई वरना तुम से मिलने मुंबई आना पड़ता.’’

‘‘कितनी बार आई मुंबई? बता तो जरा.’’

‘‘सच, इस बार मन बना लिया था कि जाना ही है. खैर, सुना हमारी रिया के क्या हाल हैं? इस हादसे के बाद अजय साहब का फुफकारना कम हुआ या नहीं. कुछ सबक लिया या वैसे ही हैं. खुद को कुसूरवार मान कर कुछ तो पछता रहे होंगे.’’

‘‘तुम भी, रीना. आशावादी होना ठीक है, मगर किसी चमत्कार की आशा लगा लेना मूर्खता है. मैं ने तो पिछली बार ही बताया था कि वहां स्थिति के बदलाव की गुंजाइश नहीं है. फिर भी तुम लोग किस भ्रम में हो अब तक?’’

ओह, चहकती रीना बुझ सी गई. अभी 3 महीने पहले ही तो रिया ने मृत बच्चे को जन्म दिया था.

‘‘रीना, यहां आने से 2 दिन पहले ही मेरी रिया से बात हुई थी.

उसे मैं ने नहीं बताया कि मैं दिल्ली जा रही हूं. तो शायद ही वह मुझ से कुछ बताती. वह भी कहां चाहती है कि उस की तपिश की आंच यहां तक पहुंचे.’’

‘‘क्या कह रही थी?’’ रीना की आंखें डबडबा गईं.

‘‘कह रही थी, दीदी, जिस आदमी से लेशमात्र भी प्यार न हो उस के साथ पूरा जीवन काटना कितनी बड़ी सजा है.’’

‘‘मैं ने भी उस से यही पूछा कि बच्चे की मौत से अजय को कुछ धक्का लगा क्या? तो बोली कि पता नहीं पर रंगढंग वही के वही हैं. घर में पैर रखते ही मेरे तो हाथपैर फूल जाते हैं. धड़कनें तेज हो जाती हैं. कभी हाथ से कुछ गिरता है कभी कुछ. दीदी, क्या करूं औरतें शाम को पति के आने का इंतजार करती हैं और सच कहूं तो मैं सुबह उस के जाने का. जब तक वह घर में रहता है मुझ पर दहशत छाई रहती है. कोई काम ढंग से नहीं कर पाती.’’

रीना के कपोलों पर भी आंसू बह चले. वह फिर बोली, ‘‘तनु के क्या हालचाल हैं, अनि?’’

‘‘रिया ही कह रही थी कि तनु सब समझने लगी है. पापा से थरथर कांपती है. बहुत अंतर्मुखी होती जा रही है. पिछले दिनों अजय दहाड़ते हुए रिया पर हाथ उठाने को आगे बढ़ा, तो वह एकदम सिटपिटा गई. बाद में पूछा था कि ममा. हसबैंड लोग ऐसे होते हैं क्या? अनजाने ही मासूम बच्ची अपनी मां के हिस्से की पीड़ा भुगत रही हैं कच्ची उम्र में.’’

‘‘अनि, बहुत पहले हम सभी भाईबहनों की जन्मकुंडलियां पापा ने किसी पंडित को दिखाई थी. जानती हो, रिया के लिए वह क्या बोला था कि यह लड़की कभी जमीन पर पांव नहीं रखेगी. रानी बन कर राज करेगी. फिर अजय की कुंडली के साथ रिया की कुंडली उसी से मिलाते वक्त कहा था कि ऐसा संयोग कम देखने को मिलता है. तभी मम्मीपापा का इस रिश्ते को करने का पूरा मन बन गया था जबकि पहले अजय कम ही अच्छा लगा था.’’

‘‘अच्छा तो यह बात थी. चौंकने की बारी अब मेरी थी, तभी आज तक मैं यह गुत्थी नहीं सुलझा पा रही थी कि यह रिश्ता हुआ कैसे… क्यों हुआ? अच्छी राजरानी बना के रखा है, उस ने रिया को और राजपाट भी कैसा कि एक पैसा कभी मन से खर्च नहीं किया होगा. बोलने तक की तो इजाजत है नहीं.

‘‘पंडित हाथ की रेखा को ठीक से पढ़ना नहीं जानता था, न मिलाना जानता था, जन्मकुंडलियों के ग्रह गोचरों को. पर चेहरे पढ़ना जरूर जानता होगा तभी रिया के रूप और उस के पापा के आभिजात्य को देख राजरानी बनने की भविष्यवाणी कर दी थी. संभावना भी वही थी. कोई भी सामान्य ज्ञान रखने वाला पाखंडी पंडित वही कहता. उस में अनहोनी क्या थी? अनहोनी तो यह थी, जो घट रही है.

‘‘अजय को उस के रूपरंग, कामधंधे, स्वभाव, संस्कार की कसौटी पर परखा जाता, तो वह धुंध साफ हो सकती थी, मगर पंडित के दिखाए भविष्य के सतरंगे सपने ने ऐसा भ्रमित किया कि जो बेनूर बदरंग रंग सामने थे वे भी नजर नहीं आए.’’

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें