कुहासा छंट गया

पूर्व कथा

ज्योति अपने भाई के घर मिलने जाती है तो उस की भाभी और भांजी अनवेक्षा उस का अपमान कर के उसे घर से निकाल देते हैं.

बस में बैठते ही उस का मन अतीत की गलियों में भटकने लगता है कि किस तरह भाभी के रूखे व्यवहार ने सभी भाईबहनों को भाई से अलग कर दिया. ज्योति जब अपने घर पहुंचती है तो सभी लोग खुश होते हैं लेकिन वह पति जतिन से वहां दोबारा न जाने की बात कहती है.

एक दिन पुलिस स्टेशन में ज्योति की मुलाकात अभिषेक से होती है. वह उसे नहीं पहचान पाता. घर आ कर वह जतिन को अभिषेक के बारे में बताती है और उस की मदद करने को कहती है.

जतिन की योजनानुसार उस के मैनेजर का बेटा अभिषेक को उस के आफिस ले कर आता है. वह बड़ी बदतमीजी से उस के साथ पेश आता है. फिर भी जतिन उसे अपना विजिटिंग कार्ड दे देता है. एक दिन अभिषेक अपने दोस्त विनीत के घर मिलने के लिए जाता है तो रास्ते में उसे जतिन मिलता है और अपने घर ले जाता है. वहां उस की मुलाकात मानसी से होती है. जतिन, मानसी को बताता है कि अभिषेक उस के दोस्त का बेटा है. वह अभिषेक से खाना खाने के लिए कहता है तो वह नानुकर करने लगता है लेकिन मानसी के स्नेह भरे व्यवहार और आग्रह करने पर वह खाना खाने को तैयार हो जाता है और अब आगे…

गतांक से आगे…

अंतिम भाग

‘‘क्या पापा, आप पुरानी बातें सुना कर इसे उदास कर रहे हैं,’’ मानसी बोली, ‘‘आओ अभिषेक, मैं तुम्हें अपनी सीडी का कलेक्शन दिखाती हूं.’’

‘‘मैं फिर आऊंगा, अभी चलता हूं,’’ कह कर अभिषेक ने हाथ जोड़ दिए.

लौटते समय विनीत के पास जाने का मन ही नहीं हुआ सो अभिषेक सीधा होस्टल चला गया. देर रात तक उसे अपने घर की बातें याद आती रहीं. उस की अनवेक्षा दीदी को तो शायद रसोई का नक्शा ही मालूम न हो. कभी वह जिद करता था तो फोन कर के पिज्जा मंगा देती थीं. मां को तो क्लब और किटी पार्टियों से ही फुरसत नहीं थी. पापा को हर पल ताना मार कर यह एहसास दिलाना उन का खास शगल था कि ये तमाम शानोशौकत, इतना बड़ा बिजनेस सब उन के पापा का दिया हुआ है. ये तमाम बातें याद करते करते वह गहरी नींद में सो गया.

सुबह कालिज जाते समय विनीत आ गया. पता नहीं क्यों विनीत का आना उसे अच्छा नहीं लगा. वह थोड़ा रूखे स्वर में बोला, ‘‘कहो, कैसे हो?’’

‘‘तुम तो यार बड़ी पहुंची चीज निकले. हम से आंख बचा कर ही निकल आए और हां, उन अंकल से तुम्हारी कैसे जानपहचान निकल आई?’’

‘‘मेरे पापा के वह पुराने मित्र हैं.’’

‘‘बच के रहना उन से क्योंकि तुम नशे की दुनिया के नए खिलाड़ी हो,’’ विनीत चेतावनी के लहजे में समझाते हुए बोला.

मन में बहुत कुछ उमड़ आया अभिषेक के. क्यों अच्छा इनसान बने वह, किस के लिए बने. उस की परवा भी किसे है. दीदी उस धोखेबाज के साथ अपना और मम्मी का जेवर ले कर भाग गईं. एक बार भी मुड़ कर अपने छोटे भाई की तरफ नहीं देखा. मां हार्टअटैक से चल बसीं. पापा को बिजनेस के घाटे और दीदी के सदमे ने इतना दर्द दिया कि शरीर को लकवा मार गया. अब तो उस बडे़ घर में भी उल्लू ही बोलते हैं. सारे नौकर, जिस को जो मिला समेट कर चलता बना. पापा की देखभाल के लिए सिर्फ बांके चाचा ही तो बचे हैं.

जतिन अंकल के प्रेम और मानसी के  अधिकार से भरे अपनत्व ने अभिषेक के टूटे मन पर मरहम का काम किया. तीसरे दिन ही न चाहते हुए भी अभिषेक के कदम जतिन अंकल के घर की ओर उठ गए.

घंटी पर हाथ रखने से पहले ही मानसी दरवाजा खोले मुसकराती हुई खड़ी थी.

 

‘‘अंकल व आंटी कहां हैं. दिखाई नहीं दे रहे हैं.’’

‘‘कोई नहीं है. मम्मी- पापा एक शादी में गए हैं, थोड़ी देर से आएंगे.’’

‘‘आप को शादीब्याह में जाना क्या अच्छा नहीं लगता?’’

‘‘अच्छा क्यों नहीं लगता पर वह क्या है कि अब मैं शादी लायक उम्र में हूं और मुझे देखते ही लोग मां को शादी लायक लड़कों के रिश्ते बताने में इतने व्यस्त हो जाते हैं कि दूल्हादुलहन को बधाई देना भी भूल जाते हैं. इसीलिए शादियों में जाना मैं ने बंद कर दिया है…अरे, तुम हंस क्यों रहे हो? मैं ने कोई जोक थोडे़ ही मारा है.’’

‘‘नहीं, मैं सिर्फ देख रहा हूं कि आप कितनी रफ्तार से और कितना सारा बोल सकती हैं.’’

‘‘हां, यह तो है. मुझे बोलना और बातें करना अच्छा लगता है. पर तुम क्या इतने ही चुप रहते हो हमेशा? अब तुम भी तो कुछ बोलो.’’

‘‘मैं…मैं क्या बोलूं?’’ अभिषेक सकपका गया.

‘‘चलो, मैं बताती हूं, तुम कुछ अपने घरपरिवार के बारे में बताओ, कौनकौन हैं घर में? अंकल व आंटी कैसे हैं. पापा बता रहे थे कि तुम्हारी एक बड़ी बहन भी है. कहां है वह?’’

‘‘बहुत लंबी कहानी है. सुन कर ऊब जाएंगी आप.’’

‘‘मैं ऊब क्यों जाऊंगी,’’ मानसी बोली, ‘‘तुम बताओ तो सही.’’

अभिषेक ने अनवेक्षा के घर से भागने से ले कर मां की मृत्यु और पिता के बिस्तर पर लाचार पड़ने की सारी कहानी मानसी को बता दी.

रसोई में ही बैठा कर उस से बातें करतेकरते मानसी ने अपने और उस के लिए खाना बनाया. खाना खाते समय अभिषेक बोला, ‘‘तुम इतना स्वादिष्ठ खाना बना लेती हो और मेरी दीदी तो रसोई में घुसती भी नहीं थीं.’’

अभिषेक चला गया, देर रात गए जब ज्योति और जतिन आए तो मानसी ने अभिषेक के आने के बारे में बताया, साथ ही अभिषेक ने अपने परिवार के बारे में जो कुछ मानसी को बताया था उसे भी उस ने अपनी मां को बता दिया.

अभिषेक के परिवार की दुख भरी कहानी सुनने के बाद ज्योति का चेहरा सफेद पड़ गया. जतिन भी बेहद दुखी हो उठे. मानसी दौड़ कर गई और रसोई से पानी ला कर मां को दिया फिर बोली, ‘‘मां, तुम सुन कर इतनी परेशान हो उठीं. सोचो, अभिषेक ने तो यह सब अपनी आंखों से देखा है, भोगा है. इतनी कम उम्र में इतना सब देखने के बाद अगर वह गलत रास्ते पर भटक गया तो उस का क्या दोष है?’’

‘‘तुम ठीक कह रही हो, मनु, पर इस से पहले कि वह नशे की दुनिया में बहुत आगे बढ़ जाए, उसे वापस लाना होगा.’’

‘‘मुझे लगता है यह कोई खास मुश्किल काम नहीं है क्योंकि अभी भी उस के मन में अपने घर वालों के लिए स्नेह का झरना बह रहा है. बस, वक्त के बहाव ने उस में मिठास की कमी कर दी है. सिर्फ उसे उस झरने का एहसास कराना है और उस से ज्यादा महत्त्वपूर्ण है उसे उस के खतरनाक दोस्तों से दूर करना.’’

अगली शाम ज्योति ने खाना खाते समय मानसी से कहा, ‘‘बेटी, इस बार शुभम को राखी वक्त से भेज देना. देर होने पर वह उदास हो जाता है और फिर बहुत नाराज भी होता है.’’

‘‘मां, मैं इस बार अभिषेक को बुला कर राखी बांधूं?’’

‘‘नहीं,’’ ज्योति की आवाज की दृढ़ता से जतिन और मानसी दोनों चौंक उठे.

‘‘आखिर वह है तो उसी ओछी मानसिकता की पैदावार. क्या पता तुम्हारी राखी…तुम्हारे स्नेह को वह पैसे लूटने का एक बहाना समझे और मैं यह कतई बरदाश्त नहीं करूंगी,’’ कह कर मेज से प्लेट उठाने लगी ज्योति.

राखी वाले दिन अभिषेक कुरता- पाजामा में आ कर दरवाजे पर खड़ा हो गया. उसे मुसकराता देख कर मानसी का मन खुशी और आश्चर्य से भर गया.

‘‘अरे, तुम? आज कैसे तैयार हो कर आए हो?’’

‘‘क्यों, आज राखी है न?’’

मानसी ने उसे अंदर ड्राइंगरूम में बैठाया और ‘अभी आई’ कह कर, अंदर चली गई.

मानसी अंदर से पानी का गिलास ले कर आई तो अभिषेक बोला, ‘‘अरे, मैं तो समझा कि आप राखी की थाली लेने गई हैं. जानती हो, आज मैं कितने बरसों बाद राखी बंधवाऊंगा. अनवेक्षा दीदी तो इस त्योहार को हंसी में टाल देती थीं. कहती थीं, ‘कमाल है, यह छुटकू मेरी क्या रक्षा करेगा? अपने को संभालने के लिए मैं खुद ही काफी हूं. रही शगुन की बात तो पापा की जायदाद में से आधा हक तो है ही मेरा, फिर मैं इस के हिस्से में से पनौती क्यों मारूं?’ मेरा मन रखने के लिए भी उन्होंने मुझे कभी राखी नहीं बांधी पर कल जब समीर ने कहा, ‘देख, अभिषेक, मैं ने दोनों बहनों को राखी का उपहार देने के लिए पैसे जमा किए हैं. चल, मेरे साथ चल कर उन के लिए कुछ खरीद दे, कल राखी है न,’ तो अचानक मेरी आंखों के सामने तुम्हारा चेहरा आ गया. मुझे लगा कि राखीरोली का थाल सजा कर तुम शायद मेरा इंतजार करोगी, पर…’’

उस की बात बीच में काट कर मानसी बोली, ‘‘भाई, जब तक आ कर इस चौकी पर बैठोगे नहीं तो कैसे तुम्हारी आरती उतारूंगी.’’

चौंक कर देखा अभिषेक ने. लाल बांधनी का सूट पहने मानसी हाथ में थाल पकडे़ मुसकराती हुई खड़ी थी. इतनी जल्दी इतना सबकुछ, अवाक् रह गया वह.

अभिषेक की आरती उतार कर मानसी ने उस की कलाई पर राखी बांधी और माथे पर तिलक लगा कर मुंह में मिठाई डाल दी. हंसते हुए अभिषेक ने भी उस के मुंह में बरफी का टुकड़ा भर दिया.

मानसी ठुनक पड़ी, ‘‘और भैया, मेरा तोहफा?’’

एक पल चुप रह कर अभिषेक ने स्नेहिल स्वर में कहा, ‘‘इतने अनमोल पल में तुम्हें देने के लिए पैसे से खरीदा कोई तोहफा काफी नहीं होता, इसलिए मनु दी, मेरे लिए यह राखी कितनी कीमती है, इस का अंदाजा शायद आप नहीं लगा सकतीं. हां, तोहफे के रूप में एक वादा आप को थमाता हूं कि तुम्हारा भाई, आज इस दिन से ही अपनी तमाम गंदी आदतों को छोड़ कर एक अच्छा इनसान बनेगा.’’

‘‘मेरे लिए इस से कीमती तोहफा कोई और हो भी नहीं सकता मेरे भाई, और आज का दिन सरप्राइज देने का है तो मैं तुम्हें एक और सरप्राइज दूंगी, पहले आंखें बंद करो.’’

मां का हाथ पकड़ कर मानसी उन्हें परदे से बाहर ले आई.

‘‘अब खोलो.’’

सामने ज्योति को खड़ा देख अभिषेक अचानक बौखला ही गया.

‘‘आप…आप तो गर्ल्स कालिज की प्रधानाचार्या हैं.’’

‘‘हां, पर तुम्हारी बूआ भी हूं. वही बूआ जिसे याद कर एक दिन तुम मानसी से कह रहे थे कि उन के स्नेह भरे आंचल की छांव तुम्हें भूले नहीं भूलती.’’

‘‘हैलो, एक्सक्यूज मी. मिस्टर अभिषेक, यहां एक अदद थैंक्यू के हकदार तो हम भी हैं. आखिर आप के फूफाजी जो ठहरे.’’

‘‘आप को एक क्या, हजार थैंक्यू कह कर भी उस प्यार का बदला मैं नहीं दे पाऊंगा. मुझे सही वक्त पर मेरी बहन का स्नेह, एक अच्छे अंकल का साथ और एक स्नेहिल परिवार सभी कुछ, फूफाजी, आप की वजह से ही तो मिला है.’’

वंश बेल : महाराज जी की दूसरी शादी से क्यों हैरान रह गई सुनीता

पूर्व कथा

रामलीला मैदान में आयोजित कार्यक्रम के दौरान एक स्त्री महाराजजी के आगे ‘बेटा’ न होने का दुखड़ा रोती है तो वह उसे गुरुमंत्र और कुछ पुडि़या देते हैं. कार्यक्रम की समाप्ति पर महाराज विदेशी कार में अपने पूरे काफिले के साथ आश्रम चले जाते हैं. थोड़ी देर आराम करने के बाद अपने खास सेवकों के साथ कार्यक्रम की चर्चा करते हैं तभी एक सेवक कहता है कि गुरुजी इस वंशबेल को बढ़ाने के लिए कोई उत्तराधिकारी तो होना ही चाहिए. लोग कहते हैं कि यदि बेटा होने की कोई दवाई या मंत्र होता तो क्या महाराज का कोई बेटा नहीं होता. उन की बातें सुन कर महाराज दुखी हो जाते हैं. अत: सभी शिष्य मिल कर महाराज के दूसरे विवाह की योजना बनाते हैं. कुछ दिनों के बाद उन के शिष्य एक स्त्री के बारे में अफवाह फैला देते हैं कि एक गर्भवती स्त्री को उस के शराबी पति ने घर से निकाल दिया है और अब वह महाराज की शरण में है. एक दिन सभा के दौरान भक्तों की चुनौती पर महाराज उसे अपनाने को तैयार हो जाते हैं लेकिन जब यह बात महाराज की पहली पत्नी सावित्री को पता चलती है तो वह तिलमिला जाती है. महाराज अपनी दूसरी नवविवाहिता पत्नी सुनीता के साथ दूसरे आश्रम में रहने लगते हैं. सावित्री की नाराजगी दूर करने के लिए उस को ‘गुरु मां’ का दरजा दे देते हैं. कुछ महीनों के बाद सुनीता के गर्भवती होने की खबर पा कर महाराजजी उसे डाक्टर के पास ले जाते हैं और उस के गर्भस्थ शिशु का लिंगभेद जानने के लिए अल्ट्रासाउंड करने को कहते हैं तभी सुनीता, डाक्टर और महाराज के बीच हुई सारी बातें सुन लेती है. अब आगे…

अंतिम भाग

गतांक से आगे…

सुनीता से यह सब सहा नहीं गया और वह बेहद विचलित हो उठी.

महाराज का असली रूप देख कर उस का मन घृणा से भर उठा. वह चाहती तो थी कि उसी समय उस कमरे में जा कर उन दोनों को खूब खरीखरी सुना दे लेकिन महाराज का पद, पैसा, प्रतिष्ठा देख कर वह रुक गई. वह जान गई थी कि महाराज और उन के सेवक उसे क्षण भर में ही मसल कर रख देंगे. महाराज कोई न कोई आरोप लगा कर उसे लांछित और प्रताडि़त कर सकते हैं, क्योंकि अपनी छवि और प्रतिष्ठा को बनाए रखने के लिए वह किसी भी हद तक जा सकते हैं. हार कर वह पुन: बाहर बैठ गई.

तब तक महाराज बाहर आ चुके थे. सुनीता को देखते ही उन्होंने कुटिल मुसकान उस पर डाली.

सुनीता बडे़ सधे कदमों से उन तक पहुंची और बोली, ‘‘क्या कहा डाक्टर ने, सब ठीक तो है न?’’

‘‘हां, सब ठीक है,’’ वह थोड़ा चिंतित हो कर बोले, ‘‘यहां की मशीनें इतनी आधुनिक नहीं हैं… कहीं और चल कर दिखाएंगे.’’

‘‘आज तो मैं बहुत थक चुकी हूं. थोड़ा आराम करना चाहती हूं…आप कहें तो आश्रम चलें?’’ सुनीता ने स्वयं पर नियंत्रण रखते हुए बेहद विनम्रता से पूछा.

‘‘हांहां, क्यों नहीं,’’ कहतेकहते महाराज बाहर आ गए. तब तक उन की विदेशी कार पोर्च में आ चुकी थी. सेवकों ने द्वार खोला और वह उस में मुसकराते हुए प्रवेश कर गए. सुनीता ज्यों ही उन के पास आ कर बैठी, कार चल पड़ी.

कार आश्रम में आ गई. सुनीता फौरन महाराजजी के लिए ठंडा पानी ले कर आई. वह जानती थी कि इस समय महाराजजी निजी कमरे में विश्राम करते हैं और उस के बाद भक्तों की भीड़ लग जाती है. फिर कुछ सोचते हुए वह महाराज के पास जा कर बैठ गई और उन के घुंघराले बालों में हाथ फेरते हुए बेहद मुलायम स्वर में बोली, ‘‘आज मैं आप को कहीं नहीं जाने दूंगी. आप के भोजन की व्यवस्था भी यहीं कर देती हूं. मेरा भी तो मन करता है कि अपने महाराजजी, अपने पति परमेश्वर को अपने सामने बैठा कर भोजन कराऊं.’’

इतना कह कर सुनीता उन से लिपट गई. इस से पहले कि महाराज कुछ कहते सुनीता ने जानबूझ कर अपनी साड़ी का पल्लू गिरा कर अपने दोनों वक्षों में महाराज के मुंह को छिपा लिया. सुनीता के गुदाज और गोरे बदन की भीनीभीनी खुशबू में महाराज धीरेधीरे डूबने लगे. उन्होंने सुनीता को कस कर अपने बाहुपाश में जकड़ लिया. सुनीता ने उन की कमजोर नस को दबा रखा था और जानबूझ कर अपने शरीर को उन के शरीर के साथ लपेट लिया. इस से पहले कि महाराज उस के तन से कपड़े अलग करते उस ने महाराज की आंखों में झांकते हुए कहा, ‘‘अब तो मैं आप के बच्चे की मां बनने जा रही हूं. मैं ने आज तक आप से कभी कुछ नहीं मांगा…’’

‘‘तो तुम्हें क्या चाहिए रानी?’’ महाराज ने उस के कपोलों पर चुंबन अंकित कर के पूछा.

‘‘मैं भला क्या चाहूंगी… सभी सुखसुविधाएं तो आप की दी हुई हैं, पर थोडे़ से पैसे और अपने रहनसहन के लिए हर बार आप के सामने प्रार्थना करनी पड़ती है, जो मुझे अच्छा नहीं लगता. आप तो हमेशा बाहर ही रहते हैं और मैं…’’ सुनीता ने जानबूझ कर अपना वाक्य अधूरा छोड़ दिया.

‘‘तो ठीक है. मेरे कमरे के सेफ में कुछ रुपए रखे रहते हैं. मैं उस की चाबी तुम को दे देता हूं. बस, अब तो खुश हो न,’’ कह कर महाराज उस के आगोश में सिमट कर लेट गए.

शाम को जब महाराजजी आश्रम की गतिविधियों को देखने के लिए वहां से जाने लगे तो सुनीता ने खुद ही बात शुरू कर दी :

‘‘महाराज, अब तो आप पिता बनने वाले हैं. आज मैं इनाम लिए बिना नहीं मानूंगी.’’

‘‘इनाम?’’ महाराज चौंक कर उसे देखने लगे.

‘‘क्यों…क्या आप को बच्चे की खुशी नहीं है.’’

‘‘हां, खुशी तो है पर पता नहीं बेटा होगा या…’’ महाराज कुछ सोचते हुए बोले.

‘‘आप को क्या चाहिए…बेटा या बेटी?’’

‘‘बेटा…पहले तो बेटा ही होना चाहिए,’’ महाराज तपाक से बोले.

‘‘तो फिर बेटा ही होगा,’’ कह कर सुनीता हंसने लगी.

‘‘और अगर बेटी हुई तो?’’

‘‘फिर आप जैसा चाहेंगे वैसा ही होगा. मैं आप की पत्नी हूं. मेरा सुख तो आप के साथ ही है. आप नहीं चाहेंगे तो बेटी पैदा नहीं होगी. मैं बस, आप को सुखी और खुश देखना चाहती हूं,’’ कह कर वह उन्हें प्यार से देखने लगी.

इधर महाराज को 6 दिन के लिए एक विशेष शिविर में भाग लेने मध्य प्रदेश जाना पड़ गया. सुनीता को तो ऐसे मौके की ही तलाश थी. इसी बीच सुनीता ने अपने रहने के स्थान पर अभूतपूर्व परिवर्तन कर दिया. इतालवी झूमर व लाइटें, बेहद खूबसूरत नक्काशीदार पलंग, शृंगार की मेज पर विदेशी इत्र एवं पाउडर, गद्देदार सोफे और इंच भर धंसता कालीन…यह सबकुछ इसलिए कि सुनीता चाहती थी कि महाराज जब वापस यहां आएं तो बस, यहीं के हो कर रह जाएं.

उस दिन शाम को जब महाराज शिविर से लौट कर थकेहारे आए तो सुनीता बेहद आकर्षक बनावशृंगार के साथ आभूषणों से लदी खूबसूरत कपड़ों में महाराज का स्वागत करने के लिए आगे बढ़ी. वह उसे देखते ही रह गए. उन्होंने कल्पना भी नहीं की थी कि सुनीता इतनी खूबसूरत भी हो सकती है.

‘‘बहुत थक गए होंगे आप,’’ महाराज के एकदम पास आ कर सुनीता बोली, ‘‘पहले फ्रैश हो जाइए, तब तक मैं चाय ले कर आती हूं.’’

सुनीता जब तक चाय ले कर आई तब तक महाराज आसपास की वस्तुओं को बडे़ ध्यान से देखते रहे. उन की आंखों की भाषा को पढ़ते हुए वह बोली, ‘‘अब यह मत कहिएगा कि इतना सामान कहां से लिया और महंगा है. आप कमाते किस लिए हैं…उस भविष्य के लिए जो आप ने देखा ही नहीं या उस वर्तमान के लिए जो आप जी नहीं पा रहे हैं. बस, सुबह से शाम तक आश्रम और साधकों को लुभाने के लिए सफेद कुर्ताधोती या गेरुए वस्त्र. इस से बाहर भी कोई दुनिया है,’’ इतना कह कर सुनीता उन्हें प्यार से सहलाने लगी, ‘‘अच्छा, अब आप स्नान कर लीजिए. मैं अपने हाथ से आप के लिए खाना लगाती हूं. बहुत हो गया सेवकों के हाथ से खाना खाते हुए,’’ सुनीता ने अलमारी से एक सिल्क का कुरता निकाला और महाराज को पकड़ा दिया.

‘‘अरे, यह सब?’’ आश्चर्य और प्रसन्नता से उन्होंने पूछा.

‘‘क्यों, अच्छा नहीं है क्या? यहां पर आप कोई महंत या महात्मा तो हैं नहीं. मैं जैसा चाहूंगी वैसा आप को रखूंगी,’’ कह कर उस ने महाराज के गालों पर चुंबन अंकित कर दिया.

महाराज आज सुबह बहुत ही तरोताजा लग रहे थे. कमरे के साथ लगे लान में वह अखबार पढ़ रहे थे. तभी सुनीता चाय की ट्रे करीने से सजा कर उन के पास ले आई और महाराज की तरफ तिरछी नजर से देखते हुए बोली, ‘‘आज तो आप बहुत ही फ्रेश लग रहे हैं. कैसी लगी आप को मेरी पसंद और घर का बदला हुआ स्वरूप?’’

‘‘घर से ज्यादा तो तुम्हारे बदले हुए रूप ने मुझे प्रभावित किया है,’’ महाराज ने शरारत भरी नजरों से सुनीता को देखते हुए कहा, ‘‘आज मैं सचमुच तुम्हारी पसंद से बहुत खुश हूं. तुम मुझे पहले क्यों नहीं मिलीं.’’

‘‘महाराजजी, मेरा बस चले तो आश्रम की व्यवस्था और सुंदरता की कायापलट कर दूं. इतनी दूरदूर से लोग आप से मिलने आते हैं. उन्हें भी सुखसुविधाएं मिलनी चाहिए. आते ही ठंडा पानी, बैठने के लिए आरामदायक स्थान और भोजन आदि की व्यवस्था…आप का भी मान बढे़गा और लोग भी खुशीखुशी आएंगे.’’

‘‘पर इस के लिए इतना धन चाहिए कि…’’

‘‘आप को धन की क्या कमी है, महाराज,’’ सुनीता बीच में बात काटते हुए बोली, ‘‘लक्ष्मी तो आप पर विशेष रूप से मेहरबान है.’’

महाराज अपनी प्रशंसा सुन कर मुसकराने लगे…फिर बोले, ‘‘अच्छा, मैं अपनी समिति के सदस्यों और अंतरंग सेवकों से सलाह ले लूं.’’

‘‘अंतरंग सदस्यों से? महाराज, यह आश्रम आप का है. सलाह सब की लें पर निर्णय आप का ही होना चाहिए. यदि हर काम उन से सलाह ले कर करेंगे तो देखना एक दिन सब आप को लूट खाएंगे. आप तो बस, अपना निर्णय सुनाइए.’’

‘‘सुनीता, इस आश्रम के नियमों में तो मैं कोई परिवर्तन नहीं कर सकता हूं, हां, शहर के दूसरी तरफ मुझे एक भक्त ने 2 बीघा जमीन दान मेें दी है. तुम उस पर जैसा चाहो वैसा करो. उस के डिजाइन, रखरखाव में जैसा परिवर्तन चाहोगी वैसा कर सकती हो. तुम चाहोगी तो कुछ सेवक भी वहां नियुक्त कर दूंगा.’’

सुनीता को तो जैसे मनचाही खुशी मिल गई.

महाराज तैयार हो कर आश्रम जाने लगे तो सुनीता सहमे स्वर में बोली, ‘‘कल मैं आप के पीछे आप की आज्ञा के बिना पास के क्लीनिक में गई थी. बाकी तो सब ठीक है पर महाराज, बडे़ खेद के साथ कहना पड़ रहा है कि गर्भस्थ शिशु लड़की ही है.’’

‘‘लड़की…ओफ,’’ महाराज ने ऐसे कहा जैसे कुछ जानते ही न हों.

‘‘मैं जानती थी कि आप को यह सुन कर दुख होगा क्योंकि आप बेटा चाहते हैं, इसलिए मैं ने डाक्टर को कह दिया कि हमें लड़की नहीं चाहिए. डाक्टर ने कहा है कि इस काम के लिए कुछ दिन और इंतजार करना पडे़गा और 5 हजार रुपए का खर्चा आएगा.’’

सुनीता अच्छी तरह जानती थी कि यदि खुद उस ने ऐसा नहीं कहा तो किसी दिन वह स्वयं उसे किसी न किसी बहाने किसी बडे़ क्लीनिक या अस्पताल में ले जाएंगे. तब वह दीनहीन बन कर अपना सर्वस्व समाप्त कर लेगी.

महाराज ने सोचा भी नहीं था कि इतनी आसानी से सुनीता गर्भपात के लिए तैयार हो जाएगी. उन्होंने एक भेदभरी नजर से उस को देखा फिर अंक में भर कर बोले, ‘‘तुम दुख न मनाओ…हां, अपना ध्यान रखना. मैं तुम जैसी पत्नी को पा कर धन्य हो गया हूं.’’

धीरेधीरे समय बीतता गया. महाराज से अति निकटता प्राप्त करने का सुनीता ने कोई भी अवसर नहीं गंवाया. नए आश्रम की बागडोर भी महाराज ने उसे दे दी, जैसा कि वह चाहती थी. इतना ही नहीं दिनप्रतिदिन उस के चेहरे पर निखार आता गया और वह नएनए गहनों में इठलाती, इतराती घूमती रहती.

एक दिन वही हुआ जो होना था. दोपहर को सुनीता अपने कमरे में बैठी फोन पर बात कर रही थी कि तभी महाराज तेजी से आए और सेफ की चाबियां मांगने लगे.

‘‘क्यों, ऐसा क्या हो गया आज. आप 2 मिनट विश्राम तो कीजिए,’’ कह कर वह तेजी से स्थिति को भांप गई और फोन को पास ही में रख कर खड़ी हो गई.

‘‘होना क्या था. मेरा एक 10 लाख का चेक बैंक से वापस आ गया है. समझ में नहीं आता कि ऐसा कैसे हो गया जबकि बैंक में बैलेंस भी था.’’

‘‘इतने बडे़ अमाउंट का चेक आप ने किसे दे दिया? आप ने तो कभी बताया ही नहीं.’’

‘‘यह सब बताने का समय मेरे पास नहीं है. पैसा आज न दिया तो मेरे हाथ से बहुत बड़ी जमीन निकल जाएगी.’’

‘‘पर सेफ में इतने रुपए कहां हैं,’’ सुनीता ने कहा.

‘‘क्यों?’’ महाराज की भौंहें तन गईं. 20 लाख से अधिक रकम होनी चाहिए वहां तो.

‘‘महाराजजी, आप को याद नहीं कि आप से पूछ कर ही तो यहां की साजसज्जा और अपने लिए रुपए लिए थे…और फिर नए आश्रम का काम भी तो…’’

‘‘सुनीता,’’ महाराज अपने क्रोध को नियंत्रित न कर पाए, ‘‘मैं कल उस आश्रम में भी गया था. वहां सब मिला कर 5 लाख से ऊपर खर्च नहीं हुए होंगे.’’

‘‘तो मैं ने कौन से अपने लिए रख लिए हैं. सबकुछ तो आप के सामने है. तब तो आप की जबान मेरी तारीफ करते नहीं थकती थी और अब…’’ सुनीता तुनक कर बोली.

‘‘अब समझ में आया कि इन सारे खर्चों की आड़ में तुम ने मेरा काफी पैसा ले लिया है,’’ कह कर महाराजजी तेजी से सेफ खोल कर देखने लगे. वहां केवल 50 हजार रुपए कैश रखे थे. वह माथा पकड़ कर वहीं बैठ गए फिर तेज स्वर में बोले, ‘‘सचसच बताओ, सुनीता, तुम ने ये सारे रुपए कहां रखे हैं. एक तो मेरा सारा बैंक का रुपया सावित्री ने न जाने कहांकहां खर्च कर दिया और ऊपर से तुम ने.’’

‘‘सावित्री…ये सावित्री कौन है?’’

‘‘सावित्री, मेरी पत्नी… तुम नहीं जानतीं क्या?’’

‘‘तो मैं कौन हूं? आप ने कभी बताया नहीं कि आप ने दूसरा विवाह भी किया है. मुझे भी धोखे में रखा है.’’

‘‘तो तुम उसी धोखे का बदला ले रही हो मुझ से? जितना मानसम्मान, धन, ऐश्वर्य मैं ने तुम को दिया है तुम्हें सात जन्मों में भी नसीब न होता.’’

‘‘आप की पत्नी होने से तो अच्छा था मेरे पिता कोई अंधा, बहरा, लूलालंगड़ा दूल्हा ढूंढ़ देते तो मैं खुद को ज्यादा तकदीर वाली समझती.’’

‘‘मैं ने इतनी मेहनत से जो पैसा जमा किया है अब समझ में आया, तुम ने क्या किया.’’

‘‘मेहनत से या लोगों को बेवकूफ बना कर. आप महात्मा हैं या ढोंगी. अपना स्वार्थ सिद्ध करने के लिए कैसा घिनौना खेल खेल रहे हैं,’’ सुनीता का स्वर जरूरत से ज्यादा तेज हो गया, ‘‘लोगों को पुत्र होने के मंत्र और भस्म देते हैं. जरा स्वयं पर भी तो उसे आजमाइए तो पता चले. आप की जानकारी के लिए बता दूं कि स्त्री केवल एक उपजाऊ भूमि होती है. और बेटा या बेटी पैदा करने के लिए जिस बीज की जरूरत होती है वह पुरुष के पास होता है, स्त्री के पास नहीं… तुम दोष स्त्री को देते हो. मैं इन सारे तथ्यों को लोगों को बताऊंगी ताकि लोगों के विश्वास को धक्का न पहुंचे, जो अपना एकएक पैसा जोड़ कर बड़ी श्रद्धा से आप के चरणों में भेंट चढ़ाते हैं.

‘‘आप ने सारे तथ्यों को छिपा कर मुझ से विवाह किया. मुझे पहले ही मालूम होता कि आप विवाहित और 3 लड़कियों के पिता हैं तो मैं कभी भी विवाह न करती और आप ने मुझ से केवल इसीलिए विवाह किया कि मैं बेटा पैदा कर सकूं. आप के शिष्यों ने पता नहीं क्याक्या झूठ बोल कर मेरे गरीब मातापिता को भ्रम में रखा और जब तक मुझे सचाई का पता चलता, बहुत देर हो चुकी थी.

‘‘जिस औरत ने मुझे सहारा दिया और मुसीबत के क्षणों में मेरा साथ दिया, जिस के कहने पर यह सारा प्रेम प्रपंच रचा गया वह आप के पीछे खड़ी है. मैं तो एक साधारण औरत ही थी.’’

महाराज ने पीछे मुड़ कर देखा तो उन की पत्नी सावित्री खड़ी थी. महाराज एकदम अचंभित से हो गए.

सावित्री उन्हें तीखी नजरों से देखने लगी, ‘‘महाराज, जिस तरह आप ने लोगों से धन जमा किया है, हम ने भी उसी प्रकार आप से ले लिया है. आप जहां शिकायत करना चाहें करें पर इतना ध्यान जरूर रखें कि आप के कारनामे सुनने के लिए बाहर समाचारपत्र और टीवी चैनल वाले आप का इंतजार कर रहे हैं.’’

महाराज को ऐसा कोई रास्ता नहीं मिल रहा था कि वह बाहर जा सकें. खिड़की का परदा हटा कर देखा तो आश्रम के बाहर हजारों व्यक्तियों की भीड़ उमड़ पड़ी थी जो काफी गुस्से में थी.

सावित्री ने सुनीता के सिर पर हाथ रख कर कहा, ‘‘अब तुम मेरे संरक्षण में हो. तुम्हें घबराने की कोई जरूरत नहीं है. जिस इनसान को भीड़ से बचने की चिंता है वह हमारा कुछ नहीं बिगाड़ सकता.’

सुखी जीवन के लिए सही आसन

आजकल योग फैशन की तरह लोकप्रिय होता जा रहा है. हर गलीमहल्ले में कोई न कोई योगगुरु शिविर चलाता हुआ मिल जाएगा. भू्रण हत्या से देश में गड़बड़ा गए स्त्रीपुरुष अनुपात की तरह योग सिखाने वाले और सीखने वालों का अनुपात भी ऐसा गड़बड़ा गया है कि अब योग सिखाने वाले ज्यादा और सीखने वाले कम पड़ते जा रहे हैं. इसलिए अब सिखाने वाले योगगुरु विदेशों में खपाए जा रहे हैं.

हम भी आप से योगासनों की बात करेंगे लेकिन घबराइए नहीं. हम आप का ऐसे लेटेस्ट योगासनों से परिचय कराएंगे जिन से आप के मुरझाए वैवाहिक जीवन में वसंतबहार आ जाएगी. विश्वास नहीं है तो खुद ही आजमा कर देख लीजिए. आप के मुख से खुदबखुद निकलेगा कि वाह, योगासन हों तो ऐसे.

बेड टी भार्या नमस्कार : सुबह जल्दी उठ कर गरमागरम चाय बना कर पत्नी के बेड पर ले जाएं. पहले शब्दों को अच्छी तरह चाशनी में डुबोएं फिर पत्नीवंदना करें. सुबहसुबह उठने में सब को कष्ट होता है, आप की पत्नी को भी होगा. वह गुस्सा होंगी लेकिन आप धीरज धरें.

जैसे ही सूर्यमुखी आभा कंबल या रजाई से उदय हो, आप दोनों हाथ जोड़ने वाली मुद्रा में मिलाएं, गरदन को झुकाएं. फिर धीरेधीरे कमर को झुकाते हुए दोनों हाथ जमीन पर टिकाएं. पहले दायां पैर पीछे ले जाएं फिर बायां. हाथों की स्थिति दंड लगाने वाली हो. 3 बार नाक को जमीन पर रगडे़ं फिर धीरेधीरे पहले की स्थिति में आ जाएं.

शुरू में यह आसन 1 या 2 बार करें. अभ्यास होने पर इसे बढ़ाएं. तत्पश्चात गरमागरम चाय का प्याला पत्नी के हाथों में थमाएं. इस से पत्नी की खुशी बढ़ेगी और आप के पेट की चर्बी घटेगी. हाथों को बल मिलेगा. सीना मजबूत बनेगा, जिस पर आप बेलन आदि का वार भी आसानी से झेल सकेंगे.

एक टांगासन : इस आसन में आप खडे़ तो अपनी दोनों टांगों पर ही रहेंगे लेकिन आप की श्रीमतीजी को यह लगना चाहिए कि आप उन के हर आदेश का पालन एक टांग पर खडे़ रह कर करते हैं. इधर उन का मुंह खुला और उधर आप ने आदेश का पालन किया.

यह बहुपयोगी आसन है. इसे आप कहीं भी, कभी भी कर सकते हैं. इस से यह लाभ होगा कि आप की श्रीमतीजी सदा प्रसन्न रहेंगी जिस से घर का माहौल खुशहाल बनेगा. आप का रक्तसंचार ठीक रहेगा. शरीर चुस्तदुरुस्त बनेगा और आप इतने थक जाएंगे कि मीठी नींद के रोज भरपूर मजे लेंगे.

मुक्त कंठ प्रशंसा आसन : इस आसन में आप को अपनी पत्नी की मुक्त कंठ से प्रशंसा करनी होती है मसलन, उन की साड़ी, लिपस्टिक, सैंडिल आदि की. याद रखें, आप की पत्नी की पसंद चाहे जितनी घटिया हो और चाहे जितने फूहड़ तरीके से वह सजतीसंवरती हों, इस से आप को कोई मतलब नहीं होना चाहिए. आप को तो बस, प्रशंसा करनी है.

कई लोग शिकायत करते हैं कि हमारी पत्नी तो किसी एंगल से भी खूबसूरत नहीं लगती. ऐसे में भला हम कैसे प्रशंसा करें, हमें बहुत तकलीफ होती है. तो ऐसे लोगों को सलाह है कि शुरू में तकलीफ जरूर होती है लेकिन अभ्यास होने पर सब ठीक हो जाता है.

अंगरेजी में कहते हैं ‘प्रेक्टिस मेक्स ए मैन परफेक्ट.’ यह आसन जितना मुश्किल लगता है, जीवन में इस के उतने ही लाभ हैं. इसे भी आप कहीं भी, कभी भी कर सकते हैं. इस के बहुत आश्चर्यजनक परिणाम आते हैं. इस से आप की पत्नी इतनी प्रसन्न होती हैं कि आप के वारेन्यारे हो जाते हैं. साथ ही आप की वाक्शक्ति बढ़ती है और कंठ मधुर होता है.

उठकबैठक कान पकड़ासन : आप आफिस से आते वक्त सब्जी, पप्पू की चड्डीबनियान, मुनिया का फ्राक लाना भूल गए हों. पत्नी के भाईबहन, मातापिता का जन्मदिन या विवाह की वर्षगांठ विस्मृत कर गए हों और आप को लगता है कि घर की फिजा बिगड़ जाएगी और उस का परिवार के स्वास्थ्य पर प्रतिकूल असर पडे़गा तो ऐसे में तुरंत इस आसन को करें.

याद रखें, यह आसन तभी लाभदायक है जब पत्नी आप के सामने हों. पहले दोनों हाथ उठा कर कानों की मालिश करें. दोनों पैरों को एकदूसरे के समानांतर रखें तथा कमर सीधी हो. चेहरे पर ऐसे भाव लाएं जैसे आप से बहुत बड़ा अपराध हो गया हो और आप आत्महत्या करने ही वाले हों. फिर गहरी सांस खींच कर सौरी, माफी, क्षमा आदि शब्दों को दोहराएं और धीरेधीरे सांस छोड़ते जाएं. इस के बाद कान पकड़ कर आहिस्ता से पैरों पर बैठें और तुरंत खडे़ हो जाएं. शुरू में यह 11 बार ही करें, बाद में संख्या बढ़ा सकते हैं. इस से यह लाभ होगा कि श्रीमतीजी को लगेगा कि आप को अपने बच्चे और उन के भाईबहन व मातापिता की बहुत चिंता है. क्राकरी टूटने से बच जाएगी, अलमारी के बर्तन खड़खड़ाएंगे नहीं और कलह टल जाएगी.

उठकबैठक से आप का पेट नियंत्रित रहेगा जिस से आप स्मार्ट लुक पाएंगे. टांगें बलशाली होंगी जिस से आप गृहस्थी का बोझ उठा कर ठीक से चल सकेंगे. कानों की खिंचाई से आप की श्रवणशक्ति बढे़गी.

मक्खन लगनासन : यह आसन बहुत नजाकत वाला है. इस में बहुत अभ्यास की जरूरत पड़ती है. थोड़ी सी जबान फिसली कि बड़ा नुकसान हो सकता है. इस का प्रदर्शन सार्वजनिक रूप से तब तक नहीं करना चाहिए जब तक कि इस में पारंगत न हो जाएं. अकसर अपना काम निकालने के लिए इस आसन का उपयोग किया जाता है.

श्रीमतीजी की हथनी जैसी काया को हिरणी जैसी बताना. उन की मिचमिची आंखों को ऐश्वर्या सी दिखाना. भले ही उन की एडि़यां फटी हों लेकिन आप को यह कह कर मक्खन लगाना है, ‘आप के पैर देखे, बडे़ सुंदर हैं. इन्हें जमीन पर मत रखना वरना गंदे हो जाएंगे.’  साथ ही सास और ससुर को महान बताना. सालेसालियों की बढ़चढ़ कर प्रशंसा करना आदि बातें इस आसन में सम्मिलित हैं. इस से ससुराल वाले खुश होंगे और भविष्य में खतरे की आशंका भी टल जाएगी.

कर्ण खोल जबान बंदासन : इस आसन का उपयोग तब लाभकारी होता है जब आप की श्रीमतीजी एंग्री यंग वूमेन का रूप धर लें. आप को लगे कि अब गरम हवा चलेगी और स्थिति बरदाश्त से बाहर हो जाएगी तब तुरंत अपने दोनोें कान खोल कर और चंचला जबान में गांठ लगा कर पद्मासन की मुद्रा में बैठ जाएं.

जब तक धर्मपत्नी अपने शब्दकोष के समस्त कठोर शब्दों का अनुसंधान न कर ले तब तक एकाग्रचित्त हो कर उन के प्रवचन सुनते रहें. ऐसा करने पर अंत में वह प्रसन्न हो जाएंगी कि आप ने उन की बातों को बहुत गंभीरता से कर्णसात किया. बादल बरसने के बाद मौसम ठंडा और ताजगीपूर्ण हो जाएगा. इस से पत्नी का मन हलका होगा और आप के कानोें का मैल साफ होगा, आप की आत्मा धुल जाएगी और जबान पर नियंत्रण रखने की शक्ति उभर कर आएगी.

इस तरह ऊपर बताए हमारे अचूक योगासनों को जो भी अपनाएगा वह सुख- समृद्धि के साथ चैन की बंशी बजाएगा. वैसे तो ये योगासन पतियों के लिए हैं लेकिन शासकीय सेवक और नेता भी अपने बौस या हाईकमान को खुश करने के लिए इन में से कुछ योगासनों का सदुपयोग करें तो ये उन के लिए भी लाभदायी साबित होंगे.

ब्राह्मण यूनियन

पंडित अंबाप्रसाद सवेरे जल का लोटा ले कर सूर्य देवता को अर्पण करने जब छत पर पहुंचे तब उन के पड़ोसी केदारनाथ बेचैनी से छत पर चहलकदमी कर रहे थे. केदारनाथ यूनियन के नेता थे और यह चहलकदमी भी कोई नई बात नहीं थी. पंडित अंबाप्रसाद पड़ोसी का हाल बेहाल देख कर मन ही मन बड़े प्रसन्न हुए, पर प्रकट रूप में सूर्य को नमस्कार कर, श्रद्धा से जल अर्पण कर और उच्च स्वर में ‘हरिओम’ की गुहार लगा कर पड़ोसी से बोले, ‘‘तो अभी तक कुछ फैसला नहीं हुआ आप की यूनियन का?’’

केदारनाथ, अंबाप्रसाद के मन की बात ताड़ते हुए निश्ंिचतता की मुद्रा में बोले, ‘‘फैसला भी हो जाएगा, अंबाप्रसादजी, हमारे खिलाफ तो फैसला होने से रहा. आप को तो पता ही है, यह ट्रेड यूनियन का युग है. यूनियन के आगे अच्छेअच्छे घुटने टेक देते हैं. फिर यह तो जरा सा मामला है.’’

अंबाप्रसाद भी पड़ोसी से हार मानने के लिए तैयार नहीं थे. कुछ सोचविचार कर उन्होंने आंखें गोल कर गोपनीय बात कहने के अंदाज में केदारनाथ से धीरेधीरे कहना शुरू किया, ‘‘देखो, भाई साहब, यह तो ठीक है कि ट्रेड यूनियन का जमाना है और यूनियन में बड़ा दम होता है, पर आप की नामराशि के ग्रहयोग ठीक नहीं हैं, इसलिए कुछ उपाय कर लीजिए वरना सफलता मिलने में संदेह है.’’

केदारनाथ मुसकरा कर बोले, ‘‘पंडितजी, हमारी और निदेशक महोदय की नामराशि एक ही है, हम केदारनाथ और वह केहरीसिंह. जो होगा, देखा जाएगा. उपाय करने से ही क्या होगा?’’

अंबाप्रसाद छत से नीचे उतर आए. कौन इस दुष्ट के मुंह लगे और सवेरेसवेरे अपना मन खराब करे. शाम को वैसे भी पंडित दुर्गाप्रसाद का तार आया था, आने वाले ही होंगे. संदेश में आने का प्रयोजन तो लिखा नहीं, फिर क्या पता चले कि क्या बात है? पर जरूर कोई खास बात होगी, जो तार द्वारा अपने आने की सूचना भिजवाई है.

अंबाप्रसाद अपनी गद्दी पर बैठ कर कुछ यजमानों के वर्षफल निकालने लगे. कई दिनों से हाथ बड़ा तंग चल रहा था. कोई जन्मकुंडली दिखाने वाला पहुंचे तो बात बने.

अंबाप्रसाद अभी अपना काम भी खत्म नहीं कर पाए थे कि बाहर आटोरिकशा के रुकने की आवाज हुई. उन्होंने खिड़की का परदा उठा कर बाहर झांका, पंडित दुर्गाप्रसाद आ पहुंचे थे. अपनी कागज- पोथी सब समेट कर अंबाप्रसाद ने अलमारी में रख दी और आगंतुक का स्वागत करने मुख्यद्वार की तरफ बढ़ गए.

दुर्गाप्रसाद काफी कमजोर लग रहे थे, पर उन की आवाज अभी उसी तरह जोश भरी थी. कुशलक्षेम और औप- चारिकता के पश्चात दुर्गाप्रसाद अपने आने के प्रयोजन पर पहुंच गए. वह गंभीर स्वर में बोले, ‘‘अंबाप्रसाद, अब ब्राह्मण परिषद के गठन का समय आ गया है. अब हर कोई यह जानता है कि आज का युग ट्रेड यूनियन का युग है. समाज का हर वर्ग अपने अधिकारों की रक्षा के लिए संगठित हो चुका है, सिर्फ ब्राह्मण समाज ही है जो चारों तरफ बिखरा पड़ा है और इसी लिए उसे यजमानों की दया पर निर्भर रहना पड़ता है.’’

अंबाप्रसाद, दुर्गाप्रसाद का वक्तव्य सुन कर हैरत में आ गए. मन में सोचने लगे, ‘तो क्या अब ब्राह्मणों की भी ट्रेड यूनियन बनेगी?’ पर वह सहमति में सिर हिलाते हुए बोले, ‘‘यह बात तो आप की अक्षरश: सत्य है.’’

‘‘हम ब्राह्मण सदियों से आपस में द्वेष रखते हैं. एक ब्राह्मण दूसरे को देख कर ऐसे गुर्राता है जैसे गली में दूसरे कुत्ते को देख कर कुत्ता. मुझे तो यह कहते भी शर्म आती है कि मेरा पड़ोसी मिसरा गुनगुनाता रहता है कि ‘ब्राह्मण, कुत्ता, नाऊ, जाति देख गुर्राऊ’,’’  दुर्गाप्रसाद बोले.

अंबाप्रसाद को भी अपना पड़ोसी याद आया, जो उन के पांडित्य का लोहा नहीं मानता, बस राजनीतिक जोड़तोड़ में लगा रहता है. उन्होंने दुर्गाप्रसाद की बात का समर्थन करते हुए कहा, ‘‘हमारे शहर में ब्राह्मणों ने एक ब्राह्मण परिषद बना रखी है, जिस के अध्यक्ष पंडित भवानीसिंह हैं. आप कहें तो उन के पास चल कर अखिल भारतीय ब्राह्मण सम्मेलन का आयोजन करने की चर्चा करें?’’

दुर्गाप्रसाद को यह युक्ति जंच गई. वह तुरंत चलने को तैयार हो गए. दुर्गाप्रसाद ने भवानीसिंह से हुई पहली ही मुलाकात में यह भांप लिया कि आदमी बड़े जीवट का है और असरदार भी. दुर्गाप्रसाद की हर बात भवानीसिंह ने बड़े ध्यान से सुनी और यह सुझाव दिया कि एक विशाल भारतीय ब्राह्मण सम्मेलन बुलाया जाए और ब्राह्मणों द्वारा किए जाने वाले धार्मिक अनुष्ठानों की एक दर सूची बना दी जाए. इस से यजमानों में भी ब्राह्मणों के प्रति श्रद्धा भाव उत्पन्न होगा और ब्राह्मणों की गलाकाट स्पर्धा के कारण, जो यजमान कभीकभी सत्यनारायण की कथा करवा कर दक्षिणा में चवन्नी ही टिकाते हैं, उन की भी आंखें खुलेंगी.

अंबाप्रसाद और दुर्गाप्रसाद ने इस प्रस्ताव का जोरदार स्वागत किया. भवानीसिंह ने अगले ही दिन अपनी योजना को कार्यान्वित करना शुरू कर दिया और दसों दिशाओं में ब्राह्मणों को निमंत्रण भेजे जाने लगे. सभा का आयोजन सनातन धर्म कालिज के हाल में किया गया. पहली बार ब्राह्मण सम्मेलन हो रहा था.

दूरदूर से ब्राह्मण लोग इस सम्मेलन में भाग लेने के लिए पधार रहे थे. उन की छटा देखते ही बनती थी. आधुनिकता का रंग चढ़े हुए ब्राह्मण पैंटबुशर्ट में थे तो कुछ कुरतेपाजामे में. कुछ पुरातन परंपरा- वादी धोतीकुरते में थे और कुछ पगड़ी व बगलबंदी में दिखाई पड़ रहे थे.

सभा के आरंभ में संयोजक अंबाप्रसाद ने ब्राह्मण परिषद की आवश्यकता पर जोर दिया और ट्रेड यूनियन के महत्त्व को समझाया, तत्पश्चात भवानीसिंह ने अध्यक्ष पद की गरिमा को देखते हुए अपना भाषण शुरू किया, ‘‘भाइयो, दूरदूर से पधारे ब्राह्मणों का मैं हार्दिक स्वागत करता हूं. हम लोग आज यहां पर एक महत्त्वपूर्ण उद्देश्य से एकजुट हुए हैं. यजमानों की मनमानी से बचने के लिए विभिन्न अवसरों पर हमें यजमान से क्या शुल्क (दक्षिणा) लेना चाहिए इस के निर्धारण के लिए गठित प्रवर समिति के सभी निर्णयों पर काफी विचार हो चुका है. अब इस दर सूची की एकएक प्रतिलिपि सभी आगंतुक महानुभावों को अर्पित की जा रही है. इसे देख कर आप सब अपनीअपनी सहमति से हमें अवगत कराएं.’’

दर सूची की एकएक प्रतिलिपि सब को बंट चुकी थी. अगली पंक्ति में बैठे नवयुवक ब्राह्मण उस को पढ़ कर फूले नहीं समा रहे थे. वे प्रफुल्लित स्वर में बोल रहे थे, ‘‘वाह, इसे कहते हैं एकता में बल. देखा, नामकरण संस्कार की शुल्कदर पिता की संपत्ति का 20वां हिस्सा यानी 5 प्रतिशत, पाणिग्रहण संस्कार की दक्षिणा दहेज का 10 प्रतिशत, गृहप्रवेश का शुल्क मकान के मूल्य का 5 प्रतिशत, कथावाचन के 51 रुपए, जन्मकुंडली के 101 रुपए.’’

‘‘अरे, इसे कहते हैं यूनियन बना कर रहना. आज ट्रेड यूनियन का जमाना है. बस, भैया, गरीबी के दिन लद गए, पंडितों ने आज पहली बार अपनी आवाज उठाई है,’’ एक गद्गद स्वर उभरा.

‘‘अजी, पंडित जन्म से ले कर मृत्यु तक और उस के बाद भी पिंडदान, श्राद्ध आदि कर्म करवा कर मनुष्यों का उद्धार करवाते हैं, किंतु दानदक्षिणा की तुच्छ सी रकम पाने वाले हम लोग यजमान के आगे कैसे असहाय नजर आते हैं,’’ एक बोला.

‘‘अपनी ग्रहदशा जान कर यजमान भविष्य सुधार कर लाखों रुपया कमाते हैं और हमें चवन्नी पकड़ा देते हैं,’’ एक पंडित तलखी से बोला.

एक नवयुवक ब्राह्मण जो पुरोहिताई के धंधे में नएनए जम रहे थे, इस सूची का समर्थन करते हुए चीख रहे थे, ‘‘यह सूची ब्राह्मण कर्म के उपयुक्त है. इस में छपी हुई दरों के मुताबिक ही सब पुरोहित एक जैसी दक्षिणा यजमानों से वसूलें. जो इस कानून को तोड़ेगा उस का जातीय बहिष्कार किया जाएगा.’’

नवयुवकों के पीछे बूढ़े पुरोहित पंडित राधेश्याम ने शांति से कहा, ‘‘वत्स, दानदक्षिणा की कोई दर तय नहीं होती. यह तो यजमान की आर्थिक स्थिति और श्रद्धा पर निर्भर करती है. यह दर तालिका कोरी भावुकता है, अव्यावहारिक है.’’

पंडित द्वारिकाप्रसादजी ने भी बुजुर्ग पंडित की बात का समर्थन करते हुए कहा, ‘‘ऊंची फीस लेने वाले वैद्य, डाक्टर, वेश्या और वकील हमेशा मक्खियां ही मारा करते हैं. कोई ग्राहक उन के पास नहीं फटकता.’’

पंडित जगन्नाथप्रसाद ने कुरसी छोड़ कर खड़े होते हुए अपनी धोती की लांग ठीक की और सख्त आवाज में कहा, ‘‘ब्राह्मण सम्मेलन का उद्देश्य क्या ब्राह्मण कर्म के लिए प्रस्तावित दर सूची पारित करना ही था? ब्राह्मणों के लिए शिक्षा या अन्य सुविधाएं जुटाने का कोई प्रस्ताव इस सम्मेलन के पास नहीं है?’’

पंडित द्वारिकाप्रसाद भी आक्रोश में उठ कर खड़े हुए, ‘‘यह भवानी हमेशा अपनी नेतागीरी दिखाता है. इस तरह की दरें नियत कर यह हमें भूखों मार देगा. यजमान का मुंह देख कर ही दक्षिणा मांगी जाती है. आज के वैज्ञानिक युग में वैसे भी सारी पंडिताई धूल में मिलती जा रही है. इस तरह तो एक दिन ऐसा आ जाएगा जब पंडितों को कोई घास भी नहीं डालेगा.’’

जो नवयुवक पुरोहित दर सूची को पारित करवाने के लिए जोर दे रहे थे, ऐसे भाषण सुन कर तिलमिला उठे. उन्हें सुनहरे भवन ढहते जान पड़े. वे द्वारिकाप्रसाद की बात पर चिढ़ कर चिल्लाते हुए बोले, ‘‘आप यह घास डालने की बात किसे कह रहे हैं? हम लोग क्या कोई जानवर हैं?’’

‘‘चुप बे, सड़कछाप बरुए, हमारे आगे बोल रहा है,’’ पंडित जगन्नाथप्रसाद सब शिष्टाचार भूल कर तूतड़ाक पर उतर आए. पंडित जगन्नाथप्रसाद के बोलते ही पीछे से किसी ने फटा हुआ जूता मंच पर फेंक कर मारा. संयोजक अंबाप्रसाद मंच से चीखे, ‘‘अरे, यह कौन असामाजिक तत्त्व हाल में घुस आया? पकड़ो, पकड़ो बदमाश को.’’

घड़ी भर में ही सभाभवन का वातावरण बदल गया, ‘‘मारो इन बदमाशों को, चले हैं यूनियन बनाने. मारो…मारो.’’

तरहतरह की आवाजों के साथ मंच पर चप्पलजूतों की बौछार शुरू हो

गई. गेंदे और गुलाब के फूलों से सजा मंच क्षण भर में जूते- चप्पलों से भर गया. संयोजक अंबाप्रसाद और अध्यक्ष भवानीसिंह कब दुम दबा कर मंच से खिसक गए, यह किसी को पता नहीं चला और ब्राह्मण परिषद भंग हो गई. द्य

योग की पोल

पिछले 3 दिनों से रतन कुमारजी का सुबह की सैर पर हमारे साथ न आना मुझे खल रहा था. हंसमुख रतनजी सैर के उस एक घंटे में हंसाहंसा कर हमारे अंदर एक नई ऊर्जा का संचार कर देते थे.

क्या बताएं, जनाब, हम दोनों ही मधुमेह से पीडि़त हैं. दोनों एक ही डाक्टर के पास जाते हैं. सही समय से सचेत हो, नियमपूर्वक दवा, संतुलित भोजन और प्रतिदिन सैर पर जाने का ही नतीजा है कि सबकुछ सामान्य चल रहा है यानी हमारा शरीर भी और हम भी.

बहरहाल, जब चौथे दिन भी रतन भाई पार्क में तशरीफ नहीं लाए तो हम उन के घर जा पहुंचे. पूछने पर भाभीजी बोलीं कि छत पर चले जाइए. हमें आशंका हुई कि कहीं रतन भाई ने छत को ही पार्क में परिवर्तित तो नहीं कर दिया. वहां पहुंच कर देखा तो रतनजी  योगाभ्यास कर रहे थे.

बहुत जोरजोर से सांसें ली और छोड़ी जा रही थीं. एक बार तो ऐसा लगा कि रतनजी के प्राण अभी उन की नासिका से निकल कर हमारे बगल में आ दुबक जाएंगे. खैर, साहब, 10 मिनट बाद उन का कार्यक्रम समाप्त हुआ.

रतनजी मुसकराते हुए बोले, ‘‘आइए, आइए, देखा आप ने स्वस्थ होने का नायाब नुस्खा.’’

मैं ने कहा, ‘‘यार, यह नएनए टोटके कहां से सीख आए.’’

वह मुझे देख कर अपने गुरु की तरह मुखमुद्रा बना कर बोले, ‘‘तुम तो निरे बेवकूफ ही रहे. अरे, हम 2 वर्षों से उस डाक्टर के कहने पर चल, अपनी शुगर केवल सामान्य रख पा रहे हैं. असली ज्ञान तो अपने ग्रंथों में है. योेग में है. देखना एक ही माह में मैं मधुमेह मुक्त हो जाऊंगा.’’

मैं ने कहा, ‘‘योगवोग अपनी जगह कुछ हद तक जरूर ठीक होगा पर तुम्हें अपनी संतुलित दिनचर्या तो नहीं छोड़नी चाहिए थी. अरे, सीधीसादी सैर से बढ़ कर भी कोई व्यायाम है भला.’’

उन्होंने मुझे घूर कर देखा और बोले, ‘‘नीचे चलो, सब समझाता हूं.’’

नीचे पहुंचे तो एक झोला लिए वह प्रकट हुए. बड़े प्यार से मुझे समझाते हुए बोले, ‘‘मेरी मौसी के गांव में योगीजी पधारे थे. बहुत बड़ा योग शिविर लगा था. मौसी का बुलावा आया सो मैं भी पहुंच गया. वहां सभी बीमारियों को दूर करने वाले योग सिखाए गए. मैं भी सीख आया. देखो, वहीं से तरहतरह की शुद्ध प्राकृतिक दवा भी खरीद कर लाया हूं.’’

मैं सकपकाया सा कभी रतनजी को और कभी उन डब्बाबंद जड़ीबूटियों के ढेर को देख रहा था. मैं ने कहा, ‘‘अरे भाई, कहां इन चक्करों में पडे़ हो. ये सब केवल कमाई के धंधे हैं.’’

रतनजी तुनक कर बोले, ‘‘ऐसा ही होता है. अच्छी बातों का सब तिरस्कार करते हैं.’’

इस के बाद मैं ने उन्हें ज्यादा समझाना ठीक नहीं समझा और जैसी आप की इच्छा कह कर लौट आया.

एक सप्ताह बाद एक दिन हड़बड़ाई सी श्रीमती रतन का फोन आया, ‘‘भाईसाहब, जल्दी आ जाइए. इन्हें बेहोशी छा रही है.’’

मैं तुरंत डाक्टर ले कर वहां पहुंचा. ग्लूकोज चढ़ाया गया. 2 घंटे बाद हालात सामान्य हुए. डाक्टर साहब बोले, ‘‘आप को पता नहीं था कि मधुमेह में शुगर का सामान्य से कम हो जाना प्राणघातक होता है.’’

डाक्टर के जाते ही रतनजी मुंह बना कर बोले, ‘‘देखा, मैं ने योग से शुगर कम कर ली तो वह डाक्टर कैसे तिलमिला गया. दुकान बंद होने का डर है न. हा…हा हा….’’

मैं ने अपना सिर पकड़ लिया. सोचा यह सच ही है कि हम सभी भारतीय दकियानूसी पट्टियां साथ लिए घूमते हैं. बस, इन्हें आंखों पर चढ़ाने वाला चाहिए. उस के बाद जो चाहे जैसे नचा ले.

एक माह तक रतनजी की योग साधना जारी रही. हर महीने के अंत में हम दोनों ब्लड टेस्ट कराते थे. इस बार रतनजी बोले, ‘‘अरे, मैं पूरी तरह से स्वस्थ हूं. कोई परीक्षण नहीं कराऊंगा.’’

अब तो परीक्षा का समय था. मैं बोला, ‘‘दादा, अगर तुम्हारी रिपोर्ट सामान्य आई तो कल से मैं भी योग को पूरी तरह से अपना लूंगा.’’

बात बन गई. शुगर की जांच हुई. नतीजा? नतीजा क्या होना था, रतनजी का ब्लड शुगर सामान्य से दोगुना अधिक चल रहा था.

रतनजी ने तुरंत आश्रम संपर्क साधा. कोई संतोषजनक उत्तर न पा कर  वह कार ले कर चल पड़े और 2 घंटे का सफर तय कर आश्रम ही जा पहुंचे.

मैं उस दिन आफिस में बैठा एक कर्मचारी से किसी दूसरे योग शिविर की महिमा सुन रहा था. रतनजी का फोन आया, ‘‘यार, योगीजी अस्वस्थ हैं. स्वास्थ्य लाभ के लिए अमेरिका गए हैं. 3 माह बाद लौटेंगे.’’

मैं ठहाके मार कर हंसा. बस, इतना ही बोला, ‘‘लौट आओ यार, आराम से सोओ, कल सैर पर चलेंगे.’’

टेलीविजन बच्चों का दुश्मन

मिश्राजी पत्नी के साथ घर लौटे तो देखा कि उन का छोटा बेटा निशांत हाथ में सौस की टूटी बोतल पकड़े अपने बड़े भाई के कमरे के बाहर गुस्से में तन कर खड़ा है. यह देख कर मिश्रा दंपती हैरत में पड़ गए. उन के बारबार आवाज लगाने पर बड़े बेटे प्रशांत ने दरवाजा खोला. पूछताछ करने पर पता चला कि उन की गैरमौजूदगी में दोनों भाइयों में घमासान हुआ था और निशांत मेज पर रखी सौस की बोतल तोड़ कर प्रशांत को मारने के लिए उस के पीछे दौड़ा था.

एक शाम जब अंकित के मातापिता किसी पार्टी में गए थे तो उस ने टेलीविजन पर एक ऐसे हत्यारे पर बना कार्यक्रम देखा जिस ने उस की उम्र के 9 बच्चों का अपहरण कर उन की हत्या कर दी थी. अंकित बुरी तरह डर गया. अब वह अकेले अपने कमरे में सोने के बजाय अपने मातापिता के साथ सोने की जिद करने लगा. उस ने हकलाना शुरू कर दिया और वह लगभग रोज ही बिस्तर गीला करने लगा.

आज निशांत, प्रशांत और अंकित जैसे न जाने कितने बच्चे हैं जो टेलीविजन पर दिखाई जा रही हिंसा, सेक्स और नशे के दृश्यों को देख कर उन से प्रभावित हो रहे हैं. इस प्रकार के कार्यक्रम बच्चों के संवेदनशील दिमाग पर क्या प्रभाव डालेंगे और आगे चल कर किन मानसिक रोगों का वे शिकार होंगे यह सोचना अब बहुत जरूरी हो गया है.

ज्यादातर मातापिता अपने बच्चों की टेलीविजन देखने की लत से परेशान हैं. आमतौर पर हर परिवार में टेलीविजन पर रोक लगाने के लिए जंग छिड़ती रहती है पर क्या हम सब ऐसा कर पाते हैं.

बच्चों को क्या दोष दें. हम खुद भी टीवी पर दिखाए जा रहे बेसिरपैर के धारावाहिकों को देखने के लिए बेचैन रहते हैं और बातें करते हैं सासबहू के उन पैतरों की जिन का कोई अंत ही नहीं है.

मेरी दिली तमन्ना है कि मैं अपने घर से टेलीविजन को हटा दूं या फिर कम से कम ‘केबल’ का तार तो नोच कर फेंक ही दूं. मेरे जैसे सोचने वाले कई समझदार परिवार और भी हैं, लेकिन हम ऐसा कर नहीं पाते हैं, क्योंकि घर में टेलीविजन का न होना हमारी सामाजिक मर्यादा के खिलाफ है. अगर घर में टीवी नहीं होगा तो बच्चे अपने साथियों के बीच बुद्धू नजर आएंगे क्योंकि वे कार्टून चैनल पर दी जा रही अतिउपयोगी जानकारी से वंचित रह जाएंगे.

यह सही है कि कभीकभार टेलीविजन पर दिखाए जा रहे कुछ कार्यक्रम काफी मनोरंजक और शिक्षाप्रद होते हैं लेकिन अधिकतर कार्यक्रम नका- रात्मक ही होते हैं. बच्चे उन्हें न ही देखें तो अच्छा है.

अधिक टेलीविजन देखने वाले बच्चे सृज- नात्मक क्षेत्रों में पिछड़ जाते हैं. उन में सहज स्वाभाविक ढंग से कुछ नए के बारे में जानने और कल्पना करने की शक्ति की कमी होती है तथा वे दिमागी कसरत कराने वाली समस्याओं को सुलझाने में आमतौर पर असमर्थ साबित होते हैं.

टेलीविजन खोलते ही दिमाग का दरवाजा बंद हो जाता है और आप दुनिया से बेखबर स्क्रीन पर आंखें गड़ाए घंटों एक से दूसरे चैनल पर भटकते रहते हैं. ज्यादा टीवी देखने वाले बच्चे, जवान व बूढ़े अपनेआप में सिमट जाते हैं.

पिछले कुछ सालों में बच्चों एवं युवाओं में कई मानसिक विकृतियां बढ़ी हैं. इन में से प्रमुख हैं एकाग्रता की कमी, उत्तेजना, नर्वसनेस, घबराहट और असामाजिक व्यवहार आदि. लगातार टीवी देखने से आंखों पर जोर पड़ता है जिस से सिरदर्द एवं माइग्रेन की शिकायत हो सकती है. नींद पूरी न होने से बच्चों में पढ़ाई के प्रति अरुचि बढ़ती है.

आजकल कई मातापिता यह शिकायत ले कर डाक्टरों के पास आते हैं कि उन के बच्चे ने 2 साल का हो जाने के बावजूद बोलना शुरू नहीं किया. चिकित्सकों का कहना है कि देर से बोलने का कारण मातापिता का उन से कम बोलना है. अगर मातापिता दोनों ही कामकाजी हैं और उन का शाम का सारा समय टीवी के सामने गुजरता है तो बच्चे में ‘स्पीच डिले’ होना कोई अचरज की बात नहीं है.

आप यह बात अच्छी तरह समझ लें कि छोटे बच्चे टेलीविजन देख कर भाषा नहीं सीख सकते. ‘स्पीच डिले’ वाले बच्चों के मातापिता को चाहिए कि वे अपने बच्चे से अधिकाधिक बोलें, उस से ‘बातचीत’ का कोई भी मौका हाथ से न जाने दें. रंगीन चित्रों वाली किताबों से उसे कहानियां सुनाएं, दुनिया के बारे में जानकारी दें.

बच्चों पर टेलीविजन के दुष्प्रभाव के बारे में अनेक शोध प्रकाशित हो चुके हैं. टेलीविजन पर दिखाए जा रहे हिंसात्मक कार्यक्रमों और नई पीढ़ी में बढ़ रही उद्दंडता व आक्रामक व्यवहार में सीधा रिश्ता है. टीवी कार्यक्रमों की नकल कर अपराध करने के कई मामले प्रकाश में आए हैं.

दूसरी तरफ कुछ बच्चों को टीवी पर दिखाए जा रहे ‘स्टंट्स’ के कारण अपनी जान गंवानी पड़ी. शक्तिमान की नकल हो या सुपरमैन की तरह उड़ने की चाह, अकारण कई मासूमों ने छतों से कूद कर मौत को गले लगा लिया.

टेलीविजन एक अति प्रभावशाली माध्यम है जोकि शिक्षित भी करता है और भ्रमित भी. इस के जरिए बच्चे उन बातों पर भी सहज भरोसा कर लेते हैं जिस पर भरोसा नहीं किया जा सकता. इसलिए टीवी जगत की जिम्मेदारी बनती है कि वह अनावश्यक, उत्तेजक, अतिहिंसक और बच्चों को बरगलाने वाले कार्यक्रमों पर रोक लगाए.

आज हकीकत यह है कि आप को टेलीविजन से समझौता करना ही पड़ेगा क्योंकि यह अब आप के घर से बाहर जाने वाला नहीं है. आप चाहें तो भी इसे अपनी जिंदगी से हटा नहीं सकते परंतु टेलीविजन हम सब की जिंदगी चलाए यह भी जरूरी नहीं.

गरीबी रेखा : रेखा हीरोइन ही नहीं, सरकारी कलाकारी भी है

उन का आना कभी नागवार नहीं गुजरा. चाहे घर में कोई मेहमान आया हो या मैं कोई जरूरी काम निबटा रहा होऊं. यहां तक कि हम पतिपत्नी के बीच किसी बात को ले कर हुए विवाद की वजह से घर का माहौल अगर तनावभरा हो गया हो, तो भी.

वे जब भी आते, गोया अपने साथ हर मर्ज की दवा ले कर आते. हालांकि उन के पास दवा की कोई पुडि़या नहीं होती, फिर भी, शायद यह उन के व्यक्तित्व का कमाल था कि उन के आते ही घर में शीतल वायु सी ठंडक घुल जाती. जरूरी काम को बाद के लिए टाल दिया जाता और मेहमान तो जैसे उन्हीं से मिलने आए होते हों. पलभर में वे उन से इतना खुल जाते जैसे वर्षों से उन्हें जानते हों.

लवी तो उन्हें देखते ही उन की गोद में बैठ जाता, उन की मोटीघनी मूंछों के साथ खेलने लगता. और बेगम बड़ी अदा से मुसकरा कर कहती, ‘‘चाचाजी, आज स्पैशल पकौड़े बनाने का मूड था, अच्छा हुआ आप आ गए.’’

‘‘तुम्हारे मूड को मैं जानता हूं बेटी, जो मुझे देख कर ही पकौड़े बनाने का बन जाता है. लेकिन सौरी,’’ वे हाथ उठा कर कहते, ‘‘आज पकौड़े खाने का मेरा कोई इरादा नहीं है.’’

लेकिन बेगम उन की एक नहीं सुनती और उन्हें पकौड़े खिला कर ही मानती.

वे आते, तो कभी इतनी धीरगंभीर चर्चा करते जैसे सारे जहां कि चिंताएं उन्हीं के हिस्से में आ गई हैं, तो कभी बच्चों की तरह कोई विषय ले कर बैठ जाते. आज आए तो कहने लगे, ‘‘बेटा, यह तो बताओ, यह गरीबीरेखा क्या होती है?’’

मुझे ताज्जुब नहीं हुआ कि वे मुझ से गरीबीरेखा के बारे में सवाल कर रहे हैं. मैं उन के स्वभाव से वाकिफ हूं. वे कब, क्या पूछ बैठेंगे, कुछ तय नहीं रहता. अकसर ऐसे सवाल कर बैठते, जिन से आमतौर पर आदमी का अकसर वास्ता पड़ता है, लेकिन आम आदमी का उस पर ध्यान नहीं जाता. और ऐसा भी नहीं कि जो सवाल वे कर रहे होते हैं, उस का जवाब वे न जानते हों. वे कोई सवाल उस का जवाब जानने के लिए नहीं, बल्कि उस की बखिया उधेड़ने के लिए करते हैं, यह मैं खूब जानता हूं.

मैं बोला, ‘‘गरीबीरेखा से आदमी के जीवनस्तर का पता चलता है.’’

‘‘मतलब, गरीबीरेखा से यह पता चलता है कि कौन गरीब है और कौन अमीर है.’’

मैं बोला, ‘‘हां, जो इस रेखा के इस पार है, वह अमीर है और जो उस पार है, वह गरीब है.’’

‘‘मतलब, गरीब को उस की गरीबी का और अमीर को उस की अमीरी का एहसास दिलाने वाली रेखा.’’

‘‘हां,’’ मैं थोड़ा हिचकिचा कर बोला, ‘‘आप इसे इस तरह भी समझ सकते हैं.’’

‘‘यानी, एक तरह से यह कहने वाली रेखा कि तू गरीब है. तू ये वाला चावल मत खा. ये वाले कपड़े मत पहन वगैरहवगैरह.’’

‘‘नहीं,’’ मैं बोला, ‘‘गरीबीरेखा का यह मतलब निकालना मेरे हिसाब से ठीक नहीं होगा.’’

‘‘गरीब को उस की गरीबी का एहसास दिलाने के पीछे कोई और भी मकसद हो सकता है भला,’’ उन्होंने व्यंग्यात्मक लहजे में पहलू बदल कर कहा, ‘‘खैर, यह बताओ, यह रेखा खींची किस ने है, सरकार ने?’’

‘‘हां, और क्या, सरकार ने ही खींची है. और कौन खींच सकता है.’’

‘‘लेकिन सरकार को यह रेखा खींचने की जरूरत क्यों पड़ी भला?’’

‘‘सरकार गरीबों की चिंता करती है इसलिए. सरकार चाहती है कि गरीब भी सम्मानपूर्वक जिंदगी गुजारें. उन की जरूरतें पूरी हों. वे भूखे न रहें. गरीबों का जीवनस्तर ऊपर उठाने के लिए सरकार ने कई कल्याणकारी योजनाएं बना रखी हैं.’’

‘‘तो ऊपर उठा उन का जीवनस्तर?’’

‘‘उठेगा,’’ मैं बोला, ‘‘उम्मीद पर तो दुनिया कायम है. लेकिन यह तय है कि इस से उन्हें उन की जरूरत की चीजें जरूर आसानी से मुहैया हो रही हैं.’’

‘‘गरीबों को उन की जरूरत की चीजें गरीबीरेखा खींचे बगैर भी तो मुहैया कराई जा सकती थीं?’’

उन के इस सवाल से मेरा दिमाग चकरा गया और मुझ से कोई जवाब देते नहीं बना. फिर भी मैं बोला, ‘‘आप ठीक कह रहे हैं. ऐसा हो तो सकता था. फिर पता नहीं क्यों, गरीबीरेखा खींचने की जरूरत पड़ गई.’’

‘‘ऐसा तो नहीं कि अमीर लोग गरीबों का हक मार रहे थे, इसलिए यह रेखा खींचने की जरूरत पड़ी?’’

तभी गरमागरम पकौड़े से भरी ट्रे ले कर बेगम वहां आ गई. आते ही बोली, ‘‘थोड़ी देर के लिए आप दोनों अपनी बहस को विराम दीजिए. पहले गरमागरमा पकौड़े खाइए, उस के बाद देशदुनिया की फिक्र करिए.’’

बेगम के वहां आ जाने से चाचा के मुंह से निकला अंतिम वाक्य आयागया हो गया. मैं और चाचाजी पकौड़े खाने में मसरूफ हो गए. पकौड़े गरम तो थे ही, स्वादिष्ठ भी थे.

4-6 पकौड़े खाने के बाद चाचाजी  ही बोले, गरीबीरेखा से अगर सचमुच अमीर लोगों को गरीबों का हक मारने का मौका नहीं मिल रहा है और गरीबों को उन की जरूरत की चीजें मुहैया हो रही हैं, तो क्यों ने ऐसी दोचार रेखाएं और खींच दी जाएं.’’

मैं ने एक पकौड़ा उठा कर मुंह में रखा और चाचाजी की तरफ देखने लगा. वे समझ गए कि मैं उन का आशय समझ नहीं पाया हूं. इसलिए उन्होंने खुद ही अपनी बात आगे बढ़ाई, बोले, ‘‘एक भ्रष्टाचारी रेखा हो. एक कमीनेपन की रेखा हो. एक चुनाव के दौरान झूठे वादे करने की रेखा हो…’’

उन्होंने एक और पकौड़ा उठाया और उसे मिर्र्च वाली चटनी में डुबोते हुए बोले, ‘‘भ्रष्टाचार, कमीनापन और चुनाव जीतने के लिए झूठे वादे करना मनुष्य के स्वभावगत गुण हैं. इन्हें पूरी तरह खत्म नहीं किया जा सकता. चुनावी सीजन में जो भ्रष्टाचार खत्म करने और ब्लैकमनी वापस लाने के दावे करते थे, चुनाव जीतने के बाद वे खुद उस में रम जाते हैं. यहां तक कि अपने मूल काम को भी त्याग देते हैं, जिस का नुकसान सीधे गरीबों को होता है. इसलिए गरीबीरेखा की तरह कुछ और रेखाएं भी खींची जानी चाहिए.

‘‘भ्रष्टाचारी रेखा, भ्रष्टाचार करने वालों की लिमिट तय करेगी. तुम ने सुना होगा, यातायात विभाग के एक हैड कौंस्टेबल के पास से करोड़ों रुपए बरामद हुए थे. भ्रष्टाचारी रेखा खींच दी जाए तो भ्रष्टाचारी एक हद तक ही भ्रष्टाचार करेगा.

‘‘भ्रष्टाचार जब लाइन औफ कंट्रोल तक पहुंचेगा तो वह खुद ही हाथ जोड़ कर रकम लेने से मना कर देगा, कहेगा, ‘इस साल का मेरा भ्रष्टाचार का कोटा पूरा हो गया है, इसलिए अब नहीं. कम से कम इस साल तो नहीं. अगले साल देखेंगे.’

‘‘इसी तरह चुनावीरेखा चुनाव के दौरान झूठे वादों की लिमिट तय करेगी. चुनाव के दौरान उम्मीदवार यह देखेगा कि उस की पार्टी के नेता ने पिछली बार कौनकौन से वादे किए थे और उन में से कौनकौन से वादे पूरे नहीं हुए हैं. उस हिसाब से उम्मीदवार वादे करेगा, कहेगा, ‘पिछले चुनाव में मेरी पार्टी के नेता ने फलांफलां वादे किए थे जो पूरे नहीं हो पाए, इसलिए इस चुनाव में मैं कोई नया वादा नहीं करूंगा बल्कि पिछली बार किए गए वादों को पूरा करूंगा.’ इसी तरह कमीनीरेखा लोगों के कमीनेपन की लिमिट तय करेगी.’’

उन की इस राय के बाद मेरे पास बोलने को जैसे कुछ रह ही नहीं गया था. वे भी एकदम से खामोश हो गए थे. जैसे बोलने की उन की लिमिट पूरी हो गई हो. उसी समय बेगम भी वहां चाय ले कर पहुंच गई थी. तब तक लवी उन की गोद में ही सो गया था.

बेगम ने लवी को उन की गोद से उठाया और उसे ले कर दूसरे कमरे में चली गई. हम दोनों चुपचाप चाय सुड़कने लगे थे. चाय का घूंट भरते हुए बीचबीच में मैं उन की ओर कनखियों से देख लिया करता था, लेकिन वे निर्विकार भाव से चुप बैठे चाय सुड़क रहे थे.

उन के दिमाग की थाह पाना मुश्किल है. समझ में नहीं आता कि उन के दिमाग में क्या चल रहा होता है. एक दिन पूछ बैठे, ‘‘मुझे देख कर तुम्हारे मन में कभी यह खयाल नहीं आता कि जब दंगा होता है तो मेरी कौम के लोग तुम्हारी कौम के लोगों का गला काटते हैं, उन के घर जलाते हैं, उन की संपत्ति लूटते हैं.’’

उन के इस अप्रत्याशित सवाल से मैं बौखला गया था, बोला, ‘‘यह कैसा सवाल है चाचाजी.’’

‘‘सवाल तो सवाल है बेटा. सवाल में कैसे और वैसे का सवाल क्यों?’’

‘‘तो एक सवाल मेरा भी है चाचाजी,’’ मैं बोला, ‘‘क्या आप के मन में कभी यह खयाल आया कि आप मुसलमान हैं और मैं हिंदू हूं. जब दंगा होता है तो मेरी कौम के लोग भी आप की कौम के लोगों के साथ वही सब करते हैं जो आप की कौम के लोग हमारी कौम के साथ करते हैं. आप मांसभक्षी हैं और मैं शुद्ध शाकाहारी.’’

‘‘जवाब यह है बेटे कि यह खयाल हम दोनों के मन में नहीं आता, न आएगा.’’

‘‘फिर आप ने यह सवाल पूछा ही क्यों चाचाजी?’’

वे अपेक्षाकृत गंभीर लहजे में बोले, ‘‘दरअसल, हम यह समझने की कोशिश कर रहे थे बेटा कि जब एक आम हिंदू और एक आम मुसलमान के मन में कभी यह खयाल नहीं आता कि मैं हिंदू, तू मुसलमान या मैं मुसलमान तू हिंदू, जब आम दिनों में दोनों संगसंग व्यापार करते हैं, उठतेबैठते हैं, एकदूसरे के रस्मोरिवाज का हिस्सा बनते हैं तो आखिर दंगा होता ही क्यों है. और जब दंगा होता भी है तो इतना जंगलीपन कहां से पैदा हो जाता है कि दोनों एकदूसरे के खून के प्यासे हो जाते हैं. कहीं…’’ वे एक पल के लिए रुके, फिर बोले, ‘‘कहीं ऐसा तो नहीं कि हमारे बीच भी कोई रेखा खींच दी जाती हो, हिंदूरेखा या मुसलमानरेखा…’’

राशनकार्ड की महिमा : राजगोपालजी ने क्या बनाया जीने का मकसद

‘‘साहब, सिलेंडर खाली हो गया है,’’ रसोईघर से रामकिशन के शब्द किसी फोन की घंटी की तरह मुझे चौंका गए.

हम ने एजेंसी को फोन खड़खड़ाया, ‘‘गैस सिलेंडर बुक करवाना है.’’

‘‘नंबर?’’ किसी मैडम की आवाज थी.

‘‘9242,’’ मैं ने भी ऐसे बोला जैसे फोन में नंबर पहले से ही फीड हो.

‘‘राजगोपालजी?’’

‘‘जी हां, देवीजी.’’

‘‘आप को अपना राशनकार्ड दिखाना होगा,’’ मधुर आवाज में मैडम बोलीं.

‘‘क…क्या?’’ हम हकलाए, ‘‘राशनकार्ड?’’

‘‘जी हां.’’

‘‘किस खुशी में?’’

‘‘बस, हमारी खुशी है. इसी खुशी में.’’

हम घबरा गए. यह तो नहले पे दहला मार रही है, ‘‘लेकिन वह तो मैं ने कभी बनवाया ही नहीं?’’

अब की बारी उन की थी, ‘‘क्या कहा?’’

‘‘हां. कभी बनवाया ही नहीं तो लाने का सवाल ही नहीं उठता.’’

‘‘कमाल है,’’ मैडमजी बोलीं, ‘‘अच्छा, ऐसा कीजिए, अपनी सिलेंडर बुक ले कर हमारी एजेंसी के दफ्तर में आ जाइए. पता जानते हैं न कि एजेंसी कहां है? बहुचरजी के पास.’’

‘‘जी हां, उस जगह को आबाद कर चुका हूं.’’

हम जब सिलेंडर बुक ले कर वहां पहुंचे तो मैडमजी ने हमेें घूरा और बोलीं, ‘‘आप ही राजगोपालजी हैं.’’

हम ने हां में गरदन हिलाई तो एक मोटा रजिस्टर हमारे सामने कर दिया गया.

‘‘इस में आप अपनी सिलेंडर बुक का नंबर लिखिए फिर यह भी लिखिए कि अगली बार राशनकार्ड दिखाऊंगा और यहां हस्ताक्षर कर दीजिए. इस बार हम आप का सिलेंडर बुक कर देते हैं लेकिन अगली बार राशनकार्ड दिखाना पड़ेगा.’’

‘‘लेकिन क्यों? यह सिलेंडर बुक देखिए. 1988 से मैं आप से सिलेंडर लेता आ रहा हूं तो अब की यह राशनकार्ड की आफत कैसे आ गई?’’

‘‘सर, ऊपर से आदेश आया है कि बिना राशनकार्ड देखे किसी को सिलेंडर न दिया जाए.’’

‘‘लेकिन मेरी समझ से तो राशन- कार्ड केवल गरीबों की मदद के लिए होता है ताकि उन्हें सरकारी रियायत से सस्ते खाद्य पदार्थ जैसे चावल, गेहूं, तेल, चीनी आदि मिल जाएं. मैं इस श्रेणी में नहीं आता. यहां बड़ौदा में कभी राशनकार्ड का उल्लेख नहीं हुआ. पासपोर्ट है, बिजली, टेलीफोन, हाउस टैक्स के बिल हैं, पैनकार्ड व ड्राइविंग लाइसेंस हैं. इन सब से ही हमारा काम चल जाता है.’’

‘‘अरे साहब, कई लोगों ने कईकई जाली कनेक्शन ले रखे हैं इसलिए सरकार को यह कदम उठाना पड़ा. कोई गैरकानूनी ढंग से तिपहिए में गैस लगा रहा है तो कोई मोटर में. कोई कईकई सिलेंडरों की ब्लैक कर रहा है.’’

‘‘अच्छा? तो हम बेचारे सीधेसादे पुरुष लोग पकड़ गए? कमाल है.’’

वे हंस पड़ीं.

‘‘यह तो बताइए कि यह कम्बख्त कार्ड बनता कहां है?’’

‘‘कुबेर भवन में.’’

‘‘ठीक,’’ कह कर हम ने स्कूटर दौड़ाया. बहू कुबेर भवन में ही 8वीं मंजिल पर काम करती है, यह सोच कर मन में तसल्ली मिली.

वैसे हमें अजनबियों से पूछताछ करने में कोई झिझक नहीं होती. अधिक से अधिक ‘न’ या ‘नहीं मालूम’ यही तो कोई कहेगा. झांपड़ तो नहीं मारेगा. और इसी बहाने कई बार नए मित्र भी बन जाते हैं.

जानकारी के बाद हम राशन कार्ड आफिस पहुंच गए. क्लर्क से आवेदनपत्र (फार्म) मांगा, मिल गया. फिर पूछा, ‘‘भैया, क्याक्या भरना है और क्याक्या प्रमाणपत्र इस के साथ देने हैं?’’

‘‘बिजली का बिल, पुराना राशन- कार्ड और उस में क्याक्या बदलना है, पता या प्राणियों की संख्या,’’ भैया एक सांस में बोल गया.

हम घबरा गए, ‘‘लेकिन मैं ने तो कभी राशनकार्ड बनवाया ही नहीं.’’

‘‘क्यों, कहां से आए हो?’’

‘‘बरेली, यू.पी. से.’’

‘‘तो वहां का राशनकार्ड लाओ,’’ भैया ने फरमाया.

‘‘अरे, वहां भी कभी बनवाया नहीं और वह तो बहुत पुरानी बात हो गई. बड़ौदा में 22 साल से रह रहा हूं. तो अब मैं बड़ौदा का ही रहने वाला हो गया.’’

उस ने हमें ऐसे घूरा जैसे हम कोई अजायबघर के जीव हों. फिर बोला, ‘‘तो फिर साहब से मिलो,’’ और दाईं तरफ इशारा किया.

हमारी भृकुटि तन गईं, ‘‘वहां तो कोई है ही नहीं?’’

‘‘साहब हर सोमवार को आते हैं और 11 से 2 बजे तक, तभी मिलो. आज गुरुवार है,’’ और हमें दरवाजा नापने का इशारा किया.

सोमवार को सवा 11 बजे पहुंचे तो देखा छोटे से दरवाजे के सामने करीब 60 लोग लाइन लगाए खड़े हैं. हम भी उन के पीछे खड़े हो गए. कुछ देर गिनती करते रहे और पाया कि एक प्राणी हर 4 मिनट में अंदर जाता है यानी हमारा नंबर 4 घंटे बाद आएगा. दिल टूट गया, कुछ तिकड़म लगाना पड़ेगा.

वहां से बाहर आए और मित्र सागरभाई को अपनी दुखभरी कहानी सुनाई. वे फोन पर बोले, ‘‘काटजू साहब, चिंता की कोई बात नहीं, सब पैसे बनाने के धंधे हैं. आप अपने कागज मुझे दे दीजिए. मैं अपने एक एजेंट मित्र से काम करवा दूंगा. 3 साल पहले मैं ने अपना भी राशनकार्ड ऐसे ही बनवाया था.’’

हम बड़े खुश हुए कि चलो, बला टली. मन ही मन कहा कि सागरभाई, दोस्त हो तो आप जैसा. जा कर उन्हें सब कागजों की एकएक प्रतिलिपि दे दी.

एक बात और, ‘एक हथियार काम न करे तो दूसरा तो काम करे,’ यह सोच कर अपने एक और मित्र गोबिंदभाई से भी संपर्क किया. उन्होंने तो अपने एक पुराने मामलतदार मित्र से मुलाकात भी करवा दी.

पटेल साहब बोले, ‘‘आप को कब तक राशनकार्र्ड चाहिए?’’

‘‘यही 8-10 दिन में.’’

वे बेफिक्री से बोले, ‘‘ठीक है, अपने सब कागजात दे दीजिएगा.’’

वापस लौटते समय गोबिंदभाई ने समझाया कि पटेल साहब को कुछ दक्षिणा भी देनी पड़ेगी और दक्षिणा समय पर निर्भर रहेगी, कम समय माने अधिक दक्षिणा. हम समझ गए, सिर हिला दिया.

2 दिन बाद हम ने फोन किया, ‘‘सागरभाई, मामला तय हो गया?’’

फोन पर रोनी आवाज सुनाई दी, ‘‘नहीं साहब, उस ने कहा है कि अब यह काम बहुत मुश्किल हो गया है. वह नहीं बनवा सकता. राशन विभाग के भाईलोग बहुत सख्त हो गए हैं, उस को घास भी नहीं डालते.’’

मन ही मन हम ने सागरभाई और उन के एजेंट को गाली देते हुए फोन रख दिया. यह दांव तो खाली गया.

अब हम पहुंचे पटेल साहब के यहां. उन की बहू घंटी सुनने पर बाहर निकली.

‘‘साहब हैं?’’ हम ने पूछा.

‘‘नहीं.’’

‘‘अरे, कहां गए?’’

‘‘भारगाम.’’

‘‘कब आएंगे?’’

‘‘5 दिन बाद.’’

हम ने फिर माथा पकड़ लिया. लगता है यह सोमवार भी गया. दर्देदिल लिए हुए गोबिंदभाई को मामला-ए-राशन कार्ड की रिपोर्ट दी. उन्होंने दिलासा दिया, ‘‘कोई बात नहीं काटजू साहब, 5 दिन बाद पटेल साहब आप का काम जरूर करवा देंगे.’’ हम ने घर की राह ली.

मंगलवार को फिर पटेल साहब के दर्शन हेतु निकल पड़े. अब की किस्मत से साहब घर पर ही थे.

‘‘साहब, मेरे राशनकार्ड का काम?’’

पटेल साहब ने दुखभरी मुद्रा बनाई, ‘‘काटजू साहब, 2-3 महीने लग जाएंगे. डिपार्टमेंट में कुछ अंदरूनी जांच चल रही है. मेरी समझ से आप खुद ही कार्ड के लिए जाएं तो ठीक होगा.’’

हम ने मन ही मन अपनेआप को कोसा और पटेल साहब को भी. बड़ा तीसमार खां बना फिरता था. कहता था, ‘कितने दिनों में कार्ड चाहिए?’ मेरे 2 सोमवारों का खून कर दिया. सोचा भीम और अर्जुन तो फेल हो गए, अब शेर की मांद में खुद ही जाना पड़ेगा और कोई चारा बचा ही नहीं था. चलो, इस को भी आजमा लिया जाए.

खैर, सोमवार को पौने 11 बजे राशनकार्ड के दफ्तर पहुंचे तो देखा लंबी लाइन लगी हुई है, जबकि दरवाजा बंद है, हम भी लाइन में लग गए. बुढ़ापे में समय की कोई तकलीफ नहीं और करना भी क्या है? हां, स्टैमिना अवश्य चाहिए, कहीं खड़ेखड़े दिल धड़कना न बंद कर दे.

गिनती की तो सामने 55 जवान व बूढ़े खड़े थे. अगर हरेक पर 3-3 मिनट लगता है तो ढाई या 3 घंटे लगेंगे. खैर, देखते हैं क्या होता है?

झोले से यह सोच कर किताब निकाली कि चलो, 2-3 अध्याय ही पढ़ लिए जाएं. वैसे भी हमारी आदत है कि जहां किसी काम के लिए बैठना या खड़े रहना पड़ेगा वहां हम कोई किताब जरूर ले जाते हैं, टाइम पास के लिए. अभी 3 पन्ने पढ़े ही थे कि दफ्तर खुला. आधे घंटे में 5 प्राणी अंदर घुसे. हम गम में डूब गए, अब क्या होगा? सामने वाले पुरुष ज्ञानी व दयालु निकले. पूछा तो उन्होंने सवाल किया, ‘‘आप को क्या करवाना है?’’

‘‘नया राशनकार्ड बनवाना है.’’

‘‘सौगंधपत्र बनवा लिया है?’’

‘‘यह क्या बला है.’’

वे हंसे (हमारे दुख पर), ‘‘अरे, ऐफिडेविट. इस के बिना कुछ नहीं होगा. आप इसे बनवा लीजिए.’’

‘‘बगल वाली इमारत में इस का दफ्तर है. वहां आवेदनपत्र भी मिल जाएगा और स्टैंपपेपर भी.’’

हम उस ओर भागे. रास्ते में एक और सज्जन से पूछा, ‘‘सौगंधपत्र यहां कहां पर बनता है?’’

वे भी ज्ञानी व मार्गदर्शक निकले. बोले, ‘‘यहीं बनता था, किंतु गांधी- जयंती के बाद से अब नर्मदा भवन में बनता है.’’

वडोदरा शहर की खासीयत है कि सभी सरकारी आफिस, दोचार किलोमीटर के भीतर ही मिल जाते हैं. उन्हें धन्यवाद दे कर हम नर्मदा भवन भागे.

नर्मदा भवन में 3 देवियों ने हमारी बहुत सहायता की. एक सज्जन ने फार्म तो दे दिया किंतु कुबेर भवन जाने की सलाह दी. हम अब तक काफी अनुभव प्राप्त कर चुके थे. कुछ शंका हुई और पास खड़े चौकीदार की तरफ देखा. वह भी अनुभवप्राप्त प्राणी था उस ने अपने पास बुलाया फिर अंदर इशारा किया, ‘‘उस महिला से मिलो.’’

उस युवती ने फार्म भरवाया फिर बिजली बिल, पासपोर्ट की कापी इत्यादि नत्थी की और अंदर दाईं तरफ की मेज पर जाने को कहा.

वहां एक मुहर लगाई गई, रजिस्टर में कुछ लिखा गया और 11 नंबर का सिक्का दिया और कहा, ‘‘उस 11 नंबर के काउंटर पर जाइए, वहां आप का सब काम हो जाएगा.’’

11 नंबर काउंटर की कुमारी मुसकराई तो बड़ी भोली लगी. वह थी तो दुबलीपतली पर बहुत खूबसूरत थी. बोली, ‘‘कहिए?’’

‘‘पहले अपना नाम बताइए.’’

वह खिले चेहरे से बोली, ‘‘निकी.’’

‘‘आगे?’’

‘‘पाटिल.’’

‘‘कुछ खातीपीती नहीं हो क्या? देखो, हाथ की हड्डी भी उभरी हुई दिख रही है और उम्र तो 17 की होगी.’’

मुसकरा कर बोली, ‘‘अंकल, खाती बहुत हूं किंतु वजन नहीं बढ़ता, और 22 वर्ष की हूं.’’

‘‘पढ़ाई कितनी की, बी.कौम या 12वीं?’’

‘‘नहीं, कंप्यूटर साइंस में डिप्लोमा किया है.’’

‘‘और शादी?’’

उस ने सिर हिला दिया.

हम ने सोचा कि इसे अपने बेटे के लिए गांठ लें तो बहुत भाग्यवान समझेंगे.

अपने काम के बीच में बोल पड़ी, ‘‘क्या सोच रहे हैं, अंकल?’’

लगता है, हमारे मन के विचारों को उस ने पढ़ लिया था. सो बोला, ‘‘सोच रहा था कि तुम्हारी व मेरे बेटे की जोड़ी कैसी रहेगी? वह भी अविवाहित है. वैसे तुम मेरा काम पूरा करो नहीं तो बातों ही बातों में पूरा दिन बीत जाएगा.’’

उस ने कनखियों से हमें घूरा, आंखों से आश्चर्य जाहिर किया. सोचा होगा कि कैसे अंकल से पाला पड़ा है, काम के साथ रिश्ता भी ले आए. फिर कहा, ‘‘20 रुपए दीजिए, अंकल. यहां हस्ताक्षर कीजिए और सीधे खड़े रहिए. मुझे आप की फोटो खींचनी है, सौगंधपत्र पर जाएगी.’’

फोटो खींचने के बाद निकी ने भरा फार्म हमें थमाते हुए उप मामलतदार की तख्ती की तरफ इशारा किया कि वहां यह दे दीजिए. वे रजिस्टर में इसे दर्ज व हस्ताक्षर कर आप को दे देंगी.

उस को धन्यवाद दे हम आगे बढ़े.

कुछ ही देर में नर्मदा भवन का सारा काम समाप्त हुआ. सौगंधपत्र हमारे हाथ में था.

घड़ी में देखा तो साढ़े 12 बज चुके थे. सोचा, शायद आज ही काम बन जाए और हम कुबेर भवन जा पहुंचे.

देखा, भीड़ तो कम थी. करीब 20 प्राणी. हम भी उन्हीं में लग गए, 21वें. सामने एक जवान था. परिचय किया, ‘‘आप का नाम?’’

‘‘हितेनभाई.’’

हम ने कहा, ‘‘यार, जरा आगे जा कर पता लगा लो कि भीड़ कितनी रफ्तार से चल रही है और नए राशनकार्ड के लिए कुछ और झमेला यानी कुछ और कागजात तो नहीं चाहिए. मैं कतार में तुम्हारी जगह सुरक्षित रखता हूं.’’

हितेन मान गया और आगे दरियाफ्त कर के बदहवास हालत में वापस लौटा. बोला, ‘‘नया राशनकार्ड यहां नहीं भुतड़ी कचहरी में बनता है. यहां केवल पुराने कार्डों के नाम या बदले पते ठीक किए जाते हैं.’’

‘‘अच्छा, यह भूत की कचहरी है कहां?’’

‘‘मुझे नहीं मालूम.’’

हमारा यह वार्त्तालाप एक और सज्जन सुन रहे थे. बीच में आ गए, ‘‘मैं जानता हूं और मुझे भी वहीं जाना है. जुबली बाग यहां से करीब डेढ़ किलोमीटर दूर है.’’

हितेनभाई के पास मोटरसाइकिल थी, हमारे पास स्कूटर तो हम ने उस सज्जन से कहा, ‘‘चलिए, आप को ले चलते हैं. रास्ता बता दीजिएगा.’’

भुतड़ी कचहरी में केवल 4 लोग कतार में थे. हमारा नंबर आने पर अधिकारी बदतमीजी से बोला, ‘‘यह क्या है? आवेदनपत्र कहां है, ऐफिडेविट व मतदाता पहचानपत्र कहां है?’’

‘‘यह रहा आवेदनपत्र और यह ऐफिडेविट है. मतदाता पहचानपत्र खो गया.’’

‘‘उस के बिना कुछ नहीं होगा. वह लाओ. कहां से आए हो?’’

‘‘वैसे तो बरेली, यू.पी. का रहने वाला हूं लेकिन वडोदरा में 22 साल से रह रहा हूं. अभी तक राशनकार्ड की कभी कोई जरूरत नहीं पड़ी. इसलिए बनवाया नहीं था.’’

‘‘तो अब कौन सी जरूरत आन पड़ी है?’’

‘‘गैस सिलेंडर वाला राशनकार्ड दिखाने को कह रहा है.’’

उस ने हमारे सारे कागज वापस करते हुए कहा, ‘‘जाओ, मेरा समय बरबाद न करो. बाहर दाईं तरफ दरवाजे पर एक आदमी बैठा है. वह आप को सब समझा देगा कि क्याक्या लाना है.’’

हम निराश हो बाहर निकले. देखा हितेन भी मुंह लटकाए खड़ा था. उस को भी अधिकारी ने झिड़क दिया था. बाहर के आदमी से पूछा तो वह ज्ञानी निकला. हमारे कागजात देखे और सुझाव दिया.

‘‘यहां कुछ नहीं होगा. आप कुबेर भवन के नीचे कमरा नं. 23 में जाइए. वहीं सब काम होगा.’’

‘‘लेकिन वहां से तो हम आए हैं. और यहां उस अंदर के बाबू ने यह सब और मांग लिया. कहां से लाएंगे?’’

‘‘आप उन की परवा न कीजिए. जैसा मैं कहता हूं वैसा कीजिए.’’

वहां से हट कर हम उबल पड़े. ‘‘सच, हम भारतवासियों को एकदूसरे को तड़पाने व तड़पते देख खूब आनंद आता है. कभी कहते हैं यह लाओ, कभी कहते हैं वह लाओ.’’

हमारे समाज में पुरुषों को रोना वर्जित है, स्त्री होते तो दहाड़ मारमार कर रो लेते. गम में डूबे हुए जब कुबेर भवन पहुंचे तो देखा कमरा नंबर 23 बंद हो चुका था.

8वीं मंजिल पर बहू से जा कर मिले तो उस ने कहा, ‘‘पापा, अपने कागज मुझे दीजिए. मैं अपनी एक मित्र से पूछताछ करवाऊंगी. वह नीचे की पहली मंजिल पर काम करती है और ऐसे मामलों को निबटाती भी है.’’

हम बोले, ‘‘ठीक है, बेटी. कोशिश करो. 400-500 तक खर्च करने को मैं तैयार हूं.’’

2 दिन बाद बहू का फोन आया, ‘‘मैं अपनी दोस्त के साथ राशन अधिकारी से मिली थी. बड़ा बदतमीज आदमी है. पहले तो एकदम मना कर दिया. फिर जब मैं ने कहा कि मैं भी राज्य सरकार में काम करती हूं तब माना. उस का रेट 500 रुपए है. आप अगले सोमवार को आइएगा.’’

हम ने बहू को धन्यवाद दिया. विक्रम और बेताल की कहानी में विक्रम की तरह सोमवार को हम फिर दफ्तर पहुंचे. बहू को फोन मिलाया तो वह नीचे उतर कर आई और लाइन में हमें खड़े देख संतुष्ट हुई. बोली, ‘‘मेरी दोस्त की किसी करीबी रिश्तेदार की 2 दिन पहले मौत हो गई है. वह कई दिन नहीं आ पाएगी. अच्छा किया आप लाइन में लग गए.’’

कतार में करीब 25 लोग लगे थे. 40 मिनट में अपना नंबर आ गया. साहब के पास कागज का पुलिंदा रख चुपचाप खड़े हो गए. सब पन्नों पर उन्होंने एक निगाह डाली फिर कुछ कहे बिना हस्ताक्षर कर हमें बाहर की तरफ इशारा कर दिया.

बाहर गए. पावती पाने वालों की कतार लगी थी, यानी कागज व रुपए जमा कर रसीद लेना. इस कतार मेें हम घंटे भर तक धीरेधीरे सरकते रहे फिर आफिस के अंदर दाखिल हुए. 20 रुपए दिए, रसीद मिली और आदेश मिला कि 5 नवंबर को शाम 4 से 6 बजे के बीच कार्ड लेने आ जाना.

रसीद को पर्स में संभाल कर रखा (खरा सोना जो हो गया था) ऊपर भागे बहू को धन्यवाद देने. देखें, अब 5 नवंबर को क्याक्या गुल खिलते हैं.

5 नवंबर को राशनकार्ड मिल गया, आप को आश्चर्य हुआ न? हमें भी हो रहा है, आज तक.

भभूत वाले बाबा : संतान की चाह में दामादजी

जैसे तितली का फूल से, सावन का पानी से, नेता का वोट से, पुजारी का मंदिर से रिश्ता होता है उसी तरह मेरी सास का रिश्ता उन की इकलौती बेटी से है. मेरी शादी के साथ वे भी अपनी बेटी के साथ हमारे पास आ गईं. हम ने भी दिल पर पत्थर रख कर उन को इसलिए स्वीकार कर लिया कि पीला पत्ता आज नहीं तो कल तो पेड़ से टूटेगा ही.

लेकिन पेड़ ही (यानी हम) पीले पड़ गए मगर पत्ता नहीं टूटा. मरता क्या न करता. उन्हें हम ने स्वीकार कर लिया वरना कौन बीवी की नाराजगी झेलता. पिछले 7-8 महीने से देख रहा था कि अपनी पत्नी को हम जो रुपए खर्च के लिए देते थे वे बचते नहीं थे. हम ने कारण जा?नने के लिए डरतेडरते पत्नी से पूछा तो उस ने बताया, ‘‘आजकल मम्मी की तबीयत खराब चल रही है, इसी कारण डाक्टर को हर माह रुपया देना पड़ रहा है.’’

हम चुप हो गए. कुछ कह कर मरना थोड़े ही था लेकिन आखिर कब तक हम ओवरबजट होते?

एक रविवार हम घर पर बैठ कर टेलीविजन देख रहे थे कि विज्ञापन बे्रक आते ही हमारी पत्नी ने टेलीविजन बंद कर के हमारे सामने अखबार का विज्ञापन खोल कर रख दिया.

‘‘क्या है?’’ हम ने प्रश्न किया.

‘‘पढ़ो तो.’’

हम ने पढ़ना प्रारंभ किया. लिखा था, ‘शहर में कोई भभूत वाले बाबा आए हुए हैं जो भभूत दे कर पुराने रोगों को ठीक कर देते हैं.’ हम ने पढ़ कर अखबार एक ओर रख दिया और आशा भरी नजरों से देखती पत्नी से कहा, ‘‘यह विज्ञापन हमारे किस काम का है?’’

‘‘कैसी बात करते हो? मैं यह विज्ञापन आप को थोड़े ही जाने के लिए पढ़वा रही थी?’’

‘‘फिर?’’ हम ने कुत्ते की तरह सतर्क होते हुए सवाल किया.

‘‘मेरी मम्मी के लिए,’’ हिनहिनाती पत्नी ने जवाब दिया.

‘‘ओह, क्यों नहीं.’’

‘‘लेकिन एक बात है…’’

‘‘क्या बात है?’’ बीच में बात को रोकते हुए कहा.

‘‘कालोनी की एकदो महिलाएं इलाज के लिए गई थीं तो बाबा एवं बाबी ने उन्हें…’’

‘‘बाबा… बाबी…यानी, मैं कुछ समझा नहीं?’’ हम ने घनचक्कर की तरह प्रश्न किया.

‘‘अजी, मास्टर की घरवाली मास्टरनी, डाक्टर की बीवी डाक्टरनी तो बाबा की बीवी बाबी…’’ पत्नी ने अपने सामान्य ज्ञान को हमारे दिमाग में डालते हुए कहा.

हो…हो…कर के हम हंस दिए, फिर हम ने प्रश्न किया, ‘‘तो क्या बाबा व बाबी मिल कर इलाज करते हैं?’’

‘‘जी हां, कालोनी की कुछ महिलाएं उन के पास गई थीं. लौट कर उन्होंने बताया कि बाबा का बड़ा आधुनिक इलाज है.’’

‘‘यानी?’’

‘‘किसी को भभूत देने के पहले वे उस की ब्लड रिपोर्ट, ब्लडप्रेशर, पेशाब की जांच देख लेते हैं फिर भभूत देते हैं,’’ पत्नी ने हमें बताया तो विश्वास हो गया कि ये निश्चित रूप से वैज्ञानिक आधार वाले बाबाबाबी हैं.

‘‘तो हमें क्या करना होगा?’’

‘‘जी, करना क्या है, मम्मीजी के सारे टेस्ट करवा कर ही हम भभूत लेने चलते हैं,’’ पत्नीजी ने सलाह देते हुए कहा.

‘‘ठीक है जैसी तुम्हारी इच्छा,’’ हम ने कहा और टेलीविजन चालू कर के धारावाहिक देखने लगे.

अगले दिन पत्नी हम से 1 हजार रुपए ले कर अपनी मम्मी के पूरे टेस्ट करवा कर शाम को लौटी. हम से शाम को कहा गया कि अगले दिन की छुट्टी ले लूं ताकि मम्मीजी को भभूत वाले बाबाजी के पास ले जाया जा सके. मन मार कर हम ने कार्यालय से छुट्टी ली और किराए की कार ले कर पूरे खानदान के साथ भभूत वाले बाबा के पास जा पहुंचे. वहां काफी भीड़ लगी थी.

हम ने दान की रसीद कटवाई, जो 501 रुपए की काटी गई थी. हम तीनों प्राणियों का नंबर दोपहर तक आया. अंदर गए तो चेंबर में नीला प्रकाश फैला था. विशेष कुरसी पर बाबाजी बैठे थे. उन के दाईं ओर कुरसी पर मैडम बाबी बैठी थीं. हमारी सास ने औंधे लेट कर उन के चरण स्पर्श किए. बाबाजी के सामने एक भट्ठी जल रही थी. उस ने हमारी सास से आगे बढ़ने को कहा और बोला, ‘‘यूरिन, ब्लड टेस्ट होगा.’’

पत्नीजी मेंढकी की तरह उचक गईं और कहने लगीं, ‘‘हम करवा कर लाए हैं.’’

‘‘उधर दे दो,’’ नाराजगी से बाबा ने देखते हुए कहा.

ब्लड, यूरिन रिपोर्ट मैडम बाबी को दी तो उन्होंने रिपोर्ट देखी, गोलगोल घुमाई और मेरी सास के हाथों में दे दी. बारबार मुझे न जाने क्यों ऐसा लग रहा था कि बाबा को कहीं देखा है लेकिन वह शायद मेरा भ्रम ही था.

बाबाजी ने सासूजी को पास बुलाया. जाने कितने राख के छोटेछोटे ढेर उन के पास लगे थे. 1 मिनट के लिए प्रकाश बंद हुआ और संगीत गूंज उठा. मेरा दिल धकधक करने लगा था. मैं ने पत्नी का हाथ पकड़ लिया. 1 मिनट बाद रोशनी हुई तो बाबा ने राख में से एक मुट्ठी राख उठा कर कहा, ‘‘इस भभूत से 50 पुडि़या बना लेना और सुबह, दोपहर, शाम श्रद्धा के साथ बाबा कंकड़ेश्वर महाराज की जय बोल कर खा लेना और 10 दिन बाद फिर ब्लडशुगर, यूरिन की जांच यहां से करवा कर लाना.’’

इतना कह कर बाबा ने एक लैबोरेटरी का कार्ड थमा दिया. हम बाहर आए. सुबह ही हमारी सास ने श्रद्धा के साथ कंकड़ेश्वर महाराज की जय कह कर भभूत को फांक लिया. दोपहर में दूसरी बार, जब शाम को हम कार्यालय से लौटे तो हमारी पत्नीजी हम से आ कर लिपट गईं और बोलीं, ‘‘मम्मीजी को बहुत फायदा हुआ है.’’

‘‘सच?’’

‘‘वे अब अच्छे से चलनेफिरने लगी हैं, जय हो बाबा कंकडे़श्वर की,’’ पत्नी ने श्रद्धा के साथ कहा.

हमें भी बड़ा आश्चर्य हुआ. होता होगा चमत्कार. हम ने भी मन ही मन श्रद्धा के साथ विचार किया. पत्नी ने सिक्सर मारते हुए हमारे कानों में धीरे से कहा, ‘‘सुनो, नाराज न हो तो एक बात कहूं?’’

‘‘कहो.’’

‘‘हमारी शादी के 2 साल हो गए हैं. एक पुत्र के लिए हम भी भभूत मांग लें,’’ पत्नी ने शरमातेबलखाते हुए कहा.

‘‘क्या भभूत खाने से बच्चा पैदा हो सकता है?’’ मैं ने प्रश्न किया.

‘‘शायद कोई चमत्कार हो जाए,’’ पत्नी ने पूरी श्रद्धा के साथ कहा. मैं बिना कुछ कहे घर के अंदर चला आया.

सच भी था. मेरी सास की चाल बदल गई थी. उन की गठिया की बीमारी मानो उड़न छू हो गई थी. मेरे दिल ने भी कहा, ‘क्यों न मैं भी 2-2 किलो राख (भभूत) खा कर शरीर को ठीक कर लूं.’

रात को बिस्तर पर सोया तो फिर भभूत वाले बाबा का चेहरा आंखों के सामने डोल गया. कहां देखा है? लेकिन याद नहीं आया. हम ने मन ही मन विचार किया कि कल, परसों छुट्टी ले कर हम भी भभूत ले आएंगे. पत्नी को भी यह खुशखबरी हम ने दे दी थी. वे?भी सुंदर सपने देखते हुए खर्राटे भरने लगीं.

सुबह हम उठे. हम ने चाय पी और जा कर समाचारपत्र उठाया. अखबार खोलते ही हम चौंक गए, ‘भभूत वाले बाबा गिरफ्तार’ हेडिंग पढ़ते ही घबरा गए कि आखिर क्या बात हो गई? समाचार विस्तार से लिखा था कि भभूत वाला चमत्कारी बाबा किसी कसबे का झोलाछाप डाक्टर था जिस की प्रैक्टिस नहीं चलती थी, जिस के चलते उस ने शहर बदल लिया और बाबा बन गया. ब्लड, यूरिन की रिपोर्ट देख कर भभूत में दवा मिला कर दे देता था जिस से पीडि़त को लाभ मिलता था.

पिछले दिनों एक ब्लडशुगर के मरीज को उस ने शुगर कम करने की दवा भभूत में मिला कर दे दी. ओवरडोज होने से मरीज सोया का सोया ही रह गया. शिकायत करने पर पुलिस ने भभूत वाले बाबा को गिरफ्तार कर लिया. लाश पोस्टमार्टम के लिए भेज दी गई है. अंत में लिखा था, ‘किसी भी तरह की कोई भभूत का सेवन न करें, उस में स्टेराइड मिला होने से तत्काल कुछ लाभ दिखलाई देता है, लेकिन बाद में बीमारी स्थायी हो जाती है.’ एक ओर बाबा का फोटो छपा था. अचानक हमारी याददाश्त का बल्ब भी जल गया. अरे, यह तो हमारे गांव के पास का व्यक्ति है, जो एक कुशल डाक्टर के यहां पट्टी बांधने का काम करता था और फिर डाक्टर की दवाइयां ले कर लापता हो गया था.

हम बुरी तरह से घबरा गए. हम ने विचार किया, पता नहीं रात को हमारी सास भी स्वर्ग को न चली गई हों. हम अखबार लिए अंदर को दौड़ पड़े. सासू मां किचन में भजिए उड़ा रही थीं और भभूत वाले बाबा के गुणगान गा रही थीं. सासू मां को जीवित अवस्था में देख हम खुश हुए. हमें आया देख कर वे कहने लगीं, ‘‘आओ, दामादजी, मुझे बिटिया ने बता दिया कि तुम भी भभूत वाले बाबा के यहां जा रहे हो… देखना, बाबा कंकड़ेश्वर जरूर गोद हरीभरी करेंगे.’’

हम ने कहा, ‘‘आप की भभूत कहां रखी है?’’

उन्होंने पल्लू में बंधी 40-50 पुडि़यां हमें दे दीं. हम ने वे ले कर गटर में फेंक दीं. पत्नी और उन की एकमात्र मम्मी नाराज हो गईं. हम ने कहा, ‘‘हम अपनी सास को मरते हुए नहीं देखना चाहते.’’

‘‘क्या कह रहे हो?’’ सासजी ने नाराजगी से कहा.

‘‘बिलकुल सच कह रहा हूं, मम्मी,’’ कह कर मैं ने वह अखबार पढ़ने के लिए आगे कर दिया.

दोनों ने पढ़ा और माथा पकड़ लिया. हम ने कहा, ‘‘वह भभूत नहीं बल्कि न जाने कौन सी दवा है जिस के चलते उस के साइड इफेक्ट हो सकते थे. आप जैसी भी हैं, बीमार, पीडि़त, आप हमारे बीच जीवित तो हैं. हम आप को कहीं दूसरे डाक्टर को दिखा देंगे लेकिन इस तरह अपने हाथों से जहर खाने को नहीं दे सकते,’’ कहते- कहते हमारा गला भर आया.

सासूमां और मेरी पत्नी मेरा चेहरा देख रही थीं. सासूमां ने मेरी बलाइयां लेते हुए कहा, ‘‘बेटा, दामाद हो तो ऐसा.’’

हम शरमा गए. सच मानो दोस्तो, घर में बुजुर्ग रूपी वृक्ष की छांव में बड़ी शांति होती है और हम यह छांव हमेशा अपने पर बनाए रखना चाहते हैं.

गोदीकरण से निराकरण : जनता की आंखों में आ गए आंसू

सरकार ने सार्वजनिक घोषणा करते हुए ऐतिहासिक लालकिले को एक निजी समूह को गोद दे दिया है. सरकार का कहना है कि पर्यटन को बढ़ावा देने के लिए ऐसा किया गया है. सरकारी गोदी में पहले से ही काफी टै्रफिक है, इसीलिए सरकार ने ट्रैफिक को निजी गोदी की तरफ डाइवर्ट करने के लिए यह कदम उठाया है. इस पर विपक्ष ने अपनी जिम्मेदारी का निर्वहन करते हुए सरकार के कदम पर सवाल उठाए हैं. सरकार के कदम और विपक्ष के सवालों के बीच की लयबद्धता, गणतंत्र दिवस पर होने वाली परेड की तालबद्धता की तरह उच्चकोटि की होती है.

जिस तरह प्राचीन ऐतिहासिक धरोहरों को गोद दिए जाने का सिलसिला शुरू हुआ है, उस के बाद तो अशिक्षा और भुखमरी के मन में भी देशी घी के लड्डू आरडीएक्स की तरह फूट रहे हैं कि शायद उन को भी गोद लेने वाला कोई संपन्न व्यक्ति पैदा हो जाए. प्राचीन धरोहरें हमारी महानताओं और अपेक्षाओं का बोझ उठातेउठाते सरकारी वैबसाइट्स की तरह थक गई थीं.

‘डोबली स्पीकर’ से समय की यही पुकार थी कि प्राचीन धरोहरों की थकान और लू उतारने के लिए उन्हें गोद में ले कर रिवाइटल और स्नेह का इंजैक्शन दिया जाए. जमीन और उस की जायदाद से जुड़े कुछ जागरूक किस्म के लोग अफवाह और भय फैला रहे हैं कि सरकार के पास देश की विरासत को संभालने की क्षमता नहीं है, इसलिए वह इन विरासतों को निजी हाथों में दे रही है, जबकि सरकार का कहना है कि वह इन प्राचीन विरासतों को निजी हाथों में इसलिए दे रही है ताकि सरकारी हाथ, सरकारी विरासत अर्थात अकर्मण्यता, की देखरेख करने के लिए हमेशा फ्री और सतर्क रहें.

गोद लेनेदेने की परंपरा हमारे देश में रिश्वत लेनेदेने की तरह सनातन है, जिस का सम्मान और गुणगान करते हुए हम ने आजादी के बाद से ही भ्रष्टाचार और गरीबी जैसे शिशुओं को कुशलतापूर्वक गोद ले लिया था, जो अब प्रौढ़ होने के बाद भी बड़े आराम से हमारी गोद में जीवनयापन कर अपनापन महसूस कर रहे हैं.

गोद लेने की प्रक्रिया पूरी तरह गोपनीय रहे, इसीलिए चुनावों के द्वारा इसे लोकतांत्रिक जामा पहनाया गया है. चुनाव के समय नेता जनता के सामने करबद्ध होते हैं. जिस में जनता पिघल कर नेता को आलिंगनबद्ध कर 5 साल के लिए गोद ले लेती है. फिर 5 साल में नेता गोद के जरिए कब सिर पर चढ़ जाता है, पता ही नहीं चलता. गोद के जरिए सिर तक चढ़ने का सफर जो नेता जितनी जल्दी पूरा कर लेता है वह उतनी ही जल्दी जननेता बन जाता है.

जमीन से जुड़ा नेता बनने के लिए जनता के सिर पर चढ़ कर उस के पैरोंतले जमीन खिसकाना सब से महत्त्वपूर्ण कार्य होता है और इस का पहला चरण, पार्टी आलाकमान के चरणों से होते हुए जनता के गोद लेने से शुरू होता है.

निजी हाथों को प्राचीन धरोहरों से पीला कर के सरकार ने कन्यादान की अपनी जिम्मेदारी निभाई है. अब यह कहना गलत होगा कि सरकार ने विरासत को बचाने के लिए कुछ नहीं किया. प्राचीन ऐतिहासिक धरोहरों को निजी समूह को गोद देने का कार्य अच्छा है, क्योंकि इस से सरकार ने कई निजी समूहों की सूनी गोद और जेब भरी हैं.

इस गोदीकरण पर निजीकरण का आरोप लगाना केवल राजनीतिक उपकरण माना जाना चाहिए. गोदीकरण से ही समस्याओं का निराकरण संभव है, क्योंकि गोद लेने से समस्याओं के प्रति अपनत्व और ममत्व का भाव डालनलोड होगा जोकि समस्याओं को खत्म करने के बजाय उन के साथ हमारे सहअस्तित्व की भावना को मजबूत करेगा

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