महुए की खुशबू – भाग 1

पोस्टमैन ने हाथ में पकड़ा दिया एक भूरा लिफ़ाफ़ा. तीसचालीस साल पहले इसे सरकारी डाक माना जाता था. लिफ़ाफ़ा किस दफ़्तर से आया? कोने में एक शब्द ‘प्रेषक’ लिखा दिखाई दे रहा था. आगे कुछ लिखा तो है पर अस्पष्ट है.

सरकारी मोहर ऐसी ही होती थी. उस के मजमून से ही भेजने वाले दफ्तर का पता चलता. उत्सुकता से लिफ़ाफ़ा खोला औऱ खुशी से उछल पड़ा.

सुदूर गांव की प्राइमरी पाठशाला में मुझे शिक्षक की नियुक्ति और तैनाती देने की बाबत आदेश था और अब भूरा सरकारी लिफ़ाफ़ा मुझे रंगीन नज़र आने लगा.

‘गांव की पाठशाला…’ एक पाठ था बचपन में. साथ में अनेक चित्र दिए थे उस पाठशाला के ताकि  शहर के बच्चों को पाठ की वस्तुस्थिति सचित्र दिखाई जा सके. वे सभी चित्र अब मेरी आंखों के सामने आ गए…

साफसुथरा स्कूल.  छोटा सा मैदान. उस में खेलतेदौड़ते बच्चे. 2 झूले भी, जिन पर बालकबालिकाएं झूलती दिख रही होतीं. वहीं सामने लाइन से बने खपरैल वाले क्लास के 4 कमरे, अंदर जूट की लंबीलंबी रंगीन टाटपट्टियां. ऊपर घनी छांव डालते नीम और आम के पेड़. ध्यान से देखने पर एकदो चिड़िया भी बैठी दिख गईं डाल पर. एक क्लास तो पेड़ के नीचे ही लगी थी.

तिपाये पर ब्लैकबोर्ड था. मोटे चश्मे में सदरी डाले माटसाब पढ़ा रहे थे.स्कूल का घंटा पेड़ की एक डाल से ही लटका था जिसे एक सफेद टोपी लगाए चपरासी बजा रहा होता. ईंटों पर रखा मटका और पानी पीती एक बच्ची.

कक्षा के दरवाज़े से अंदर दिखतेपढ़ाते गुरुजी और ध्यान लगा कर पढ़ते बच्चे. कमीजनिक्कर में लड़के और लाल रिबन लगाए बच्चियां, सब गुलगोथने और लाललाल गाल वाले प्यारेप्यारे.

दूर पीछे  गांव के खेत, तालाब और झोपड़ियां दिख रही थीं, जिनके आगे भैंसगाय हरा चारा खा रही होतीं. गांव की तरफ़ एक सड़क मोड़ ले कर आती दिख रही थी. आकाश में सफ़ेद कपास के जैसे उड़ते बादल और साथ में एक पक्षियों की टोली.

शायद हवा पुरवाई चल रही होगी, पर तसवीरों में पता नहीं चलता हवा के रुख का. सरकारी किताब थी, इसलिए सबकुछ ठीकठाक ही नहीं, अत्यंत मनमोहक दिखाना मजबूरी थी चित्रकार की शायद. असलियत दिखा कर भूखे थोड़े ही मरना था.

गांव के स्कूल की वही पुरानी किताबी तसवीरें मन में उतारे मैं बस में बैठ गया. गांव में रहनेखाने का क्या होगा, अख़बार मिलेगा या नहीं, कितने बच्चे होंगे, सहशिक्षक, प्रिंसिपल, क्लर्क,  चपरासी  आदि सोचते हुए मेरा सिर सीट पर टिक गया था.

‘ए बाबू साहब, मटकापुर आय गवा, उतरो,’  कंडक्टर ने कंधा पकड़ कर उठाया. मेरे एक बक्सा, झोला और होल्डाल ले कर सड़क पर टिकते  ही बस धुआंधूल उड़ाती आगे निकल गई.मेरे साथ ही एक सवारी और उतरी थी, एक महिला, उस के साथ 2 बच्चे. उन्हें लेने 2 मर्द साइकिलों से आए थे. एक साइकिल पर बच्चे और दूसरी पर पीछे वह महिला बैठ गई.

मुझे ऐसा आभास हुआ कि महिला साथ आए पुरुष को मेरी तरफ़ इशारा कर के कुछ बता रही थी. पुरुष ने एक उचटती सी नज़र मुझ पर मारी, सिर हिलाया और साइकिल पर बैठ कर पैडल मारता चल दिया.

‘होगा कुछ,’ मैं ने मन ही मन सोचा और रूमाल से चेहरा पोंछ कर चारों तरफ नज़र दौड़ाई. दूरदूर तक गांव का कोई निशान नहीं था. इकलौती  पगडंडी सड़क से उतर कर खेतों की तरफ जाती सी लगी. मैं उसी पर बढ़ लिया और मुझे चित्र की ग्रामीण सड़क याद आ गई. पता नहीं वह कौन सा गांव था, यह वाला तो पक्का नहीं था.

कभी इतना बोझा मैं ने उठाया नहीं था. ऊपर से मंज़िल और रास्ते की लंबाई भी अज्ञात थी व दिशा अनिश्चित. तभी सामने से गमछा डाले एक आदमी साइकिल पर आता दिखाई दिया. मैं कुछ कहता, इस के पहले ही वह खुद पास आ गया, साइकिल से उतरा और सवाल दाग दिया, ‘कौन हो, कौन गांव जाए का है?’ गांव में आप को परिचय देना नहीं पड़ता, आप से लिया जाता है.

रास्तेभर में मेरा पूरा नाम, जाति, जिला, पिताजी, बच्चे, परिवार आदि की पूरी जानकारी साइकिल वाले को ट्रांसफर हो चुकी थी. बीसपचीस कच्चे और दोतीन मकान पक्के यानी छत पक्की वाले दिखने लगे. मेरी पोस्टिंग वाला गांव आ चुका था- मटकापुर.

यह वह तसवीर वाला गांव नहीं ही था.  समझ आने लगा कि चित्रकार के रंगों का गांव हक़ीक़त से कितना अलग होता है. वह कभी मटकापुर आया नहीं होगा. कूची भी झूठ बोलती है. गांव के स्कूल का नया ‘मास्टर’ आया है, यह ख़बर जंगल की आग बन गांव में फ़ैलने लगी. बड़ेबूढ़े जुटने लगे. कौन हैं, कौन गांव, जिला, पूरा नाम, जाति सब बारबार पूछा और बताया जा रहा था.

मेरे नाम का महत्त्व नाम के साथ दी गई अनावश्यक  जानकारी के आधार पर ही लगाया जाने लगा. किसी को समझ आया, कुछ सिर हिला रहे थे, ‘पता नहीं को है, किते से आए.’ ख़ैर, मैं जो भी था, प्रारंभिक आवभगत में कमी नहीं हुई. गांव में जो व्यक्ति मेरी बिरादरी के सब से क़रीब साबित हुए, उन का ही धर्म बन गया मुझे आश्रय देने का. खाना हुआ और सोने के लिए खटिया डाल दी गई.

मैं अनजाने में और घोर अनिच्छा से पहले ही दिन गांव के लोगों के एक धड़े में जा बैठा था. गांव मे न्यूट्रल कुछ नहीं होता. हर आदमी होता है इस तरफ का या दूसरी तरफ  या ऊंचा या नीचा. चुनो या न चुनो. एक पाले की मोहर तो लग ही जाएगी, मतलब  लगा दी जाएगी आप की शख्सियत के लिफ़ाफ़े पर.

यह मोहर सरकारी वाली नहीं, सामाजिक होती है जो दूर से ही दिख जाती है. इस का छापा जन्मभर का होता है.

आशा का दीप- भाग 1: किस उलझन में थी वैभवी

आप हैं मिस वैभवी, सीनियर मार्केटिंग मैनेजर,’’ शाखा प्रबंधक ने वैभवी का परिचय नए नियुक्त हुए सेल्स एवं डिस्ट्रिब्यूशन औफिसर विनोद से कराते हुए कहा.

वैभवी ने तपाक से उठ कर हाथ मिलाया. विनोद ने वैभवी के हाथ के स्पर्श में गर्मजोशी को स्पष्ट महसूस किया. उस ने वैभवी की तरफ गौर से देखा. वह उस के चुस्त शरीर, संतुलित पोशाक और दमकते चेहरे पर बिखरी मधुर मुसकान से प्रभावित हुआ.

वैभवी ने भी विनोद का अवलोकन किया. सूट के साथ मैच करती शर्ट और नेक टाई, अच्छी तरह सैट किए बाल, क्लीनशेव्ड, दमकता चेहरा पहली नजर में प्रभावित करने वाला व्यक्तित्व.

‘‘आप हैं मिस्टर विनोद, आवर न्यू सेल्य एंड डिस्ट्रिब्यूशन मैनेजर.’’

वैभवी से परिचय के बाद शाखा प्रबंधक महोदय विनोद को सिलसिलेवार सभी केबिनों में ले गए. विनोद ने केबिन में अपनी सीट पर बैठ कर मेज के एक तरफ रखा लैपटौप औन किया.

थोड़े समय में ही सेल्स, डिस्ट्रिब्यूशन और मार्केटिंग इंटररिलेटिड वैभवी और विनोद की नियमित बैठकें होने लगीं. फिर धीरेधीरे अंतरंगता बढ़ती गई.

दोनों ही अविवाहित थे. दोनों अपने लिए उपयुक्त जीवनसाथी की तलाश में भी थे. बढ़ती अंतरंगता की परिणति उन की मंगनी में बदली और विवाह की तिथि तय की गई.

दोनों के परिवार जोशोखरोश से विवाह की तैयारियां कर रहे थे. एक रोज बड़े डिपार्टमैंटल स्टोर से शौपिंग कर वैभवी बाहर आ रही थी, सामने से आती एक प्रौढ़ा स्त्री उस से टकराई. उस के हाथों का पैकेट वैभवी के वक्षस्थल से टकराया.

दर्द की तीव्र लहर वैभवी के वक्ष स्थल पर फैल गई. बड़ी मुश्किल से चीखने से रोक पाई वैभवी अपनेआप  को. पर लौट कर कपड़े बदलते हुए उस ने वक्षस्थल पर हाथ फिराया तो एक हलकी सी गांठ उस को दाएं वक्षस्थल पर महसूस हुई. गांठ दबाने पर हलकाहलका दर्द उठा.

औफिस से थोड़ी देर की छुट्टी ले कर वह अपने परिचित डाक्टर के पास गई. जांच करने के बाद डाक्टर गंभीर हो गए.

‘‘आप को कुछ टैस्ट करवाने होंगे,’’ डाक्टर साहब ने गंभीरता से कहा.

‘‘क्या कुछ सीरियस है?’’ आशंकित स्वर में वैभवी ने पूछा.

‘‘टैस्ट रिपोर्ट आने के बाद ही कुछ कहा जा सकता है. वैसे क्या आप के परिवार में किसी, मेरा मतलब आप की माताजी या पिताजी या दादीनानी को ऐसी तकलीफ हुई थी,’’ डाक्टर साहब ने धीरेधीरे बोलते हुए गंभीर स्वर में पूछा.

इस सवाल पर वैभवी गंभीर हो गई. उस की मम्मी को कई साल पहले, जब वह किशोरावस्था में थीं, ब्रेस्ट कैंसर हुआ था. लंबे समय तक तरहतरह के इलाज के बाद और वक्षस्थल से एक वक्ष काटने के बाद इस समस्या से छुटकारा मिला था. क्या उसे भी वक्षस्थल यानी ब्रेस्ट कैंसर है?

‘‘क्या टैस्ट आप के यहां होंगे?’’

‘‘जी नहीं, ये सब बड़े अस्पताल में होते हैं. एक टैस्ट से स्थिति स्पष्ट न होने पर दूसरे कई टैस्ट करवाने पड़ सकते हैं.’’

‘‘बाई द वे, आप का अंदाजा क्या है?’’ वैभवी के इस सवाल पर डाक्टर गंभीर हो गए, ‘‘मिस वैभवी, अंदाजे के आधार पर चिकित्सा नहीं हो सकती. प्रौपर डायग्नोसिस किए बिना बीमारी का इलाज नहीं हो सकता.’’

‘‘आप ने फैमिली बैकग्राउंड पर सवाल किया था. मेरी मम्मी को कई साल पहले ब्रेस्ट कैंसर हुआ था. सर्जरी द्वारा उन के वक्ष को काटना पड़ा था. कहीं मु झे भी…’’

‘‘मिस वैभवी, हैव फेथ औन योरसैल्फ. कभीकभी सारा अंदाजाअनुमान गलत साबित होता है,’’ यह कहते डाक्टर साहब ने अपने लैटर पर एक बड़े अस्पताल का नाम लिखते उस पर परामर्श लिखा और कागज वैभवी की तरफ बढ़ा दिया.

औफिस में अपनी सीट पर बैठी वैभवी गंभीर सोच में थी. हर रोज वह अपने सहयोगियों के साथ कंपनी के किसी नए उत्पादन और उस की मार्केटिंग पर डिस्कशन करती थी, मगर आज वह खामोश थी.

विनोद भी अपनी मंगेतर को गंभीर देख कर उल झन में था.

‘‘हैलो वैभवी, हाऊ आर यू?’’ साइलैंट मोड पर रखे सैलफोन की स्क्रीन पर एसएमएस चमका.

‘‘फाइन,’’ संक्षिप्त सा जवाब दे वैभवी ने फोन बंद कर दिया और उठ कर शाखा प्रबंधक के कमरे में चली गई.

‘‘सर, मु झे कुछ पर्सनल काम है, आज छुट्टी चाहिए.’’

बेटी को आज इतनी जल्दी आया देख कर मम्मी चौंक गईं. ‘‘वैभवी, कोई प्रौब्लम है?’’ पानी का गिलास थमाते मम्मी ने पूछा.

वैभवी खामोश थी. क्या बताए? कैंसर एक दाग सम झा जाता था. एक स्टिगमा. कैंसरग्रस्त व्यक्ति को अछूत के समान सम झ कर हर कोई उस से दूरी बनाए रखना चाहता है.

उस की मम्मी को भी कैंसर हुआ था 20 साल पहले. सर्जरी द्वारा उन का एक वक्ष काट दिया गया था. कैंसर जेनेटिक स्टेज की प्रथम स्टेज पर था. उस का फैलना थम गया था. 20 साल बाद उस की मम्मी नौर्मल लाइफ जी रही थीं. मगर सब जानकार, सभी संबंधी उन से एक दूरी बना कर रखते थे.

‘‘वैभवी, क्या बात है, कोई औफिस प्रौब्लम है?’’ सोफे पर बैठ कर वैभवी का चेहरा अपने हाथों में थामते मम्मी ने प्यार से पूछा.

वैभवी की आंखें भर आईं. वह हौलेहौले सुबकने लगी. इस पर मम्मी घबरा गईं. उन्होंने उस को अपनी बांहों में भर लिया. पानी का गिलास उस के होंठों से लगाया. चंद घूंट पीने के बाद वैभवी संयत हुई. उस ने स्थिर हो मम्मी को सब बताया.

वैभवी की मां गंभीर हो गईं. क्या कैंसर पुश्तैनी था? उन को कैंसर था. उन से पहले शायद उन की मां को भी. मगर दोनों अच्छी उम्र तक जीवित रही थीं.

अजीब पसोपेशभरी और दुखभरी स्थिति बन गई थी. वैभवी के विवाह होने को मात्र 15 दिन बाकी थे. अब यह दुखद स्थिति बताने पर रिश्ता टूटना तो था ही, साथ ही कैंसरग्रस्त परिवार है, यह दाग स्थायीतौर पर उन पर लग जाना था.

‘‘डाक्टर ने अभी अपना अंदाजा बताया है, साथ ही यह भी कहा है कि कई बार अंदाजा गलत भी साबित होता है,’’ मम्मी ने हौसला बंधाने के लिए आश्वासनभरे स्वर में कहा.

‘‘मगर हम विनोद और उस के परिवार को क्या बताएं?’’

वैभवी के इस सवाल पर मम्मी खामोश हो गईं. मां के बाद अब बेटी को कैंसर जैसे रोग की त्रासदी का सामना करना पड़ रहा था. मां को कैंसर विवाह के बाद 2 बच्चों को जन्म देने के बाद जाहिर हुआ था. परिणाम में वक्ष स्थल और बाद में गर्भाशय को निकालना पड़ा था.

मगर बेटी की त्रासदी मां से बड़ी थी. वह कुंआरी थी. विवाह दहलीज पर था. वरवधू दोनों पक्षों की तैयारियां पूरी हो चुकी थीं.

विवाह की तारीख से पहले रिश्ता टूट जाना आजकल के जमाने में इतना असामान्य नहीं सम झा जाता. मगर कोई उचित कारण होना चाहिए.

मगर वैभवी की स्थिति एकदम असामान्य थी. कुदरत की मार कि इतनी त्रासदीभरे ढंग से उस पर पड़ी थी. ‘‘मैं अगर यह बात विनोद से छिपाती हूं तो विवाह के बाद इस बात के उजागर होने पर, कि मु झे डाक्टर द्वारा आगाह कर दिया गया था, मैं सारी उम्र उन से आंख नहीं मिला सकूंगी,’’ वैभवी ने सारी स्थिति की समीक्षा करते कहा.

‘‘मेरे बाद तुम्हारे कैंसरग्रस्त होने से तुम्हारी छोटी बहन अनुष्का के भविष्य पर भी प्रभाव पड़ेगा. उस का रिश्ता करना मुश्किल हो जाएगा,’’ मम्मी के स्वर में परेशानी  झलक रही थी.

वैभवी भी सोच में थी कि वह विनोद को कैसे बताए.

‘‘वैभ,’’ विनोद का फोन था. हर शाम विदा लेने के बाद दोनों एक या अनेक बार अपनेअपने सैलफोन से हलकीफुलकी चैट करते थे.

त्रिकोण- भाग 1 : शातिर नितिन के जाल से क्या बच पाई नर्स?

आज सोनल को दूसरे दिन भी बुखार था. नितिन अनमना सा रसोई में खाना बनाने का असफल प्रयास कर रहा था. सोनल मास्क लगा कर हिम्मत कर के उठी और नितिन को दूर से ही हटाते हुए बोली,”तुम जाओ, मैं करती हूं.”

नितिन सपाट स्वर में बोला,”तुम्हारा बुखार तो 99 पर ही अटका हुआ है और तुम आराम ऐसे कर रही हो,
जैसे 104 है.”

फीकी हंसी हंसते हुए सोनल बोली,”नितिन, शरीर में बहुत कमजोरी लग रही है, मैं झूठ नहीं बोल रही हूं.”

तभी 15 वर्षीय बेटी श्रेया रसोई में आई और सोनल के हाथों से बेलनचकला लेते हुए बोली,”आप जाइए, मैं बना लूंगी.”

तभी 13 वर्षीय बेटा आर्यन भी रसोई में आ गया और बोला,”मम्मी, आप लेटो, मैं आप को नारियल पानी देता हूं और टैंपरेचर चेक करता हूं.”

सोनल बोली,”बेटा, तुम सब लोग मास्क लगा लो, मैं अपना टैंपरेचर खुद चैक कर लेती हूं.”

नितिन चिढ़ते हुए बोला,”सुबह से जब मैं काम कर रहा था तो तुम दोनों का दिल नहीं पसीजा?”

श्रेया थके हुए स्वर में चकले पर किसी देश का नक्शा बेलते हुए बोली,”पापा, हमारी औनलाइन क्लास थी, 1
बजे तक.”

आर्यन मास्क को ठीक करते हुए बोला,”पापा, एक काम कर लो, कहीं से औक्सिमीटर का इंतजाम कर लीजिए, मम्मी का औक्सीजन लैवल चैक करना जरूरी है.”

नितिन बोला,”अरे सोनल को कोई कोरोना थोड़े ही हैं, पैरासिटामोल से बुखार उतर तो जाता है, यह वायरल
फीवर है और फिर कोरोना के टैस्ट कराए बगैर तुम क्यों यह सोच रहे हो?”

श्रेया खाना परोसते हुए बोली,”पापा, तो करवाएं? नितिन को लग रहा था कि क्यों कोरोना के टैस्ट पर ₹4,000 खर्च किया जाए. अगर होगा भी तो अपनेआप ठीक हो जाएगा. भला वायरस का कभी कुछ इलाज मिला है जो अब मिलेगा?”

जब श्रेया खाना ले कर सोनल के कमरे में गई तो सोनल दूर से बोली,”बेटा, यहीं रख दो, करीब मत आओ, मैं नहीं चाहती कि मेरे कारण यह बुखार तुम्हे भी हो.”

नितिन बाहर से चिल्लाते हुए बोला,”तुम तो खुद को कोरोना कर के ही मानोगी.”

सोनल बोली,”नितिन, चारों तरफ कोरोना ही फैला हुआ है और फिर मुझे बुखार के साथसाथ गले में दर्द भी हो रहा है.”

श्रेया और आर्यन बाहर खड़े अपनी मम्मी को बेबसी से देख रहे थे. क्या करें, कैसे मम्मी का दर्द कम करें
दोनों बच्चों को समझ नहीं आ रहा था. सोनल को नितिन की लापरवाही का भलीभांति ज्ञान था. उसे यह भी पता था कि महीने के आखिर में पैसे ना के बराबर होंगे इसलिए नितिन टैस्ट नहीं करवा रहा है. सरकारी फ्री टैस्ट की स्कीम ना जाने किन लोगों के
लिए हैं, उसे समझ नहीं आ रहा था.
सोनल ने व्हाट्सऐप से नितिन को दवाओं की परची भेज दिया. नितिन मैडिकल स्टोर से दवाएं ले आया,
हालांकि मैडिकल स्टोर वाले ने बहुत आनाकानी की थी क्योंकि परची पर सोनल का नाम नहीं था.

दवाओं का थैला सोनल के कमरे की दहलीज पर रख कर नितिन चला गया. सोनल ने पैरासिटामोल खा ली
और आंखे बंद कर के लेट गई. पर उस का मन इसी बात में उलझा हुआ था कि वह कल औफिस जा पाएगी
या नहीं. आजकल तो हर जगह बुरा हाल है. एक दिन भी ना जाने पर वेतन कट जाता है. कैसे खर्च चलेगा
अगर उसे कोरोना हो गया तो? नितिन के पास तो बस बड़ीबड़ी बातें होती हैं, यही सोचतेसोचते उस के कानों
में अपने पापा की बात गूंजने लगी,”सोनल, यह तुझे नहीं तेरी नौकरी को प्यार करता है. तुझे क्या लगता है यह तेरे रूपरंग पर रिझा है?
तुझे दिखाई नहीं देता कि तुम दोनों में कहीं से भी किसी भी रूप में कोई समानता नहीं है…”

आज 16 वर्ष बाद भी रहरह कर सोनल को अपने पापा की बात याद आती है. सोनल के घर वालों ने उसे नितिन से शादी के लिए आजतक माफ नहीं किया था और नितिन के घर में रिश्तों का कभी कोई महत्त्व था ही नहीं. शुरूशुरू में तो नितिन ने उसे प्यार में भिगो दिया था, सोनल को लगता था जैसे वह दुनिया की सब से खुशनसीब औरत है पर यह मोहभंग जल्द ही हो गया था, जब 2 माह के भीतर ही नितिन ने बिना सोनल से पूछे उस की सारी सैविंग किसी प्रोजैक्ट में लगा दी थी.

जब सोनल ने नितिन से पूछा तो नितिन बोला,”अरे देखना मेरा प्रोजैक्ट अगर चल निकला तो तुम यह नौकरी
छोड़ कर बस मेरे बच्चे पालना.”

पर ऐसा कुछ नहीं हुआ और तब तक श्रेया के आने की दस्तक सोनल को मिल गई थी. फिर धीरेधीरे नितिन
का असली रंग सोनल को समझ आ चुका था. जब तक सोनल का डैबिट कार्ड नितिन के पास होता तो सोनल पर प्यार की बारिश होती रहती थी. जैसे ही सोनल नितिन को पैसों के लिए टोकती तो नितिन सोनल से बोलना छोड़ देता था. धीरेधीरे सोनल ने स्वीकार कर लिया था कि नितिन ऐसा ही है. उसे मेहनत करने की आदत नही है. सोनल के परिवार का उस के साथ खड़े ना होने के कारण नितिन और ज्यादा शेर हो गया था. घरबाहर की जिम्मेदारियां, रातदिन की मेहनत और पैसों की तंगी के कारण सोनल बेहद रूखी हो गई थी.
सुंदर तो सोनल पहले भी नहीं थी पर अब वह एकदम ही रूखी लगती थी. सोनल मन ही मन घुलती रहती
थी. नितिन का इधरउधर घूमना सोनल से छिपा नहीं रहा था और ऊपर से यह बेशर्मी कि नितिन सोनल के पैसों से ही अपनी गर्लफ्रैंड के शौक पूरे करता था.

कतरा-कतरा जीने दो – भाग 3

रागिनी ने अम्मा का हाथ पकड़ कर कहा, ‘हां अम्मा, हम जानते हैं. तुम चिंता न करो. तुम लोग जो कहोगे, हम वही करेंगे.’

अगले महीने सुगंधा दीदी की शादी थी. रागिनी की खुशियों को जैसे पंख लग गए. दिनरात वहां जाने की तैयारी में लग गई. भइयू के साथ जा कर उस ने न केवल  अपने लिए शादी में पहनने के लिए  खूबसूरत सा लंहगा लिया बल्कि अपनी सुगंधा दीदी और नंदा के लिए ढेर सारे गिफ्ट्स भी खरीदे. अम्मा,  बाऊजी सब के लिए कपड़े खरीदते हुए उस का उत्साह देखते ही बन रहा था. आखिर मुंबई जाना था. वहां के हिसाब से पहनावा होना चाहिए. उस ने अच्छे से पार्लर में अपना हेयरकट करवाया.

पहली बार फेशियल,  ब्लीच करवा कर जब वह सामने आई तो उस की सुंदरता किसी फिल्मी हीरोइन से कम नजर नहीं आ रही थी. बातबात पर रागिनी की खुशी छिपाए नहीं छिप रही थी. पूरे होस्टल में रागिनी के मुंबई जाने का शोर मच गया.  टिकटें भी बन गईं. लेकिन  ऐन शादी के समय डाक्टर ने अम्मा के मोतियाबिंद के औपरेशन का समय दे दिया  और  अम्मा व बाऊजी ने अपनी टिकटें कैंसिल करवा दीं. नतीजा रागिनी चाह कर भी मुंबई सुगंधा दीदी की शादी में नहीं जा पाई. मुझे बहुत दुख हुआ. महीनों की तैयारी पर मिनटों में पानी फिर गया. मुंबई की जगह  रागिनी को अम्मा की देखभाल के लिए  घर जाना पड़ा.

अम्मा की आंखों के औपरेशन के बाद रागिनी जब होस्टल वापस  आई तो  जब भी मुंबई की बात निकलती, वह फूटफूट कर रो पड़ती. मैं ने समझाया, ‘जाने दो रागिनी, अब रोने से क्या फायदा. तुम्हारी अम्मा औपरेशन की डेट नहीं बढ़वा पाई होंगी. उन की  बहन की बेटी की शादी,   जाना तो उन्हें भी था. अफसोस तो  उन्हें भी हुआ होगा और तुम्हारी कजिन बहनों को भी.’

मैं अवाक रह गई जब रोतेरोते रागिनी ने कहा, ‘नहीं, अम्मा को अफसोस होता तो औपरेशन की डेट  बढ़ जाती. अम्मा का तो पता था,  लेकिन मौसी मम्मी और सुगंधा दीदी ने  कैसे इतनी बड़ी   खुशी में मुझे छोड़ दिया. उन्होंने मुझे बुलाने की कोई कोशिश नहीं की. अम्माबाऊजी पर फोन से दबाव नहीं डाला वरना…’ आगे के शब्द उस के आंसुओं में डूब गए.

मेरी गोदी में सिर रख कर वह घंटों सिसकती रही. उस का इस तरह रोना मेरे अंतर्मन को भिगो गया. ‘अम्मा का तो पता था…’ उस के ये शब्द मेरे मन में हलचल मचा रहे थे. क्या इस की अम्मा सचमुच नहीं चाहती थीं मुंबई जाना या उन की आंखों का  औपरेशन  अभी इतना ही जरूरी था. कितने सपने थे  रागिनी  के सुगंधा दीदी की शादी को ले कर. क्या सुगंधा दीदी और मौसी ने इस के अम्माबाऊजी को नहीं समझाया? रागिनी ने कितनी ही बार सुगंधा दीदी से फोन पर उन की  शादी को ले कर  अपने उत्साह को बताया था. रागिनी को तो कम से कम वे लोग बुलवा सकते थे. इस तरह के प्रश्न मुझे बारबार विचलित कर रहे थे, लेकिन मैं ने इस बारे में रागिनी को ज्यादा कुरेदना उचित नहीं समझा. आखिर यह उन लोगों का पारिवारिक मामला है. फिर रागिनी का जितना भलाबुरा उस के अम्माबाऊजी सोच सकते हैं,  उतना मैं नहीं.

वैसे भी, हमारे पास ये सब सोचने का अब वक्त नहीं था. हमारे फाइनल  इम्तिहान नजदीक थे. हम लोग रातदिन पढ़ाई में लगे थे. रागिनी वैसे तो पढ़ाई के प्रति बहुत  गंभीर थी, लेकिन कुछ दिनों से उस का मन पढ़ाई से कुछ उचटा हुआ लगता था. अकसर चुपचाप सामने बालकनी में बैठ कर कुछ सोचती रहती थी. कभी अपनी डायरी में कुछ लिखती, कभी पुराने अलबम निकाल कर घंटो तसवीरें देखा करती.

एक दिन रागिनी सुबह नहाधो कर बहुत सुंदर सी नई ड्रैस पहने मेरी बालकनी में आ कर बैठ गई. मैं ने उसे देखा तो चौंक कर कहा, ‘अरे रागिनी, कहां की तैयारी है? सुबहसुबह  इतनी सुंदर ड्रैस पहन कर कहां जा रही हो?  रागिनी ने मुसकरा कर कहा, ‘भइयू आने वाला है. आज  उस का बर्थडे है न. यहां से बैठ कर उसी की राह देख रही हूं.’

थोड़ी ही देर में होस्टल के मेन  गेट पर एक मोटरसाइकिल लगी और  उस पर बैठे  6 फुट के लंबे, गोरेचिट्टे और  बेहद स्मार्ट लड़के को मैं ने देखा. ‘मेरा भइयू,’  खुशी से रागिनी हाथ में गिफ्ट का पैकेट ले कर दौड़ पड़ी और वे दोनों मेरी नजरों से ओझल हो गए.

शाम तक रागिनी नहीं आई. अगले दिन सुबह हाथों में मिठाई  और कुछ पैकेट्स  लिए वह मेरे रूम में आई. उस ने बताया, ‘कल दिन में हम लोग मौल गए थे. देखो, हम ने यह ड्रैस ली है. शाम में मुझे भइयू ने  स्पैशल बर्थडे पार्टी दी. बहुत मजा आया. ‘रात 10 बजे भइयू की दिल्ली के लिए ट्रेन थी. वह किसी इंटरव्यू के  लिए जा रहा है, तो उस ने मुझे देर शाम बूआ के घर में छोड़ दिया. अभी मैं वहीं से आ रही हूं.’

जहां पर सवेरा हो : उसे क्यों छोड़ना पड़ा अपना ही देश

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कतरा-कतरा जीने दो – भाग 2

रागिनी का बर्थडे हो या और कोई विशेष दिन, जब भी रागिनी याद करती, उस के भइयू हाजिर हो जाते. फिर सुबह से शाम तक दोनों होस्टल से बाहर जा कर साथ घूमते, शौपिंग करते, खानावाना खा कर वापस  आते. रागिनी के पिता के अतिरिक्त  भइयू का नाम अभिवाहक के रूप  में होस्टल के रजिस्टर में दर्ज था. इसलिए उन के साथ होस्टल से बाहर जाने में किसी तरह की कोई आपत्ति न होती थी. कभीकभी रागिनी अपने  लोकल गार्जियन, अपनी रिश्ते की बूआ, के घर भी रात में ठहर जाती और दूसरे दिन उस के भइयू उसे पहुंचा दिया करते थे.

एक दिन रागिनी ने बताया, ‘मुंबई में मेरी कजिन सिस्टर सुगंधा की शादी है. सुगंधा की बैंक में नईनई नौकरी लगी है. अब  नेवी में जौब करने वाले लड़के से उस की शादी है.’ रागिनी ने मुझे अपना एक पुराना फोटो अलबम दिखाया जिस में 3 बच्चियां और  उन के मम्मी डैडी हैं. रागिनी ने कहा, ‘बड़ी वाली सुगंधा दीदी हैं  और ये घुंघराले बालों में 4 साल की मैं हूं और  दूसरी मेरी हमउम्र नंदा है.’

तसवीर देख कर मैं चौंक गई, ‘छोटी वाली नंदा तो बिलकुल तुम्हारी जुड़वां लग रही है रागिनी? और ये घुंघराले बालों वाली आंटी  बिलकुल जैसी तुम अभी हो वैसी ही दिखती हैं.’रागिनी के मुंह से अचानक निकला, ‘हां, मम्मी हैं न.’ फिर  उस ने कहा, ‘ये मेरी मौसी हैं. इन्हें मैं मौसी मम्मी कहती हूं. और ये दोनों मेरी मौसेरी बहनें हैं. छोटी वाली नंदा अभी सीए की पढ़ाई कर रही है. मौसाजी मुंबई में एक प्राइवेट कंपनी  में जौब करते हैं. जब मैं छोटी थी, तब मौसाजी छोटे पद पर थे लेकिन अब तो ये बड़ी कंपनी के बड़े अधिकारी बन गए हैं. बड़ा घर  और बड़ी गाड़ियां हैं इन के पास. घर में नौकरचाकर लगे हैं.

‘सुगंधा दीदी और नंदा सब आजादी से रहते हैं. उन पर किसी तरह की  कोई बंदिश नहीं. सुगंधा दीदी ने अपनी मरजी से पहले अपनी पढ़ाई पूरी की, अपने पैरों पर खड़ी हुईं और  अब  उन की ही पसंद के लड़के से मौसामौसी उन की शादी कर रहे हैं. महानगर में रहने से  उन के रहनसहन का स्तर हम से ऊंचा है और सोच भी खुली है.’ मैं ने देखा यह कहती हुई रागिनी थोड़ी भावुक हो गई. उस की आंखों मे हलकी सी नमी आ गई. मैं ने पूछा, ‘और तुम इन के पास जाती हो?’

उस ने कहा, ‘हां, बचपन में गई थी, अब नहीं जा पाती. अम्माबाउजी मेरे ऊपर ही आश्रित हैं न,  इसलिए. मैं ही उन की देखभाल करती हूं. बीए तक की पढ़ाई तो मैं ने अपने शहर में की, इसलिए  उन्हें कोई दिक्कत नहीं हुई लेकिन पीजी की पढ़ाई मेरे शहर में संभव नहीं थी,  इसलिए मुझे यहां होस्टल आना पड़ा. अम्मा की उम्र हो गई है, अब वे घर के काम बिलकुल नहीं कर सकतीं लेकिन  भइयू और गुड्डन ने कहा है कि मैं वहां की चिंता न करूं. वे लोग मेरे न रहने पर उन लोगों का ख़याल रखेंगे.

यहां  आ कर पढ़ना ही मेरे लिए बहुत बड़ी बात है. मुंबई जाना या सुगंधा दीदी की तरह अपने निर्णय लेना मेरे लिए संभव नहीं है.’मुझे महसूस हुआ  रागिनी अपनी कजिन बहनों के जीवनस्तर  और स्थिति से कहीं न कहीं स्वयं की तुलना कर के दुखी हो रही है. स्वाभाविक ही तो है. कहां रागिनी की अम्माबाबूजी और कहां ये लोग.

मुझे रागिनी की अम्मा याद  आ गईं…ठेठ गांव की बुजुर्ग महिला जो रागिनी की मां से ज्यादा दादीमां नजर आती थीं और धोतीकुरता पहने सीधेसादे  बाऊजी जो पिता से ज्यादा दादाजी. कभीकभी वे लोग डाक्टर, दवाई या किसी काम से इस शहर में आते  तो  रागिनी से मिलने होस्टल आया करते थे. तब  ज्यादा समय रागिनी के घर पर न रहने से होने वाली दिक्कतों की बात वे किया करते थे. रागिनी खुद को  अपराधी सा मानते हुए बारबार समझाती रहती- ‘छुट्टी होते ही आ जाएंगे अम्मा, कुछ दिनों की बात है. हम भइयू से कहेंगे, तुम लोगों को कोई परेशानी न होने पाए.’

उस की अम्मा दिल से आशीर्वाद की झड़ी लगा देतीं…‘प्रकृति उसे सदा बनाए रखे. कोई जन्म का लड़का है मेरातुम्हारा भइयू. वह न रहता, तो कब की हमारी  जान निकल जाती.  घरबाहर एक किए रहता है. कभी अपनी मां से  हमारे लिए खाना बनवा कर ले आता है, कभी गुड्डन, बिट्टन को भेज देता है, जाओ, अम्मा की मदद कर दो. तुम्हारे बाउजी का बाहर का सारा काम बेचारा वही तो देखता है.

‘इसलिए तो मैं और तुम्हारे बाऊजी चाहते हैं, तुम्हारी शादी जल्दी से जल्दी आनंद के साथ हो जाए. हम लोगों की अब उम्र हो गई. पता नहीं कब बुलावा आ जाए. अपनी आंखों के सामने तुम्हारी शादी देख लूं, तो चैन से मर पाऊंगी. आनंद के पिता से मैं ने कह दिया है, हमारा बेटाबेटी सबकुछ रागिनी ही है. जब तक जिंदा हैं हम लोग, रागिनी और  आनंद हमारी आंखों के सामने रहें, बस. हमारा क्या, अब  चार दिन की हमारी जिंदगी है, फिर गांव की जमीन, खेत, घर सब हमारे बाद रागिनी  और  आनंद को ही संभालना है.  सुगंधा की शादी हो जाए, तो तुम्हारी शादी कर के मैं और तुम्हारे बाऊजी  तीरथ पर निकलना चाहते  हैं.’

रागिनी ने धीरे से कहा, ‘अम्मा, काहे हड़बड़ा रही हो? मुझे पढ़ाई तो पूरी करने दो. मैं भी पहले सुगंधा दीदी की तरह  अपने पैरों पर खड़ी होना चाहती हूं.’ बाबूजी ने रागिनी को देख कर  थोड़े कड़े शब्दों में कहा,  ‘देख  बउवा, तुम्हारी यहां आ कर पढ़ाई करने की जिद मैं ने मान ली. लेकिन  आगे अब शादी के बाद जो मरजी आए, करना. हम नहीं रोकेंगे. लेकिन सुगंधा की बराबरी में तुम्हें हम 30 साल की उम्र तक कुंआरी नहीं रख सकते. वह बड़े शहर में रहती है. उस की बात  और है.

‘यहां गांव, समाज में लोग दस तरह की बातें करते हैं. मेरी समाज में प्रतिष्ठा है.  प्रतिष्ठा के लिए हम ठाकुर लोग जान दे भी देते हैं और जान ले भी लेते हैं. इसलिए कुछ ऊंचनीच हो, उस के पहले जरूरी है  तुम्हारी शादी हो जाए. तुम्हारे ससुराल वाले चाहें तो करना नौकरीचाकरी.’ रागिनी ने बेबसी से बाऊजी की तरफ देखा. उस की आंखें छलक आईं, तो  अम्मा ने रागिनी को दुलारते हुए कहा, ‘मन से पढ़ाई करो, बउवा और परीक्षा दे कर घर आ जाओ. पैसारुपया, सुखसाधन  सब है घर पे, लेकिन तुम्हारे बिना कुछ अच्छा  नहीं लगता. हमारा सहारा तू ही है बउवा.’

चित्र अधूरा है – भाग 4 : क्या सुमित अपने सपने साकार कर पाया

कार्तिकेय की बात सुन कर सुमित दरवाजा खोल कर उन से लिपट कर रोने लगा, विश्वास कीजिए पापा, मेरे सारे पेपर अच्छे हुए थे— पता नहीं अंक क्यों इतने कम आए?

कोई बात नहीं, बेटा, जीवन में कभीकभी अप्रत्याशित घट जाता है. उस के लिए इतना निराश होने की आवश्यकता नहीं है. अब हमें आगे के लिए सोचना है. क्या करना चाहते हो, अगले वर्ष प्रतियोगी परीक्षाओं में बैठना चाहोगे या किसी कालिज में दाखिला ले कर पढ़ना चाहोगे? कार्तिकेय ने पूछा.

पापा, मैं कालिज में दाखिला ले कर पढ़ने के बजाय प्रतियोगी परीक्षाओं में सफल हो कर अपनी योग्यता सिद्ध करना चाहूंगा, लेकिन अब मैं यहां नहीं पढ़ना चाहूंगा बल्कि दिल्ली में मौसीजी के पास रह कर प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी करूंगा, सुमित ने कहा.

ठीक है, जैसी तेरी इच्छा. वैसे भी तेरे मौसाजी तो इसी वर्ष प्रतियोगी परीक्षाओं में बैठने के लिए कह रहे थे. किंतु हम सोच रहे थे कि तुम्हारा काम यहीं हो जाएगा, लेकिन तब उन की बात पर हम ने यान ही नहीं दिया था. दिल्ली में अच्छे कोंचिंग इंस्टीट्यूट भी हैं, कार्तिकेय बोले.

उमा की सुमित को दिल्ली भेजने की बिलकुल भी इच्छा नहीं थी. अनुज भी भैया के दूर होने की सोच कर उदास हो गया था, इसलिए दोनों ही चाहते थे कि वह यहीं रह कर कुछ करे. यहां भी तो सुविधाओं की कमी नहीं है, यहां रह कर भी प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी की जा सकती है.

कल सुमित की कुशलक्षेम पूछने के लिए दिवाकर और अनिला का फोन आया था, उस के खराब रिजल्ट की बात सुन कर उन्होंने फिर अपनी बात दोहराई तो उमा को भी लगने लगा कि शायद दिल्ली भेजना ही उस के लिए अच्छा हो. कभीकभी स्थान परिवर्तन भी सुखद रहता है और फिर जब स्वयं सुमित की भी यही इच्छा है…

वैसे भी जीवन में कुछ पाने के लिए कुछ खोना ही पड़ता है. बच्चों को सदा बांध कर तो नहीं रखा जा सकता. संतोष इतना था कि दिल्ली जैसे महानगर में वह अकेला नहीं बल्कि दिवाकर और अनिला की छत्रछाया और मार्गदर्शन में रहेगा.

दिवाकर दिल्ली यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर थे, सुमित को सदा प्रथम आते देख कर उन्होंने कई बार कहा था कि उसे दिल्ली भेज दिया जाए जिस से वह प्रतियोगी परीक्षाओं की उचित तैयारी कर किसी अच्छे इंस्टीट्यूट से इंजीनियंरिंग या मेडिकल की डिगरी ले तो भविष्य के लिए अच्छा होगा.

सुमित को दिल्ली भेज दिया था. वह बीचबीच में छुट्टियों में घर आता रहता था. एक बार सुमित और अनुज किसी बात पर झगड़ रहे थे. बेकार ही उमा कह बैठी, पता नहीं, कब तुम दोनों को अक्ल आएगी? दूर रहते हो तब यह हालत है. यह नहीं कि बैठ कर परीक्षा की तैयारी करो. पड़ोस के नंदा साहब के लड़के को देखो, प्रथम बार में ही मेडिकल में सेलेक्शन हो गया. कितनी प्रशंसा करती है वह अपने बेटे की- मैं किस मुंह से तुम्हारी तारीफ करूं- यही हाल रहा तो जिंदगी में कुछ भी नहीं कर पाओगे— जब तक हम हैं, दालरोटी तो मिल ही जाएगी, उस के बाद भूखों मरना.

सुमित तो सिर झुका कर बैठ गया किंतु अनुज बोल उठा, ममा, आप ने कभी अधूरे चित्र को देखा है, कितना अनाकर्षक लगता है…

मुझे असमंजस में पड़ा देख कर वह फिर बोला, ममा, अभी हम अधूरे चित्र के समान ही हैं— कभी कोई चित्र शीघ्र पूर्णता प्राप्त कर लेता है और कभीकभी पूर्ण होने में समय लगता है.

मैं उस की बात का आशय समझ कर कह उठी, बेटा, पूत के पांव पालने में ही दिख जाते हैं.

कार्तिकेय, जो पीछे खड़े सारा वार्तालाप सुन रहे थे, भी कह उठे, बातें बनाना तो बहुत आसान है बेटा, किंतु कुछ कर पाना—कुछ बन पाना बहुत ही कठिन है. जब तक परिश्रम और लगन से येय की प्राप्ति की ओर अग्रसर नहीं होगे तब तक सफल नहीं हो पाओगे.

सुमित के 2 बार प्रतियोगी परीक्षाओं में असफल हो जाने से हम सब निराश हो गए थे. कार्तिकेय ने तो सुमित से बातें करना ही छोड़ दिया था. वह बीचबीच में घर आता भी तो अपने कमरे में ही बंद पड़ा किताबों में सिर छिपाए रहता, मेरे मुंह से ही जबतब न चाहते हुए भी अनचाहे शब्द निकल जाते. तब दादाजी ही उस का पक्ष लेते हुए कहते, बेटा, ऐसा कह कर उस का मनोबल मत तोड़ा कर— सब डाक्टर और इंजीनियर ही बन जाएं तो अन्य क्षेत्रें का काम कैसे चलेगा? धैर्य रखो— एक दिन अवश्य वह सफल होगा.

पिताजी, न जाने वह शुभ घड़ी कब आएगी—? मांजी तो पोते से इलाज करवाने की अधूरी इच्छा लिए ही चली गईं. अब और न जाने क्या देखना बाकी है—?

बेटा, इच्छा तो इच्छा ही है, कभी पूरी हो पाती है कभी नहीं. वैसे भी क्या आज तक किसी मनुष्य की समस्त इच्छाएं पूर्ण हुई हैं, लिहाजा उस के लिए किसी को दोष देना और अपमानित करना उचित नहीं है, वह उतने ही संयम से उक्कार देते, तब लगता कि मुझ में और कार्तिकेय में पिताजी के समान सूझबूझ क्यों नहीं है. सुमित की परीक्षा की इन घडि़यों में अपने मधुर वचनों से और उस के मार्ग में आने वाली कठिनाइयों का पता लगा कर उस का मनोबल बढ़ाने का प्रयास क्यों नहीं करते?

वैसे भी सुमित को बचपन से ही मुझ से ज्यादा अपने पापा से लगाव था, अतः उन की बेरुखी से वह बुरी तरह घायल हो गया था. तभी, इस बार सुमित जो गया, आया ही नहीं.

अनिला लिखती, ‘दीदी, सुमित ने स्वयं को पढ़ाई में डुबो लिया है, लेकिन पता नहीं क्यों वह सफल नहीं हो पा रहा है…? जबजब वह घर से लौटता है तबतब वह और भी ज्यादा निराश हो जाता है. शायद अपनी उपेक्षा और अवहेलना के कारण.’

अब उमा को भी महसूस होने लगा था कि शायद अभी तक का हमारा व्यवहार ही उस के प्रति गलत रहा है. तभी उस में आत्मविश्वास की कमी आती जा रही है, और हो सकता है वह पढ़ने का प्रयत्न करता हो, लेकिन अति दबाव में आ कर वह पूरी तरह यान केंद्रित न कर पा रहा हो.

प्रारंभ से ही बच्चों को हम अपनी आकांक्षाओं, आशाओं के इतने बड़े जाल में फांस देते हैं कि वह बेचारे अपना अस्तित्व ही खो बैठते हैं, समझ नहीं पाते कि उन की स्वयं की रुचि किस में है, उन्हें कौन से विषय चुनने चाहिए. वैसे भी हमारी आज की शिक्षा प्रणाली बच्चों के सर्वांगीण विकास में बाधक है. वह उन्हें सिर्फ परीक्षा में सफल होने हेतु विभिन्न प्रकार के तरीके उपलब्ध कराती है न कि जीवन के रणसंग्राम में विपरीत परिस्थितियों से जूझने के. बच्चे की सफलता, असफलता और योग्यता का मापदंड केवल विभिन्न अवसरों पर होने वाली परीक्षाएं ही हैं. चाहे उसे देते समय बच्चे की शारीरिक, मानसिक स्थिति कैसी भी क्यों न हो?

सुमित के न आने के कारण उमा ही बीचबीच में जा कर मिल आती. उसे अकेला ही आया देख कर वह निराश हो जाता था. वह जानती थी कि उस की आंखें पिता के प्यार के लिए तरस रही हैं, लेकिन कार्तिकेय ने भी स्वयं को एक कवच में छिपा रखा था, जहां बेटे की अवहेलना से उपजी आह पहुंच ही नहीं पाती थी. शायद पुरुष बच्चों की सफलता को ही ग्रहण कर गर्व से कह सकता है— ‘आखिर बेटा किस का है?’ लेकिन एक नारी—एक मां ही बच्चों की सफलताअसफलता से उत्पन्न सुखदुख में बराबर का साथ दे कर उन्हें सदैव अपने आंचल की छाया प्रदान करती रहती है.

सुमित की ऐसी दशा देख कर उमा काफी विचलित हो गई थी, लेकिन अब कुछ भी कर पाने में स्वयं को विवश पा रही थी. पितापुत्र के शीत युœ ने पूरे घर के माहौल को बदल दिया था. अब तो हंसमुख अनुज के व्यक्तित्व में भी परिवर्तन आ गया था. वह भी धीरेधीरे गंभीर होता जा रहा था. सिर्फ काम की बातें ही करता था. पूरे दिन अपने कमरे में कैद किताबों में ही उलझा रहता— शायद पापा की खामोशी ने उसे बुरी तरह झकझोर कर रख दिया था.

अनिला से ही पता चला कि सुमित ने बी-एससी- प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण कर सिविल सर्विसेस की कोचिंग करनी प्रारंभ कर दी है और उसी में रातदिन लगा रहता है-पिताजी के हंसमुख स्वभाव के कारण ही घर में थोड़ी रौनक थी वरना अजीब सी खामोशी छाती जा रहा थी— मां की मृत्यु के पश्चात वह दोपहर का समय अनाथाश्रम जा कर बच्चों और प्रौढ़ों को शिक्षादान करने में व्यतीत करते थे. इस नेक काम की दीप्ति से ही आलोकित उन का तनमन मरुस्थल हो आए. घर में थोड़ी शीतल बयार का झोंका दे कर प्रसन्नता देने का प्रयास करता रहता था.

उमा बेटा, एक कप चाय मिलेगी? सुबह की सैर से लौट कर आए पिताजी ने किचन में आ कर दूध से भरा जग रखते हुए कहा.

बस, एक मिनट, पिताजी—

वास्तव में उन की सैर और भैंस का ताजा दूध लाने का काम दोनों साथसाथ हो जाते थे. कभीकभी सब्जी, फल इत्यादि यदि उचित दाम में मिल जाते तो वह भी ले आते थे.

चाय का कप टेबुल पर रखते हुए उमा ने कहा, पिताजी, आप का स्वप्न पूरा हो गया.

स्वप्न— कैसा स्वप्न—? क्या सुमित सिविल सर्विसेज में आ गया? पिताजी ने चौंकते हुए पूछा.

हां, पिताजी, आज ही उस का फोन आया था, उमा ने कहा.

मुझे मालूम था, आखिर पोता किस का है? वह हर्षातिरेक से बोल उठे थे, साथ ही उन की आंखों में खुशी के आंसू भी छलक आए थे.

सब आप के आशीर्वाद के कारण ही हुआ है. बेटा, बड़ों का आशीर्वाद तो सदा बच्चों के साथ रहता है, लेकिन उस की इस सफलता का मुख्य श्रेय दिवाकर और अनिला को है जिन्होंने उसे पलपल सहयोग और मार्गदर्शन दिया वरना जैसा व्यवहार उसे तुम दोनों से मिला उस स्थिति में वह पथभ्रष्ट हो कर या तो चोरउचक्का बन जाता या बेरोजगारों की संख्या में एक वृद्धि और हो जाती.

पिताजी ज्यादा ही भावुक हो चले थे, वरना इतने कठोर शब्द वह कभी नहीं बोलते. वह सच ही कह रहे थे, वास्तव में दिवाकर और अनिला ने उसे उस समय सहारा दिया जब वह हमारी ओर से निराश हो गया था. मैं पीछे मुड़ी तो देखा कार्तिकेय खड़े थे. एक बार फिर उन का चेहरा दमक उठा था शायद आत्माभिमान के कारण— योग्य पिता के योग्य पुत्र होने के कारण, लेकिन वह जानती थी कि वह अपने मुंह से प्रशंसा का एक शब्द भी नहीं कहेंगे. मैं कुछ कहने को हुई कि वह अपने कमरे में चले गए.

आज सुमित के कारण हमारी नाक ऊंची हो गई थी. कल तक जो बेटा नालायक था, आज वह लायक हो गया. संतान योग्य है तो मातापिता भी योग्य हो जाते हैं वरना पता नहीं कैसे परवरिश की बच्चों की कि वे ऐसे निकल गए कि ताने सुनसुन कर जीना दुश्वार हो जाता है. यह दुनिया का कैसा दस्तूर है?

आज का मानव, जीवन में आए तनिक से झंझावातों से स्वयं को इतना असुरक्षित क्यों महसूस करने लगता है कि अपने भी उसे पराए लगने लगते हैं? अनुज का कथन याद हो आया था— ‘एक अधूरा चित्र तो पूर्णता की ओर अग्रसर हो रहा है दूसरा भी समय आने पर रंग बिखेरेगा ही,’ इस आशा ने मन में नई उमंग जगा दी थी.

कतरा-कतरा जीने दो – भाग 1

वह जनवरी की सर्द सुबह थी जब मैं ने पहली बार पीजी गर्ल्स होस्टल में प्रवेश किया था. वहां का मनोहारी वातावरण देख मन प्रफुल्लित हो गया. होस्टल के मुख्यद्वार के बाहर  एक तरफ  आम का बगीचा, खजूर और जामुन  के पेड़ थे तो दूसरी तरफ बड़ेबड़े कैंपस  वाले प्रोफैसर्स क्वार्टर. बीच में फूलों के खूबसूरत गार्डन के बीच 2 गर्ल्स होस्टल थे. एक तरफ साइंस होस्टल और दूसरी  तरफ आर्ट्स होस्टल. गेट के अंदर पांव रखते ही लाल-लाल गुलाब, गेंदे, सूरजमुखी के फूलों की महक और रंगत  ने मेरा इस तरह स्वागत किया कि पहली बार नए  होस्टल में आने  की मेरी  सारी घबराहट  उड़नछू हो गई.

सुबह के 11बज रहे  थे लेकिन कुहासे  की वजह से ऐसा लग रहा था मानो सूरज की किरणें अभीअभी बादलों की रजाई से निकल कर  अलसाई नजरों से हौलेहौले धरती पर उतर रही हों. ओस की बूंदों से नहाई हरीभरी, नर्म, मखमली दूब पर चलते हुए मैं ने  आर्ट्स होस्टल की तरफ  अपना रुख किया. सामने गार्डन में 2 लड़कियां बैठी चाय पी रही थीं. एक बिलकुल दूधिया गोरीचिट्टी, लंबे वालों वाली बहुत सुंदर सी लड़की और दूसरी हलकी सांवली, छोटेछोटे घुंघराले बालों वाली लंबी, दुबलीपतली व  बहुत आकर्षक सी लड़की.

मैं ने उन दोनों के करीब जा कर पूछा, ‘रागिनी सिंह,  साइकोलौजी  डिपार्टमैंट, फिफ्थ ईयर किस तरफ रहती हैं?’ गोरी वाली लड़की ने इशारा किया, इधर और घुंघराले बालों वाली लड़की ने  कहा, ‘मैं ही हूं. कहो, क्या बात है?’

मैं ने अपना परिचय देते हुए कहा, ‘मैं, अनामिका शर्मा,  इतिहास डिपार्टमैंट से हूं. मैं ने यहां ऐडमिशन लिया है.   जब तक सीनियर्स रूम खाली नहीं कर देतीं, तब तक मुझ से होस्टल वार्डन ने इंतजार करने को कहा था. लेकिन मुझे रोज 40 किलोमीटर दूर से  आ कर क्लास करने में तकलीफ होती थी, इसलिए  मुझे मेरे क्लासमेट और  आप के पड़ोसी संजीव सिंह ने आप के पास भेजा है. उस की बड़ी बहन फाइनल ईयर में हैं, लेकिन वे इस साल  इम्तिहान नहीं दे पाएंगी और होस्टल छोड़ रही हैं. इसलिए रूम न. 101 की चाबी उस ने मुझे दी है और कहा है कि मैं  उस की बहन का जरूरी सामान आप के हवाले कर के इस रूम में  शिफ्ट हो जाऊं.’ मैं ने एक ही सांस में अपनी बात पूरी की.

रागिनी ने चौंक कर कहा, ‘रूम न. 101? अरे वाह भाई  संजीव, मुझे नहीं दिलवाया. होस्टल का सब से शानदार कमरा तुम्हें दिलवा दिया.’ रागिनी का चेहरा थोड़ी देर को बुझ गया लेकिन अगले ही पल वह मेरा सामान पकड़ कर मुझे मेरे कमरे में शिफ्ट करवाने में उत्साह से लग गई.

दरअसल, होस्टल में फिफ्थ ईयर वाले स्टूडैंट्स के लिए  डबलबैड के कमरे नीचे के फ्लोर में थे और  सिक्स ईयर में ऊपर के फ्लोर में सिंगलबैड रूम था. मेरा कमरा ऊपर के फ्लोर में बालकनी के बिलकुल सामने था जहां बैठ कर होस्टल में आनेजाने वाले सभी लोग दिखाई देते थे. साथ ही, होस्टल के गार्डन का नजारा,  फूलों की खुश्बू, तलाब और आम के पेड़ से आती  ठंडी हवा व कोयल की कूक का खूब आनंद  मिलता था. इसलिए अपनेअपने डिपार्टमैंट से आने के बाद  ज्यादातर लड़कियां शाम ढलते ही मेरे कमरे के बाहर बनी विशाल बालकनी में कुरसी डाल कर बैठ जातीं व खूब मजाकमस्ती किया करती थीं. रागिनी और उस की सहेलियों के झुंड का हिस्सा बनने में मुझे देर नहीं लगी.

जल्दी ही रागिनी से मेरी अच्छी दोस्ती हो गई. एक तो संजीव मेरा क्लासमेट  था,  और  दूसरे, रागिनी से उस के घरेलू संबंध थे. इस वजह से हमारा परिचय प्रगाढ़ हो गया था. इस के अतिरिक्त  उसे मेरे रूम के सामने की बालकनी बहुत पसंद थी और  मेरी  चाय पीने की आदत. चाय रागिनी को भी बहुत पसंद थी लेकिन हमारे होस्टल के मैस में चाय मिलने का कोई प्रावधान नहीं था, इसलिए यह तय हुआ कि मेरे रूम में सुबहशाम की चाय बना करेगी और हम दोनों साथ पिया करेंगी. सुबह की चाय हमेशा वह ही बनाया करती थी और शाम की मैं.

दरअसल,  मेरी सुबह देर से उठने की आदत थी. मैं 8-9 बजे तक  सोया करती थी  और इतनी देर में  रागिनी नहाधो कर तैयार हो कर मेरे साथ चाय पीने को चली आया करती. पूरे अधिकार व बड़े प्यार से मेरे कमरे में आ कर मेरे बालों को कभी झकझोर कर, कभी सहला कर मुझे उठाती, और मां की तरह कहती, ‘चलो उठो, सुबह हो गई. जाओ तो जल्दी से ब्रश कर के आओ, तब तक मैं  तुम्हारे लिए चाय बनाती हूं.’

मेरे फ्रैश हो कर आने तक वह बड़ी तरतीब से मेरा बिस्तर, मेरी किताबें सही करती, स्टोव जला कर बढ़िया चाय बनाती और बाहर बालकनी में चेयर निकाल कर मेरे आने का इंतजार करती. मुझे उस के इस अपनत्व और  परवा पर बड़ा आश्चर्य होता. 2 दिनों के परिचय में भला किसी अजनबी का कोई  इस हद तक कैसे ख़याल रख सकता है. मैं ने एकाध बार  उस से कहा- ‘रागिनी, मुझे लगता है जैसे  तुम पिछले जन्म की मेरी मां हो. क्यों करती हो मेरी इतनी परवा?’

रागिनी अपने माथे पर झूलती  घुंघराले बालों की लटों को झटक कर कहती- ‘क्योंकि  तुम  एकदम मेरे भइयू की तरह हो. वैसे ही सिर पर तकिया रख कर सोती हो. मेरी एकएक बात ध्यान से सुनती हो. एकदम  वैसे ही  बात करती हो जैसे मेरा भइयू कहता है.’

‘बउवा, तू तो मेरी मां से भी ज्यादा मां है रे. रोज सुबह से शाम तक मेरा इतना ख़याल तो मेरी मां भी नहीं रखती.’ ‘घर पर भी मैं बहुत सवेरे उठती हूं. अम्माबाऊजी को सुबह का चायनाश्ता दे कर भइयू को उठाना और चाय बना कर पिलाना मेरी आदत है. वह अपना बिस्तर  और किताबें तुम्हारी ही तरह  कभी सही नहीं करता. सब मैं करती हूं.’

मैं ने एक बार पूछा… ‘भइयू तुम्हारा भैया है, रागिनी?  रागिनी ने उदास हो कर कहा- ‘नहीं, मेरा कोई भाई नहीं. अम्मा, बाऊजी और मैं घर के पुराने वाले  हिस्से में रहते हैं. बाहर नए 4 कमरे बाऊजी ने बनवाए थे,  उसी में किराए में भइयू, उस की बहनें गुड्डन, बिट्टन और  आंटीअंकल रहते हैं. वे लोग मेरे बचपन के समय से हमारे  घर में रह रहे हैं और हमारे परिवार के सदस्य की तरह हैं. गुड्डन, बिट्टन मेरी सहेलियां हैं, वे लोग अपने बड़े भाई  आशीष भैया को भइयू कहती हैं, तो मेरा भी वह भइयू बन गया. अम्मा, बाऊजी मुझे बउवा कहते हैं तो भइयू की मैं बउवा बन गई.’

रागिनी की हर बात में भइयू का जिक्र रहता. वह पढ़ाई में बहुत ही होशियार थी. जब भी कोई उस के अच्छे मार्क्स या सुंदर हैंडराइटिंग की बात करता, वह झट से कहती- ‘यह तो भइयू की वजह से है. बचपन से मुझे भइयू ने पढ़ाया है. मेरे नोट्स वही तैयार करता है और मेरी राइटिंग उन की राइटिंग देखदेख कर  ऐसी बनी है.’

चित्र अधूरा है – भाग 3 : क्या सुमित अपने सपने साकार कर पाया

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चौथापन- भाग 3 : मुन्ना के साथ क्या हुआ

मुन्ना के पहले उन की 2 बेटियां और थीं. वह सोचते थे कि बेटियां तो पराया धन होती हैं. दूसरे घर चली जाएंगी. उन का बेटा मुन्ना ही बुढ़ापे में उन की सेवा करेगा. उस की बहू आ जाएगी तो वह उन की सेवा करेगी. फिर नातीनातिन हो जाएंगे तो वे बाबाबाबा कहते हुए उन के आगेपीछे घूमेंगे. मुन्ना बचपन में आए- दिन बीमार पड़ जाता था. उन्होंने उस की बड़ी सेवा की थी और धन भी खूब लुटाया था. न जाने कितने दवाखानों की धूल छानी थी. न जाने कितनी मनौतियां मानी थीं. न जाने कितनी रातें जागते हुए गुजार दी थीं. अब उस का रवैया देख कर लगता था कि उन्होंने कितना बड़ा भ्रम पाल लिया था. वह भी कैसे पागल थे.

उन का शरीर बुखार से तप रहा था. कुछ देर तक मुन्ना के कमरे से डिस्को संगीत का शोर और बच्चों के हंगामे की कर्णभेदी आवाजें आती रहीं और उन का सिर दर्द से फटता रहा. फिर खामोशी छा गई. कमरे के सन्नाटे में छत के पंखे की खड़खड़ाहट गूंजती रही. उन्हें लेटेलेटे बारबार यह खयाल सताता रहा कि बहू बेटे को उन से कोई हमदर्दी नहीं है. बहू ने तो एक बार भी आ कर नहीं पूछा उन की तबीयत के विषय में.

एकाएक उन्हें अपना गला सूखता सा महसूस हुआ. लो, कमरे में पानी रखवाना तो वह भूल ही गए थे. अब क्या करें? वह उस बुखार में उठ कर रसोई तक कैसे जा सकेंगे? अचानक उन की नजर शाम को पानी से भर कर खिड़की पर रखे गिलास पर गई. उन्होंने उठ कर वही पानी पी लिया.

वह मन की घबराहट को दूर करने के लिए खिड़की के पास ही खड़े हो गए और सूनी सड़क पर चल रहे इक्कादुक्का लोगों को देखने लगे. काश, वह उन्हें आवाज दे पाते, ‘‘आओ, भाई, मेरे पास बैठो थोड़ी देर के लिए. मेरा मन बहुत घबरा रहा है. कुछ अपनी कहो, कुछ मेरी सुनो.’’

सहसा वह पागलों की तरह हंस पड़े अपने पर. ‘अरे, जिसे छोटे से बड़ा किया, पढ़ायालिखाया, अपने जीवन भर की कमाई सौंप दी, वह बेटा तो चैन की नींद सो रहा है. भला ये अपरिचित लोग अपना काम- धंधा छोड़ कर मेरे पास क्यों बैठने लगे? वह फिर से पलंग पर आ कर लेट गए.’

उन्हें याद आया कि कैसे दिनरात मेहनत कर के उन्होंने कारखाना खड़ा किया था, किस तरह मशीनें खरीदी थीं, किस तरह कारखाने की नई इमारत तैयार की थी, धूप में घूमघूम कर, भूखेप्यासे रहरह कर, देर रात तक जागजाग कर वह किस तरह काम में लगे रहते थे. किस के लिए? मुन्ना के लिए ही तो. अपने परिवार के सुख के लिए ही तो? जिस में वह खुद भी शामिल थे.

अब कहां गया वह सुख? उन के परिवार ने क्या कीमत रखी है उन की या उन के सुख की? वह सब के सामने इतने दीनहीन क्यों बन जाते हैं? क्या वह मुन्ना की कमाई पर पल रहे हैं? क्यों खो दी उन्होंने अपनी शक्ति? नहीं, बहुत हो चुका, वह अब और नहीं सहेंगे.

वह आवेश में उठ कर बैठ गए. क्षण भर में ही उन का शरीर पसीने से लथपथ हो गया. दूसरे दिन सुबह मुन्ना सपरिवार नाश्ता कर रहा था, तभी गोपाल ने आ कर सूचना दी, ‘‘भैयाजी, नाश्ते के बाद आप को दादाजी ने अपने कमरे में बुलाया है.’’

मुन्ना ने नाश्ते के बाद उन के कमरे में जा कर देखा कि वह पलंग पर बैठे कोई किताब पढ़ रहे हैं.

‘‘आओ, मुन्ना बैठो,’’ उन्होंने सामने पड़ी कुरसी की ओर संकेत किया. जाने कितने वर्षों के बाद उन्होंने उसे ‘मुन्ना’ कह कर एकदम सीधे संबोधित किया था.

‘‘कैसी तबीयत है आप की?’’

‘‘तबीयत तो ठीक है. मैं ने एक दूसरी ही चर्चा के लिए तुम्हें बुलवाया था.’’

‘‘कहिए.’’

‘‘यहां इस घर में पड़ेपड़े अब मेरा मन नहीं लगता. स्वास्थ्य भी बिगड़ता रहता है. बेकार पड़ेपडे़ तो लोहा भी जंग खा जाता है, फिर मैं तो हाड़मांस का आदमी हूं. मैं चाहता हूं कि घर से निकलूं और…’’

‘‘इन दिनों मैं भी यही सोच रहा था, बाबूजी,’’ मुन्ना ने उन की बात पूरी होने से पहले ही उचक ली और बड़े निर्विकार भाव से बोला, ‘‘आप का चौथापन है. इस उम्र में लोग वानप्रस्थी हो जाते हैं, घरसंसार को तिलांजलि दे देते हैं. आप भी हरिद्वार चले जाइए और वहां किसी आश्रम में रह कर भगवान की याद में बाकी जीवन बिता दीजिए.’’

सुनते ही उन्हें जोरों का गुस्सा आ गया. वह क्रुद्ध शेर की तरह गरज उठे, ‘‘मुन्ना, क्या तू ने मुझे उन नाकारा और निकम्मे लोगों में से समझ लिया है, जिन के आगे अपने जीवन का कोई महत्त्व ही नहीं है. अभी मेरे हाथपांव चलते हैं. दुनिया में बहुत से अच्छे काम हैं करने के लिए. मैं घर में निठल्ला नहीं पड़ा रहना चाहता. घर से बाहर निकल कर समाज- सेवा करना चाहता हूं.’’

‘‘तो फिर कीजिए समाजसेवा. किस ने रोका है?’’

‘‘हाथपैरों से तो करूंगा ही समाज- सेवा, मगर उस के लिए कुछ धन भी चाहिए, इसलिए मैं चाहता हूं कि तुम कम से कम 1 हजार रुपए महीना मुझे जेब- खर्च के तौर पर देते रहो.’’

मुन्ना के कान खड़े हो गए, ‘‘1 हजार रुपए, किसे लुटाएंगे इतने पैसे आप?’’

हमेशा की तरह वह कमजोर नहीं पड़े, झुके भी नहीं, बल्कि वह मुन्ना से आंखें मिला कर बोले, ‘‘इस से तुम्हें क्या? त्रिवेणी को भी मैं अपने साथ रखना चाहता हूं. दे सकोगे न तुम मुझे मेरा खर्च?’’

‘‘कैसे दे पाऊंगा, बाबूजी, इतना पैसा? अभी जो मुंबई से नई मशीन मंगवाई हैं, उस का पैसा भी भेजना बाकी है.’’

‘‘तुम खुद मुझे इन झगड़ों से दूर कर चुके हो. यह देखना तुम्हारा काम है. मैं भी कोई मतलब नहीं रखना चाहता कारोबारी बखेड़ों से. मैं इतना जानता हूं कि यह कारखाना मेरा है और मैं चाहूं तो इसे बेच भी सकता हूं या किसी के भी सुपुर्द कर सकता हूं, लेकिन मैं ऐसा नहीं करना चाहता. मेरा तो इतना ही कहना है कि जब तुम लोगों के खर्च के लिए हजारों रुपए महीना निकल सकते हैं तो क्या मेरे लिए 1 हजार रुपए महीना भी आसानी से नहीं निकल सकते? आखिर मैं ने भी बरसों कारखाना चलाया है और अभी भी चलाने की हिम्मत रखता हूं. तुम से नहीं संभलता तो मुझे सौंप दो फिर से.’’

मुन्ना कोई उत्तर नहीं दे सका. वह सिर झुकाए बैठा रहा. कमरे का वातावरण बोझिल हो चला था. फिर मुन्ना ने ही धीरे से कहा, ‘‘अच्छा होता, बाबूजी, आप हरिद्वार…’’

‘‘नहीं, बेटा, मैं जिंदा इनसान हूं. कोई मुरदा नहीं कि हरिद्वार जा कर किसी आश्रम की कब्र में दफन हो जाऊं या घर में समाधि ले कर बैठा रहूं. तुम अपने ढंग से जीना चाहते हो, तो मैं अपने ढंग से.’’

‘‘अच्छा,’’ मुन्ना उठ कर बाहर जाने लगा. उन्होंने उन्नत मस्तक को उठा कर देखा कि वह अब भी सिर नीचा किए कमरे से बाहर जा रहा था.

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