फिर से नहीं: भाग-4

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विवान के वापस दिल्ली लौट जाने के बाद प्लाक्षा की मुलाकात अपने एक पुराने दोस्त आदित्य से हुई. आदित्य ने बताया कि उस की शादी साक्षी नाम की एक लड़की से होने जा रही है. प्लाक्षा ने जब साक्षी की तसवीर देखी तो चौंक गई. यह वही साक्षी थी, जिसे विवान ने अपनी गर्लफ्रैंड बताया था. वह तुरंत ही दिल्ली जा कर विवान के औफिस पहुंचती है तो वहां उस की मुलाकात साक्षी और विवान दोनों से हो जाती है. उधर प्लाक्षा के मातापिता उस पर शादी के लिए दबाब बना रहे थे और उन्होंने एक लड़का पसंद भी कर लिया था.

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मां का आदेश था कि मुझे नए कपड़े खरीदने हैं उस दिन पहनने के लिए. अब गलती की थी तो भुगतना तो था ही. सप्ताहांत में मैं उन के आदेश का पालन करने के लिए अकेली ही नजदीकी मौल में खरीदारी करने जा पहुंची. मुझे कुछ भी पसंद नहीं आ रहा था. वैसे भी मुझ से अकेले शौपिंग नहीं होती थी. न तो मुझे करनी आती थी और न ही मुझे अकेले घूमना पसंद था. खैर, आजकल जब सब कुछ अकेले ही कर रही थी तो यह भी सही. मैं शौपिंग में और ज्यादा ध्यान लगाने की कोशिश करने लगी. 2-3 ड्रैसेज पसंद कर के मैं ट्रायल रूम में जाने लगी तो वहां खड़ा एक लड़का आदित्य जैसा दिखाई दिया. पास जाने पर पता चला कि वही था. शायद किसी का इंतजार कर रहा था.

‘‘आदित्य तुम यहां? दिल्ली कब आए? बताया भी नहीं.’’

मेरी आवाज सुन कर वह चौंक पड़ा. उस के चेहरे पर मुसकराहट आ गई, ‘‘आज सुबह ही आया हूं. तुम यहां क्या कर रही हो?’’

‘‘परांठे बेच रही हूं…अरे शौपिंग करने आई हूं और तुम ऐसा सवाल पूछ रहे हो,’’ मैं ने हंसते हुए कहा, तो वह भी हंसने लगा.

‘‘अच्छा हुआ तुम मिल गईं. साक्षी मेरे साथ ही है. उस से भी मिल लेना.’’

साक्षी इस के साथ? मैं ने आदित्य को अब तक कुछ नहीं बताया था. कहीं न कहीं आज भी मेरी वफादारी किसी और से ज्यादा विवान की तरफ ही थी. वैसे भी साक्षी को अपनी जिंदगी अपने तरीके से चलाने की पूरी आजादी थी. एक बार मसीहा बन कर भुगत चुकी थी मैं. फिर कोई बखेड़ा खड़ा करना नहीं चाहती थी. आदित्य की ओर हलका सा मुसकरा कर मैं ट्रायल रूम की ओर बढ़ गई.

सभी ट्रायल रूम व्यस्त थे. मैं एक रूम के बाहर खड़ी हो कर इंतजार करने लगी. तभी पास वाले रूम से साक्षी बाहर निकली. मुझे वहां खड़ी देख कर वह सकपका गई.

‘‘हाय प्लाक्षा, कैसी हो?’’ वह बोली.

‘‘मैं ठीक हूं. तुम कैसी हो? और विवान कैसा है आजकल?’’ मैं ने झूठी मुसकान के साथ पूछा.

‘‘विवान ठीक है. तुम्हारी बात नहीं हुई उस से?’’ उस ने झिझकते हुए पूछा.

‘‘नहीं उस दिन के बाद हमारी बात नहीं हुई. वैसे बाहर मैं आदित्य से मिली. वह भी मेरा दोस्त है. उस ने मुझे बताया कि तुम दोनों की शादी होने वाली है,’’ मैं अपनी आवाज में छिपे क्रोध को छिपाने की कोशिश कर रही थी.

मेरी बात सुन कर उस के चेहरे का रंग उड़ गया,  ‘‘ओह हां, ऐक्चुअली प्लाक्षा हम दोनों आई मीन मेरा और विवान का ब्रेकअप हो गया. मैं अपने मम्मीपापा के खिलाफ नहीं जा सकती, इसलिए हम अलग हो गए,’’ उस ने झूठी मायूसी के साथ कहा.

क्या तुम्हें पता है कि उस ने तुम्हारे कारण अपने मम्मीपापा से कितना बड़ा झूठ बोला है? और तुम कह रही हो कि तुम अपने मम्मीपापा के खिलाफ नहीं जा सकतीं. तुम उस के साथ ऐसा कैसे कर सकती हो?’’ मेरे स्वर में क्रोध था, आंखें गुस्से से जल रही थीं.

‘‘मुझे सब पता है कि उस ने क्या किया है, क्या नहीं. मैं उस की गर्लफ्रैंड हूं…आई मीन थी. और तुम क्यों इतनी परेशान हो रही हो उस के लिए? क्या अब तुम फिर से उस पर चांस मारने का सोच रही हो?’’

‘‘शटअप. बकवास बंद करो अपनी,’’ मैं ने गुस्से में कपड़े वहीं पटक दिए और वहां से जाने लगी.

‘‘बकवास तो तुम कर रही हो. दूसरों से भी और अपनेआप से भी. आंखें खोल कर देखो सचाई क्या है,’’ वह पीछे से बोलती जा रही थी.

शुक्र था कि आदित्य बाहर नहीं खड़ा था. मैं तेज कदमों से मौल के बाहर आ गई. अब मुझे विवान पर तरस आ रहा था. वह शुरू से ही बहुत सीधा था. कोई बड़ी बात नहीं थी कि साक्षी ने उस के साथ ऐसा किया. पता नहीं किस हाल में होगा वह और यहां साक्षी मजे से शौपिंग कर रही है. इतने संवेदनहीन कैसे हो सकते हैं लोग? मुझे विवान से बात करनी ही होगी अभी. फोन तो पर्स में था. पर्स कहां गया?

मैं भाग कर वापस मौल में गई. पर्स शायद ट्रायल रूम में ही भूल आई थी. साक्षी के चक्कर में दिमाग ने काम करना ही बंद कर दिया था. पर्स वहीं पड़ा था. सांस में सांस आई. पास के ट्रायल रूम से किसी की आवाज आ रही थी. कोई लड़की गुस्से में फोन पर बात कर रही थी. मैं नजरअंदाज कर के आगे बढ़ने लगी. तभी मेरे कानों ने वह नाम सुना जिस के बाद मेरे कदम वहीं ठिठक गए.

‘‘विवान तुम समझ नहीं रहे हो. मेरे पास और कोई रास्ता नहीं था,’’ यह साक्षी की आवाज थी. ‘‘मुझे उस से बदतमीजी से बात करनी पड़ी वरना उसे शक हो जाता. तुम भी न कभी ढंग से झूठ नहीं बोल सकते. झूठ बोलते वक्त हमेशा इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि अपने भागीदारों से कुछ न छिपाओ पर तुम्हें तो सब कुछ खुद करना होता है.’’

झूठ? विवान ने किस से झूठ बोला था, मुझ से? और साक्षी भी उस में भागीदार थी? मैं सोच रही थी.

‘‘अच्छा अब भड़को मत. यह सोचो कि आगे क्या करना है. मुझे उस वक्त जो समझ आया मैं ने बोल दिया. अब तुम ही सिचुएशन को संभालो.’’

आवाज आनी बंद हो गई. मैं बाहर चल पड़ी. बाहर आदित्य मिल गया.

‘‘अरे प्लाक्षा, तू इतनी देर से अंदर थी? साक्षी भी पता नहीं इतनी देर से क्या कर रही है. मैं पूरा मौल घूम आया और वह अभी बाहर नहीं आई. तुम्हें मिली क्या?’’

मैं उस वक्त उस से बात करने के बिलकुल मूड में नहीं थी. ‘‘नहीं, मैं अभी चलती हूं जरूरी काम है,’’ इतना कह कर मैं बाहर आ गई.

 

कुछ देर पहले विवान के लिए जो तरस था वह अब गुस्से में बदल चुका था. उस ने मुझ से झूठ बोला था? लेकिन वह झूठ कैसे बोल सकता है? उसे तो झूठ से सख्त नफरत थी. मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा था कि हो क्या रहा है. मेरा दिमाग चकराने लगा था. मैं फुटपाथ पर ही एक बैंच पर बैठ गई. कुछ भी सोचनेसमझने की क्षमता अब मुझ में नहीं थी. बेहतर यही होगा कि मैं विवान के मुंह से ही सब कुछ सुनूं.

‘‘हैलो विवान, तुम मुझ से अभी मिल सकते हो?’’ इतना ही कह पाई मैं.

उस की आवाज में हैरानी के साथसाथ चिंता भी झलक रही थी, ‘‘प्लाक्षा, तुम कहां हो? इतने दिनों से तुम से मिलने की, बात करने की कोशिश कर रहा हूं, लेकिन ऐसा हो नहीं पा रहा.’’

‘‘अभी मिल सकते हो?’’ मैं ने फिर से पूछा.

‘‘हां बिलकुल, बताओ कहां आना है?’’

‘‘घर आ जाओ,’’ कह कर मैं ने फोन रख दिया. इतने दिनों से मेरे जीवन में चल रही उथलपुथल शायद आज शांत हो जाएगी. थके कदमों से मैं घर की ओर चल पड़ी. अभी सचाई का सामाना करना बाकी था.

मेरे पहुंचने से पहले ही विवान मेरे घर पहुंच चुका था. मैं चुपचाप ताला खोलने लगी. उसे अभी यह नहीं पता था कि मैं ने उस की और साक्षी की फोन पर की गई बात सुन ली थी. मैं देखना चाहती थी कि अब भी मुझे बेवकूफ ही बनाता है या सच बोलता है.

‘‘साक्षी ने मुझे बताया कि आज तुम मिली थीं उस से. उस की तरफ से मैं तुम से माफी मांगता हूं. वह ब्रेकअप और शादी के कारण वैसे ही काफी परेशान है, इसीलिए इतना कुछ बोल गई,’’ मेरे कुछ पूछे बिना ही वह बोलने लगा.

‘‘इट्स ओके,’’ मैं ने इतना ही कहा.

‘‘तुम नाराज हो क्या मुझ से? मैं नहीं बता पाया तुम्हें उस वक्त. तुम्हारी अपनी प्रौब्लम थी और मैं भी साक्षी के कारण परेशान चल रहा था. वह सब मैं उस दिन पता नहीं कैसे कह गया,’’ वह बोलता जा रहा था.

‘‘इट्स ओके विवान. मैं नाराज नहीं हूं,’’ मैं शांत थी.

‘‘फिर तुम ने मुझे यहां क्यों बुलाया?’’ वह थोड़ा हैरान था, ‘‘मम्मीपापा से फिर मिलना है क्या?’’

मैं ने इनकार में सिर हिला दिया. फिर बोली, ‘‘मुझे सच जानना है विवान.’’

‘‘सच? किस बात का सच?’’

बातें घुमाने का अब कोई मतलब नहीं था. मैं ने सीधेसीधे पूछने का निश्चय किया और बोली, ‘‘आज मुझ से लड़ाई के बाद जब साक्षी तुम से फोन पर बात कर रही थी तो मैं ने कुछ बातें सुन ली थीं. उन्हें सुन कर मुझे लगा कि तुम मुझ से कुछ झूठ बोल रहे हो.’’

विवान के चेहरे पर हवाइयां उड़ रही थीं. उसे उम्मीद नहीं थी कि इस तरीके से उस की पोल खुल जाएगी.

‘‘नहीं वह किसी और के बारे में बात कर रही थी. तुम ने शायद गलत समझ लिया,’’ वह बोला. लेकिन पहली बार वह मुझ से नजरें चुरा रहा था.

‘‘और झूठ नहीं विवान, मुझे सिर्फ सच सुनना है,’’ मैं चिल्लाई नहीं थी. अपने शांत स्वर पर मैं खुद हैरान थी.

विवान शब्द ढूंढ़ने की कोशिश कर रहा था. झूठ बोलना आसान होता है, लेकिन उसे स्वीकार करना बहुत मुश्किल. उस ने अपनी आंखों को उंगलियों से ढक कर खुद को शांत करने की कोशिश की, फिर हिम्मत कर के बोलना शुरू किया, ‘‘प्लाक्षा, पिछले कुछ महीनों में मैं ने तुम से पता नहीं कितने झूठ बोले हैं. मैं कोई सफाई नहीं देना चाहता लेकिन मेरा इरादा तुम्हारा दिल दुखाने का नहीं था. मैं बस तुम्हें पाने के लिए यह सब झूठ बोलता गया.’’

‘‘मतलब?’’ अब सब कुछ मेरे बरदाश्त से बाहर होता जा रहा था, ‘‘हमारा ब्रेकअप हो चुका है न 2 साल पहले? फिर ये पानाखोना क्या है?’’

विवान के आंसू आने लगे थे, ‘‘प्लाक्षा, मैं तुम्हें सब कुछ सचसच बताता हूं. बस तुम बीच में रिऐक्ट मत करना. पहले पूरी बात सुनना. उस के बाद ही फैसला करना कि मैं सही हूं या गलत.’’ मैं ने हामी में सिर हिला दिया. 2 मिनट तक खुद को संयमित करने के बाद उस ने फिर से बोलना शुरू किया, ‘‘तुम तो जानती हो मैं अपनी भावनाओं को व्यक्त करने में कितना कमजोर हूं. और शायद सारे लड़के ऐसे ही होते हैं. ऐसा नहीं है प्लाक्षा कि मैं ने तुम से कभी प्यार नहीं किया, लेकिन मुझे कभी उसे जताना नहीं आया. जब हमारा ब्रेकअप हुआ तो मैं तुम्हें जाने से नहीं रोक पाया. कहीं न कहीं मैं जानता था कि मुझ में ही कोई कमी थी. तुम पर हक तो पूरा जताता था, लेकिन बदले में प्यार देना भूल जाता था.

‘‘ब्रेकअप के बाद कुछ वक्त तक तो मैं सामान्य रहा. तब तो कई बार हमारी बात भी हो जाती थी तो लगता ही नहीं था कि हम दूर हुए हैं. उस के बाद जब तुम ने कोई भी संपर्क रखने से मना कर दिया तब भी मैं ने बिना सोचेसमझे हामी भर दी. उस वक्त तक मुझे एहसास नहीं था कि तुम मेरे लिए कितनी इंपौर्टेंट हो.

‘‘इस दौरान मैं कई तरह के लोगों से मिला, कई तरह के अनुभव हुए. धीरेधीरे एक बात समझ आई कि तुम ने जितनी अच्छी तरह मुझे संभाल रखा था, उतना कोई कभी नहीं कर सकता. तब मुझे तुम्हारी कमी का एहसास हुआ. कई बार तो अकेलेपन में मन ही मन रो पड़ता तुम्हें याद कर के. कई बार तुम से बात करने की भी कोशिश की लेकिन तब तक शायद तुम मेरे प्रति बिलकुल निष्ठुर हो चुकी थीं. तुम ने भी ढंग से बात करना छोड़ दिया.

‘‘तुम्हारी जिंदगी में जो भी चल रहा था, उस एकएक बात की खबर थी मुझे. मुझ से अलग हो कर काफी आत्मनिर्भर हो गई थीं तुम. तुम्हें ऐसे देख कर खुशी भी होती थी और दुख भी कि मैं ने इतने सालों तक तुम्हें बांध कर रखा. मैं ने तुम से कभी कहा नहीं लेकिन मुझे हमेशा से तुम पर गर्व था. अपने पुरुष अहं के कारण ही शायद तुम्हें कभीकभार रोक बैठता था पर जब मैं चला गया तो तुम ने अपने हिसाब से जीना शुरू कर दिया. मुझे बस एक ही बात का डर रहता था कि कोई तुम्हारे भोलेपन का फायदा न उठा ले. तुम चाहे कितनी भी मुंहफट, मजबूत और समझदार हो, लेकिन तुम्हारी सब से बड़ी कमजोरी यह है कि तुम किसी को भी बहुत जल्दी अपना मान लेती हो. पहले तो मैं तुम्हें अपने सुरक्षा घेरे में रखता था कि कोई तुम्हें किसी तरह की कोई चोट न पहुंचाए लेकिन अब मैं नहीं था. तुम ने कई बार धोखे खाए और फिर से उठ खड़ी हुईं, वह भी दोगुने आत्मविश्वास के साथ.

‘‘उस वक्त मुझे लगने लगा कि मुझ में भी कई परिवर्तन आ रहे हैं. तुम्हारे जीवन में जो कुछ भी चल रहा था उसे देख कर जलन तो होती थी, लेकिन तुम जिस तरह से अपनेआप को संभाल रही थीं उसे सराहने से खुद को रोक नहीं पाता था. मेरे मन में तुम्हारे लिए इज्जत बढ़ती जा रही थी.’’

‘‘इन सब बातों का तुम्हारे झूठ से क्या संबंध? मुझे इन फालतू फिल्मी बातों में कोई दिलचस्पी नहीं है,’’ मैं ने सपाट शब्दों में कहा. वह आखिर साबित क्या करना चाहता था कि वह अब भी मुझ से…? नहीं, अब मैं बेवकूफ नहीं थी. उस के पास पूरे 5 साल थे अपने प्यार को साबित करने के लिए. अब इन सब बातों का क्या मतलब?

‘‘प्लीज प्लाक्षा, मेरी पूरी बात तो सुन लो. फिर तुम्हें जो कहना हो जी भर के कह लेना,’’ उस ने विनती की तो मैं गुस्सा पी कर चुप हो गई.

‘‘मेरे घर पर मेरी शादी की बातें होने लगी थीं. मैं ने उन से कह दिया था कि मुझे शादी नहीं करनी. लेकिन घर वालों को तुम तो जानती ही हो. वे सुनते ही कहां हैं. कुछ लड़कियों से मुझे मिलवा भी दिया. मगर मेरी नजर हर लड़की में तुम्हें ही ढूंढ़ती. सब में कुछ न कुछ तुम सा मिला, लेकिन मुझे तो तुम चाहिए थीं. और कोई पसंद ही कहां आने वाली थी.

‘‘फिर एक दिन मैं ने मम्मीपापा से कह दिया कि मैं शादी करूंगा तो सिर्फ तुम से वरना जिंदगी भर कुंवारा रहूंगा. उन्हें इस में कोई परेशानी नहीं थी. परेशानी तो तुम्हें मनाने की थी. तुम तो मुझ से इतनी दूर चली गई थीं कि तुम्हें वापस पाना कोई आसान काम नहीं था. तभी मुझे पता चला कि तुम दिल्ली आ गई हो.

‘‘मैं बिना कुछ सोचेसमझे तुम से मिलने की योजना बनाने लगा. उस दिन जब मैं तुम्हारे औफिस आया था, वह इत्तफाक नहीं था. मैं जानता था कि तुम वहां काम करती हो. पहले तो मुझे लगा कि अपने चार्म से तुम्हें मना लूंगा, लेकिन उस दिन तुम्हारा रुख देख कर मुझे पता चल गया कि यह काम इतना आसान नहीं है. 2-3 दिन तक यही सोचता रहा कि क्या और कैसे करूं?

‘‘तब साक्षी ने मुझे यह रास्ता बताया. वह मेरी दोस्त है प्लाक्षा. हम दोनों ने मिल कर यह कहानी रची. मुझे उम्मीद नहीं थी कि तुम मेरी बात मान जाओगी पर तुम ने हां कह दिया. मैं हैरान तो था लेकिन खुश भी. यह सोच कर कि शायद तुम्हारे मन में अब भी कहीं न कहीं मेरे लिए थोड़ी जगह है.

‘‘मम्मीपापा को भी अपनी इस योजना में शामिल कर लिया. तुम्हें उन से मिलवाना कोई बड़ी बात नहीं थी. मुश्किल यह थी कि जब तुम्हारे साथ अकेला होता तो खुद को संभाल नहीं पाता था. उस दिन तुम्हारे जन्मदिन पर शायद मैं अपना भांडा फोड देता, लेकिन अच्छा हुआ जो तुम नाराज हुईं और मैं चुपचाप वहां से चला आया.

‘‘जब तुम ने मुझ से अपने मम्मीपापा से मिलने को कहा तो मुझे बहुत हंसी आई. जो काम मैं तुम से झूठ बोल कर करवा रहा था तुम वही मुझ से सच में करवाना चाहती थी. मेरे लिए तो ये सोने में सुहागा था. तुम्हारे साथ ज्यादा वक्त बिताने का मौका जो मिल रहा था, वह भी बिना कोई योजना बनाए.

‘‘और हां, तुम्हारे दोस्त आदित्य को कैसे भूल सकता हूं. उस के कारण तो सारा खेल बिगड़ गया मेरा. मैं कहता था न मुझे वह शुरू से पसंद नहीं था.’’

मैं व्यंग्य से मुसकरा दी. वह बोलता जा रहा था, ‘‘इत्तफाक देखो, औफिस आते ही जिस से तुम सब से पहले मिलीं, वह साक्षी थी. तुम दोनों को साथ देख कर मैं समझ गया कि अब मेरा खेल और नहीं बचा. उस दिन भी मैं तुम से झूठ ही बोला. साक्षी के सामने आने से सब कुछ बिगड़ गया था. अब मेरे पास तुम से मिलने का कोई बहाना नहीं था. प्लान तो यह था कि अपने ब्रेकअप की बात कह कर तुम्हारी सहानुभूति पाने के बहाने तुम्हारे करीब आ जाऊंगा. पर अब तो तुम मुझ से बात करने को ही राजी नहीं थीं.

‘‘आज जो कुछ भी हुआ वह योजनानुसार नहीं था. हालांकि करना मैं भी यही चाहता था जो साक्षी ने किया लेकिन मैं तुम से झूठ बोलबोल कर थक चुका था. आज तुम से मिलने में बहुत डर लग रहा था. जानता था कि आज तुम्हें सच बताना ही पड़ेगा. बस यही सच है. अब तुम मेरे साथ जो सुलूक करना चाहती हो कर सकती हो.’’

-क्रमश:

फिर से नहीं: भाग-2

पूर्व कथा:

ब्रेकअप के 2 साल बाद अचानक प्लाक्षा की मुलाकात अपने ऐक्स बौयफ्रैंड विवान से हुई, तो उस के दिमाग में फिर से वही पुरानी बातें घूमने लगीं. जब एक रोज प्लाक्षा ने विवान को प्रपोज किया था. मगर विवान के शक्की व्यवहार ने उन दोनों के बीच जल्द ही दूरियां पैदा कर दी थीं. 1 हफ्ते बाद विवान फिर प्लाक्षा को उस के औफिस के बाहर मिला. वह उस से कुछ जरूरी बात करना चाहता था. मगर प्लाक्षा जल्दी में थी इसलिए शाम को मिलने का वादा कर के चली गई. शाम को जब दोनों मिले तो विवान ने कहा कि क्या तुम मेरे मम्मीपापा से मेरी गर्लफ्रैंड बन कर मिल सकती हो. सारा मामला जानने के बाद प्लाक्षा मिलने को राजी हो गई.

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‘‘उस का चेहरा मेरे चेहरे के बिलकुल नजदीक था. उस की सांसों को मैं अपनी गरदन पर महसूस कर रही थी. मन कर रहा था कि उस से लिपट जाऊं और जी भर के रोऊं. नहींनहीं…’’

‘‘तुम यह सब क्यों कर रहे हो विवान?’’ प्लाक्षा अंतत: पूछ ही बैठी.

‘‘तुमतो काफी छोटी लगती हो विवान से,’’ उस की मम्मी ने कहा.

‘‘नहीं आंटी, हम तो एक ही…’’ मेरी बात काट कर विवान बीच में ही बोला, ‘‘एक ही औफिस में काम करते हैं, एक ही बैच के हैं.’’ अच्छा हुआ उस ने संभाल लिया. मेरे मुंह से निकलने वाला था कि हम एक ही क्लास में थे.

‘‘फिर भी छोटी लगती है,’’ कह कर वे फुसफुसा कर उस के पापा के कान में कुछ कहने लगीं. मुझे पता था कि वे मेरी हाइट के बारे में बात कर रही होंगी. बचपन से सुनती आई थी ऐसी बातें लोगों के मुंह से, अब तो आदत हो चुकी थी. उन की बात भी सही थी. विवान मुझ से एक फीट से भी ज्यादा लंबा था.

‘‘तो बेटा, तुम यहां अकेली रहती हो?’’ उस के पापा ने पूछा.

‘जी. जौब यहीं है और मम्मापापा का जयपुर में अपनाअपना काम है, इसलिए अकेली ही रहती हूं,’’ मैं ने जवाब दिया.

‘‘शादी की बात करने तो वे आएंगे न?’’ उन्होंने आगे पूछा.

‘‘जी…’’ मैं ने झिझक कर विवान की ओर देखा.

‘‘पापा, अभी जयपुर में इन के घर का काम चल रहा है और फिर उन की जौब भी है, तो अभी नहीं आ सकते,’’ उस ने कहा.

‘‘तो हम जयपुर चले चलते हैं,’’ अंकलआंटी दोनों ने एक स्वर में कहा.

‘‘अरे इतनी भी क्या जल्दी है? वैसे भी अगले महीने मुझे प्रमोशन मिलने वाली है. तब तक अंकलआंटी भी फ्री हो जाएंगे,’’ विवान जल्दी से बोला.

‘‘अभी अगर सगाई ही हो जाती तो…’’ आंटी ने उम्मीद भरे स्वर में कहा.

‘‘मां मुझे पता है आप को मेरी शादी की बहुत जल्दी है. इतने दिन रुकी हो, तो अब थोड़े दिन और रुक जाओ,’’ उस ने मां को समझाते हुए कहा.

घर से बाहर आ कर कार में बैठ कर मैं ने चैन की सांस ली. विवान ने कार स्टार्ट की ही थी कि मेरे दिमाग में एक विचार कौंधा, ‘‘मुझे एक बात बताओ विवान. तुम ने अपने घर वालों को सीधासीधा यह क्यों नहीं बता दिया कि साक्षी अभी यहां नहीं है, 6 महीने बाद आएगी?’’

मेरी बात सुन कर वह कुछ परेशान हो गया. फिर बोला, ‘‘मेरी मौसी की बेटी की सगाई एक लड़के से हुई थी. उस के बाद वह विदेश चला गया. उन लोगों ने 1 साल तक उस का इंतजार किया, लेकिन वह वापस नहीं आया. यहां उस के परिवार को भी उस की कोई खबर नहीं थी. बाद में छानबीन करने पर पता चला कि वह वहां आराम से लिव इन में रह रहा था. उस के खिलाफ रिपोर्ट भी दर्ज हुई, लेकिन सगाई में हुए खर्चे और परिवार की इज्जत को हुए नुकसान की तो कोई भरपाई नहीं हुई.’’

‘‘लेकिन साक्षी तो कंपनी की तरफ से गई है न, उसे तो वापस आना ही पड़ेगा 6 महीने बाद?’’ मैं ने पूछा.

‘‘हां, लेकिन मां यह बात नहीं समझ सकतीं न. उन्हें तो लगता है कि विदेश जाने वाला हर इनसान धोखेबाज हो जाता है,’’ उस ने मेरी तरफ देखते हुए कहा.

‘‘और जब साक्षी वापस आ जाएगी तब उन से क्या कहोगे? अपने ही बेटे से मिले धोखे को वे बरदाश्त कर पाएंगी?’’ मुझे सब कुछ बिलकुल घालमेल सा लग रहा था.

‘‘मैं इस बारे में नहीं सोचना चाहता पाशी. वह जब होगा तब मैं संभाल लूंगा. अभी बस मुझे मम्मीपापा को किसी तरह 6 महीने तक रोकना है. इस के अलावा मुझे अभी कुछ नहीं सूझ रहा.’’ उस ने कार रोक दी. मेरा घर आ चुका था.

‘‘तुम्हें लगता है कि तुम सही कर रहे हो विवान?’’ मैं ने इन दिनों में पहली बार उस की आंखों में देखते हुए पूछा.

‘‘नहीं, लेकिन मेरे पास और कोई रास्ता भी नहीं है अपने प्यार को पाने का,’’ उस ने मेरी आंखों में आंखें डालते हुए कहा. एक पल को लगा जैसे दुनिया ठहर गई हो पर फिर ध्यान आया उस का प्यार यानी साक्षी. मैं चुपचाप कार से उतर गई. वह चला गया.

अगले कुछ दिनों तक न तो उस का कोई काल आया और न ही वह कहीं नजर आया. मैं जानती थी कि वह मेरे पास सिर्फ काम से आया था पर फिर भी मुझे बुरा लगा. ऐसा नहीं था कि मैं ने उस से कोई उम्मीद की थी, लेकिन शायद फिर से उसे सामने देख कर दिल एक बार फिर ख्वाब संजोने लगा था. कई बार काफी दुखी हो जाती, उसे काल करने की भी सोचती. कई बार जी में आया कि मना कर दूं कि मुझे नहीं करनी किसी भी तरह की कोई भी मदद. लेकिन उस से जो मांगना था, उस के लालच में खुद को मना लेती. इस बार मैं कुछ भी भावनाओं में बह कर नहीं कर रही थी. इस में मेरा भी स्वार्थ था.

एक रात इन्हीं विचारों में डूबी मैं बिस्तर पर लेटी करवटें बदल रही थी, तभी दरवाजे की घंटी बजी. मैं चौंक कर उठ बैठी. इतनी रात को कौन हो सकता है? घड़ी में देखा, पौने 12 बज रहे थे. वैसे तो जिस प्रोफैशन में मैं थी मुझे डरना नहीं चाहिए था, लेकिन इतने बड़े शहर में अकेली लड़की का फ्लैट में रहना आसान नहीं था. आज तक कोई खास परेशानी तो नहीं हुई थी पर आज इस घंटी की आवाज सुन कर दिल जोरजोर से धड़कने लगा. पिछले कुछ समय में लड़कियों के साथ हुए सारे हादसे याद आने लगे.

पलंग से उतर कर धीमे कदमों से मैं दरवाजे तक पहुंची. डोर व्यूवर में देखा तो बाहर विवान खड़ा था.

‘‘तुम इतनी रात को यहां क्या कर रहे हो?’’ दरवाजा खोलते ही मैं ने पूछा.

उस ने जवाब दिए बिना ही कहा, ‘‘अंदर आ जाऊं? मैं किनारे हो गई. अंदर जा कर वह कुरसी पर बैठ गया. मैं भी दरवाजा बंद कर के अंदर आ गई.

‘‘एक गिलास पानी पिलाओगी?’’ वह बोला, तो पानी पिला कर उस के पास ही कुरसी पर बैठ कर मैं उस के बोलने का इंतजार करने लगी. मुझे अपनी तरफ घूरते देख वह बोला,  ‘‘सौरी, तुम्हें इतनी रात को परेशान किया. मैं अपने घर की चाबी न जाने कहां भूल गया. मम्मीपापा जयपुर गए हैं, तो समझ नहीं आया क्या करूं. इसलिए यहां आ गया.’’

‘‘जयपुर क्यों?’’ मैं ने परेशान हो कर पूछा.

‘‘अरे ऐसे ही कुछ काम था. तुम क्यों इतनी परेशान हो रही हो?’’

‘‘नहीं, मुझे लगा कि…’’

‘‘कि?’’

‘‘कुछ नहीं…’’ लेकिन मेरे बिना बोले ही वह समझ गया.

‘चिंता मत करो. मैं ने मम्मीपापा को मना कर दिया है कि वे तुम्हारे मम्मीपापा से न मिलें,’’ उस ने तसल्ली देते हुए कहा, ‘‘अच्छा 1 कप कौफी पिलाओगी?’’ उस की बात सुन कर मेरा ध्यान टूटा.

‘‘हां क्यों नहीं. अभी लाती हूं,’’ कह कर मैं उठ कर किचन में चली गयी. 2 मिनट बाद ही बाहर से विवान जोरजोर से आवाज लगाने लगा. मैं दौड़ कर बाहर आई तो देखा हौल में बिलकुल अंधेरा था, विवान वहां नहीं था. तभी फिर से उस की आवाज आई, ‘‘हैपी बर्थडे टू यू…हैपी बर्थडे टू यू…हैपी बर्थडे टू डियर पाशी…,’’ वह हाथ में केक लिए मेरे पास आ रहा था. उसे याद था पर कैसे और क्यों? इस बार तो मुझे भी याद नहीं था.

‘‘थैंक्यू विवान. पर यह सब किसलिए?’’ मेरे स्वर में हैरानी थी.

उस ने मेरे होंठों पर उंगली रख कर कहा, ‘‘आओ पहले केक काटो. बाद में तुम्हारे परवर का जवाब दूंगा.’’

केक मेरा फेवरेट था यानी चौकलेट केक. उस पर लिखा था, ‘हैपी बर्थडे पाशी.’ आज कई सालों बाद मैं ने केक काटा था. विवान ने रिलेशनशिप के 5 सालों में मेरे बर्थडे पर कभी कुछ स्पैशल नहीं किया था. हर साल हमारा एक ही प्लान होता था मूवी और लंच. मैं हर साल उत्साहित होती कि शायद इस बार वह कुछ करेगा. लेकिन जब 2-3 साल यही सिलसिला चला, तो मैं ने उम्मीद करना ही छोड़ दिया.

कुछ जलने की बदबू आ रही थी. कौफी…मेरे मुंह से निकला. फिर मैं केक का टुकड़ा उस के हाथ में थमा कर किचन की तरफ भागी. गैस स्टोव खुला पड़ा था. पानी उबलउबल कर खत्म हो गया था और कौफी जलने की बदबू आ रही थी. मैं ने जल्दी से नौब बंद किया. विवान भी अंदर आ गया. यह सब देख कर वह बोला, ‘‘कोई बात नहीं. मैं कोल्ड ड्रिंक्स लाया हूं और खाने का सामान भी. मैं ने डिनर भी नहीं किया. चलो बाहर चलें.’’ वह बैग से एकएक कर के चीजें निकाल रहा था. पिज्जा, कोल्ड ड्रिंक और तोहफा.

‘‘ये लो तुम्हारा गिफ्ट,’’ उस ने तोहफा मुझे थमा दिया जो एक बहुत खूबसूरत कोलाज था. बचपन से ले कर आज तक की मेरी सारी तसवीरें. उन में से अधिकतर वे थीं, जो विवान ने मुझ से ली थीं. कुछ तो उन्हीं दिनों की थीं. मुझे पता ही नहीं चला उस ने कब खींची थीं.

‘‘विवान,’’ मैं ने उसे अपनी ओर घुमाते हुए कहा.

‘‘हां गोरी मेम.’’

एक सैकंड को मेरे चेहरे पर मुसकान आ गई. वह हमेशा मुझे प्यार से ऐसे ही बुलाता था. अपनी भावनाओं पर काबू करते हुए मैं ने उस से पूछा, ‘‘तुम यह सब क्यों कर रहे हो विवान?’’

‘मैं ने क्या किया?’’ उस ने मासूम बन कर पूछा.

‘‘यही सब…मेरा बर्थडे मना रहे हो रात के 12 बजे. 5 साल के रिलेशनशिप में कभी भी मेरे लिए कुछ स्पैशल नहीं किया. अब यह सब किसलिए?’’ मेरी आंखों में आंसू थे.

‘‘अरे तुम रो क्यों रही हो…तुम मेरी इतनी हैल्प कर सकती हो तो क्या मैं तुम्हारा बर्थडे भी नहीं मना सकता? क्यों इतना भी हक नहीं है मुझे?’’ वह मेरे गाल थपथपाते हुए बोला.

‘‘नहीं है. मुझे यह सब नहीं चाहिए विवान. मैं ने बहुत प्यार ले लिया सब से. अब और नहीं चाहिए. बेहतर होगा कि तुम यह सब न करो,’’ मेरे स्वर में दृढ़ता थी.

‘‘आगे से ध्यान रखूंगा पर अभी जो प्लान किया है वह तो करने दो प्लीज.’’

हम दोनों खामोशी से बैठ कर खाते रहे. अपना पसंदीदा पिज्जा खा कर मेरे मूड में कुछ सुधार हुआ. अब हम आराम से बैठ कर कोल्ड ड्रिंक पी रहे थे.

‘‘तुम्हारे पास साक्षी का कोई फोटो है?’’ मैं ने विवान से पूछा.

‘‘हां, क्यों?’’

मैं ने उस से दिखाने को कहा. साक्षी सुंदर थी. मुझ से ज्यादा सुंदर. मैं तो वैसे भी खुद को कभी सुंदर नहीं मानती थी. मैं ने विवान से कह भी दिया कि साक्षी बहुत सुंदर है, उस के लायक है. विवान खुद भी बहुत स्मार्ट था. अच्छीखासी कदकाठी, आकर्षक चेहरा. मैं तो उस के सामने कुछ भी नहीं थी.

‘‘तुम से ज्यादा क्यूट नहीं है,’’ उस ने शरारती अंदाज में कहा.

‘‘मजाक मत करो विवान,’’ मैं ने उसे हंस कर टाल दिया.

वह मुझे एकटक देख रहा था. मैं नजरें चुरा कर दूसरी ओर देखने लगी. यह देख कर उस ने भी अपनी नजरें हटा लीं और सहज हो कर कहा,  ‘‘चलो डांस करते हैं.’’

‘‘डांस? विवान तुम मजाक कर रहे हो. तुम और डांस?’’

‘‘हां, आजकल खूब डिस्को जा रहा हूं. चलो उठो.’’

‘‘अरे नहीं, मन नहीं है,’’ मैं ने आनाकानी करने की कोशिश की, लेकिन उस ने एक ही झटके में मुझे उठा लिया.

काफी वक्त बाद हम इतने करीब थे. विवान सहज था पर मैं असहज महसूस कर रही थी. उस का स्पर्श उस के पास होने का एहसास मुझे विचलित कर रहा था. कहीं अब भी मैं उस से…? नहींनहीं फिर से नहीं. उस का चेहरा मेरे चेहरे के बिलकुल नजदीक था. उस की सांसों को मैं अपनी गरदन पर महसूस कर रही थी. मन कर रहा था कि उस से लिपट जाऊं और जी भर के रोऊं. नहींनहीं…

मैं छिटक कर उस से अलग हो गई. उस की आंखों में ग्लानि और हैरानी का मिलाजुला भाव था. ‘‘तुम अब जाओ विवान,’’ मैं ने उस से नजरें मिलाए बिना कहा. वह बिना कुछ कहे चला गया. सुबहसुबह मां के फोन से आंखें खुलीं. जन्मदिन की बधाई देने के बाद वे घर आने के कार्यक्रम के बारे में पूछने लगीं. वे जानती थीं कि नईनई नौकरी में छुट्टी मिलना आसान नहीं होता इसलिए कभी ज्यादा जोर नहीं देती थीं. लेकिन मैं पहली बार घर से दूर अकेली रह रही थी इसलिए उन्हें याद भी आती थी और फिक्र भी होती थी. मैं ने उन्हें तसल्ली दी कि राखी पर पक्का आ जाऊंगी. इसी बहाने भाई से भी मिलना हो जाएगा.

मां ने संतुष्ट हो कर फोन पापा को दे दिया. पापा ने बधाई दे कर और हालचाल पूछ कर फोन वापस मां को थमा दिया. इस बार मां के स्वर में उत्साह था,  ‘‘अच्छा सुन तेरे लिए एक रिश्ता आया है. तेरे पापा को तो पसंद भी आ गया.’’

‘‘मम्मा, आप को पता है न मुझे शादी नहीं करनी, फिर भी आप…’’ मैं ने चिढ़ कर कहा.

‘‘अरे कभी न कभी तो करनी है न. वे लोग इंतजार करने को तैयार हैं.’’

‘‘जरूर कोई कमी होगी लड़के में. ऐसे कौन इंतजार करता है.’’

‘‘कोई कमी नहीं है. मैं ने देखा है. अच्छाखासा दिखता है. इंजीनियर है, कमाई भी ठीकठाक है. तुझे भी जरूर पसंद आएगा.’’

अच्छा तो बात यहां तक पहुंच चुकी है. मुझ से पूछे बिना मेरी शादी की बातें हो रही हैं. लड़के देखे जा रहे हैं और पसंद भी किए जा रहे हैं. मुझे अब बहुत चिढ़ होने लगी तो मैं गुस्से से बोली, ‘‘इंजीनियर होने से क्या होता है मम्मा, वह तो मैं भी थी. आजकल तो हर दूसरा बंदा इंजीनियर है.’’

मेरा जीवन भर शादी करने का कोई इरादा नहीं था. लगता था जैसे दुनिया भर की परेशानियां पिछले कुछ सालों में झेल ली थीं और लड़कों को तो मैं बरदाश्त भी नहीं कर सकती थी. विवान की बात अलग थी. मैं उस की एकएक आदत जानती थी और वह मेरी. मुझे पता था उसे किस स्थिति में कैसे संभालना है. बाकी तो आज तक सब लड़कों ने मुझे बेवकूफ ही बनाया था चाहे वे दोस्त हों या कुछ और.

‘‘एक बार मिलने में क्या हरज है बेटा? हम कौन सा जबरदस्ती तेरी शादी करा देंगे,’’ मां ने मनुहार करते हुए कहा.

‘‘पर मुझे शादी करनी ही नहीं है मां,’’ मैं किसी कीमत पर नहीं मानने वाली थी. ये सब घर वालों की साजिश होती है. पहले मिलने में क्या हरज है, फिर रिश्ता ही तो पक्का हुआ है, फिर सगाई भी कर ही देते हैं और आखिर में शादी करा के ही मानते हैं. मुझे इस जाल में नहीं फंसना था.

‘‘क्यों नहीं करनी? मुझे कारण तो बता. कोई है क्या? हो तो बता दे. तू तो जानती है हमें कोई प्रौब्लम नहीं होगी.’’

‘‘हां मां, कोई है.’’ मैं ने हकलाते हुए कहा. मां से झूठ बोलना बहुत बड़ी बात थी. हम दोनों मां बेटी होने से ज्यादा दोस्त थीं, लेकिन अभी मुझे कुछ और सूझ ही नहीं रहा था.

‘‘कौन है, क्या करता है? वहीं का ही है क्या? बताया क्यों नहीं?’’ मां ने एक के बाद एक सवाल दागने शुरू कर दिए.

‘‘मम्मा, आप उस को जानती हो. मेरे साथ कालेज में था. इंजीनियरिंग में. आजकल यहीं है.’’

‘‘कौन, विवान?’’

मां भी न मां ही होती है. मैं हंस पड़ी,  ‘‘हां मां, आप को कैसे पता?’’

‘‘बेटा मैं आप की मां हूं. तू जिस तरीके से उस के बारे में बात करती थी, उस से मुझे लगता तो था कि कुछ न कुछ तो है.’’ मैं कुछ नहीं बोली. मां ही आगे बोलने लगीं, ‘‘तो घर कब ला रही है उसे? पापा से भी तो मिलवाना पड़ेगा न.’’

‘‘नहीं मां, पापा को मत बताना प्लीज. वे पता नहीं क्या सोचेंगे.’’

पापा से मेरा रिश्ता थोड़ा अलग किस्म का था. वह न तो दोस्ती जितना खुला था और न ही पारंपरिक पितापुत्री जैसा दकियानूसी. हम दोनों दुनिया के किसी भी बौद्धिक मुद्दे पर बात कर सकते थे, लेकिन बायफ्रैंड, शादी वगैरह पर कभी नहीं.

‘‘क्या सोचेंगे? वे जानते हैं कि उन की बेटी समझदार है. जो भी फैसला लेगी सोचसमझ कर ही लेगी,’’ मां मेरी बात को समझ ही नहीं रही थीं और मुझे समझ में नहीं आ रहा था कि कैसे रोकूं मां को?

‘‘मां, लेकिन…’’ मैं ने बोलने की कोशिश की.

‘‘अब कुछ लेकिनवेकिन नहीं. तू जब राखी पर आएगी उसे भी साथ ले आना. सब मिल लेंगे,’’ मां ने अंतिम फैसला सुनाते हुए कहा.

मैं ने फोन रख दिया. लेकिन सोच रही थी अब यह एक और नई परेशानी. विवान को मनाना पड़ेगा और कल जो हुआ उस के बाद पता नहीं विवान मानेगा या नहीं. फिर भी कोशिश तो करनी होगी. मैं ने उसे फोन लगाया. उस ने उठाया नहीं. 2-3 बार करने पर भी नहीं उठाया. क्या वह नाराज था या फिर शर्मिंदा?

औफिस भी जाना था. अब बचपन तो था नहीं कि सारा दिन जन्मदिन मनाती फिरूं. बड़े होने का यही नुकसान है. आप छोटीछोटी खुशियों को मनाना छोड़ देते हो. खैर, फटाफट तैयार हो कर औफिस के लिए निकल गई. विवान से बाद में भी बात हो सकती थी.

लंच टाइम के दौरान उस का काल आया,  ‘‘सौरी यार, मीटिंग में था इसलिए फोन नहीं उठा पाया. बोलो?’’

ओह तो यह बात थी. मैं बिना मतलब ही फालतू की बातें सोच रही थी. वह सामान्य रूप से ही बात कर रहा था. फिर भी मैं ने सावधानी से पूछा, ‘‘आज डिनर साथ करें? मुझे कुछ बात करनी है.’’

‘‘हांहां, क्यों नहीं. यह भी कोई पूछने की बात है. मैं शाम को तुम्हें पिक कर लूंगा,’’ उस ने सहजता से कहा.

चलो एक बाधा तो पार हुई. अब सब से बड़ी मशक्कत तो उसे मनाने की थी. सारा दिन यही सोचती रही कि उस से कैसे और क्या कहना है. कभीकभी लगता है कितने झमेले हैं जिंदगी में. आधी से ज्यादा तो लोगों को मनाने में ही निकल जाती है औरबाकी उन की बातें मान कर उन के अनुसार चलने में. शाम को मैं समय से पहले ही नीचे पहुंच गई. मेरे मन में जो उथलपुथल चल रही थी उसे मैं जल्दी से जल्दी शांत करना चाहती थी. कार में बैठ कर भी खुद को संयमित कर पाना मुश्किल हो रहा था.

‘‘विवान, मुझे तुम से एक फेवर चाहिए,’’ मैं ने झिझकते हुए कहा.

‘‘हां बोलो,’’ वह अपनी नजरें सड़क से हटाए बिना बोला.

‘‘क्या तुम मेरे लिए वही कर सकते हो जो मैं तुम्हारे लिए कर रही हूं?’’

‘‘मतलब?’’ उस ने हैरानी से मेरी तरफ देखा.

मैं ने उसे मां से सुबह हुई बात के बारे में बताया. यह भी बताया कि मैं ने मां से कहा है कि वह मेरा बौयफ्रैंड है और क्योंकि मां तुम्हें जानती हैं, इसलिए तुम्हें यह नाटक करना ही पड़ेगा.

‘‘तो यही था जो तुम बदले में मुझ से चाहती थीं?’’ उस ने पूछा.

‘‘नहीं. यह सब तो आज ही हुआ. उस बात को रहने दो. तुम बस मेरी इतनी हैल्प कर दो. मुझे और कुछ नहीं चाहिए,’’ मैं ने दयनीय स्वर में कहा.

वह हंसने लगा, ‘‘तुम पागल हो? तुम जो बोलो मैं वह करने को तैयार हूं. बस परेशानी यह है कि तुम कभी कुछ बोलतीं ही नहीं,’’ उस का हाथ मेरे हाथ पर था, आंखें मेरे चेहरे पर जमी हुई थीं. क्या उस की आंखों में मेरे लिए…? नहींनहीं…

‘‘राखी पर चलना है,’’ मैं ने गला खंखार कर कहा.

‘‘क्या?’’ इस से उस का ध्यान टूट गया,  ‘‘राखी पर तो नहीं उस के 1-2 दिन पहले या बाद में आ जाऊंगा, चलेगा?’’

‘‘थैंक्यू,’’ अब जा कर सांस में सांस आई. अब बस घर जा कर सब ठीक हो जाए.

एक बार फिर से हम मम्मीपापा के सामने बैठे थे. फर्क इतना था कि इस बार मम्मीपापा मेरे थे. घबराहट के मारे विवान के चेहरे का रंग उड़ा हुआ था. मुझे बड़ा मजा आ रहा था उसे ऐसे देख कर. बड़ी मुश्किल से मैं अपनी हंसी रोक पा रही थी.

‘‘मैं ने शायद पहले तुम्हें कहीं देखा है,’’ पापा ने विवान को देखते हुए कहा. उस ने डर कर मेरी तरफ देखा.

‘‘हां पापा, कालेज में देखा होगा कभी,’’ मैं ने अपना चेहरा सामान्य रखते हुए कहा.

‘‘हो सकता है. अच्छा बेटा पैकेज कितना है तुम्हारा?’’ पापा ने इंटरव्यू शुरू किया.   -क्रमश:

एक कप कौफी: भाग-4

मेरा मकसद केवल तुम्हें सच से रूबरू कराना था.’’ गौतमी की कही बात ने अनुप्रिया के दिल को और भी अधिक छलनी कर के उसे आत्मग्लानि के बोझ तले दबा दिया. उसे यह सोच कर शर्म आ रही थी कि वह इस भली औरत का घर तोड़ने चली थी और यह औरत उस पर दोषारोपण करने के बजाय यहां बैठ कर उस से सहानुभूति प्रकट कर रही है. साथ ही साथ उसे अपनेआप पर भी तरस आ रहा था. उस में अब फिर से एकबार खुद को समेटने की ताकत बाकी नहीं थी.

गौतमी ने उस की हालत देख कर उसे दिलासा देने की कोशिश की, ‘‘अनुप्रिया, तुम हिम्मत मत हारो. उस वक्त तुम जैसी मानसिक स्थिति में थीं, ऐसे पराग तो क्या उस के जैसा कोई भी विकृत मानसिकता का पुरुष तुम्हारा फायदा उठा सकता था. मैं यह नहीं कह रही हूं कि जो कुछ हुआ उस में तुम्हारा कोई दोष नहीं है. गलती तुम से भी हुई है. तुम्हें एक बार धोखा खाने के बाद भी इस तरह बिना कुछ सोचेसमझे और आंख मूंद कर पराग पर विश्वास नहीं करना चाहिए था. पर अब उस गलती पर पछता कर या पराग के लिए रो कर अपने वक्त और आंसू बरबाद मत करो, बल्कि इस गलती से सबक ले कर जिंदगी में आगे बढ़ो.’’ ‘‘मुझ में इतनी हिम्मत नहीं है गौतमी…’’

‘‘ऐसा न कहो अनुप्रिया. तुम्हें अपनी जिंदगी में पराग जैसे आदमी की जरूरत नहीं है. अपना स्तर इतना नीचे मत गिरने दो. तुम सुंदर हो, पढ़ीलिखी व स्मार्ट हो. अपना सहारा खुद बनना सीखो. आजकल तलाकशुदा होना या दूसरी शादी करना कोई बुरी बात नहीं है. खुद को थोड़ा वक्त दो और यकीन करो कि तुम्हारी जिंदगी में भी कोई न कोई जरूर आएगा, जो तुम्हारे और अपने रिश्ते को नाम देगा, तुम्हें पत्नी होने का सम्मान देगा,’’ गौतमी ने अनुप्रिया को धैर्य बंधाते हुए कहा.

गौतमी की बात सुन कर अनुप्रिया न चाहते हुए भी मुसकरा उठी और फिर अपने आंसू पोंछते हुए बोली, ‘‘मैं कितना कुछ सोच कर यहां आई थी. मैं आप को अपने रास्ते से हटाना चाहती थी और आप ने मुझे ही सही रास्ता दिखा दिया. आप उम्र में मुझ से बड़ी हैं. अगर आप को एतराज न हो तो क्या मैं आप को दीदी कह सकती हूं?’’ गौतमी के मुसकरा कर सहमति देने पर उस ने हाथ जोड़ कर कहा, ‘‘मुझे माफ कर दो दीदी. मुझ से बहुत बड़ी गलती हो गई. मैं भी आप के साथ वही करने जा रही थी जो कभी निदा ने मेरे साथ किया था.’’

गौतमी ने आगे बढ़ कर अनुप्रिया के जुड़े हाथों को थाम कर कहा, ‘‘तुम्हें माफी मांगने की जरूरत नहीं है अनुप्रिया. बस जो मैं ने कहा है उस पर विचार करना. सिर उठा कर अपने जीवन में आगे बढ़ने का प्रयास करना.’’ ‘‘मैं वादा करती हूं कि आज के बाद मेरी जिंदगी में पराग या उस के जैसे किसी भी आदमी के लिए कोई जगह नहीं होगी. मैं आगरा वापस चली जाऊंगी. अपने मम्मीपापा के पास रह कर कोई नौकरी ढूंढ़ लूंगी.’’

आज अनुप्रिया खुद को बेहद हलका महसूस कर रही थी. ऐसा लग रहा था मानो सीने से कोई बोझ उतर गया हो. वह भले ही अपने मुंह से खुद को सही कहती आई हो पर उस के मन में बैठा चोर तो यह जानता था कि वह गलत कर रही है और अब वह दुनिया से अपराधी की तरह छिप कर नहीं, इसी तरह खुल कर जीना चाहती थी. गौतमी के शब्दों ने उस के भीतर एक सकारात्मक ऊर्जा का संचार कर दिया था. उस ने गौतमी से आग्रह कर के फिर कौफी का और्डर किया और इधरउधर की बातें करने लगीं. कौफी पीते हुए अनुप्रिया गौतमी को देख कर यह सोच रही थी कि यदि 2 वर्ष पहले वह भी इसी तरह हिम्मत जुटा कर तरुण और निदा के सामने दीवार बन कर खड़ी हो गई होती तो आज शायद उस की स्थिति कुछ और ही होती. उस की आंखों में शर्म व ग्लानि के बजाय स्वाभिमान व जीत की चमक होती. वह अपनी शादी को बचा पाती या नहीं यह तो वक्त ही बताता पर कम से कम मन में यह संतोष तो होता कि उस ने अपने रिश्ते को बचाने का पूरा प्रयास किया और आज वह इतनी बड़ी गलती कर के गौतमी के सामने शर्मिंदा होने से बच जाती. काश, उस का दिल व सोच का दायरा गौतमी की तरह बड़ा होता. आज गौतमी के साथ पी कौफी ने जिंदगी व रिश्तों के प्रति उस की सोच ही बदल कर रख दी थी. ‘‘अच्छा, अब मैं चलती हूं. सिद्धार्थ को मांजी के पास छोड़ कर आई हूं. उस ने परेशान कर रखा होगा,’’ कहते हुए गौतमी उठ खड़ी हुई.

गौतमी जाने के लिए मुड़ी ही थी कि अनुप्रिया ने उसे रोका, ‘‘गौतमी दीदी.’’ गौतमी के पलट कर देखने पर उस ने वह प्रश्न पूछ लिया जो उसे बेचैन कर रहा था, ‘‘आप ने पराग को इतनी आसानी से कैसे माफ कर दिया? सिद्धार्थ के लिए?’’

‘‘मैं ने ऐसा कब कहा कि मैं ने पराग को माफ कर दिया है?’’ ‘‘पर आप ने मुझे तो माफ कर दिया है, फिर पराग को क्यों नहीं?’’

‘‘तुम्हारी बात अलग है अनुप्रिया. तुम दोषी के साथ पीडि़ता भी थीं. धोखा तो तुम ने भी खाया है, इसलिए मैं ने तुम्हें माफ कर दिया. तुम मेरी कुछ नहीं लगती थीं पर पराग तो मेरा अपना था न. उस ने जानबूझ कर मुझे धोखा दिया. यदि मैं ने उसे रंगे हाथों नहीं पकड़ा होता तो वह आज भी मुझ से छिप कर तुम से मिल रहा होता.’’ ‘‘पर अब तो वह अपना ट्रांसफर करा रहा है…मेरा यकीन मानिए, अब हम दोनों कभी नहीं मिलेंगे. क्या अब भी आप उसे माफ नहीं करेंगी?’’

गौतमी ने अनुप्रिया की ओर डबडबाई आंखों से देख कर कहा, ‘‘तुम्हें क्या लगता है कि तुम पराग की पहली और आखिरी गलती हो? तुम से पहले भी वह ऐसी गलती और पश्चाताप कर चुका है. उस ने मुझ से माफी केवल इसलिए मांगी है, क्योंकि वह पकड़ा गया है और रही बात ट्रांसफर की तो वह भी उस का नाटक ही है. उसे सुधरना होता तो पहली बार गलती पकड़े जाने पर ही सुधर गया होता. पराग जैसे फरेबी आदमी अपने मुखौटे बदल सकते हैं, फितरत नहीं. आज मैं उसे फिर माफ कर दूंगी तो वह एक बार फिर से यही सब करेगा और पकड़े जाने पर मुझ से माफी मांग लेगा. इस तरह तो यह सिलसिला यों ही चलता रहेगा. मेरा स्वाभिमान मुझे अब पराग को माफ करने की इजाजत नहीं देता है.’’

जिस गौतमी की आंखों में अनुप्रिया ने अब तक केवल आत्मविश्वास व हिम्मत को देखा था, उन में इतना दर्द समाया होगा उस ने यह कल्पना नहीं की थी. उस ने गौतमी की तकलीफ को अपने भीतर महसूस करते हुए पूछा, ‘‘पर दीदी, ट्रांसफर… आप यहां अकेली सिद्धार्थ को कैसे संभालेंगी?’’

‘‘पराग कोई दूध पीता बच्चा नहीं, जो अकेला किसी और शहर में नहीं रह पाएगा. उसे यहां रहते हुए भी अपनी बीवी और बच्चे की जरूरत कहां थी. जहां जाएगा वहां एक और अनुप्रिया या निदा ढूंढ़ ही लेगा. मुझे और सिद्धार्थ को पराग की जरूरत नहीं है. मैं पहले भी सिद्धार्थ को अकेली ही पाल रही थी, आगे भी पाल लूंगी. ‘‘पढ़ीलिखी हूं, बेहतर ढंग से अपनी और सिद्धार्थ की जिंदगी को संवार कर उसे एक अच्छा भविष्य दे सकती हूं. आज तक मैं ने पराग को और अपने रिश्ते को बदले में कुछ चाहे बिना अपना सबकुछ दिया है, पर अब मेरे पास उसे देने के लिए कुछ नहीं है, माफी भी नहीं,’’ कह कर गौतमी तेज कदमों से चलती हुई कैफे से बाहर निकल गई और पीछे रह गई अनुप्रिया जो अब भी कभी कैफे के दरवाजे को तो कभी मेज पर पड़े कौफी के कप को देख रही थी.

प्रयास: भाग-3

मगर पार्थ अगली सुबह नहीं आए. अब तक मैं यह तो जान ही चुकी थी कि मैं अपना बच्चा खो चुकी हूं. लेकिन उस का कारण नहीं समझ पा रही थी. न तो मैं शारीरिक रूप से कमजोर थी और न ही कोई मानसिक परेशानी थी मुझे. कोई चोट भी नहीं पहुंची थी. फिर वह क्या चीज थी जिस ने मुझ से मेरा बच्चा छीन लिया?

2 दिन बाद पार्थ मुझ से मिलने आए. न जाने क्यों मुझ से नजरें चुरा रहे थे. पिछले कुछ महीनों का दुलारस्नेह सब गायब था. मांजी के व्यवहार में भी एक अजीब सी झिझक मुझे हर पल महसूस हो रही थी.

खैर, मुझे अस्पताल से छुट्टी मिलने के कुछ ही दिन बाद मांजी चली गईं, लेकिन मेरे और पार्थ के बीच की खामोशी गायब होने का नाम ही नहीं ले रही थी. शायद मुझ से ज्यादा पार्थ उस बच्चे को ले कर उत्साहित थे. कई बार मैं ने बात करने की कोशिश की, लेकिन उन्होंने कभी अपनी नाराजगी को ले कर मुंह नहीं खोला.

उस दिन से ले कर आज तक कुछ नहीं बदला था. एक ही घर में हम 2 अजनबियों की तरह रह रहे थे. अब न तो पार्थ का गुस्सैल रूप दिखता था और न ही स्नेहिल. अजीब से कवच में छिप गए थे पार्थ.

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अचानक आई तेज खांसी ने मेरी विचारशृंखला को तोड़ दिया. पानी पीने के लिए उठी तो छाती में दर्द महसूस हुआ. ऐसा लग रहा था जैसे किसी ने जकड़ लिया हो. पानी पीपी कर जैसेतैसे रात काटी. सुबह उठी, तब भी बदन में हरारत हो रही थी. बिस्तर पर पड़े रहने से और बीमार पड़ूंगी, यह सोच कर उठ खड़ी हुई. पार्थ के लिए नाश्ता बनाते वक्त भी मैं खांस रही थी.

‘‘तुम्हें काफी दिनों से खांसी है. पूरी रात खांसती रहती हो,’’ नाश्ते की टेबल पर पार्थ ने कहा.

‘‘उन की आवाज सुन कर मैं लगभग चौंक पड़ी. पिछले कुछ दिनों से उन की आवाज ही भूल चुकी थी मैं.’’

‘‘बस मामूली सी है, ठीक हो जाएगी,’’ मैं ने हलकी मुसकान के साथ कहा.

‘‘कितनी थकी हुई लग रही हो तुम? कितनी रातों से नहीं सोई हो?’’ पार्थ ने माथा छू कर कहा, ‘‘अरे, तुम तो बुखार से तप रही हो. चलो, अभी डाक्टर के पास चलते हैं.’’

‘‘लेकिन पार्थ…’’ मैं ने कुछ बोलने की कोशिश की, लेकिन पार्थ नाश्ता बीच में ही छोड़ कर खड़े हो चुके थे.

गाड़ी चलाते वक्त पार्थ के चेहरे पर फिर से वही परेशानी. मेरे लिए चिंता दिख रही थी. मेरा बीमार शरीर भी उन की इस फिक्र को महसूस कर आनंदित हो उठा.

जांच के बाद डाक्टर ने कई टैस्ट लिख दिए. इधर पार्थ मेरे लिए इधरउधर भागदौड़ कर रहे थे, उधर मैं उन की इस भागदौड़ पर निहाल हुए जा रही थी. सूई के नाम से ही घबराने वाली मैं ब्लड टैस्ट के वक्त जरा भी नहीं कसमसाई. मैं तो पूरा वक्त बस पार्थ को निहारती रही थी.

मेरी रिपोर्ट अगले दिन आनी थी. पार्थ मुझे ले कर घर आ गए. औफिस में फोन कर के 3 दिन की छुट्टी ले ली. मेरे औफिस में भी मेरे बीमार होने की सूचना दे दी.

‘‘कितने दिन औफिस नहीं जाओगे पार्थ? मैं घर का काम तो कर ही सकती हूं,’’ पार्थ को चाय बनाते हुए देख मैं सोफे से उठने लगी.

‘‘चुपचाप लेटी रहो. मुझे पता है मैं क्या कर रहा हूं,’’ उन्होंने मुझे झिड़कते हुए कहा.

‘‘अच्छा बाबा… मुझे काम मत करने दो… मांजी को बुला लो,’’ मैं ने सुझाव दिया.

कुछ देर तक पार्थ ने अपनी नजरें नहीं उठाईं. फिर दबे स्वर में कहा, ‘‘नहीं, मां को बेवजह परेशान करने का कोई मतलब नहीं है. मैं बाई का इंतजाम करता हूं.’’

‘‘बाई? पार्थ ठीक तो है?’’ मैं ने सोचा.

एक बार जब मैं ने झाड़ूपोंछे के लिए बाई का जिक्र किया था तो पार्थ भड़क उठे थे, ‘‘बाइयां घर का काम बिगाड़ती हैं. आज तक तो तुम्हें घर का काम करने में कोई परेशानी नहीं हुई थी. अब अचानक क्या दिक्कत आ गई?’’

‘‘पार्थ, तुम्हें पता है न मुझे सर्वाइकल पेन रहता है. दर्द के कारण रात भर सो नहीं पाती,’’ मैं ने जिद की.

‘‘देखो श्रेया, अभी हमारे पास इतने पैसे नहीं हैं कि घर में बाई लगा सकें,’’ उन्होंने अपना रुख नर्म करते हुए कहा.

मगर मैं ने पूरी प्लानिंग कर रखी थी. अत: बोली, ‘‘अरे, उस की तनख्वाह मैं अपने पैसों से दे दूंगी.’’

मेरी बात सुनते ही पार्थ का पारा चढ़ गया. बोले, ‘‘अच्छा, अब तुम मुझे अपने पैसों का रोब दिखाओगी?’’

‘‘नहीं पार्थ, ऐसा नहीं है,’’ मैं ने सकपकाते हुए कहा.

‘‘इस घर में कोई बाई नहीं आएगी. अगर जरूरत पड़ी तो मां को बुला लेंगे,’’ उन्होंने करवट लेते हुए कहा.

आज वही पार्थ मांजी को बुलाने के बजाय बाई रखने पर जोर दे रहे थे. पिछले कुछ दिनों से पार्थ सिर्फ मुझ से ही नहीं मांजी से भी कटने लगे थे. अब तो मांजी का फोन आने पर भी संक्षिप्त बात ही करते थे.

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कहां, क्या गड़बड़ थी मुझे समझ नहीं आ रहा था. अपना बच्चा खोने के कारण मुझे कुसूरवार मान कर रूखा व्यवहार करना समझ आता था, लेकिन मांजी से उन की नाराजगी को मैं समझ नहीं पा रही थी.

अगली सुबह अस्पताल जाने से पहले ही मांजी का फोन आ गया. पार्थ बाथरूम में थे तो मैं ने ही फोन उठाया.

‘‘हैलो, हां श्रेया कैसी हो बेटा?’’ मेरी आवाज सुनते ही मांजी ने पूछा.

‘‘ठीक हूं मांजी. आप कैसी हैं?’’ मैं ने पूछा.

‘‘बस बाबा की कृपा है बेटा. पार्थ से बात कराना जरा.’’

तभी पार्थ बाथरूम से निकल आए, तो मैं ने मोबाइल उन के हाथ में थमा दिया. उन की बातचीत से तो नहीं, लेकिन इन के स्वर की उलझन से मुझे कुछ अंदेशा हुआ, ‘‘क्या हुआ? मांजी किसी परेशानी में हैं क्या?’’ पार्थ के फोन काटने के बाद मैं ने पूछा.

‘‘अरे, उन्हें कहां कोई परेशानी हो सकती है. उन की रक्षा के लिए तो दुनिया भर के बाबा हैं न,’’ उन्होंने कड़वाहट से उत्तर दिया.

‘‘वह उन की आस्था है पार्थ. इस में इतना नाराज होने की क्या बात है? उन का यह विश्वास तो सालों से है और जहां तक मैं जानती हूं अब तक तुम्हें इस बात से कोई परेशानी नहीं थी. अब अचानक क्या हुआ?’’ मैं ने शांत स्वर में पूछा.

‘‘ऐसी आस्था किस काम की है श्रेया जो किसी की जान ले ले,’’ उन्होंने नम स्वर में कहा.

मैं अचकचा गई, ‘‘जान? मांजी किसी की जान थोड़े ही लेंगी पार्थ. तुम भी न.’’

‘‘मां नहीं, लेकिन उन की आस्था एक जान ले चुकी है,’’ पार्थ का स्वर गंभीर था. वे सीधे मेरी आंखों में देख रहे थे. उन आंखों का दर्द मुझे आज नजर आ रहा था. मैं चुप थी. नहीं चाहती थी कि कई महीनों से जो मेरे दिमाग में चल रहा है वह सच बन कर मेरे सामने आए.

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एक कप कौफी: भाग-3

अब यह मत कहना कि तुम नहीं जानती थीं कि पराग तुम से झूठ बोल रहा है. जब मैं तुम्हें फेसबुक पर ढूंढ़ कर तुम्हारे बारे में सबकुछ पता कर सकती हूं, तुम से संपर्क कर सकती हूं तो क्या तुम ने वहां कभी हमारे फोटो नहीं देखे होंगे. अभी कुछ हफ्ते पहले ही हमारी शादी की सालगिरह थी. तुम ने तसवीरों में देखा भी होगा कि हम साथ में कितने खुश थे. क्या तुम ने इस बारे में पराग से कोई सवाल नहीं किया?’’

‘‘पराग ने कहा था कि तुम ने उसे बिना बताए पार्टी का आयोजन किया था. उसे मजबूरी में शामिल होना पड़ा.’’ ‘‘अच्छा… तुम्हारी जानकारी के लिए बता दूं कि पराग ने खुद मेरे लिए सरप्राइज पार्टी रखी थी. अगर तुम अपनी आंखों से प्यार की पट्टी हटा कर दिमाग का इस्तेमाल करते हुए उन तसवीरों को ध्यान से देखोगी तो शायद तुम्हें सच नजर भी आ जाए और यह केवल उन तसवीरों की बात नहीं है. क्या तुम ने खुद कभी यह महसूस किया कि पराग सच में मुझे तलाक देना चाहता है? उस ने तुम से वादे तो बहुत किए पर क्या कभी कोई वादा पूरा भी किया? तुम उस की खातिर यहां मेरे सामने आ कर खड़ी हो पर पराग कहां है? क्या वह भी तुम्हारे लिए दुनिया का सामना करेगा? उस ने तुम्हें अपने दोस्तों या परिवार से मिलवाया? खुद तुम्हारे दोस्तों या परिवार से मिलने के लिए तैयार हुआ? ‘‘वक्त रहते संभल जाओ अनुप्रिया. अभी भी कुछ नहीं बिगड़ा है. पराग के वादों की तरह ही उस का प्यार भी खोखला है.’’

अनुप्रिया के हाथपांव सुन्न पड़ने लगे. गौतमी की कही 1-1 बात उस के दिल को छलनी करती जा रही थी. गौतमी की बातें कड़वी जरूर थीं, मगर कहीं न कहीं उन में सचाई भी थी. उस ने अपने दिमाग में 1-1 बात का विश्लेषण करना शुरू किया. आज तक जब भी उस ने पराग के परिवार से मिलने की बात की या उसे अपने मातापिता से मिलवाने की, पराग ने हर बार उसे कोई न कोई बहाना बना कर टाल दिया. जब भी वह अपनी पत्नी और बेटे के साथ कहीं घूमनेफिरने जाता या किसी समारोह में शामिल होता और वह उस पर नाराज होती तो वह उसे अपनी मजबूरी का हवाला दे कर सारी बात गौतमी पर डाल देता. तसवीरों को ले कर भी उस ने हजार झूठ बोले थे जिन्हें उस ने पकड़ भी लिया था पर अपने रिश्ते में शांति बनाए रखने की खातिर चुप रही. उन की मुलाकातें भी तो दुनिया की नजरों से छिप कर अनुप्रिया के घर पर होती थीं. औफिस में बाकी स्टाफ का तो समझ सकती थी, पर पराग तो अपने दोस्तों के सामने भी उस से इस तरह व्यवहार करता था जैसे एक सीनियर अपने जूनियर से करता है.

वह जब भी उस से शादी की बात करती वह एक नया बहाना बना कर बात टाल देता. उस ने पराग को अपना सबकुछ मान लिया था पर वह पराग के लिए क्या थी? गौतमी सही ही तो कह रही है कि इस रिश्ते में पराग ने उसे खोखले वादों के अलावा और कुछ नहीं दिया. और अब वह कुछ दिनों से उस से कटाकटा सा भी रहने लगा है. न उस से मिलने उस के घर आता है और न ही फोन करता. वह उसे फोन कर के नाराजगी जताती तो काम या सिरदर्द का बहाना बना देता. उसे तो यह बात भी एक सहकर्मी से पता चली थी कि वह 3 दिनों के लिए शहर से बाहर जा रहा है. सारी बातें इसी ओर इशारा कर रही थीं कि पराग उस से दूर भाग रहा है. अपने मन के भीतर किसी छोटे से कोने में अनुप्रिया को भी इस बात का एहसास है. पहले तरुण ने उस की जिंदगी बरबाद की और अब पराग ऐसा करने चला था.

अनुप्रिया की चुप्पी देख कर गौतमी ने आगे कहा, ‘‘तुम यह मत सोचना कि मैं सारा इलजाम तुम पर लगा रही हूं. ऐसा बिलकुल नहीं है. जो भी हुआ उस में तुम से कहीं अधिक दोष पराग का है. जिस वक्त तुम दिल्ली आईं, तुम बेहद संवेदनशील थीं. ऐसे में पराग ने तुम्हारी कमजोरी का फायदा उठाया, जिसे तुम उस का प्यार समझ बैठीं. तुम्हें गहरा आघात लगा था, तुम अवसादग्रस्त थीं पर पराग तो बिलकुल ठीक था न. वह अपने स्वार्थ की पूर्ति करता रहा. वह दोहरी जिंदगी जीता रहा, एक मेरे और सिद्घार्थ के साथ और दूसरी दुनिया से छिप कर तुम्हारे साथ. वह तुम से झूठ बोल कर तुम्हारा फायदा उठाता रहा और तुम इसे उस का प्यार समझती रही.’’

गौतमी की बातें सुन कर अनुप्रिया की आंखें भर आईं. उस ने डबडबाई आंखों से गौतमी की ओर देख कर सवाल किया, ‘‘आप ने पराग से इस बारे में बात की होगी. उस ने क्या कहा?’’

‘‘जब मुझे तुम्हारे और पराग के बारे में पता चला और मैं ने उस से इस बारे में सवाल किया तो उस ने कहा कि तुम उस के पीछे पड़ी थीं. वह तुम्हारी बातों में आ कर बहक गया था. उस ने मुझ से बारबार माफी मांगी और सिद्धार्थ का वास्ता दे कर कहा कि वह अब तुम से कभी नहीं मिलेगा. उस ने ट्रांसफर के लिए अर्जी भी दे दी है.’’ यह सुन कर अनुप्रिया की आंखों से आंसू बह निकले. वह पराग जिस ने कई हफ्तों तक उस का पीछा किया. उसे अपने प्यार का एहसास दिलाने के लिए इतने जतन किए. अपनी खराब व तनावपूर्ण शादीशुदा जिंदगी का हवाला दे कर उस के दिल में अपने लिए हमदर्दी जगाई. जो कभी उस के लिए दुनिया से लड़ जाने की बातें किया करता था आज पकड़े जाने पर कितनी आसानी से सारा दोष उस के सिर मढ़ कर खुद बच निकल जाना चाहता है. उस ने सिर झुका कर रुंधे स्वर में कहा, ‘‘मुझे समझ नहीं आ रहा है कि मैं आप से क्या कहूं. मैं आप से किस तरह माफी मांगू? सब कुछ आईने की तरह साफ था, फिर भी मैं जानबूझ कर अनजान बनी रही. मैं ने आप के साथ बहुत गलत किया.’’

‘‘गलत तो हम दोनों के साथ हुआ है अनुप्रिया. यदि मैं केवल तुम्हें दोषी मानती तो आज यहां बैठ कर तुम से बातें नहीं कर रही होती. सच पूछो तो मुझे तुम से कोई शिकायत नहीं है. पराग ने हम दोनों को धोखा दिया है और रही बात माफी की तो मैं यहां तुम्हारी माफी की उम्मीद में नहीं आई थी.

आगे पढ़ें- मेरा मकसद केवल तुम्हें सच से रूबरू कराना था.’’ गौतमी…

महायोग: दिया की दौलत देख क्या था नील का फैसला?

महायोग: धारावाहिक उपन्यास, भाग-2

नील व उस की मां को होटल वापस जाना था. तय हुआ कि अगले दिन नील व दिया लौंगड्राइव पर चले जाएं. दिया ने कुछ नहीं कहा परंतु अगले दिन वह समय पर तैयार थी.

उस दिन शाम को उस ने कामिनी से कहा, ‘‘वैसे, नील इंट्रैस्ंिटग तो है.’’

कामिनी हौले से मुसकरा दी.

‘‘तो तुम ने फैसला कर लिया है?’’ मां ने पूछा.

‘‘दादी के सामने किसी की चली है जो मेरी चलेगी?’’ दिया कुछ रुक कर बोली, ‘‘वैसे यह तय है कि मैं पढ़ूंगी.’’

नील ने कहा, ‘‘तुम्हारे पढ़ने में कोई बाधा नहीं आएगी.’’

तीसरे दिन नील व दिया की सगाई हो गई और हफ्तेभर में शादी का समय भी तय हो गया.

जीवन कभी हास है तो कभी परिहास, कभी गूंज है तो कभी अनुगूंज, कभी गीत है तो कभी प्रीत, कभी विकृति है तो कभी स्वीकृति. गर्ज यह है कि जीवन को किसी दायरे में बांध कर नहीं रखा जा सकता. शायद जीवन का कोई एक दायरा हो ही नहीं सकता. जीवन एक तूफानी समुद्र की भांति उमड़ कर अपनी लहरों में मनुष्य की भावनाओं को समेट लेता है तो कभी उन्हें विभिन्न दिशाओं में उछाल कर फेंक देता है.

क्या किसी व्यक्ति को वस्तु समझना उचित है? जाने दें, यही होता आया है सदा से. युग कोई भी क्यों न रहा हो, व्यक्ति की सोच लगभग एक सी बनी रही है. अपनी सही सोच का इस्तेमाल न कर के व्यक्ति समाज के चंद ऐसे लोगों से प्रभावित हो बैठता है जो उस के चारों ओर एक जाल बुनते रहते हैं. एक ऐसा जाल, जो व्यक्ति की संवेदनाओं व भावनाओं को सुरसा की भांति हड़पने को हर पल तत्पर रहता है.

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विवाह व दूसरी सामाजिक परंपराओं के नाम पर बहुधा बेटियां होम कर दी जाती हैं उस यज्ञ में, जिस के चारों ओर सात फेरों के चक्कर चलते रहते हैं. कहीं मर्यादा के नाम पर तो कहीं कन्यादान के नाम पर उन्हें तड़पने के लिए वनवास दे दिया जाता है.

विवाह यानी प्रेमपूर्ण जिम्मेदारी और पे्रेम यानी समर्पण. यही प्रेमपूर्ण समर्पण, एक शाश्वत सत्य जो दिव्यता की अनुभूति है, सौंदर्य की अनुगूंज है और है जीने की शक्ति एवं उत्साह. यह समर्पण न तो मुहताज है सात फेरों का और न ही किसी बाहरी गवाही का. गवाही केवल मन की ही पर्याप्त होती है और मन से तन के समर्पण तक की यात्रा पूर्ण होने पर प्रेममय अनुभूति की गूंज ही दिव्यता व सौंदर्य का दर्शन है.

विवाह करा कर आखिर दिया ने क्या पाया था? और क्या पाया था दादी ने छोटी उम्र में दिया की संवेदनाओं को पेंसिल की भांति छील कर? दिया को महायोग के कुंड में होम कर के, कन्यादान दे कर अपनी ऐंठ में शायद उन्होंने वृद्धि कर ली थी, परंतु दिया?

2 वर्ष पूर्व की ही तो बात है जब उस के जीवन में काले बादल मंडराने प्रारंभ हुए थे. दिया के दादा गुजरात के अहमदाबाद में आ कर बस गए थे. मूलरूप से यह परिवार उत्तर प्रदेश का था परंतु दादाजी उच्च सरकारी अधिकारी के रूप में अहमदाबाद आए तो यहां की सरलता, शांति व संपन्नता ने उन्हें इतना प्रभावित किया कि उन्होंने यहीं पर अपना स्थायी निवास बना लिया. उन्होंने व्यापार शुरू किया और उस में उन्हें भरपूर सफलता मिलनी शुरू हो गई. यहीं उन का परिवार बना, यहीं बच्चों का विकास हुआ और इसी धरती पर उन्होंने प्राण त्यागे. दिया के दादा थोड़ेबहुत उदार थे और बच्चों की बातें सुन लेते थे पर दादी तो अपनी ही चलातीं. दादा की मृत्यु के बाद उन्होंने घर की डोर संभाल ली थी.

उच्च ब्राह्मण कुल का यह परिवार बहुत संस्कारी था और कर्मकांड की छाप से बुरी तरह प्रभावित. घर में पंडितों व सद्गुरुओं का आनाजाना लगा ही रहता. कोई भी कार्य बिना पत्री बांचे किया ही न जाता. शुभ लग्न, शुभ मुहूर्त, शुभ समय. दियाकभीकभी सोचती थी कि हर बात में पत्री बांच कर आगे बढ़ने की परंपरा को आखिर कब तक निभाएंगे उस के परिवार के लोग? लेकिन नक्कारखाने में तूती की आवाज…

उस की आर्यसमाजी संस्कारों में पलीबढ़ी मां ही कहां कुछ बदलाव कर सकी थीं अपने ससुराल के लोगों की सोच में? कहने को तो मां शिक्षण में थीं. डिगरी कालेज की प्राध्यापिका थीं. वे सुसंस्कृत, सहनशील व ठहरी हुई महिला थीं. असह्य पीड़ा के बावजूद विरोध के नाम पर दिया ने उन्हें सदा सिर झुकाते ही देखा था. उस के मन में सदा प्रश्नचिह्नों का अंबार सा लगा रहता जिन के उत्तर चाहती थी वह. परंतु न कोई उस के पास उत्तर देने वाला होता और न ही उस की बात का कोई समर्थन करने वाला. 2 भाइयों की इकलौती बहन दिया वैसे तो बड़े लाड़प्यार से बड़ी हुई थी परंतु दोनों बड़े भाई भी न जाने क्यों उस पर अंकुश ताने रहते थे. मां से कोई बात करने की चेष्टा करती तो मां दादी पर डाल कर स्वयं मानो भारमुक्त हो जातीं.

80 वर्ष से ऊपर की थीं दादी. सुंदर, लंबीचौड़ी देह, अच्छी कदकाठी. उस पर कांतिमय रोबदार मुख. पहले तो दिया की शिक्षा के बारे में ही उन्होंने भांजी मारनी शुरू कर दी थी. उन की स्वयं की बहू स्वयं शिक्षिका थी, फिर ऐसा क्यों? ऐसा इसलिए कि वे अपनी पौत्री का कन्यादान कर के ही इस दुनिया से रवानगी चाहती थीं.

‘पर मां, अभी तो दिया पढ़ रही है, उस की पढ़ाई तो पूरी हो जाने दीजिए,’ जब मां ने दिया की तरफदारी करने का प्रयास किया तब उस के पिता अपनी मां की ही हिमायत करने लगे थे, ‘पढ़ तो लेगी ही कम्मो, यह. पढ़ने को कहां मना कर रहे हैं. पर मां का कहना भी ठीक है, हमारे कुल में वैसे ही कहां लड़कियां हैं? तुम तो जानती हो, पिताजी के भी बेटी नहीं थी. सो, वे बेटी के कन्यादान की ख्वाहिश मन में लिए तरसते हुए ही चले गए. उन की इच्छा थी कि वे अपनी पोती का कन्यादान कर सकें पर ऐसा न हो सका. अब मां हैं तो…’

कम्मो यानी कामिनी यानी दिया की मां चुपचाप उठ कर अपने कमरे में बंद हो गई थीं. उन की 19 वर्ष की बेटी पत्रकारिता करने का स्वप्न अपनी पलकों में संजो कर बैठी थी और उस की सास व पति के पास जो उन के कुलपुरोहित आ कर बैठे थे उन की गणना कह रही थी कि 19वें-20वेें वर्ष में उस कन्या का विवाह हो जाना चाहिए वरना 35-37 वर्ष तक उस के शुभविवाह का कोई मुहूर्त नहीं है. और यदि उस उम्र में विवाह होगा भी, तो पतिपत्नी के बीच टकराव होगा और लड़की वापस पिता के घर आ जाएगी.

मां कितने भी संदेहों, अंधविश्वासों या परंपराओं के जंजाल से दूर क्यों न हो, मां मां ही होती है और अपनी बेटी के भविष्य के लिए तो वह उसी पल चैतन्य व चिंतित हो जाती है जब बेटी जन्म लेती है. क्या करे वह अपनी सास व पति का? दिया का समय अभी अपने भविष्य के बारे में सोचने व उसे संवारने का था, न कि शादीविवाह का.

कामिन पंडेपुजारियों के जाल में फंसने के लिए मानसिक रूप से तैयार नहीं हो पाती थी. इस घर में वह कभी भी इन रूढि़यों से लड़ नहीं पाई. उस का विवेक बारबार झंझोड़ता था, आखिर अपनी बेटी के प्रति उस का भी कोई कर्तव्य था. परंतु न जानेक्यों वह कभी भी अपनी सास व पति के समक्ष मुंह नहीं खोल पाई. जो मांजी कहतीं, वह करने के लिए तत्पर रहती.

उसे भली प्रकार याद है जब वह शुरूशुरू में इस घर में ब्याह कर आई थी तब उसे कितनी मुश्किलों का सामना करना पड़ा था. उस के अपने मायके में न तो कोई व्रतउपवास होते थे न ही पंडितों की आवाजाही. इसलिए जब ससुराल में उस से पूछा जाता कि वह फलां व्रतउपवास की कथा के बारे में जानती है तो उस का सिर ‘न’ में हिल जाता. फिर उसे सुननी पड़ती सास की पचास बातें. मायके में बस एक ही बात सिखाई गई थी, ‘बेटी, बेटा 1 कुल की इज्जत होता है जबकि बेटी को 2 कुलों का मानसम्मान व इज्जत रखनी होती है. वहां अपनी विद्रोही जबान खोलने की जरूरत नहीं है.’ और उस ने मानो अपनी साड़ी के पल्लू में नहीं बल्कि मन के पल्लू मेें ही गांठ लगा ली थी कि मातापिता के ऊपर कोई भी लांछन नहीं आने देगी.

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वह दिन और आज का दिन, वह किसी भी चीज का, परंपरा का विरोध करने में स्वयं को सक्षम ही नहीं पाती मानो मायके से उस की जबान तालू से चिपक कर ही आई हो. कभी थोड़ाबहुत प्रयास भी किया है तो पति बीच में आ कर खड़े हो जाते.

विवाह से पहले ही कामिनी को लग रहा था कि उस का विवाह बिलकुल अलग विचारों के परिवार में करवा कर उस के पिता शायद ठीक नहीं कर रहे हैं. परंतु पिता का कहना था कि इतने सुसमृद्ध परिवार से उन की बेटी का हाथ मांगा जा रहा है तो मना कैसे कर दें? यद्यपि वह जानती थी कि तार्किक विचारों से प्रभावित उस के पिता को उस के पति के परंपरागत रीतिरिवाजों को पूरा करने में अपने मन व विचारों को उठा कर ताक पर रख देना पड़ा था.

कितनी रोई थी वह जब उस का विवाह तय हुआ था. जहां उस की सखीसहेलियां उस की समृद्ध ससुराल से ईर्ष्या कर रही थीं, वहीं वह घटाटोप अंधेरे से घिरी थी. वह कल्पना कर रही थी कि उसे क्याक्या एडजस्टमैंट करने होंगे. जब उस के ससुर व सास उसे देखने आए तब भी अपने साथ एक चोटीधारी पंडितजी को ले कर ही पधारे थे. साथ में था जंत्रीतंत्री का बड़ा सा पोटला. पिता मिलान के लिए कामिनी की जन्मपत्री भी देना नहीं चाहते थे परंतु अजीब था यह परिवार. सास जम ही तो गई थीं कि उन्हें जन्मपत्री दी ही जाए.

‘आप के पास है नहीं क्या जन्मपत्री?’ उन्होंने कामिनी के पिता से पूछा था.

‘देखिए बहनजी, हम जन्मपत्री आदि में विश्वास नहीं करते,’ उन्होंने उत्तर दिया था.

‘तो कोई बात नहीं. अगर नहीं है तो हम बनवा लेंगे, क्यों पंडितजी?’ उन्होंने पंडितजी की ओर गरदन घुमाई थी.

‘जी, बिलकुल,’ पंडितजी ने अपनी मोटी सी गरदन को हां में हिलाते हुए अपने जजमान के स्वर में अपना स्वर मिला दिया था.

बारंबार उसे यह बात झकझोरती कि आखिर जब इतना उच्च परिवार है, लड़का इतना सुंदर है तब उस के पीछे ही क्यों पड़े हैं ये लोग? आखिर वह ही क्यों, बहुत सी सुंदर लड़कियां होती हैं, तो वही क्यों?

बाद में पता चला कि उस की सास को कहीं से पता चला था कि कामिनी के रूप में लक्ष्मी उस के घर में आएगी और फिर सोने पे सुहागा पंडितजी की हिमालय सी दृढ़ पुष्टि. और होना था, इसलिए कामिनी का विवाह यशेंदु से हो गया था.

ससुराल में प्रवेश करने के लिए उस युवा पंडितजी से मुहूर्त निकलवाया गया था और उन के आदेशानुसार ही उस ने सब कृत्य संपन्न किए थे.

सास की दृष्टि को आदेश मान कर जब उस ने पंडितजी के चरणकमलों की वंदना की तब उन्होंने सब के समक्ष दोनों हाथों से उठा कर उसे अपने हृदय से लगा लिया था. जब वह सकपकाई तो वे उस के सिर पर हाथ फेरने लगे थे. जो धीरेधीरे पीठ की ओर खिसक गया था. कमाल था कि किसी ने उन की इस धृष्टता पर कुछ कहनेसुनने के स्थान पर उसे ही और धन्यता का एहसास कराने की चेष्टा की थी कि पंडितजी ने उसे कैसेकैसे शुभाशीषों से अलंकृत किया था. वह मन मसोस कर, चुप ही रह गई थी.

परंतु जब उस ने प्रत्येक अवसर पर अपने सासससुर को पंडितजी से पत्री बंचवाते देखा तो सोचा कि आखिर कैसे रह पाएगी वह इस वातावरण में? परंतु वह रह रही थी और बड़ी अच्छी प्रकार एक बहू व पत्नी के कर्तव्यों का पालन कर रही थी.  एक बात उस ने गांठ बांध ली थी कि यदि उसे अपना विवाह सहेजना है तो मुंह पर टेप लगाना ही बेहतर है. उस ने ऐसा ही किया भी.

हां, पंडितजी के उस दिन के व्यवहार के बाद वह अपनेआप को उन से बचा कर रखने लगी थी.

उस घर में नियमित पूजाअर्चना चलती जो प्रतिदिन पंडितजी ही करते. वह सब सामग्री पहले से ही तैयार कर के, सजा कर मंदिर वाले कमरे में रख आती और प्रयास यही करती कि पंडितजी जब एकाकी हों तब उस कमरे में न जाए.

यद्यपि पहले दिन के बाद पंडितजी ने कभी न तो कुछ कहा ही था और न ही किंचित प्रयास ही किया था उस से अधिक वार्त्तालाप करने का परंतु उन की दृष्टि…नहीं, वह आशीर्वादयुक्त पवित्र दृष्टि तो नहीं थी. बहुत भली प्रकार वह उस दृष्टि को पहचान सकती थी. इसी वातावरण को सहतेढोते हुए अब तो उस की अपनी पहचान भी धुंधली हो चुकी थी. अब उस की पहचान है श्रीमती कामिनी यशेंदु शर्मा, जो एक बहू है, पत्नी है और हां, सब से महत्त्वपूर्ण बात, वह एक मां है. 3 बच्चों की मां. आज जब उस के समक्ष उस की बेटी का प्रश्न आ कर खड़ा हो गया है तब भी उसे अपना मुंह बंद ही रखना होगा?

पुरोहितजी दिया की जन्मकुंडली ले कर उस की सास और पति से चर्चा कर रहे थे और वह भीतर ही भीतर असहज होती जा रही थी.

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महायोग: धारावाहिक उपन्यास, भाग-1

दिया के कमरे में पहुंच कर एक बार तो नील भी स्तब्ध रह गया था. क्या हौलनुमा कमरा था दिया का. और कौन सी चीज ऐसी थी वहां जो दिया की जरूरत और टेस्ट व हौबी का प्रदर्शन न कर रही हो. खूबसूरत वार्डरोब्स से ले कर पर्सनल कंप्यूटर, शानदार म्यूजिक, एलसीडी, खूबसूरती से तैयार की गई ड्रैसिंगटेबल, नक्काशीदार पलंग और उसी से मैच किए गए जालीदार डबल रेशमी परदे. एक कोने में लटकता खूबसूरत लैंपशेड और उसी के नीचे सुंदर सा झूला जिस के पीछे किताबों का रैक. उस की स्टडीटेबल पर सजा हुआ कीमती खूबसूरत लैंप. एक कालेज की लड़की के लिए इतना वैभव, इतनी सुखसुविधाएं देख नील की आंखें फटी की फटी रह गईं.

कमरे से ही लगा हुआ बाथरूम भी था. उस के दरवाजे के सुंदर नक्काशीदार हैंडल्स देख कर अनुमान लगाया जा सकता था कि अंदर घर कैसा होगा. लंबाई कमरे के बराबर दिखाई ही दे रही थी. उसे मन ही मन अपना गुजरा जमाना याद आ गया, कैसे काम कर के पढ़ाई के लिए पैसे इकट्ठे किए थे उस ने.

नील की स्तब्धता को तोड़ते हुए दिया ने सहज होते हुए नील को इशारा किया, ‘‘बैठिए.’’‘‘जी, धन्यवाद,’’ नील की आंखें कमरे के भीतर चारों ओर घूम रही थीं. ‘‘आप का कमरा तो बहुत ही खूबसूरत है. क्या आप की चौइस से बनाया गया है? ’’सामने दीवार पर लगी बड़ी सी दिया की नृत्यमुद्रा की तसवीर को घूरते हुए नील ने पूछा.

‘‘जी, पापा इस मामले में बहुत ध्यान रखते हैं. जब हम सब छोटे थे तो पापा ने हमारे कमरों की सजावट करवाई थी. यहां पर रेनबो बना था. यहां एक कोने में सूरज का, दूसरे कोने में चांद का आभास होता था. फर्नीचर भी दूसरा था. अब तो बस एक टैडी रखा है मैं ने, बाकी सब खिलौने उस अलमारी में बंद कर दिए हैं. तब तो मेरा कमरा खिलौनों से भरा रहता था. जब से मैं कालेज में आई हूं, मेरे कमरे का सबकुछ बदल गया है,’’ इतनी सारी बातें दिया एक ही सांस में बोल गई.

दिया की सब से बड़ी कमजोरी थी उस का कमरा. जब भी कोई उस के कमरे की प्रशंसा करता वह फूल कर कुप्पा हो जाती और अपने सारे कलैक्शंस दिखाना शुरू कर देती.

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‘‘क्या सब के कमरे इतने बड़ेबड़े हैं?’’ नील ने उसे सहज होते हुए देख कर पूछा.

‘‘हां, सब के अपनी पसंद के अनुसार हैं. और पापाममा का कमरा तो…’’ दिया सहज होती जा रही थी. नील को अच्छा लगा.

‘‘इतने बड़े शहर में इतना बड़ा घर?’’ नील ने सशंकित दृष्टि से पूछा.

‘‘मेरे दादाजी उत्तर प्रदेश के बड़े रईसों में से थे. जब जमीन आदि सरकार के पास चली गई तब उन्होंने अपनी बची हुई जमीनें बेच कर अहमदाबाद में एक फार्महाउस खरीद लिया था. उस समय यहां जमीनें बहुत सस्ती थीं. दादाजी सरकारी नौकरी में थे, तब तो उन्हें यहां बंगला मिला हुआ था. रिटायर होने के बाद उन्होंने मसूरी की बाकी बचीखुची जमीनें भी बेच दीं और यहां यह कोठी तैयार कर ली. जब दादाजी ने जमीन ली थी तब इस जगह पर खेत थे. धीरेधीरे आसपास की जमीनें बिकीं.

‘‘यहां बंगले और फ्लैट्स बनने लगे, तब दादाजी ने भी एक आर्किटैक्ट की देखरेख में यह कोठी बनवा ली थी. उन की इच्छा थी कि जिस बड़े से घर में मसूरी में उन का बचपन बीता उसी प्रकार के बड़े घर में उन का परिवार रहे. इस तरह हमारे पास इतना बड़ा घर हुआ…’’

कुछ रुक कर दिया बोली, ‘‘पापा बताते हैं, दादाजी कहा करते थे कि वे हमारे लिए सबकुछ तैयार कर जाएंगे. बस, पापा को इसे मैंटेन करना होगा. पापा भी दादाजी  की तरह शौकीन इंसान हैं. बस, फिर क्या, हम सब की मौज हो गई.’’

‘‘हां, तुम्हारे सिटिंगरूम की पेंटिंग्स और इतने बड़ेबड़े शो पीसेज देख कर तुम्हारे पापा की चौइस पता चलती है, इट्स वंडरफुल,’’ नील ने उसे यह कह कर और भी खुश कर दिया, ‘‘स्वदीप तुम से बड़े हैं न?’’ धीरेधीरे नील ने उस से आत्मीयता स्थापित करने का प्रयास किया.

‘‘दोनों ही बड़े हैं-स्वदीप भैया और दीप भैया. स्वदीप भैया ने तो इतनी छोटी उम्र में ही कितनी तरक्की कर ली है. माई ब्रदर्स आर वंडरफुल.’’

फिर अचानक उस की जबान को ब्रेक लग गए. उसे याद आ गया कि वह तो शादी ही नहीं करना चाहती. तो फिर क्यों इस युवक से इतनी पटरपटर बातें किए जा रही है.

‘तुम कैसे जाती हो कालेज?’’ नील ने उस की मनोदशा समझते हुए उसे बातों में उलझाने का प्रयास किया.

‘‘मैं तो अपने टूव्हीलर से जाती हूं. यहां आसपास मेरी फ्रैंड्स हैं. हम साथ ही निकलते हैं.’’

‘‘और तुम्हारी मम्मी?’’

‘‘ममा को ड्राइवर ले जाता है. पापा, ममा साथ ही निकलते हैं. ममा को छोड़ कर पापा औफिस चले जाते हैं. बाद में ड्राइवर ममा को छोड़ जाता है.’’

इसी बीच नौकर कौफी और कुछ स्नैक्स दे गया था.

‘‘थैंक्यू, बीरम काका,’’ दिया ने नौकर से कहा फिर नील से बोली, ‘‘आई लव हौट कौफी, और आप?’’ कह कर वह कौफी सिप करने लगी. नील ने भी कौफी पीनी शुरू कर दी.

दिया इतनी देर में नील से काफी खुल चुकी थी. सुंदर तो था ही नील, सुदर्शन व्यक्तित्व का मालिक भी था, बातें करने में बड़ा सुलझा सा. उस ने दिया पर प्रभाव डाल ही दिया.

‘‘तुम शादी क्यों नहीं करना चाहतीं?’’ नील ने अब स्पष्ट रूप से दिया से पूछ लिया.

‘‘ऐसा तो नहीं. बस, इट्स टू अरली. मैं मां की तरह अपने पैरों पर खड़ी होना चाहती हूं. मैं एक जर्नलिस्ट बनना चाहती हूं,’’ दिया को फिर से अपने कैरियर की याद हो आई.

इतने ऐशोआराम में पलने वाली लड़की फिर भी इतनी व्यावहारिक. उस ने बहुत कम ऐसी लड़कियां देखी थीं. या तो लड़कियों को मजबूरी में कोई काम करना पड़ता था या फिर केवल अपने आनंद के लिए वे काम करती थीं. नील का भारत आनाजाना लगा रहता है. लगभग 10 वर्ष पहले ही तो उस के पिता विदेश में सैटल हुए थे.

‘‘आप क्या वहां फ्लैट में रहते हैं?’’ अचानक नील की सोच में यह प्रश्न मानो ऊपर से टपक पड़ा.

‘‘नहीं, फ्लैट में तो नहीं. लंदन में फ्लैट कल्चर अभी तो नहीं है. खूब जगह है वहां, पर इतने बड़ेबड़े घर तो पुराने रईसों के ही होते हैं, वे सब तो अपनी सोच से भी बाहर हैं.’’

धीरेधीरे दोनों सामान्य होते जा रहे थे. जब लगभग डेढ़ घंटे तक ये लोग नीचे नहीं आए तब स्वदीप दिया के कमरे में आया. देखा, दोनों बातें करने में तल्लीन थे. दिया ने अपना मनपसंद संगीत लगा रखा था और वह अपने बचपन के चित्रों का अलबम नील को दिखा रही थी. अचानक नील ने पूछा, ‘‘ये तुम हो. और ये दोनों?’’

‘‘आप पहचानिए,’’ दिया ने नील की ओर आंखें पटपटाईं.

‘‘बताऊं, तुम्हारी कजिंस होंगी.’’

‘‘नहीं ये स्वदीप भैया और दीप भैया हैं. हम एक बर्थडे पार्टी में फैंसी ड्रैस में थे,’’ कह कर दिया खिलखिला कर हंस पड़ी.

कैसी चुलबुली लड़की है, सोचते हुए नील भी उस के साथ खिलखिला दिया. स्वदीप भी मुसकराए बिना न रह सका.

‘‘क्या दिया, अभी तक बचपना नहीं गया है. तुम भी न,’’ स्वदीप ने दिया से शिकायत के लहजे में कहा.

‘‘भैया, यह खजाना तो सब को दिखाना ही पड़ता है.’’

एक बार फिर सब हंस पड़े. इतनी देर में कमरे में काफी सामान फैल गया था मानो. दिया ने अपने खिलौनों से ले कर, तसवीरें, कौइन कलैक्शंस, डौल्स, सीडी…न जाने क्याक्या कमरे में फैला दिए थे. उस के पास पेंटिंग्स का भी बहुत सुंदर कलैक्शन था. अपने कमरे की पेंटिंग्स को वह समयसमय पर बदलवाती रहती थी.

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‘‘आंटी आप को नीचे बुला रही थीं,’’ स्वदीप ने कहा तो नील ने तुरंत अपनी हाथ की घड़ी पर दृष्टि डाली.

‘‘इतना टाइम हो गया, पता ही नहीं चला. चलिए,’’ वह कमरे से बाहर आ गया.

‘‘आओ दिया,’’ स्वदीप ने कहा तो दिया भी भाई के पीछेपीछे चल दी.

7दोनों को सहज देख कर दादी की बांछें खिल गई थीं.

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महायोग: धारावाहिक उपन्यास, भाग-11

अब तक की कथा :

दादी के बीमार होने पर भी दिया के मन में उन के प्रति कोई संवेदना नहीं उभर रही थी. दादी अब भी टोनेटोटके करवा कर अपनी जिद का एहसास करवा रही थीं. दिया ने यशेंदु से अकेले ही लंदन जाने की जिद की. वह नहीं चाहती थी कि पापा को ऐसी स्थिति में छोड़ कर उस का कोई भी भाई उस के साथ आए. वह दादी से मिलने भी नहीं गई और अपनी नम आंखों में भविष्य के अंधेरे को भर कर प्लेन में बैठ गई. अचानक कंधे पर किसी का मजबूत दबाव महसूस कर उस ने घूम कर देखा. इतना अपनत्व दिखाने वाला आखिर कौन हो सकता है?

अब आगे…

दूरदूर तक ढूंढ़ने से भी दिया को अपना कुसूर नहीं दिखाई दे रहा था. लेकिन फिर भी क्यों उस ने मूकदर्शक बन कर पश्चात्ताप करने और सबकुछ सहने की ठान ली? दिया की पापा से फोन पर बात करने की हिम्मत नहीं हुई. आंखों से आंसू निकल कर गालों पर फिसलने लगे.

कहां फंस गई थी दिया, अनपढ़ों के बीच में. जिस लड़के की अपनी कोई सोच ही नहीं थी, वह क्या दिया के साथ हमसफर बन कर चलेगा? हाथ का दबाव बढ़ता देख दिया ने पुन: घूम कर देखा, देखते ही मानो आसमान से नीचे आ गिरी हो. उस के मुंह पर मानो टेप चिपक गया, आश्चर्य से आंखें फट गईं.

‘‘हाय डार्लिंग,’’ मजबूत हाथ की पकड़ और भी कस गई.

‘‘त…तुम…’’ दिया ने तो मानो कोई अजूबा देख लिया था.

‘‘हां, तुम्हारा नील. कमाल है यार, मैं तो समझता था तुम खुशी से खिल जाओगी.’’

दिया के मुरझाए हुए चेहरे पर क्षणभर के लिए चमक तो आई पर तुरंत ही वह फिर झंझावतों में घिर सी गई.

‘कैसा आदमी है यह? यहां मुंबई में बैठा है और उधर हमारा घर मुसीबतों के दौर से गुजर रहा है. भला मुंबई और अहमदाबाद में फासला ही कितना है. यह शख्स अहमदाबाद नहीं आ सकता था?’

नील को सामने देख कर उस की मनवीणा के तारों में कोई झंकार नहीं हुई बल्कि मन ही मन उस की पीड़ा उसे और कचोटने लगी. शायद यदि वह नील को लंदन एअरपोर्ट पर देखती तो कुछ अलग भावनाएं उस के मन को छूतीं. परंतु यहां पर देख कर तो वह एकदम बर्फ सी ठंडी पड़ गई.

‘‘तुम्हें लग रहा होगा कि मैं मुंबई में क्या कर रहा हूं?’’ नील दिया को बोलने के लिए उत्साहित करने लगा.

दिया का मन हुआ कि उस से कुछ कहनेपूछने की जगह प्लेन से उतर कर भाग जाए. उस ने दृष्टि उठा कर देखा, नील ने अब भी उस का हाथ अपने हाथ में ले रखा था.

‘‘बहुत नाराज हो, हनी?’’‘‘नहीं, मैं ठीक हूं,’’ दिया ने अपना हाथ उस के हाथ के नीचे से निकालते हुए संक्षिप्त सा उत्तर दिया.

कोई हलचल नहीं, कोई उमंग नहीं, कोई आशा और विश्वासभरी या चुलबुली दृष्टि नहीं. दिया स्वयं को असहाय पंछी सा महसूस कर रही थी जबकि अभी तो वह पिंजरे में कैद हुई भी नहीं थी, बल्कि कैद होने जा रही थी. अभी से इतनी घुटन. कुछ समझ नहीं पा रही थी वह कि कहां जा रही है? क्यों जा रही है?

शादी के समय तो उसे महसूस हुआ था कि अब जिंदगी खुशगवार हो जाएगी पर जो भी कुछ घटित हुआ वह कहीं से भी इश्क को परवान तो क्या चढ़ा पाता, शुरुआत भी नहीं कर सका था.

‘‘तुम तो जानती हो डार्लिंग, मेरी मम्मा भी तुम्हारी दादी की तरह पंडितों के बारे में जरा सी सीनिकल हैं. सो, आय हैड टू टेक केयर औफ मौम औल्सो,’’ नील ने फिर चाटुकारिता करने का प्रयास किया. वास्तव में तो वह कुछ सुन ही नहीं पा रही थी.

‘‘पंडित से न जाने मम्मा ने क्याक्या पूजा करवाई, तुम्हारे लिए, डेट निकलवाई और न जाने क्याक्या पापड़ बेले तब कहीं तुम यहां आ पाई हो वरना…’’

दिया का दिल हुआ कि नील का कौलर पकड़ कर उसे झंझोड़ डाले. वरना क्या? क्या करता वरना वह? मां के पल्लू में छिपने वाला बिलौटा. इतना ही लाड़ था मां से तो उस की जिंदगी में आग क्यों लगाई? नील बोलता रहा और दिया हां, हूं करती रही. उस का मन तो पीछे मां, पापा के पास ही भटक रहा था. नील ने बड़े बिंदास ढंग से उगल डाला कि वह तो इस बीच 2 बार अपने प्रोजैक्ट के सिलसिले में मुंबई आया था परंतु मां की सख्त हिदायत थी कि वह अहमदाबाद न जाए, कुछ ग्रह आदि उलटे पड़ रहे थे. दिया को तो मानो सांप ही सूंघ गया था. हद होती है बेवकूफी की.

‘‘क्या तुम्हारी मम्मी ने शादी से पहले ग्रह नहीं दिखाए थे?’’ अचानक ही वह पूछ बैठी.

‘‘वह तो यहां अहमदाबाद के पंडितजी से मिलवाए थे न. फिर कुछ ऐसा हुआ कि फटाफट शादी हो गई. तुम्हारे पंडितजी ने तो बहुत बढि़या बताया था पर…तुम्हें मालूम है न शादी के बाद बहुत भयंकर हादसा होने के डर से ही तुम्हारी दादी और ममा ने हमें केरल नहीं भेजा था.’’

‘‘क्यों, मुझे कहां से याद होगा? मुझे बताया था क्या?’’ दिया के मुंह से झट से निकल गया था.

‘‘वह तो इसलिए डार्लिंग कि तुम्हें कितनी तकलीफ होती अगर उस समय तुम्हें पता लग जाता तो.’’

कहां फंस गई थी दिया, जिस लड़के की अपनी कोई सोच ही नहीं थी वह क्या दिया के साथ हमसफर बन कर चलेगा? कुछ ही घंटे बाद वह लंदन पहुंच गई थी, सात समंदर पार. प्लेन रनवे पर दौड़ने लगा था, कुछ देर बाद प्लेन रुक गया. हीथ्रो एअरपोर्ट पर उतरने के साथ ही उस का दिलोदिमाग सक्रिय हो गया था अन्यथा उड़ान में तो वह गुमसुम सी ही बैठी रही थी. सामान लेते और लंबेचौड़े हीथ्रो एअरपोर्ट को पार करते हुए ही लगभग 1 घंटा लग गया था. बाहर पहुंच कर वह नील के साथ टैक्सी में बैठ गई. दिया को खूब अच्छी तरह याद है उस दिन की तारीख-15 अप्रैल. एअरपोर्ट से निकलने तक हलका झुटपुटा सा था परंतु लगभग 15 मिनट बाद ही वातावरण धीरेधीरे रोशनी से भर उठा. दिया लगातार टैक्सी से बाहर झांक रही थी. साफसुथरा शांत वातावरण, न कहीं गाडि़यों की पींपीं, न कोई शोरशराबा. बड़ा अच्छा लगा उसे शांत वातावरण.

इधरउधर ताकतेझांकते दिया लगभग डेढ़ घंटे में हीथ्रो एअरपोर्ट से अपने पति के घर पहुंच गई थी. नया शहर व नए लोगों पर दृष्टिपात करते हुए दिया टैक्सी रुकने पर एक गेट के सामने उतरी. सामान टैक्सी से उतार कर नील ने ड्राइवर का पेमेंट किया और एक हाथ से ट्रौलीबैग घसीटते हुए दूसरे हाथ में दिया का हैंडबैग उठा लिया. दिया ने अपने चारों ओर एक दृष्टि डाली. पूरी लेन मेें एक से मकान, गेट के साइड की थोड़ी सी खाली जमीन पर छोटा सा लौन जो चारों ओर छोटीछोटी झाड़ीनुमा पेड़ों से घिरा हुआ था.

नील ने आगे बढ़ कर घर के दरवाजे का कुंडा बजा दिया. दिया ने दरजे को घूर कर देखा कोई डोरबैल नहीं है. नील की मां ने दरवाजे से बाहर मुंह निकाला.

‘‘अरे, पहुंच गए?’’ जैसे उन्हें पहुंचने में कोई शंका हो.

वे पीछे हट गईं तो नील ने उस लौबी जैसी जगह में प्रवेश किया. पीछेपीछे दिया भी अंदर प्रविष्ट हो गई. अब दरवाजा बंद हो गया था. उस के ठीक सामने ड्राइंगरूम का दरवाजा था, उस के बराबर ऊपर जाने की सीढि़यां, बाईं ओर छोटी सी लौबी जिस में एक ओर 2 छोटेछोटे दरवाजे व दाहिनी ओर रसोईघर दिखाई दे रहा था. अचानक गायब हो गईं? छोटा सा तो घर दिखाई दे रहा था. दिया को घुटन सी होने लगी और उसे लगा मानो वह फफक कर रो पड़ेगी. नील शायद फ्रैश होने चला गया था. वह कई मिनट तक एक मूर्ति की तरह खड़ी रह गई अपने चारों ओर के वातावरण का जायजा लेते हुए. फिर नील की मां सीढि़यों से नीचे उतरती दिखाई दीं. उन के हाथ में एक थालीनुमा प्लेट थी जिस में रोली, अक्षत आदि रखे थे.

‘‘तुम्हारे गृहप्रवेश करने में 5-7 मिनट का समय बाकी था. मैं अपने कमरे में चली गई थी,’’ उन्होंने दिया के समक्ष अपने न दिखाई देने का कारण बयान किया, ‘‘अरे, नील कहां चला गया?’’ इधरउधर देखते हुए उन्होंने नील को आवाज लगाई.

‘‘आय एम हियर, मौम,’’ नील ने अचानक एक दरवाजे से निकलते हुए कहा.

‘‘आओ, यहां दिया के पास खड़े हो जाओ,’’ मां ने आदेश दिया और नील एक आज्ञाकारी सुपुत्र की भांति दिया की बगल में आ खड़ा हुआ.

मां ने दोनों की आरती उतारी. नील व दिया को रोली, अक्षत लगाए. नील मां के चरणों में झुक गया तो दिया को भी उस का अनुसरण करना पड़ा.

‘‘आओ, इधर से आओ, दिया, यह पूरब है. अपना दायां पैर कमरे में रखो.’’

दिया ने आदेशानुसार वही किया. यह ड्राइंगरूम था. अंदर लाल रंग का कारपेट था और नीले व काले रंग के सोफे थे. कमरा अंदर से खासा बड़ा था. दीवारों पर बड़ीबड़ी सुंदर पेंटिंग्स लगी थीं. नील के साथ उस कमरे में आ कर दिया सोफे पर बैठ गई. उसे सर्दी लग रही थी. नील ने हीट की तासीर बढ़ा दी. कुछ देर में ही दिया बेहतर महसूस करने लगी. कमरे में रखा फोन बज उठा. नील ने फोन उठा लिया था. चेहरे पर मुसकराहट लिए नील ने दिया की ओर देखा-

‘‘फोन, इंडिया से. योर फादर.’’

दिया की आंखों में आंसू भर आए. क्या बात करे पापा से? नील हंसहंस कर उस के पिता से बातें करता रहा. जब उन्हें पता लगेगा कि नील मुंबई तक आ कर भी अहमदाबाद नहीं आया. नहीं, वह उन्हें बताएगी ही क्यों? वह अपने परिवार को और तकलीफ नहीं पहुंचा सकती.

‘‘लो दिया, फोन.’’

दिया ने फोन तो ले लिया पर पापा से बात करने की उस की हिम्मत नहीं हुई. आंखों से आंसू निकल कर उस के गालों पर फिसलने लगे.

‘‘मैं आप की दिया से बाद में बात करवाता हूं, अभी मौम से बात कीजिए.’’

दिया  ने चुपचाप फोन सास को पकड़ा दिया. वह आंसू पोंछ कर सोफे में जा धंसी.

नील की मां के चेहरे पर फूल से खिल आए थे.

‘‘आप लोग इतना क्या करते हैं. अभी तो इतना कुछ दिया था आप ने. हां जी, वैसे तो बेटी है. दिल भी नहीं मानता पर हमारे लिए क्या जरूरत थी. आप की बेटी है, उसे आप जो दें, जो लें. नहीं जी, अभी कहां, अभी तो पहुंचे ही हैं. अभी आरती की है और घर में प्रवेश किया है इन्होंने. हां जी. हां जी. जरूर बात करवाऊंगी, नमस्कार.’’

दिया समझ गई थी कि पापा ने मां को फोन पकड़ा दिया होगा और मां ने उन से हीरे के सैट्स की बात की होगी जो उन्होंने दिया और उस की सास के लिए दिए थे. अभी शादी में भी कितना कुछ किया था. हीरे का इतना महंगा सैट उन के लिए दिया था अब फिर से, और नील के लिए हीरे के कफलिंग्स भी. कितना मना किया था दिया ने कि वह किसी के लिए कुछ भी ले कर नहीं जाएगी परंतु कहां सुनवाई होती है उस की. वह हीन भावना से ग्रसित होती जा रही थी कि बस जो कुछ हो रहा है हो जाने दो. वह स्वयं एक मूकदर्शक है और मूकदर्शक ही बनी रहेगी. केवल उस के कारण ही पूरा घर मानो चरमरा उठा था.

‘‘दिया, मां से तो बात कर लो, बेटा,’’ सास जरा जोर से बोलीं तो उस का ध्यान भंग हुआ. खड़ी हो कर उस ने रिसीवर अपने हाथ में ले लिया.

‘‘हैलो,’’ धीरे से उस ने कहा.

‘‘हैलो, दिया, कैसी है बेटा? ठीक से पहुंच गई? कुछ तो बोल. अच्छा सुन, कमजोर मत पड़ना और जब कभी मौका मिले फोन करना. और सुन, वह सैट और दूसरे सब गिफ्ट्स अपनी सास और नील को दे देना. खुश हो जाएंगे. और बेटा, धीरेधीरे सब को अपनाने की कोशिश करना. कुछ तो बोल बेटा,’’ कामिनी धीरेधी अधीर होती जा रही थी.

‘‘हूं,’’ दिया ने धीरे से कहा और फोन काट दिया.

महायोग: धारावाहिक उपन्यास, भाग-20

अब तक की कथा :

आगे की योजना तैयार करने के लिए धर्म दिया को अपने घर ले आया. धर्म के घर आ कर दिया ने धर्म से पासपोर्ट दिखाने के लिए कहा. धर्म ने घरभर में पासपोर्ट तलाश कर लिया परंतु कहीं नहीं मिला. दिया को फिर से धर्म पर संदेह होने लगा. दोनों ने मशवरा किया और भारतीय दूतावास जाने का फैसला कर लिया. अब आगे…

रातभर दिया उनींदी रही. शरीर थका होने के कारण उसे बुखार भी आ गया था. धर्म का दिमाग बहुत असहज और असंतुलित सा था. कहीं ईश्वरानंद की सीआईडी तो उस के पीछे नहीं है?अचानक फोन की घंटी टनटना उठी. घबराते हुए धर्म ने फोन उठाया. दूसरी तरफ नील की मां थीं.

‘‘जी, क्या बात है, रुचिजी?’’

‘‘धर्मानंदजी, दिया को अभी यहां ले कर मत आना. नील के साथ नैन्सी भी आज यहां पहुंच गई है. बड़ी मुश्किल हो जाएगी,’’ वे काफी घबराई हुई थीं.

‘‘नैन्सी तो जानती है कि कोई मेहमान आई हुई हैं आप के यहां,’’ धर्म ने उन्हें उन के ही जाल में लपेटने का प्रयत्न किया.

‘‘आप नहीं जानते, मेरे लिए बड़ी मुश्किल हो जाएगी. आप उसे अपने पास ही रखिए. मैं आप को बताऊंगी, उसे कब यहां लाना है.’’

बेशक कुछ समय के लिए ही सही, पर धर्म व दिया के रास्ते का एक कांटा तो अपनेआप ही हट रहा था.

तेज बुखार के कारण दिया शक्तिहीन सी हो गई थी. धीरेधीरे चलती हुई वह रसोई में आ कर धर्म के पास बैठ गई.

‘‘धर्म, अब हमें एंबैसी चलना चाहिए. देर करने का कोई मतलब नहीं है,’’ दिया ने कहा.

‘‘पर दिया, तुम इस लायक तो हो जाओ कि थोड़ा चल सको. एक तो कल से तुम ने कुछ ठीक से खाया नहीं है, दूसरे, बुखार के कारण और भी कमजोर हो गई हो.’’

‘‘मुझे वहां कोई चढ़ाई थोड़े ही चढ़नी है, धर्म? एंबैसी में जल्दी पहुंच सूचित करना बेहद जरूरी है.’’

अचानक ही धर्म की दृष्टि कांच की खिड़की से बाहर गई और वह हड़बड़ा कर रसोई से निकल कर ड्राइंगरूम की ओर भागा. दिया को कुछ समझ में नहीं आ रहा था. किसी ने धीरे से दरवाजे पर खटखट की थी. आंखें खोल कर जब दिया ने इधरउधर दृष्टि घुमाई तो धर्म का कहीं अतापता नहीं था. वह डर गई. अचानक धर्म आया और  होंठों पर हाथ रख कर उस ने दिया को चुप रहने का संकेत भी किया. संकट को देखते हुए धर्म ने पुलिस को फोन कर दिया था.

एक बार फिर खटखट हुई. अब धर्म ने जा कर दरवाजा खोला व आगंतुकों को ले कर अंदर आ गया.

‘‘दरवाजा खोलने में इतनी देर क्यों हुई, धर्मानंदजी?’’

आगंतुकों में एक तो उस के चेले के समान रवींद्रानंद यानी रवि था और दूसरा पवित्रानंद, जो धर्म से काफी सीनियर था.

‘‘क्या बात है? यहां कैसे?’’ धर्मानंद ने सहज होने का प्रयास किया.

उसे शक तो था ही परंतु मन में कहीं भ्रांति भी थी कि वह ईश्वरानंद से कह कर, उन्हें बता कर आया था इसलिए शायद…

‘‘आप ने गुरुजी को इन्फौर्म भी नहीं किया? वे परेशान हो रहे हैं. आप को समझना चाहिए कि उन्हें आप की और दियाजी की कितनी चिंता है. एक तो आप कल के फंक्शन में से गायब हो गए और दूसरे…खैर, गुरुजी बहुत परेशान हो रहे हैं.’’

‘‘गुरुजी को फोन पर, इन्फौर्म कर देते,’’ रवींद्रानंद ने फिर से अपना मुंह खोला.

धर्म उसे घूर कर रह गया था.

‘‘दियाजी कहां हैं?’’ पवित्रानंद ने सपाट प्रश्न किया.

‘‘रसोई में. गुरुजी जानते हैं वे मेरे साथ हैं. फिर परेशानी क्यों?’’ धर्म ने ऊंचे स्वर में कहा कि दिया सुन सके. परंतु पवित्रानंद आंधी की भांति रसोई में प्रवेश कर गया जहां दिया आंखें मूंदे कुरसी से गरदन टिका कर बैठी थी.

‘‘दियाजी,’’ पवित्रानंद ने धीरे से, बड़े प्यार से दिया को पुकारा.

दिया चौंकी, आंखें खोल कर देखा तो अचानक घबरा कर खड़ी होने लगी. उस का चेहरा पीला पड़ा हुआ था और वह बहुत अस्तव्यस्त दिख रही थी.

‘‘अरे बैठिए, आप बैठिए, मैं पवित्रानंद,’’ उस ने दिया के समक्ष नाटकीय मुद्रा में अपने दोनों हाथ जोड़ दिए.

भय के कारण दिया को दिन में ही तारे दिखाई देने लगे थे. अचानक पवित्रानंद ने दिया के माथे पर अपना हाथ घुमाया.

‘‘अरे, आप को तो बुखार है,’’ पवित्रानंद ने उसे सहानुभूति की बोतल में उतारने की चेष्टा की.

धर्म और रवींद्रानंद भी वहां आ चुके थे.

‘‘धर्म, आप ने बताया नहीं, दियाजी बीमार हैं?’’ पवित्रानंद के लहजे में शिकायत थी.

‘‘गुरुजी जानते हैं,’’ धर्म ने ठंडे लहजे में उत्तर दिया.

दिया की समस्या अभी अनसुलझी पहेली सी बीच में लटक रही थी जिस का जिम्मेदार कहीं न कहीं धर्म स्वयं को मान रहा था.

‘‘धर्म, चलो दिया को ले चलते हैं. गुरुजी ही ट्रीटमैंट करवा देंगे,’’ अचानक पवित्रानंद ने धर्म के समक्ष प्रस्ताव रख दिया.

‘‘पर, ऐसी हालत में?’’ दिया के स्वेदकणों से भरे हुए मुख पर दृष्टिपात करते हुए धर्म ने कहा.

‘‘कुछ देर और इंतजार कर लेते हैं, फिर चलेंगे. तब तक दिया भी कुछ ठीक हो जाए शायद.’’

‘‘कम से कम गुरुजी को सूचित तो कर दें,’’ कह कर पवित्रानंद ने अपना मोबाइल निकाल कर गुरुजी से बात करनी प्रारंभ की ही थी कि किसी ने दरवाजा खटखटाया.

‘‘प्लीज, ओपन द डोर,’’ बाहर से किसी अंगरेज की आवाज सुनाई दी.

‘‘कौन होगा?’’ पवित्रानंद ने जल्दी से बात पूरी कर के मोबाइल बंद कर अपनी जेब में डाल लिया.

एक बार फिर खटखट हुई

‘‘कौन होगा?’’

‘‘मैं कैसे बता सकता हूं? खोलना पड़ेगा न,’’ धर्म आगे बढ़ा और दरवाजा खोल दिया.

‘‘पुलिस…’’ रवींद्रानंद और पवित्रानंद दोनों चौंक उठे. वे धर्म की ओर प्रश्नवाचक मुद्रा में देखने लगे.

धर्म ने मुंह बना कर कंधे उचका दिए. वह क्या जाने भला. परंतु पवित्रानंद ने भी घाटघाट का पानी पी रखा था. उस के मस्तिष्क में घंटियां टनटनाने लगी थीं.

‘‘हू इज दिया?’’ लंबेचौड़े ब्रिटिश पुलिस पुरुषों के पीछे से एक खूबसूरत महिला ने झांका.

‘‘हू इज दिया?’’ प्रश्न एक बार फिर उछला.

दिया ने अपनी ओर इशारा कर के बता दिया कि वही दिया है.

‘‘ऐंड यू?’’ बारीबारी से तीनों पुरुषों के नाम पूछे गए.

कोई चारा नहीं था. गुरुजी के प्रिय भक्तों को अपना नाम बताना पड़ा. समय ही नहीं मिला था कि वे अपने लिए कोई झूठी कहानी गढ़ पाते. धर्म ने भी अपना नाम बताया. दिया अंदर से कुछ डर रही थी. धर्म की भी पोलपट्टी अभी खुल जाएगी. पर जब पुलिस ने धर्म से कुछ पूछताछ ही नहीं की तब दिया को आश्चर्य हुआ. वह चुप ही रही. महिला पुलिस मिस एनी ने दिया को सहारा दिया और ड्राइंगरूम में ले आई. दौर शुरू हुआ दिया से पूछताछ का. दिया काफी आश्वस्त हो चुकी थी. उस ने अपनी सारी कहानी स्पष्ट रूप से बयान कर दी. साथ ही पवित्रानंद व रवींद्रानंद की ओर इशारा भी कर दिया कि विस्तृत सूचनाओं का पिटारा वे दोनों ही खोल सकेंगे. एनी के साथसाथ बाकी पुलिस वाले भी बहुत सुलझे हुए थे. पुलिस वालों ने रवींद्रानंद और पवित्रानंद के मोबाइल भी जब्त कर लिए. अब तो भक्तजनों के पास कोई चारा ही नहीं रह गया था, कैसे गुरुदेव को सूचना दी जाए? दोनों जल बिन मछली की भांति तड़प रहे थे. संबंधित विभागों को सूचनाएं प्रेषित कर दी गई थीं. अप्रत्याशित घेराव के कारण ईश्वरानंद के चेलों के चेहरे के रंग उड़ गए थे, वे एकदूसरे की लाचारी देख कर मुंह पर टेप चिपका कर बैठ गए थे. निराश्रित से बैठे रेशमी वस्त्रधारियों के श्वेत वस्त्र धीरेधीरे झूठ व बदमाशी के धब्बों से मैले होते जा रहे थे और मुख काले. उन के नेत्रों में भयभीत भविष्य की तसवीर उभर आई थी.

चारों लोगों को 2 गाडि़यों में 2-2 पुलिसकर्मियों के साथ बांट दिया गया. एक गाड़ी नील के घर के लिए व दूसरी ईश्वरानंद के आनंद में विघ्न डालने के लिए निकल पड़ी थी. पुलिस वाले आपस में वार्त्तालाप कर रहे थे. उन्हें महसूस हो रहा था कहीं यह घटना वर्षों पूर्व घटित घटना का कोई हिस्सा तो नहीं हो सकती? एनी शीघ्र ही दिया से घुलमिल गई थीं. दिया ने धर्म के बारे में भी सारी बातें एनी को बताईं तो एनी धर्म से भी बहुत सहज हो गई थीं. पुलिसकर्मियों के मन में दिया व धर्म दोनों की छवि साफसुथरी लग रही थी. पुलिस ने जो कुछ भी धर्म से पूछा उस ने बड़ी ईमानदारी से सब प्रश्नों के उत्तर दिए थे. दिया तो सबकुछ बता ही चुकी थी, रहासहा सच उस ने गाड़ी में नील के घर की ओर आते हुए उगल दिया था. एनी ने उस से बिलकुल स्पष्ट रूप से पूछा था कि वह क्या चाहती है?

आगे पढ़ें- दिया ने बड़े सपाट स्वर में कहा था कि वह…

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