Heart Touching Love Story : मन का बोझ

Heart Touching Love Story :  सिनेमाघर से निकल कर अम्लान व मानसी थोड़ी दूर ही गए थे कि मानसी के पड़ोसी शीतल मिल गए. उन्हें देखते ही मानसी ने अभिवादन में हाथ जोड़ दिए. शीतल कुछ विचित्र भाव से मुसकराए.

‘‘कहिए, कैसी हैं, मानसीजी?’’

‘‘ठीक हूं.’’

‘‘कब आ रहे हैं, सुदीप बाबू?’’

‘‘अभी 4 माह शेष हैं.’’

‘‘ओह, लगता है आप अकेली काफी बोर हो रही हैं?’’ शीतल कुछ अजीब से अंदाज में बोले.

न जाने क्यों मानसी को अच्छा न लगा. वह सोचने लगी, ‘पता नहीं क्यों व्यंग्य सा कर रहे थे? सुदीप के सामने तो कभी इस तरह नहीं बोलते थे.’

‘‘क्या हुआ? पड़ोसी की बात का बुरा मान गईं क्या? इतना भी नहीं समझतीं मनु दीदी, जलते हैं. पड़ोसी हैं न, इसलिए तुम्हारी हर गतिविधि पर नजर रखना अपना कर्तव्य समझते हैं,’’ अम्लान मुसकराया.

‘‘भाड़ में जाएं ऐसे पड़ोसी,’’ मानसी तीखे स्वर में बोली.

‘‘चलो, कहीं बैठ कर कुछ खाते हैं, बहुत भूख लगी है,’’ अम्लान ने सामने से जाते आटोरिकशा को रोक लिया.

‘‘नहीं, घर चलो, वहीं कुछ खा लेंगे. रेस्तरां में जाने का मन नहीं है, सिर में दर्द है.’’

‘‘ठीक है, जैसी तुम्हारी मरजी,’’ अम्लान ने आटोचालक से मानसी के घर की ओर चलने को कह दिया. घर पहुंचते ही सिर में बाम लगा कर मानसी ने सैंडविच व पकौड़े बनाए और फिर कौफी तैयार करने लगी.

‘‘लाओ, मैं कुछ मदद करता हूं,’’ तभी अम्लान ने रसोईघर में प्रवेश किया.

‘‘हां, अवश्य, ये प्लेटें खाने की मेज पर रखो और खाना प्रारंभ करो,’’ वह मुसकराई. पर दूसरे ही क्षण न जाने क्या हुआ कि अजीब सी नजरों से देखते हुए अम्लान आगे बढ़ा और उसे अपनी बांहों के घेरे में कस लिया.

‘‘यह क्या तमाशा है, छोड़ो मुझे,’’ मानसी ने स्वयं को मुक्त कराने का यत्न किया पर अम्लान की पकड़ कसती ही जा रही थी. अब मानसी सचमुच घबरा गई. पूरी शक्ति लगा कर अम्लान को धक्का देने के साथ ही उस ने अपने दांत उस के हाथ में गड़ा दिए. अम्लान एक झटके के साथ दूर जा गिरा. मानसी लड़खड़ाती हुई बैठक में जा बैठी. शीघ्र ही स्वयं को संभाल कर अम्लान भी बैठक में आ गया तनिक ऊंचे स्वर में बोला, ‘‘समझती क्या हो, तुम? घर आने का आमंत्रण दे कर इस तरह का व्यवहार?’’

‘‘तुम कहना क्या चाहते हो? दीदी कहते हो, राखी बंधवाते हो मुझे से और ऐसा घटिया व्यवहार? अम्लान, मुझे  स्वप्न में भी तुम से ऐसी आशा न थी,’’ मानसी अब भी स्वयं को संभाल नहीं सकी थी.

‘‘हां, दीदी कहता हूं तुम्हें, मुंहबोली बहन हो तुम, क्योंकि किस भारतीय महिला में इतना साहस है कि किसी पुरुष को अपना मित्र कह कर लोगों को उस का परिचय दे सके? भाईबहन बनाने पर ही समाज स्त्रीपुरुष संबंधों को किसी तरह सह लेता है. याद है तुम ने अपने पति सुदीप तथा सभी पड़ोसियों से मेरा परिचय अपना मुंहबोला भाई कह कर करवाया था, मित्र कह कर नहीं,’’ अम्लान अब भी बहुत क्रोधित था.

‘‘मुझे नहीं पता था कि तुम्हारे दिमाग में मुझे ले कर इतनी ऊलजलूल बातें भरी हैं. तुम ने यह भी नहीं सोचा कि मैं विवाहित हूं, सुदीप की अमानत हूं, जिसे ‘जीजाजी’ कहते तुम्हारी जबान थकती नहीं,’’ मानसी आंसुओं के बीच बोली.

‘‘विवाहिता? सुदीप की अमानत? उस से क्या अंतर पड़ता है? इसी से तो समाज में तुम्हें मनमानी करने की छूट मिल जाती है. मेरे मुंह से अपने रंगरूप की प्रशंसा सुन कर तुम कैसे पुलक हो उठती हो. अपनी प्रशंसा से प्रसन्न हो कर तुम्हारे चेहरे पर आने वाली लाली क्या मेरा भ्रममात्र थी, बोलो?’’

‘‘अम्लान, बहुत हो गया. तुम इसी समय मेरे घर से निकल जाओ. मैं भविष्य में तुम्हारी सूरत भी नहीं देखना चाहती,’’ मानसी स्वयं पर नियंत्रण खो कर चीख उठी. एक क्षण को तो अम्लान भी बौखला गया, ‘‘हूं, बहुत देखी हैं तुम्हारी जैसी सतीसावित्री,’’

वह मुख्यद्वार को जोर से बंद करता हुआ बाहर निकल गया. मानसी को लगा, उस की टांगों में इतनी शक्ति भी नहीं बची है कि वह खड़ी हो कर द्वार तक पहुंच कर उसे बंद कर सके. आंखों से अनवरत अश्रुधारा बहने लगी. धुंधलाई अश्रुपूरित आंखों में न जाने कितने चेहरे गड्डमड्ड होते जा रहे थे. मानसी एक छोटे से नगर में पलीबढ़ी थी, जहां लोग अब भी कसबाई मनोवृत्ति रखते थे. वहां विवाहिता या कुंआरी का किसी अन्य पुरुष के साथ घूमनाफिरना उस के चरित्र पर प्रश्नचिह्न लगा देता था. पर सुदीप से विवाह के पश्चात वह हैदराबाद चली आई थी. उसे भली प्रकार याद है कि प्रारंभ में जब सुदीप का कोई मित्र आता था तो वह दौड़ कर अंदर के कक्ष में चली जाती थी. ‘यह क्या तमाशा है, कोई घर आए तो उस का स्वागत करने के बजाय तुम दौड़ कर भीतर चली जाती हो,’ एक दिन सुदीप क्रोधित स्वर में बोला.

‘वे सब आप के मित्र हैं, आप से मिलने आते हैं. मुझे उन के सामने बैठना अच्छा नहीं लगता,’ मानसी ने नजरें झुका लीं. ‘तुम्हारे कारण मेरे सभी मित्र मेरा उपहास उड़ाते हैं. तुम पढ़ीलिखी हो, गूंगीबहरी भी नहीं हो, फिर क्या कारण है कि इस प्रकार का व्यवहार करती हो?’ सुदीप ऐसे अवसर पर बुरी तरह झुंझला जाता था. पति का सहयोग मिलने के कारण मानसी को अपना कसबाई आवरण उतार फेंकने में अधिक समय न लगा. उस ने चित्रकला में स्नातक की उपाधि ली थी. सो, सुदीप के कहने पर उस ने विज्ञापन के क्षेत्र में विशेष प्रशिक्षण प्राप्त करना प्रारंभ कर दिया. प्रशिक्षण समाप्त होने से पहले ही जब मानसी को एक विज्ञापन कंपनी में अच्छी नौकरी मिल गई तो सुदीप भी चकित रह गया. नई नौकरी ने कुछ ही माह में मानसी का कायापलट कर दिया. विवाहोपरांत मानसी का उपहास करने वाला सुदीप अब गर्वपूर्वक पत्नी की उपलब्धियों की चर्चा करता. अम्लान से मानसी की पहली भेंट विज्ञापन कंपनी के कार्यालय में हुई थी. न जाने अम्लान के व्यक्तित्व में कैसा आकर्षण था कि मानसी पहली ही भेंट में औपचारिकता भूल कर उस से घुलमिल गई. पहली बार मानसी को अपने व्यवहार पर आश्चर्य हुआ. मानसी का व्यक्तित्व बेहद अंतर्मुखी था. बचपन में उस के परिवार का वातावरण इतना रूढि़वादी था कि किसी भी परपुरुष से सहज भाव से मित्रता कर पाना उस के लिए संभव ही न था.

पर अम्लान की बात अलग ही थी. सहजता से उस ने मानसी को ‘दीदी’ संबोधन दिया तो वह पुलक उठी. वह परिवार में सब से छोटी थी, दीदी कहने वाला कोई नहीं था. यही नहीं, अम्लान ने शीघ्र ही सुदीप से भी घनिष्ठता स्थापित कर ली. ऐसे में स्वाभाविक ही था कि जब मानसी दीदी थी तो सुदीप जीजा बन गया. धीरेधीरे अम्लान घर का ही सदस्य बन गया. वह घंटों सुदीप व मानसी से बातें करता रहता. अम्लान अकसर डिनर भी उन्हीं के साथ ले लेता. मानसी को उस के आत्मीय व्यवहार में कहीं भी कोई खोट कभी नजर न आई थी. वह  दिन आज भी मानसी की स्मृति में ज्यों का त्यों ताजा था, जब सुदीप इतराता व पुलकित होता घर लौटा था.

‘क्या हुआ, बहुत प्रसन्न नजर आ रहे हो?’ मानसी अपनी उत्सुकता दबा न सकी थी.

‘सुनोगी तो फड़क उठोगी. लगभग सौ लोगों में से विदेश में प्रशिक्षण के लिए मुझे चुना गया है,’ सुदीप अपनी ही प्रसन्नता में इस प्रकार डूबा था कि मानसी के चेहरे के बदलते रंग की ओर उस का ध्यान ही न गया.

‘कितनी अवधि के लिए जाना होगा?’ मानसी ने डूबते स्वर में प्रश्न किया. ‘1 वर्ष के लिए, क्या बात है, तुम्हें प्रसन्नता नहीं हुई?’ सुदीप ने मानो मानसी के मनोभावों को पढ़ लिया.

‘मैं इतने लंबे समय तक अकेली नहीं रह पाऊंगी,’ मानसी ने अपने मनोभाव प्रकट किए थे.

‘क्या गंवारोें जैसी बातें कर रही हो, अब तुम छोटे से कसबे से आई अबोध मानसी नहीं हो, अब तो तुम आत्मविश्वास से भरपूर आधुनिका हो, जो स्वयं अपने पैरों पर खड़ी है.’

‘नहीं, मैं अकेली 1 वर्ष तक यहां नहीं रह सकूंगी,’ मानसी ने घोषणा कर दी तो सुदीप सोच में पड़ गया. उस के व मानसी के परिवार में कोई भी तो ऐसा नहीं था, जो आ कर 1 वर्ष के लिए उस के साथ रह सकता. पर अम्लान ने अपने अकाट्य तर्कों से न केवल सुदीप को आश्वस्त किया बल्कि मानसी को भी अपनी भावी योजना बदलने को प्रेरित किया, ‘मनु दीदी, तुम्हें डर किस बात का है? कितना अच्छा पड़ोस है. सुरक्षा की कोई समस्या ही नहीं. आवास योजना के अधिकारी काफी चुस्तदुरुस्त हैं और मैं हूं न तुम्हारी सहायता के लिए?’ अम्लान के स्वर ने उसे पूर्णतया आश्वस्त कर दिया था. सुदीप के जाने के बाद अम्लान ने उस की प्रतिदिन की जिम्मेदारियों को अपने कंधों पर ले लिया. सच तो यह था कि अम्लान ने एक दिन के लिए भी सुदीप की अनुपस्थिति या अकेलापन उसे महसूस न होने दिया. पर आज जो हुआ, उस के लिए मानसी तनिक भी तैयार नहीं थी, मानो किसी ने अचानक उसे उठा कर तेल की खौलती कड़ाही में फेंक दिया हो. न जाने कितनी देर तक उस के आंसू अनवरत बहते रहे, मानो मन का सारा गुबार आंखों की राह ही बह जाना चाहता हो. जब आंसू स्वत: ही सूख गए तो बहुत साहस कर के वह उठी. सैंडविच और पकौड़े खाने की मेज पर यों ही पड़े थे, पर उस की तो भूख ही उड़ चुकी थी. किसी तरह पानी के कुछ घूंट गले से उतार कर वह बिस्तर पर जा पड़ी पर नींद उस की आंखों से कोसों दूर थी.

मानसी को बचपन में मां द्वारा दी गई हिदायतें याद आ रही थीं. मां ने उसे व उस की बहन को सदा यही समझाया था कि किसी पर भी आंख मूंद कर विश्वास मत करो. इस संसार में ज्यादातर लोग अवसर का अनुचित लाभ उठाने से नहीं चूकते. मां अकसर बातबात में कहती थीं कि यदि स्त्री के मन में खोट न हो तो किसी पुरुष का साहस नहीं कि उस पर बुरी नजर डाल सके. मानसी के मन में बारबार एक ही बात आ रही थी कि क्या अम्लान के ऐसे व्यवहार के लिए वह स्वयं ही उत्तरदायी है? वह जितना भी सोचती उतनी ही उस की अपने प्रति घृणा बढ़ती जाती. अम्लान भी तो उस पर लांछन लगा कर अपमानित कर गया था. यह सच था कि अम्लान अकसर ही उस के सौंदर्य की प्रशंसा किया करता था और वह सुन कर पुलक उठती थी. पर उस का अर्थ सदा उस ने यही समझा था कि सौंदर्य होता ही प्रशंसा के लिए है. सच तो यह है कि बचपन से ही उसे अपनी सुदंरता की प्रशंसा सुनने की आदत पड़ी हुई थी. सो, उसे अम्लान की प्रशंसा में कुछ भी खोट नजर न आई थी.

पर अब उसे लगा, शायद अम्लान बारबार उस के सौंदर्य की प्रशंसा कर के स्त्री की सब से बड़ी कमजोरी का लाभ उठाना चाहता था. सुदीप ने भी तो उस के सौंदर्य पर रीझ कर ही उसे अपनाया था. पर विवाह के बाद कभी उस की प्रशंसा के पुल न बांधे. शायद उस ने कभी उसे अनावश्यक रूप से प्रसन्न करने की आवश्यकता न समझी थी. वैसे भी सुदीप अंतर्मुखी प्रवृत्ति का व्यक्ति था. व्यर्थ का दिखावा करना उस की आदत में शुमार न था. क्या इसीलिए अनजाने ही अम्लान से उस की घनिष्ठता बढ़ती चली गई थी? मानसी को आश्चर्य हो रहा था कि सुदीप ने कभी इस घनिष्ठता पर आपत्ति नहीं की थी. करता भी क्यों? वह बेचारा कहां जान पाया होगा कि अम्लान का ‘दीदी’ संबोधन केवल दिखावा है. पर वह स्वयं इस छलावे से छली गई थी, यह तो उस से भी अधिक आश्चर्य की बात थी.

रातभर इन्हीं सब विचारोें के तूफान में डूबतेउतराते कब वह सो गई, उसे पता ही न चला. सुबह कामवाली बाई व दूध वाले ने द्वार की घंटी बजाई तो उसे लगा कि दिन काफी चढ़ आया है. किसी तरह पैर घसीटते हुए उस ने दरवाजा खोला.

‘‘क्या हुआ मेमसाहब, अभी तक सो रही हैं? तबीयत खराब है क्या?’’

‘‘हां, सिर दर्द से फटा जा रहा है. आज दफ्तर से छुट्टी ले लूंगी. जाने का मन नहीं है,’’ मानसी धीरे से बोली.

‘‘सिर दबा दूं क्या?’’ राधा ने पूछा.

‘‘नहीं, तुम दूध गरम कर के मेरे लिए कुछ नाश्ता बना दो. कल रात को भी कुछ नहीं खाया था. शायद इसीलिए तबीयत खराब हो गई,’’ उस ने राधा को हिदायत दी. मानसी जब तक तरोताजा हो कर लौटी, राधा ने नाश्ता मेज पर सजा दिया था. राधा दोपहर में आ कर भी हालचाल पूछ गई थी. यों शारीरिक रूप से मानसी स्वस्थ ही थी, पर मानसिक रूप से अम्लान के व्यवहार ने उसे पंगु बना कर रख दिया था. तीसरे दिन भी मानसी की वही दशा थी. दिन ढलने तक वह बिस्तर पर ही पड़ी थी. अचानक द्वार की घंटी बजी. दरवाजा खोला तो सामने उस की सहयोगी विभा खड़ी थी.

‘‘विभा दीदी,’’ उसे देखते ही मानसी उस से लिपट कर फूटफूट कर रो पड़ी.

‘‘क्या हुआ, मानसी? खैरियत तो है? मैं ने सोचा तुम 3 दिनों से कार्यालय नहीं आईं, इसलिए मिलने चली आई,’’ विभा आश्चर्यचकित सी बोली. जरा सी सहानुभूति पाते ही मानसी के अंदर जमा लावा बह चला. आंसुओं के बीच सिसकते हुए उस ने अम्लान और उस के बीच घटी पूरी घटना कह सुनाई.

‘‘बड़ी मूर्ख है, तू भी, इतनी सी बात के लिए आंसू बहा रही है. जिस तरह तुम्हारी व अम्लान की घनिष्ठता बढ़ रही थी, ऐसा कुछ होना कोई आश्चर्य की बात तो नहीं थी,’’ विभा ने अपनी राय दी.

‘‘क्या कह रही हैं, विभा दीदी?’’ मानसी चौंकी थी.

‘‘चाहे तुम्हें बुरा भी लगे, पर मैं सच ही कहूंगी. जब सारे कार्यालय में तुम्हारे व अम्लान के घनिष्ठ संबंधों की चर्चा हो रही थी, तब तुम उस से अनजान कैसे बनी रहीं?’’

‘‘आप ने पहले मुझ से कभी भी कुछ नहीं कहा?’’ मानसी आश्चर्यचकित थी.

‘‘ऐसे अवसरों पर कहनेसुनने का कोई विशेष प्रभाव नहीं होता. हर व्यक्ति अपने व्यक्तिगत अनुभवों से ही सबक लेता है. मुझे लगा कि यदि मैं कुछ कहने का प्रयत्न करूं भी तो शायद तुम उस का गलत अर्थ निकालो. फिर मैं ने सोचा कि सुदीप के आने पर खुद ही अम्लान से तुम्हारी घनिष्ठता कम हो जाएगी.’’

‘‘क्या कहूं, मुझे तो स्वयं पर ही शर्म आ रही है. मैं सुदीप को क्या मुंह दिखाऊंगी,’’ मानसी ने इतने धीमे स्वर में अपने विचार प्रकट किए, मानो स्वयं से ही बात कर रही हो.

‘‘अम्लान की भूल के लिए स्वयं को दोषी ठहराने की कोई आवश्यकता नहीं है. मैं तो तुम्हें केवल यह समझाने का यत्न कर रही हूं कि हम महिलाओं को पुरुषों से मित्रता की सीमारेखा अवश्य रखनी चाहिए, अवसर मिलने पर अपने संबंधी तक अवसर का लाभ उठाने से नहीं चूकते.’’

‘‘आप ठीक कह रही हैं, दीदी. मेरा अनुभव मुझे भविष्य में अवश्य ही सतर्क रहने की प्रेरणा देगा, पर अभी मैं क्या करूं? सुदीप भी यहां नहीं हैं?’’

‘‘वाह, यह खूब रही, तुम से दुर्व्यवहार कर के भी अम्लान प्रतिदिन कार्यालय आता है, सब से सामान्य व्यवहार करता है. क्या पता तुम से अपने घनिष्ठ संबंधों की चर्चा वह अपने साथियों से भी करता हो. फिर तुम क्यों मुंह छिपाए घर में पड़ी हो? कल से कार्यालय और घर में सामान्य कामकाज प्रारंभ करो. सुदीप से छिपाने जैसा भी इस में कुछ नहीं है, बल्कि उसे तो गर्व ही होगा कि थोड़े से साहस से काम ले कर तुम एक दुर्घटना से बच गईं,’’ विभा ने मानसी को समझाया. कुछ जलपान कर के व मानसी को समझाबुझा कर विभा चली गई. जातेजाते यह भी कह गई कि उस के होते हुए उसे घबराने या चिंता करने की आवश्यकता नहीं है. रातभर उधेड़बुन में खोए रहने के बाद मानसी ने निर्णय ले ही लिया कि निर्दोष होते हुए भी भला वह अपराधबोध को क्यों ढोए? उस ने तो अम्लान को केवल भाई समझा था. यदि वह एक भाई की गरिमा को नहीं समझ सका तो इस में उसी का दोष है. कार्यालय पहुंच कर एक क्षण को तो उसे ऐसा लगा, मानो सभी की निगाहें उसी पर टिकी हैं. पर शीघ्र ही सबकुछ सामान्य हो गया.

शाम को कार्यालय से छुट्टी होने के बाद वह बस स्टौप पर खड़ी थी कि अम्लान का स्कूटर आ कर रुका, ‘‘आइए मनु दीदी, मैं आप को छोड़ दूं,’’ वह बोला तो मानसी का मन हुआ उस का मुंह नोच ले

‘‘यह संबोधन तुम्हारे मुंह से शोभा नहीं देता. मैं तुम्हारी सूरत भी नहीं देखना चाहती,’’ मानसी तीखे स्वर में बोली.

‘‘ओह, तो आप अभी तक नाराज हैं? हमारी मित्रता क्या ऐसी छोटीमोटी बातों से समाप्त हो जाएगी?’’ अम्लान धृष्टता से बोला.

‘‘छोटीमोटी बात कहते हो तुम उस घटना को?’’ उत्तर में अम्लान पर मानसी ने ऐसी आग्नेय दृष्टि डाली कि वह एक क्षण के लिए भी वहां न रुक सका. मानसी घर पहुंची तो द्वार खोलते ही सामने सुदीप का पत्र दिखाई दिया. उस ने शीघ्रता से लिफाफा खोला. पत्र में सुदीप के मोती जैसे अक्षर चमक रहे थे.

‘‘प्रिय मानसी,

तुम्हारा पत्र पढ़ कर आज मेरा सिर गर्व से ऊंचा हो गया है. मेरी अनुपस्थिति में संभवतया तुम्हें एक त्रासदी से गुजरना पड़ा. पर इस के लिए अकेली तुम ही उत्तरदायी नहीं हो. मैं भी तुम्हारा अपराधी हूं. मैं हर परिस्थिति में तुम्हारे साथ हूं.

‘‘तुम ने 6 महीनों का लंबा समय कितनी कठिनाई से गुजारा होगा, मैं समझ सकता हूं. अब तो केवल 6 मास शेष हैं. मैं तो चाहता हूं कि उड़ कर तुम्हारे पास पहुंच जाऊं या तुम्हें यहां बुला लूं, पर ऐसा संभव नहीं है. तुम चाहो तो छुट्टी ले कर मायके जा सकती हो. मेरे मातापिता तो हैं नहीं, वरना मैं तुम्हें वहीं जाने की सलाह देता. तुम अपना निर्णय लेने को स्वतंत्र हो. मैं हर परिस्थति में तुम्हारे साथ हूं.

‘‘तुम्हारा, सुदीप.’’

पत्र पढ़ कर मानसी देर तक रोती रही. उसे ऐसा महसूस हुआ, मानो मन का बोझ आंखों की राह बह जाना चाहता हो और पत्र के माध्यम से सुदीप स्वयं उसे सांत्वना देने चला आया हो. सुदीप का विचार मन में आते ही उस ने आंसू पोंछ डाले और मन को दृढ़ किया. उसे ऐसा लगा, जैसे शरीर में नए उत्साह का संचार हो रहा हो. वह सोचने लगी, उस का सुदीप उस के साथ है तो वह किसी भी परिस्थिति का साहस से सामना कर सकती है. क्यों डरे वह किसी से? क्यों जाए कहीं. इसी घर में सुदीप के इसी प्यार के साथ वह 6 महीने भी काट लेगी.

Best Hindi Kahani : नया जमाना

Best Hindi Kahani :  डरबन की चमचमाती सड़कों पर सरपट दौड़ती इम्पाला तेजी से आगे बढ़ी जा रही थी. कुलवंत गाड़ी ड्राइविंग करते हिंदी फिल्म का एक गीत गुनगुनाने में मस्त थे. सुरभि उन के पास वाली सीट पर चुपचाप बैठी कनखियों से उन्हें निहारे जा रही थी. इम्पाला जब शहर के भीड़भाड़ वाले बाजार से गुजरने लगी तो सुरभि ने एक चुभती नजर कुलवंत पर डाली और बोली, ‘‘अंकल, कहीं मैडिकल की शौप नजर आए तो गाड़ी साइड में कर के रोक देना, मुझे दवा लेनी है.’’

कुलवंत के चेहरे पर आश्चर्य के भाव उभर आए. सुरभि की तरफ देख कर बोले, ‘‘क्यों, क्या हुआ? तुम्हारी तबीयत तो ठीक है न?’’

‘‘हां, तबीयत तो ठीक है.’’

‘‘फिर दवा किस के लिए लेनी है?’’

‘‘आप के लिए.’’

‘‘मेरे लिए, क्यों? मुझे क्या हुआ है? एकदम भलाचंगा तो हूं.’’

‘‘आप बड़े नादान हैं. नहीं समझेंगे. अब आप अपने दिमाग के घोड़े दौड़ाना बंद कीजिए. मैडिकल शौप नजर आए तो वहां गाड़ी रोक देना. मैं 1 मिनट में वापस आ जाऊंगी.’’

कुलवंत को बात समझ में नहीं आई तो चुप्पी साध ली. उन की नजरें स्क्रीन विंडो से हो कर बाजार के दोनों तरफ दौड़ने लगीं. कुछ देर बाद एक मैडिकल शौप नजर आई, तो गाड़ी को साइड में ले कर शौप के आगे रोक दी.

‘‘लो, दवाइयों की दुकान आ गई. जल्दी से दवा ले कर आओ.’’

सुरभि ने फुरती से दरवाजा खोला और मैडिकल शौप पर पहुंच गई. कुलवंत गाड़ी में बैठेबैठे ही सुरभि को देखते रहे. उस ने क्या दवा ली, वे चाह कर भी नहीं जान पाए. सुरभि ने दवा को पर्स में डाला और पैसे दे कर फौरन वापस आ कर गाड़ी में बैठ गई. वह कुलवंत की तरफ देख कर बोली, ‘‘हो गया काम, घर चलिए.’’

कुलवंत को कुछ भी समझ में न आया. उन्होंने गाड़ी को गियर में डाला और ऐक्सिलरेटर पर दबाव बढ़ा दिया. गाड़ी अगले ही पल हवा से बातें करने लगी. ड्राइविंग करतेकरते उन्होंने सुरभि पर एक नजर डाली. न जाने क्यों आज उन्हें सुरभि में एक बदलाव सा नजर आ रहा था.

1 महीने पहले जब वे डरबन आए थे, तब की सुरभि और आज की सुरभि में जमीनआसमान का फर्क था. पिछले 2 दिनों में तो उस का हावभाव एकदम बदल सा गया था. यह सब सोचतेसोचते वे विचारों में खो गए.

कल सुबह वे धड़धड़ाते हुए स्नानघर में घुसे तो उन के पांवों के नीचे की जमीन खिसक गई थी. वहां पर सुरभि पहले से ही स्नान कर रही थी. उस के तन पर एक भी कपड़ा नहीं था. कुलवंत फौरन बाहर आ गए. सुरभि की पीठ दरवाजे की तरफ थी. शायद उस ने कुलवंत को नहीं देखा था. कुलवंत की सांसें धोंकनी की तरह चलने लगीं. वे सोफे पर गिर पड़े. सोचने लगे कि अच्छा हुआ जो सुरभि को कुछ भी मालूम नहीं चला. मगर इस में गलती तो सुरभि की ही थी. सुरभि को अंदर से दरवाजा बंद करना चाहिए था.

उस घटना को गुजरे 24 घंटे से ज्यादा का समय बीत चुका था, मगर कुलवंत की आंखों में स्नानघर वाला दृश्य बारबार घूम जाता था. यौवन की दहलीज पर खड़ी सुरभि के उस रूप ने उन्हें झकझोर कर रख दिया था. उन्हें खुद से ज्यादा गुस्सा सुरभि पर आ रहा था. उस ने भीतर से दरवाजा बंद क्यों नहीं किया? यह लापरवाही थी या जानबूझ कर की गई कारस्तानी. नहीं, नहीं, यह लापरवाही नहीं हो सकती, यह सब सुरभि ने जानबूझ कर किया है. अच्छा होगा कि निशांत जल्दी से वापस आ जाए.

इन विचारों के साथ वे बचपन की यादों में खो गए. कुलवंत और निशांत बचपन के मित्र थे. दोनों के घर आसपास ही थे. साथ ही खेलतेकूदते बचपन गुजरा. एक ही स्कूल में शिक्षा पाई. यूनिवर्सिटी में साथ ही दाखिला लिया. बाद में निशांत ने सीए की परीक्षा उत्तीर्ण कर के चार्टर्ड अकाउंटैंट का कार्य शुरू कर दिया.

कुलवंत ने अपने पिता का खेतीबाड़ी का काम संभाल लिया. एक दिन अच्छा रिश्ता आया तो प्रभुदयालजी ने अपने बेटे निशांत का विवाह सृजना के साथ धूमधाम से कर दिया. कुलवंत ब्याह के कार्यों में 1 महीने तक जुटा रहा. निशांत के सभी सूट उस ने अपनी पसंद से सिलवाए. बरातियों की लिस्ट बनाने से ले कर प्रीतिभोज का मेन्यू तय करने तक में उस ने प्रभुदयालजी की मदद की. लोग भी कहने लगे कि निशांत और कुलवंत दोस्त नहीं, बल्कि भाई हैं.

कुछ समय बाद कुलवंत की भी शादी हो गई. उस की शादी में निशांत तो आया, मगर उस की पत्नी सृजना नहीं आई थी. कुलवंत को बुरा लगा. उस ने अपने दोस्त को खूब खरीखोटी सुनाईं. निशांत उस दिन कुछ भी नहीं बोला. कुलवंत की हर बात को उस ने सहजता से लिया. घरगृहस्थी में बंधने के बाद दोनों अपनीअपनी गृहस्थी में व्यस्त हो गए. कभीकभार दोनों दोस्त मिलते तो एकदूसरे से शिकवाशिकायत करने में ही समय गंवा देते. कुलवंत को कई बार लगा कि निशांत की गृहस्थी में सबकुछ ठीक नहीं है. उन्हीं दिनों खबर लगी कि निशांत के लड़की हुई है. मिठाई और उपहार दे कर दोनों पतिपत्नी वापस आ गए.

कुछ दिनों बाद एक अन्य मित्र के द्वारा मालूम पड़ा कि निशांत और सृजना की आपस में नहीं बनती. दोनों में रोज ही झगड़े होते रहते हैं. पुत्र और बहू के झगड़ों से दुखी प्रभुदयालजी की एक दिन हार्ट अटैक से मौत हो गई. उन की मौत के बाद तो निशांत और सृजना का मामला बिगड़ता ही चला गया.

मित्र के घर के बुरे समाचारों के बाद कुलवंत भी चिंतित हो उठा. एक दिन वह अपनी निशा को ले कर निशांत के घर गया. वहां दोनों को खूब समझाया. यहां कुलवंत को पहली बार लगा कि सृजना बहुत ही आक्रामक स्वभाव की थी. निशांत ने तो उन की बात को धैर्य के साथ सुना, मगर सृजना ने उन्हें दोटूक शब्दों में कह दिया, ‘देखिए, कुलवंतजी, आप अपने घर को संभालें. हमारे घर के मामलों में आप को पंचायत करने की जरूरत नहीं है.’

उस दिन कुलवंत भारी मन से वापस घर आया तो रो पड़ा था. आज उस के मित्र का घर बिखराव पर है अैर वह कुछ भी नहीं कर पा रहा था. कुछ समय बाद समाचार मिला कि निशांत और सृजना में तलाक हो गया. कोर्ट के आदेश से सुरभि निशांत को मिल गई थी. एक दिन निशांत ने कुलवंत और निशा को अपने घर बुलाया और बताया कि वह सुरभि को ले कर डरबन जा रहा है. वहां एक मल्टीनैशनल कंपनी में अकाउंटैंट की नौकरी मिल गई है. उस ने कुलवंत को अपने घर की चाबी देते हुए कहा कि मकान किराए पर उठा देना या जैसा तुम्हें उचित लगे, करना. समयसमय पर सफाई जरूर करवा देना. उस समय सुरभि मात्र 8 वर्ष की थी.

वक्त की रफ्तार धीरेधीरे आगे बढ़ती रही. कुलवंत की जिंदगी में सबकुछ ठीकठाक चल रहा था. लेकिन एक दिन निशा ने स्तन में दर्द होने की बात बताई. डाक्टर को दिखाया तो उस ने जांच के बाद बताया कि उस को कैंसर है. बीमारी लास्ट स्टेज पर थी. कैंसर ने ऐसी जड़ें जमाईं कि निशा कभी ठीक ही नहीं हो पाई. कुलवंत को घर का चिराग दिए बिना ही निशा चल बसी. मातापिता का तो पहले ही देहांत हो गया था. वह दुनिया में अकेला हो गया. कभीकभी उस का मिलना सृजना भाभी से हो जाता था. वह अपने किए पर बहुत रोती थी. देखतेदेखते 12 वर्ष बीत गए. एक दिन निशांत ने वीजा व हवाई जहाज का टिकट भेज कर कुलवंत को डरबन बुला लिया.

मित्र के बुलावे पर वह 1 महीने पहले डरबन आया था. जब उस ने डरबन की धरती पर पांव रखा तो निशांत खुद गाड़ी ले कर एअरपोर्ट आया था. वर्षों बाद एकदूसरे को देख कर दोनों के आंसू निकल आए थे. घर पहुंचे तो सुरभि को देख कर कुलवंत का मुंह खुला का खुला रह गया. 12 वर्ष पूर्व जिस सुरभि को उस ने भारत से विदा किया था, उस में व इस सुरभि में जमीनआसमान का फर्क था. आज तो वह बिलकुल अपनी मां जैसी लग रही थी. उस के  नैननक्श बिलकुल सृजना के जैसे थे.

निशांत और सुरभि के साथ रहने से कुलवंत में जीने की तमन्ना जाग उठी थी. उन दोनों के साथ रहते 1 महीना कब बीता, पता ही नहीं चला.

2 दिन पहले निशांत को किसी जरूरी कार्य से दुबई जाना पड़ा. उस ने रवाना होते समय कुलवंत से कहा था, ‘मैं 1 हफ्ते के बाद ही आ पाऊंगा. तुम्हारी देखभाल

के लिए सुरभि को कह दिया है. कोई विशेष कार्य हो तो मोबाइल पर बता देना.’

अचानक विचारतंद्रा टूटी तो कुलवंत ने देखा कि बंगला आ गया है. उन्होंने गाड़ी पार्किंग में खड़ी की. दोनों दरवाजे के पास पहुंचे तो यह देख कर दंग रह गए कि दरवाजा खुला हुआ है. दोनों ने एकदूसरे की तरफ प्रश्नवाचक नजरों से देखा. सुरभि ने आश्चर्य से कहा, ‘‘मैं ने जाते वक्त ताला लगाया था. पीछे से यह दरवाजा किस ने खोला?’’

दोनों तेजी से दौड़ते हुए भीतर गए तो वहां के हालात देख कर भौचक्के रह गए. पूरे बंगले का सामान इधरउधर बिखरा पड़ा था. सुरभि ने कुलवंत की तरफ देख कर कहा, ‘‘लगता है चोरों ने यहां अपना हाथ दिखा दिया है. मैं पुलिस को फोन करती हूं.’’

सूचना मिलते ही पुलिस की टीम वहां जा पहुंची. अधिकारी पूछताछ के बाद छानबीन में लग गए. लूट की रिपोर्ट लिखने के बाद पुलिस वापस लौट गई. सुरभि ने कुलवंत की तरफ देख कर कहा, ‘‘यार अंकल, यों मुंह लटकाए क्यों बैठे हो? यहां तो यह आम बात है. यह तो अच्छा हुआ हम दोनों घर पर नहीं थे, वरना लुटेरे हमें जान से मार भी सकते थे. मैं पापा को फोन कर के बता देती हूं. आप चाय तो बना कर पिला दीजिए.’’

कुलवंत सुरभि की बेतकल्लुफी पर हैरान था. वह चुपचाप उठा और रसोईघर की तरफ चल दिया. सुरभि ने मोबाइल फोन से घर में हुई लूट की बात अपने पापा को बता दी. उस ने यह भी बता दिया कि चिंता की बात नहीं है. कुलवंत अंकल और वह कुशलमंगल से हैं. कुलवंत ने तब तक चाय बना ली.

रात को दोनों ने मिल कर खाना बना लिया. खाना खाते समय दोनों चुपचुप रहे. खापी कर दोनों फ्री हुए तो कुलवंत अपने कमरे में आ कर पलंग पर लेट गए. उन्हें नींद नहीं आ रही थी. टीवी चालू कर के वे चैनल बदलने लगे. एक चैनल पर कोई संत कथा का वाचन कर रहे थे. उन्होंने मन में विचार किया कि चलो, आज कथा का ही आनंद ले लिया जाए.

इतने में सुरभि दूध का गिलास ले आई. कुलवंत को धार्मिक चैनल पर कथा सुनते देख आश्चर्यचकित हो उठी. उस ने दूध का गिलास टेबल पर रखते हुए कनखियों से कुलवंत की तरफ देखा और बोली, ‘‘वाह, आप को भी कथाओं का शौक है?’’

सुरभि की बात पर कुलवंत की  हंसी छूट गई. वे सुरभि की  तरफ देखे बगैर ही बोल पड़े, ‘‘सब अपनी रोजीरोटी के लिए दौड़ रहे हैं. अपने भारत में तो आजकल कथाकारों की बाढ़ आई हुई है. इन कथाओं में धन बरस रहा है. धर्म के नाम पर न तो लूटने वालों की कमी है और न ही लुटाने वालों की. मैं भी कभीकभी सोचता हूं कि सबकुछ छोड़ कर कथावाचक बन जाऊं. धन और शोहरत के साथ सुंदरसुंदर चेहरे वाली हसीनाओं के दर्शन का लाभ भी मिलता रहेगा.’’

‘‘अरे, रहने भी दो. हसीनाओं को देखना आप को आता ही कहां है? हां, साधु बन कर माला फेरनी हो तो बात दूसरी है.’’

कुलवंत सुरभि की बात सुन कर सन्न रह गए. वे समझ गए कि सुरभि का मूड आज बड़ा रोमांटिक है. उस की द्विअर्थी बातों में कुछ छिपा है. उन्होंने सुरभि की तरफ देख कर कहा, ‘‘ठीक है, तुम जाओ यहां से, रात काफी हो गई है, मैं सोना चाहता हूं. तुम भी अब अपने कमरे में जा कर सो जाओ.’’ सुरभि अपने कमरे में चली गई. उस के चेहरे पर मदमस्त कर देने वाली मुसकान थी. कुलवंत ने दूध के गिलास की तरफ देखा. आज दूध पीने की इच्छा नहीं हो रही थी. मन में विचार किया कि निशांत जल्दी से वापस आ जाए. वे टीवी का स्विच बंद कर के सो गए. कुछ देर बाद नींद ने डेरा डालना शुरू कर दिया. अभी पूरी आंख लगी भी नहीं थी कि अचानक चौंक कर उठ बैठे. आंखें खुलीं तो देखा पलंग के पास कोई खड़ा है.

‘‘कौन है?’’ घबराहट में मुंह से निकल गया.

‘‘मैं हूं.’’

‘‘मैं कौन?’’

‘‘सुरभि.’’

‘‘इस समय यहां क्या करने आई हो?’’

‘‘मुझे नींद नहीं आ रही. अपने कमरे में डर लग रहा है, मैं अकेली वहां नहीं सो सकती.’’

‘‘पागल मत बनो. जाओ, अपने कमरे में. अपनेआप नींद आ जाएगी.’’

‘‘नहीं, डर लगता है. मैं तो यहीं पर सोऊंगी.’’

‘‘समझा करो. तुम अब छोटी बच्ची नहीं रहीं.’’

‘‘इसीलिए तो यहां सोने आई हूं.’’

इतना कहते ही सुरभि कुलवंत के पास लेट गई. कुलवंत की सांसें एकाएक फूलने लगीं. वे पलंग पर एक कोने पर सरक गए. घबराहट के मारे बुरा हाल हो रहा था. उन्होंने सुरभि की तरफ देख कर कहा, ‘‘प्लीज, यह गलत है. हमारी संस्कृति इस की इजाजत नहीं देती. कम से कम हम दोनों की उम्र का फर्क तो देखो. मैं तुम्हारे पापा की उम्र का हूं.’’

सुरभि ने भी करवट बदली और कुलवंत से एकदम सट कर बोली, ‘‘मुझे बेकार की बातें मत समझाइए. आप को समझ में नहीं आता तो मैं बता देती हूं. अब जमाना बदल गया है. जो भूख लगने पर भोजन नहीं करता वह पागल है.’’

‘‘प्लीज, कहना मानो. कल तुम्हारे पापा को मालूम होगा तो वह मेरे बारे में क्या सोचेगा.’’

‘‘डरिए मत, किसी को कुछ भी पता नहीं चलेगा. हो जाने दीजिए, जो कुछ होता है. जहां प्यार पनपता है वहां उम्र का हिसाब गौण हो जाता है. आजकल जमाना बदल गया है. प्यासी तृप्त होगी तो उस का परिणाम मिलेगा. यह व्यभिचार नहीं, उपकार होगा.’’

अचानक उस ने अपनी बंद मुट्ठी कुलवंत की तरफ बढ़ा दी.

‘‘क्या है?’’

‘‘तुम्हारी दवा. आज सुबह मैडिकल शौप से खरीदी थी.’’

इतना कहते हुए उस ने अपनी बंद मुट्ठी खोली. उस में एक ‘पैकेट’ था. यह देख कुलवंत की आंखें आश्चर्य से फटी की फटी रह गईं. वह समझ गया कि वास्तव में जमाना बदल गया है. नए जमाने के सामने उस ने घुटने टेक दिए. अगले ही पल उस ने अपना हाथ आगे बढ़ा दिया.

लेखक- मिश्रीलाल पंवार

True Love Story : प्यार की खातिर

True Love Story :  प्यार कभी भी और कहीं भी हो सकता है. प्यार एक ऐसा अहसास है, जो बिन कहे भी सबकुछ कह जाता है. जब किसी को प्यार होता है तो वह यह नहीं सोचता कि इस का अंजाम क्या होगा और ऐसा इसलिए होता है क्योंकि वह इनसान किसी के प्यार में इतना खो जाता है कि बस प्यार के अलावा उसे कुछ दिखाई नहीं देता है. तभी तो कहते हैं कि प्यार अंधा होता है. सबकुछ लुटा कर बरबाद हो कर भी नहीं चेतता और गलती पर गलती करता चला जाता है.

मोहन हाईस्कूल में पढ़ने वाला एक 16 साल का लड़का था. वह एक लड़की गीता से बहुत प्यार करने लगा. वह उस के लिए कुछ भी कर सकता था, लेकिन परेशानी की बात यह थी कि वह उसे पा नहीं सकता था, क्योंकि मोहन के पापा गीता के पापा की कंपनी में एक मामूली सी नौकरी करते थे. मोहन बहुत ज्यादा गरीब घर से था, जबकि गीता बहुत ज्यादा अमीर थी. वह सरकारी स्कूल में पढ़ता था और गीता शहर के नामी स्कूल में पढ़ती थी.

लेकिन उन में प्यार होना था और प्यार हो गया. मोहन गीता से कहता, ‘‘तुम मुझ से कभी दूर मत जाना क्योंकि मैं तुम्हारे बिना एक पल भी नहीं रह पाऊंगा.’’ ‘‘हां नहीं जाऊंगी, लेकिन मेरे घर वाले कभी हमें एक नहीं होने देंगे,’’ गीता ने कहा.

‘‘क्यों?’’ मोहन ने पूछा. ‘‘क्योंकि तुम सब जानते हो. हमारा समाज हमें कभी एक नहीं होने देगा,’’ गीता बोली.

‘‘हम इस दुनिया, समाज सब को छोड़ कर दूर चले जाएंगे,’’ मोहन ने कहा. ‘‘नहींनहीं, मैं यह कदम नहीं उठा सकती. मैं अपने परिवार को समाज के सामने शर्मिंदा होते नहीं देख सकती,’’ गीता ने अपने मन की बात कही.

‘‘ठीक है, तो तुम मेरा तब तक इंतजार करना, जब तक मैं इस लायक न हो जाऊं और तुम्हारे पापा के सामने जा कर उन से तुम्हारा हाथ मांग सकूं. बोलो मंजूर है?’’ मोहन ने कहा. गीता हंसी और बोली, ‘‘क्या होगा, अगर मैं तुम से शादी कर के एकसाथ न रह सकी? हम चाहें दूर रहें या पास, मेरे दिल में तुम्हारा प्यार कभी कम नहीं होगा. तुम हमेशा मेरे दिल में रहोगे.’’

यह सुन कर मोहन दिल ही दिल में रो पड़ा और सोच में पड़ गया. ‘‘क्या तुम मुझे छोड़ कर किसी और से शादी कर लोगी? मुझे भूल जाओगी? मुझ से दूर चली जाओगी?’’ मोहन ने पूछा.

‘‘ऐसा तो मैं सोच भी नहीं सकती कि तुम्हें भूल जाऊं. मैं मरते दम तक तुम्हें नहीं भूल पाऊंगी,’’ गीता बोली. ‘‘फिर मेरा दिल दुखाने वाली बात क्यों करती हो? कह दो कि तुम मेरी हो कर ही रहोगी?’’ मोहन ने कहा.समय अपनी रफ्तार से चल रहा था. मोहन दिनरात मेहनत कर के खुद को गीता के काबिल बनाने में लगा था, ताकि एक दिन उस के पिता के पास जा कर गीता का हाथ मांग सके. इधर गीता यह सोचने लगी, ‘मोहन मेरी अमीरी की खातिर मुझ से दूर जा रहा है. वह मुझे पा नहीं सकता इसलिए दूरी बना रहा है.’

इधर गीता के घर वाले उस के लिए लड़का देखने लगे और उधर मोहन जीजान से पढ़ाई में लगा हुआ था. उसे पता भी नहीं चला और गीता की शादी तय हो गई. जब यह बात मोहन को पता चली तो वह गीता की खुशी की खातिर चुप लगा गया, क्योंकि उस की शादी शहर के बहुत बड़े खानदान में हो रही थी. उस का होने वाला पति एक बड़ी कंपनी का मालिक था.

यह सब जानने और सुनने के बाद मोहन अपने प्यार की खुशी की खातिर उस से दूर जाने की कोशिश करने लगा, लेकिन यह तो नामुमकिन था. वह किसी भी कीमत पर जीतेजी उस से दूर नहीं हो सकता था. सचाई जाने बगैर ही उस ने एक गलत कदम उठाने की सोच ली. गीता अंदर ही अंदर बहुत दुखी थी और परेशान थी क्योंकि वह भी तो मोहन को बहुत प्यार करती थी.

जिस दिन गीता की शादी थी उसी दिन मोहन ने एक सुसाइड नोट लिखा और फांसी लगा ली. ठीक उसी समय गीता ने भी एक सुसाइड नोट लिखा और जब सब लोग बरात का स्वागत करने में लगे थे उस ने खुद को फांसी लगा कर खत्म कर लिया.

प्यार की खातिर 2 परिवार दुख के समंदर में डूब गए. बस उन दोनों की जरा सी गलतफहमी की खातिर. हम मिटा देंगे खुद को प्यार की खातिर जी नहीं पाएंगे पलभर तुम से दूर रह कर. कर के सबकुछ समर्पित प्यार के लिए बिखरते हैं कितना हम टूटटूट कर. विश्वास बहुत बड़ी चीज होती है. हमें अपनों पर और खुद पर भरोसा करना चाहिए, ताकि जो उन दोनों के साथ हुआ वैसा किसी के साथ न हो. अगर प्यार करो तो निभाना भी चाहिए और बात कर के गलतफहमियों को मिटाना भी चाहिए, क्योंकि प्यार वह अहसास है जो हमें जीने की वजह देता है.

अगर इस दुनिया में प्यार नहीं तो कुछ भी नहीं. प्यार अमीरीगरीबी, ऊंचनीच, धर्म, जातपांत कुछ भी नहीं देखता. अगर किसी को एक बार प्यार हो जाए तो वह उस की खुशी की खातिर अपनी जिंदगी की भी परवाह नहीं करता. प्यार तो कभी भी कहीं भी किसी से भी हो सकता है, पर सच्चा प्यार होना और मिलना बहुत मुश्किल होता है. खुद पर और अपने प्यार पर हमेशा भरोसा बनाए रखना चाहिए, क्योंकि इस फरेबी दुनिया में सच्चा प्यार बहुत मुश्किल से मिलता है.

लेखिका- सीमा असीम सक्सेना

Story Of Life : अधूरी कहानी

Story Of Life : बात उन दिनों की है, जब राघव 12वीं जमात पास कर के कालेज में पढ़ने गया था. माली हालत अच्छी न होने की वजह से उसे पापा के पास बेंगलुरु जाना पड़ा और इसी बीच वह वहीं काम भी करने लगा. समय मिलते ही राघव अपने सारे दोस्तों को मैसेज करता था. वह शायरी का तो शौकीन था ही, हर रोज नईनई शायरी दोस्तों को भेजता और बदले में वे तारीफ भेजते. वे ज्यादातर बातें मैसेज के जरीए ही करते थे. दोस्तों के अलावा राघव अपनी चचेरी भाभी सोनी को भी मैसेज करता था. वे खड़गपुर में राघव के भाई के साथ रहती थीं. राघव और सोनी दोनों जब भी बातें करते तो ऐसा नहीं लगता था कि कोई देवरभाभी बातें कर रहे हैं. ऐसा लगता था, मानो 2 जिगरी दोस्त बातें कर रहे हों.

एक दिन अचानक राघव के फोन पर एक नंबर से एक प्यारा सा मैसेज आया. वह पढ़ कर बहुत खुश हो गया. लेकिन अगले ही पल वह हैरान रह गया, क्योंकि जब उस नए नंबर पर उस ने फोन किया, तो फोन का जवाब नहीं मिल सका.

राघव ने उसी नंबर पर मैसेज किया, ‘कौन हो तुम?’

उधर से जवाब आया, ‘आप की अपनी दोस्त.’

राघव ने नाम पूछा, तो उस ने बताया नहीं. ‘फिर कभी…’ का मैसेज लिख दिया.

राघव ने सोचा, ‘शायद मेरा ही कोई दोस्त मुझे नए फोन नंबर से परेशान कर रहा है.’

रात को राघव ने उस नंबर पर फोन किया. एक लड़की ने फोन उठाया… और जैसे ही वह ‘हैलो’ बोली, राघव के रोंगटे खड़े हो गए.

राघव ने हकलाते हुए पूछा, ‘‘कौन हो तुम? मेरा नंबर तुम्हें किस ने दिया? तुम कहां से बोल रही हो?’’

उस लड़की ने बताया, ‘मेरा नाम पूजा है?’

इस के बाद उस ने राघव से कहा कि वह उसे पहले से जानती है. उस के बारे में बहुत सारी बातें भी बताईं. वह देखने में कैसा है, उस का कद कितना है वगैरह.

राघव ने पूछा, ‘‘मुझे कहां देखा आप ने?’’

उस लड़की ने कहा, ‘4 महीने पहले मुजफ्फरपुर रेलवे स्टेशन पर देखा था, तभी से नंबर ढूंढ़ रही हूं.’

राघव चौंक गया, क्योंकि ठीक 4 महीने पहले वह अपनी मौसी को छोड़ने वहां गया था. वह खयालीपुलाव पकाते हुए सोचने लगा कि एक अनजान लड़की ने अनजान जगह पर उसे देखा और तब से उस का फोन नंबर ढूंढ़ रही है.

पहले तो वह अनजान था, पर अब राघव दोस्ती के नाते उस से बातें करने लगा. कुछ ही दिन हुए थे राघव और उस लड़की की दोस्ती को कि इसी बीच उस का एक मैसेज आया, जिस में लिखा था, ‘मुझे माफ कर देना. मैं नहीं चाहती कि हमारी दोस्ती की शुरुआत झूठ से हो. सच तो यह है कि मैं ने आप को कभी देखा ही नहीं. बस, सोनी भाभी के फोन पर आप का मैसेज पढ़ा, जो मुझे बहुत पसंद आया. इस के बाद भाभी से आप का नंबर ले कर मैसेज कर दिया.

‘मैं ने सोचा कि अगर आप को पहले ही सब बता देती, तो आप के बारे में इतना कुछ जानने का मौका न मिलता. इस झूठ के लिए मुझे माफ कर देना और मेरी दोस्ती को स्वीकार करना.’

यह मैसेज पढ़ कर राघव को थोड़ा गुस्सा तो आया, पर दोस्तों से इस बारे में जब उस ने बात की, तो वे भी उस की तारीफ के पुल बांधने लगे. उसे सलाह दी कि लड़की अच्छी है, तभी तो उस ने सब सचसच बता दिया. और तो और वह दोस्ती भी करना चाहती है. ऐसे सच्चे दोस्त कम ही मिलते हैं. उसे फोन कर और दोस्ती की नई शुरुआत कर. फिर क्या था, राघव का दिल बागबाग हो उठा.

अगली सुबह राघव ने मैसेज किया, ‘गुड मौर्निंग दोस्त.’

उधर से भी मैसेज आया, जिस में पूछा गया था, ‘मुझे माफ तो कर दिया न? फिर से सौरी ऐंड थैंक्यू… दोस्ती को आगे बढ़ाने के लिए.’

राघव ने भी फिल्मी अंदाज में लिख भेजा, ‘दोस्ती में नो थैंक्स, नो सौरी.’

उन दोनों की दोस्ती परवान चढ़ती गई. पहली बार घर जाते समय राघव उस से खड़गपुर रेलवे स्टेशन पर मिला. ट्रेन वहां ज्यादा देर नहीं रुकी, इसलिए बातें भी न हो सकीं. सिर्फ ‘हायहैलो’ ही हो पाई.

उस समय छठ पूजा की तैयारियां चल रही थीं. राघव घर पर ही था. सोनी भाभी हर साल छठ पूजा के समय गांव आ जातीं. इस बार भी वे आईं, पर अकेली नहीं, पूजा भी साथ थी.

राघव इतना खुश था कि बयां नहीं कर सकता था. उस ने पूजा को अपनी मां और बहनों से मिलवाया. वह पूरा दिन उसी के साथ रहा.

सोनी भाभी कहां चूकने वाली थीं. वे भी ताने कसतीं, ‘‘क्यों देवरजी, क्या इसे यहीं छोड़ दूं हमेशा के लिए?’’

भाभी की ऐसी बातें सुन कर राघव के मन में लड्डू फूटने लगते. काश, ऐसा ही होता.

पूजा थी ही ऐसी. गोरा रंग, लंबी नाक, लंबा कद, पतली कमर, मानो कोई अप्सरा हो. राघव मन ही मन उसे चाहने लगा था. उस के फोन की बैटरी और पैसे खत्म हो जाते, पर बातें नहीं. हर साल छठ पूजा पर पूजा भी सोनी भाभी के साथ उस से मिलने चली आती, लेकिन राघव की कभी हिम्मत नहीं हुई कि वह भी कभी उस के घर जाए. राघव जब भी गांव आता, उस से स्टेशन पर ही मिल कर चला जाता. प्यार वह भी उस से करती थी, पर बोलती नहीं थी. राघव उस से प्यार का इजहार करवा कर ही रहा. अब दोस्ती भूल कर प्यारमुहब्बत की बातें होने लगीं. बात शादी तक पहुंच गई. राघव ने हिम्मत कर के पड़ोसियों के जरीए अपने प्यार और शादी की बात मां तक पहुंचा दी. मां ने इस रिश्ते को एक बार में ही खारिज कर दिया. इस की वजह यह थी कि लड़की उन की बिरादरी की नहीं थी. पढ़ीलिखी है. शहर की रहने वाली है. गांव के बारे में क्या जानती है  मां के खयाल से शायद पूजा घरपरिवार न संभाल सके. उन को ऐसी लड़की चाहिए थी, जो घर को संभाल सके. घर तो पूजा संभाल ही लेती, पर मां को कौन समझाए. पुराने खयालों वाली मां जो एक बार बोल देती हैं, वही राघव के लिए पत्थर की लकीर हो जाता था. समय का पहिया अपनी रफ्तार से चलता रहा. राघव के दोस्तों, पड़ोसियों सभी ने उसे सलाह दी कि वह पूजा को भगा ले जाए. मां कुछ दिन नाराज रहेंगी, पर समय के साथ सब ठीक हो जाएगा.

राघव आगेपीछे की सोचने लगा, ‘जैसे हर मां के सपने होते हैं, वैसे ही मेरी मां के भी सपने होंगे. वे सोचती होंगी कि उन के बेटे की शादी होगी. बैंडबाजा बजेगा, वे खुशी के मारे नाचेंगी…’

राघव ने भी सोच लिया था कि पूरे परिवार के सामने उस की शादी होगी. वह अपनी मां के सपनों को नहीं तोड़ सकता. एक दिन राघव ने पूजा को अपने मन की बात बता दी. वह सुन कर रोने लगी. रोया तो वह भी था.

कुछ सोच कर पूजा ने कहा, ‘‘आप की शादी किसी से भी हो, पर आप हमेशा खुश रहना. मां का दिल कभी मत तोड़ना. आप वहीं शादी कीजिएगा, जहां आप की मां चाहती हैं. जब तक हम दोनों में से किसी एक की शादी नहीं होती, तब तक हम दोस्ती के नाते बातें तो कर ही सकते हैं.’’ फिर पूजा छठ पूजा पर गांव नहीं आई. राघव भी उदास रहने लगा. उन दोनों ने क्याक्या सपने देखे थे कि शादी होगी, शादी के बाद घर पर ही वह कोई काम करेगा, पूजा बच्चों को ट्यूशन पढ़ाएगी और वह दुकान चलाएगा. कहते हैं न कि आदमी जो सोचता है, वह हमेशा पूरा होता है, बल्कि सच में सोचा हुआ काम कभी पूरा नहीं होता. जो राघव ने सोचा था, वह सब तो अधूरा ही रह गया.

Online Hindi Kahaniyan : वो सुनसान गलियां

Online Hindi Kahaniyan : वह एक उमस भरी दोपहर थी. नरेंद्र बैठक में कूलर चला कर लेटा हुआ था. इस समय गलियों में लोगों का आनाजाना काफी कम हो जाता था और कभीकभार तो गलियां सुनसान भी हो जाती थीं.

उस दिन भी गलियां सुनसान थीं. तभी गली से एक फेरी वाली गुजरते हुए आवाज लगा रही थी, ‘‘फांकी ले लो फांकी…’’

जैसे ही आवाज नरेंद्र की बैठक के नजदीक आई तो उसे वह आवाज कुछ जानीपहचानी सी लगी. वह जल्दी से चारपाई से उठा और गली की तरफ लपका. तब तक वह फेरी वाली थोड़ा आगे निकल गई थी.

नरेंद्र ने पीछे से आवाज लगाई, ‘‘लच्छो, ऐ लच्छो, सुन तो.’’

उस फेरी वाली ने मुड़ कर देखा तो नरेंद्र ने इशारे से उसे अपने पास बुलाया. वह फेरी वाली फांकी और मुलतानी मिट्टी बेचने के लिए उस के पास आई और बोली, ‘‘जी बाबूजी, फांकी लोगे या मुलतानी मिट्टी?’’

नरेंद्र ने उसे देखा तो देखता ही रह गया. दोबारा जब उस लड़की ने पूछा, ‘‘क्या लोगे बाबूजी?’’ तब उस की तंद्रा टूटी.

नरेंद्र ने पूछा, ‘‘तुम लच्छो को जानती हो, वह भी यही काम करती है?’’

उस लड़की ने मुसकरा कर कहा, ‘‘लच्छो मेरी मां है.’’

नरेंद्र ने कहा, ‘‘वह कहां रहती है?’’

उस लड़की ने कहा, ‘‘वह यहीं मेरे साथ रहती है. आप के गांव के स्कूल के पास ही हमारा डेरा है. हम वहीं रहते हैं. आज मां पास वाले गांव में फेरी लगाने गई है.’’

नरेंद्र ने उस लड़की को बैठक में बिठाया, ठंडा पानी पिलाया और उस से कहा कि कल वह अपनी मां को साथ ले कर आए. तब उन का सामान भी खरीदेंगे और बातचीत भी करेंगे.

अगले दिन वे मांबेटी फेरी लगाते हुए नरेंद्र के घर पहुंचीं. उस ने दोनों को बैठक में बिठाया, चायपानी पिलाया. इस के बाद नरेंद्र ने लच्छो से पूछा, ‘‘क्या हालचाल है तुम्हारा?’’

लच्छो ने कहा, ‘‘तुम देख ही रहे हो. जैसी हूं बस ऐसी ही हूं. तुम सुनाओ?’’

नरेंद्र ने कहा, ‘‘मैं बिलकुल ठीक हूं. अभी 2 साल पहले रिटायर हुआ हूं. 2 बेटे हैं. दोनों सर्विस करते हैं. बेटीदामाद भी भी सर्विस में हैं.

‘‘पत्नी छोटे बेटे के पास चंडीगढ़ गई है. मैं यहां इस घर की देखभाल करने के लिए. तुम अपने परिवार के बारे में बताओ,’’ नरेंद्र ने कहा.

लच्छो बोली, ‘‘तुम से बाबा की नानुकर के बाद हमारी जात में एक लड़का देख कर बाबा ने मेरी शादी करा दी थी. पति तो क्या था, नशे ने उस को खत्म कर रखा था.

‘‘यह मेरी एकलौती बेटी है सन्नो. इस के जन्म के 2 साल बाद ही इस के पिता की मौत हो गई थी. तब से ले कर आज तक अपनी किस्मत को मैं इस फांकी की टोकरी के साथ ढो रही हूं.’’

उन दोनों के जाने के बाद नरेंद्र यादों में खो गया. बात उन दिनों की थी जब वह ग्राम सचिव था. उस की पोस्टिंग राजस्थानहरियाणा के एक बौर्डर के गांव में थी. वह वहीं गांव में एक कमरा किराए पर ले कर रहता था.

वह कमरा गली के ऊपर था. उस के आगे 4-5 फुट चौड़ा व 8-10 फुट लंबा एक चबूतरा बना हुआ था. उस चबूतरे पर गली के लोग ताश खेलते रहते थे. दोपहर में फेरी वाले वहां बैठ कर आराम करते थे यानी चबूतरे पर रात तक चहलपहल बनी रहती थी.

राजस्थान से फांकी, मुलतानी मिट्टी, जीरा, लहसुन व दूसरी चीजें बेचने वाले वहां बहुत आते थे. कड़तुंबा, काला नमक, जीरा वगैरह के मिश्रण से वे लोग फांकी तैयार करते थे जो पेटदर्द, गैस, बदहजमी जैसी बीमारियों के लिए इनसानों व पशुओं के लिए बेहद गुणकारी साबित होती है.

उस दिन भी गरमी की दोपहर थी. फेरी वाली गांव में फेरी लगा कर कमरे के बाहर चबूतरे पर आ कर आराम कर रही थी. उस ने किवाड़ की सांकल खड़काई.

नरेंद्र ने दरवाजा खोल कर देखा कि 18-20 साल की एक लड़की राजस्थानी लिबास में चबूतरे पर बैठी थी.

नरेंद्र ने पूछा था, ‘क्या बात है?’

उस ने मुसकरा कर कहा था, ‘बाबूजी, प्यास लगी है. पानी है तो दे देना.’

नरेंद्र ने मटके से उस को पानी पिलाया था. पानी पी कर वह कुछ देर वहीं बैठी रही. नरेंद्र उस के गठीले बदन के उभारों को देखता रहा. वह लड़की उसे बहुत खूबसूरत लगी थी.

नरेंद्र ने उस से पूछ लिया, ‘तुम्हारा नाम क्या है?’

उस ने कहा था, ‘लच्छो.’

‘तुम लोग रहते कहां हो?’ नरेंद्र के यह पूछने पर उस ने कहा था, ‘बाबूजी,  हम खानाबदोश हैं. घूमघूम कर अपनी गुजरबसर करते हैं. अब कई दिनों से यहीं गांव के बाहर डेरा है. पता नहीं, कब तक यहां रह पाएंगे,’ समय बिताने के बहाने नरेंद्र लच्छो के साथ काफी देर तक बातें करता रहा था.

अगले दिन फिर लच्छो चबूतरे पर आ गई. वे फिर बातचीत में मसरूफ हो गए. धीरेधीरे बातें मुलाकातों में बदलने लगीं. लच्छो ने बाहर चबूतरे से कमरे के अंदर की चारपाई तक का सफर पूरा कर लिया था.

दोपहर के वीरानेपन का उन दोनों ने भरपूर फायदा उठाया था. अब तो उन का एकदूसरे के बिना दिल ही नहीं लगता था.

नरेंद्र अभी तक कुंआरा था और लच्छो भी. वह कभीकभार लच्छो के साथ बाहर घूमने चला जाता था. लच्छो उसे प्यारी लगने लगी थी. वह उस से दूर नहीं होना चाहता था. उधर लच्छो की भी यही हालत थी.

लच्छो ने अपने मातापिता से रिश्ते के बारे में बात की. वे लगातार समाज की दुहाई देते रहे और टस से मस नहीं हुए. गांव के सरपंच से भी दबाव बनाने को कहा.

सरपंच ने उन को बहुत समझाया और लच्छो का रिश्ता नरेंद्र के साथ करने की बात कही लेकिन लच्छो के पिताजी नहीं माने. ज्यादा दबाव देने पर वे अपने डेरे को वहां से उठा कर रातोंरात कहीं चले गए.

नरेंद्र पागलों की तरह मोटरसाइकिल ले कर उन्हें एक गांव से दूसरे गांव ढूंढ़ता रहा लेकिन वे नहीं मिले.

नरेंद्र की भूखप्यास सब मर गई. सरपंच ने बहुत समझाया, लेकिन कोई फायदा नहीं. बस हर समय लच्छो की ही तसवीर उन की आंखों के सामने छाई रहती. सरपंच ने हालत भांपते हुए नरेंद्र की बदली दूसरी जगह करा दी और उस के पिताजी को बुला कर सबकुछ बता दिया.

पिताजी नरेंद्र को गांव ले आए. वहां गांव के साथियों के साथ बातचीत कर के लच्छो से ध्यान हटा तो उन की सेहत में सुधार होने लगा. पिताजी ने मौका देख कर उस का रिश्ता तय कर दिया और कुछ समय बाद शादी भी करा दी.

पत्नी के आने के बाद लच्छो का बचाखुचा नशा भी काफूर हो गया था. फिर बच्चे हुए तो उन की परवरिश में वह ऐसा उलझा कि कुछ भी याद नहीं रहा.

आज 35 साल बाद सन्नो की आवाज ने, उस के रंगरूप ने नरेंद्र के मन में एक बार फिर लच्छो की याद ताजा कर दी.

आज लच्छो से मिल कर नरेंद्र ने आंखोंआंखों में कितने गिलेशिकवे किए.  लच्छो व सन्नो चलने लगीं तो नरेंद्र ने कुछ रुपए लच्छो की मुट्ठी में टोकरी उठाते वक्त दबा दिए और जातेजाते ताकीद भी कर दी कि कभी भी किसी चीज की जरूरत हो तो बेधड़क आ कर ले जाना या बता देना, वह चीज तुम तक पहुंच जाएगी.

लच्छो का भी दिल भर आया था. आवाज निकल नहीं पा रही थी. उस ने उसी प्यारभरी नजर से देखा, जैसे वह पहले देखा करती थी. उस की आंखें भर आई थीं. उस ने जैसे ही हां में सिर हिलाया, नरेंद्र की आंखों से भी आंसू बह निकले. वह अपने पहले की जिंदगी को दूर जाता देख रहा था और वह जा रही थी.

लेखक- खुशवीर मोठसरा

Sad Love Story : चार सुनहरे दिन

Sad Love Story : रेखा ने बैग अपने कंधे पर लटकाते हुए मैनेजर से कहा, ‘‘मिस्टर जगतियानी, मुझे ही बैग ढोने की क्या जरूरत है? रामलाल भी तो…’’

‘‘नहींनहीं,’’ वह घबरा कर बोला, ‘‘बैग तो तुम्हीं रखा करो. बैंक है ही कितनी दूर,’’ फिर उस ने पुकारा, ‘‘चलो भई, रामलाल, जल्दी करो…’’

बिगड़ी पड़ी एक बस के पास मिस्त्री से तंबाकू ले रहा रामलाल लपकता हुआ आया, ‘‘आ गया, मालिक.’’

रोज की तरह वह रेखा के पीछेपीछे चल पड़ा. रेखा को उतना भारीभरकम बैग रोज ढो कर ले जाना अखरता था, किंतु मिस्टर जगतियानी को और किसी भी कर्मचारी पर भरोसा नहीं था. सुरक्षा के लिए रामलाल को वह जरूर साथ कर देता था.

रामलाल बड़ा हट्टाकट्टा, तगड़ी कदकाठी का अधेड़ आदमी था. बड़ीबड़ी मूंछें रखता था. कद 6 फुट के आसपास था, लेकिन अक्ल का कोरा था. मालिक का सब से वफादार आदमी था. सांड़ से भिड़ जाने की हिम्मत रखता था, लेकिन कोई भी उसे आसानी से बेवकूफ बना सकता था. इसलिए मैनेजर ने रेखा के साथ पहलवान जैसे रामलाल को लगा रखा था. वह दोनों के काम से संतुष्ट था.

दि रोज ट्रांसपोर्ट कंपनी के पास 20 से ज्यादा बसें थीं. अकसर कुछ खराब हो जातीं, लेकिन ज्यादातर के चलते रहने से रोज लगभग 20-25 हजार रुपए की रकम आ जाती थी. त्योहार वगैरह के दिनों में तो यह रकम 40 हजार से ऊपर पहुंच जाती थी. जगतियानी बड़ा डरपोक था. वह रात को रकम औफिस की तिजोरी में रखना नहीं चाहता था. रोज रात को चौक वाले भारतीय स्टेट बैंक की शाखा में रुपए जमा करा दिया करता था.

इस तरफ बसस्टैंड तथा एक बड़ा व्यावसायिक केंद्र होने के कारण स्टेट बैंक ने सुविधा के लिहाज से खासतौर से यह शाखा खोली थी, जो दोपहर बाद से रात के 9 बजे तक खुली रहती थी. रेखा रोज 8.50 बजे तक बैंक पहुंच जाती थी और रुपए जमा करा देती थी.

बसअड्डा होने के कारण सड़क थोड़ी चौड़ी और साफ थी. बसअड्डे के पास ही चाय और पान की कई दुकानें थीं. आगे चल कर एक अच्छा सा चायखाना भी था. फिर बैंक तक का रास्ता सूना था. रास्ता लगातार आतीजाती गाडि़यों की रोशनी से प्रकाशित होता रहता था. रेखा शुरू से बहुत डरती थी कि कोई उस का गला दबा कर या छुरा मार कर बैग छीन ले तो? किंतु अब वह अभ्यस्त हो गई थी. रामलाल के कारण उसे इत्मीनान रहता था.

चलतेचलते रेखा ने बैग को दूसरे कंधे पर रखते हुए कहा, ‘‘भई रामलाल, अगर कोई गुंडाबदमाश छुरा या पिस्तौल ले कर…’’

‘‘गुंडाबदमाश?’’ रामलाल मूंछों पर ताव देता हुआ हंसा, ‘‘बिटिया, हम एक ही हाथ में पिस्तौल, छुरा सब  झाड़ देंगे उस का. तुम चिंता न करो.’’

बैंक का कैशियर उन्हीं का इंतजार कर रहा था. रेखा के बैग से नोटों की गड्डियां निकाल कर उस ने फुरती से गिनीं. कुल 21 हजार 9 सौ रुपए मात्र. उस ने मुहर लगा कर रसीद रेखा को दे दी.

लौटते वक्त रेखा चौराहे के इधर वाले चायखाने में रोज की तरह चाय पीने चली आई. रामलाल चाय पीते वक्त बोला, ‘‘बिटिया, तुम किसी तरह की चिंता न करो. रामलाल के रहते कोई पंछी पंख भी नहीं फड़फड़ा सकता है. यहां हम को सब लोग जानते हैं. किसी ने कुछ करने की कोशिश भी की तो उठा के पटक दूंगा. हड्डीपसली सब बराबर हो जाएगी.’’

रेखा इस सीधे पर अनपढ़गंवार को कैसे सम झाती कि यह गांव का अखाड़ा नहीं है. यहां गुंडेबदमाश कुश्ती नहीं लड़ते. पीछे से कोई छुरा या गोली मार दे. वह बहुत डरती थी. लेकिन इस काम के लिए मैनेजर उसे कंपनी से 5 सौ रुपए का अतिरिक्त बोनस दिलाता था, क्योंकि उसे वह अच्छी लड़की सम झता था और उस की मदद करना चाहता था. मैनेजर जगतियानी जानता था कि रेखा पर बूढ़े पिता, एक छोटी बहन और एक लापरवाह और आवारा किस्म के छोटे भाई की जिम्मेदारी है. जगतियानी यह भी जानता था कि 30 साल की उम्र पार कर चुकी रेखा की शादी हो पाने की उम्मीद कम ही है, क्योंकि वह देखने में सुंदर नहीं है. न चेहरे से, न शरीर से. संकरा माथा, दबी नाक, भीतर धंसी छोटीछोटी आंखें. मोटे होंठ, रंग सांवला, सपाट सा शरीर, न वक्ष उभरते हुए न नितंब. देखने में लड़कों जैसी लगती थी. उम्र के असर से चेहरे पर कुछ रेखाएं भी बनने लगी थीं. वैसे लड़की कमाऊ हो तो शादी किसी तरह हो भी जाती है, किंतु रेखा अपने परिवार के भरणपोषण के खयाल से खुद ही शादी नहीं करना चाहती थी. लेकिन उस के हिसाबकिताब, अकाउंटैंसी, फाइलिंग आदि की दक्षता का जगतियानी प्रशंसक था.

लौट कर रेखा ने रसीद जगतियानी को दी और साढ़े 9 बजे की बस से घर लौट चली. वह बस उसे घर के पास के चौराहे पर ही उतार देती थी.

बस से उतर कर वह जैसे ही घर की तरफ चली थी कि अचानक पीछे से धक्का लगा और वह गिर पड़ी. धक्का एक मोटरसाइकिल से लगा था. मोटरसाइकिल वाले ने उसे उठा कर खड़ा किया और माफी मांगने लगा, ‘‘बड़ी गलती हुई. माफ कीजिए, मैडम.’’

रेखा कराहती हुई उठी. उस ने देखा, सामने एक सुंदर युवक खड़ा था. रंग गोरा, अच्छे नाकनक्श वाला, सुंदर कपड़े पहने, तंदुरुस्त. वह बोला, ‘‘आप का घर कहां है, चलिए पहुंचा दूं.’’

वैसे तो रेखा का घर पास में ही था और उसे चोट भी ज्यादा नहीं लगी थी कि किसी को पहुंचाने जाना जरूरी होता, लेकिन पता नहीं क्यों वह उस लड़के को मना नहीं कर सकी. वह उस के साथ घर तक आई.

‘‘आइए,’’ रेखा ने कहा, ‘‘चाय पी कर जाइएगा.’’

युवक तुरंत तैयार हो गया. रेखा ने उसे बैठक में बिठा दिया. बैठक बहुत सामान्य थी. जहां एक पुराना सा बदरंग सोफा पड़ा था. एक चौकी पर दरी बिछी थी. दीवारों पर पुराने कैलेंडर लगे थे. रेखा उसे बिठा कर भीतर चली गई.

चाय के 2 प्याले ले कर वह लौटी. युवक उस के बूढ़े पिता से बातें कर रहा था. बूढ़े पिता ने खोदखोद कर उस के बारे में पूछताछ की. रेखा ने सुना, नाम प्रदीप कुमार. उस के पिता हेडक्लर्क हो कर रिटायर्ड हो चुके हैं. परिवार में मां और 2 छोटे भाईबहन हैं. वह खुद एमए पास कर चुका है और नौकरी तलाश रहा है. रेखा ने दोनों को चाय दी.

रेखा के पिता ने चाय पी कर जम्हाई ली और भीतर चले गए. प्रदीप वहीं बैठा रहा. उस ने चाय पीतेपीते कहा, ‘‘चाय तो पीता ही रहता हूं, लेकिन सच कहूं रेखाजी, ऐसी चाय कभी नहीं पी मैं ने. आप ने ही बनाई होगी?’’

‘‘जी,’’ रेखा लजा गई, ‘‘आप को पसंद आई?’’

‘‘अजी, क्या कहती हैं, आप,’’ प्रदीप उत्साह से बोला, ‘‘काश, ऐसी चाय रोज मिल सकती.’’

रेखा ने साहस कर कहा, ‘‘तो रोज आ कर पी जाया करें. मैं रात को साढ़े 9 बजे लौटती हूं.’’

प्रदीप बोला, ‘‘मौका मिलेगा तो जरूर आऊंगा, मिस रेखा. आप जितनी भली हैं, उतनी ही…मेरा मतलब है कि उतना ही आकर्षण है आप में.’’

रेखा का चेहरा लाल हो गया. किसी ने आज तक उस से ऐसी बात नहीं कही थी, और यह सुंदर युवक.

‘‘आप जरूर आया करें. मैं इंतजार करूंगी.’’

तब से प्रदीप अकसर उस के घर आने लगा. रेखा के बूढ़े पिता और छोटी बहन शोभा से उस ने अच्छी घनिष्ठता बना ली. वह खुशमिजाज और बातचीत में चतुर था. शाम को आता तो साथ में कुछ नमकीन या मीठा लेता आता. 16 साल की शोभा उस के लिए चाय बनाती और वह रेखा के आने तक रुका रहता. रेखा के पिता इस मिलनसार, शरीफ युवक से बहुत खुश थे. रेखा जब आती तो फिर से चाय बनाती थी.

रविवार को रेखा की छुट्टी होती थी. उस दिन मैनेजर जगतियानी खुद रामलाल के साथ जा कर रुपए बैंक में जमा कराता था. रविवार को प्रदीप रेखा को मोटरसाइकिल से घुमाने ले जाता. कभी सिनेमा तो कभी किसी रैस्तरां में भी ले जाता.

प्रदीप रेखा की हर बात की बड़ी तारीफ करता था. कहता, ‘‘रेखा, तुम जैसी सम झदार और अच्छी लड़की मैं ने कहीं नहीं देखी.’’

31वें वर्ष में कदम रख रही रेखा को अपने लिए लड़की शब्द सुन कर गुदगुदी सी होती थी. कहती, ‘‘तुम तो मु झे बना रहे हो.’’

‘‘सच कहता हूं,’’ प्रदीप गंभीर हो जाता, ‘‘तुम हीरा हो. जो तुम्हारा हाथ थामेगा, वह बहुत खुशनसीब होगा.’’

अब तक पुरुषों की प्रशंसात्मक दृष्टि या रोमांस से अपरिचित और उस के लिए तरसती रही रेखा प्रदीप की इन बातों में भूल जाती कि वह बहुत असुंदर है, 30 साल पार चुकी है और प्रदीप उस से उम्र में छोटा और स्मार्ट युवक है. वह उस की बातों पर विश्वास कर लेना चाहती थी. वह और प्रशंसा सुनने के लिए कहती, ‘‘मैं तो इतनी बदसूरत.’’

प्रदीप हंसता, ‘‘खूबसूरती और गोरी चमड़ी को देखने वाले बेवकूफ होते हैं. स्त्री का असली सौंदर्य तो उस के भीतर छिपा रहता है, रेखा. तुम देखने में भले ही बहुत सुंदर न हो लेकिन तुम में एक जबरदस्त आकर्षण और सम्मोहन है. उसे तुम क्या जानो.’’

और, रेखा के ऊपर जैसे नशा छा जाता. घर लौट कर वह आईने में खुद को निहारती रहती. क्या सच में वह आकर्षक है? आईना तो उस का वही पुराना अक्स दिखाता है. किंतु उसे लगता, वह आकर्षक हो गई है.

प्रदीप पिछले रविवार को उसे शहर के बाहर  झील के किनारे बने रैस्तरां ले गया था. वहां  झील के पास  झाड़ीनुमा पेड़ों के बीच बैठने के लिए अलगथलग मेजें लगी हुई थीं. बैरे सामने के होटल से सामान ला कर परोसते. लोग आजादी के मजे लेते हुए खातेपीते, प्राकृतिक दृश्यों का आनंद लेते.

प्रदीप ने डोसे, चिप्स और कौफी का और्डर दिया.

‘‘यहां कितना अच्छा लग रहा है,’’ रेखा विभोर थी, ‘‘सच प्रदीप, मैं पहले कभी यहां नहीं आई, बल्कि मैं तो कहीं किसी होटल या रैस्तरां में भी नहीं जाती. अकेली…’’

‘‘छोड़ो, अब तुम अकेली नहीं हो, रेखा,’’ प्रदीप ने बड़े प्यार से कहा, ‘‘मैं तुम्हारा दोस्त हूं, अब.’’

‘‘मेरी दोस्ती से तुम्हें क्या मिलने वाला है?’’ रेखा ने उसे टटोलना चाहा.

प्रदीप हंसा, ‘‘मु झे तुम्हारा साथ ताजगी से भर देता है. सच मानो, जिंदगी में बहुत सी सुंदर लड़कियां मिलीं, लेकिन किसी से इतना प्रभावित न हुआ जितना तुम से.’’

‘‘ झूठे…’’ रेखा व्याकुलता से उसे देखने लगी.

‘‘सच, तुम मेरे लिए संसार की सब से सुंदर और योग्य लड़की हो.’’

‘लड़की’ शब्द से रेखा रोमांचित हो उठी. प्रदीप के मुंह से वह बारबार लड़की शब्द सुनना चाहती थी. बोली, ‘‘मैं और लड़की. लड़की तो शोभा है.’’

‘‘शोभा?’’ प्रदीप हंसा, ‘‘वह बच्ची है. उस में वह सुंदर नारीत्व कहां है? छोड़ो रेखा, मैं आज तुम्हारे सिवा और किसी का नाम नहीं लेना चाहता बीच में.’’

‘‘क्या, सच?’’ रेखा कुछ आगे  झुकी, ‘‘सो, क्यों भला?’’

‘‘क्योंकि…बुरा न मानो, तो सच कहूं…’’ प्रदीप ने गंभीरता से कहा, ‘‘मैं तुम्हें प्यार करता हूं.’’

रेखा के कान सनसना उठे. कुछ देर तो जैसे उसे होश ही न रहा. प्रदीप ने उस के हाथों को दबा कर सचेत किया, ‘‘बैरा आ रहा है.’’

बैरा आया, क्या रख गया, रेखा को कुछ होश ही नहीं था. वह तो प्रदीप की बात के नशे में मस्त थी. प्रदीप ने उस का हाथ दबाया, ‘‘खाओ…’’

उस दिन का नाश्ता रेखा को अपने जीवन का सब से स्वादिष्ठ नाश्ता लगा. वह तरंगों में  झूल रही थी. उस ने सोचा भी न था कि उस के जीवन में कभी कोई ऐसा मौका आएगा, जब कोई सुंदर युवक उसे कहेगा, ‘तुम बड़ी सुंदर हो, मैं तुम्हें प्यार करता हूं,’ वही आज अचानक हो गया है.

लौटते समय प्रदीप ने कहा, ‘‘आज तुम मेरे घर चलो तो कैसा रहे?’’

रेखा बोली, ‘‘तुम्हारे घर वाले क्या सोचेंगे?’’

‘‘आज तो घर पर सिर्फ मेरे पिताजी हैं. मां और भाईबहन एक नातेदारी में शादी में गए हुए हैं. तुम्हें अपने पिताजी से मिलाऊं.’’

उस ने रेखा के जवाब का इंतजार किए बिना ही मोटरसाइकिल मोड़ दी. शहर के दूसरे किनारे बसे एक छोटे से साधारण दोमंजिला घर के आगे मोटरसाइकिल खड़ी की, ‘‘मेरा गरीबखाना.’’

रेखा के साथ बरामदे में आ कर उस ने घंटी बजाई. कई बार बटन दबाया, किंतु दरवाजा नहीं खुला. बोला, ‘‘पिताजी जरूर घूमने निकले हैं. 9 बजे रात तक लौटते हैं. खैर, कोई बात नहीं, मेरे पास भी चाबी है.’’

अपनी चाबी से दरवाजा खोल कर वह रेखा को भीतर लाया. साधारण सी बैठक. सोफा, टीवी, दीवान आदि से सजा हुआ. एक तरफ भीतर जाने का दरवाजा.

प्रदीप भीतर देख आया. बोला, ‘‘जरूर वे बाहर हैं. खैर, उन के आने तक बैठते हैं. तुम्हें जल्दी तो नहीं है?’’

रेखा ने कहा कि उसे कोई जल्दी नहीं है.

‘‘तो आज मेरी ही बनाई चाय पियो,’’ प्रदीप हंसा, ‘‘तुम्हारे जैसी तो क्या बनेगी, किंतु…’’

वह भीतर चला गया. रेखा की आंखों के आगे रंगीन सपने तैरते रहे. प्रदीप उसे प्यार करता है? अपने पिता से मिलाने लाया तो है. अगर शादी हुई तो वह इसी घर में आएगी.

प्रदीप चाय ले आया. रेखा को वह मामूली चाय भी अमृत जैसी लगी प्रदीप ने बनाई थी इसलिए. प्रदीप ने उस का हाथ अपनी हथेली में दबा कर कहा, ‘‘रेखा, तुम मु झ से प्यार करती हो?’’

रेखा शरमा गई. उस की आंखें जैसे शराब के नशे में थीं. प्रदीप बोला, ‘‘तुम्हारी आंखें सच बता रही हैं. हम दोनों जल्द शादी करेंगे.’’

‘‘सच?’’ रेखा ने ऐसे कहा जैसे बच्चे को मिठाई देने का वादा किया गया हो और वह उस पर विश्वास नहीं कर पा रहा हो.

प्रदीप बोला, ‘‘बिलकुल सच. मेरे घर वाले मेरी बात नहीं टालेंगे. हां, तुम्हारे पिताजी की राय.’’

‘‘वह तो तुम्हें बहुत अच्छा लड़का सम झते हैं. खुशी से राजी हो जाएंगे. लेकिन प्रदीप, क्या सच कहते हो या यह सब सपना है?’’

‘‘सपना?’’ प्रदीप उस के नजदीक आ गया. उसे आलिंगन में कस कर उस के होंठों पर अपने होंठ रख दिए. चाय पीने के बाद ही से रेखा पर अजीब सी मदहोशी छाने लगी थी. बदन में कामोत्तेजना सनसनाने लगी थी. चाहती थी, प्रदीप उसे आलिंगन में ले कर पीस डाले. 31 साल के एकाकी, शुष्क और पुरुषस्पर्श से वंचित उस के नारीत्व में बाढ़ सी आ गई. वह प्रदीप से लिपट गई. वह कब उसे भीतर के कमरे में ले गया, उसे पता ही न चला.

प्रदीप उसे रात 8 बजे घर पहुंचा गया था. उस समय तक प्रदीप के पिता घूम कर वापस नहीं लौटे थे, इसलिए उन से भेंट न हुई. प्रदीप ने रेखा के पिता के चाय पीने का अनुरोध नम्रतापूर्वक अस्वीकार करते कहा कि आज घूमतेफिरते कई बार चाय पी चुके हैं, सो माफ करें. रेखा ने रात को खाना नहीं खाया. शोभा से कह दिया कि उस ने भारी नाश्ता कर लिया है. असल में उस की आत्मा ऐसी तृप्त हो गई थी कि सिर्फ सो जाने का मन हो रहा था.

रातभर रेखा के बदन में मीठी टूटनभरी खुमारी छाई रही. पहली बार का यह पुरुष संसर्ग उसे एक ऐसे अद्भुत लोक में ले गया, जहां वसंत के सिवा कुछ नहीं होता. रातभर मीठे सपने आते रहे.

सुबह जागी तो बदन में मीठे दर्द के साथ ताजगी भी थी. नहाधो कर वह कार्यालय पहुंची. दिनभर उस का मन घबराता रहा और सोचती रही कि शायद अब प्रदीप न मिले.

लेकिन प्रदीप मिला. वह रोज की तरह रामलाल के साथ रुपए जमा करा कर साढ़े 9 बजे आई, तो वह चौराहे पर ही खड़ा था.

‘‘रेखा…’’

रेखा चौंक पड़ी. उस का मन खिल उठा. सामने प्रदीप था. वह धीरेधीरे उस के पास आई, तो वह बोला, ‘‘कैसी हो?’’

रेखा उस से आंखें मिलाने में शरमा रही थी. प्रदीप बोला, ‘‘आओ, मोटरसाइकिल पर बैठो.’’

‘‘घर सामने ही तो है,’’ रेखा बोली.

वह धीरे से बोला, ‘‘तुम्हारा असल घर तो वह है जहां हम अभी चलेंगे, रेखा रानी. आओ, बैठो.’’

रेखा रोमांचित हो उठी. मंत्रगुग्ध सी मोटरसाइकिल के पीछे आ बैठी. प्रदीप अपने घर की तरफ चल पड़ा. रेखा का बदन बारबार सिहर रहा था. प्रदीप उसे भीतर के कमरे की ओर ले चला, तो बोली, ‘‘तुम्हारे पिताजी?’’

‘‘आज वे भी शादी में चले गए हैं. सभी लोग 15-20 दिनों बाद लौटेंगे. मेरठ में हैं. हमें बिलकुल आजादी है.’’

रेखा के अंतर्मन में कुछ खटक रहा था. लेकिन वह भी अपने भीतर की प्यास बु झाने का लोभ रोक नहीं पाई. उस दिन भी दोनों पिछले दिन की तरह ही आनंद में डूबते चले गए.

तब से जैसे रोज का यह नियम बन गया. प्रदीप का घर ऐसी जगह पर था जहां आतेजाते पड़ोसियों की नजर नहीं पड़ती थी. रेखा भी अब पुरुष संसर्ग की आदी हो गई थी. वह बहुत संतुष्ट और प्रसन्न थी. एक दिन उस ने कहा, ‘‘प्रदीप, मान लो, कुछ गड़बड़ी हुई तो?’’

प्रदीप ने उसी दिन उसे घर पहुंचाते वक्त दवा की दुकान से गोलियों का एक पैकेट खरीद दिया, और बताया, ‘‘इस में से एक गोली रोज लेनी है, फिर तो निश्चिंत…’’

एक दिन रेखा औफिस जा रही थी कि प्रदीप अपनी मोटरसाइकिल पर तेजी से जाता हुआ दिखा. वह ठिठक गई. प्रदीप के पीछे एक गोरी, सुंदर सी लड़की बैठी हंसहंस कर उस से बातें करती जा रही थी. प्रदीप ने उसे नहीं देखा. मोटरसाइकिल तेजी से आगे बढ़ गई.

उस दिन रेखा से अपने काम में कई बार भूल हुई. मैनेजर जगतियानी ने  झल्ला कर कह दिया, ‘‘तबीयत ठीक नहीं है तो घर जा कर आराम करो.’’

रेखा ने यही उचित सम झा. वह घर आ गई. उस दिन वह जैसे अंगारों पर लोटती रही. शाम को वह चौराहे पर गई जहां बस रुकती थी और जहां उसे प्रदीप मिलता था. आज वह नहीं मिला. रेखा की वह रात जागते बीती. ईर्ष्या से वह जली जा रही थी. प्रदीप उसे धोखा दे रहा है क्या? यह तो रेखा से सच्चे प्रेम की बात कहता है और वह लड़की. कहां वह स्मार्ट, खूबसूरत यौवन से छलकती हुई नवयौवना, और कहां खुद रेखा. सपाट से बदन वाली असुंदर, अधेड़ कुमारी.

अगला दिन भी उसी तरह कांटों पर लोटते बीता. रात में वह घर के पास बस से उतरी, तो प्रदीप खड़ा मिला. रेखा ने तुरंत पूछा, ‘‘कल सवेरे तुम्हारे साथ वह कौन लड़की थी, प्रदीप?’’

‘‘लड़की?’’ प्रदीप ने पलभर सिर खुजलाया. हंस कर बोला, ‘‘ओह…याद आया…ललिता. हां, वह मेरी अपनी चचेरी बहन है, ललिता. मैं ने तुम्हें बताया तो था कि मेरे छोटे चाचाजी का घर यहीं है. कल ललिता का जन्मदिन था. उस ने मु झे भी निमंत्रण दे रखा था. सवेरे ही मेरे घर आई थी और मु झे कुछ खरीदारी के लिए अपने साथ बाजार ले गई थी. वहीं तुम ने देखा होगा. कल शाम को वहीं फंसा रहा था, तभी तो तुम से नहीं मिल पाया. क्या हुआ?’’

‘‘ओह.’’

प्रदीप मुसकराया, ‘‘तुम्हें कुछ गलतफहमी हो गई है क्या?’’

‘‘नहीं तो,’’ रेखा लज्जित हो कर बोली, लेकिन उस की आंखें कुछ और ही कह रही थीं.

प्रदीप हंस पड़ा. बोला, ‘‘रेखा, तुम निश्ंचत रहो. तुम्हारे सिवा मेरे जीवन में और कोई स्त्री न है, न रहेगी.’’

और वह उसे अपने घर ले गया. रेखा अब पुरुष संसर्ग की आदी हो चली थी. अकसर वह पूछती, ‘‘हम शादी कब करेंगे, प्रदीप? बहुत देर हो रही है…’’

प्रदीप कहता, ‘‘डार्लिंग, पिताजी ने पहले एक जगह मेरी शादी की बात चलाई थी. असल में, मेरी बड़ी बहन की शादी के लिए उन्होंने कर्ज लिया था और कर्ज पटाने के लिए उन लोगों की लड़की से मेरी शादी की बात तय कर दी थी. इस तरह वे लोग अपना रुपया छोड़ देते, अलग से दहेज भी दे रहे थे. लेकिन वह लड़की मु झे बिलकुल पसंद नहीं है. मैं ने इनकार कर दिया.’’

रेखा सन्न रह गई. बोली, ‘‘तुम्हारे पिताजी यदि तुम पर जोर दे कर…’’

‘‘नहीं, मैं ने साफ इनकार कर दिया है. लेकिन पिताजी का कहना है कि वे उन लोगों का कर्ज अपनी पैंशन से नहीं चुका सकेंगे, वे लोग हमारा घर नीलाम कराने की धमकियां दे रहे हैं.’’

रेखा ने सूखे गले से पूछा, ‘‘तब तुम क्या करोगे?’’

इसीलिए तो मैं नौकरी ढूंढ़ रहा हूं. मैं ने पिताजी से कह दिया है कि नौकरी कर के उन्हें हर महीने अपना वेतन देता रहूंगा और कर्ज पट जाएगा. लेकिन नौकरी मिले तब तो.’’

रेखा चिंता में पड़ गई थी. प्रदीप को यदि नौकरी न मिली, और कर्ज के दबाव में वह वहां शादी के लिए राजी हो गया, तो…

3 दिनों के बाद प्रदीप वहीं मिला, बस स्टौप पर. घबराया हुआ सा था. बोला, ‘‘डार्लिंग, कुछ जरूरी बातें करनी हैं. चलो…’’

वह उसे अपने घर नहीं, पास के एक रैस्तरां में ले गया. एक केबिन में बैठ कर सैंडविच और चाय का और्डर दिया और धीरेधीरे कहने लगा, ‘‘डार्लिंग, मैं आज तुम से विदा लेने आया हूं.’’

रेखा सन्न रह गई, ‘‘विदा लेने…’’

‘‘हां, बात बिगड़ गईर् है. लड़की वालों ने अपनी बेटी की शादी कहीं और तय कर दी है. यह तो मेरे सिर से एक बला टली, लेकिन अब वे लोग सख्ती से अपना रुपया मांग रहे हैं. पिताजी पर दबाव डाल रहे हैं. दबंग आदमी हैं, बड़ी विनतीचिरौरी करने पर 3 दिनों का समय दिया है. वरना घर नीलाम करा लेंगे.’’

‘‘तो?’’ सूखे गले से रेखा ने पूछा.

‘‘मैं ने सोचा है कि मैं कहीं भाग जाऊं. पिताजी उन लोगों पर मेरे अपहरण का केस दायर कर देंगे. यों वे हमारा घर नहीं ले सकेंगे. मामला चलेगा, और फिर देखा जाएगा. शायद मु झे बाहर नौकरी मिल जाए. तब सब ठीक हो जाएगा.’’

रेखा ने कांपते स्वर में पूछा, ‘‘फिर कब लौटोगे?’’

‘‘फिलहाल तो भागना ही पड़ेगा, लौटने का कुछ ठीक नहीं. शायद न भी लौटूं. नौकरी के बिना या रुपए की व्यवस्था के बिना लौटने पर तो अपहरण का केस भी टिक न सकेगा. इसलिए अलविदा.’’

रेखा चुप रही. उस के दिल में तूफान चल रहा था. इधर पुरुष सहवास का जो अनोखा आनंद उसे मिला था वह उस के लिए एक अनिवार्य नशा जैसा हो गया था. वह इतने सुख के दिन बिताने के बाद अब इसे हाथ से नहीं जाने देना चाहती थी. भागने के बाद प्रदीप का उस से शादी कर पाना मुश्किल हो जाएगा. न जाने कहांकहां छिपता फिरेगा. वह सोचने लगी कि क्या उस को फिर से अकेले जीवन गुजारना पड़ेगा? सवेरे से शाम तक सूखे रजिस्टरों, लेजरों में सिर खपा कर पैसे बैंक पहुंचाना, लौट कर थके शरीर से अकेली बिस्तर पर रात काट देना और सवेरे उठ कर फिर उसी एकरस दिनचर्या की तैयारी. उस का मन जैसे हाहाकार कर उठा. कांपते स्वर में बोली, ‘‘कितने पैसे देने हैं उसे?’’

‘‘ठीक से पता नहीं,’’ प्रदीप लापरवाही से बोला, ‘‘लेकिन पिछले साल तक यह 32 हजार रुपए के लगभग था. सूद की मोटी राशि जुड़ती रहती है. सो, अब 40 हजार रुपए से कम क्या होगा. लेकिन क्या फायदा इस गिनती से. न मैं यह जुटा सकता हूं न पिताजी. ये लोग इतने खूंखार हैं और कह चुके हैं कि 3 दिनों में रुपया न मिला तो मेरे हाथपैर तोड़ देंगे. मु झे तो भागना पड़ेगा ही.’’

रेखा कांप गई. इस बीच बैरे ने खाने का सामान ला कर रख दिया. रेखा ने उसे छुआ भी नहीं. बोली, ‘‘क्या तुम्हारे चाचाजी कुछ मदद नहीं करेंगे?’’

‘‘चाचा.’’ प्रदीप फीकी मुसकान से बोला, ‘‘वे तो उड़ाऊखाऊ आदमी हैं. उन के पास पैसा कहां. उन्हें इस साल ललिता की शादी भी करनी है. उस के लिए कर्ज लेने वाले हैं.’’

प्रदीप आगे बोला, ‘‘खाओ, चिंता मत करो. वही तरीका ठीक है कि मैं यहां से भाग जाऊं. यहीं से चला जाऊंगा. मोटरसाइकिल एक दोस्त के घर पर रख कर मैं स्टेशन चला जाऊंगा.’’

‘‘क्या पैसे की कुछ भी व्यवस्था नहीं कर सकते?’’ रेखा बोली, ‘‘मेरे पास 3 हजार रुपए हैं.’’

प्रदीप फीकी हंसी हंसा, ‘‘कभी शौक से मोटरसाइकिल ली थी. आज बेच दूं तो शायद 7-8 हजार रुपए मिलें. ये 10 हजार रुपए हुए. लेकिन 30 हजार रुपए का सवाल रह जाता है. नहीं भई, यों नहीं होगा. मु झे भागना पड़ेगा.’’

रेखा कुछ सोच कर बोली, ‘‘मैं रुपए की व्यवस्था कर दूं तो?’’

‘‘तुम?’’ प्रदीप चौंका, ‘‘तुम कहां से लाओगी 30 हजार रुपए?’’

‘‘मैं ला दूंगी.’’

‘‘क्या अपने पिताजी से मांगोगी? तब तो.’’

‘‘ उन से मतलब नहीं, और न उन के पास हैं. मैं इंतजाम कर दूंगी. मु झे जरा सोचने दो.’’

‘‘जरूर औफिस से लोन लोगी, लेकिन वे इतनी रकम दे देंगे? 3 दिनों में ही चाहिए.’’

‘‘मैं तुम्हें ला दूंगी रुपए, बस. फिर तो तुम्हें घर छोड़ने की जरूरत न होगी?’’

‘‘नहीं तो,’’ प्रदीप खुश हो कर बोला, ‘‘तब क्यों कहीं जाऊंगा. रुपए उन हरामियों को सूद समेत चुका कर निश्ंिचत हो जाएंगे हम लोग. फिर तो ठाट से हमारी शादी अगले लगन में ही पक्की सम झो.’’

‘‘क्या सच में?’’ रेखा उत्सुक हुई.

‘‘बिलकुल सच. तब बाधा ही क्या रहेगी भला. लेकिन मैं नहीं सम झ सकता कि कैसे.’’

‘‘छोड़ो. तुम ऐसा करना कि कल सवेरे ठीक साढ़े 9 बजे वहीं मिलना जहां बस खड़ी होती है.’’

रात में रेखा गंभीरता से विचार करती रही. रोज वह कंपनी का जो रुपया जमा कराती है, वह आजकल 30 हजार रुपए से ज्यादा ही होता है. दीवाली नजदीक है, बसों में भीड़ होने लगी है.

2 दिनों बाद भीड़ और बढ़ जाएगी. उसे वही रुपया हथियाना होगा. कंपनी बहुत बड़ी है और रोज इतना रुपया जमा होता है. एक दिन की आमदनी यदि न भी जमा हो तो क्या फर्क पड़ता है.

रेखा के जीवन का सवाल है. 8 साल से उस ने यहां मेहनत की है. वेतन सिर्फ

3 हजार रुपए मिलता है, जबकि रेखा 2-3 लोगों के बराबर काम अकेली कर देती है. अकाउंटैंसी, फाइलिंग, कौरेस्पौंडेंस, रुपए जमा कराना. उस के परिश्रम से कंपनी को लाखों रुपए का लाभ होता रहता है. क्या उसे 8 साल के कुछ बोनस का अधिकार नहीं? कंपनी को तो चाहिए कि उसे कम से कम 4 हजार रुपए वेतन दे. इसी बहाने वह अपना घाटा भी पूरा कर लेगी. इस में कुछ दोष या पाप बिलकुल नहीं. रेखा का जीवन बनेगा, एक परिवार का बचाव होगा, और कंपनी का कुछ खास नहीं बिगड़ेगा.

रातभर वह इसी उधेड़बुन में रही. सवाल केवल रामलाल का था. उस सीधे आदमी को आसानी से उल्लू बनाया जा सकता है. उस ने एक उपाय सोचा.

सवेरे देर से जागी. उस का मुर झाया चेहरा देख कर शोभा ने पूछा, ‘‘क्या तबीयत खराब है?’’ उसे टाल कर वह समय पर औफिस के लिए चल दी. साढ़े 9 बजे बसस्टौप पर प्रदीप पहले से मौजूद था.

रेखा ने कहा, ‘‘मेरे साथ थोड़ी दूर तक टहलने चलो. राह में बातें करेंगे.’’

चलते हुए उस ने प्रदीप को धीरेधीरे अपनी योजना बतानी शुरू की. फिर कहा, ‘‘बैंक और उस चाय की दुकान को तो जानते ही हो. चाय की दुकान और बैंक के बीच नीम का एक बड़ा मोटा सा पेड़ है. रात में वह सड़क सूनी रहती है. बैंक के पास 1-2 दुकानें हैं, जिन की रोशनी वहां तक आती है. पेड़ से बैंक का फासला मुश्किल से सौडेढ़सौ कदम होगा. तुम पेड़ के पीछे रहना. और जो सम झाया है, वही करना. हां, वह चीज आज मु झे किसी तरह औफिस में दे देना.’’

‘‘कुछ मुश्किल नहीं,’’ प्रदीप बोला, ‘‘मैं पेड़ के पास रहूंगा. मोटरसाइकिल भी है. ठीक से चेक किए रखूंगा. वह चीज तुम्हें आज किसी के हाथों पहुंचा दूंगा.’’

‘‘तुम खुद औफिस क्यों नहीं आते? तुम्हें कौन जानता है वहां?’’

‘‘असल में, मु झे दिन में कुछ जरूरी काम है, डार्लिंग. लेकिन, मैं पहुंचा दूंगा, तुम निश्चिंत रहो.’’

रेखा को उस दिन भी उखड़े मूड में काम करते देख जगतियानी ने पूछा, ‘‘क्या आज भी तबीयत खराब है, रेखा? तब तो भई, घर जा कर…’’

‘‘नहीं सर, बस यों ही.’’ वह चुस्ती दिखाती हुई काम करने लगी. हिसाब निबटाते हुए दिमाग उस तरफ लगा था जो प्रदीप को सम झाया था. अब होथियारी रखनी है.

12 बजे छोकरे से उस ने चाय मंगवाई. चाय आईर् ही थी कि एक बाहरी लड़के ने आ कर कहा, ‘‘आप रेखाजी हैं?’’

‘‘हां,’’ वह सतर्क हुई, ‘‘क्या बात है?’’

‘‘यह लीजिए,’’ लड़के ने उसे एक पुडि़या दी और तुरंत लौट गया. मैनेजर 2-3 लोगों से बातें कर रहा था. अपनी जगह से ही पूछा, ‘‘क्या बात है? कौन छोकरा….’’

‘‘किसी रमेश के बारे में पूछ रहा था, सर,’’ उसे विश्वास था जगतियानी ने पुडि़या लेते देखा नहीं है, ‘‘मैं ने कह दिया यहां कोई रमेश नहीं रहता.’’

धीरे से पुडि़या मुट्ठी में दबा कर वह बाथरूम चली गई. वहां उसे खोला, 2 सफेद गोलियां थीं. पुडि़या ठीक से लपेट कर ब्रा में छिपा ली और निकल आई.

समय बीत नहीं रहा था. किसी तरह साढ़े 8 बजे. नोट गिने गए. आज तो पूरे 38 हजार 3 सौै रुपए हुए. रजिस्टर पर हिसाब चढ़ा कर रुपयों को बैग में रख कर वह रामलाल के साथ निकल गई.

रेखा का मन कांप रहा था. उसे हलका पसीना आने लगा था. वह पहली बार ऐसा काम करने जा रही थी, जो उसे वर्षों के लिए जेल भिजवा सकता था. नौकरी तो जाती ही. लेकिन जिंदगी में ऐसे भी क्षण आते हैं जब आदमी जुआ खेलने को मजबूर हो जाता है.

अब पीछे कदम हटाना कठिन था.

बसअड्डे पर चाय और पान की दुकानें थीं, किंतु रेखा थोड़ा आगे वाली दुकान पर बैंक से लौटते वक्त रोज चाय पीती थी. वहां पहुंची तो बोली, ‘‘भई रामलाल, आज मेरे सिर में दर्द है. अभी चाय पीते चलें, अभी टाइम है.’’

रामलाल आसानी से मान गया, ‘‘चलो बिटिया, मु झे भी भूख लगी है. एकाध बिस्कुट भी ले लेना.’’

वे चायखाने में आए तो 2-3 लोग ही थे. रेखा ने जल्दी 2 चाय लाने को कहा. चाय तुरंत आ गई. वह रामलाल से बोली, ‘‘खुद ही जा कर बिस्कुट ले लो. नौकर गंदे हाथ से निकालता है.’’

रेखा ने कोने की जगह चुनी थी. रामलाल बिस्कुट लाने काउंटर की ओर गया तो उस ने वे गोलियां निकाल कर चाय में डाल दीं. ऐसा करते उसे किसी ने नहीं देखा. बिस्कुट ले कर रामलाल लौटा तो बोली, ‘‘जल्दी करो.’’

रामलाल ने बिस्कुट खा कर जल्दी से चाय पी ली. पैसे चुका कर रेखा चली तो बैंक बंद होने में कुल 7 मिनट बाकी थे. थोड़ी दूर आगे बैंक था. चायखाने के आगे कुछ बढ़ कर नीम का वह पेड़ था. रेखा ने गौर से देखा. उधर कोई था.

रामलाल ने कहा, ‘‘बिटिया, मेरा सिर चकरा रहा है.’’

‘‘खाली पेट थे, सो, गैस चढ़ी होगी,’’ रेखा बोली.

कांपते गले से रामलाल बोला, ‘‘हाथपैर सनसना रहे हैं, बिटिया. मु झे तो नींद आने लगी है.’’

‘‘कोईर् बात नहीं, अभी बैंक पहुंचते हैं. आराम कर लेना, ठीक हो जाओगे.’’

पेड़ के पास पहुंचने के लिए उस का कलेजा उछल रहा था. जैसे ही वे पेड़ के नीचे आए. उस के पीछे से कोई उछल कर निकला और रामलाल के सिर पर किसी चीज से चोट की. रामलाल लड़खड़ा कर गिर पड़ा. वह आदमी रेखा की ओर  झपटा, उस ने देख लिया प्रदीप था. कुछ कहने ही वाली थी कि प्रदीप ने  झटके के साथ उस के कंधे से बैग ले लिया और भिंचे गले से बोला, ‘‘धन्यवाद.’’

रेखा हतबुद्धि थी. उसे खुद बैग प्रदीप को देना था, लेकिन यह गुंडों, अपराधियों की तरह छीन लेना. उस ने कुछ कहने के लिए मुंह खोला कि प्रदीप के पीछे खड़ी मोटरसाइकिल पर उस की नजर पड़ी पिछली सीट पर एक लड़की. रेखा ने पलक मारते उसे पहचान लिया. वही लड़की, जिसे प्रदीप ने अपनी चचेरी बहन बताया था. तब तक प्रदीप ने बैग उस लड़की को थमा दिया, और पीछे मुड़ा, ‘‘अब.’’

पलक  झपकते उस का हाथ उठा, रेखा को पता नहीं चला कि किस चीज से उस पर जोरदार चोट की गई है. उस की आंखों के आगे सितारे नाच उठे, वह नीचे गिर पड़ी.

उसे होश आया तो औफिस में बैंच पर लेटी थी. मैनेजर जगतियानी वहीं खड़ा था. उस के चेहरे पर हवाइयां उड़ रही थीं. नीचे चटाई पर रामलाल पड़ा हुआ था. उस के माथे पर पट्टी थी और डाक्टर उसे इंजैक्शन दे रहा था. रेखा का सिर फोड़े की तरह दुख रहा था. टटोला, माथे पर पट्टी लपेटी हुई थी.

‘‘क…क्या हुआ?’’ रेखा ने कमजोर आवाज में पूछा.

हाथ मलता जगतियानी बोला, ‘‘रास्ते में बदमाशों ने तुम लोगों पर हमला कर रुपए छीन लिए, और क्या. ताज्जुब तो है, रामलाल 5-6 पर भारी पड़ता है, लेकिन यह भी मार खा गया. पुलिस को फोन किया है मैं ने.’’

‘‘सब रुपए ले गए?’’

‘‘सब. यह दूसरी बार कंपनी को चूना लगा है. 2 साल पहले की बात तुम्हें याद होगी. जब दि प्रीमियर ट्रांसपोर्ट कंपनी के मैनेजर के नाम से किसी ने  झूठा फोन किया था. जब मैं 4 दिनों की छुट्टी पर गया था और मेरा असिस्टैंट मेरा काम संभाल रहा था. उस बदमाश ने  झूठा फोन किया, और जाली हुंडी मैनेजर के नकली दस्तखत बना कर ले आया था और नकद 10 हजार रुपए ले गया था. यह काम प्रीमियर ट्रांसपोर्ट के ही एक आदमी अजीत का था. पुलिस ने जांचपड़ताल की तो उसी का नाम सामने आया था लेकिन, सुबूत की कमी से वह छूट गया था. मैं छुट्टी के बीच से ही दौड़ा आया था. तुम्हें याद होगा. मैं ने उस पाजी को कोर्ट में अच्छी तरह देखा था. मामूली सूरत बदल कर उस ने जाली हुंडी से पैसे लिए और मेरे असिस्टैंट ने रुपए दे भी दिए. प्रीमियर वालों ने अजीत को नौकरी से निकाल दिया है. वह कभीकभी शहर में घूमता दिखाई देता है. मोटरसाइकिल पर घूमता है बदमाश. तुम ने शायद उसे न देखा हो. माथे पर कटे का निशान है और एक दांत आधा टूटा हुआ…’’

प्रदीप का हुलिया सुन कर रेखा का माथा घूम गया.

डाक्टर बोला, ‘‘दवाएं लिख देता हूं, मिस्टर जगतियानी.’’

डाक्टर के जाने के बाद जगतियानी ने बताया, ‘‘चाय की दुकान वाला तो बताता है कि रात में उसे मोटरसाइकिल स्टार्ट होने की आवाज सुनाई दी थी. यह काम भी उसी बदमाश का हो सकता है. अब तो पुलिस ही पता लगाएगी, आने दो.’’

रेखा का दिमाग ही सुन्न हो रहा था. प्रदीप…अजीत उस लड़की के साथ रुपए ले कर चंपत हो गया. उसे उल्लू बना गया. वह मैनेजर को कुछ नहीं बता सकती. उस की अपनी इज्जत और नौकरी का सवाल है. जो सोचा था सब उलटा हो गया. जिंदगी में हवा के  झोंके की तरह आए सुख के ये चार सुनहरे दिन चले गए. उन दिनों की बहुत बड़ी कीमत ले गया है वह.

Story For Girls – रफू की हुई ओढ़नी: क्या हुआ था मेघा के साथ

Story For Girls : एक बार फिर गांव की ओढ़नी ने शहर में परचम लहराने की ठान ली. गांव के स्कूल में 12वीं तक पढ़ी मेघा का जब इंजीनियरिंग में चयन हुआ तो घर भर में खुशी की लहर दौड़ गई थी. देश के प्रतिष्ठित प्रतिष्ठान में ऐडमिशन मिलना कोई कम बड़ी बात है क्या?

“लेकिन यह ओढ़नी शहर के आकाश में लहराना नहीं जानती, कहीं झाड़कांटों में उलझ कर फट गई तो?”

“हवाओं को तय करने दो. इस के बंधन खोल कर इसे आजाद कर दो, देखें अटती है या फटती है…”

“लेकिन एक बार फटने के बाद क्या? फिर से सिलना आसान है क्या? और अगर सिल भी गई तो रहीमजी वाले प्रेम के धागे की तरह क्या जोड़ दिखेगा नहीं? जबजब दिखेगा तबतब क्या सालेगा नहीं?”

“तो क्या किया जाए? कटने से बचाने के लिए क्या पतंग को उड़ाना छोड़ दें?”

न जाने कितनी ही चर्चाएं थीं जो इन दिनों गांव की चौपाल पर चलती थी.

सब के अपनेअपने मत थे. कोई मेघा के पक्ष में तो कोई उस के खिलाफ. हरकोई चाहता तो था कि मेघा को उड़ने के लिए आकाश मिले लेकिन यह भी कि उस आकाश में बाज न उड़ रहे हों. अब भला यह कैसे संभव है कि रसगुल्ला तो खाएं लेकिन चाशनी में हाथ न डूबें.

“संभव तो यह भी है कि रसगुल्ले को कांटे से उठा कर खाया जाए.”

कोई मेघा की नकल कर हंसता. मेघा भी इसी तरह अटपटे सवालों के चटपटे जवाब देने वाली लड़की है. हर मुश्किल का हल बिना घबराए या हड़बड़ाए निकालने वाली. कभी ओढ़नी फट भी गई ना, तो इतनी सफाई से रफू करेगी कि किसी को आभास तक नहीं होगा. मेघा के बारे में सब का यही खयाल था.

लेकिन न जाने क्यों, खुद मेघा को अपने ऊपर भरोसा नहीं हो पा रहा था पर आसमान नापने के लिए पर तो खोलने ही पडते हैं ना… मेघा भी अब उड़ान के लिए तैयार हो चुकी थी.

मेघा कालेज के कैंपस में चाचा के साथ घुसी तो लाज के मारे जमीन में गड़ गई. चाचाभतीजी दोनों एकदूसरे से निगाहें चुराते आगे बढ़ रहे थे. मेघा को लगा मानों कई जोड़ी आंखें उस के दुपट्टे पर टंक गई है. उस ने अपने कुरते के ढलते कंधे को दुरुस्त किया और सहमी सी चाचा के पीछे हो ली.

इस बीच मेघा ने जरा सा निगाह ऊपर उठा कर इधरउधर देखने की कोशिश की लेकिन आंखें कई टखनों से होती हुईं खुली जांघ तक का सफर तय कर के वापस उस तक लौट आईं.

उस ने अपने स्मार्टफोन की तरफ देखा जो खुद उस की तरह ही किसी भी कोण से स्मार्ट नहीं लग रहा था. हर तीसरे हाथ में पकड़ा हुआ कटे सेब के निशान वाला फोन उसे अपने डब्बे को पर्स में छिपाने की सलाह दे रहा था जिसे उस ने बिना किसी प्रतिरोध के स्वीकार कर लिया था.

कालेज की औपचारिकताएं पूरी करने और होस्टल में कमरा अलौट होने की तसल्ली करने के बाद चाचा उसे भविष्य के लिए शुभकामनाएं दे कर वापस लौट गए. अब मेघा को अपना भविष्य खुद ही बनाना था। गंवई पसीने की खुशबू को शहर के परफ्यूम में घोलने का सपना उसे अपने दम पर ही पूरा करना था.

कालेज का पहला दिन. मेघा बड़े मन से तैयार हुई. लेकिन कहां जानती थी कि जिस ड्रैस को उस के कस्बे में नए जमाने की मौडर्न ड्रैस कह कर उसे आधुनिका का तमगा दिया जाता था वही कुरता और प्लाजो यहां उसे बहनजी का उपनाम दिला देंगे. मेघा आंसू पी कर रह गई. लेकिन सिलसिला यहीं नहीं थमा था.

उस के बालों में लगे नारियल तेल की महक, हर कुरते के साथ दुपट्टा रखने की आदत, पांवों में पहनी हुई चप्पलें आदि उसे भीड़ से अलग करते थे. और तो और खाने की टेबल पर भी सब उसे चम्मच की बजाय हाथ से चावल खाते हुए कनखियों से देख कर हंसा करते थे.

“आदिमानव…” किसी ने जब पीछे से विशेषण उछाला तो मेघा को समझते देर नहीं लगी कि यह उसी के लिए है.

“यह सब बाहरी दिखावा है मेघा। तुम्हें इस में नहीं उलझना है,” स्टेशन पर ट्रैन में बैठाते समय पिता ने यही तो सीख की पोटली बांध कर उस के कंधे पर धरी थी.

‘पोटली तो भारी नहीं थी, फिर कंधे क्यों दुखने लगे?’ मेघा सोचने लगी.

हर छात्र की तरह मेघा का सामना भी सीनियर छात्रों द्वारा ली जाने वाली रैगिंग से हुआ. होस्टल के एक कमरे में जब नई आई लड़कियों को रेवड़ की तरह भरा जा रहा था तब मेघा का गला सूखने लगा.

“तो क्या किया जाए इस नई मुरगी के साथ?” छात्राओं से घिरी मेघा ने सुना तो कई बार देखी गई फिल्म ‘थ्री इडियट’ से कौपी आईडिया और डायलौग न जाने तालू के कौन से कोने में हिस्से में चिपक गए.

“भई, दुपट्टे बड़े प्यारे होते हैं इस के. चलो रानी, दुपट्टे से जुड़े कुछ गीतों पर नाच के दिखा दो. और हां, डांस प्योर देसी हो समझी?” गैंग की लीडर ने कहा तो मेघा जड़ सी हो गई.

एक सीनियर ने बांह पकड़ कर उसे बीच में धकेल दिया. मेघा के पांव फिर भी नहीं चले.

“देखो रानी, जब तक नाचोगी नहीं, जाओगी नहीं. खड़ी रहो रात भर,” धमकी सुन कर मेघा ने निगाहें ऊपर उठाईं.

“ओह, कहां फंसा दिया,” मेघा की आंखों में बेबसी ठहर गई.

‘अब घूमर के अलावा कोई बचाव नहीं,’ सोच कर मेघा ने अपने चिंदीचिंदी आत्मविश्वास को समेटा और अपने दुपट्टे को गले से उतार कर कमर पर बांध लिया.

‘हवा में उड़ता जाए, मेरा लाल दुपट्टा मलमल का…’, ‘इन्हीं लोगों ने ले लीन्हा दुपट्टा मेरा…’, ‘लाल दुपट्टा उड़ गया रे बैरी हवा के झौंके से…’ जैसे कई फिल्मी गीतों पर मेघा ने घूमर नाच किया तो सब के मुंह उस के मिक्स ऐंड मैच को देख कर खुले के खुले रह गए. फिरकी की तरह घूमती उस की देह खुद चकरी हो गई थी.

लड़कियां उत्तेजित हो कर सीटियां  बजाने लगीं. उस के बाद वह ‘घूमर वाली लड़की’ के नाम से जानी जाने लगी.

मेघा किसी तरह नई मिट्टी में जड़ें जमाने की कोशिश कर रही थी लेकिन जब भी वह होस्टल में लड़कियों को गहरे गले और बिना बांहों वाली छोटी सी बनियाननुमा ड्रैस पहने बेफिक्री से घूमते देखती तो उसे अपना पूरी आस्तीन का कुरता रजाई सा लपेटा हुआ लगता.

मेघा की हालत त्रिशंकु सी हो गई. न तो उस से अपने संस्कार छोड़ते बनता और ना ही नए तौरतरीके अपनाते बन रहा था. फिर उस ने खुद को बदलने का निश्चय किया.

अब सवाल यह है वह अपनेआप को माहौल के अनुसार बदल भी ले लेकिन कोई उस की मदद करे तो सही, यहां तो कोई उसे दोस्त बनाने के लिए राजी ही नहीं था.

सब से आखिरी बेंच पर बैठने वाली मेघा ने अपनी तरफ से लाख कोशिश कर देखी लेकिन ऐसा लग रहा था जैसे जमीन पौधे को स्वीकार ही नहीं कर रही, पौधा था कि पनप ही नहीं रहा था.

इसी तरह पहले सेमेस्टर के टर्म पेपर आ गए. मेघा ने अपनी जान झौंक दी. नतीजा आया तो पहले नंबर पर मेघा का नाम देख कर सब की निगाहें क्लास में पीछे बैठी आदिमानव सी लड़की की तरफ उठ गई. प्रोफैसर ने उस का नाम ले कर पुकारा तो संकोच से भरी मेघा के कदम जमीन में धंस से गए.

मेघा को लगा जैसेकि अब उस के दिन बदल जाएंगे और हुआ भी यही. प्रोफैसर उसे नाम से जानने लगे. बहुत से लड़केलड़कियों ने उस से मोबाइल नंबर ऐक्सचैंज किए. कुछ से बातचीत भी होने लगी लेकिन इतना सब होने के बाद भी मेघा अकेली की अकेली ही रही.

लाइम लाइट में आने के बाद भी उस का आत्मविश्वास नहीं लौटा. उसे सब का व्यवहार चीनी चढ़ी कुनैन सा लगता. एकदम बनावटी क्योंकि अब भी लोग उसे शाम को होने वाली चाय पार्टी का हिस्सा नहीं बनाते थे. हां, अपनी रूममैट विधि से अवश्य उस की पटने लगी थी.

विधि ने उस के बाहरी पहनावे को थोड़ा सा बदल दिया. उस की लंबी चोटी अब स्टैप्स में कट गई थी. बालों के तेल की जगह जैल ने ले ली. सलवारकमीज की जगह अलमारी में जींसकुरती आ गई लेकिन हां, अब भी वह बनियान पहन कर होस्टल में नहीं घूम पाती थी. उसे नंगानंगा सा लगता था.

सब कुछ पटरी पर आ ही रहा था कि उस की जिंदगी को और अधिक आसान बनाने आ गया था विनोद. जितनी आधुनिक मेघा, उतना ही विनोद. फर्क बस इतना ही था कि मेघा राजस्थान के गांव से थी तो विनोद बिहार के गांव से. दोनों ही सकुचेसहमे और दिल्ली की तेज रोशनी से चुंधियाए हुए. मेघा को विनोद के साथ बहुत सहज लगता था. उस के साथ खाया लिट्टीचोखा उसे दालबाटी सा आनंद देता था. कभीकभी जब वह लंबा आलाप ले कर देसी तान छेड़ता तो मेघा का मन घूमर डालने को मचलने लगता.

परदेस में कोई अपनी सी फितरत का मिल जाए तो अपना सा ही लगने लगता है. मेघा को भी विनोद अपना ही अक्स लगने लगा. क्लास से ले कर कनाट प्लेस तक दोनों साथसाथ देखे जाने लगे. यह अलग बात है कि कनाट प्लेस जाने का मकसद दोनों का एक ही होता था. नए फैशन को आंखें फाड़फाड़ कर देखना और फिर उसे जीभर कोसना. दोनों को ही इस में आत्मिक तृप्ति सी मिलती थी गोया अपने स्टाइल को बेहतर साबित करने का यह भी एक तरीका हो.

घूमतेफिरते दिल्ली के ट्रैफिक से घबराए दोनों एकदूसरे का हाथ थाम कर सड़क क्रौस किया करते थे. हालांकि विनोद ने कभी इकरार तो नहीं किया लेकिन प्यार से हाथ पकड़ने को मेघा प्यार ही समझ बैठी.

‘मेरी ही तरह छोटी जगह से है ना बड़ी बातें नहीं बना पाता होगा’, मेघा उस के हाथ में अपना हाथ देख कर सपने बुनने लगती.

इधर पिछले कुछ दिनों से मेघा को विनोद पर भी नए रंग का असर दिखाई दे रहा था.

उस दिन बारिश के बाद जब दोनों कैंपस के बाहर लगे ठेले पर मक्के का भुट्टा खा रहे थे तो अचानक मेघा को विनोद के मुंह से अप्रिय सी गंध आई.

“विनोद, पी है क्या?” मेघा ने अपने वहम को यकीन में बदलने के खयाल से पूछा.

“ना, चखी है,” कहने के साथ ही उस के अंदाज की बेशर्मी मेघा को खल गई. उस ने आधा खाया भुट्टा डस्टबिन में फेंका और मुड़ गई. विनोद उसे जाते हुए देखता रहा लेकिन रोकने की कोशिश नहीं की. कौन जाने, हिम्मत ही ना हुई हो.

धीरेधीरे विनोद शहर के रंगों में डूबने लगा. इतना कि खुद अपना असली रंग खो दिया. रंगीनियत तो मेघा पर भी तारी थी लेकिन अभी तक उस की अपनी देसी रंगत बरकरार थी. शायद ये देसीपना संस्कार बन कर उस के भीतर जड़ें जमा चुका था. विनोद में ये जड़ें जरा कमजोर रह गई होंगी.

विनोद को यों पटरी से उतरते देख कर मेघा का दिल बहुत उदास हो जाता लेकिन वह कुछ कर नहीं पा रही थी. हालांकि उनका मिलनाजुलना अब भी जारी था लेकिन अब उस में पहले वाली गुनगुनाहट नहीं बची थी फिर भी मेघा को कभीकभी लगता था जैसेकि दोस्तों को यदि दोस्त ही गड्ढे में गिराते हैं तो उन्हें गिरने से बचाने की जिम्मेदारी भी दोस्तों की ही होती है. फिर वह तो प्यार करने लगी थी उस से. कौन जाने यह रिश्ता रिश्तेदारी में ही बदल जाए. इस नाते तो उस की जिम्मेदारी दोहरी हो जाती है.

 

“तुम्हें भी शहर की हवा लग गई लगती है,” एक रोज मेघा ने सिगरेट के छल्ले उड़ाते विनोद से पूछा.

“जैसा देस, वैसा भेष,” विनोद ने एक हिंदी फिल्म का नाम लिया और हंस दिया.

“बिना भेष बदले क्या उस देस में रहने नहीं दिया जाता?” मेघा ने फिर पूछा जिस का जवाब विनोद को नहीं सूझा. वह चुपचाप नाक से धुआं खींचता मुंह से निकालता रहा.

मेघा चाह तो रही थी कि उस के हाथ से सिगरेट खींच ले लेकिन किस अधिकार से? बेशक विनोद के प्रति उस की कोमल भावनाएं हैं लेकिन इकतरफा भावनाओं की क्या अहमियत. मेघा पराजित सी खड़ी थी.

कुछ खास मौके ऐसे होते हैं जो महानगरों में बड़े शोरशराबे के साथ मनाए जाते हैं, वही छोटे शहर के लोग इन्हें हसरत के साथ ताका करते हैं. वैलेंटाइन डे भी ऐसा ही खास दिन है जिस का युवा दिलों को सालभर से इंतजार रहता है. मेघा भी बहुत उत्साहित थी कि उसे भी यह सुनहरा मौका मिला है जब वह प्रत्यक्ष रूप से इस अवसर की साक्षी बनने वाली है. अन्य लड़कियों की तरह वह गुलाब इकट्ठे करने वाली भीड़ का हिस्सा तो नहीं बन रही थी लेकिन एक गुलाब की प्रतीक्षा तो उसे भी थी ही.

प्रेम दिवस पर पूरे कालेज में गहमागहमी थी. लड़कियां बड़े मनोयोग से सजीसंवरी थी तो लड़के भी कुछ कम नहीं थे. किसी के हाथ में गुलाब तो किसी के पास चौकलेट, कोई टैडीबीयर हाथ में थामे था तो कोई मंदमंद मुसकान के साथ कार्ड में लिखे जज्बात पढ़ रहा था.

कोई जोड़ा कहीं किसी कैंटीन में सटा बैठा था तो कोई किसी कार की पिछली सीट पर प्रेमालाप में मगन था. कुछ जोड़े मोटरसाइकिल पर ऐसे चिपक कर घूम रहे थे कि मेघा को झुरझुरी सी हो आई. मेघा की आंखें ये नजारे देखदेख कर चकाचौंध हुई जा रही थी.

सुबह से दोपहर होने को आई लेकिन विनोद का कहीं अतापता नहीं था.

‘मेरे लिए गुलाब या गिफ्ट लेने गया होगा,’ से ले कर ‘पता नहीं कहां चला गया’ तक के भाव आ कर चले गए. लेकिन नहीं आया तो केवल विनोद.

‘क्यों न चल कर मैं ही मिल लूं,” सोचते हुए मेघा ने कालेज के बाहर अस्थाई रूप से लगी फूलों की दुकान से पीला गुलाब खरीदा और विनोद की तलाश में डिपार्टमैंट की तरफ चल दी.

“अभीअभी विनय के साथ निकला है,” किसी ने बताया.

विनय उन दोनों का कौमन फ्रैंड है. असाइनमैंट बनाने के चक्कर में तीनों कई बार विनय के कमरे पर मिल चुके हैं. मेघा सोच में पड़ गई.

‘क्या किया जाए, इंतजार या फिर विनय के कमरे पर धावा…’ आखिर मेघा ने विनोद को सरप्राइज देना तय किया और विनय के रूम पर जाने के लिए औटो में बैठ गई.

दिल उछल कर बाहर आने की कोशिश में था. औटो की खड़खड़ भी धड़कनों के शोर को दबा नहीं पा रही थी. पीला गुलाब उस ने बहुत सावधानी के साथ पकड़ा हुआ था. कहीं हवा के झोंके से पंखुड़ियां क्षतिग्रस्त न हो जाएं. आज वह जो करने जा रही है वह उस ने कभी सोचा तक नहीं था.

‘पता नहीं मुझे यह करना चाहिए या नहीं. कहीं विनोद इसे गलत न समझ ले. मेरा यह अतिआधुनिक रूप कहीं विनोद को ना भाया तो?’ ऐसे कितने ही प्रश्न थे जो मेघा को 2 कदम आगे और 4 कदम पीछे धकेल रहे थे.

ऊहापोह में घिरी मेघा के हाथ कमरे के बाहर लगी घंटी के बटन की तरफ बढ़ गए. तभी अचानक भीतर से आ रही आवाजों ने उसे ठिठकने को मजबूर कर दिया.

“अरे यार, आज तूने किसी को कोई लाल गुलाब नहीं दिया,” विनय के प्रश्न का जवाब सुनने के लिए मेघा अधीर हुई जा रही थी. अपने नाम का जिक्र सुनने की प्रतीक्षा उस की आंखों में लाली सी उतर आई. उस ने कान दरवाजे से सटा दिए.

“कोई जमी ही नहीं. सानिया पर दिल आया था लेकिन उसे तो कोई और ले उड़ा,” विनोद का जवाब सुन कर मेघा को यकीन नहीं हुआ.

“सानिया? वह तो तेरेमेरे जैसों को घास भी ना डाले,” विनोद ने ठहाका लगाया.

“मैं तो मेघा के बारे में बात कर रहा था. तुम दोनों की तो खूब घुटती थी ना, इसीलिए मैंने अंदाजा लगाया,” विनय ने आगे कहा.

उस के मुंह से अपना जिक्र सुन कर मेघा फिर से उत्सुक हुई.

“कौन? वह गांवड़ी? अरे नहीं यार, यहां आ कर भी अपने लिए कोई गांवड़ी ही ढूंढ़ी तो फिर क्या खाक तीर मारा,” विनोद ने लापरवाही से कहा तो मेघा के कान सुन्न से हो गए. उसे यकीन नहीं हो रहा था कि जो उस ने सुना वह सच है.

उस ने एक निगाह अपने हाथ में सहेजे पीले गुलाब पर डाली. फूल भी उसे अपने किरदार सा बेरौनक लगा. मेघा वापस मुड़ गई.

‘दिल टूटा क्या?’ कोई भीतर से कुनमुनाया.

‘ना रे, बिलकुल भी नहीं. मेरा दिल इतना कमजोर थोड़ी है. वैसे भी मैं यहां दिल तोड़ने या जोड़ने नहीं आई हूं,’ अपने भीतर को जवाब दे कर वह जोर से खिलखिलाई और फिर अपना दुपट्टा हवा में लहरा दिया.

मेघा हंसतेहंसते बुदबुदा रही थी,’गांवड़ी।’

औटो में बैठी मेघा ने 1-2 बार पीले गुलाब को खुद ही सूंघा और फिर उसे औटो में ही छोड़ कर नीचे उतर गई.

फटी ओढ़नी बहुत नफासत के साथ रफू हो गई थी.

Love At First Sight- लाल फ्रेम: जब पहली नजर में दिया से हुआ प्रियांक को प्यार

कार पार्क कर के प्रियांक तेज कदमों से इधरउधर कुछ ढूंढ़ता हुआ औफिस की लिफ्ट की तरफ बढ़ गया.  कहीं वह लाल फ्रेम के चश्मे वाली स्मार्ट सुंदरी पहले चली तो नहीं गई. लिफ्ट का दरवाजा खुला मिल गया, वह सोच ही रहा था कि अंदर घुसूं या नहीं, तभी चिरपरिचित सुगंध के झोंके के साथ वह युवती लिफ्ट में प्रवेश कर गई तो वह भी यंत्रवत अंदर चला आया. अब तो रोज ही का कुछ ऐसा किस्सा था. नजरें मिलतीं, फिर दोनों दूसरी ओर देखने लगते. धीरेधीरे वे एकदूसरे को पहचानने लगे तो देख कर अब स्माइल भी करने लगे. युवती 10वीं मंजिल पर जाती तो 11वीं मंजिल पर उतर कर उस के साथ के खुशनुमा एहसासों को समेटे ऊर्जावान हुआ प्रियांक दोगुने उत्साह से सीढि़यां उतरता तीसरी मंजिल पर स्थित अपने औफिस में गुनगुनाते हुए पहुंच जाता.

‘ला ल ला हूम् हूम् ल ला…चलो, अच्छा हुआ उसे आज भी नहीं पता चला कि मैं सिर्फ उस का साथ पाने के लिए ही 11वीं मंजिल तक जाता हूं. उस के लाल फ्रेम ने तो मेरे दिल को ही फ्रेम कर लिया है…’ अपनी धुन में सोचता प्रियांक फिसलतेफिसलते बचा.

‘‘अरे भाई, संभल के, प्रियांक, क्या बात है, बड़ा खुश नजर आ रहा है. कहीं किसी से प्यार तो नहीं हो गया…. और यह बता ऊपर से कहां से आ रहा है? कई बार पहले भी तुम्हें ऊपर सीढि़यों से आते देखा, लेकिन पूछना भूल जाता हूं.’’

‘‘कुछ ऐसा ही समझ लो प्यारे,’’ प्रियांक ने मस्ती में जवाब दिया.

‘‘वाह भई वाह, मुबारक हो, मुबारक हो…अब कौन है, क्या नाम है ये भी तो बता दो प्यारे.’’

‘‘अरे ठहर भई, सब यहीं पूछ लेगा, कैंटीन में बात करते हैं. वैसे, इस से ज्यादा मुझे भी कुछ नहीं पता, बस,’’ कह कर प्रियांक मुसकराया.

जिस दिन वह युवती नहीं मिलती तो पूरे दिन उस का मन फ्यूज बल्ब जैसा बुझाबुझा सा रहता. न तो उस दिन उस के मन को तरोताजा करने वाली वह खुशबू रचबस पाती, न ही किसी काम में उस का मन लगता. 2 महीने तक यही सिलसिला चलता रहा.

फिर वह औफिस के बाद भी उस का साथ पाने के लिए इंतजार करता… उस के साथ ही बाहर निकलता और कार पार्किंग तक साथसाथ जाता. पता चला कि घर का रास्ता भी कुछ दूर तक एक ही है. उन की कार कभी आगे, कभी पीछे होती, नजरें मिलतीं, वे मुसकराते. इतने में उस के घर का रास्ता आ जाता. आखिर में लड़की की कार उसे बाय कहते हुए आगे निकल जाती. प्रियांक मन मसोस कर रह जाता.

कुछ दिन यों ही बीत गए. प्रियांक उस युवती का इंतजार तो करता लेकिन दूर से ही उस का लाल फ्रेम देख कर झट से लिफ्ट के अंदर हो लेता, जैसा कि उस ने उसे देखा ही नहीं. ऐसा इसलिए करता कि वह यह न समझ बैठे कि मैं उस से मुहब्बत करता हूं. पर क्या मैं सही में तो उस से प्यार नहीं करने लगा हूं.

उधर भीड़ में भी वह युवती दिया उसे महसूस कर लेती. उस का दिल जोरों से धड़क उठता. ऐसा क्यों हो रहा है, कहीं उस अनजाने से प्यार तो नहीं हो गया. यह सोचते ही उस के लाल फ्रेम के नीचे दोनों कान और गुलाबी गाल गरम लाल हो कर और भी मैच करने लगते. वह कोशिश करती कि आंख बचा कर निकल जाए, पर आंखें तो जैसे उसी का पीछा करने को आतुर रहतीं और जैसे ही वह देखती, उस का जी धक से हो उठता.

बहुत पुराना मम्मी का पसंदीदा गाना उस के जेहन में चलने लगता…’ मेरे सामने जब तू आता है जी धक से मेरा हो जाता है… महसूस ये होता है मुझ को जैसे मैं तेरा दम भरती हूं, इस बात से ये न समझ लेना कि मैं तुझ से मुहब्बत करती हूं…’ सच ही तो है, कितनी हकीकत है इस गाने में. उस ने माथे पर उभर आया पसीना पोंछ लिया था. जबतब मेरा पीछा ही करता रहता है, मेरा ही इंतजार कर रहा था शायद, पर आता देख जल्दी से अंदर हो लिया वरना लिफ्ट और भी तो जाती हैं. यह महज संयोग तो नहीं हो सकता. कभीकभी लिफ्ट के डोर पर ही उधर मुुंह घुमा कर खड़ा हो जाता है जब तक मैं चढ़ नहीं जाती. फिर भी, वह दिखने में कोई लुच्चालफंगा तो नहीं लगता. हां, अकड़ू जरूर लगता है.

एक दिन उसे आता देख वह लिफ्ट रोक कर खड़ा हो गया कि तभी लाल फ्रेम वाली लड़की से पहले तेज चलती हुई एक मोटी अफ्रीकन महिला टकराई और वह धड़ाम से नीचे गिर गई. महिला बड़ेबड़े हाथों से जल्दी का इशारा करते हुए सौरीसौरी बोलते हुए फिर उसी तेजी से निकल गई. प्रियांक लिफ्ट से बाहर आ कर उस की ओर लपका.

‘‘मे आई हैल्प यू,’’ उस ने संकोच से हाथ बढ़ा दिया था.

‘‘नोनो थैंक्स…इट्स ओके.’’

‘‘रियली?’’

वह धीरेधीरे उठ खड़ी हुई. तो प्रियांक ने उस का बैग झाड़ कर उसे थमा दिया.

‘‘अजीब हैं लोग, अपनी तेजी में अपने सिवा कुछ और देख ही नहीं पाते…’’

‘‘हूं,’’ एक पल को उस ने नजरें उठा कर देखा, कुछ अलग सा आकर्षण लगा था युवक में उसे.

बस, फिर खामोशी…

चलते हुए दोनों लिफ्ट के अंदर हो लिए.

‘वह इग्नोर कर रही है तो मैं कौन सा मरा जा रहा हूं.’ उधर दिया भी सोच रही थी, मैं ने एक बार मना किया तो क्या दोबारा भी तो पूछ सकता था, कितना दर्द हुआ उठने में, अब खड़े होने में तकलीफ हो रही है. अवसर का लाभ न उठा पाने का उसे भी मलाल था.

इस बार हफ्तेदस दिन हो गए, प्रियांक को लड़की दिखी ही नहीं. प्रियांक की बेचैनी बढ़ती ही जा रही थी. अपने औफिस से शायद उस ने छुट्टी ली होगी, घर पर कोई शादीवादी हो. कहीं बीमार तो नहीं, कोई दुर्घटना… अरे यार, मैं भी क्याक्या फालतू सोचे जा रहा हूं… बुद्धू हूं जो उस का नाम भी नहीं पता किया. उस के औफिस जा कर पूछूं भी तो क्या कैसे? वह लाल फ्रेम वाली मैडम? हां, चपरासी से पूछना ठीक रहेगा, बाहर जो बैठता है उसी से पूछता हूं.

उस दिन शाम को औफिस से निकलते वक्त मौका देख कर उस ने चपरासी से पूछ ही लिया था.

‘‘कौन? लाल चश्मेवाली? वे दिया मैम हैं साब, कोई काम था क्या…’’

‘‘कई दिनों से औफिस नहीं आ रहीं? क्या बात हो गई?’’

‘‘अब मुझे क्या पता, कोई काम था क्या?’’ उस ने दोबारा पूछा था.

‘‘नहीं, यों ही. कई दिनों से देखा नहीं,’’ अपने आप झुंझलाए खड़े प्रियांक के मन में तो आ रहा था कि कह दे कि अपने काम से काम रख, औफिस की इतनी सी खबर नहीं रख सकता तो क्या कर सकता है. उसे अपनी ओर देखतेदेखते वह खिसियाया सा लिफ्ट की तरफ मुड़ गया. चलो, यह तो अच्छा हुआ, नाम तो पता चला उस का. दिलोदिमाग उजाले से भर गया हो जैसे…‘‘दिया,’’ वह बोल उठा था.

3 दिनों बाद प्रियांक के साथ ही दिया कि कार पार्किंग में रुकी. दिया को देखते ही वह झटके से गाड़ी से उतरा, फिर सधे कदमों से उस के पास पहुंचने से अपनेआप को रोक नहीं पाया. वह नीचे उतरी थी. उस की लौंग स्कर्ट के नीचे बाएं पैर की एंकल में बंधी क्रेप बैंडेज साफ नजर आ रही थी. उसे देख कर वह मुसकराई और धीरेधीरे आगे बढ़ने लगी.

‘‘मैं कुछ मदद करूं?’’ वह  सहारा देने बढ़ा था.

‘‘नो थैंक्स, इट्स ओके… आप चलें,’’ अपना चश्मा ठीक करते हुए वह मुसकराई. अपने दिल की तेज होती धड़कन उसे साफ सुनाई देने लगी थी. वह भी साथसाथ चलने लगा.

‘‘मैं, प्रियांक, 11वीं मंजिल पर स्थित निप्पो ओरिएंटल में काम करता हूं. आप को कई बार आतेजाते देखा है. पर कभी परिचय नहीं हुआ था. कैसे चोट लगा ली आप को?’’ वह मन की अकुलाहट छिपाते हुए बातों का सिलसिला आगे बढ़ाने लगा था.

‘‘माइसैल्फ दिया, दिया दीक्षित.’’

‘‘दिया, आई नो.’’

‘‘जी?’’ दिया ने उसे हैरानी से देखा था.

‘‘जी, वो आप भी नाम बताएंगी, मैं जानता था,’’ थोड़ी घबराहट के साथ वह बात घुमाने में कामयाब हो गया था.

‘‘एक मैरिज पार्टी में गई थी. डांस करते समय पैर ऊंचेनीचे पड़ा और बस मुड़ गया. जबरदस्त मोच आ गई थी. बिलकुल नहीं चला जा रहा था. अब तो काफी ठीक हूं,’’ कह कर वह फिर मुसकराई.

‘‘अच्छा, डांस का तो मैं भी दीवाना हूं. बस, मौका मिलना चाहिए कि शुरू हो जाता हूं. हाहा,’’ अपने जोक पर खुद ही हंसा था. दिया को मौन देख कर हंसी को ब्रेक लग गया था. वह सीरियस होते हुए बोला, ‘‘आप का मेरा रास्ता काफी दूर तक एक ही है. आप चाहें तो आप को मैं घर से ही पिकड्रौप कर सकता हूं. आप को गाड़ी चलाने में बेकार की असुविधा नहीं झेलनी पड़ेगी. मैं लाजपत नगर मुड़ जाता हूं, आप शायद मूलचंद…साउथऐक्स… वह बातोंबातों में उस का पताठिकाना जान लेना चाहता था.

‘‘ओ नो. चोट बाएं पैर में है, फिर कार को चलाने के लिए एक ही पैर की जरूरत पड़ती है. औटोमैटिक है न,’’ कह कर वह मुसकराई.

ओ क्विड, नाइस. कार है तो छोटी सी पर पिकअप फीचर बढि़या हैं. मेरे एक दोस्त के पास भी यही है. मैं ने चलाई है पर वह औटोमेटिक मौडल नहीं थी,’’ वह खिसियाई हंसी हंसा. थोड़ी देर बाद वे दोनों लिफ्ट के अंदर थे.

‘‘शाम को मैं आप का वेट कर लूंगा, निकलेंगे साथ ही घर को… क्या पता कोई मदद ही हो जाए,’’ प्रियांक ने माथे पर आई झूलती घुंघराले बालों की लट को स्टाइल से ऊपर किया तो माथे की नसों के साथ उस का चेहरा चमकने लगा.

‘‘ओके, नो प्रौब्लम,’’ कुछ तो आकर्षण था प्रियांक के चितवन में, जब भी देखती तो उस की नजरें जैसे बंध जातीं. पर जाहिर नहीं होने देती.

शाम को दिया लिफ्ट से बाहर निकली तो प्रियांक खड़ा मिला.

‘‘चलें?’’ दिया लिफ्ट से उतरी तो प्रियांक की प्रश्नवाचक नजरें पूछ रही थीं.

‘‘हूं, उस ने हामी भरी तो प्रियांक ने बड़े हक से उस के हाथों से बड़ा बैग अपने हाथों में ले लिया.’’

‘‘कोई नहीं, इस में क्या हुआ, इंसान इंसान के काम नहीं आएगा तो कौन आएगा,’’ दोनों मुसकरा दिए.

‘‘न्यू कौफी होम की कौफी पी है आप ने, गजब की है.’’

‘‘अच्छा?’’ कुछ पलों के साथ के लिए थोड़ी दिलचस्पी दिखाना दिया को अच्छा लग रहा था.

‘‘मैं जा रहा हूं, ट्राई करनी है आप को? थोड़ा टाइम हो तो?’’ वह अपना भाव बनाए हुए बोला.

‘‘डोंट माइंड, आज देखती हूं पी कर, काफी थक भी गई हूं. काम था औफिस में. किसी ने बताया ही नहीं कभी. मैं भी तो बस, औफिस आती हूं, काम किया और फिर सीधे घर, चलिए,’’ आज न जाने कैसे दिया ने आसानी से हामी भर दी. जैसे उस के साथ के लिए तड़प रही हो और इतने दिनों तक उसे न देखने की सारी कसर अभी पूरी कर लेना चाहती हो. वह खुद हैरान थी, लेकिन उस ने कुछ भी जाहिर नहीं होने दिया. उस के दिल की धड़कन कुछ हद तक सामान्य हो गई थी.

‘‘घर पर इंतजार करने वाले हों तो औफिस के बाद घर जाना ही अच्छा लगता है,’’ शायद वह बता दे कि कौनकौन रहता है उस के घर में साथ. पर नहीं, दिया ने तो बात का रुख ही मोड़ दिया.

‘‘अंदर नहीं, यहीं बाहर ओपन एयर में बैठते हैं. वेटर…’’ उस ने पुकारा था.

‘‘अरे, मैं और्डर दे कर आता हूं. कूपन सिस्टम है यहां, भीड़ देख रही हैं? आप बैठिए, मैं ले आता हूं.’’

‘‘वाउ, वेरी नाइस कौफी, पी कर दिनभर की थकान दूर हो गई,’’ कौफी पी कर दिया ने कहा. इधरउधर की बातें करते हुए वह चोर नजरों से उसे बारबार देख लेती. उस का साथ दिया को अच्छा लग रहा था. कुछ और साथ बैठना भी चाहती थी पर कहीं ये ज्यादा ही भाव में न आ जाए…

‘‘अब चलना चाहिए मिस्टर प्रियांक.’’

‘‘हां, चलिए.’’ मन तो उस का भी नहीं कर रहा था कभी जाने का. वह शाम के धुंधलके में चल रही मंदमंद बयार की दीवाना बनाने वाली चिरपरिचित भीनीभीनी सुगंध में सबकुछ भूल जाना चाहता था. पर मन ही मन सोचता कि इसे पता नहीं चलने देना है अभी, कहीं मुझे चिपकू न समझने लगे. घमंडी है थोड़ी, न घर बताया, न घर में कौनकौन है बताया. बस, बात घुमा दी. कहीं मुझे ऐसावैसा तो नहीं समझ रही मिस लाल फ्रेम. मैं भी थोड़ा कड़क, थोड़ा रिजर्व बन जाता हूं. पर इस के बारे में जानने का जो दिल करता है, उस का क्या करूं?

एक दिन प्रियांक ने ठान लिया कि जैसे ही दिया की कार आगे निकलेगी, वह बैक कर के गाड़ी वापस कर लेगा और फिर दिया का गंतव्य जान कर ही रहेगा. उस ने ऐसा ही किया. दिया जान भी नहीं पाई कि वह एक निश्चित दूरी बनाते हुए उस के पीछे चलने लगा पर दिया ने तो यू टर्न ले लिया और आश्रम के पैट्रोल पंप के साथ लगे मकानों में से किसी एक में घुस गई. 3 दिन लगातार पीछा करने के बाद प्रियांक इस नतीजे पर पहुंचा.

‘तो शायद मुझे चकमा देने के लिए ऐसा किया जा रहा था ताकि यहां रहती होगी, मैं सोच भी न सकूं… हाउस नंबर ये, नेम प्लेट पर नाम रिटायर्ड कर्नल एस के दीक्षित. फिर तो सही है… ठिकाने का पता तो लगा ही लिया मिस लाल फ्रेम. मगर खाली पते का करूंगा क्या?’ अपना सवाल सोच वह बौखलाया सा सड़क पर ही दो पल रुका रहा. ‘सड़कछाप आशिक तो नहीं कि मुंह उठाए घर चला जाऊं… पुरानी फिल्मों के हीरो जैसे कि मैं आप की लड़की का हाथ मांगने आया हूं. लड़की अपने लाल फ्रेम में से घूरे कि जैसे’ मेरा तो इस से कोई सरोकार ही नहीं. और कर्नल बाप मुझे गोली से ही उड़ा दे. अच्छा लगने या एकतरफा प्यार से क्या हो सकता है भला? वह तो अपने ही में रहती है, कछुए की तरह सबकुछ सिकोड़ कर बैठ जाती है, कुछ बताना ही नहीं चाहती. शायद ट्राई तो किया था या मेरी तरह वह भी कह नहीं पाती हो. अगर ऐसा है तो कायनात पर ही छोड़ देते हैं… पर शिद्दत से, बस, चाहो और बाकी कायनात पर छोड़ दो. नो एफर्ट… यह दुनिया का एक ही उदाहरण होगा शायद… चलता हूं…’ सोच कर वह मुसकराया. कार की दीवार पर हलके से मुक्के मारता वह वापस हो लिया.

‘आज ऊपर जा कर इन की मंजिल देख ही आती हूं, जनाब वहां काम करते भी हैं या नहीं… क्यों इस के बारे में जानने को दिल करता है. कहीं वाकई इस से मुझे इश्क तो नहीं होने लगा.’ दिया अपनी मंजिल पर न उतर कर आज प्रियांक के साथ उस के 11वें फ्लोर पर पहुंच गई.

‘‘चलिए, आज थोड़ा टाइम है मैं ने सोचा आप का औफिस ही देख लेती हूं. वैसे भी मैं ने इस बिल्डिंग में किसी और फ्लोर को अभी देखा नहीं…’’

अचकचा गया था प्रियांक उस के इस अचानक निर्णय पर. अब…‘ क्या कहे, मैं ने उस का साथ पाने के लिए उस से 11वीं फ्लोर पर अपना औफिस होने का झूठ बोला था, पर सच तो अब बोलना ही पड़ेगा. खिसियाया सा वह बोला, ‘‘वो दरअसल, मेरा औफिस तो तीसरे फ्लोर पर ही है. मैं ने आप का साथ पाने के लिए आप से झूठ बोला था दिया पर आप भी…मूलचंद नहीं… बल्कि आश्रम में…’’ उस के मुंह से अधूरा वाक्य रोकतेरोकते भी फिसल ही गया था.

अब खिसियाने की बारी दिया की थी, ‘अच्छा, तो इसे मेरे झूठ का पता चल गया कि मैं इस के मोड़ से आगे मूलचंद साउथऐक्स वगैरह में कहीं नहीं बल्कि इस के भी पहले रहती हूं. लगता है मेरा पीछा करते हुए उस ने मेरा घर देख लिया, तभी तो आश्रम…’’ सोचते ही उस के दांतों में जीभ अपनेआप आ गई.

‘‘जी, वो मैं…’’ उस के लाल फ्रेम में से उस की आंखों से झांकती झेंप स्पष्ट दिखाई दे रही थी.

‘इस का मतलब तुम भी…’ वह हर्ष मिश्रित विस्मय से अधीर होता हुआ आप से तुम पर आ कर और पास आ गया था.

दिया ने आंखोंआंखों में ही हामी भरी.

‘‘ओहो, प्रियांक ने खुशी से अपनी छाती पर घूंसा मारा. फिर दोनों हाथों को वी बनाते हुए ऊपर उठाया मानो उस ने जग जीत लिया हो.’’

‘‘चलो यार, यह भी खूब रही, अब मुझे 11वीं मंजिल और तुम्हें मूलचंद की तरफ जाने की जरूरत नहीं…’’ पास के लोगों से अनजान दोनों जोरों से हंस कर आलिंगनबद्ध हो गए. प्रियांक ने दिया का वह लाल फ्रेम वाला चेहरा मारे खुशी के दोनों हथेलियों में हौले से ऐसे भर लिया मानो तितली संग गुलाब थाम रखा हो.

ये भी पढ़ें- तुम नाराज ही रहो प्रिय: सोनिका क्यों दुखी थी

Best Hindi Story- भोर: राजवी को कैसे हुआ अपनी गलती का एहसास

उस दिन सवेरे ही राजवी की मम्मी की किट्टी फ्रैंड नीतू उन के घर आईं. उन की कालोनी में उन की छवि मैरिज ब्यूरो की मालकिन की थी. किसी की बेटी तो किसी के बेटे की शादी करवाना उन का मनपसंद टाइमपास था. वे कुछ फोटोग्राफ्स दिखाने के बाद एक तसवीर पर उंगली रख कर बोलीं, ‘‘देखो मीरा बहन, इस एनआरआई लड़के को सुंदर लड़की की तलाश है. इस की अमेरिका की सिटिजनशिप है और यह अकेला है, इसलिए इस पर किसी जिम्मेदारी का बोझ नहीं है. इस की सैलरी भी अच्छी है. खुद का घर है, इसलिए दूसरी चिंता भी नहीं है. बस गोरी और सुंदर लड़की की तलाश है इसे.’’

फिर तिरछी नजरों से राजवी की ओर देखते हुए बोलीं, ‘‘उस की इच्छा तो यहां हमारी राजवी को देख कर ही पूरी हो जाएगी. हमारी राजवी जैसी सुंदर लड़की तो उसे कहीं भी ढूंढ़ने से नहीं मिलेगी.’’ यह सब सुन रही राजवी का चेहरा अभिमान से चमक उठा. उसे अपने सौंदर्य का एहसास और गुमान तो शुरू से ही था. वह जानती थी कि वह दूसरी लड़कियों से कुछ हट कर है.

चमकीले साफ चेहरे पर हिरनी जैसी आंखें और गुलाबी होंठ उस के चेहरे का खास आकर्षण थे. और जब वह हंसती थी तब उस के गालों में डिंपल्स पड़ जाते थे. और उस की फिगर व उस की आकर्षक देहरचना तो किसी भी हीरोइन को चैलेंज कर सकती थी. इस से अपने सौंदर्य को ले कर उस के मन में खुशी तो थी ही, साथ में जानेअनजाने में एक गुमान भी था. मीरा ने जब उस एनआरआई लड़के की तसवीर हाथ में ली तो उसे देखते ही उन की भौंहें तन गईं. तभी नीतू बोल पड़ीं, ‘‘बस यह लड़का यानी अक्षय थोड़ा सांवला है और चश्मा लगाता है.’’

‘लग गई न सोने की थाली में लोहे की कील,’ मीरा मन में ही भुनभुनाईं. उन्हें लगा कि मेरी राजवी शायद इसे पसंद नहीं करेगी. पर प्लस पौइंट इस लड़के में यह था कि यह नीतू के दूर के किसी रिश्तेदार का लड़का था, इसलिए एनआरआई लड़के के साथ जुड़ी हुई मुसीबतें व जोखिम इस केस में नहीं था. जानापहचाना लड़का था और नीतू एक जिम्मेदार के तौर पर बीच में थीं ही.

फिर कुछ सोच कर मीरा बोलीं, ‘‘ओह, बस इतनी सी बात है. आजकल ये सब देखता कौन है और चश्मा तो किसी को भी लग सकता है. और इंडियन है तो रंग तो सांवला होगा ही. बाकी जैसा तुम कहती हो लड़का स्मार्ट भी है, समझदार भी. फिर क्या चाहिए हमें… क्यों राजवी?’’

अपने ही खयालों में खोई, नेल पेंट कर रही राजवी ने कहा, ‘‘हूं… यह बात तो सही है.’’

तब नीतू ने कहा, ‘‘तुम भी एक बार फोटो देख लो तो कुछ बात बने.’’

‘‘बाद में देख लूंगी आंटी. अभी तो मुझे देर हो रही है,’’ पर तसवीर देखने की चाहत तो उसे भी हो गई थी.

मीरा ने नीतू को इशारे में ही समझा दिया कि आप बात आगे बढ़ाओ, बाकी बात मैं संभाल लूंगी. मीरा और राजवी के पापा दोनों की इच्छा यह थी कि राजवी जैसी आजाद खयाल और बिंदास लड़की को ऐसा पति मिले, जो उसे संभाल सके और समझ सके. साथ में उसे अपनी मनपसंद लाइफ भी जीने को मिले. उस की ये सभी इच्छाएं अक्षय के साथ पूरी हो सकती थीं.

नीतू ने जातेजाते कहा, ‘‘राजवी, तुम जल्दी बताना, क्योंकि मेरे पास ऐसी बहुत सी लड़कियों की लिस्ट है, जो परदेशी दूल्हे को झपट लेने की ख्वाहिश रखती हैं.’’

नीतू के जाने के बाद मीरा ने राजवी के हाथ में तसवीर थमा दी, ‘‘देख ले बेटा, लड़का ऐसा है कि तेरी तो जिंदगी ही बदल जाएगी. हमारी तो हां ही समझ ले, तू भी जरा अच्छे से सोच लेना.’’

पर राजवी तसवीर देखते ही सोच में डूब गई. तभी उस की सहेली कविता का फोन आया. राजवी ने अपने मन की उलझन उस से शेयर की, तो पूरे उत्साह से कविता कहने लगी, ‘‘अरे, इस में क्या है. शादी के बाद भी तो तू अपना एक ग्रुप बना सकती है और सब के साथ अपने पति को भी शामिल कर के तू और भी मजे से लाइफ ऐंजौय कर सकती है. फिर वह तो फौरेन कल्चर में पलाबढ़ा लड़का है. उस की थिंकिंग तो मौडर्न होगी ही. अब तू दूसरा कुछ सोचने के बजाय उस से शादी कर लेने के बारे में ही सोचना शुरू कर दे…’’

कविता की बात राजवी समझ गई तो उस ने हां कह दिया. इस के बाद सब कुछ जल्दीजल्दी होता गया. 2 महीने बाद नीतू का दूर का वह भतीजा लड़कियों की एक लिस्ट ले कर इंडिया पहुंच गया. उसे सुंदर लड़की तो चाहिए ही थी, पर साथ में वह भारतीय संस्कारों से रंगी भी होनी चाहिए थी. ऐसी जो उसे भारतीय भोजन बना कर प्यार से खिलाए. साथ ही वह मौडर्न सोच और लाइफस्टाइल वाली हो ताकि उस के साथ ऐडजस्ट हो सके. पर उस की लिस्ट की सभी मुलाकात के बाद एकएक कर के रिजैक्ट होती गईं. तब एक दिन सुबह राजवी के पास नीतू का फोन आया, ‘‘शाम को 7 बजे तक रेडी हो जाना. अक्षय के साथ मुलाकात करनी है. और हां, मीरा से कहना कि वे तुझे अच्छी सी साड़ी पहनाएं.’’

‘‘साड़ी, पर क्यों? मुझ पर जींस ज्यादा सूट करती है,’’ कहते हुए राजवी बेचैन हो गई.

‘‘वह तुम्हारी समझ में नहीं आएगा. तुम साड़ी यही समझ कर पहनना कि उसी में तुम ज्यादा सुंदर और अटै्रक्टिव लगती हो.’’

नीतू आंटी की बात पर गर्व से हंस पड़ी राजवी, ‘‘हां, वह तो है.’’

और उस दिन शाम को वह जब आकर्षक लाल रंग की डिजाइनर साड़ी पहन कर होटल शालिग्राम की सीढि़यां चढ़ रही थी, उस की अदा देखने लायक थी. होटल के मीटिंग हौल में राजवी को दाखिल होता देख सोफे पर बैठा अक्षय उसे देखता ही रह गया. नीतू ने जानबूझ कर उसे राजवी का फोटो नहीं भेजा था, ताकि मिलने के बाद ही अक्षय उसे ठीक से जान ले, परख ले. नीतू को वहीं छोड़ कर दोनों होटल के कौफी शौप में चले गए.

‘‘प्लीज…’’ कह कर अक्षय ने उसे चेयर दी. राजवी उस की सोच से भी अधिक सुंदर थी. हलके से मेकअप में भी उस के चेहरे में गजब का निखार था. जैसा नाम वैसा ही रूप सोचता हुआ अक्षय मन ही मन में खुश था. फिर भी थोड़ी झिझक थी उस के मन में कि क्या उसे वह पसंद करेगी?

ऐसा भी न था कि अक्षय में कोई दमखम न था और अब तो कंपनी उसे प्रमोशन दे कर उस की आमदनी भी दोगुनी करने वाली थी. फिर भी वह सोच रहा था कि अगर राजवी उसे पसंद कर लेती है तो वह उस के साथ मैच होने के लिए अपना मेकओवर भी करवा लेगा. मन ही मन यह सब सोचते हुए अक्षय ने राजवी के सामने वाली चेयर ली. अक्षय के बोलने का स्मार्ट तरीका, उस के चेहरे पर स्वाभिमान की चमक और उस का धीरगंभीर स्वभाव राजवी को प्रभावित कर गया. उस की बातों में आत्मविश्वास भी झलकता था. कुल मिला कर राजवी को अक्षय का ऐटिट्यूड अपील कर गया.

उस मुलाकात के बाद दोनों ने एकदूसरे को दूसरे दिन जवाब देना तय किया. पर उसी दिन रात में राजवी ने अक्षय को फोन लगाया, ‘‘एक बात का डिस्कशन तो रह गया. क्या शादी के बाद मैं आगे पढ़ाई कर सकती हूं? और क्या मैं आगे जा कर जौब कर सकती हूं? अगर आप को कोई एतराज नहीं तो मेरी ओर से इस रिश्ते को हां है.’’

‘‘ओह. इस में पूछने वाली क्या बात है? मैं मौडर्न खयालात का हूं क्योंकि मौडर्न समाज में पलाबढ़ा हूं. नारी स्वतंत्रता मैं समझता हूं, इसलिए जैसी तुम्हारी मरजी होगी, वैसा तुम कर सकोगी.’’

अक्षय को भी राजवी पसंद आ गई थी, उसे इतनी सुंदर पत्नी मिलेगी, उस की कल्पना ही उस को रोमांचित कर देने के लिए काफी थी. फिर तो जल्दी ही दोनों की शादी हो गई. रिश्तेदारों की उपस्थिति में रजिस्टर्ड मैरिज कर के 4 ही दिनों के बाद अक्षय ने अमेरिका की फ्लाइट पकड़ ली और उस के 2 महीने बाद आंखों में अमेरिका के सपने संजोए और दिल में मनपसंद जिंदगी की कल्पना लिए राजवी ने ससुराल का दरवाजा खटखटाया. ये ऐसे सपने थे जिन्हें हर कुंआरी, महत्त्वाकांक्षी और उत्साही लड़की देखती है. राजवी खुश थी, लेकिन एक हकीकत उसे खटक रही थी. वह इतनी सुंदर और पति था सांवला. जोड़ी कैसे जमेगी उस के साथ उस की? पर रोमांचित कर देने वाली परदेशी धरती ने उसे ज्यादा सोचने का समय ही कहां दिया.

कई दिन दोनों खूब घूमे. शौपिंग, पार्टी जो भी राजवी का मन किया अक्षय ने उसे पूरा किया. फिर शुरू हुई दोनों की रूटीन लाइफ. वैसे भी सपनों की दुनिया में सब कुछ सुंदर सा, मनभावन ही होता है. जिंदगी की हकीकत तो वास्तविकता के धरातल पर आ कर ही पता चलती है. एक दिन अक्षय ने फरमाइश की, ‘‘आज मेरा इंडियन डिश खाने को मन कर रहा है.’’

‘‘इंडियन डिश? यू मीन दालचावल और रोटीसब्जी? इश… मुझे ये सब बनाना नहीं आता. मैं तो अपने घर में भी खाना कभी नहीं बनाती थी. मां बोलती थीं तब भी नहीं. और वैसे भी पूरा दिन रसोई में सिर फोड़ना मेरे बस की बात नहीं. मैं उन लड़कियों में नहीं, जो अपनी जिंदगी, अपनी खुशियां घरेलू कामकाज के जंजालों में फंस कर बरबाद कर देती हैं.’’

चौंक उठा अक्षय. फिर भी संभलते हुए बोला, ‘‘अब मजाक छोड़ो, देखो मैं ये सब्जियां ले कर आया हूं. तुम रसोई में जाओ. तुम्हारी हैल्प करने मैं आता हूं.’’

‘‘तुम्हें ये सब आता है तो प्लीज तुम ही बना लो न… दालसब्जी वगैरह मुझे तो भाती भी नहीं और बनाना भी मुझे आता नहीं. और हां, 2 दिनों के बाद तो मेरी स्टडी शुरू होने वाली है, क्या तुम भूल गए? फिर मुझे टाइम ही कहां मिलेगा इन सब झंझटों के लिए. अच्छा यही रहेगा कि तुम किसी इंडियन लेडी को कुक के तौर पर रख लो.’’

अक्षय का दिमाग सन्न रह गया. राजवी को हर रोज सुबह की चाय बनाने में भी नखरे करती थी और ठीक से कोई नाश्ता भी नहीं बना पाती थी. लेकिन आज तो उस ने हद ही कर दी थी. तो क्या यही है राजवी का असली रूप? लेकिन कुछ भी बोले बिना अक्षय औफिस के लिए निकल गया. पर यह सब तो जैसे शुरुआत ही थी. राजवी के उस नए रंग के साथ जब नया ढंग भी सामने आने लगा अक्षय के तो होश ही उड़ गए. एक दिन राजवी बिलकुल शौर्ट और पतले से कपड़े पहन कर कालेज के लिए निकलने लगी.

अक्षय ने उसे टोकते हुए कहा, ‘‘यह क्या पहना है राजवी? यह तुम्हें शोभा नहीं देता. तुम पढ़ने जा रही हो तो ढंग के कपड़े पहन कर जाओगी तो अच्छा रहेगा…’’

‘‘ये अमेरिका है मिस्टर अक्षय. और फिर तुम ने ही तो कहा था न कि तुम मौडर्न सोच रखते हो, तो फिर ऐसी पुरानी सोच क्यों?’’

‘‘हां कहा था मैं ने पर पराए देश में तुम्हारी सुरक्षा की भी चिंता है मुझे. मौडर्न होने की भी हद होती है, जिसे मैं समझता हूं और चाहता हूं कि तुम भी समझ लो.’’

‘‘मुझे न तो कुछ समझना है और न ही तुम्हारी सोच और चिंता मुझे वाजिब लगती है. और यह मेरी निजी लाइफ है. मैं अभी उतनी बूढ़ी भी नहीं हो गई कि सिर पर पल्लू रख कर व साड़ी लपेट कर रहूं. और बाई द वे तुम्हें भी तो सुंदर पत्नी चाहिए थी न? तो मैं जब सुंदर हूं तो दुनिया को क्यों न दिखाऊं?’’

राजवी के इस क्यों का कोई जवाब नहीं था अक्षय के पास. फिर जैसेजैसे दिन बीतते गए, दोनों के बीच छोटीमोटी बातों पर झगड़े बढ़ते गए. अक्षय को समझ में नहीं आ रहा था कि अब वह क्या करे? भूल कहां हो रही है और इस स्थिति में क्या हो सकता है, क्योंकि अब पानी सिर के ऊपर शुरू हो चुका था. राजवी ने जो गु्रप बनाया था उस में अमेरिकन युवकों के साथ इंडियन लड़के भी थे. शर्म और मर्यादा की सीमाएं तोड़ कर राजवी उन के साथ कभी फिल्म देखने तो कभी क्लब चली जाती. ज्यादातर वह उन के साथ लंच या डिनर कर के ही घर आती. कई बार तो रात भर वह घर नहीं आती. अक्षय के पूछने पर वह किसी सहेली या प्रोजैक्ट का बहाना बना देती.

अक्षय बहुत दुखी होता, उसे समझाने की कोशिश करता पर राजवी उस के साथ बात करने से भी कतराती. अक्षय को ज्यादा परेशानी तो तब हुई जब राजवी अपने बौयफ्रैंड्स को ले कर घर आने लगी. अक्षय उन के साथ मिक्स होने या उन्हें कंपनी देने की कोशिश करता तो राजवी सब के बीच उस के सांवले रंग और चश्मे को मजाक का विषय बना देती और अपमानित करती रहती. एक दिन इस सब से तंग आ कर अक्षय ने नीतू आंटी को फोन लगाया. उस ने ये सब बातें बताना शुरू ही किया था कि राजवी उस से फोन छीन कर रोने जैसी आवाज में बोलने लगी, ‘‘आंटी, आप ने तो कहा था कि तुम वहां राज करोगी. जैसे चाहोगी रह सकोगी. पर आप का यह भतीजा तो मुझे अपने घर की कुक और नौकरानी बना कर रखना चाहता है. मेरी फ्रीडम उसे रास नहीं आती.’’

अक्षय आश्चर्यचकित रह गया. उस ने तब तय कर लिया कि अब से वह न तो किसी बात के लिए राजवी को रोकेगा, न ही टोकेगा. उस ने राजवी को बोल दिया कि तुम अपनी मरजी से जी सकती हो. अब मैं कुछ नहीं बोलूंगा. पर थोड़े दिनों के बाद अक्षय ने नोटिस किया कि राजवी उस के साथ शारीरिक संबंध भी नहीं बनाना चाहती. उसे अचानक चक्कर भी आ जाता था. चेहरे की चमक पर भी न जाने कौन सा ग्रहण लगने लगा था.

अब वह न तो अपने खाने का ध्यान रखती थी न ही ढंग से आराम करती थी. देर रात तक दोस्तों और अनजान लोगों के साथ भटकते रहने की आदत से उस की जिंदगी अव्यवस्थित बन चुकी थी. एक दिन रात को 3 बजे किसी अनजान आदमी ने राजवी के मोबाइल से अक्षय को फोन किया, ‘‘आप की वाइफ ने हैवी ड्रिंक ले लिया है और यह भी लगता है कि किसी ने उस के साथ रेप करने की कोशिश…’’

अक्षय सहम गया. फिर वह वहां पहुंचा तो देखा कि अस्तव्यस्त कपड़ों में बेसुध पड़ी राजवी बड़बड़ा रही थी, ‘‘प्लीज हैल्प मी…’

पास में खड़े कुछ लोगों में से कोई बोला, ‘‘इस होटल में पार्टी चल रही थी. शायद इस के दोस्तों ने ही… बाद में सब भाग गए. अगर आप चाहो तो पुलिस…’’

‘‘नहींनहीं…,’’ अक्षय अच्छी तरह जानता था कि पुलिस को बुलाने से क्या होगा. उस ने जल्दी से राजवी को उठा कर गाड़ी में लिटा दिया और घर की ओर रवाना हो गया. राजवी की ऐसी हालत देख कर उस कलेजा दहल गया था. आखिर वह पत्नी थी उस की. जैसी भी थी वह प्यार करता था उस को. घर पहुंचते ही उस ने अपने फ्रैंड व फैमिली डाक्टर को बुलाया और फर्स्ट ऐड करवाया. उस के चेहरे और शरीर पर जख्म के निशान पड़ चुके थे. दूसरे दिन बेहोशी टूटने के बाद होश में आते ही राजवी पिछली रात उस के साथ जो भी घटना घटी थी, उसे याद कर रोने लगी. अक्षय ने उसे रोने दिया. ‘जल्दी ही अच्छी हो जाओगी’ कह कर वह उसे तसल्ली देता रहा पर क्या हुआ था, उस के बारे में कुछ भी नहीं पूछा. खाना बनाने वाली माया बहन की हैल्प से उसे नहलाया, खिलाया फिर उसे अस्पताल ले जाने की सोची.

‘‘नहींनहीं, मुझे अस्पताल नहीं जाना. मैं ठीक हो जाऊंगी,’’ राजवी बोली.

अक्षय को लगा कि राजवी कुछ छिपा रही है. कहीं वह मां तो नहीं बनने वाली? पर ऐसा नहीं हो सकता क्योंकि वह तो कहती रही है कि बच्चे के बारे में तो अभी 5 साल तक सोचना भी मत. पहले मैं कैरियर बनाऊंगी, लाइफ को ऐंजौय करूंगी, उस के बाद ही सोचूंगी. फिर कौन सी बात छिपा रही है यह मुझ से? क्या इस के साथ वाकई रेप हुआ होगा? दुखी हो गया अक्षय यह सोच कर. उसे जीवन का यह नया रंग भयानक लग रहा था. 2 दिन बाद अक्षय जब शाम को घर आया तो देखा कि राजवी फिर से बेहोश जैसी पड़ी थी. उसे तेज बुखार था. अक्षय परेशान हो गया. फिर बिना कुछ सोचे वह उसे अस्पताल ले गया. डाक्टर ने जांचपड़ताल करने के बाद उस के जरूरी टैस्ट करवाए और उन की रिपोर्ट्स निकलवाईं.

लेकिन रिपोर्ट्स हाथ में आते ही अक्षय के होश उड़ गए. राजवी की बच्चेदानी में सूजन थी और इंटरनल ब्लीडिंग हो रही थी. डाक्टर ने बताया कि उसे कोई संक्रामक रोग हो गया है.

चेहरा हाथों में छिपा कर अक्षय रो पड़ा. यह क्या हो गया है मेरी राजवी को? वह शुरू से ही कुछ बता देती या खुद ट्रीटमैंट करवा लेती तो बात इतनी बढ़ती नहीं. ये तू ने क्या किया राजवी? मेरे प्यार में तुझे कहां कमी नजर आई कि प्यार की खोज में तू भटक गई? काश तू मेरे दिल की आवाज सुन सकती. अक्षय को डाक्टर ने सांत्वना दी कि लुक मिस्टर अक्षय, अभी भी उतनी देर नहीं हुई है. हम उन का अच्छे से अच्छा ट्रीटमैंट शुरू कर देंगे. शी विल बी औल राइट सून… और वास्तव में डाक्टर के इलाज और अक्षय की केयर से राजवी की तबीयत ठीक होने लगी. लेकिन अक्षय का धैर्य और प्यार भरा बरताव राजवी को गिल्टी फील करा देता था.

अस्पताल से घर लाने के बाद अक्षय राजवी की हर छोटीमोटी जरूरत का ध्यान रखता था. उसे टाइम पर दवा, चायनाश्ता व खाना देना और उस को मन से खुश रखने के लिए तरहतरह की बातें करना, वह लगन से करता था. और राजवी की इन सब बातों ने आंखें खोल दी थीं. नासमझी में उस ने क्याक्या नहीं कहा था अक्षय को. दोस्तों के सामने उस का तिरस्कार किया था. उस के रंग को ले कर सब के बीच उस का मजाक उड़ाया था और कई बार गुस्से और नफरत के कड़वे बोल बोली थी वह. यह सब सोच कर शर्म सी आती थी उसे.

अपनी गोरी त्वचा और सौंदर्य के गुमान की वजह से उस ने अपना चरित्र भी जैसे गिरवी रख दिया था. अक्षय सांवला था तो क्या हुआ, उस के भीतर सब कुछ कितना उजला था. उस के इतने खराब ऐटिट्यूड के बाद भी अक्षय के बरताव से ऐसा लगता था जैसे कुछ हुआ ही नहीं था. वह पूरे मन से उस की केयर कर रहा था. राजवी सोचती थी मेरी गलतियों, नादानियों और अभिमान को अनदेखा कर अक्षय मुझे प्यार करता रहा और मुझे समझाने की कोशिश करता रहा. लेकिन मैं अपनी आजादी का गलत इस्तेमाल करती रही. कुछ दिनों में राजवी के जख्म तो ठीक हो गए पर उन्होंने अपने गहरे दाग छोड़ दिए थे. जब भी वह आईना देखती थी सहम जाती थी.

पूरी तरह से ठीक होने के बाद राजवी ने अक्षय के पास बैठ कर अपने बरताव के लिए माफी मांगी. अक्षय गंभीर स्वर में बोला, ‘‘देखो राजवी, मैं जानता हूं कि तुम मेरे साथ खुश नहीं हो. मैं यह भी जानता हूं कि मैं शक्लसूरत में तुम्हारे लायक नहीं हूं. काश मैं अपने शरीर का रंग बदलवा सकता पर वह मुमकिन नहीं है. तब एक ही रास्ता नजर आता है मुझे कि तुम मेरे साथ जबरदस्ती रहने के बजाय अपना मनपसंद रास्ता खोज लो.’’ इस बात पर राजवी चौंकी मगर अक्षय बोला, ‘‘मेरा एक कुलीग है. मेरे जैसी ही पोस्ट पर है और मेरी जितनी ही सैलरी मिलती है उसे. प्लस पौइंट यह है कि वह हैंडसम दिखता है. तुम्हारे जैसा गोरा और तुम्हारे जैसा ही फ्री माइंडेड है. अगर तुम हां कहो तो मैं बात कर सकता हूं उस से. और हां, वह भी इंडिया का ही है. खुश रखेगा तुम्हें…’’

‘‘अक्षय, यह क्या बोल रहे हो तुम?’’ राजवी चीख उठी. अक्षय ऐसी बात करेगा यह उस की सोच से परे था.

‘‘मैं ठीक ही तो कह रहा हूं. इस झूठमूठ की शादी में बंधे रहने से अच्छा होगा कि हम अलग हो जाएं. मेरी ओर से आज से ही तुम आजाद हो…’’

अक्षय के होंठों पर अपनी कांपती उंगलियां रखती राजवी कांपती आवाज में बोली, ‘‘इस बात को अब यहीं पर स्टौप कर दो अक्षय. मैं ने कहा न कि मैं ने जो कुछ भी किया वह मेरी भूल थी. मेरा घमंड और मेरी नासमझी थी. अपने सौंदर्य पर गुमान था मुझे और उस गुमान के लिए तुम जो चाहे सजा दे सकते हो. पर प्लीज मुझे अपने से अलग मत करना. मैं नहीं जी पाऊंगी तुम्हारे बिना. तुम्हारे प्यार के बिना मैं अधूरी हूं. जिंदगी का और रिश्तों का सच्चा सुख बाहरी चकाचौंध में नहीं होता वह तो आंतरिक सौंदर्य में ही छिपा होता है, यह सच मुझे अच्छी तरह महसूस हो चुका है.’’

इस के आगे न बोल पाई राजवी. उस की आंखों में आंसू भर गए. उस ने हाथ जोड़ लिए और बोली, ‘‘मेरी गलती माफ नहीं करोगे अक्षय?’’ राजवी के मुरझाए गालों पर बह रहे आंसुओं को पोंछता अक्षय बोला, ‘‘ठीक है, तो फिर इस में भी जैसी तुम्हारी मरजी.’’  और यह कह कर वह मुसकराया तो राजवी हंस पड़ी. फिर अक्षय ने अपनी बांहें फैलाईं तो राजवी उन में समा गई.

Husband Wife Story- दिल जंगली: पत्नी के अफेयर होने की बात पर सोम का क्या था फैसला

रात के 10 बज रहे थे. 10वीं फ्लोर पर स्थित अपने फ्लैट से सोम कभी इस खिड़की से नीचे देखता तो कभी उस खिड़की से. उस की पत्नी सान्वी डिनर कर के नीचे टहलने गई थी. अभी तक नहीं आई थी. उन का 10 साल का बेटा धु्रव कार्टून देख रहा था. सोम अभी तक लैपटौप पर ही था, पर अब बोर होने लगा तो घर की चाबी ले कर नीचे उतर गया.

सोसाइटी में अभी भी अच्छीखासी रौनक थी. काफी लोग सैर कर रहे थे. सोम को सान्वी कहीं दिखाई नहीं दी. वह घूमताघूमता सोसाइटी के शौपिंग कौंप्लैक्स में भी चक्कर लगा आया. अचानक उसे दूर जहां रोशनी कम थी, सान्वी किसी पुरुष के साथ ठहाके लगाती दिखी तो उस का दिमाग चकरा गया. मन हुआ जा कर जोर का चांटा सान्वी के मुंह पर मारे पर आसपास के माहौल पर नजर डालते हुए सोम ने अपने गुस्से पर कंट्रोल कर उन दोनों के पीछे चलते हुए आवाज दी, ‘‘सान्वी.’’

सान्वी चौंक कर पलटी. चेहरे पर कई भाव आएगए. साथ चलते पुरुष से तो सोम खूब परिचित था ही. सो उसे मुसकरा कर बोलना ही पड़ा, ‘‘अरे प्रशांत, कैसे हो?’’

प्रशांत ने फौरन हाथ मिलाने के लिए आगे बढ़ाया, ‘‘मैं ठीक हूं, तुम सुनाओ, क्या हाल है?’’

सोम ने पूरी तरह से अपने दिलोदिमाग पर काबू रखते हुए आम बातें जारी रखीं. सान्वी चुप सी हो गई थी. सोम मौसम, सोसाइटी की आम बातें करने लगा. प्रशांत भी रोजमर्रा के ऐसे विषयों पर बातें करता हुआ कुछ दूर साथ चला. फिर ‘घर पर सब इंतजार कर रहे होंगे’ कह कर चला गया.

प्रशांत के जाने के बाद सोम ने सान्वी को घूरते हुए कहा, ‘‘ये सब क्या चल रहा है?’’

सान्वी ने जब कड़े तेवर से कहा कि जो तुम्हें सम झना है, सम झ लो तो सोम को हैरत हुई. सान्वी पैर पटकते हुए तेजी से घर की तरफ बढ़ गई. आ कर दोनों ने एक नजर धु्रव पर डाली. सान्वी ने धु्रव को ले जा कर उस के रूम में सोने के लिए लिटा दिया. अगले दिन उस का स्कूल भी था.

सान्वी के बैडरूम में पहुंचते ही सोम गुर्राया, ‘‘सान्वी, ये सब क्या चल रहा है? इतनी रात प्रशांत के साथ क्यों घूम रही थी?’’

‘‘ऐसे ही… वह दोस्त है मेरा… नीचे मिल गया तो साथ घूमने लगे.’’

‘‘यह नहीं सोचा कि कोई देखेगा तो क्या सोचेगा?’’

‘‘नहीं सोचा… ऐसा क्या तूफान खड़ा हो गया?’’

सुबह सोम को औफिस जाना था. वह बिजनैसमैन था. आजकल उस का काम घाटे में चल रहा था… उस का दिमाग गुस्से में घूम रहा था पर इस समय वह सान्वी के अजीब से तेवर देख कर चुपचाप गुस्से में करवट बदल कर लेट गया.

सान्वी ने रोज की तरह कपड़े बदले, फ्रैश हुई, नाइट क्रीम लगाई और मन ही मन मुसकराते हुए प्रशांत को याद करते उस की बातों में खोईखोई बैड पर लेट गई. बराबर में नाराज लेटे सोम पर उस का जरा भी ध्यान नहीं था. उस से बिलकुल लापरवाह थोड़ी देर पहले की प्रशांत की बातों को याद कर मुसकराए जा रही थी.

प्रशांत और सान्वी का परिवार 2 साल पहले ही इस सोसाइटी में करीबकरीब साथ ही शिफ्ट हुआ था. प्रशांत से उस की दोस्ती जिम में आतेजाते हुई थी जो बढ़ कर अब प्रगाढ़ संबंधों में बदल चुकी थी. प्रशांत की पत्नी नेहा और उन के 2 युवा बच्चों आर्यन और शुभा से वह बहुत बार मिल चुकी थी. आपस में घर भी आनाजाना हो चुका था. सब से नजरें बचाते हुए प्रशांत और सान्वी अपने रिश्ते में फूंकफूंक कर कदम आगे बढ़ा रहे थे. दोनों का दिल किसी जंगली की तरह न किसी रिश्ते का नियम मानता था, न समाज का कोई कानून. दोनों को एकदूसरे को देखना, बातें करना, साथ हंसना, कुछ समय साथ बिताना बहुत खुशी दे जाता था. दोनों ने अब किसी की भी परवाह करनी छोड़ दी थी.

धु्रव छोटा था. उस की पूरी जिम्मेदारी सान्वी ही उठाती थी. सोम लापरवाह इंसान था. सोम से उस का विवाह उस की दौलत देख कर सान्वी के पेरैंट्स ने तय किया था पर शादी के बाद सोम की पर्सनैलिटी सान्वी को कुछ ज्यादा जंची नहीं. जहां सान्वी बहुत सुंदर, स्मार्ट, फिटनैस के प्रति सजग, जिंदादिली स्त्री थी, वहीं सोम ढीलाढाला सा नौकरों पर बिजनैस छोड़ दोस्तों के साथ शराब पीने में खुशी पाने वाला गैरजिम्मेदार, मूडी, गुस्सैल इंसान था.

सोम के मातापिता भी इसी बिल्डिंग में दूसरे फ्लैट में रहते थे. सान्वी उन के प्रति भी हर फर्ज पूरा करती आई थी. सासससुर को जब भी कोई जरूरत होती, इंटरकौम से सान्वी को बुला लेते. सान्वी फौरन जाती. सोम घरगृहस्थी की हर जिम्मेदारी सान्वी पर डाल निश्चिंत रहता. दोस्तों के साथ पी कर आता. अंतरंग पलों में सान्वी के साथ जिस तरह पेश आता सान्वी कलप कर रह जाती. कहां उस ने कभी रोमांस में डूबे दिनरातके सपने देखे थे और कहां अब पति के मूडी स्वभाव से तालमेल मिलाने की कोशिश ही करती रह जाती.

प्रशांत से मिलते ही दिल खिल सा गया था. प्रशांत उस की हर बात पर ध्यान देता, उस की हर जरूरत का ध्यान रखता  था. सोम कभीकभी मुंबई से बाहर जाता. धु्रव स्कूल में होता तब प्रशांत औफिस से छुट्टी कर धु्रव के आने तक का समय सान्वी के साथ ही बिताता. किसी भी नियम को न मानने वाले दोनों के दिल सभी सीमाएं पार कर गए थे. दोनों एकदूसरे की बांहों में तृप्त हो घंटों पड़े रहते.

सान्वी के तनमन को किस सुख की कमी थी, वह सुख जब प्रशांत से मिला तो उस की सम झ में आया कि अगर प्रशांत न मिला होता तो यह कमी रह जाती. मशीनी से सैक्स के अलावा भी बहुत कुछ है जीवन में… अब सान्वी को पता चला सैक्स सिर्फ शरीर की जरूरत के समय पास आना ही नहीं है, तनमन के अंदर उतर जाने वाला मीठा सा कोमल एहसास भी है.

प्रशांत न मिलता तो न जाने जीवन के कितने खूबसूरत पल अनछुए से रह जाते. उसे कोई अपराधबोध नहीं है. उस ने हमेशा सोम को मौका मिलने पर किसी के साथ भी फ्लर्ट करते देखा है. उस के टोकने पर हमेशा यही जवाब दे कर उसे चुप करवा दिया कि कितनी छोटी सोच है तुम्हारी… 2 बार वह रिश्ते की एक कजिन के साथ सोम को खुलेआम रंगरलियां मनाते पकड़ चुकी है, पर सोम नहीं सुधरा. पराई औरतों के साथ मनमानी हरकतें करना उस के हिसाब से मर्दानगी है. उसे खुशी मिलती है. आज प्रशांत के साथ उसे देख कर ज्यादा कुछ शायद इसलिए ही कह न सका… प्रशांत को याद करतेकरते सान्वी को नींद आ गई.

प्रशांत घर पहुंचा तो नेहा, आर्यन, शुभा सब लेट चुके थे. आर्यन, शुभा दोनों कालेज के लिए जल्दी निकलते थे. उन के लिए नेहा को भी टाइम से सोना पड़ता था.

प्रशांत चेंज कर के बैडरूम में आया तो नेहा ने पूछा, ‘‘इतना लेट?’’

‘‘हां, टहलना अच्छा लग रहा था.’’

‘‘किस के साथ थे?’’

‘‘सान्वी मिल गई थी, फिर सोम भी आ गया था.’’

नेहा चुप रही. पति की सान्वी से बढ़ती नजदीकियों की उसे पूरी खबर थी पर क्या करे, कैसे कहे, युवा बच्चे हैं… बहुत सोचसम झ कर बात करनी पड़ती है. प्रशांत को गुस्से में चिल्लाने की आदत है. शुभा सम झ रही थी कि सान्वी को क्या पता प्रशांत के बारे में… वह बाहर कुछ और है, घर में कुछ और जैसेकि आम आदमी होते हैं. 20 साल के वैवाहिक जीवन में नेहा प्रशांत की रगरग से वाकिफ हो चुकी थी. दूसरी औरतों को प्रभावित करने में उस का कोई मुकाबला नहीं था. नेहा की खुद की छोटी बहन से प्रशांत की अंतरंगता थी. वह कुछ नहीं कर पाई थी. जब उस की बहन की शादी कहीं और हो गई तब जा कर नेहा की जान में जान आई थी. पता नहीं कितनी औरतों के साथ वह फ्लर्ट कर चुका था. गरीब घर की नेहा अपने बच्चों को सुरक्षित भविष्य देने के चक्कर में प्रशांत के साथ निभाती आई थी, पर सान्वी का यह किस्सा आज तक का सब से ज्यादा ओपन केस हो रहा था. अब नेहा परेशान थी. सोसाइटी को यह पता था कि दोनों का जबरदस्त अफेयर है. दोनों डंके की चोट पर मिलते, मूवी देखते, बाहर जाते. प्रशांत तो लेटते ही खर्राटे भरने लगा था पर नेहा बेचैन सी उठ कर बैठ गई कि कैसे रोके प्रशांत की दिल्लगियां? कब सुधरेगा यह? बच्चे भी बड़े हो गए… वह जानती है बच्चों तक यह किस्सा पहुंच चुका है, बच्चे नाराज से रहते हैं, चुप रहने लगे हैं. आजकल नेहा का कहीं मन नहीं लग रहा है. क्या करे. इस बार जैसा तो कभी नहीं हुआ था. अब तो प्रशांत और सान्वी डंके की चोट पर बताते हैं कि हम साथ है.

नेहा रातभर सो नहीं पाई. सुबह यह फैसला किया कि बच्चों के जाने के बाद प्रशांत

से बात करेगी. बच्चे चले गए. प्रशांत थोड़ा लेट निकलता था. उस का औफिस पास ही था. नेहा ने बिना किसी भूमिका के कहा, ‘‘प्रशांत, बच्चों को भी तुम्हारा और सान्वी का किस्सा पता है… दोनों का मूड बहुत खराब रहता है… सारी सोसाइटी को पता है. मेरी फ्रैंड्स ने तुम दोनों को कहांकहां नहीं देखा. शर्म आती है अब प्रशांत… अब उम्र भी हो रही है. ये सब अच्छा नहीं लगता. मैं ने पहले भी तुम्हारी काफी हरकतें बरदाश्त की हैं… अब बरदाश्त नहीं हो रहा है. तुम उस के ऊपर पैसे भी बहुत खर्च कर रहे हो. यह भी ठीक नहीं है.’’

‘‘पैसे मेरे हैं, मैं उन्हें कहीं भी खर्च करूं और रही उम्र की बात, तो तुम्हें लगता होगा कि तुम्हारी उम्र हो गई, मैं सान्वी के साथ भरपूर ऐंजौय कर रहा हूं. दरअसल, उस का साथ मु झे यंग रखता है. यहां तो घर में तुम्हारे उम्र, बच्चे, खर्चों के ही बोरिंग पुराण चलते हैं और रही सोसाइटी की बात तो मैं किसी की परवाह नहीं करता, ठीक है? और कुछ?’’

नेहा का चेहरा अपमान और गुस्से से लाल हो गया, ‘‘पर मैं अब यह बरदाश्त नहीं करूंगी.’’

प्रशांत कुटिलता से हंसा, ‘‘अच्छा, क्या कर लोगी? मायके चली जाओगी? तलाक ले लोगी? हुंह,’’ कह कर वह तौलिया उठा कर नहाने चला गया.

नेहा की आंखों से क्षोभ के आंसू बह निकले. सही कह रहा है प्रशांत, क्या कर लूंगी, कुछ भी तो नहीं. मायका है नहीं. नेहा रोती हुई किचन में काम करती रही. मन में आया, सोम से बात कर के देखूं. सोम का नंबर नेहा के पास नहीं था. अब नेहा ने सान्वी से बात करना बिलकुल छोड़ दिया था. सोसाइटी में उस से आमनासामना होता भी तो वह पूरी तरह से सान्वी को इग्नोर करती. सान्वी भी बागी तेवरों के साथ चुनौती देती हुई मुसकराहट लिए पास से निकल जाती तो नेहा का रोमरोम सुलग उठता.

अपनी किसी सहेली से नेहा को पता चला कि सान्वी 2 दिन के लिए अपने मायके गई है. अत: सही मौका जान कर वह शाम को सोम से मिलने उस के घर चली गई. सोम ने सकुचाते हुए उस का स्वागत किया.

नेहा ने बिना किसी भूमिका के बात शुरू की, ‘‘आप को भी पता ही होगा कि सान्वी और प्रशांत के बीच क्या चल रहा है… आप उसे रोकते क्यों नहीं?’’

‘‘हां, सब पता है. आप प्रशांत को क्यों नहीं रोक रही हैं?’’

‘‘बहुत कोशिश की पर सब बेकार गया.’’

‘‘मेरी कोशिश भी बेकार गई,’’ कह कर सोम ने जिस तरह से कंधे उचका दिए, उसे देख नेहा को गुस्सा आया कि यह कैसा आदमी है… कितने आराम से कह रहा है कि कोशिश बेकार गई.

‘‘तो आप इसे ऐसे ही चलने देने वाले हैं?’’

‘‘हां, क्या कर सकता हूं?’’

‘‘मतलब?’’

‘‘मतलब यह कि मैं स्ट्रौंग पोजीशन में हूं नहीं, अतीत की मेरी हरकतों के कारण आज वह मु झ पर हावी हो रही है.

‘‘मेरा बिजनैस घाटे में है. मैं सान्वी को रोक नहीं पा रहा हूं, सारा दिन बैठ कर उस की चौकीदारी तो कर नहीं सकता.

‘‘बच्चे, घर और मेरे पेरैंट्स की पूरी जिम्मेदारी वह उठाती है… पर ठीक है. कुछ तो करना पड़ेगा… वह लौट आए. फिर कोशिश करता हूं.’’

नेहा दुखी मन से घर आ गई. सोम बहुत कुछ सोचता रहा. सान्वी कैसे किसी से खुलेआम प्रेम संबंध रख सकती है. बहुत हो गया… हद हो गई बेशर्मी की. आ जाए तो उसे ठीक करता हूं, दिमाग ठिकाने लगाता हूं.

उस दिन फोन पर भी उस ने सान्वी से सख्त स्वर में बात की पर सान्वी पर जरा भी

फर्क नहीं पड़ा. सोम की बातों का उस पर फर्क पड़ना बंद हो चुका था. जब से दिल की सुनने लगी थी, दिमाग भी दिल के ही पक्ष में दलीलें देता रहता था. सो जंगली सा दिल बेखौफ आगे बढ़ता जा रहा था और खुश भी बहुत था.

सान्वी आ गई. अगले दिन जब धु्रव को स्कूल भेज सुस्ताने बैठी तो सोम उस के पास आ कर तनातना सा बैठ गया. सान्वी ने महसूस किया कि वह काफी गंभीर है.

‘‘सान्वी, जो भी चल रहा है उसे बंद करो वरना…’’

सान्वी पलभर में कमर कस कर मैदान में खड़ी हो गई, ‘‘वरना क्या?’’

‘‘बहुत बुरा होगा.’’

‘‘क्या बुरा होगा?’’

‘‘जो तुम कर रही हो मैं उसे बरदाश्त नहीं करूंगा.’’

‘‘क्यों? क्या तुम मु झ से कमजोर हो? मैं तुम्हारी ये सब हरकतें बरदाश्त करती रही हूं तो तुम क्यों नहीं कर सकते?’’

‘‘सान्वी,’’ सोम दहाड़ा, ‘‘तुम मेरी पत्नी हो… तुम मेरी बराबरी करोगी?’’

‘‘मैं वही कर रही हूं जो मु झे अच्छा लगता है. कुछ पल अपने लिए जी रही हूं तो क्या गलत है? जिस खुशी का तुम ने ध्यान नहीं रखा, वह अब मिल गई… खुश हूं, क्या गलत है? ये सब तो तुम बहुत सालों से करते आए हो.’’

‘‘सान्वी, सुधर जाओ, नहीं तो मु झे गुस्सा आ गया तो मैं कोर्ट में भी जा सकता हूं… तुम्हारे और प्रशांत के खिलाफ शिकायत कर सकता हूं.’’

‘‘हां, ठीक है, चलो कोर्ट… सारी उम्र मन मार कर जीती रहूं तो ठीक है?’’

‘‘सान्वी, बहुत हुआ. प्रशांत से रिश्ता खत्म करो, नहीं तो कानूनी काररवाई के लिए तैयार रहो… मैं प्रशांत को भी नहीं छोड़ूंगा.’’

‘‘अच्छा? कौन सी कानूनी काररवाई करोगे? नया कानून नहीं जानते? यह न अपराध है, न पुरुषों की बपौती. औरत को भी सैक्सुअल चौइस का हक है.’’

‘‘क्या बकवास कर रही हो?’’

‘‘हां, शादीशुदा होते हुए भी सालों से पराई औरतों के साथ नैनमटक्का कर रहे हो, हमारे रिश्ते को एडलट्री की आग में तुम भी  झोंकते

रहे हो.’’

‘‘पर कोर्ट ने अवैध संबंधों में जाने के लिए नहीं कहा है, न उकसाया है.’’

‘‘पर यह तो साफ हो गया है कि न तुम मेरे मालिक हो, न मैं तुम्हारी गुलाम हूं. मु झे कानून की धमकी देने से कुछ नहीं होगा. तुम्हारी खुद की फितरत क्या रही है… अब बैठ कर सोचो कि मैं ने कितना सहा है. मु झे प्रशांत के साथ अच्छा लगता है. बस, मु झे इतना ही पता है और मु झे भी खुश रहने का उतना ही हक है जितना तुम्हें. और किसी भी जिम्मेदारी से मैं मुंह नहीं मोड़ रही हूं,’’ कह कर घड़ी पर नजर डालते हुए सान्वी ने आगे कहा, ‘‘ध्रुव के स्कूल से वापस आने से पहले मु झे घर के कई काम निबटाने होते हैं, उस के प्रोजैक्ट के लिए सामान लेने भी मु झे ही जाना है,’’ कह कर सान्वी उठ कर नहाने चली गई.

बाथरूम से उस के गुनगुनाने की आवाजें बाहर आ रही थीं. सोम सिर पकड़ कर बैठा था. कुछ सम झ नहीं आ रहा था कि अब क्या करे.

‘‘अगले दिन जब धु्रव को स्कूल भेज सुस्ताने बैठी तो सोम उस के पास आ कर तनातना सा बैठ गया. सान्वी ने महसूस किया कि वह काफी गंभीर है…’’

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें