Family soty in hindi
Family soty in hindi
पति पत्नीमें झगड़ा होता रहता है, परंतु यदि पत्नी रूठ कर मायके जा बैठे तो पति की क्या स्थिति होती है, जब हम ने इस पर विचार किया तो पाया कि 20-25 वर्ष पूर्व जो स्थिति थी वह आज नहीं है.
पहले लड़ाई का कारण बड़ा मासूम होता था जैसे हमें मिसेज शर्मा की साड़ी जैसी साड़ी चाहिए. यदि पति महोदय औफिस से डांट खा कर आए होते तो गुस्सा पत्नी पर निकलता, ‘‘चाहिए तो मंगा लो न अपने मायके से.’’
‘‘देखो मेरे मायके का नाम मत लेना,’’ और फिर वाकयुद्ध इतना बढ़ता कि श्रीमतीजी रूठ कर मायके जा बैठतीं और पति महोदय का वनवास शुरू हो जाता.
प्रात: दूध वाले से दूध ले कर फिर सो जाते. औफिस के लिए देर हो रही होती. उसी समय महरी आ धमकती. वह भी भद्दी, मैलीकुचैली सी. श्रीमतीजी ने छांट कर रखी ताकि उस की ओर देखने को भी मन न करे.
सो उसे वापस भेज स्वयं ही फ्रिज में कुछ पड़ा खा कर, बिना प्रैस किए कपड़े पहन कर, बिना पौलिश किए जूते पहन कर दफ्तर भागते. औफिस देर से जाने पर साहब से नजरें चुरानी पड़तीं.
दोपहर में सब अपनाअपना खाने का डब्बा खोलते तो विभिन्न प्रकार की
सब्जियों की महक भूख और बढ़ा देती. बेचारे पति महोदय कैंटीन की रूखी, फीकी थाली खाते हुए सोचते कि बेकार में श्रीमतीजी पर गुस्सा किया. उन्हें मायके जाने से रोक लेते तो ढंग का खाना तो मिलता.
घर पहुंच कर चाय बनाना चाहते तो वह फट जाती. ऐंटरटेनमैंट के नाम पर केवल दूरदर्शन. उस में कृषि दर्शन से मन बहलाते. खाने में सोचते खिचड़ी बना ली जाए. इस से अधिक की वे सोच भी नहीं सकते थे, क्योंकि मां और श्रीमतीजी ने कभी रसोई में जो घुसने नहीं दिया.
फिर क्या था. चावलदाल मिला कर कुकर में डाल दिए और पानी कम होने के कारण सेफ्टिवौल्व उड़ गया. बेचारे अब क्या करें? जनाब 3 तल्ले नीचे सीढि़यों से जाते और फिर स्कूटर को किक पर किक लगा बड़ी मुश्किल से स्टार्ट कर पास वाले ढाबे में जा कर छोलेभठूरे खाते. घर आ कर सोने लगते तो सुबह का भीगा तौलिया और कपड़े बिस्तर पर बिखरे मिलते. सब को किनारे रख कर सोने की कोशिश करते. उस समय श्रीमतीजी की बहुत याद आती. सोचते फोन कर लिया जाए पर तभी पुरुष अहं रोक देता कि वे गई हैं स्वयं और आएं भी स्वयं.
प्रात: कामवाली जल्दी आ गई. रसोई की हालत देख कर भड़क गई. जला कुकर देख कर तो और जलभुन गई.
बेचारे मिमियाते हुए उस से बोले, ‘‘वो न खिचड़ी जल गई थी,’’ मन ही मन सोच रहे थे कि अगर यह भाग गई तो झाड़ू, बरतन सब खुद करना पड़ेगा. नाश्ते के समय आलू के परांठे याद आते. सोचते कि क्या बुला लूं? पर फिर पुरुष अहं रोक देता.
उस दिन शाम को औफिस से घर लौटे तो तभी मिसेज शर्मा आ गईं, चीनी मांगने के बहाने यह टोह लेने की श्रीमतीजी कहां गईं और कब आएंगी.
बिना नाश्ता किए औफिस जाना, दूसरों का टिफिन देख ललचाना, होटल का खाना खाना, पेट खराब होना, दूरदर्शन और रेडियो पर किसी विशेष व्यक्ति की मृत्यु पर शोक मनाना, बिना प्रैस किए कपड़े और बिना पौलिश किए जूते पहन कर औफिस जाना और रात में विरह गीत रेडियो पर सुनना सब खलने लगा. मन लगाएं तो कहां?
औफिस में 1-2 महिलाएं हैं, जो शादीशुदा हैं. कहीं और जाएं तो किसी को पता चल जाए या फिर श्रीमतीजी को पता चल जाए तो समाज में क्या इज्जत रह जाएगी? बच्चों की भी याद आती. सब सहना कठिन होता.
सोचते मिसेज शर्मा का ‘भाभीजी कब आएंगी’, से आसान है मिसेज शर्मा की साड़ी जैसी साड़ी ले कर देना. 2 दिनों में अकल ठिकाने आ गई. श्रीमतीजी को लेने उन के मायके पहुंच गए. पहले की यानी पुराने जमाने की श्रीमतीजी भी विरह में आस लगाए बैठी होतीं कि कब संदेशा आए और वे वापस अपने श्रीमान के पास जाएं. सो हैप्पी ऐंडिंग.
आज के पति महोदय 33-34 वर्ष के एक बच्चे के पिता कैरियर की सीढि़यां चढ़ने में लगे हुए. अगर पत्नी मायके बैठ जाए तो? यह सौभाग्य तो किसी नसीब वाले को ही मिलता है. आजकल यदि मायका और ससुराल एक ही शहर में हैं तो महीने में एक बार श्रीमतीजी एक शाम के लिए मायके जाती ही हैं, क्योंकि वे भी काम करती हैं और साप्ताहिक छुट्टी में आउटिंग पर जाती हैं.
मायके की हर पल की खबर सोशल मीडिया पर मिलती रहती है और फिर फोन तो दिन भर होता ही रहता है तो फिर जाने की क्या आवश्यकता? हां, जब बच्चा छोटा था तो डेली उसे मायके छोड़ कर औफिस जाती थीं.
अब श्रीमतीजी के रूठ कर मायके जाने के फायदे देखिए. सुबहसुबह कोई अलार्म की तरह उठोउठो का राग नहीं अलापता. बच्चे को स्कूल बस तक छोड़ने को कोई नहीं कहता.
भीगा तौलिया बैड पर फेंकने पर कोई टोकने वाला नहीं. सुबहसुबह महकती स्टाइलिश कपड़ों में सजीसंवरी कामवाली को देख कर मन खिल जाता.
श्रीमती के सामने कनखियों से देख पाते थे अब खुली छूट. नाश्ता स्वयं बनाना आता है ब्रैडबटर, अंडाफ्राई और डिप वाली चाय. काम वाली तब तक घर साफ कर देती है. जनाब औफिस समय पर पहुंच जाते हैं.
मैडम मायके गई, सुन कर सब दोस्त जश्न मनाने लगते हैं, ‘‘तुम्हारे फोर्स्ड बैचलर होने की पार्टी तो बनती है.’’
औफिस की कुछ कुंआरियां, जिन की शादी की उम्र निकल रही होती है वे चांस लेने लगती हैं. घर का बना खाना औफर करने लगती हैं. आज के श्रीमान को फ्लर्ट करने का पूरा अवसर मिलता है. मजे ही मजे.
देर शाम तक औफिस में काम कर के घर 8 बजे पहुंचो या 9 बजे कोई कुछ कहने वाला नहीं. रात का खाना किसी अच्छे रैस्टोरैंट में किसी लड़की मित्र के साथ खाओ या घर पर पिज्जा मंगा लो. विकल्प बहुत हैं. छुट्टी के दिन इंटरनैट से देख कर नईनई रैसिपीज बनाने का मजा ही अलग होता है.
आजकल श्रीमतियां (पत्नियां) समान अधिकार के कारण श्रीमान को भी किचन में हाथ बंटाने को कहती हैं. इसीलिए वे भी बहुत कुछ पकानाबनाना जानते हैं.
वाशिंग मशीन में कपड़े औटोमैटिक धुल जाते हैं. कुछ काम कामवाली से करा लिए जाते हैं. ऐंटरटेनमैंट की भी कमी नहीं. जो चाहो चैनल देखो टीवी में या फिर देर रात तक औफिस का काम करें लैपटौप पर अथवा स्मार्ट फोन में लगे रहें सोशल साइट्स पर सब अपनी मरजी से. कोई बैड पर सोने का इंतजार नहीं कर रहा. श्रीमतीजी घर में हैं या नहीं किसी पड़ोसी को इस से कोई मतलब नहीं.
बच्चों से रोज बात हो जाती है, पर श्रीमतीजी से नहीं. वे सोचतीं इतने दिन बीत गए कहीं कोई और तो नहीं ढूंढ़ ली और फिर अपने अधिकार से अपने घर अपने बच्चों के साथ लौट आती हैं तो सारे गिलेशिकवे दूर हो जाते हैं.
‘‘आप हमें छोड़ कर कभी मत जाना. हम तुम्हारे बिना नहीं रह सकते,’’ यह श्रीमानजी मुंह से तो कह देते हैं पर मन हीमन सोचते हैं श्रीमतीजी को कभीकभी मायके भी जाना चाहिए.
‘‘पापा, सब लोग हम को घर में घुस कर देख क्यों रहे हैं? ऐसा लग रहा है, जैसे वे कोई अजूबा देख रहे हों,’’ नरेश की 22 साला बेटी नेहा बेटी ने पूछा.
‘‘वह… दरअसल, आज हम लोग शहर से आने के बाद क्वारंटीन सैंटर में 14 दिन रहने के बाद अपने घर जा रहे हैं न, इसीलिए सब लोग हमें अजीब नजरों से देख रहे हैं,’’ गांव में नरेश ने अपनी बेटी नेहा को बताया.
नरेश पिछले 20 साल से दिल्ली शहर में रह रहा था. अपनी शादी के कुछ दिनों बाद ही वह अपनी पत्नी के साथ शहर चला गया था.
शहर में कोई काम शुरू करने के लिए नरेश के पास रकम तो थी नहीं, बस थोड़ाबहुत पैसा अपने बड़े भाई से मांग कर ले गया था, जो वहां सामान खरीदने में ही खर्च हो गया.
पर नरेश ने हिम्मत नहीं हारी और महल्ले के लोगों की गाडि़यां साफ करने का काम ले लिया. बस एक बालटी, एक पुराना कपड़ा, कार शैंपू और पानी तो कार वालों के यहां मिल ही जाता था.
जैसेजैसे लोगों के पास गाडि़यां बढ़ीं, वैसेवैसे नरेश का काम भी बढ़ता चला गया और वह ठीकठाक पैसे कमाने लगा.
शहर में ही नरेश की पत्नी ने 2 बेटियों को जन्म दिया और अब तो बड़ी बेटी नेहा 22 साल की हो चली थी और छोटी बेटी 16 साल की.
नेहा के लिए तो लड़के वालों से बातचीत भी हो गई थी और रिश्ता भी पक्का हो गया था, पर इस लौकडाउन ने तो सभी के सपनों पर पानी ही फेर दिया. बहुत सारे मजदूरों को शहर छोड़ने पर मजबूर कर दिया था.
माना कि यह संकट कुछ महीनों में चला जाएगा, पर तब तक नरेश के पास इतनी जमापूंजी तो थी नहीं कि वह हालात सामान्य होने का इंतजार कर ले और वैसे भी बहुत से कार मालिकों ने अब नरेश को काम से हटा दिया था.
इस कोरोना काल में नरेश और उस का परिवार जितना सामान साथ ले सकते थे उतना ले आए और बाकी का सामान उन्हें मजबूरी के चलते शहर में ही छोड़ना पड़ गया था. पर मरता क्या न करता, जान बचाने के आगे भला सामान की चिंता कौन करता.
गांव में नरेश के बड़े भाई राजू का परिवार था. जब नरेश का परिवार गांव में अपने घर के दरवाजे पर पहुंचा तो सिर्फ राजू ही दरवाजे पर खड़ा था. उस ने उंगली के इशारे से ही नरेश और उस के परिवार को वहीं बाहर वाले कमरे में रुक जाने को कहा. उस कमरे में बरसात के दिनों में जानवरों को बांधा जाता था.
नरेश को पहले तो बहुत बुरा लगा, पर बाद में मन मार कर उस ने उसी कमरे को अपना घर बना लिया.
‘‘मैं ने पहले से ही कुछ दिनों का राशनपानी, एक चूल्हा और ईंधन इसी कमरे में रखवा दिया था, ताकि जब तुम लोग आओ तो दिक्कत का सामना न करना पड़े,’’ राजू ने नरेश से कहा.
‘‘हां भैया, बहुत अच्छा किया आप ने,’’ नरेश ने कहा और मन ही मन सोचने लगा, ‘भैया ने तो पानी भी नहीं पूछा और उलटा हम से अछूतों जैसा बरताव कर रहे हैं.’
नरेश रोज सुबह राजू को बैलों की जोड़ी को हांक कर खेत ले जाते देखता, तो उस का भी मन हो आता कि वह भी इस तरह ही खेती करे.
‘‘हां… तो जाते क्यों नहीं… खेती और मकान में हम लोगों का भी तो हिस्सा होगा न,’’ नरेश की पत्नी संध्या ने कहा.
‘‘हां… होना तो चाहिए… पर इतने बरसों से इस जमीन की देखभाल भैया ही कर रहे हैं, इसलिए पूछने की हिम्मत नहीं हो रही है,’’ नरेश ने संध्या से कहा.
‘‘पर नहीं पूछोगे, तो यहां गांव में क्या करोगे… किस के सहारे 2 बेटियों को ब्याहोगे… और खुद भी क्या खाओगे भला,’’ संध्या ने नरेश को समझाते हुए कहा.
जब नरेश को उस कमरे में रहते हुए 15 दिन हो गए, तो एक दिन जब राजू खेत की ओर जा रहा, तो नरेश भी वहां पहुंच गया और बोला. ‘‘भैया वहां गांव के बाहर भी हम सैंटर में 14 दिन रुके थे और अब अपने घर के बाहर भी हम 15 दिन तक पड़े रहे हैं… तो क्या अब हम घर के अंदर आ जाएं?’’
‘‘हां… कोई जरूरत हो तो आ जाना. वैसे, उस कमरे में भी कोई दिक्कत तो होगी नहीं तुम को…’’ राजू ने पूछा.
‘‘नहीं भैया… दिक्कत तो कोई नहीं है… साथ ही, मैं यह बात जानना चाह रहा था कि खेती में हमारा भी तो हिस्सा होगा, तो वह भी बता दीजिए, तो हम
भी अपना धंधापानी शुरू कर दें,’’ नरेश ने कहा.
इतना सुनते ही राजू के तेवर बदल गए. वह घर के अंदर गया. थोड़ी ही देर में वापस आ गया और एक कागज नरेश को दिखाते हुए बोला, ‘‘लो… पहचानो इस कागज को… शहर जाते समय जब तुम्हें पैसे की जरूरत थी, तब तुम्हीं ने तो अपने हिस्से का मकान और खेत सब मेरे नाम कर दिया था. देखो, तुम्हारा ही तो अंगूठा लगा है न?’’
यह सुन कर सन्न रह गया था नरेश… उसे आज भी अच्छी तरह याद था कि शहर जाने के लिए जब उसे कुछ पैसे की जरूरत थी, तब उस ने अपने बड़े भाई से पैसे मांगे थे. तब राजू ने यह कह कर उसे पैसे दिए थे कि वह ये पैसे गांव के चौधरी से ले कर आया है और उसे इस पैसे पर एक निश्चित ब्याज हर महीने देना होगा. इसी बात के इकरारनामे पर अंगूठा लगाया था नरेश ने… अपने ही सगे भाई ने लूट लिया था उसे.
‘‘अरे, यह तो मैं बड़ा भाई होने का फर्ज निभा रहा हूं जो तुम्हें घर में आने भी दिया है, वरना तो तुम लोग बीमारी फैलाने वाले बम से कम नहीं हो इस समय. देख लो गांव में जा कर, कोई पास भी खड़ा हो जाए तो नाम बदल देना मेरा,’’ राजू बोला.
नरेश चुपचाप वहां से लौट गया. नरेश के पास राशन अब खत्म होने को आया था. पत्नी के साथ बातचीत के बाद उस ने सोचा कि क्यों न गांव में बनी दुकान से कुछ राशन उधार ले आऊं, बाद में कुछ काम जम जाएगा, तो लाला का उधार चुकता कर देगा.
‘‘लालाजी, कुछ राशन चाहिए… पर पैसा अभी नहीं दे पाऊंगा… कुछ दिनों बाद काम जमते ही मैं आप को पूरे पैसे दे दूंगा,’’ नरेश ने लाला के पास जा
कर कहा.
‘‘अरे भैया… खुद हमारे पास ही सामान ज्यादा नहीं बचा है और पीछे से भी आवक बंद है. ऐसे में अगर तुम उधार की बात करोगे, तो बड़ी मुश्किल हो जाएगी… उधार तो नहीं दे पाऊंगा अब. जब तुम्हारे पास पैसे हों… तब गल्ला ले जाना आ कर,’’ लाला की बात सुन कर अपना सा मुंह ले कर रह गया था नरेश.
नरेश अब उलझन में पड़ गया था. बच्चों का पेट तो भरना ही होगा, पर कैसे?
अब नरेश के पास आखिरी चारा था कि कुछ सामान गिरवी रख दिया जाए, जिस के बदले में जो पैसे मिलें उस से राशन खरीद लिया जाए.
जब नरेश ने यह बात संध्या को बताई, तो वह अपने कान की बालियां ले आई और बोली, ‘‘आप इन्हीं को गिरवी रख दीजिए और जो पैसे मिलें उस से सामान खरीद लाइए.’’
कोई चारा न देख नरेश बालियां ले कर गांव के एक पैसे वाले आदमी के पास पहुंचा, जो गांठगिरवी का काम करता था.
‘‘अरे भैया… ये सारे काम तो हम ने बहुत पहले से ही बंद कर रखे हैं. और अब तो सरकार का भी इतना दबाव है, फिर तुम तो शहर से आए हो… तुम्हारे पास से ली हुई किसी भी चीज से बीमारी लगने का ज्यादा खतरा है…
‘‘भाई, तुम से तो हम चाह कर भी कुछ नहीं ले सकते… हमें माफ करना भाई… हम तुम्हारी कोई मदद नहीं कर पाएंगे,’’ उस आदमी के दोटूक शब्द थे.
इधर नरेश गल्ला और पैसे के लिए परेशान हो रहा था, तो उधर उस की पत्नी संध्या और बेटियां एक दूसरी ही तरह की समस्या से जूझ रही थीं.
दरअसल, गांव की लड़कियों के पहनावे और शहर की लड़कियों के पहनावे में बहुत फर्क होता है. शहरों में किसी भी तबके की लड़की के लिए लोअर, टीशर्ट और जींस पहनना आम बात है, पर गांवों में अभी भी लड़कियां सलवारसूट पहनती हैं और ऊपर से दुपट्टा भी डालती हैं. यही फर्क नरेश की बेटियों के लिए परेशानी का सबब बन रहा था. गांव के लड़के तो लड़के, बड़ी उम्र के लोग भी उन्हें अजीब ललचाई नजरों से देखते थे.
एक दिन की बात है. गांव के नजदीक बहने वाली नदी के पानी में एक निठल्ले गैंग के 5 लड़के पैर डाल कर बैठे हुए थे.
‘‘यार, वह जो परिवार दिल्ली से आया है, उस में माल बहुत मस्त है…’’ पहले लड़के ने कहा.
‘‘लड़कियां तो लड़कियां… उन की मां भी बहुत मस्त है,’’ दूसरा लड़का बोला.
‘‘अरे यार, उन लड़कियों से दोस्ती करवा दो मेरी… मैं हमेशा से ही जींस वाली लड़कियों से दोस्ती करना चाहता था…’’ तीसरा लड़का बोला.
‘‘ठीक है भाई… तू उन लड़कियों से दोस्ती करना और हम लोग… तो करेंगे प्रोग्राम…’’
‘‘नहींनहीं… भाई ऐसी बात भी मन में मत लाना… वे लोग शहर से आए हैं और अगर उन लड़कियों के साथ प्रोग्राम किया, तो हम लोगों को भी कोरोना हो जाएगा,’’ थोड़ी समझदारी दिखाते हुए एक लड़का बोला, जो मोबाइल और इंटरनैट की कुछ जानकारी रखता था.
‘‘वह तो सब हो जाएगा… सरकार का कहना है कि अगर हम रबड़ के दस्ताने इस्तेमाल करेंगे, तो इंफैक्शन का खतरा नहीं होगा,’’ पहले वाले ने ज्ञान बघारा.
‘‘अबे तो फिर क्या तू पूरे शरीर में रबड़ पहनेगा?’’ ठहाका मारते हुए एक लड़का बोला.
उस के बाद सब आपस में प्लान बनाने में बिजी हो गए.
नरेश अपनी उधेड़बुन में परेशान चला आ रहा था… उस की समझ में नहीं आ रहा था कि अब शहर से गांव आ कर कैसे गुजारा करेगा, शहर में होता तो कुछ भी काम कर लेता, पर यहां गांव में न तो काम है और न ही कोई किसी भी तरह से मदद करने को तैयार है.
‘‘चाचाजी, नमस्ते.’’
नरेश ने आवाज की दिशा में सिर घुमाया, तो सामने निठल्ले गैंग का हैड खड़ा था.
नरेश जब से गांव में आया था, तब से सब लोगों की अनदेखी ही झेल रहा था, ऐसे में अपने लिए चाचाजी के संबोधन ने उसे बड़ा अच्छा महसूस कराया.
नरेश के होंठों पर एक मुसकराहट दौड़ गई, ‘‘भैया नमस्ते.’’
‘‘अरे चाचा… क्यों परेशान दिख रहे हैं… कोई समस्या है क्या?’’ वह लड़का बोला.
‘‘भैया… अब क्या बताऊं… वहां की सारी समस्याएं झेल कर परिवार के साथ अपने गांव में पहुंचा हूं, पर यहां भी राशन खत्म हो गया है. न ही कोई पैसे उधार दे रहा है और न ही कोई गल्ला देने को तैयार है,’’ नरेश ने अपनी लाचारी दिखाते हुए कहा.
‘‘अरे तो इस में क्या दिक्कत है चाचा… सरकार की तरफ से सब लोगों को मुफ्त राशन दिया तो जा रहा है,’’ वह लड़का बोला.
‘‘पर भैया… उस के लिए तो राशनकार्ड होना चाहिए… और हमारे पास राशनकार्ड तो है नहीं,’’ नरेश ने कहा.
‘‘अरे चाचा तो इस में कौन सी बड़ी बात है… रोज दोपहर यहां स्कूल में राशनकार्ड वाले बाबूजी बैठते हैं, जो गांव आए हुए लोगों का राशनकार्ड बनाते हैं… बस, आप को इतना करना है कि पूरे परिवार समेत कल दोपहर स्कूल पर पहुंच जाना. मेरी बाबूजी से अच्छी पहचान है… मैं उन से कह कर आप का कार्ड बनवा दूंगा, और फिर जितना चाहो उतना राशन भी दिलवा दूंगा आप को,’’ निठल्ले गैंग के हैड ने कहा.
अचानक से अपनी समस्याओं का अंत होते देख कर नरेश बहुत खुश हो गया और घर आ कर कल दोपहर होने का इंतजार करने लगा. वह सोचने लगा, ‘एक बार पेट भरने की समस्या का अंत हो जाए, फिर यही गांव के बाजार में कुछ कामधंधा जमाऊंगा. कुछ पैसा बैंक से लोन ले कर, शहर से सामान ले कर बाजार में बेचा करूंगा और फिर भैया का यह कमरा भी छोड़ दूंगा. फिर आराम से अपनी बेटियों का ब्याह करूंगा,’ बस इसी तरह के भविष्य के सपनों में नरेश की आंख लग गई.
अगले दिन 12 बजने से पहले ही नरेश अपनी दोनों बेटियों और पत्नी को ले कर स्कूल में बाबू से मिलने चलने लगा.
अचानक से रास्ते में निठल्ले गैंग का हैड नरेश के सामने आ गया और नरेश की पत्नी और लड़कियों को घूरते हुए बोला, ‘‘अरे चाचा, वे राशनकार्ड वाले बाबूजी कह रहे थे कि आप सब लोगों का एक पहचानपत्र भी जरूरी है. क्या उस की कौपी लाए हैं आप लोग?’’
‘‘नहीं भैया… आप ने तो कल ऐसा कुछ बताया ही नहीं था…’’ अपनी नासमझी पर परेशान हो उठा था नरेश.
‘‘अरे चाचा… आप परेशान हो रहे हो… वे देखो सामने मेरी झोंपड़ी है. उस में इन बच्चों को आराम से बिठा देते हैं. और हम और आप चल कर पहचानपत्र ले आते हैं,’’ लड़के ने कहा.
‘‘हां, ठीक?है… ऐसा है संध्या… जब तक हम लोग अपना पहचानपत्र नहीं ले कर आते, तुम वहीं झोंपड़ी में बैठ जाओ,’’ नरेश ने अपनी पत्नी से कहा.
नरेश उस लड़के के साथ वापस हो लिया, जबकि उस की पत्नी संध्या अपनी दोनों बेटियों के साथ झोंपड़ी में चारपाई पर जा बैठीं.
रास्ते में जब नरेश उस लड़के के साथ आ रहा था, तब एक जगह वह लड़का रुका और बोला, ‘‘चाचा, बड़ी गरमी है. सामने ही मेरे दोस्त का घर है. पहले एक गिलास पानी पी लें, फिर चलते हैं.’’
दोनों के सामने बिसकुट और शरबत आया. शरबत पीते ही नरेश का अपने शरीर पर कोई जोर नहीं रहा और उसे बेहोशी आने लगी. वह वहीं गिर गया.
उधर जिस झोंपड़ी में नरेश अपने परिवार को छोड़ कर आया था, वहां पर 3-4 लड़के एकसाथ आ गए.
‘‘वाह भाई… आज तो हम शहरी माल के साथ सटासट करेंगे… चलो पहले कौन है लाइन में,’’ बेशर्मी से निठल्ले गैंग का एक लड़का बोल रहा था.
संध्या को उन लड़कों की नीयत पर शक हो गया और वह बचाव का रास्ता खोजने लगी.
अचानक एक लड़के ने संध्या के सीने को हाथों से भींच लिया, जिसे देख कर दूसरा लड़का हंसने लगा.
‘‘अरे, जब बछिया पास में हो तो… गाय को काहे को परेशान करना…’’
‘‘अरे, तुझे बछिया के साथ मजे लेने हैं, तो उस के साथ ले… मुझे तो यह गाय ही पसंद आ गई है.’’
दूसरे लड़के ने संध्या को चारपाई पर बांध दिया और इसी तरह जबरदस्ती उस की दोनों बेटियों के भी हाथमुंह बांध दिए गए.
पूरा निठल्ला गैंग इस परिवार पर टूट पड़ा और लड़के बलात्कार करने में जुट गए, इतने में वहां गैंग का हैड भी आ गया.
‘‘अरे, अकेले ही सब माल मत खा जाना… मेरे लिए भी छोड़ देना.’’
‘‘अरे, लो यार… आज तो 3-3 हैं. जिस के साथ चाहो, उस के साथ मजे करो.’’
और उस निठल्ले गैंग के पांचों लड़कों ने बारीबारी से और बारबार संध्या और उस की बेटियों का बलात्कार किया और इतना ही नहीं, बल्कि जो लड़का इंटरनैट की जानकारी रखता था, उस ने अपने मोबाइल से अश्लील वीडियो भी शूट किया और जी भर जाने के बाद वहां से भाग गए.
कुछ ही देर में संध्या का सबकुछ लुट चुका था. आज उस के ही सामने उस की बेटियों और उस का बलात्कार हो गया. उसे और कुछ समझ नहीं आ रहा था. वह पागल सी हो रही थी. अचानक उस ने अपनी दोनों बेटियों को साथ लिया और गांव के नजदीक बहने वाली नदी में छलांग लगा दी.
इधर जब नरेश होश में आया, तो दौड़ कर उस झोंपड़ी में पहुंचा. पर, वहां के हालात तो कुछ और ही बयान कर रहे थे. अब भी उस की कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि अचानक उस का परिवार कहां चला गया.
तभी नरेश की नजर अंदर बैठे हुए निठल्ले गैंग के लड़कों पर पड़ी, जिन पर मस्ती का नशा अब भी चढ़ा हुआ था. वह उन की ओर लपका.
‘‘ऐ भैया… हम अपनी पत्नी और बेटियों को यहीं छोड़ कर गए थे… अब कहां हैं वे सब… कुछ समझ नहीं आ रहा है हम को.’’
‘‘ओह… तो तू होश में आ गया… ले यह मोबाइल में देख ले और समझ ले कि तेरे बच्चे कहां हैं,’’ उस मोबाइल वाले लड़के ने मोबाइल पर बलात्कार का वीडियो नरेश की आंखों के सामने कर दिया.
अपनी बेटियों और पत्नी का एकसाथ बलात्कार होते देख नरेश का खून खौल गया. उस ने कोने में रखी लाठी उठाई और उन लड़कों पर हमला कर दिया. एक तो नरेश पर नशे का असर अब भी था, ऊपर से वे जवान 5 लड़के.
उन लड़कों ने नरेश के हाथों से लाठी छीन ली और तब तक मारा जब तक वह मर नहीं गया.
इस कोरोना संकट और गांव पलायन ने नरेश की मेहनत से बनाए हुए सपनों के छोटेमोटे घोंसले को बरबाद कर दिया था.
नरेश और उस का पूरा परिवार अब खत्म हो चुका था. अब उसे न तो घर की जरूरत थी, न पैसे की, न नौकरी की, न ही राशन की और न ही राशनकार्ड की…
जून, 1993 की बात है. मुंबई में बंगलादेशियों की धरपकड़ जारी थी. पुलिस उन्हें पकड़पकड़ कर ट्रेनों में ठूंस रही थी. कुछ तो चले गए, कुछ कल्याण स्टेशन से वापस मुड़ गए. किसी का बाप पकड़ा गया और टे्रेन में बुक कर दिया गया तो बीवीबच्चे छूट गए. किसी की मां पकड़ी गई तो छोटेछोटे बच्चे इधर ही भीख मांगने के लिए छूट गए. पुलिस को किसी का फैमिली डिटेल मालूम नहीं था, बस, जो मिला, धर दबोचा और किसी भी ट्रेन में चढ़ा दिया. सब के चेहरे आंसुओं से भीग गए थे.
यह धरपकड़ करवाने वाले दलाल इन्हीं में से बंगाली मुसलमान थे. रात के अंधेरे में सोए हुए लोगों पर पुलिस का कहर नाजिल होता था, क्योंकि इन्हें दिन में पकड़ना मुश्किल था. कभी तो कोई मामला लेदे कर बराबर हो जाता और कभी किसी को जबरदस्ती ट्रेन में ठूंस दिया जाता. इन की सुरक्षा के लिए कोई आगे नहीं आया, न ही बंगलादेश की सरकार और न ही मानवाधिकार आयोग.
उन दिनों मेरे पास कुछ औरतों का काम था. सब की सब सफाई पर लगा दी गई थीं. कुछ को मैं ने कब्रिस्तान में घास की सफाई पर लगा रखा था. ज्यादातर औरतें बच्चों के साथ थीं. उन के साथ जो मर्द थे, उन के पति थे या भाई, मालूम नहीं. ये भेड़बकरियों की तरह झुंड बना कर निकलती थीं और झुंड ही की शक्ल में रोड के ब्रिज के नीचे अपने प्लास्टिक के झोपड़ों में लौट जाती थीं.
उन्हीं में एक थी फरजाना. देखने में लगता था कि वह 17 या 18 साल की होगी. मुझे तब ज्यादा आश्चर्य हुआ जब उस ने बताया कि वह विधवा है और एक बच्चे की मां है. उस का 2 साल का बच्चा जमालपुर (बंगलादेश) में है.
इस धरपकड़ के दौरान एक दिन वह मेरे पास आई और बोली, ‘‘साहब, मैं यहां से वापस बंगलादेश नहीं जाना चाहती.’’
‘‘क्यों? चली जाओ. यहां अकेले क्या करोगी?’’
‘‘साहब, मेरा मर्द एक्सीडेंट में मर गया. मेरा एक लड़का है जावेद, मेरा बाबू, मैं अपनी भाभी और भाई के पास उसे छोड़ कर आई हूं. मैं अपने बाबू के लिए ढेर सारा पैसा कमाना चाहती हूं ताकि उसे अच्छे स्कूल में अच्छी शिक्षा दिला सकूं और बड़ा आदमी बना सकूं.’’
फरजाना को पुकारते समय मैं उसे ‘बेटा’ कहता था और इसी एक शब्द की गहराई ने उस को मेरे बहुत करीब कर दिया था. न जाने क्यों, जब वह मेरे पास आती तो मेरे इतने करीब आ जाती जैसे किसी बाप के पास बेटी आती है. वह मुझे ‘रे रोड’ के प्लास्टिक के झोंपड़ों की सारी दास्तान सुनाती.
उस की कई बार इज्जत खतरे में पड़ी, लेकिन वह भाग कर या तो रे रोड के रेलवे स्टेशन पर आ गई या रोड पर आ कर चिल्लाने लगी. ये इज्जत लूटने वाले या उन्हें जिस्मफरोशी के बाजार में बेचने वाले बंगलादेशी ही थे. पहले वह यहां के दलालों से मिलते थे. रात के समय औरतों को दिखाते थे और फिर सौदा पक्का हो जाता था. कितनी ही औरतें फकलैंड रोड, पीली कोठी और कमाठीपुरा में धंधा करने लगीं और कुछ तंग आ कर मुंबई से भाग गईं.
फरजाना ने एक दिन मुझे बताया कि वह बंगाली नहीं है. बंटवारे के समय उस के पिता याकूब खां जिला गाजीपुर (उत्तर प्रदेश) से पूर्वी पाकिस्तान गए थे. उस के बाद 1971 के गृहयुद्ध में वह मुक्ति वाहिनी के हाथों मारे गए. इस के बाद उस के भाई ने उस की शादी कर दी. उस का पति एक्सीडेंट में मर गया. जब उस का पति मरा तो वह पेट से थी. अब यह खानदान पूरी तरह उजड़ गया था. बंगलादेश से जब बिहारी मुसलमानों ने उर्दू भाषी पाकिस्तान की तरफ कूच करना शुरू किया तो वहां की सरकार ने उन्हें लेने से इनकार कर दिया. इधर बंगलादेश सरकार भी उन्हें अपने पास रखना नहीं चाहती थी, क्योंकि इस गृहयुद्ध में इन की सारी वफादारी पाकिस्तान के साथ थी. यहां तक कि इन्होंने मुक्ति वाहिनी से लड़ने के लिए अपनी रजाकार सेना बनाई थी.
जबपाकिस्तान हार गया और एक नए देश, बंगलादेश, का जन्म हो गया तो ये सारे लोग बीच में लटक गए. न बंगलादेश के रहे न पाकिस्तान के. फरजाना उन्हीं में से एक थी. वह भोजपुरी के साथ बहुत साफ बंगला बोलती थी. एक दिन तो हद हो गई, जब वह टूटेफूटे बरतनों में मेरे लिए मछली और चावल पका कर लाई.
मैं ने अपने दिल के अंदर कई बार झांक कर देखा कि फरजाना कहां है? हर बार वही हुआ. फरजाना ठीक मेरी लड़की की तरह मेरे दिल में रही. अब वह मुझे बाबा कह कर पुकारती थी. दिल यही कहता था कि उसे इन सारे झमेलों से उठा कर क्यों न अपने घर ले जाऊं, ज्यादा से ज्यादा यही होगा कि मेरी 3 के बजाय 4 लड़कियां हो जाएंगी. लेकिन उस के बाबू जावेद का क्या होगा, जिस को वह जमालपुर (बंगलादेश) में छोड़ कर आई थी और फिर मैं ने उसे इधरउधर के काम से हटा कर अपने पास, अपने दफ्तर में रख लिया. काम क्या था, बस, दफ्तर की सफाई, मुझे बारबार चाय पिलाना और कफन के कपड़ों की सफाई.
मुंबई एक ऐसा शहर है जहां ढेर सारे ट्रस्ट, खैराती महकमे हैं, बुरे लोगों से ज्यादा अच्छे लोग भी हैं और जिस विभाग का मैं मैनेजर था वह भी एक चैरेटी विभाग था. मसजिदों की सफाई, इमामों, मोअज्जिनों की भरती, पैसों का हिसाब- किताब लेकिन इस के अलावा सब से बड़ा काम था लावारिस मुर्दों को कब्रिस्तान में दफन करना. जो भी मुसलिम लाशें अस्पताल से मिलती थीं, उन का वारिस हमारा महकमा था. हमारा काम था कि उन को नहला कर नए कपड़ों में लपेट कर उन्हें कब्रिस्तान में सुला दिया जाए.
मुंबई में कब्रिस्तानों का तो यह आलम है कि चाहे जहां भी किसी के लिए कब्र खोदी जाए, वहां 2-4 मुर्दों की हड्डियां जरूर मिलती हैं. मतलब इस से पहले यहां कई और लोग दफन हो चुके हैं, और फिर इन हड्डियों को इकट्ठा कर के वहीं दफन कर दिया जाता है. यहां कब्रिस्तानों में कब्र के लिए जमीन बिकती है और यह दो गज जमीन का टुकड़ा वही खरीद पाते हैं जिन के वारिस होते हैं.
सोनापुर के इलाके में ज्यादातर कब्रें इसलिए पुख्ता कर दी गई हैं ताकि दोबारा यहां कोई और मुर्दा दफन न हो सके. मुंबई में मुर्दों की भी भीड़ है, इन के लिए दो गज जमीन का टुकड़ा कौन खरीदे? इसलिए हमारा विभाग यह काम करता है. हमारे विभाग ने लावारिस लाशों के लिए एक जगह मुकर्रर कर रखी है. यह संस्था कफनदफन का सारा खर्च बरदाश्त करती है. बाकायदा एक मौलाना और कुछ मुसलमान इस काम पर लगा दिए गए हैें कि जब कोई लावारिस लाश आए उसे नहलाएं, कफन पहनाएं और नमाजेजनाजा पढ़ कर कब्र में उतारें. शायद ऐसा विभाग हिंदुस्तान के किसी शहर में नहीं है, लेकिन मुंबई में है और यह चैरेटी इस काम को खुशीखुशी करती है. वैसे इस दफ्तर का मुंबई की भाषा में एक दूसरा नाम भी है, ‘कफन आफिस.’
एक दिन फरजाना ने आ कर मुझे एक मुड़ीतुड़ी तसवीर दिखाई, ‘‘बाबा, यह मेरा बाबू है, ठीक अपने बाप पर गया है,’’ और फिर उस ने किसी कीमती चीज की तरह उसे अपने ब्लाउज में रख लिया. बच्चे की तसवीर बड़ी प्यारी थी. बड़ीबड़ी आंखें, उस में ढेर सारा काजल, माथे पर काजल का टीका, बाबासूट पहने फरजाना की गोद में बैठा हुआ है. मैं ने पूछा, ‘‘फरजाना, यह छोटा बच्चा तुम्हारे बगैर कैसे रहता होगा?’’
‘‘मैं वहां उसे भैयाभाभी के पास छोड़ कर आई हूं. उन के अपने 2 बच्चे हैं. यह तीसरा मेरा है. बड़े आराम से रह रहा होगा बाबा. आखिर, इस का बाप नहीं, दादा नहीं, चाचा नहीं, फिर इस के लिए कौन कमाएगा? इस को कौन बड़ा आदमी बनाएगा? मैं अपने सीने पर पत्थर रख कर आई हूं. जब किसी का बच्चा रोता है तो मेरा बाबू याद आता है. मैं अकेले में चुपके- चुपके रोती हूं. लेकिन मैं चाहती हूं, थोड़ा- बहुत पैसा कमा लूं तो वहां जाऊं, अपनेबाबू का अच्छे स्कूल में नाम लिखाऊं और फिर बड़ा हो कर मेरा बाबू कुछ बन जाए.’’
कुछ दिनों के बाद पुलिस ने इन की धरपकड़ बंद कर दी. लेकिन मैं ने उन सारी औरतों को काम से हटा दिया. वह कहां गईं, किधर से आईं, किधर चली गईं, मैं इस फिक्र से आजाद हो गया क्योंकि इन में कुछ रेडलाइट एरिया का चक्कर भी काटती थीं. मैं अपनेआप को इन तमाम झंझटों से दूर रखना चाहता था.
एक दिन जब दफ्तर की सफाई करते समय एक थैला मिला. खोल कर देखा तो उस में छोटे बच्चे के लिए नएनए कपड़े थे. मुझे यह समझने में देर नहीं लगी कि यह सारे कपड़े फरजाना ने अपने बाबू के लिए खरीदे होंगे और जल्दबाजी या पुलिस की धरपकड़ के दौरान वह इन्हें भूल गई होगी. अब ऐसे खानाबदोश लोगों का न घर है न टेलीफोन नंबर. फिर इन कपड़ों का क्या किया जाए?
मैं ने एकएक कपड़े को गौर से देखा. बाबासूट, जींस की पैंट, जूता, मोजा और एक छोटी सी टोपी. मैं ने भी उन्हें वहीं संभाल कर रख दिया. शहर में फरजाना को तलाश करना मुश्किल था.
एक दिन अखबार पर सरसरी निगाह डालते हुए मैं ने देखा कि कुछ औरतें सोनापुर (भानडूप) के रेडलाइट एरिया से पकड़ी गई हैं और पुलिस की हिरासत में हैं. इन में फरजाना का भी नाम था. इन सारी औरतों को कमरे के नीचे तहखाने में रखा गया था. दिन में केवल एक बार खाना दिया जाता था और जबरदस्ती उन से देह व्यापार का धंधा कराया जाता था.
उस का नाम पढ़ते ही मेरा दिल जोरजोर से धड़कने लगा. उस का बारबार मुझे बाबा कह के पुकारना याद आने लगा. दिल नहीं माना और मैं उस की तलाश में निकल पड़़ा.
उसे ढूंढ़ने में अधिक परेशानी नहीं हुई. वह भांडूप पुलिस स्टेशन में थी और वहां की पुलिस उसे बंगलादेश भेज रही थी. मैं थोड़ी देर के लिए उस से मिला लेकिन अब वह बिलकुल बदल चुकी थी. वह मुझे टकटकी लगा कर देख रही थी. उस के चेहरे की सारी मुसकराहट गुम हो चुकी थी. मुझे मालूम था कि उस की इज्जत भी लुट चुकी है. औरत की जब इज्जत लुट जाती है तो उस का चेहरा हारे हुए जुआरी की तरह हो जाता है, जो अपना सबकुछ गंवा चुका होता है. मैं ने वह प्लास्टिक का थैला उस के हाथ में दे दिया. उस ने उसे देखा और रोते हुए बोली, ‘‘बाबा, अब इस की जरूरत नहीं.’’
‘‘क्यों?’’
‘‘बाबा, मेरा बाबू मर गया.’’
‘‘क्या बात कर रही हो. यह कैसे हो सकता है?’’
‘‘बाबा, वह मर गया. मैं अपने भाई और भाभी को पैसा भेजती रही और वह मेरे बाबू की मौत मुझ से छिपाए रहे. वह उसे कमरे के बाहर सुला देते थे. रात भर वह नन्हा फरिश्ता बारिश और ठंड में पड़ा रहता था. उसे सर्दी लगी और वह मर गया. भाभी और भाई ने उस की मौत को मुझ से छिपाए रखा ताकि उन को हमेशा पैसा भेजती रहूं. वह तो एक औरत वहां से आई थी और उस ने रोरो कर मेरे बाबू की दास्तान सुनाई. अब मेरा जिस्म बाकी है. अब मुझे जिंदगी से कोई दिलचस्पी नहीं.’’
फिर वह दहाड़ मार कर रोने लगी.
उस के इस तरह रोने से पुलिस स्टेशन में हड़बड़ी मच गई. सभी अपना काम छोड़ कर उस की तरफ दौड़ पड़े. उसे पानी वगैरह पिला कर चुप कराया गया. पुलिस अपनी काररवाई कर रही थी लेकिन मुझे यकीन था कि अब वह बंगलादेश नहीं जाएगी, अलीगंज या किशनगंज से दोबारा भाग आएगी. अब वहां उस का था भी कौन? एक बच्चा था वह भी मर गया. मैं उसे पुलिस स्टेशन में छोड़ कर आ गया और अपने कफन आफिस के कामों में लग गया. रोज एक नया मुर्दा और उस का कफनदफन.
एक दिन अस्पताल से फोन आने पर वहां गया. एक लाश की पहचान नहीं हो पा रही थी. लाश लोकल ट्रेन से कट गई थी. दोनों जांघों की हड्डियां कट गई थीं. पेट की आंतें बाहर थीं. यह एक औरतकी लाश थी. ब्लाउज के अंदर एक छोटे बच्चे की तसवीर खून में डूबी हुई थी. तसवीरको पानी से साफ किया. अब सबकुछ साफ था. यह फरजाना की लाश थी. उस का बाबू अपनी तसवीर में हंस रहा था. न जाने अपनी मौत पर, या अपनी मां की मौत पर या फिर इस मुल्क के बंटवारे पर. मैं उस लाश को उठा कर ले आया और तसवीर के साथ उसे कब्र में दफन कर दिया.
नेहा की मुसकराहट गायब हो चुकी थी. उस ने आकाश में चांद को देखा. न जाने उस ने कितनी रातें चांद से यह कहते हुए बिताई थीं कि तुम देखना चांद, वह रात भी आएगी जब वह अकेली नहीं होगी. इन तमाम सूनी रातों की कसम… वह रात जरूर आएगी जब उस का चांद उस के साथ होगा. तुम देखना चांद, वह आएगा… जरूर आएगा…
‘अरे, कहां खो गई? बस चली जाएगी,’ आकाश उस के कानों के पास फुसफुसाते हुए बोला. वह चुपचाप बस के भीतर चली आई. आकाश बहुत खुश था. इन चंद घंटों में वह नेहा को न जाने क्याक्या बता चुका था. पढ़ाई के लिए अमेरिका जाना और जाने से पहले पिता की जिद पूरी करने के लिए शादी करना उस की विवशता थी. अचानक मातापिता की एक कार ऐक्सिडैंट में मृत्यु हो गई. उसे वापस इंडिया लौटना पड़ा, लेकिन अपनी पत्नी को किसी और के साथ प्रेमालाप करते देख उस ने उसे तलाक दे दिया और मुक्त हो गया.
रात्रि धीरेधीरे खत्म हो रही थी. सुबह के साढ़े 3 बज रहे थे. नेहा ने समय देखा और दोबारा अपनी अमूर्त दुनिया में खो गई. जिंदगी भी कितनी अजीब है. पलपल खत्म होती जाती है. न हम समय को रोक पाते हैं और न ही जिंदगी को, खासकर तब जब सब निरर्थक सा हो जाए. बस, अब अपने गंतव्य पर पहुंचने के लिए आधे घंटे का सफर और था. बस की सवारियां अपनी मंजिल तक पहुंचेंगी या नहीं यह तो कहना आसान नहीं था, लेकिन आकाश की फ्लाइट है, वह वापस अमेरिका चला जाएगा और वह अपनी सहेली के घर शादी अटैंड कर 2 दिन बाद लौट जाएगी, अपने घर. फिर से वही… पुरानी एकाकी जिंदगी.
‘‘क्यों सोच रही हो?’’ आकाश ने ‘क्या’ के बजाय ‘क्यों’ कहा तो उस ने सिर उठा कर आकाश की तरफ देखा. उस की आंखों में प्रकाश की नई उम्मीद बिखरी नजर आ रही थी.
‘तुम जानते हो आकाश, दिल्ली बाईपास पर राधाकृष्ण की बड़ी सी मूर्ति हाल ही में स्थापित हुई है, रजत के कृष्ण और ताम्र की राधा.’
‘क्या कहना चाहती हो?’ आकाश ने असमंजस भाव से पूछा.
‘बस, यही कि कई बार कुछ चीजें दूर से कितनी सुंदर लगती हैं, पर करीब से… आकाश छूने की इच्छा धरती के हर कण की होती है लेकिन हवा के सहारे ताम्र रंजित धूल आकाश की तरफ उड़ती हुई प्रतीत तो होती है, पर कभी आकाश तक पहुंच नहीं पाती. उस की नियति यथार्थ की धरा पर गिरना और वहीं दम तोड़ना है वह कभी…’
‘राधा और कृष्ण कभी अलग नहीं हुए,’ आकाश ने भारी स्वर में कहा.
‘हां, लेकिन मरने के बाद,’ नेहा की आवाज में निराशा झलक रही थी.
‘ऐसा नहीं है नेहा, असल में राधा और कृष्ण के दिव्य प्रेम को समझना सहज नहीं,’ आकाश गंभीर स्वर में बोला.
‘क्या?’ नेहा पूछने लगी, ‘राधा और कान्हा को देख कर तुम यह सोचती हो?’ आकाश की आवाज की खनक शायद नेहा को समझ नहीं आ रही थी. वह मौन बैठी रही. आकाश पुन: बोला, ‘ऐसा नहीं है नेहा, प्रेम की अनुभूति यथार्थ है, प्रेम की तार्किकता नहीं.’
‘क्या कह रहे हो आकाश? मुझे सिर्फ प्रेम चाहिए, शाब्दिक जाल नहीं,’ नेहा जैसे अपनी नियति प्रकट कर उठी.
‘वही तो नेहा, मेरा प्यार सिर्फ नेहा के लिए है, शाश्वत प्रेम जो जन्मजन्मांतरों से है, न तुम मुझ से कभी दूर थीं और न कभी होंगी.’
‘आकाश प्लीज, मुझे बहलाओ मत, मैं इंसान हूं, मुझे इंसानी प्यार की जरूरत है तुम्हारे सहारे की, जिस में खो कर मैं अपूर्ण से पूर्ण हो जाऊं.’’
‘‘तुम्हें पता है नेहा, एक बार राधा ने कृष्ण से पूछा मैं कहां हूं? कृष्ण ने मुसकरा कर कहा, ‘सब जगह, मेरे मनमस्तिष्क, तन के रोमरोम में,’ फिर राधा ने दूसरा प्रश्न किया, ‘मैं कहां नहीं हूं?’ कृष्ण ने फिर से मुसकरा कर कहा, ‘मेरी नियति में,’ राधा पुन: बोली, ‘प्रेम मुझ से करते हो और विवाह रुक्मिणी से?’
कृष्ण ने फिर कहा, ‘राधा, विवाह 2 में होता है जो पृथकपृथक हों, तुम और मैं तो एक हैं. हम कभी अलग हुए ही नहीं, फिर विवाह की क्या आवश्यकता है?’
‘आकाश, तुम मुझे क्या समझते हो? मैं अमूर्त हूं, मेरी कामनाएं निष्ठुर हैं.’
‘तुम रुको, मैं बताता हूं तुम्हें, रुको तुम,’ आकाश उठा, इस से पहले कि नेहा कुछ समझ पाती वह जोर से पुकारने लगा. ‘खड़ी हो जाओ तुम,’ आकाश ने जैसे आदेश दिया.
‘अरे, लेकिन तुम कर क्या रहे हो?’ नेहा ने अचरज भरे स्वर में पूछा.
‘खड़ी हो जाओ, आज के बाद तुम कृष्णराधा की तरह केवल प्रेम के प्रतीक के रूप में याद रखी जाओगी, जो कभी अलग नहीं होते, जो सिर्फ नाम से अलग हैं, लेकिन वे यथार्थ में एक हैं, शाश्वत रूप से एक…’
नेहा ने देखा आकाश के हाथ में एक लिपस्टिक थी जो शायद उस ने उसी के हैंडबैग से निकाली थी, उस से आकाश ने अपनी उंगलियां लाल कर ली थीं.
‘अब सब गवाह रहना,’ आकाश ने बुलंद आवाज में कहा.
नेहा ने देखा बस का सन्नाटा टूट चुका था. सभी यात्री खड़े हो कर इस अद्भुत नजारे को देख रहे थे. इस से पहले कि वह कुछ समझ पाती आकाश की उंगलियां उस के माथे पर लाल रंग सजा चुकी थीं. लोगों ने तालियां बजा कर उन्हें आशीर्वाद दिया. उन के चेहरों पर दिव्य संतुष्टि प्रसन्नता बिखेर रही थी और मुबारकबाद, शुभकामनाओं और करतल ध्वनि के बीच अलौकिक नजारा बन गया था.
आकाश नतमस्तक हुआ और उस ने सब का आशीर्वाद लिया.
बाहर खिड़की से राधाकृष्ण की मूर्ति दिख रही थी जो अब लगातार उन के नजदीक आ रही थी… पास… और पास… जैसे आकाश और नेहा उस में समा रहे हों.
‘‘नेहा… नेहा… उठो… दिल्ली आ गया. कब तक सोई रहोगी?’’ नेहा की सहेली बेसुध पड़ी नेहा को झिंझोड़ कर उठाने का प्रयास करने लगी. कुछ देर बाद नेहा आंखें मलती हुई उठने का प्रयास करने लगी.
सफर खत्म हो गया था… मंजिल आ चुकी थी. लेकिन नेहा अब भी शायद जागना नहीं चाह रही थी. उसे कुछ समझ नहीं आ रहा था… वे सब क्या था? काश, जिंदगी का सफर भी कुछ इसी तरह चलता रहे… वह पुन: सपने में खो जाना चाहती थी.
मुंबई की 26 वर्षीय सुंदर कद – काठी, कश्मीरा परदेशी ने अपने अभिनय करियर की शुरुआत वर्ष 2018 में तेलुगु फिल्म ‘नर्तनासाला’ से की है. इसके बाद उन्होंने मराठी फिल्म ‘रामपत’ में ‘मुन्नी’ का अभिनय किया. वर्ष 2019 में उन्होंने हिंदी फिल्म ‘मिशन मंगल’ में ‘अन्या शिंदे’ की भूमिका निभाई है. स्वभाव से विनम्र, हंसमुख और मृदुभाषी कश्मीरा महाराष्ट्र के पुणे की है. उन्हें फैशन डिज़ाइनर बनने की इच्छा थी, उन्होंने मुंबई में एडमिशन लिया और साथ में मॉडलिंग भी करने लगी, इससे उन्हें अभिनय करने की इच्छा पैदा हुई, ऑडिशन दिया और साउथ में काम मिला. इस तरह से उन्होंने कई साउथ की फिल्मों में काम किया और अब उन्हें हिंदी वेब सीरीज में भी अभिनय करने का मौका मिला है. वह अपनी जर्नी से खुश है और आगे एक अच्छी मराठी फिल्म करने की इच्छा रखती है.
डिजनी + हॉटस्टार पर रिलीज हुई थ्रिलर वेब सीरीज ‘फ्रीलांसर’ में कश्मीरा ने आलिया खान की भूमिका निभाई है, जिसे सभी तारीफ कर रहे है. कश्मीरा ने खास गृहशोभा से ज़ूम पर बात की. पेश है कुछ खास अंश.
चुनौतीपूर्ण भूमिका
वेब सीरीज की सफलता पर कश्मीरा का कहना है कि मैं इस भूमिका को करने में बहुत उत्साहित थी. जब से मैंने ऑडिशन दिया, मुझे इस भूमिका को करने की इच्छा थी. शूटिंग के लिए सभी मोरक्को गए, अनुभव बहुत अच्छा था. निर्देशक नीरज पांडे के साथ काम करना अपने आप में एक बड़ी बात होती है. उन्हें पूरी फिल्म का विजन पता होता है इसमें मुझे केवल अपना सबसे अच्छा परफोर्मेंस देना पड़ा. रिलीज के बाद सबको मेरा काम पसंद आया है, ये मेरे लिए अच्छी बात है. इसमें आलिया एक सिंपल लड़की है, जिसे एक डार्क फेज से गुजरना पड़ता है. शुरू में मैंने जब स्क्रिप्ट पढ़ी, तो अभिनय मुश्किल लगा, टीम से मैंने बात भी की, लेकिन निर्देशक ने मुझे चिंता न करने को कहा, इससे मेरे अंदर आत्मविश्वास आया और वाकई मैंने इस चुनौतीपूर्ण भूमिका को कर लिया. सेट पर मुझे खुद को टीम के अनुसार ढालना पड़ा, ऐसे में आलिया की भूमिका को करना कठिन नहीं था. इसके अलावा इस भूमिका से मुझे बहुत कुछ सीखने को भी मिला. इसमें अलिया एक साहसी लड़की है, जो किसी भी हालत में पीछे नहीं हटती. साहसी होने की वजह से वह कठिन परिस्थिति में भी सब कर जाती है और मैं भी ऐसी ही सोच रखने लगी हूँ.
मिली प्रेरणा
कश्मीरा शुरू में फैशन डिज़ाइनर बनने की इच्छा रखती थी, लेकिन समय के साथ उन्हें अभिनय की इच्छा पैदा हुई. वह कहती है कि मैं मुंबई फैशन डिज़ाइनर बनने आई थी, तब मैंने पढ़ाई के साथ मॉडलिंग भी साउथ और मुंबई में करने लगी थी. जब मेरा कोर्स पूरा हुआ, तो मुझे ऑडिशन भी मिलने लगे. मुझे एक्टिंग तब आती नहीं थी. फिर मैंने नीरज कवी की थिएटर ज्वाइन किया फिर मुझे अभिनय की जानकारी मिली और एक साल में 4 अलग साउथ की भाषाओँ में फिल्में की. मुझे ये एक अच्छा मौका मिला, जिससे मेरी पहचान बनी और अब वेब सीरीज भी कर डाली.
किये संघर्ष
संघर्ष के बारें में कश्मीरा कहती है कि पुणे से आने के बाद संघर्ष रहा. बाहर से आने पर हज़ार लोग हज़ार बातें करते है, उसमे सही क्या और गलत क्या है, उसे चुनने में समय लगता है.
परिवार का सहयोग
परिवार के सहयोग के बारें में कश्मीरा हंसती हुई कहती है कि मेरे पिता पुलिस में है, और वे हर बात में कुछ गलत को पहले से भांपते है. पहले तो उन्होंने ना कहा, पर बाद में वे मान गए, क्योंकि मैंने उनको मना लिया और एक साल का समय लिया. मेरे काम को देखने के बाद उन्होंने बहुत सहयोग दिया.
फैशन पसंद
कश्मीरा फैशन डिज़ाइनर है और उन्हें फैशन पसंद है वह कहती है कि फैशन डिज़ाइनर होने की वजह से कपड़ों को लेकर थोड़ी चूजी हूँ, लेकिन इंडस्ट्री डिज़ाइनर और स्टाइलिस्ट काफी टैलेंटेड है, इसलिए मुझे फिल्मों में कपड़ों के बारें में अधिक सोचना नहीं पड़ता. दैनिक जीवन में मुझे अरामदायक कपडे पहनना पसंद है. अवसर के अनुसार कपडे पहनती हूँ.
पसंदीदा व्यजंन
कश्मीरा आगे कहती है कि मैं महाराष्ट्रियन हूँ और बहुत फूडी हूँ, लेकिन स्वास्थ्य का ध्यान रखना पड़ता है. महाराष्ट्रियन कोई भी व्यंजन मुझे बहुत पसंद है. माँ के हाथ का बना हुआ वरण भात मुझे बहुत पसंद है. अधिक नहीं खा पाती, क्योंकि इसे घी के साथ खाना पड़ता है. माँ के पास जाने पर अवश्य खा लेती हूँ.
कश्मीरा का यूथ से कहना है कि दुनिया में इम्पॉसिबल कुछ नहीं होता, केवल धीरज धरने की होती है और हिम्मती होना बहुत जरुरी है.
रुपाली गांगुली और गौरव खन्ना स्टारर ‘अनुपमा’ इन दिनों काफी ड्रामा चल रहा है. टीवी सीरियल ‘अनुपमा’ में लगातर ट्विस्ट और टर्न्स आ रहे है. शो मेकर्स एक और नया ट्विस्ट ले आए. ‘अनुपमा’ के अपकमिंग एपिसोड में बड़ा मोड़ आने वाला है. ‘अनुपमा’ के अपकमिंग स्पॉयलर में दिखाया गया सुनसान रास्ते में पाखी लफांगो के बीच फंस जाएगी.
रोमिल की वजह से खड़ी हुई मुसीबत
रुपाली गांगुली और गौरव खन्ना स्टारर ‘अनुपमा’ में देखने को मिलेगा कि रोमिल बताएगा कि उसने अधिक और पाखी से बदला लेने के लिए यह कदम उठाया, लेकिन उसे पता नहीं होता कि ममला इतना बिगड़ जाएगा. शो में अनुपमा अंकुश के बेटे को करारा थप्पड़ मारेगी. वहीं तोषू और समर ने शहर के एक गुंडे से बात करके जानकारी निकलवाने के लिए बात करते है. दूसरी ओर प्रोमो में दिखाया जाता है पाखी लफंगो के बीच फंस जाती है.
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गुंडो के बीच फंसी स्वीटी
रुपाली गांगुली और गौरव खन्ना स्टारर ‘अनुपमा’ के प्रोमो में दिखाया जाता है कि पाखी सुनसान सड़को पर भूखी-प्यासी पाखी चक्कर खा के गिर जाती है. वहीं से गुजर रहे लफंगे उसे देख लेते है. प्रोमो में दिखाया गया कि ये लड़के पाखी के पास खड़े हो जाते है. पाखी बेसुध होती है और उसमें अभी हिम्मत नहीं होती कि वह खुद को बचा सके या इन लोगों को भगा सके. ऐसे में पाखी कौन बचाएगा या इन लफंगो का शिकार बनेंगी यह तो शो देखने से पता चलेगा.
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क्या पाखी शो को छोड़ रही है?
अभी हाल ही में स्टार परिवार ऑवर्ड्स 2023 में एक्ट्रेस मुस्कान बामने पहुंची. इस ऑवर्ड शो में उन्हें बेस्ट बहन का ऑवर्ड मिला. मीडिया ने जब मुस्कान मे सवाल किया कि वह शो में कहां गायब है. इस पर एक्ट्रेस ने कहा ये तो मुझे भी नहीं पता पाखी कहां गायब है. मुझे पता चलेगा तो जरुर बताऊंगी. शो छोड़ने के अटकलों पर मुस्कान ने कहा कि फिलहाल तो ऐसा कुछ नहीं है, क्या बोलूं मैं भाई.
घर में कई दिनों से चारों ओर मौत का सन्नाटा छाया था, लेकिन आज घर में खटपट चल रही थी. मामाजी कभी ऊपर, कभी नीचे और कभी गार्डन में आ जा रहे थे. उन के पहाड़ जैसे दुख को बांटने वाला कोई सगासंबंधी पास न था. घर में सब से बड़ा होने के नाते सभी जिम्मेदारियों का बोझ उन्हीं के कंधों पर आ पड़ा था. वे तो खुल कर रो भी नहीं सकते थे.
उन के भीतर की आवाज उन्हें कचोटकचोट कर कह रही थी कि अमृत, अगर तुम ही टूट गए तो बाकी घर वालों को कैसे संभालोगे? कितना विवश हो जाता है मनुष्य ऐसी स्थितियों में. उन का भानजा, उन का दोस्त विवेक इस संसार को छोड़ कर जा चुका था, लेकिन वे ऊहापोह में पड़े रहने के सिवा और कुछ कर नहीं पा रहे थे. अपने दुख को समेटे, भावनाओं से जूझते वे बोले, ‘‘बस उन्हीं की प्रतीक्षा में2 दिन बीत गए.
मंजू, पता तो लगाओ, अभी तक वे लोग पहुंचे क्यों नहीं? कोई उत्सव में थोड़े ही आ रहे हैं. अभी थोड़ी देर में बड़ीबड़ी गाडि़यों में फ्यूनरल डायरैक्टर पहुंच जाएंगे. इंतजार थोड़े ही करेंगे वे.’’‘‘मामाजी, अभीअभी पता चला है कि धुंध के कारण उन की फ्लाइट थोड़ी देर से उतरी.
वे बस 15-20 मिनट में यहां पहुंच जाएंगे. वे रास्ते में ही हैं.’’‘‘अंत्येष्टि तो 4 दिन पहले ही हो जानी चाहिए थी लेकिन…’’‘‘मामाजी, फ्यूनरल वालों से तारीख और समय मुकर्रर कर के ही अंत्येष्टि होती है,’’ मंजू ने उन्हें समझाते हुए कहा.‘‘उन से कह दो कि सीधे चर्च में ही पहुंच जाएं. घर आ कर करेंगे भी क्या? विवेक को कितना समझाया था, कितने उदाहरण दिए थे, कितना चौकन्ना किया था लोगों ने तजुर्बों से कि आ तो गए हो चमकती सोने की नगरी में लेकिन बच के रहना.
बरबाद कर देती हैं गोरी चमड़ी वाली गोरियां. पहले गोरे रंग और मीठीमीठी बातों के जाल में फंसाती हैं. फिर जैसे ही शिकार की अंगूठी उंगली में पड़ी, उसे लट्टू सा घुमाती हैं. फिर किनारा कर लेती हैं.’’‘‘छोडि़ए मामाजी, समय को भी कोई वापस लाया है कभी? सभी को एक मापदंड से तो नहीं माप सकते. इंतजार तो करना ही पड़ेगा, क्योंकि हिंदू विधि के अनुसार बेटा ही बाप की चिता को अग्नि देता है. सच तो यही है कि जेम्स विवेक का बेटा है.
यह उसी का हक है.’’‘‘मंजू, उस हक की बात करती हो, जो धोखे से छीना गया हो. तुम तो उस की दोस्त हो. उसी के विभाग में काम करती रही हो. बाकीतुम भी तो समझदार हो. तुम्हें तो मालूम है यहां के चलन.‘‘और भावना को देखो. उसे बहुत समझाया कि उस गोरी मेम को बुलाने की कोई जरूरत नहीं. अवैध रिश्तों की गठरी बंद ही रहने दो. अगर मेम आ गईं तो पड़ोसिन छाया बेवजह ‘न्यूज औफ द वर्ल्ड’ का काम करेगी, लेकिन वह नहीं मानी.’’‘‘मामाजी, आप बेवजह परेशान हो रहे हैं. ऐसी बातें तो होती रहती हैं इन देशों में. वे तो जीवन का अंग बन चुकी हैं. मैं ने भी भावना से बात की थी. वह बोली कि पोलीन भी तो विवेक के जीवन का हिस्सा थी.
दोनों कभी हमसफर थे. फिर जेम्स भी तो है.’’इतने में एक गाड़ी पोर्टिको आ खड़ी हुई.‘‘लो आ गई गोरी और उस की नाजायज औलाद,’’ मामाजी ने कड़वाहट से कहा.‘‘मामाजी, प्लीज शांत रहिए. यह भी विवेक का परिवार है. पोलीन उस की ऐक्स वाइफ तथा जेम्स बेटा है. उसे झुठलाया भी तो नहीं जा सकता,’’ मंजू ने समझाते हुए कहा.विवेक का पार्थिव शरीर बैठक में सफेद झलरों से सजे बौक्स में अंतिम दर्शन के लिए पड़ा था.
वर्ष 2008 में हिंदी फिल्म ‘टशन’ में जब करीना कपूर खान अपने जीरो साइज फिगर में आई तो सब के दिलों पर छा गई. उस वक्त हर लड़की जीरो साइज फिगर चाहती थी. लेकिन यह भी सच है कि जीरो साइज फिगर वाली और स्किनी लड़कियां अपनी स्किनी बै्रस्ट और स्किनी हिप को ले कर कौन्फिडैंट फील नहीं करती हैं. उन के कौन्फिडैंस को बनाए रखने के लिए देशीविदेशी फैशन डिजाइनर और अंडरगारमैंट्स प्रोडक्शन हाउस हर रोज नए प्रोडक्ट्स मार्केट में ला रहे हैं. वे न केवल अलगअलग डिजाइनों और रंगों की पैडेड ब्रा मार्केट में ले आए हैं, बल्कि सपाट कूल्हे को 36, 38 दिखाने के लिए पैडेड पैंटी और पैंटी एन्हान्सर्स भी मार्केट में आसानी से मिल जाते हैं.
पश्चिमी दिल्ली के वीरजी ऐंड संस नाम के अंडरगारमैंट्स हाउस की मालकिन मनमीत कौर का कहना है, ‘‘छोटी ब्रैस्ट वाली लड़कियां भी स्पैशल डिजाइन की गई पैडेड ब्रा से अपनी लो कट डै्रस में अपनी क्लीवेज उसी तरह दिखा सकती हैं जैसे कि बड़े ब्रैस्ट वाली लड़की विदेशी पैडेड ब्रा से जो ज्यादातर बिना सिलाई के बिना जोड़ के एक फोम से बनी होती है. इस से फायदा यह होता है कि टाइट टीशर्ट और पतली शर्ट के नीचे ब्रा की सिलाई की लाइनें नजर नहीं आतीं. जिन की ब्रैस्ट काफी कम है वे डबल पैडेड ब्रा का इस्तेमाल कर सकती हैं. ऐसी ब्रा में डबल फोम लगा हुआ होता है. इस से वे ज्यादा ब्यूटीफुल और कौन्फिडैंट फील करेंगी.’’
2. जैल साटिन पुशअप ब्रा
इस में ब्रा के अंदर जैलयुक्त कप और ऐसा फैब्रिक लगा होता है, जो आप की ब्रैस्ट को ऐसा उभार देता है जैसे कि नैचुरल हैवी बै्रस्ट हो. यह स्टै्रपलैस और बैकलैस दोनों ही तरह की ड्रैसेस को बहुत सुंदर शेप देती है.
मार्केट में ऐसी बहुत सारी कंपनियां हैं जो जैन साटिन पुशअप ब्रा बेचती हैं. अगर आप के पास मार्केट जा कर इसे खरीदने का समय नहीं है तो आप औनलाइन साइटों से भी इन्हें खरीद सकती हैं.
3. रिमूवेबल पैडिंग
सिलिकौन पैडिंग की तरह यह पैडिंग होती है लेकिन यह कपड़े से बनी होती है. इस के लिए अलग से ब्रा बनी होती है, जिस में पौकेट होती है. जब जरूरत हो तब इन जेबों में यह पैडिंग डाल लें. ये ऐसी महिलाओं के लिए बहुत अच्छी हैं, जिन का एक ब्रैस्ट छोटा हो और एक बड़ा हो या ऐसी महिलाओं के लिए जो कभीकभी किसी खास मौके पर पैडिंग वाली ब्रा पहनने की चाह रखती हों.
4. सिलिकौन पैडिंग
अब बाजार में ऐसी सिलिकौन पैडिंग आ गई हैं जिन्हें आप सीधे स्किन पर लगा सकती हैं. यह स्किन कलर की स्किन जैसी ही नरमनरम होती है. यह पैकिंग में आती है, इस की पैकिंग फेंकें नहीं. इसे प्रयोग करने के बाद सुखा कर या सूखे तौलिए से पोंछ कर वापस पैकिंग में ही रख दें. इसे 8 घंटे से ज्यादा प्रयोग में नहीं लाना चाहिए. जिन्हें स्किन एलर्जी हो, वे इस का प्रयोग न करें. यह कई बार प्रयोग में लाई जा सकती है. बहुत ज्यादा नमी के मौसम में यह खिसक सकती है, इसलिए वर्षा ऋतु में खास मौके पर ही इसे पहनें. बरसात के मौसम के लिए जल्दी सूखने वाली सिलिकौन पैडिंग भी आती हैं. वे महिलाएं जो अपने बेबी को फीड करा रही हों या जिन के निप्पल से किसी तरह का स्राव होता हो, वे इसे न पहनें.
ध्यान रखने वाली बातें
पैडेड ब्रा पहन कर आप मजाक का पात्र न लगें, इसलिए आप को सही बैंड साइज और सही कप साइज पता होना चाहिए. यदि वह ढीली हुई तो आप की ब्रैस्ट पुशअप नहीं होगी. पुशअप बीच में से होना चाहिए ताकि आप की क्लीवेज बन सके. अगर कप का साइज आप बड़ा ले लेंगी तो कसी हुई टीशर्ट पहनने पर इस के कप ऊपर से नजर आएंगे, जो देखने में अच्छे नहीं लगेंगे.
दूसरी बात यह देखें कि दोनों कप एकदूसरे से ज्यादा दूरी पर न स्थित हों. कई बार ऐसा होता है कि आप ने सही बैंड साइज और सही कप साइज भी खरीद लिया हो, लेकिन फिर भी आप की क्लीवेज नहीं बन रही है तो इस का सीधा सा मतलब यह है कि आप की ब्रा के दोनों कप ज्यादा दूरी पर हैं. इस का उपाय यह है कि ब्रा पहनें, थोड़ा सा आगे झुकें और अपनी ब्रैस्ट्स को अपने हाथों से दबा कर देखें कि आप कहां क्लीवेज चाहती हैं. अब अपने अंगूठे और उंगली से दोनों कपों के बीच स्थित बैंड को खींच कर देखें कि कितना खींचने पर आप की ब्रैस्ट क्लीवेज बना रही है.
आप को जितना बैंड ज्यादा लग रहा है उसे मोड़ कर सिलाई लगा दें ताकि कप पास आ जाएं. इस बात का खास खयाल रखें कि पैडेड ब्रा को कभी भी वाशंगि मशीन में न धोएं.
सपाट कूल्हों के लिए पैडेड अंडरगारमैंट्स
पहले कंपनियों ने हौलीवुड, बौलीवुड की हीरोइनों के लिए कूल्हे पर पैड बांधने के प्रोडक्ट निकाले लेकिन इस से हीरोइनें सहज महसूस नहीं कर पाती थीं. लेकिन अब कंपनी निर्माताओं ने पैडेड पैंटी, हिपअप शेपर्स, बट बूस्टर्स, एन्हान्सर्स पैंटीज, पैडेड अंडरवियर, पैडेड शौर्ट्स, सिलिकौन पैडिंग और पैडेड शर्ट की तरह पैडेड लो कट जींस जैसे प्रोडक्ट कूल्हों को उभार देने के लिए बना दिए हैं.
इन पैडेड पैंटीज और दूसरे प्रोडक्ट्स का इस्तेमाल कर के आप जल्दी ही सहज और स्वाभाविक रूप से उभरे हुए बट्स पा लेती हैं. ऐसा नहीं है कि इस तरह के प्रोडक्ट मार्केट में कम हैँ. अब कई कंपनियों ने पैंडेट अंडरगारमैंट्स बनाने शुरू कर दिए हैं. इसलिए अब इन तक पहुंच आसान है. आप औनलाइन किसी भी लौंजरी स्टोर पर क्लिक कर के इन्हें खरीद सकती हैं. लेकिन ध्यान रहे इस तरह के अंडरगारमैंट्स खरीदते समय उन की तसवीर और उन की डिटेल ठीक से पढ़ लें.
ऐसा न करें कि एकसाथ कई सारे स्टाइल मंगा लें. सब से पहले किसी एक स्टाइल को मंगवाएं और यह जानकारी अवश्य ले लें कि क्या इसे रिटर्न किया जा सकता है. अब इस पैडेड पैंटी को अपनी सभी जींस के साथ पहन कर देखें. इन्हें पहन कर आप के बट्स बिग लगने लगेंगे.
28 साल की ईशा अवस्थी देखने में बहुत अट्रैक्टिव है. उस की फीगर एकदम परफैक्ट है. लेकिन प्रोब्लम बस एक है. उस के फेस पर डिंपल नहीं है. बस एक यही कमी है जो उसे सताती है. जब भी वह दीपिका पादुकोण की कोई फोटो या रील देखती है तो उस की आंखें दीपिका के डिंपल पर आ कर रुक जाती हैं. इतना ही नहीं जब उसे इस बात का एहसास हुआ कि उस के पार्टनर आदित्य को डिंपल वाली लड़कियां अट्रैक्ट करती हैं तो वह कौस्मैटिक सर्जन डाक्टर नागेश्वरी के पास गालों पर डिंपल्स बनवाने पहुंच गई ताकि वह अपने पार्टनर को एक आकर्षक तोहफा दे सके. डाक्टर ने उस के गालों पर डिंपल्स बना दिए. असल में, डिंपल गाल के मांसल हिस्से में एक छोटा सा गड्ढा होता है, जो मामूली पेशी विकृति के कारण होता है. वैसे तो डिंपल्स ज्यादातर जींस पर डिपैंड करते हैं पर आजकल आधुनिक तकनीक के द्वारा इन्हें बनवाया भी जा रहा है.
मुंबई के बेथनी अस्पताल की डा. नागेश्वरी शर्मा कहती हैं, ‘‘यह एक पेशी की कमी है, जो सुंदरता को बढ़ाती है. इसीलिए पुरुषों से ज्यादा महिलाएं मेरे पास डिंपल्स बनवाने आती हैं. यह एक छोटा सा सर्जरी प्रोसैस है. इसे करवाने वाले गालों पर डिंपल्स की जगह या तो खुद बताते हैं या फिर मैं उन्हें खुद सजैस्ट कर देती हूं. ये ज्यादातर आंखों के कोनों से लाइन ड्रा कर मुंह के कोने से खींची जाने वाली लाइन के मिलने वाले बिंदु पर बनाए जाते हैं. ये 2 तरह के होते हैं – सर्कुलर और लंबे. पहले गालों पर मार्क लगाया जाता है फिर सर्जरी की जाती है.
कैसे होती है सर्जरी
जिस पौइंट पर डिंपल बनाना होता है उस पौइंट के बाहर से हाथ लगाना पड़ता है. इस सर्जरी में इस्तेमाल होने वाले औजार को कोर बायोप्सी नीडल कहते हैं. इस औजार की हैल्प से मुंह के अंदर से 0.5 मिलीमीटर या 0.7 मिलीमीटर का कट लगा कर गोलाई या लंबाकार में मसल्स को ध्यान से निकालना पड़ता है. फिर अंदर के दोनों भागों की स्किन को जोड़ कर गांठ बना कर मसल्स पर चिपका दिया जाता है. इस के बाद जब मसल्स हिलती हैं तो गालों पर डिंपल्स पड़ने लगते हैं.
एक तरफ डिंपल बनाने की पूरी प्रक्रिया में 20 से 30 मिनट का समय लगता है. इसे करने से पहले लोकल ऐनेस्थीसिया देना पड़ता है. इस सर्जरी के लिए नींद की दवा भी दी जाती है.
शुरू में डिंपल्स हर समय गालों पर दिखते हैं, लेकिन 3 हफ्तों के बाद जब घाव भर जाते हैं तब ये डिंपल हंसने पर ही पड़ते हैं. सर्जरी के बाद ऐंटीबायोटिक माउथवाश और पेनकिलर दी जाती है. पहले दिन बर्फ की सिंकाई करने की भी सलाह दी जाती है. बात करें अगर खर्चे की तो एक तरफ का डिंपल बनवाने का खर्चा 15 से 20 हजार रुपए तक आता है.
सुंदर दिखने की चाह
डा. नागेश्वरी कहती हैं, ‘‘18 साल से ज्यादा एज की कोई भी महिला या पुरुष इन्हें बनवा सकते हैं. लेकिन मैं उन्हीं के गालों पर डिंपल्स बनाती हूं, जो सुंदर दिखने की चाह रखते हैं. इन्हें बनवाने का किसी पर कोई दबाव तो नहीं है, मैं इस की पूरी जांच करती हूं. आप में कौन्फिडैंट होना बहुत जरूरी है.
सावधानियां
इस बात का ध्यान रखें कि सर्जरी हमेशा प्रशिक्षित और हाइजीन से युक्त कौस्मैटिक सर्जन से ही करवाएं ताकि बाद में किसी भी प्रकार के इन्फैक्शन का खतरा न हो. डिंपल सर्जरी करवाने के बाद आप और अधिक अट्रैक्टिव लगते हैं.