Anupama: मालती देवी ने अनुज को लगाया गले, अनुपमा हुई हैरान

रुपाली गांगुली और गौरव खन्ना स्टारर अनुपमा में आया जबरदस्त ट्विस्ट मालती देवी ने अनुज को लगाया गले. शो के मेकर्स टीआरपी में नंबर वन बनने के लिए जद्दोजहद में लगे है. अनुपमा के बीते एपिसोड में देखने को मिला कि पाखी सही सलामत घर में पाखी की एंट्री हो जाती है. जिसको लेकर सब परेशान थे. रोमिल के इस प्रैंक से सभी लोग नाराज होते है और उसे जेल भेजना चाह रहे होते है. रोमिल का पक्ष अंकुश लेता है लेकिन पाखी ने रोमिल को माफ कर दिया है.

मालती देवी ने अनुज को लगाया गले

टीवी सीरियल अनुपमा के अपकमिंग एपिसोड में देखने को मिलेगा कि कपाडिया हाउस में मालती देवी से कुछ कांच के पीस टूट जाते है. जिससे वह परेशान हो जाएगी और बार-बार कहेंगी- मैंने कुछ नहीं किया, मैंने कुछ नहीं किया. इस पर अनुपमा कहेंगी कोई बात नहीं टूट गया तो टूट गया. हालांकि इस बीच कांच के ऊपर से गुजर के मालती देवी अनुज को गले लगाती है और कहती, प्लीज मुझे ले जाओ, मुझे यहां नहीं रहना है. अपनी मां को घर ले जा. ये देख के हर कोई हैरान रह जाता है. खुद अनुज भी.

 

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मालती देवी की वापसी

आपको बता दें, मालती देवी पहले अनुपमा के सपने के लिए उसकी मदद करती थी. तो बाद में उसके खिलाफ हो गई थी और उसे बर्बाद करना चाहती थी. इसके बाद मालती देवी का शो में ट्रैक खत्म कर दिया था. जब उनकी वापसी हुई तो वह शो में बेसुध नजर आई. उनकी याददाश्त जा चुकी थी. अनुपमा को अभी तक पता लग चुका है कि यह सब नकुल की वजह से हुआ है जिसने धोखे से उनकी संपत्ति को हड़प ली. अब अनुपमा मालती देवी का ख्याल रख रहीं है.

बीच राह में: भाग 2- अनिता ने अपना घर क्यों नहीं बसाया

पर डाक्टर आनंद ने कभी उस का प्रेमी बनने की कोशिश नहीं की.डाक्टर आनंद ने जब अपनी शादी की25वीं सालगिरह मनाई तब लगभग पूरे अस्पताल को अपनी कोठी पर दावत में बुलाया. वहांजब अनिता नहीं पहुंची, तो सब को बहुतहैरानी हुई.

अनिता ने अपने न आने की बात डाक्टर आनंद को पहले ही बता दी थी.‘‘तुम पार्टी में क्यों नहीं आओगी?’’ डाक्टर आनंद उस की बात सुन कर उलझन का शिकार बन गए थे.‘‘सर, मेरी और आप की दोस्ती अस्पताल के अंदर ही ठीक है. यहां आप के सब से ज्यादा नजदीक मैं ही हूं.

आप के घर में बात अलग होगी. वहां आप के ऊपर मुझ से ज्यादा अधिकार रखने वाले बहुत लोग होंगे और यह बात मेरा दिल सहन नहीं कर पाएगा,’’ अनिता ने अपने मन की बात साफसाफ बता दी.‘‘यह तो समझदारी वाली बात नहीं हुई,’’ डाक्टर आनंद ने सिर्फ इतना ही कहा औरफिर उस पर पार्टी में शामिल होने को जोरनहीं डाला.

‘‘मैं सिरफिरी लड़की हूं, इतना तो आप मेरे बारे में समझ ही लीजिए,’’ खुल कर मुसकरा रही अनिता की नजरों का सामना नहीं कर पाए थे उस शाम डाक्टर आनंद और सोच में डूबे से वार्ड का राउंड लेने निकल गए.

उन के एक मरीज योगेशजी ने अपने बेटे की शादी में डाक्टर आनंद और अनिता दोनों को बहुत जोर दे कर बुलाया था. वहां से लौटते हुए देर हो गई तो दोनों को अपने घर ले आए थे. उन के रुकने की व्यवस्था उन्होंने 2 गैस्टरूमों में करवा दी थी.

उस रात अनिता उन के कमरे में चलीआई. बोली, ‘‘मैं आज आप से दूरनहीं सोना चाहती हूं,’’ और फिर उन की छाती से जा लगी.डाक्टर आनंद कुछ पलों तक पत्थर की मूर्ति से खड़े रहे. फिर जब अनिता ने उन की आंखों में प्यार से झंका तो उन्होंने उसे अपनी बांहों के मजबूत बंधन में कैद कर लिया.डाक्टर आनंद उस की जिंदगी में आने वाले पहले पुरुष थे.

प्यार की वह रात इस का सुबूत छोड़ गई थी.‘‘आई एम वैरी हैप्पी सर कि आप को मैं वह दे पाई हूं जो दिल के करीबी को ही सौंपना चाहिए. मैं ने जो किया है वह अपनी खुशियों की खातिर किया है,’’ बाद में अनिता ने ऐसा कह कर उन्हें किसी तरह के अपराधबोध में नहीं उलझने दिया था.‘‘मुझे फिर भी बहुत अजीब सा लगरहा है,’’ डाक्टर आनंद काफी बेचैन नजर आरहे थे.‘‘आप अपने को परेशान मत कीजिए, प्लीज.’’‘‘अनिता, तुम ने मुझे अपना सब कुछ सौंप दिया है पर मैं बदले में तुम्हें कुछ नहीं दे सकता हूं… न शादी, न समाज में इज्जत… उलटा मैं तुम्हारी बदनामी का कारण…’’अनिता ने उन के मुंह पर हाथ रख उन्हें आगे नहीं बोलने दिया और खुद भावुक हो कर कहा, ‘‘आप बेकार की बातें सोच कर परेशान मत होइए… जो हुआ है उसे मैं ने चाहा है और तभी वह हुआ है.

मैं आप के साथ जुड़ कर बहुत सुखी और खुश हूं. रोज सुबह उठ कर आप के बारे में सोचती हूं तो मन जीने के उत्साह से भर जाता है. आई लव यू, सर.’’‘‘पता नहीं यह रिश्ता कब तक चलेगा,कैसे चलेगा?’’ डाक्टर आनंद ने उस का माथा चूमने के बाद अपने मन की चिंता व्यक्त की.‘‘मेरी दिली इच्छा है कि हमारा यह रिश्ता मेरी आखिरी सांस तक चले,’’

अनिता ने उन की छाती पर सिर टिकाया और संतुष्ट अंदाज में आंखें बंद कर लीं.‘‘तुम से पहले तो मेरी सांसें बंद होंगी,माई स्वीटहार्ट.’’‘‘आप 100 साल और मैं 80 साल तक जिऊंगी, जनाब और फिर हम दोनों एक ही दिन इस दुनिया से विदा लें, तो कैसा रहेगा?’’ अनिता एकाएक हंस पड़ी तो डाक्टर आनंद भी मुसकराने को मजबूर हो गए. दोनों अब महीने में 1-2 बार योगेशजी की कोठी में ही मिलते.

उन के अलावा उन दोनों के बीच बने प्रेमसंबंध का कोई और राजदार नहींथा. डाक्टर आनंद की पत्नी सीमा भी जबकभी उस से किसी पार्टी में मिलीं, हमेशा हंस कर मिलीं.‘‘मेरी पत्नी कहती है कि मैं धीरेधीरे बूढ़ा होता जा रहा हूं. वह सम?ाती है कि जब तक अंदर ताकत है, मैं उस के साथ खूब मजे कर लूं… मैं क्या बूढ़ा हो गया हूं?’’ एक रात अनिता को जी भर के प्यार करने के बाद डाक्टर आनंद ने उस से हंसते हुए पूछा.

‘‘मुझे किसी और के साथ सोने का तो अनुभव नहीं है पर जो कुछ सहेलियों से सुना है और इंटरनैट पर देखा है, उस के हिसाब से तो आप जवानों को मात कर देने वाली जवानी के मालिक हो,’’ अनिता ने उन की दिल से तारीफ की तो वे बहुत खुश हुए.

डाक्टर आनंद ने 3 बार नए अस्पतालों में काम करना शुरू किया और तीनों बार 2 महीनों के अंदरअंदर ही अनिता ने भी उन्हीं अस्पताल में नौकरी शुरू कर ली.

दिल के औपरेशन के बाद मरीज की देखभाल करने की वह विशेषज्ञा समझ जाती थी, इसलिए अस्पताल वाले उसे खुशी से रख लेते थे. सीनियर होने के साथ उसे रहने केलिए फ्लैट मिलने लगा पर डाक्टर आनंद ने एक रात भी कभी उस के फ्लैट में नहीं गुजारी.

‘‘मैं नहीं चाहता हूं कि मेरे कारण कभी कोई तुम्हारा अपमान करे… अगर कभी ऐसा हुआ तो मु?ो तुम्हारे साथ सारे संबंध तोड़ने पड़ेंगे,’’ डाक्टर आनंद की इस चेतावनी को सुनने के बाद अनिता ने उन पर फिर कभी फ्लैट में आने को दबाव नहीं बनाया.

वह उन के लिए कभीकभी खाने की मनपसंद चीज बना कर ले जाती थी. उन्हें खासकर आलू के परांठे और खीर बहुत पसंद थी.

जब भी कोई खास मौका होता तो डाक्टर आनंद के कक्ष में दोनों इन का लुत्फ उठाते.जिस इंसान को केंद्र मान कर 20 साल से अनिता का सारा जीवन घूम रहा था, उसेअचानक दिल का तेज दौरा पड़ा था. उन की कोठी से रात के 11 बजे उन्हें ऐंबुलैंस से आईसीयू में लाया गया था.

प्रैगनैंसी: भाग 2- अरुण को बड़ा सबक कब मिला

4-5 दिन बाद शिखा अपने पति अरुण को फिर हवाईअड्डे पर छोड़ने गई. इस बार वह कंपनी के कुछ अधिकारियों के साथ अकेली थी. रूपा को उस ने कालेज जाने से रोका था और कहा था कि उस के पिताजी अब की बार लंबे दौरे पर जा रहे हैं, उन को विदा करने के लिए चलना है.

पर रूपा ने स्वयं पिता से जा कर कह दिया, ‘‘पिताजी, आप तो जानते ही हैं, कालेज कितना जरूरी होता है. एक छुट्टी का मतलब है 2 दिन तक लड़कियों से नोट्स मांगते फिरो. फिर आप तो कार से उतरते ही हवाईअड्डे के सुरक्षित भाग में चले जाएंगे. इस से अच्छा है आप हमें यहीं मोटी सी पप्पी दे दो.’’

अरुणा रूपा के सामने कुछ नहीं बोल पाया. रूपा के गाल पर प्यार किया और कंधा थपथपाते हुए बस इतना ही कहा, ‘‘तुम्हारी मां अकेले थोड़ा परेशान हो जाती है, उन का खयाल. रखना मैं अब की बार डेढ़ महीने बाद आऊंगा.’’

रूपा के इस तरह के व्यवहार से अरुण भी थोड़ा हिल गया था. एक क्षण को सोचा भी कि आजकल के बच्चे कितने हृदनहीन होते जा रहे हैं. फिर पुरुष होने के नाते दृढ़ता आ गई और फिर कंपनी के अधिकारियों से बात करने लगा.

इस बार अरुण को भी दुख हो रहा था कि वह शिखा को डेढ़ महीने के लिए अकेली छोड़े जा रहा है पर कर भी क्या सकता था. काम की जिम्मेदारियों का भी जीवन में अलग हिस्सा होता है. आदमी उन में उलझता है तो घर की जिम्मेदारी छोटी लगने लगती है.

अरुण के जाने के बाद शिखा अकेली ही गाड़ी में बैठ कर घर लौट आई. ड्राइंगरूम के सोफे पर वह निढाल सी बैठ गई. उसे को लगा समय जैसे एक क्षण को ठहर गया हो. करने को कुछ काम ही नहीं है. रूपा कालेज चली गई थी.

अरुण के उन शब्दों को याद कर के कि तुम खुश रहोगी तो मुझे भी ताकत मिलेगी, वह थोड़ा संभली. बाहर छज्जे पर जा कर गहरे नीले समुद्र की तरफ देखती रही और सोचती रही कि उसे भी समुद्र की तरह सबकुछ बरदाश्त कर लेना चाहिए. एकाएक उसे समुद्र की लहरों में संगीत की ध्वनि सुनाई देने लगी. वह अरु ण की याद के सुख में खो गई…

एक दिन शिखा अपने पलंग पर लेटी हुई रूपा का इंतजार कर रही थी, 4 बज चुके थे, अकसर रूपा 4 बजे तक कालेज से वापस आ जाती थी. वैसे उस की छुट्टी तो डेढ़ बजे ही हो जाती थी, पर घर पर आतेआते 4 बज जाते थे. शिखा शाम की चाय के लिए बराबर उस का इंतजार करती थी पर उस दिन 4 कभी के बज चुके थे.

वैसे रूपा को लेने के लिए वह गाड़ी भी भेज सकती थी, पर यह रूपा को पसंद नहीं था. उस का कहना था, ‘‘हर समय मेरे पीछे ड्राइवर भागता रहे, यह मुझे पसंद नहीं.’’

शिखा हर तरफ से जैसे मजबूर हो गई थी. दरवाजे की घंटी जैसे उस के कानों में आ कर फिट हो गई थी. हर आवाज उसे दरवाजे की घंटी जैसी लगती. पर फिर वह उदास हो जाती और सोचने लगती कि पति के बिना भी औरत कितनी मजबूर हो जाती है. इस समय कुछ हो जाए तो वह क्या कर सकती है. उस का मन किसी काम में नहीं लग रहा था. छज्जे पर जा

कर वह घूमने लगी. पता नहीं क्यों समुद्र को देख कर  उस के मन में एक अजीब सा साहस आ जाता था.ऐसे घूमतेघूमते 7 बज गए. अंधेरा छाने लगा था, पर रूपा का कहीं पता नहीं था. उस का मोबाइल लगातार बिजी जा रहा था. एक बार मैसेज आया, ‘‘आई बिल वी लेट डौंट वरी लव यू.’’

शिखा नहीं चाहती थी कि नौकरों व ड्राइवर से रूपा को ढूंढ़ने के लिए कहे. उस के मन में घर की इज्जत का पूरा खयाल था. पूरे 8 बजे दरवाजे की घंटी बजीं तो शिखा भाग कर दरवाजे पर पहुंची. वैसे दरवाजा नौकर ही खोलता था, पर आज जैसे उस से रहा नहीं गया.

दरवाजा खोलते ही शिखा ने देखा कि रूपा बहुत उदास है. बिना उस से कुछ बोलेचाले अपने कमरे में चली गई. शिखा को जैसे भय ने डस लिया. किसी तरह अपने को संभाल कर वह चुपचाप रूपा के पीछेपीछे उस के कमरे में आ गई. अंदर आ कर उस ने दरवाजा बंद कर दिया. रूपा किताबें रख कर पलंग पर जा लेटी.

शिखा से नहीं रहा गया. वह उसी के पास पलंग पर बैठ गई. रूपा का उदासी भरा चेहरा देख कर उस का गुस्सा समाप्त हो गया. वह उस की पीठ पर हाथ फेरते हुए बहुत ही प्यार से बोली, ‘‘रूपा बेटी, क्या तुम्हारी तबीयत ठीक

नहीं है? मैं तो कितनी देर से तुम्हारी राह देख रही थी?’’

उत्तर में रूपा ने ठंडी और लंबी सांस ले कर कहा, ‘‘मैं बिलकुल ठीक हूं मां,’’ कह कर उस ने  अपना सिर शिखा की गोदी में रख दिया.

शिखा को एहसास हुआ कि वह रो रही है. शिखा ने उस का चेहरा अपनी तरफ करते हुए पूछा, ‘‘कुछ तो जरूर है. सचसच बताओ?’’

रूपा रोते हुए बोली, ‘‘मां, मैं तुम्हें कैसे बताऊ,’’ कह कर वह फिर रोने लगी.

शिखा के मन में शंका सी उभर आई. वह थोड़ा गुस्से से बोली, ‘‘रूपा, मैं तो पहले ही डरती थी. तू मेरा कहना मानती तो आज ऐसा नहीं होता.’’

‘‘मां, मेरे साथ क्या हुआ, यह आप कैसे जान गईं.’’

‘‘तुम्हारी शक्ल बता रही है कि तुम्हें किसी लड़के ने धोखा दिया है. है न?’’

रूपा कुछ न बोली.

शिखा को भीतर ही भीतर गुस्सा आ रहा था. वह समझ गई थी कि जरूर किसी लड़के ने पहले तो इसे खूब सब्जबाग दिखाए होंगे, विश्वास दिलाया होगा कि जीवनभर प्यार करता रहूंगा. यह भोली लड़की उस पर सबकुछ लुटा बैठी होगी. लड़का जब मन भर गया होगा तो किसी और लड़की के साथ घूमने लगा होगा. पर वह रूपा के ऊपर गुस्सा दिखा भी तो नहीं सकती थी. वह इस समय एक ऐसे मोड़ पर खड़ी है, जहां एक जरा सी गलती उस का सारा जीवन बरबाद कर सकती है.

आखिर शिखा ने झंझलाते हुए कहा, ‘‘मैं तुम्हारे पिताजी को फोन करती हूं, वही आ कर संभालेंगे.’’

रूपा ने रोते हुए कहा, ‘‘मां, मैं क्या करूं. मुझे नहीं मालूम था कि संजय मुझे इस तरह धोखा दे जाएगा.’’

संजय का नाम सुन कर शिखा बोली, ‘‘क्या यह संजय तेरे साथ पढ़ता था? तुम ने मुझे पहले तो कभी नहीं बताया?’’

‘‘मां, मैं क्या बताती. मुझे तुम से बड़ा डर लगता था,’’ रूपा की आवाज में बहुत नर्मी थी.

‘‘फिर उस ने तुम्हारे साथ क्या किया?’’

‘‘मां, मैं उसे बिलकुल अपना समझती थी. पर आज उस ने मुझ से मिलने से इनकार कर दिया. वह 2-3 दिन से ऐनी के साथ घूमने लगा है. अब मुझ से बात भी नहीं करता. तुम नहीं जानती मां, वह ऐनी को भी मेरी तरह बरबाद कर देगा. आज ऐनी ने भी मुझ से बात नहीं की.’’

‘बरबाद’ शब्द सुनते ही शिखा के शरीर में जैसे कांटे चुभने लगे. उस का मन किया कि रूपा को जोर से तमाचा मारे और कहे कि जब तुम्हें यह सब मालूम था, फिर उस के साथ तुम इतनी बढ़ी ही क्यों? पर उस के सामने घर की इज्जत का सवाल आ गया.

शिखा सोचने लगी, यदि वह चीखीचिल्लाई तो घर के सभी नौकर उस के कमरे के बाहर जमा हो जाएंगे और घर की बदनामी बाहर तक फैल जाएगी. थोड़ी देर के लिए उस ने अपनी आंखें बंद कर लीं जैसे जहर का घूंट अंदर ही अंदर पी रही हो.

शिखा ने रूपा के पिता को फोन कर के लौटने के लिए कहने का फैसला किया. जब उस ने रूपा को यह बताया तो रूपा फिर रोने लगी. कालेज में जाने के बाद वह पहली बार अपनी मां से कुछ कह नहीं पा रही थी. वह कांटे में फंसी मछली की तरह तड़प रही थी. उस ने कहा, ‘‘मां, मैं तब तक कालेज नहीं जाऊंगी… तुम पिताजी को बुला लो.’’

शिखा को थोड़ा साहस मिला. वह धीरे से उठी और बड़ी मेज पर रखे फोन को उठा लाई. अरुण को फोन किया जो दार्जिलिंग में ही गार्डन सैट करने में लगा था.

अरुण ने फोन तुरंत काट दिया. 12 बजे अरुण का फोन आया.

शिखा ने घबराते हुए कहा, ‘‘सुनो, रूपा के साथ कोई दुर्घटना हो गई है. मैं बहुत घबरा गई हूं, जल्दी चले आओ.’’

दुर्घटना का नाम सुनते ही उस का पति बोला, ‘‘शिखा, घबराना नहीं, मैं आ रहा हूं. कल सुबह बाग डीगरा से जाऊंगा. तुम उस की पूरी तरह देखभाल करना.’’

कौल करने के बाद शिखा को जैसे राहत मिल गई. वह रूपा से बोली, ‘‘अब तुम कुछ खा लो.’’

शिखा ने रूपा का खाना अपने कमरे में ही मंगा लिया था. वह नहीं चाहती थी कि कोई बात उस के नौकरों तक पहुंचे. वैसे नौकरों से उस ने कह दिया कि रूपा का साथ कार ऐक्सीडैंट हो गया है.

मां आनंदेश्वरी: भाग 1- पोस्टर देख के नलिनी हैरान क्यों हो गई

नलिनी लगभग 10 वर्षों बाद अपने ननिहाल बरेली जा रही थी. वह बहुत खुश थी. रास्ते में फरुखाबाद में लगे टैंट की नगरी को देख कर उसे अपना बचपन याद आ गया जब वह अपनी मम्मी और नानी के साथ कई बार रामनगरिया मेला घूमने आया करती थी. उसे हमेशा से मेले की भीड़भाड़ और वहां पर साधु/महात्मा लोगों का जमघट आकर्षित करता रहा है.

उन की अजीबोगरीब वेशभूषा-कहीं नागा बाबा तो कहीं मचान पर बैठा साधु, कोई बाबा एक पैर पर खड़ा रह कर तपस्या करता होता आदिआदि. वह बचपन से इन दृश्यों को देख कर रोमांचित हो उठती थी. हालांकि अब उसे यह सब ढकोसला और पाखंड लगता लेकिन वह अपने को आज भी नहीं रोक पाई थी. मेले में लगने वाले हर माल और तरहतरह के झोले देख वह अपने बचपन के दिनों में खो गई.

तभी एक साधुओं के पंडाल के बाहर एक आदमकद पोस्टर को देख कर वह चौंक पड़ी. यह चेहरा तो पहले कहीं देखादेखा सा और पहचाना सा लग रहा है. बहुत कोशिश के बाद याद कर पाने में असमर्थ हो जाने पर जिज्ञासावश वह उस पंडाल के अंदर पहुंच गई. वहां पर स्टेज पर बहुत बड़ा सा कटआउट लगा था और नाम लिखा था मां आनंदेश्वरी.

वह उलझीउलझी हुई सी एक स्टौल पर गई और चाय पी लेकिन मन उस कटआउट में ही उलझ रहा था. उस ने उस कटआउट का एक फोटो खींच लिया था. वह अपनी मामी से जरूर इस के बारे में पूछेगी, यह सोचती हुई वह बरेली पहुंच गई थी और फिर सबकुछ भूल गई. जिन गलियों में वह इक्खटदुक्खट और आइसपाइस खेल खेला करती थी, अब वहां बड़ीबड़ी अट्टालिकाएं और शोरूम खुल चुके थे.

जहां बड़ेबड़े पेड़ के नीचे से वह नीम की निबौरियां चुनती थी वहां अब सबकुछ बदल चुका था.लंबे अंतराल में सबकुछ कितना बदल चुका था. नानी के जाने के बाद बड़े मामा भरी जवानी में कैंसर जैसी बीमारी के चलते गुंजन मामी की दुनिया सूनी कर के चले गए थे.

गुंजन मामी बंगाली परिवार से थीं. स्कूल के ऐनुअल फंक्शन में स्टेज पर उन का गाना सुन कर मामा उन पर रीझ उठे थे. वे रूपरंग में भी बहुत सुंदर थीं, गोरा चंपई रंग और हिरणी जैसी चंचल आंखें.नानाजी ने बहुत कोशिश की कि इस घर में शादी न हो लेकिन मामा की जिद के आगे उन्हें हार माननी पड़ी थी. गुंजन दुलहन बन कर घर आ गई.

मामी का दुलहन रूप इतना मोहक था कि जो आता वह प्रशंसा किए बिना न रह पाता. उस दौरान पापा के बागेश्वर ट्रांसफर के कारण वह वहीं पर रह कर पढ़ रही थी, इसलिए मामा का संदेसा पहुंचाने के लिए वह कई बार उन के घर जाया करती थी.

नानाजी की निरीह जर्जर काया पलंग के एक कोने में सिमटी हुई थी. उन को इस हालत में देखना उस के लिए सदमा जैसा था. उस को देखते ही उन की आंखों के कोने से आंसू बह निकले थे. जिस नानाजी की एक आवाज पर सारा घर कांप उठता था, उन के ऐसे रूप की तो वह स्वप्न में भी कल्पना ही नहीं कर सकती थी. वह मुंह घुमा कर बरबस अपने आंसू छिपाने की कोशिश कर रही थी.

वह ठीक से संभल भी नहीं पाई थी कि शृंगारविहीन गुंजन मामी सूनी मांग और सूनेसूने माथे के साथ आ कर उस के गले से लग कर सिसक पड़ीं. वह भी अपने को नहीं रोक पाई थीं और अनायास ही अश्रुधारा बह निकली. चंद मिनटों में मामी संभल गईं और उस के लिए उस के मनपसंद आटे के गोंद और मेवे वाले लड्डू व पानी ले कर आ गईं. ‘‘वाउ, मामी, बिलकुल नानी वाला स्वाद है और वह यादों में खो गई…’’मामी रोज सिंदूर से अपनी मांग सजाती थीं. वे कहतीं कि जितनी लंबी मांग का सिंदूर उतना लंबा पति का जीवन. वह हंसा करती थी और मजाक भी बनाती थी लेकिन मामी का विश्वास… सब झूठा ही निकला. फिर खानापीना और पुरानी बातों को याद करते कब रात बीत गई, पता नहीं लगा था.

तभी मुंबई और दूसरी फोटो दिखातेदिखाते उस की उंगली उस पोस्टर की फोटो पर रुक गई थी, ‘‘मामी, इस फोटो को देखो, इस का चेहरा मुझे देखादेखा लग रहा है.’’मामी ने गौर से देखा, फिर बोलीं, ‘‘इस की फोटो तुम्हारे फोन में कैसे?’’जब उस ने मेले की बात बताई तो मामी अपने अतीत में खो गईं और बताने लगीं, ‘‘यह आनंदी है. मां ने बताया था, वह किसी स्वामीजी के साथ रहने लगी है.’’‘‘ओह, अब याद आ गया, इस को आप के घर में ही देखा था,’’ नलिनी बोली.‘‘हां, तुम सही कह रही हो.

जिन दिनों तुम अपने मामा का संदेसा ले कर आया करती थीं, यह मेरे घर पर ही रहा करती थी. लेकिन मेरे यहां इस का मन नहीं लगा था और 6 महीने में ही मेरी बूआ के यहां इलाहाबाद लौट गई थी.‘‘इस की सुंदरता ही इस के लिए अभिशाप बन गई. बदमाशों से बचाने के लिए बूआ ने इसे मेरे घर भेज दिया था. इस के काम करने के ढंग से हम सब बहुत खुश थे. यह बहुत सुंदर और सलीकेदार थी. इस के 2 नन्हे मासूम बाहर बरामदे में बैठ कर सब को टुकुरटुकुर देखते रहते और उन्हें जो दे दिया जाता, चुपचाप खा लेते. आनंदी खाना बहुत अच्छा बनाती, रोटी बहुत मुलायम बनाती और बड़े प्यार से सब को खिलाया करती थी.‘‘एक दिन मां से रोरो कर अपने ऊपर हुए अत्याचार की सारी कहानी सुना रही थी.

जब वह 12 साल की थी तभी मातापिता ने 40 वर्षीय उम्रदराज दिलीप के पल्ले उसे बांध दिया. वह मासूम कली की तरह थी, जो पूरी तरह से अभी खिल भी नहीं पाई थी. दिलीप नशे में डूबा हुआ आया और पहली रात ही नोचखसोट कर उसे लहूलुहान कर दिया था. अब तो वह उस की शक्ल देख कर ही कांप उठती. लेकिन अपना वह दर्द किस से कहती?‘‘उस की सुंदरता ही उस के जीवन के लिए विष बन गई. पति काला और अधेड़, हर घड़ी शक की आग में जलता रहता. रात में पी कर आता और पीटपीट कर लहूलुहान कर के कामांध हो कर अपनी हवस मिटाता.

वह प्रैग्नैंट हो गई थी लेकिन उस की क्रूरता बढ़ती गई थी. आनंदी सबकुछ झेलती रही थी. यह सिलसिला दोतीन साल तक चलता रहा और इस बीच वह 2 बच्चों की मां बन गई थी. लेकिन जब एक दिन दिलीप नशे में उस की 2 साल की अबोध बच्ची के साथ गलत हरकत करने की कोशिश कर रहा था, आनंदी सहन नहीं कर पाई और गुस्से में उस ने सिल का लोढ़ा उस पर फेंक कर मार दिया था.‘‘दिलीप दर्द के मारे बहुत खुंखार हो उठा था लेकिन पड़ोस की काकी सामने आ कर खड़ी हो गईं और आनंदी बच कर बच्चों को ले कर अपने मायके आ गई.

लेकिन यहां भी चैन कहां था? वह बारबार आ कर धमकाता और तमाशा करता लेकिन उस के बापू ने मार कर भगा दिया था. अम्मा 4-6 घरों में बरतनचौका करतीं, उसी से रोटी चलती. बापू रिकशा चलाया करते थे.  ‘‘अब अम्मा ने आनंदी को भी कई घरों में  झाड़ूपोंछा करने के लिए लगा दिया.

उस को शुरू से ही सजधज कर रहने का शौक था. अब जब उस के हाथ में पैसे आने लगे तो वह सस्ते वाले पाउडर, लाली, चिमटी, चूडि़यां आदि खरीद कर ले आती. सुंदर तो वह थी ही. प्रज्ञा दीदी उसे बहुत मानती थीं, उन्होंने अपनी कई सारी साडि़यां दे दी थीं आनंदी को.‘‘प्रमिला आंटी के यहां राधे दूध ले कर आता था. वह आनंदी की मुनिया के लिए दूध बिना पैसे के दे देता था.

वह हर मंगल को मंदिर में जब सुंदरकांड होता तो वह ढोलक बजाया करता था. वह भगवान की सुनी हुई कथा सुनाया करता. वह अपने गुरुजी स्वामी सच्चानंद की बहुत बातें करता रहता. उस का गला भी सुरीला था, जब वह माइक पर गाता तो आनंदी आश्चर्य से उसे देखती रह जाती. राधे उसे प्यारभरी नजरों के साथ ढेर सारा प्रसाद दे देता. राधे ने ही मुनिया का स्कूल में नाम लिखा दिया था.

जब मुनिया स्कूल ड्रैस पहन, बस्ता कंधे पर लटका कर स्कूल जाती तो आनंदी बिटिया के सुखद भविष्य के कल्पनालोक में डूब जाती.  ‘‘आनंदी भी लगभग 20 साल की जवान लड़की और राधे भी गबरू जवान, कहता, ‘मेरी बन जा, तुझे रानी बना कर रखूंगा.’ पूरी चाल में सब को उन दोनों के बीच के नैनमटक्का की बात मालूम हो गई थी. उस ने स्वामीजी से दीक्षा ले रखी थी. उन्होंने राधे को अपने आश्रम में एक कमरा दे रखा था.

वह उसी कमरे में रहा करता था. स्वामीजी उस को अपने बेटे सा मान देते थे, इसलिए उन्होंने उसे बाइक दे रखी थी. सो, वह कई बार उसे बाइक पर बैठा घुमाने के लिए ले जाया करता था.‘‘अम्मा ने उस की सब तरफ होने वाली बदनामी से परेशान हो कर जब बूआ के सामने जब रोना रोया तो उसे बरेली काम करने के लिए भेज दिया. यहां वह 6 महीने भी नहीं रुकी और फिर एक दिन आनंदी चुपचाप राधे के साथ भाग गई थी.

नार्मल या सी-सेक्शन डिलिवरी : आपके बच्चे की सेहत के लिए क्या है बेहतर?

आज कल ज्यादातर बच्चों की डिलिवरी आधुनिक चिकित्सा पद्धति यानि सी-सेक्शन से हो रही है. सेहत के जोखिम, दर्द और भी कई समस्याओं को देखते हुए लोग नार्मल डिलिवरी कराना बेहतर समझते हैं. हाल में एक रिसर्च में यह बात सामने आई कि जिन बच्चों की डिलिवरी नार्मल होती है, यानि औपरेशन के बिना, वो बच्चे ज्यादा स्वस्थ होते हैं.

अध्ययन की माने तो गर्भावस्था और प्रसव के दौरान माइक्रोबायोम वातावारण में गड़बड़ी, विकसित होते बच्चे के शुरुआती माइक्रोबायोम को प्रभावित कर सकती हैं. जिसके कारण बच्चे को भविष्य में स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं का सामना करना पड़ सकता है.

अध्ययन में ये भी बताया गया कि सी-सेक्शन जैसी प्रसव पद्धतियां इन माइक्रोबायोम को प्रभावित करती हैं और बच्चों के इम्यून, मेटाबौलिज्म और तंत्रिक संबंधी प्रणालियों के विकास में नकारात्मक असर डालती हैं. जानकारों की माने तो शिशु के स्वास्थ्य के लिए केवल शिशु की ही नहीं, बल्कि मां के मोइक्रोबायोम की भी महत्वपूर्ण भूमिका होती है. अगर मां के माइक्रोबायोट में किसी प्रकार की गड़बड़ी होती है तो बच्चे को दमा, मोटापा, एलर्जी जैसी कई परेशानियां हो सकती हैं.

अध्ययन में ये बात सामने आई कि सामान्य प्रसव में जन्म के तत्काल बाद मां की त्वचा का शिशु की त्वचा से संपर्क और स्तनपान जैसी पारंपरिक क्रियाएं बच्चे में माइक्रोबायोम के विकास को बढ़ाने और बच्चे के स्वास्थ्य विकास में सकारात्मक प्रभाव डालने में मदद कर सकती हैं.

मूंग स्प्राउट्स डोसा

स्प्राउट्स से बना डोसा हर तरीके से बहुत ही हेल्दी होता है. प्रोटीन से भरपूर इस डिश को आप ब्रेकफास्ट से लेकर लंच में कभी भा खा सकती हैं.

3 लोगों के लिए इसे ऐसे बनाएं :

सामग्री :

अंकुरित मूंग (1 कप)

– चावल का आटा (4 टेबलस्पून)

– नमक स्वादानुसार

– स्टफिंग के लिए करी पत्ते

– हल्दी पाउडर एक चुटकी

– हींग एक चुटकी

– आलू 1/4 कप (उबले)

– गाजर 2 टेबलस्पून (कद्दूकस)

–  टमाटर 1/4 कप (बारीक कटा)

– प्याज 2 टेबलस्पून (बारीक कटा)

– ताजा नारियल 1 टेबलस्पून (कद्दूकस)

–  हरा धनिया 1 टेबलस्पून (बारीक कटा)

– चाट मसाला 1/2 टीस्पून

– औयल 4 टीस्पून

– राई 1/4 टीस्पून

– चुकंदर 2 टेबलस्पून (कद्दूकस)

विधि :

डोसा का बैटर बनाने के लिए एक बाउल में बैटर के सभी इंग्रेडिएंट्स डालें और 3/4 कप पानी डालकर स्मूद पेस्ट बना लें और फरमेंट होने के लिए 15 मिनट तक अलग रख दें.

स्टफिंग बनाने के लिए एक नौन-स्टिक पैन में तेल गरम करें और राई डालें जब राई चटकने लगे तब इसमें करी पत्ते, हल्दी पाउडर, हींग और बाकी के बचे इंग्रेडिएंट्स डालकर अच्छी तरह से मिक्स करें और मीडियम आंच पर एक से दो मिनट तक पका लें और अलग रख दें.

मीडियम आंच पर बनाएं डोसा

अब नौन-स्टिक तवा गरम करें और उसपर 1/4 टीस्पून तेल डालकर चारों तरफ अच्छे से फैला दें.

अब तवे पर चम्मच से बैटर डालें और गोल शेप में अच्छी तरह फैला दें.

फिर किनारों पर 1/2 टीस्पून तेल डालें और मीडियम आंच पर डोसे को सुनहरा होने तक पका लें.

अब इसमें स्टफिंग मिक्सचर अच्छी तरह फैलाकर, डोसे को मोड़ दें.

इसी तरह बाकी के डोसे भी बना लें और नारियल की चटनी के साथ सर्व करें.

मेरी आंखों में खुजली होती है, मुझे कोई उपाय बताएं

सवाल

मैं 42 वर्षीय घरेलू महिला हूं. मुझे अकसर आंखों में सूखापन महसूस होता है. खुजली भी होती है. बताएं मैं क्या करूं?

जवाब

लगता है आप को ड्राई आई सिंड्रोम हो गया है. लगातार स्मार्टफोन के इस्तेमाल, अधिक देर तक कंप्यूटर पर काम करने या बहुत अधिक टीवी देखने से आंखों की टियर फिल्म प्रभावित होती है और आंखें सूखने लगती हैं. इसे ही ड्राई आई सिंड्रोम कहते हैं. इस के कारण आंखों में जलन, चुभन, सूखा लगना, खुजली होना, भारीपन, आंखों में लाली तथा उन्हें कुछ देर खुली रखने में समस्या होना जैसे लक्षण दिखाई देते हैं. कंप्यूटर और मोबाइल फोन का इस्तेमाल कम करें. इन का इस्तेमाल करते समय अपनी पलकों को  झपकाती रहें. इस से आंखों के आंसू जल्दी सूखते या उड़ते नहीं हैं तथा टियर फिल्म कार्निया एवं कंजुंक्टाइवा के ऊपर लगातार बनी रहती है. प्रिजर्वेटिव फ्री आई ड्रौप (लुब्रिकैंट ड्रौप) का इस्तेमाल करें. इस से आंखों में नमी बनी रहती है. ज्यादा परेशानी हो तो किसी नेत्ररोग विशेषज्ञ को दिखाएं.

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मेरी 10 साल की बेटी है. उसे 3 सालों से बरसात में कंजक्टिवाइटिस हो जाता है. इस से बचने के लिए क्या कदम उठाए जा सकते हैं?

जवाब

कंजक्टिवाइटिस जिसे आम बोलचाल की भाषा में आंखें आना भी कहते हैं. इस में आंखों के कंजिक्टिवा में सूजन आ जाती है. यह पलकों की म्यूकस मैंब्रेन में होता है जो इस की सब से भीतरी परत बनाती है. आंखों से पानी जैसा डिस्चार्ज निकल सकता है. सूजन आना, लाल हो जाना और खुजली होना जैसे लक्षण भी दिखाई दे सकते हैं. कंजक्टिवाइटिस का कारण फंगस या वायरस का संक्रमण, हवा में मौजूद धूल या परागकण और मेकअप प्रोडक्ट्स का इस्तेमाल है. कंजक्टिवाइटिस से बचने के लिए अपनी आंखों को साफ रखें. आंखों को दिन में कम से कम 3-4 बार ठंडे पानी से धोएं. ठंडे पानी से आंखें धोने से रोगाणु निकल जाते हैं. अपनी निजी चीजें जैसे टौवेल, रूमाल किसी से सा झा न करें. स्विमिंग के लिए न जाएं.

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उसकी गली में : आखिर क्या हुआ उस दिन

Family story in hindi

नया द्वार: मनोज की मां ने कैसे बनाई बहू के दिल में जगह

एक दिन रास्ते में रेणु भाभी मिल गईं.

बड़ी उदास, दुखी लग रही थीं. मैं

ने कारण पूछा तो उबल पड़ीं. बोलीं, ‘‘क्या बताऊं तुम्हें? माताजी ने तो हमारी नाक में दम कर रखा है. गांव में पड़ी थीं अच्छीखासी. इन्हें शौक चर्राया मां की सेवा का. ले आए मेरे सिर पर मुसीबत. अब मैं भुगत रही हूं.’’

भाभी की आवाज कुछ ऊंची होती जा रही थी, कुछ क्रोध से, कुछ खीज से. रास्ते में आतेजाते लोग अजीब नजरों से हमें घूरते जा रहे थे. मैं ने धीरे से उन का हाथ पकड़ कर कहा, ‘‘चलो न, भाभी, पास ही किसी होटल में चाय पी लें. वहीं बातें भी हो जाएंगी.’’

भाभी मान गईं और तब मुझे उन का आधा कारण मालूम हुआ.

रेणु भाभी मेरी रिश्ते की भाभी नहीं हैं, पर उन के पति मनोज भैया और मेरे पति एक ही गांव के रहने वाले हैं. इसी कारण हम ने उन दोनों से भैयाभाभी का रिश्ता जोड़ लिया है.

मनोज भैया की मां मझली चाची के नाम से गांव में काफी मशहूर हैं. बड़ी सरल, खुशमिजाज और परोपकारी औरत हैं. गरीबी में भी हिम्मत से इकलौते बेटे को पढ़ाया. तीनों बेटियों की शादी की.

अब पिछले कुछ वर्षों से चाचा की मृत्यु के बाद, मनोज भैया उन्हें शहर लिवा लाए. कह रहे थे कि वहां मां के अकेली होने के कारण यहां उन्हें चिंता सताती रहती थी. फिर थोड़ेबहुत रुपए भी खर्चे के लिए भेजने पड़ते थे.

‘‘तभी से यह मुसीबत मेरे पल्ले पड़ी है,’’ रेणु भाभी बोलीं, ‘‘इन्हीं का खर्चा चलाने के लिए तो मैं ने भी नौकरी कर ली. कहीं इन्हें बुढ़ापे में खानेपीने, पहनने- ओढ़ने की कमी न हो. पर अब तो उन के पंख निकल आए हैं,’’

‘‘सो कैसे?’’

‘‘तुम ही घर आ कर देख लेना,’’ भाभी चिढ़ कर बोलीं, ‘‘अगर हो सके तो समझा देना उन्हें. घर को कबाड़खाना बनाने पर तुली हुई हैं. दीपक भैया को भी साथ लाएंगी तो वह शायद उन्हें समझा पाएंगे. बड़ी प्यारी लगती हैं न उन्हें मझली चाची?’’

चाय खत्म होते ही रेणु भाभी उठ खड़ी हुईं और बात को ठीक तरह से समझाए बिना ही चली गईं.

मैं ने अपने पति दीपक को रेणु भाभी के वक्तव्य से अवगत तो करा दिया था, लेकिन बच्चों की परीक्षाएं, घर के अनगिनत काम और बीचबीच में टपक पड़ने वाले मेहमानों के कारण हम लोग चाची के घर की दिशा भूल से गए.

तभी एक दिन मेरी मौसेरी बहन सुमन दोपहर को मिलने आई. उस ने एम.ए., बी.एड कर रखा था, पर दोनों बच्चे छोटे होने के कारण नौकरी नहीं कर पा रही थी. हालांकि उस के परिवार को अतिरिक्त आय की आवश्यकता थी. न गांव में अपना खुद का घर था, न यहां किराए का घर ढंग का था. 2 देवर पढ़ रहे थे. उन का खर्चा वही उठाती थी. सास बीमार थी, इसलिए पोतों की देखभाल नहीं कर सकती थी. ससुर गांव की टुकड़ा भर जमीन को संभाल कर जैसेतैसे अपना काम चलाते थे.

फिर भी सुमन की कार्यकुशलता और स्नेह भरे स्वभाव के कारण परिवार खुश रहता था. जब भी मैं उसे देखती, मेरे मन में प्यार उमड़ पड़ता. मैं प्रसन्न हो जाती.

उस दिन भी वह हंसती हुई आई. एक बड़ा सा पैकेट मेरे हाथ में थमा कर बोली, ‘‘लो, भरपेट मिठाई खाओ.’’

‘‘क्या बात है? इस परिवार नियोजन के युग में कहीं अपने बेटों के लिए बहन के आने की संभावना तो नहीं बताने आई?’’ मैं ने मजाक में पूछा.

‘‘धत दीदी, अब तो हाथ जोड़ लिए. रही बहन की बात तो तुम्हारी बेटी मेरे शरद, शिशिर की बहन ही तो है.’’

‘‘पर मिठाई बिना जाने ही खा लूं?’’

‘‘तो सुनो, पिछले 2 महीने से मैं खुद के पांवों पर खड़ी हो गई हूं. यानी कि नौ…क…री…’’ उस ने खुशी से मुझे बांहों में भर लिया. बिना मिठाई खाए ही मेरा मुंह मीठा हो गया. तभी मुझे उस के बच्चों की याद आई, ‘‘और शरद, शिशिर उन्हें कौन संभालता है? तुम कब जाती हो, कब आती हो, कहां काम करती हो?’’

‘‘अरे…दीदी, जरा रुको तो, बताती हूं,’’ उस ने मिठाई का पैकेट खोला, चाय छानी, बिस्कुट ढूंढ़ कर सजाए तब कुरसी पर आसन जमा कर बोली, ‘‘सुनो अब. नौकरी एक पब्लिक स्कूल में लगी है. तनख्वाह अच्छी है. सवेरे 9 बजे से शाम को 4 बजे तक. और बच्चे तुम्हारी मझली चाची के पास छोड़ कर निश्ंिचत हो जाती हूं.’’

‘‘क्या?’’

‘‘जी हां. मझली चाची कई बच्चों को संभालती हैं. बहुत प्यार से देखभाल करती हैं.’’

खापी कर पीछे एक खुशनुमा ताजगी में फंसे हुए प्रश्न मेरे लिए छोड़ कर सुमन चली गई. मझली चाची ऐसा क्यों कर रही थीं? रेणु भाभी क्या इसी कारण से नाराज थीं?

‘‘बात तो ठीक है,’’ शाम को दीपक ने मेरे प्रश्नों के उत्तर में कहा, ‘‘फिर भैयाभाभी दोनों कमाते हैं. मझली चाची के कारण उन्हें समाज की उठती उंगलियां सहनी पड़ती होंगी. हमें चाची को समझाना चाहिए.’’

‘‘दीपक, कभी दोपहर को बिना किसी को बताए पहुंच कर तमाशा देखेंगे और चाची को अकेले में समझाएंगे. शायद औरों के सामने उन्हें कुछ कहना ठीक नहीं होगा,’’ मैं ने सुझाव दिया.

दीपक ने एक दिन दोपहर को छुट्टी ली और तब हम अचानक मनोज भैया के घर पहुंचे.

भैयाभाभी काम पर गए हुए थे. घर में 10 बच्चे थे. मझली चाची एक प्रौढ़ा स्त्री के साथ उन की देखभाल में व्यस्त थीं. कुछ बच्चे सो रहे थे. एक को चाची बोतल से दूध पिला रही थीं. उन की प्रौढ़ा सहायिका दूसरे बच्चे के कपड़े बदल रही थी.

चाची बड़ी खुश नजर आ रही थीं. साफ कपड़े, हंसती आंखें, मुख पर संतोष तथा आत्मविश्वास की झलक. सेहत भी कुछ बेहतर ही लग रही थी.

‘‘चाचीजी, आप ने तो अच्छीखासी बालवाटिका शुरू कर दी,’’ मैं ने नमस्ते कर के कहा.

चाची हंस कर बोलीं, ‘‘अच्छा लगता है, बेटी. स्वार्थ के साथ परमार्थ भी जुटा रही हूं.’’

‘‘पर आप थक जाती होंगी?’’ दीपक ने कहा, ‘‘इतने सारे बच्चे संभालना हंसीखेल तो नहीं.’’

‘‘ठहरो, चाय पी कर फिर तुम्हारी बात का जवाब दूंगी,’’ वह सहायिका को कुछ हिदायतें दे कर रसोईघर में चली गईं, ‘‘यहीं आ जाओ, बेटे,’’ उन्होंने हम दोनों को भी बुला लिया.

‘‘देखो दीपक, अपने पोतेपोती के पीछे भी तो मैं दौड़धूप करती ही थी? तब तो कोई सहायिका भी नहीं थी,’’ चाची ने नाश्ते की चीजें निकालते हुए कहा, ‘‘अब ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ की उम्र है न मेरी? इन सभी को पोतेपोतियां बना लिया है मैं ने.’’

फिर मेरी ओर मुड़ कर कहा, ‘‘तुम्हारी सुमन के भी दोनों नटखट यहीं हैं. सोए हुए हैं. दोपहर को सब को घंटा भर सुलाने की कोशिश करते हैं. शाम को 5 बजे मेरा यह दरबार बरखास्त हो जाता है. तब तक मनोज के बच्चे शुचि और राहुल भी आ जाते हैं.’’

‘‘पर चाची, आप…आप को आराम छोड़ कर इस उम्र में ये सब झमेले? क्या जरूरत थी इस की?’’

‘‘तुम से एक बात पूछूं, बेटी? तुम्हारे मांपिताजी तुम्हारे भैयाभाभी के साथ रहते हैं न? खुश हैं वह?’’

मेरी आंखों के सामने भाभी के राज में चुप्पी साधे, मुहताज से बने मेरे वृद्ध मातापिता की सूरतें घूम गईं. न कहीं जाना न आना. कपड़े भी सब की जरूरतें पूरी करने के बाद ही उन के लिए खरीदे जाते. वे दोनों 2 कोनों में बैठे रहते. किसी के रास्ते में अनजाने में कहीं रोड़ा न बन जाएं, इस की फिक्र में सदा घुलते रहते. मेरी आंखें अनायास ही नम हो आईं.

चाची ने धीरे से मेरे बाल सहलाए. ‘‘बेटी, तू दीपक को मेरी बात समझा सकेगी. मैं तेरी आंखों में तेरे मातापिता की लाचारी पढ़ सकती हूं, लेकिन जब तुझ पर किसी वयोवृद्ध का बोझ आ पड़े, तब आंखों की इस नमी को याद रखना.’’

दीपक के चेहरे पर प्रश्न था.

‘‘सुनो बेटे, पति की कमाई या मन पर जितना हक पत्नी का होता है उतना बेटे की कमाई या मन पर मां का नहीं होता. इस कारण से आत्मनिर्भर होना मेरे लिए जरूरी हो गया था. रही काम की बात तो पापड़बडि़यां, अचारमुरब्बे बनाना भी तो काम ही है, जिन्हें करते रहने पर भी करने वालों की कद्र नहीं की जाती. घर में रह कर भी अगर ये काम हम ने कर भी लिए तो कौन सा शेर मार दिया? बहू कमाएगी तो सास को यह सबकुछ तो करना ही पड़ेगा,’’ चाची ने एक गहरी सांस ली.

‘‘कब आते हैं बच्चे?’’ दीपक ने हौले से पूछा.

‘‘9 बजे से शुरू हो जाते हैं. कोई थोड़ी देर से या जल्दी भी आ जाते हैं कभीकभी. मेरी सहायिका पार्वती भी जल्दी आ जाती है. उसे भी मैं कुछ देती हूं. वह खुशी से मेरा हाथ बंटाती है.’’

‘‘और भी बच्चों के आने की गुंजाइश है?’’ मैं ने पूछा.

‘‘पूछने तो आते हैं लोग, पर मैं मना कर देती हूं. इस से ज्यादा रुपयों की मुझे आवश्यकता नहीं. सेहत भी संभालनी है न?’’

चाय खत्म हो चुकी थी. सोए हुए बच्चों के जागने का समय हो रहा था. इसलिए ‘नमस्ते’ कह कर हम चलना ही चाहते थे कि चाची ने कहा, ‘‘बेटी, दीवाली के बाद मैं एक यात्रा कंपनी के साथ 15 दिन घूमने जाने की बात सोच रही हूं. अगर तुम्हारे मातापिता भी आना चाहें तो…’’

मैं चुप रही. भैयाभाभी इतने रुपए कभी खर्च न करेंगे. मैं खुद तो कमाती नहीं.

चाची को भी मनोज भैया ने कई बहानों से यात्रा के लिए कभी नहीं जाने दिया था. उन की बेटियां भी ससुराल के लोगों को पूछे बिना कोई मदद नहीं कर सकती थीं. अब चाची खुद के भरोसे पर यात्रा करने जा रही थीं.

‘‘सुनीता के मातापिता भी आप के साथ जरूर जाएंगे, चाची,’’ अचानक दीपक ने कहा, ‘‘आप कुछ दिन पहले अपने कार्यक्रम के बारे में बता दीजिएगा.’’

रेणु भाभी और मनोज भैया की नाराजगी का साहस से सामना कर के मझली चाची ने एक नया द्वार खोल लिया था अपने लिए, देखभाल की जरूरत वाले बच्चों के लिए और सुमन जैसी सुशिक्षित, जरूरतमंद माताओं के लिए.

हरेक के लिए इतना साहस, इतना धैर्य, इतनी सहनशीलता संभव तो नहीं. पर अगर यह नहीं तो दूसरा कोई दरवाजा तो खुल ही सकता है न?

जीवन बहुत बड़ा उपहार है हम सब के लिए. उसे बोझ समझ कर उठाना या उठवाना कहां तक उचित है? क्यों न अंतिम सांस तक खुशी से, सम्मान से जीने की और जिलाने की कोशिश की जाए? क्यों न किसी नए द्वार पर धीरे से दस्तक दी जाए? वह द्वार खुल भी तो सकता है.

स्मृति चक्र: रेत के घरोंदे की तरह जब सपने हुए तहसनहस

विभा ने झटके से खिड़की का परदा एक ओर सरका दिया तो सूर्य की किरणों से कमरा भर उठा.

‘‘मनु, जल्दी उठो, स्कूल जाना है न,’’ कह कर विभा ने जल्दी से रसोई में जा कर दूध गैस पर रख दिया.

मनु को जल्दीजल्दी तैयार कर के जानकी के साथ स्कूल भेज कर विभा अभी स्नानघर में घुसी ही थी कि फिर घंटी बजी. दरवाजा खोल कर देखा, सामने नवीन कुमार खड़े मुसकरा रहे थे.

‘‘नमस्कार, विभाजी, आज सुबहसुबह आप को कष्ट देने आ गया हूं,’’ कह कर नवीन कुमार ने एक कार्ड विभा के हाथ में थमा दिया, ‘‘आज हमारे बेटे की 5वीं वर्षगांठ है. आप को और मनु को जरूर आना है. अच्छा, मैं चलूं. अभी बहुत जगह कार्ड देने जाना है.’’

निमंत्रणपत्र हाथ में लिए पलभर को विभा खोई सी खड़ी रह गई. 6-7 दिन पहले ही तो मनु उस के पीछे पड़ रही थी, ‘मां, सब बच्चों की तरह आप मेरा जन्मदिन क्यों नहीं मनातीं? इस बार मनाएंगी न, मां.’

‘हां,’ गरदन हिला कर विभा ने मनु को झूठी दिलासा दे कर बहला दिया था.

जल्दीजल्दी तैयार हो विभा दफ्तर जाने लगी तो जानकी से कह गई कि रात को सब्जी आदि न बनाए, क्योंकि मांबेटी दोनों को नवीन कुमार के घर दावत पर जाना था.

घर से दफ्तर तक का बस का सफर रोज ही विभा को उबा देता था, किंतु उस दिन तो जैसे नवीन कुमार का निमंत्रणपत्र बीते दिनों की मीठी स्मृतियों का तानाबाना सा बुन रहा था.

मनु जब 2 साल की हुई थी, एक दिन नाश्ते की मेज पर नितिन ने विभा से कहा था, ‘विभा, जब अगले साल हम मनु की सालगिरह मनाएंगे तो सारे व्यंजन तुम अपने हाथों से बनाना. कितना स्वादिष्ठ खाना बनाती हो, मैं तो खाखा कर मोटा होता जा रहा हूं. बनाओगी न, वादा करो.’

नितिन और विभा का ब्याह हुए 4 साल हो चुके थे. शादी के 2 साल बाद मनु का जन्म हुआ था. पतिपत्नी के संबंध बहुत ही मधुर थे. नितिन का काम ऐसी जगह था जहां लड़कियां ज्यादा, लड़के कम थे. वह प्रसाधन सामग्री बनाने वाली कंपनी में सहायक प्रबंधक था. नितिन जैसे खूबसूरत व्यक्ति के लिए लड़कियों का घेरा मामूली बात थी, पर उस ने अपना पारिवारिक जीवन सुखमय बनाने के लिए अपने चारों ओर विभा के ही अस्तित्व का कवच पहन रखा था. विभा जैसी गुणवान, समझदार और सुंदर पत्नी पा कर नितिन बहुत प्रसन्न था.

विलेपार्ले के फ्लैट में रहते नितिन को 6 महीने ही हुए थे. मनु ढाई साल की हो गई थी. उन्हीं दिनों उन के बगल वाले फ्लैट में कोई कुलदीप राज व सामने वाले फ्लैट में नवीन कुमार के परिवार आ कर रहने लगे थे. दोनों परिवारों में जमीन- आसमान का अंतर था. जहां नवीन कुमार दंपती नित्य मनु को प्यार से अपने घर ले जा कर उसे कभी टौफी, चाकलेट व खिलौने देते, वहीं कुलदीप राज और उन की पत्नी मनु के द्वारा छुई गई उन की मनीप्लांट की पत्ती के टूट जाने का रोना भी कम से कम 2 दिन तक रोते रहते.

एक दिन नवीन कुमार के परिवार के साथ नितिन, विभा और मनु पिकनिक मनाने जुहू गए थे. वहां नवीन का पुत्र सौमित्र व मनु रेत के घर बना रहे थे.

अचानक नितिन बोला, ‘विभा, क्यों न हम अपनी मनु की शादी सौमित्र से तय कर दें. पहले जमाने में भी मांबाप बच्चों की शादी बचपन में ही तय कर देते थे.’

नितिन की बात सुन कर सभी खिलखिला कर हंस पड़े तो नितिन एकाएक उदास हो गया. उदासी का कारण पूछने पर वह बोला, ‘जानती हो विभा, एक ज्योतिषी ने मेरी उम्र सिर्फ 30 साल बताई है.’

विभा ने झट अपना हाथ नितिन के होंठों पर रख उसे चुप कर दिया था और झरझर आंसू की लडि़यां बिखेर कर कह उठी थी, ‘ठीक है, अगर तुम कहते हो तो सौमित्र से ही मनु का ब्याह करेंगे, पर कन्यादान हम दोनों एकसाथ करेंगे, मैं अकेली नहीं. वादा करो.’

बस रुकी तो विभा जैसे किसी गहरी तंद्रा से जाग उठी, दफ्तर आ गया था.

लौटते समय बस का इंतजार करना विभा ने व्यर्थ समझा. धीरेधीरे पैदल ही चलती हुई घंटाघर के चौराहे को पार करने लगी, जहां कभी वह और नितिन अकसर पार्क की बेंच पर बैठ अपनी शामें गुजारते थे.

सभी कुछ वैसा ही था. न पार्क बदला था और न वह पत्थर की लाल बेंच. विभा समझ नहीं पा रही थी कि उस दिन उसे क्या हो रहा था. जहां उसे घर जाने की जल्दी रहती थी, वहीं वह जानबूझ कर विलंब कर रही थी. यों तो वह इन यादों को जीतोड़ कोशिशों के बाद किसी कुनैन की गोली के समान ही सटक कर अपनेआप को संयमित कर चुकी थी.

हालांकि वह तूफान उस के दांपत्य जीवन में आया था, तब वह अपनेआप को बहुत ही कमजोर व मानसिक रूप से असंतुलित महसूस करती थी और सोचती थी कि शायद ही वह अधिक दिनों तक जी पाएगी, पर 3 साल कैसे निकल गए, कभी पीछे मुड़ कर विभा देखती तो सिर्फ मनु ही उसे अंधेरे में रोशनी की एक किरण नजर आती, जिस के सहारे वह अपनी जिंदगी के दिन काट रही थी.

उस दिन की घटना इतना भयानक रूप ले लेगी, विभा और नितिन दोनों ने कभी ऐसी कल्पना भी नहीं की थी.

एक दिन विभा के दफ्तर से लौटते ही एक बेहद खूबसूरत तितलीनुमा लड़की उन के घर आई थी, ‘‘आप ही नितिन कुमार की पत्नी हैं?’’

‘‘जी, हां. कहिए, आप को पहचाना नहीं मैं ने,’’ विभा असमंजस की स्थिति में थी.

उस आधुनिका ने पर्स में से सिगरेट निकाल कर सुलगा ली थी. विभा कुछ पूछती उस से पहले ही उस ने अपनी कहानी शुरू कर दी, ‘‘देखिए, मेरा नाम शुभ्रा है. मैं दिल्ली में नितिन के साथ ही कालिज में पढ़ती थी. हम दोनों एकदूसरे को बेहद चाहते थे. अचानक नितिन को नौकरी मिल गई. वह मुंबई चला आया और मैं, जो उस के बच्चे की मां बनने वाली थी, तड़पती रह गई. उस के बाद मातापिता ने मुझे घर से निकाल दिया. फिर वही हुआ जो एक अकेली लड़की का इस वहशी दुनिया में होता है. न जाने कितने मर्दों के हाथों का मैं खिलौना बनी.’’

विभा को तो मानो सांप सूंघ गया था. आंखों के आगे अंधेरा सा छा गया था. उस ने झट फ्रिज से बोतल निकाल कर पानी पिया और अपने ऊपर नियंत्रण रखते हुए अंदर से किवाड़ की चटखनी चढ़ा कर उस लड़की से पूछा, ‘‘तुम ने अभी- अभी कहा है कि तुम नितिन के बच्चे की मां बनने वाली थीं…’’

‘‘मेरा बेटा…नहीं, नितिन का बेटा कहूं तो ज्यादा ठीक होगा, वह छात्रावास में पढ़ रहा है,’’ युवती ने विभा की आंखों में झांकते हुए कहा.

‘‘तुम अब क्या चाहती हो? मेरे विचार से बेहतर यही होगा कि तुम फौरन  यहां से चली जाओ. नितिन तुम्हें भूल चुका होगा और शायद तुम से अब बात भी करना पसंद नहीं करेगा. तुम्हें पैसा चाहिए? मैं अभी चेक काट देती हूं, पर यहां से जल्दी चली जाओ और फिर कभी इधर न आना?’’ विभा ने 10 हजार रुपए का चेक काट कर उसे थमा दिया.

‘‘इतनी आसानी से चली जाऊं. कितनी मुश्किल से तो अपने एक पुराने साथी से पैसे मांग कर यहां तक पहुंची हूं और फिर नितिन से मुझे अपने 6 साल का हिसाब चुकाना है,’’ युवती ने व्यंग्य- पूर्वक मुसकराते हुए कहा.

थोड़ी देर बाद घंटी बजी. विभा ने दौड़ कर दरवाजा खोला. नितिन ने अंदर कदम रखते हुए कहा, ‘‘शुभ्रा, तुम…तुम यहां कैसे?’’

विभा की तो रहीसही शंका भी मिट चुकी थी. उस की समझ में नहीं आ रहा था कि वह क्या करे और क्या न करे. युवती ने अपनी कहानी एक बार फिर नितिन के सामने दोहरा दी थी.

विभा के अंदर जो घृणा नितिन के प्रति जागी थी, उस ने भयंकर रूप ले लिया था. नितिन बारबार उसे समझा रहा था, ‘‘विभा, यह लड़की शुरू से आवारा है. मेरा इस से कभी कोई संबंध नहीं था. हर पुराने सहपाठी या मित्र को यह ऐसे ही ठगती है. विभा, नासमझ न बनो. यह नाटक कर रही है.’’

पर विभा ने तो अपना सूटकेस तैयार करने में पलभर की भी देरी नहीं की थी. वह नितिन का घर छोड़ कर चली गई. कोशिश कर के नवीन कुमार के दफ्तर में उसे नौकरी भी मिल गई. कुछ समय मनु के साथ एक छोटे से कमरे में गुजार कर बाद में विभा ने फ्लैट किराए पर ले लिया था.

घर छोड़ने के 5-6 माह बाद ही विभा को पता चला कि वह लड़की धोखेबाज थी. उस ने डराधमका कर नितिन से बहुत सा रुपया ऐंठ लिया था. उस हादसे से वह एक तरह से अपना मानसिक संतुलन ही खो बैठा था. चाह कर भी विभा फिर नितिन से मिलने न जा सकी.

नवीन कुमार के बेटे के जन्मदिन की पार्टी में विभा नहीं गई. जब विभा घर पहुंची तो मनु सो चुकी थी. विभा कपड़े बदल कर निढाल सी पलंग पर जा लेटी. उस दिन न जाने क्यों उसे नितिन की बेहद याद आ रही थी.

रात के 11 बजे कच्ची नींद में विभा को जोरजोर से किवाड़ पर दस्तक सुनाई दी. स्वयं को अकेली जान यों ही एक बार तो वह घबरा उठी. फिर हिम्मत जुटा कर उस ने पूछा, ‘‘कौन है?’’

बाहर से कुलदीप राज की आवाज पहचान उस ने द्वार खोला. पुलिस की वर्दी में एक सिपाही को देख एकाएक उस के पैरों के नीचे से जमीन ही निकल गई.

‘‘आप ही विभा हैं?’’ सिपाही ने पूछा.

‘‘ज…ज…जी, कहिए.’’

‘‘आप के पति का एक्सीडेंट हो गया है. नशे की हालत में एक टैक्सी से टकरा गए हैं. उन की जेब में मिले कागजों व आप के पते तथा फोटो से हम यहां तक पहुंचे हैं. आप तुरंत हमारे साथ चलिए.’’

‘‘कैसे हैं वह?’’

‘‘घबराएं नहीं, खतरे की कोई बात नहीं है,’’ सिपाही ने सांत्वना भरे स्वर में कहा.

विभा का शरीर कांप रहा था. हृदय की धड़कन बेकाबू सी हो गई थी. एक पल में ही विभा सारी पिछली बातें भूल कर तुरंत मनु को पड़ोसियों को सौंप कर अस्पताल पहुंची.

नितिन गहरी बेहोशी में था. काफी चोट आई थी. डाक्टर के आते ही विभा पागलों की भांति उसे झकझोर उठी, ‘‘डाक्टर साहब, कैसे हैं मेरे पति? ठीक तो हो जाएंगे न…’’

डाक्टर ने विभा को तसल्ली दी, ‘‘खतरे की कोई बात नहीं है. 2-3 जगह चोटें आई हैं, खून काफी बह गया है. लेकिन आप चिंता न करें. 4-5 दिन में इन्हें घर ले जाइएगा.’’

विभा के मन को एक सुखद शांति मिली थी कि उस के नितिन का जीवन खतरे से बाहर है.

5वें दिन विभा नितिन को ले कर घर आ गई थी. अस्पताल में दोनों के बीच जो मूक वार्त्तालाप हुआ था, उस में सारे गिलेशिकवे आंसुओं की नदी बन कर बह गए थे.

बचपन में विभा के स्कूल की एक सहेली हमेशा उस से कहती थी, ‘विभा, एक बार कुट्टी कर के जब दोबारा दोस्ती होती है तो प्यार और भी गहरा हो जाता है.’ उस दिन विभा को यह बात सत्य महसूस हो रही थी.

नितिन ने विभा से फिर कभी शराब न पीने का वादा किया था और उन की गृहस्थी को फिर एक नई जिंदगी मिल गई थी.

इतने वर्ष कैसे बीत गए, पता ही नहीं चला था. उस दिन विभा की बेटी मनु की शादी हो रही थी.

‘‘नितिन, वह ज्योतिषी कितना ढोंगी था, जिस ने तुम्हें फुजूल मरनेजीने की बात बता कर वहम में डाला था. चलो, मनु का कन्यादान करने का समय हो रहा है,’’ विभा ने मुसकराते हुए कहा.

विदाई के समय विभा ने मनु को सीख दी थी, ‘‘मनु, कभी मेरी तरह तुम भी निराधार शक की शिकार न होना, वरना हंसतीखेलती जिंदगी रेगिस्तान के तपते वीराने में बदल जाएगी.’’

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