Women’s Day Special: सहयात्री

शाम को 1 नंबर प्लेटफार्म की बैंच पर बैठी कनिका गाड़ी आने का इंतजार कर रही थी. तभी कंधे पर बैग टांगे एक हमउम्र लड़का बैंच पर आ कर बैठते हुए बोला, ‘‘क्षमा करें. लगता है आज गाड़ी लेट हो गई है.’’

न बोलना चाहते हुए भी कनिका ने हां में सिर हिला उस की तरफ देखा. लड़का देखने में सुंदर था. उसे भी अपनी ओर देखते हुए कनिका ने अपना ध्यान दूसरी ओर से आ रही गाड़ी को देखने में लगा दिया. उन के बीच फिर खामोशी पसर गई. इस बीच कई ट्रेनें गुजर गई. जैसे ही उन की टे्रन की घोषणा हुई कनिका उठ खड़ी हुई. गाड़ी प्लेटफार्ट पर आ कर लगी तो वह चढ़ने को हुई कि अचानक उस की चप्पल टूट गई और पैर पायदान से फिसल प्लेटफार्म के नीचे चला गया.

कनिका के पीछे खड़े उसी अनजान लड़के ने बिना देर किए झटके से उस का पैर निकाला और फिर सहारा दे कर उठाया. वह चल नहीं पा रही थी. उस ने कहा, ‘‘यदि आप को बुरा न लगे तो मेरे कंधे का सहारा ले सकती हैं… ट्रेन छूटने ही वाली है.’’

कनिका ने हां में सिर हिलाया तो अजनबी ने उसे ट्रेन में सहारा दे चढ़ा कर सीट पर बैठा दिया और खुद भी सामने की सीट पर बैठ गया. तभी ट्रेन चल दी.

उस ने अपना नाम पूरब बता कनिका से पूछा, ‘‘तुम्हारा नाम क्या है?’’

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‘‘कनिका.’’

‘‘आप को कहां जाना है?’’

‘‘अहमदाबाद.’’

‘‘क्या करती हैं?’’

‘‘मैं मैनेजमैंट की पढ़ाई कर रही हूं. वहां पीजी में रहती हूं. आप को कहां जाना है?’’

‘‘मैं भी अहमदाबाद ही जा रहा हूं.’’

‘‘क्या करते हैं वहां?’’

‘‘भाई से मिलने जा रहा हूं.’’

तभी अचानक कंपार्टमैंट में 5 लोग घुसे और फिर आपस में एकदूसरे की तरफ देख कर मुसकराते हुए 3 लोग कनिका की बगल में बैठ गए. उन के मुंह से आती शराब की दुर्गंध से कनिका का सांस लेना मुश्किल होने लगा. 2 लोग सामने पूरब की साइड में बैठ गए. उन की भाषा अश्लील थी.

पूरब ने स्थिति को भांप कनिका से कहा, ‘‘डार्लिंग, तुम्हारे पैर में चोट है. तुम इधर आ जाओ… ऊपर वाली बर्थ पर लेट जाओ… बारबार आनेजाने वालों से तुम्हें परेशानी होगी.’’

कनिका स्थिति समझ पूरब की हर बात किसी आज्ञाकारी शिष्य की तरह माने जा रही थी. पूरब ने सहारा दिया तो वह ऊपर की बर्थ पर लेट गई. इधर पैर में चोट से दर्द भी हो रहा था.

हलकी सी कराहट सुन पूरब ने मूव की ट्यूब कनिका की तरफ बढ़ाई तो उस के मुंह से बरबस निकल गया, ‘‘ओह आप कितने अच्छे हैं.’’

उन लोगों ने पूरब को कनिका की इस तरह सेवा करते देख फिर कोई कमैंट नहीं कसा और अगले स्टेशन पर सभी उतर गए.

कनिका ने चैन की सांस ली. पूरब तो जैसे उस की ढाल ही बन गया था.

कनिका ने कहा, ‘‘पूरब, आज तुम न होते तो मेरा क्या होता?’’ मैं किन शब्दों में तुम्हारा धन्यवाद करूं… आज जो भी तुम ने मेरे लिए किया शुक्रिया शब्द उस के सामने छोटा पड़ रहा है.

‘‘ओह कनिका मेरी जगह कोई भी होता तो यही करता.’’

बातें करतेकरते अहमदाबाद आ गया. कनिका ने अपने बैग में रखीं स्लीपर निकाल कर पहननी चाहीं, मगर सूजन की वजह से पहन नहीं पा रही थी. पूरब ने देखा तो झट से अपनी स्लीपर निकाल कर दे दीं. कनिका ने पहन लीं.

पूरब ने कनिका का बैग अपने कंधे पर टांग लिया. सहारा दे कर ट्रेन से उतारा और फिर बोला, ‘‘मैं तुम्हें पीजी तक छोड़ देता हूं.’’

‘‘नहीं, मैं चली जाऊंगी.’’

‘‘कैसे जाओगी? अपने पैर की हालत देखी है? किसी नर्सिंग होम में दिखा लेते हैं. फिर तुम्हें छोड़ कर मैं भैया के पास चला जाऊंगा. आओ टैक्सी में बैठो.’’

कनिका के टैक्सी में बैठने पर पूरब ने टैक्सी वाले से कहा, ‘‘भैया, यहां जो भी पास में नर्सिंगहोम हो वहां ले चलो.’’

टैक्सी वाले ने कुछ ही देर में एक नर्सिंगहोम के सामने गाड़ी रोक दी.

डाक्टर को दिखाया तो उन्होंने कहा, ‘‘ज्यादा नहीं लगी है. हलकी मोच है. आराम करने से ठीक हो जाएगी. दवा लिख दी है लेने से आराम आ जाएगा.’’

नर्सिंगहोम से निकल कर दोनों टैक्सी में बैठ गए. कनिका ने अपने पीजी का पता बता दिया. टैक्सी सीधा पीजी के पास रुकी. पूरब ने कनिका को उस के कमरे तक पहुंचाया. फिर

जाने लगा तो कनिका ने कहा, ‘‘बैठिए, कौफी पी कर जाइएगा.’’

‘‘अरे नहीं… मुझे देर हो जाएगी तो भैया ंिंचतित होंगे. कौफी फिर कभी पी लूंगा.’’

जाते हुए पूरब ने हाथ हिलाया तो कनिका ने भी जवाब में हाथ हिलाया और फिर दरवाजे के पास आ कर उसे जाते हुए देखती रही.

थोड़ी देर बाद बिस्तर पर लेटी तो पूरब का चेहरा आंखों के आगे घूम गया… पलभर को पूरे शरीर में सिहरन सी दौड़ गई, धड़कनें तेज हो गईं.

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तभी कौल बैल बजी.

इस समय कौन हो सकता है? सोच कनिका फिर उठी और दरवाजा खोला तो सामने पूरब खड़ा था.

‘‘क्या कुछ रह गया था?’’ कनिका ने

पूछा, ‘‘हां… जल्दबाजी में मोबाइल यहीं भूल गया था.’’

‘‘अरे, मैं तो भूल ही गई कि मेरे पैरों में तुम्हारी स्लीपर हैं. इन्हें भी लेते जाना,’’ कह कौफी बनाने चली गई. अंदर जा कर कौफी मेकर से झट से 2 कप कौफी बना लाई, कनिका पूरब को कनखियों से देख रही थी.

पूरब फोन पर भाई से बातें करने में व्यस्त था. 1 कप पूरब की तरफ बढ़ाया तो पूरब की उंगलियां उस की उंगलियों से छू गईं. लगाजैसे एक तरंग सी दौड़ गई शरीर में. कनिका पूरब के सामने बैठ गई, दोनों खामोशी से कौफी पीने लगे.

कौफी खत्म होते ही पूरब जाने के लिए उठा और बोला, ‘‘कनिका, मुझे तुम्हारा मोबाइल नंबर मिल सकता है?’’

अब तक विश्वास अपनी जड़े जमाने लगा था. अत: कनिका ने अपना मोबाइल नंबर दे दिया.

पूरब फिर मिलेंगे कह कर चला गया. कनिका वापस बिस्तर पर आ कर कटे वृक्ष की तरह ढह गई.

खाना खाने का मन नहीं था. पीजी चलाने वाली आंटी को भी फोन पर ही अपने आने की खबर दी, साथ ही खाना खाने के लिए भी मना कर दिया.

लेटेलेटे कनिका को कब नींद आ गई,

पता ही नहीं चला. सुबह जब सूर्य की किरणें आंखों पर पड़ीं तो आंखें खोल घड़ी की तरफ देखा, 8 बज रहे थे. फिर बड़बड़ाते हुए तुरंत उठ खड़ी हुई कि आज तो क्लास मिस हो गई. जल्दी से तैयार हो नाश्ता कर कालेज के लिए निकल गई.

एक सप्ताह कब बीत गया पता ही नहीं चला. आज कालेज की छुट्टी थी. कनिका को बैठेबैठे पूरब का खयाल आया कि कह रहा था फोन करेगा, लेकिन उस का कोई फोन नहीं आया. एक बार मन किया खुद ही कर ले. फिर खयाल को झटक दिया, लेकिन मन आज किसी काम में नहीं लग रहा था. किताब ले कर कुछ देर यों ही पन्ने पलटती रही, रहरह कर न जाने क्यों उसे पूरब का खयाल आ रहा था. अनमनी हो खिड़की से बाहर देखने लगी.

तभी अचानक फोन बजा. देखा तो पूरब का था. कनिका ने कांपती आवाज में हैलो कहा.

‘‘कैसी हो कनिका?’’ पूरब ने पूछा.

‘‘मैं ठीक हूं, तुम कैसे हो? तुम ने कोई फोन नहीं किया?’’

पूरब ने हंसते हुए कहा, ‘‘मैं भाई के साथ व्यवसाय में व्यस्त था, हमारा हीरों का व्यापार है.’’

तुम तैयार हो जाओ मैं लेने आ रहा हूं.

कनिका के तो जैसे पंख लग गए. पहनने के लिए एक प्यारी पिंक कलर की ड्रैस निकाली. उसे पहन कानों में मैचिंग इयरिंग्स पहन आईने में निहारा तो आज एक अलग ही कनिका नजर आई. बाहर बाइक के हौर्न की आवाज सुन कर कनिका जल्दी से बाहर भागी. पूरब हलके नीले रंग की शर्ट बहुत फब रहा था. कनिका सम्मोहित सी बाइक पर बैठ गई.

पूरब ने कहा, ‘‘बहुत सुंदर लग रही हो.’’

सुन कर कनिका का दिल रोमांचित हो उठा. फिर पूछा, ‘‘कहां ले चल रहे हो?’’

‘‘कौफी हाउस चलते हैं… वहीं बैठ कर बातें करेंगे,’’ और फिर बाइक हवा से बातें करने लगी.

कनिका का दुपट्टा हवा से पूरब के चेहरे पर गिरा तो भीनी सी खुशबू से पूरब का दिल जोरजोर से धड़कने लगा.

कनिका ने अपना आंचल समेट लिया.

‘‘पूरब, एक बात कहूं… कुछ देर से एक गाड़ी हमारे पीछे आ रही है. ऐसा लग रहा है जैसे कोई हमें फौलो कर रहा है.’’

‘‘तुम्हारा वहम है… उन्हें भी इधर ही जाना होगा.’’

‘‘अगर इधर ही जाना है तो हमारे पीछे ही क्यों चल रहे हैं… आगे भी निकल कर जा सकते हैं.’’

‘‘ओह, शंका मत करो… देखो वह काफी हाउस आ गया. तुम टेबल नंबर 4 पर बैठो. मैं बाइक पार्क कर के आता हूं.’’

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कनिका अंदर जा कर बैठ गई.

पूरब जल्दी लौट आया. बोला, ‘‘कनिका क्या लोगी? संकोच मत करो… अब तो हम मिलते ही रहेंगे.’’

‘‘पूरब ऐसी बात नहीं है. मैं फिर कभी… आज और्डर तुम ही कर दो.’’

वेटर को बुला पूरब ने 2 कौफी का और्डर दे दिया. कुछ ही पलों में कौफी आ गई.

कौफी पीने के बाद कनिका ने घड़ी की तरफ देख पूरब से कहा, ‘‘अब हमें चलना चाहिए.’’

‘‘ठीक है मैं तुम्हें छोड़ कर औफिस चला जाऊंगा. मेरी एक मीटिंग है.’’

पूरब कनिका को छोड़ कर अपने औफिस पहुंचा. भाई सौरभ के

कैबिन में पहुंचा तो उन की त्योरियां चढ़ी हुई थीं. पूछा, ‘‘पूरब कहां थे? क्लाइंट तुम्हारा इंतजार कर चला गया. तुम कहां किस के साथ घूम रहे थे… मुझे सब साफसाफ बताओ.’’

अपनी एक दोस्त कनिका के साथ था… आप को बताया तो था.’’

‘‘मुझे तुम्हारा इन साधारण परिवार के लोगों से मिलनाजुलना पसंद नहीं है… और फिर बिजनैस में ऐसे काम नहीं होता है… अब तुम घर जाओ और फोन पर क्लाइंट से अगली मीटिंग फिक्स करो.’’

‘‘जी भैया.’’

कनिका और पूरब की दोस्ती को 6 महीने बीत गए. मुलाकातें बढ़ती गईं. अब दोनों एकदूसरे के काफी नजदीक आ गए थे. एक दिन दोनों घूमने के  लिए निकले. तभी पास से एक बाइक पर सवार 3 युवक बगल से गुजरे कि अचानक सनसनाती हुई गोली चली जो कनिका की बांह को छूती हुई पूरब की बांह में जा धंसी.

कनिका चीखी, ‘‘गाड़ी रोको.’’

पूरब ने गाड़ी रोक दी. बांह से रक्त की धारा बहने लगी. कनिका घबरा गई. पूरब को सहारा दे कर वहीं सड़क के किनारे बांह पर दुपट्टा बांध दिया और फिर मदद के लिए सड़क पर हाथ दिखा गाड़ी रोकने का प्रयास करने लगी. कोई रुकने को तैयार नहीं. तभी कनिका को खयाल आया. उस ने 100 नंबर पर फोन किया. जल्दी पुलिस की गाड़ी पहुंच गई. सब की मदद से पूरब को अस्पताल में भरती करा पूरब के फोन से उस के भाई को फोन पर सूचना दे दी.

डाक्टर ने कहा कि काफी खून बह चुका है. खून की जरूरत है. कनिका अपना खून देने के लिए तैयार हो गई. ब्लड ग्रुप चैक कराया तो उस का ब्लड गु्रप मैच कर गया. अत: उस का खून ले लिया गया.

तभी बदहवास से पूरब के भाई ने वहां पहुंच डाक्टर से कहा, ‘‘किसी भी हालत में मेरे भाई को बचा लीजिए.’’

‘‘आप को इस लड़की का धन्यवाद करना चाहिए जो सही समय पर अस्पताल ले आई… अब ये खतरे से बाहर हैं.’’

सौरभ की आंखों से लगातार आंसू बह रहे थे. जैसे ही पूरब को होश आया सौरभ फफकफफक कर रो पड़ा, ‘‘भाई, मुझे माफ कर दे… मैं पैसे के मद में एक साधारण परिवार की लड़की को तुम्हारे साथ नहीं देख सका और उसे तुम्हारे रास्ते से हमेशा के लिए हटाना चाहा पर मैं भूल गया था कि पैसे से ऊपर इंसानियत भी कोई चीज है. कनिका मुझे माफ कर दो… पूरब ने तुम्हारे बारे में बताया था कि वह तुम्हें पसंद करता है. लेकिन मैं नहीं चाहता था कि साधारण परिवार की लड़की हमारे घर की बहू बने… आज तुम ने मेरे भाई की जान बचा कर मुझ पर बहुत बड़ा एहसान किया,’’ और फिर कनिका का हाथ पूरब के हाथों में दे कर बोला, ‘‘मैं जल्द ही तुम्हारे मातापिता से बात कर के दोनों की शादी की बात करता हूं.’’ कह बाहर निकल गया.

पूरब कनिका की ओर देख मुसकराते हुए बोला, ‘‘कनिका, अब हम सहयात्री से जीवनसाथी बनने जा रहे हैं.’’

यह सुन कनिका का चेहरा शर्म से लाल हो गया.

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मुक्ति: उसके लिए क्या आसान था मुक्ति पाना

आज उस का सामना करने के लिए मैं पूरी तरह से तैयार हो कर औफिस गया था.

वह भी लगता था आज कुछ ज्यादा ही मुस्तैद हो कर आया था.

हर रोज तो वह 10 बजे के बाद ही औफिस आता था लेकिन आज जल्दी आ गया था. मुझे पक्का पता था कि आज वह मुझ से पहले ही पहुंच जाएगा. आज पार्किंग में उस की गाड़ी पहले से ही खड़ी थी.

मेरे मन में गुस्से की एक बड़ी सी लहर उठी, यह आदमी बहुत कमीना है. इस से बचना लगभग नामुमकिन है. मैं ने मन ही मन अपनी प्रतिज्ञा दोहराई, ‘आज मैं इस की बातों में नहीं आने वाला.’ मैं ने मन ही मन अपना यह प्रण भी दोहराया कि मैं पिछले कई दिनों से उस से दूर रहने की योजना बना रहा था, अब उस की शुरुआत मैं कर चुका हूं.

कल पूरे दिन उस से दूर रहने में मैं कामयाब रहा था. उस ने कितने फोन किए, बुलावे भेजे, बड़े साहब का नाम ले कर मुझे अपने केबिन में बुलाने की कोशिश की, मगर मैं औफिस से बाहर रहा. वह कहता रहा, ‘कहां है भाई, जल्दी आ जा. लंच में बाजार की सैर करेंगे. आज अच्छी रौनक है.’

मैं अपने इरादे पर अटल रहा. उसे गच्चा देता रहा. फिर 4 बजे के बाद उस ने मुझे फोन किया, ‘कहां है तू? आ जा, आज जिमखाना में बियर पिलाऊंगा.’

मैं ने बहाने बनाए कि अपने काम में बहुत फंसा हुआ हूं.

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हद होती है किसी का पीछा करने की. क्या किसी आदमी की अपनी कोई निजता नहीं हो सकती भला? कोई जब चाहे मुझे अपने पीछे लगा ले. क्या मेरा कोई अपना पर्सनल एजेंडा नहीं हो सकता आज का. क्या मेरा मन नहीं करता कि मैं आज का दिन अपनी मरजी से गुजारूं? सदर बाजार की तरफ टहलूं या माल रोड पर? लाइब्रेरी जाऊं या अपनी सीट पर ही सुस्ताऊं? चाय पियूं या कौफी? किसी और का इतना रोब क्यों सहूं. उस का इतना हक क्यों है मेरी दिनचर्या पर.

औफिस आते ही मुझे निर्देश देने लगता है, आज यह करेंगे, वह करेंगे. इतनी आज्ञाकारी तो आदमी की बीवी नहीं होती आजकल. मैं क्यों उस आदमी का इतना पिछलग्गू बन गया हूं.

आज उस से सीधी मुठभेड़ का दूसरा दिन था. आज मेरी असली परीक्षा थी. कल तो औफिस से मैं बाहर था. मेरा बहाना काम कर गया था. आज उस से पीछा छुड़ा सकूं, यही मेरी उपलब्धि रहेगी.

आज अभी मैं अपनी सीट पर आ कर बैठा ही था.

चपरासी ने मेरे सारे अनुभागों के हाजिरी रजिस्टर मेरे सामने ला कर रखे. उन पर अपने दस्तखत कर के मैं ने पहली फाइल खोली ही थी कि इंटरकौम पर उस की कौल आ गई.

मेरे अंदर का डरा हुआ रूप मेरे गुस्से में आ गया. मैं ने तय किया कि मैं आज उस का फोन ही नहीं उठाता. गुस्से के मारे मैं ने घंटी बजाई और अपने मातहत 2 लोगों को बुलाया. फाइल पर ‘चर्चा करें’ लिख कर उसे नीचे पटक दिया.

पिछली रात से ही मैं कुलबुला रहा था कि इस आदमी ने मेरे दिनरात का चैन छीना हुआ है. उस से पीछा कैसे छुड़ाऊं? क्यों इतना डरता हूं मैं उस से. उसे ले कर किस बात का लिहाज है? वह मेरा जीजा लगता है क्या? एक दोस्त ही तो है. मेरे व्यक्तित्व पर इतना नियंत्रण क्यों है उस का? क्या कमी है मुझ में?

मुझ से कितना अलग स्वभाव है उस का. वह हर किसी के मुंह पर कड़वी बात कह देता है. वह हर किसी से लड़ पड़ता है. मैं चुप क्यों रहता हूं? मैं इतना नरम स्वभाव का क्यों हूं? उसे देख कर मुझे अपने अंदर की कमजोरी का एहसास कुछ ज्यादा होता है. उस ने एक लिस्ट बना रखी है औफिस के कुछ मुझ जैसे दब्बू लोगों की. वह दिन में कई बार मेरी इन लोगों में से किसी न किसी से तुलना कर के मेरे अंदर के स्वाभिमान को चोट पहुंचाता रहता है. यही कारण है कि इस आदमी की सोहबत में मैं खुद को हमेशा असहज और दुखी महसूस करता हूं.

मेरे साथ बहुत समय से यह सब चल रहा है. मैं ही इस सब के लिए जिम्मेदार हूं. मेरा दोष है, हर समय अच्छा बने रहना. हर वक्त कूल और शांत. अपने अंदर से चाहे इस बात को ले कर मैं कितना भी दुखी या व्यथित होता रहूं मगर लोगों के सामने मैं उग्र नहीं हो पाता. ऐसा नहीं कि मुझ में प्रतिभा, हुनर या आत्मविश्वास की कमी है. मैं अपनेआप में ठीक हूं. कहीं कोई दिक्कत नहीं है. अहिंसा का पालन मैं ‘बाई डिफौल्ट’ करता हूं. मेरा खून कभीकभी खौलता है. मेरा आधे से ज्यादा समय इस आदमी की बेढंगी और बेकार में थोपी गई बातों से निबटने में ही निकल जाता है.

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घर में भी पत्नी या बच्चों के सामने नरम और मधुर स्वभाव बनाए रखना मेरी भरसक कोशिश होती है. अंदर से चाहे लाख गुस्सा आ रहा हो मगर उसे जाहिर न होने देना मेरा कुदरती गुण कह लो या अवगुण. बहुत कम ऐसे मौके आए हैं कि मेरा गुस्सा जगजाहिर हो सका है. एकाध बार गुस्सा किया भी, मगर दोचार पल के लिए ही.

बाकी किसी से कोई समस्या नहीं हुई. यह आदमी औफिस में हर पल मेरा साथ चाहता है. मुझे ले कर ज्यादा ही पोजेसिव हो गया है यह. मैं घर से छुट्टी का आवेदन भेज दूं तो फोन कर के मुझे कोसेगा कि उसे क्यों नहीं बताया उस ने कि आज वह छुट्टी ले रहा है. कहेगा, ‘पहले बताता तो मैं भी छुट्टी ले लेता.’ अरे, मेरे बिना तू मर तो नहीं जाएगा. बहुत बार होता है कि जब वह छुट्टी ले कर घर पर होता है सप्ताह के लिए, मैं तो उसे फोन कर के नहीं बुलाता कि आ जा, मैं मरा जा रहा हूं, तेरे बिना दिल नहीं लग रहा मेरा.

पत्नी भी तंज करती, ‘मुझे वह आदमी पसंद नहीं करता. मुझ से शादी करने से पहले तुम ने उस से पूछा नहीं था क्या?’

यह सच है कि इस आदमी को अपनेआप के सिवा कोई पसंद नहीं.

मैं भी इसलिए उस के साथ हूं, क्योंकि मैं खुल्लमखुला उस का मुंह नहीं नोचता कि बंद कर ये बकबक. तू कोई अनोखा नहीं है कि मेरी हर समय प्रशंसा किए जा.

बहुत से मित्र आए, गए. हर किसी पर उस ने तंज कसे, उन पर अपने थोथे उसूलों को थोपने की बेकार कोशिश की. वे सब तो कुछ ही समय में उस से जान छुड़ा कर अलग हो गए मगर मैं उस के चंगुल में फंसा रहा.

अकसर मुझे कभी फील नहीं हुआ कि यह आदमी मेरे विचारों को इस तरह काबू क्यों करना चाहता है. कभीकभी जब वह मुझे दब्बू या डरपोक कह कर बेइज्जत करता है तो न जाने क्यों मेरे मन में उस के प्रति बदले की भावना उमड़ने लगती है.

मुझ पर वह इतनी अधिकार भावना क्यों जमाता है. मैं सोचता हूं कि हमारी बहुत लंबी और गहरी दोस्ती है. मगर 10-15 दिनों में एक बार मेरे दिल को उस की कोई बात चुभ जाती है. वह अपने कोरे आदर्श मुझ पर लादता रहता है. क्यों मैं पलटवार नहीं करता? मेरी हर बात को वह टोकता है. मैं उसे मुंहतोड़ जवाब क्यों नहीं देता कि तुम दोगले हो, झूठे हो, मक्कार हो.

मैं ने आज अपने केबिन को कमेटीरूम की शक्ल दे दी थी. बहुत सारे केस खोल लिए. मैं दिखाना चाहता था कि मैं हर समय उस के लिए उपलब्ध नहीं हूं. मैं अपनी दिनचर्या अपने हिसाब से तय करूंगा.

उस का मेरे मोबाइल पर कौल आया. वह फुंफकार रहा था, ‘कब आएगा? अबे, चाय ठंडी हो रही है.’

मैं ने जी कड़ा कर के कहा, ‘मैं ने कब कहा था कि मेरे लिए चाय मंगवाओ? मैं मीटिंग में व्यस्त हूं.’

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5 मिनट में ही वह मेरे केबिन में था. चेहरा तमतमाया हुआ. कान से मोबाइल लगाए हुए. मुझे टोक कर बोला, ‘कब तक है यह सब?’

मैं ने कोई जवाब नहीं दिया. वह झुंझला कर लौट गया. लंच के आसपास वह फिर मेरे पास ही आ गया. हालांकि मुझे कोई काम नहीं था, फिर भी मैं ने साथ के एक औफिस में जाने का प्रोग्राम रख लिया. अपने एक साथी के साथ मैं तुरतफुरत वहां से निकल लिया.

उस शाम बीवी के साथ चाय पीते हुए मुझे संतोष हुआ कि मैं एक आजाद व्यक्तित्व हूं. रोजाना उस आदमी का मुझे अकारण कोसना मुझे कचोटता रहता था. आज मुझे एक अजीब सी मुक्ति का एहसास हुआ.

सहायक प्रबंधक: खुद को ऋणी क्यों मान रहे थे राजशेखर

चींटी की गति से रेंगती यात्री रेलगाड़ी हर 10 कदम पर रुक जाती थी. वैसे तो राजधानी से खुशालनगर मुश्किल से 2 घंटे का रास्ता होगा, पर खटारा रेलगाड़ी में बैठे हुए उन्हें 6 घंटे से अधिक का समय हो चुका था.

राजशेखरजी ने एक नजर अपने डब्बे में बैठे सहयात्रियों पर डाली. अधिकतर पुरुष यात्रियों के शरीर पर मात्र घुटनों तक पहुंचती धोती थी. कुछ एक ने कमीजनुमा वस्त्र भी पहन रखा था पर उस बेढंगी पोशाक को देख कर एक क्षण को तो राजशेखर बाबू उस भयानक गरमी और असह्य सहयात्रियों के बीच भी मुसकरा दिए थे.

अधिकतर औरतों ने एक सूती साड़ी से अपने को ढांप रखा था. उसी के पल्ले को करीने से लपेट कर उन्होंने आगे खोंस रखा था. शहर में ऐसी वेशभूषा को देख कर संभ्रांत नागरिक शायद नाकभौं सिकोड़ लेते, महिलाएं, खासकर युवतियां अपने विशेष अंदाज में फिक्क से हंस कर नजरें घुमा लेतीं. पर राजशेखरजी उन के प्राकृतिक सौंदर्य को देख कर ठगे से रह गए थे. उन के परिश्रमी गठे हुए शरीर केवल एक सूती धोती में लिपटे होने पर भी कहीं से अश्लील नहीं लग रहे थे. कोई फैशन वाली पोशाक लाख प्रयत्न करने पर भी शायद वह प्रभाव पैदा नहीं कर सकती थी. अधिकतर महिलाओं ने बड़े सहज ढंग से बालों को जूड़े में बांध कर स्थानीय फूलों से सजा रखा था.

तभी उन के साथ चल रहे चपरासी नेकचंद ने करवट बदली तो उन की तंद्रा भंग हुई.

‘यह क्या सोचने लगे वे?’ उन्होंने खुद को ही लताड़ा था. कितना गरीब इलाका है यह? लोगों के पास तन ढकने के लिए वस्त्र तक नहीं है. उन्होंने अपनी पैंट और कमीज पर नजर दौड़ाई थी…यहां तो यह साधारण वेशभूषा भी खास लग रही थी.

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‘‘अरे, ओ नेकचंद. कब तक सोता रहेगा? बैंक में अपने स्टूल पर बैठा ऊंघता रहता है, यहां रेल के डब्बे में घुसते ही लंबा लेट गया और तब से गहरी नींद में सो रहा है,’’ उन के पुकारने पर भी चपरासी नेकचंद की नींद नहीं खुली थी.

तभी रेलगाड़ी जोर की सीटी के साथ रुक गई थी. ‘‘नेकचंद…अरे, ओ कुंभकर्ण. उठ स्टेशन आ गया है,’’ इस बार झुंझला कर उन्होंने नेकचंद को पूरी तरह हिला दिया.

वह हड़बड़ा कर उठा और खिड़की से बाहर झांकने लगा. ‘‘यह रहबरपुर नहीं है साहब, यहां तो गाड़ी यों ही रुक गई है,’’ कह कर वह पुन: लेट गया.

‘‘हमें रहबरपुर नहीं खुशालनगर जाना है,’’ राजशेखरजी ने मानो उसे याद दिलाया था.

‘‘रहबरपुर के स्टेशन पर उतर कर बैलगाड़ी या किसी अन्य सवारी से खुशालनगर जाना पड़ेगा. वहां तक यह टे्रन नहीं जाएगी,’’ नेकचंद ने चैन से आंखें मूंद ली थीं.

बारबार रुकती और रुक कर फिर बढ़ती वह रेलगाड़ी जब अपने गंतव्य तक पहुंची, दिन के 2 बज रहे थे.

‘‘चलो नेकचंद, शीघ्रता से खुशालनगर जाने वाली किसी सवारी का प्रबंध करो…नहीं तो यहीं संध्या हो जाएगी,’’ राजशेखरजी अपना बैग उठा कर आगे बढ़ते हुए बोले थे.

‘‘हुजूर, माईबाप, ऐसा जुल्म मत करो. सुबह से मुंह में एक दाना भी नहीं गया है. स्टेशन पर सामने वह दुकान है… वह गरम पूरियां उतार रहा है. यहां से पेटपूजा कर के ही आगे बढ़ेंगे हम,’’ नेकचंद ने अनुनय की थी.

‘‘क्या हुआ है तुम्हें नेकचंद? यह भी कोई खाने की जगह है? कहीं ढंग के रेस्तरां में बैठ कर खाएंगे.’’

‘‘रेस्तरां और यहां,’’ नेकचंद हंसा था, ‘‘सर, यहां और खुशालनगर तो क्या आसपास के 20 गांवों में भी कुछ खाने को नहीं मिलेगा. मैं तो बिना खाए यहां से टस से मस नहीं होने वाला,’’ इतना कह कर नेकचंद दुकान के बाहर पड़ी बेंच पर बैठ गया.

‘‘ठीक है, खाओ, तुम्हें तो मैं साथ ला कर पछता रहा हूं,’’ राजशेखरजी ने हथियार डाल दिए थे.

‘‘हुजूर, आप के लिए भी ले आऊं?’’ नेकचंद को पूरीसब्जी की प्लेट पकड़ा कर दुकानदार ने बड़े मीठे स्वर में पूछा था.

राजशेखरजी को जोर की भूख लगी थी पर उस छोटी सी दुकान में खाने में उन का अभिजात्य आड़े आ रहा था.

‘‘मेरी दुकान जैसी पूरीसब्जी पूरे चौबीसे में नहीं मिलती साहब, और मेरी मसालेदार चाय पीने के लिए तो लोग मीलों दूर से चल कर यहां आते हैं,’’ दुकानदार गर्वपूर्ण स्वर में बोला था.

‘‘ठीक है, तुम इतना जोर दे रहे हो तो ले आओ एक प्लेट पूरीभाजी. और हां, तुम्हारी मसालेदार चाय तो हम अवश्य पिएंगे,’’ राजशेखरजी भी वहीं बैंच पर जम गए थे.

नेकचंद भेदभरे ढंग से मुसकराया था पर राजशेखरजी ने उसे अनदेखा कर दिया था.

कुबेर बैंक में सहायक प्रबंधक के पद पर राजशेखरजी की नियुक्ति हुई थी तो प्रसन्नता से वह फूले नहीं समाए थे. किसी वातानुकूलित भवन में सजेधजे केबिन में बैठ कर दूसरों पर हुक्म चलाने की उन्होंने कल्पना की थी. पर मुख्यालय ने उन्हें ऋण उगाहने के काम पर लगा दिया था. इसी चक्कर में उन्हें लगभग हर रोज दूरदराज के नगरों और गांवों की खाक छाननी पड़ती थी.

पूरीसब्जी समाप्त होते ही दुकानदार गरम मसालेदार चाय दे गया था. चाय सचमुच स्वादिष्ठ थी पर राजशेखरजी को खुशालनगर पहुंचने की चिंता सता रही थी.

बैलगाड़ी से 4 मील का मार्ग तय करने में ही राजशेखर बाबू की कमर जवाब दे गई थी. पर नेकचंद इन हिचकोलों के बीच भी राह भर ऊंघता रहा था. फिर भी राजशेखर बाबू ने नेकचंद को धन्यवाद दिया था. वह तो मोटरसाइकिल पर आने की सोच रहे थे पर नेकचंद ने ही इस क्षेत्र की सड़कों की दशा का ऐसा हृदय विदारक वर्णन किया था कि उन्होंने वह विचार त्याग दिया था.

कुबेर बैंक की कर्जदार लक्ष्मी का घर ढूंढ़ने में राजशेखरजी को काफी समय लगा था. नेकचंद साथ न होता तो शायद वहां तक कभी न पहुंच पाते. 2-3-8/ए खुशालनगर जैसा लंबाचौड़ा पता ढूंढ़ते हुए जिस घर के आगे वह रुका, उस की जर्जर हालत देख कर राजशेखरजी चकित रह गए थे. ईंट की बदरंग दीवारों पर टिन की छत थी और एक कमरे के उस घर के मुख्यद्वार पर टाट का परदा लहरा रहा था.

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‘‘तुम ने पता ठीक से देख लिया है न,’’ राजशेखरजी ने हिचकिचाते हुए पूछा था.

‘‘अभी पता चल जाएगा हुजूर,’’ नेकचंद ने आश्वासन दिया था.

‘‘लक्ष्मीलताजी हाजिर हों…’’ नेकचंद गला फाड़ कर चीखा था मानो किसी मुवक्किल को जज के समक्ष उपस्थित होने को पुकार रहा हो. उस का स्वर सुन कर आसपास के पेड़ों पर बैठी चिडि़यां घबरा कर उड़ गई थीं पर उस घर में कोई हलचल नहीं हुई. नेकचंद ने जोर से द्वार पीटा तो द्वार खुला था और एक वृद्ध ने अपना चश्मा ठीक करते हुए आगंतुकों को पहचानने का यत्न किया था.

‘‘कौन है भाई?’’ अपने प्रयत्न में असफल रहने पर वृद्ध ने प्रश्न किया था.

‘‘हम कुबेर बैंक से आए हैं. लक्ष्मीलताजी क्या यहीं रहती हैं?’’

‘‘कौन लता, भैया?’’

‘‘लक्ष्मीलता.’’

‘‘अरे, अपनी लक्ष्मी को पूछ रहे हैं. हां, बेटा यहीं रहती है…हमारी बहू है,’’ तभी एक वृद्धा जो संभवत: वृद्ध की पत्नी थीं, वहां आ कर बोली थीं.

‘‘अरे, तो बुलाइए न उसे. हम कुबेर बैंक से आए हैं,’’ राजशेखरजी ने स्पष्ट किया था.

‘‘क्या भैया, सरकारी आदमी हो क्या? कुछ मुआवजा आदि ले कर आए हो क्या?’’ वृद्ध घबरा कर बोले थे.

‘‘मुआवजा? किस बात का मुआवजा?’’ राजशेखरजी ने हैरान हो कर प्रश्न के उत्तर में प्रश्न ही कर दिया था.

‘‘हमारी फसलें खराब होने का मुआवजा. सुना है, सरकार हर गरीब को इतना दे रही है कि वह पेट भर के खा सके.’’

‘‘हुजूर, लगता है बूढ़े का दिमाग फिर गया है,’’ नेकचंद हंसने लगा था.

‘‘यह क्या हंसने की बात है?’’ राजशेखरजी ने नेकचंद को घुड़क दिया था.

‘‘देखिए, हम सरकारी आदमी नहीं हैं. हम बैंक से आए हैं. लक्ष्मीलताजी ने हमारे बैंक से कर्ज लिया था. हम उसे उगाहने आए हैं.’’

‘‘क्या कह रहे हैं आप? जरा बुलाओ तो लक्ष्मी को,’’ वृद्ध अविश्वासपूर्ण स्वर में बोला था.

दूसरे ही क्षण लक्ष्मीलता आ खड़ी हुई थी.

‘‘लक्ष्मीलता आप ही हैं?’’ राजशेखरजी ने प्रश्न किया था.

‘‘जी हां.’’

‘‘मैं राजधानी से आया हूं, कुबेर बैंक से आप के नाम 82 हजार रुपए बकाया है. आप ने एक सप्ताह के अंदर कर्ज नहीं लौटाया तो कुर्की का आदेश दे दिया जाएगा.’’

‘‘क्या कह रहे हो साहब, 82 हजार तो बहुत बड़ी रकम है. हम ने तो एकसाथ 82 रुपए भी नहीं देखे. हम ने तो न कभी राजधानी की शक्ल देखी है न आप के कुबेर बैंक की.’’

‘‘हमें इन सब बातों से कोई मतलब नहीं है. हमारे पास सब कागजपत्र हैं. तुम्हारे दस्तखत वाला प्रमाण है,’’ नेकचंद बोला था.

‘‘लो और सुनो, मेरे दस्तखत, भैया किसी और लक्ष्मीलता को ढूंढ़ो. मेरे लिए तो काला अक्षर भैंस बराबर है. अंगूठाछाप हूं मैं. रही बात कुर्की की तो वह भी करवा ही लो. घर में कुछ बर्तन हैं. कुछ रोजाना पहनने के कपड़े और डोलबालटी. यह एक कमरे का टूटाफूटा झोपड़ा है. जो कोई इन सब का 82 हजार रुपए दे तो आप ले लो,’’ लक्ष्मीलता तैश में आ गई थी.

अब तक वहां भारी भीड़ एकत्रित हो गई थी.

‘‘साहब, कहीं कुछ गड़बड़ अवश्य है. लक्ष्मीलता तो केवल नाम की लक्ष्मी है. इसे बैंक तो छोडि़ए गांव का साहूकार 10 रुपए भी उधार न दे,’’ एक पड़ोसी यदुनाथ ने बीचबचाव करना चाहा था.

‘‘देखिए, मैं इतनी दूर से रेलगाड़ी, बैलगाड़ी से यात्रा कर के क्या केवल झूठ, आरोप लगाने आऊंगा? यह देखिए प्रोनोट, नाम और पता इन का है या नहीं. नीचे अंगूठा भी लगा है. 5 वर्ष पहले 10 हजार रुपए का कर्ज लिया था जो ब्याज के साथ अब 82 हजार रुपया हो गया है,’’ राजशेखरजी ने एक ही सांस में सारा विवरण दे दिया था.

वहां खड़े लोगों में सरसराहट सी फैल गई थी. आजकल ऐसे कर्ज उगाहने वाले अकसर गांव में आने लगे थे. अनापशनाप रकम बता कर कागजपत्र दिखा कर लोगों को परेशान करते थे.

‘‘देखिए, मैनेजर साहब. लक्ष्मीलता ने तो कभी किसी बैंक का मुंह तक नहीं देखा. वैसे भी 82 हजार तो क्या वह तो आप को 82 रुपए देने की स्थिति में नहीं है,’’ यदुनाथ तथा कुछ और व्यक्तियों ने बीचबचाव करना चाहा था.

‘‘अरे, लेते समय तो सोचा नहीं, देने का समय आया तो गरीबी का रोना रोने लगे? और यह रतन कुमार कौन है? उन्होंने गारंटी दी थी इस कर्ज की. लक्ष्मीलता नहीं दे सकतीं तो रतन कुमार का गला दबा कर वसूल करेंगे. 100 एकड़ जमीन है उन के पास. अमीर आदमी हैं.’’

‘‘रतन कुमार? इस नाम को तो कभी अपने गांव में हम ने सुना नहीं है. किसी और गांव के होंगे.’’

‘‘नाम तो खुशालनगर का ही लिखा है पते में. अभी हम सरपंचजी के घर जा कर आते हैं. वहां से सब पता कर लेंगे. पर कहे देते हैं कि ब्याज सहित कर्ज वसूल करेंगे हम,’’ राजशेखरजी और नेकचंद चल पड़े थे. सरपंचजी घर पर नहीं मिले थे.

‘‘अब कहां चलें हुजूर?’’ नेकचंद ने प्रश्न किया था.

‘‘कुछ समझ में नहीं आ रहा. क्या करें, क्या न करें. मुझे तो स्वयं विश्वास नहीं हो रहा कि उस गरीब लक्ष्मीलता ने यह कर्ज लिया होगा,’’ राजशेखरजी बोले थे.

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‘‘साहब, आप नए आए हैं अभी. ऐसे सैकड़ों कर्जदार हैं अपने बैंक के. सब मिलीभगत है. सरपंचजी, हमारे बैंक के कुछ लोग, कुछ दादा लोग. किसकिस के नाम गिनेंगे. यह रतन कुमार नाम का प्राणी शायद ही मिले आप को. जमीन के कागज भी फर्जी ही होंगे,’’ नेकचंद ने समझाया था. निराश राजशेखर लौट चले थे.

बैंक पहुंचते ही मुख्य प्रबंधक महोदय की झाड़ पड़ी थी.

‘‘आप तो किसी काम के नहीं हैं राजेशखर बाबू, आप जहां भी उगाहने जाते हैं खाली हाथ ही लौटते हैं. सीधी उंगली से घी नहीं निकलता, उंगली टेढ़ी करनी पड़ती है. पर आप कहीं तो गुंडों की धमकी से डर कर भाग खड़े होते हैं तो कभी गरीबी का रोना सुन कर लौट आते हैं. जाइए, विपिन बाबू से और कर्जदारों की सूची ले लीजिए. कुछ तो उगाही कर के दिखाइए, नहीं तो आप का रिकार्ड खराब हो जाएगा.’’

उन्हें धमकी मिल गई थी. अगले कुछ माह में ही राजशेखर बाबू समझ गए थे कि उगाही करना उन के बस का काम नहीं था. वह न तो बैंक के लिए नए जमाकर्ता जुटा पा रहे थे और न ही उगाही कर पा रहे थे.

एक दिन इसी उधेड़बुन में डूबे अपने घर से निकले थे कि उन के मित्र निगम बाबू मिल गए थे.

‘‘कहिए, कैसी कट रही है कुबेर बैंक में?’’ निगम बाबू ने पूछा था.

‘‘ठीक है, आप बताइए, कालिज के क्या हालचाल हैं?’’

‘‘यहां भी सब ठीकठाक है… आप को आप के छात्र बहुत याद करते हैं पर आप युवा लोग कहां टिकते हैं कालिज में,’’ निगम बाबू बोले थे.

राजशेखर बाबू को झटका सा लगा था. कर क्या रहे थे वे बैंक में? उन ऋणों की उगाही जिन्हें देने में उन का कोई हाथ नहीं था. जिस स्वप्निल भविष्य की आशा में वह व्याख्याता की नौकरी छोड़ कर कुबेर बैंक गए थे वह कहीं नजर नहीं आ रही थी.

वह दूसरे ही दिन अपने पुराने कालिज जा पहुंचे थे और पुन: कालिज में लौटने की इच्छा प्रकट की थी.

प्रधानाचार्य महोदय ने खुली बांहों से उन का स्वागत किया था. राजशेखरजी को लगा मानो पिंजरे से निकल कर खुली हवा में उड़ने का सुअवसर मिल गया हो.

Women’s Day Special: ममता के रंग- प्राची ने कुणाल की अम्मा की कैसी छवि बनाई थी

‘‘दीदी, वे लोग आ गए,’’ कहते हुए पोंछे को वहीं फर्श पर फेंकते हुए कजरी जैसे ही बाहर की तरफ दौड़ी, प्राची का दिल जोर से धड़क उठा. सिर पर पल्ला रखते हुए उस ने एक बार अपनेआप को आईने में देख लिया. सच, एकदम आदर्श बहू लग रही थी.

मन में उठ रही ढेरों शंकाओं ने प्राची को परेशान कर दिया. जब नईनवेली दुलहन ससुराल आती है, तब सास उस की आरती उतारती है. लेकिन यहां पर किस्सा उलटा था, बहू के घर सास पहली बार आ रही थी.

अम्मा प्राची और कुणाल के विवाह के खिलाफ थीं, इसलिए दोनों ने कोर्टमैरिज कर ली थी. शादी को साल भर होने जा रहा था कि अम्मा ने सूचित किया कि  वे आ रही हैं.

कई बार प्राची ने सोचा था कि स्टेशन जाने से पहले वह कुणाल से विस्तार से बात करेगी कि अम्मा के आते ही उसे उन का सामना कैसे करना है? लेकिन अम्मा के आने की सूचना मिलते ही घर सजानेसंवारने की व्यस्तता और खुशी से रोमांचित प्राची तो जैसे सबकुछ भूल गई थी.

‘‘प्राची,’’ बाहर से कुणाल की पुकार सुनते ही उस का चेहरा लाल हो गया. अम्मा का स्वागत उन के चरणों को छू कर ही करेगी, यह सोचते हुए वह बाहर निकल आई.

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पर अम्मा को देखते ही जैसे पैरों में ब्रेक लग गए. उन का रूपरंग तो उस की कल्पना के उलट था. बौयकट बाल, होंठों पर गुलाबी लिपस्टिक और साड़ी के स्थान पर बगैर दुपट्टे का सूट देख कर वह स्तब्ध रह गई.

अम्मा की आधुनिक छवि को देख कर वह जैसे अपने ही स्थान पर जड़ हो गई थी. न आगे बढ़ कर चरणों को छू पाई, न ही हाथ जोड़ कर नमस्ते तक करने की औपचारिकता निभा पाई.

‘‘कुणाल, तुम्हारा चुनाव अच्छा है,’’ अम्मा ने अंगरेजी में कहा और प्राची के गालों को चूम लिया. पर प्राची का चेहरा शर्म से गुलनार न हो पाया.

कुणाल प्राची की उधेड़बुन से अनजान मां के कंधों को थामे लगातार बड़बड़ाता जा रहा था.

प्राची की आंखें यह सोच कर भर आईं कि मां की जो कमी उसे प्रकृति ने दी थी, वह कभी पूरी नहीं हो पाएगी. रसोई में अपने काम को अंतिम रूप देते हुए वह सोच रही थी, कितनी तारीफ करता था कुणाल अपनी अम्मा की, उन के ममत्व की. जो तसवीर कुणाल ने अपने कमरे में लगा रखी थी, उस में तो वास्तव में अम्मा आदर्श मां ही लग रही थीं. नाक में नथ, बड़ी सी बिंदी, कानों में झुमके, सीधे पल्ले की जरी वाली साड़ी, घने काले बाल…

प्राची के मन में अपनी मां की जो छवि रहरह कर उभरती, उस से कितनी मिलतीजुलती थी, कुणाल की अम्मा की तसवीर. इसीलिए तो अम्मा के प्रति प्राची बेहद भावुक थी.

जब भी कुणाल अम्मा की ममता का जिक्र करता, प्राची का ममता के लिए ललकता मन तड़प उठता. वह अम्मा को देखने और उन के प्यार को पाने की उम्मीद लगा बैठती.

अम्मा के ममत्व का जिक्र करते हुए कुणाल कहा करता था, ‘जब अम्मा थकीहारी रसोई का काम निबटा कर बैठती थीं, तब बजाय उन को आराम देने के, मैं उन की गोद में सिर रख कर लेट जाया करता था. जानती हो, तब वे अपने माथे का पसीना पोंछना भूल कर अपने हाथों को मेरे बालों पर फेरती रहतीं…सच…कितना सुख मिलता था तब. जब मुझे मैडिकल कालेज जाना पड़ा, तब उन की याद में नींद नहीं आती थी…’

‘अम्मा बहुत ममतामयी हैं न? उन्हें गुस्सा तो कभी नहीं आता होगा?’ प्राची पूछती.

‘नहीं, तुम गलत कह रही हो. अम्मा जितनी ममतामयी हैं, उतनी ही सख्त भी हैं. झूठ से तो उन्हें सख्त नफरत है. मुझे याद है, एक बार मैं स्कूल से एक बच्चे की पैंसिल उठा लाया था और अम्मा से झूठ कह दिया कि मेरे दोस्त ने मुझे पैंसिल तोहफे में दी है. जाने कैसे, अम्मा मेरा झूठ भांप गई थीं. अगले रोज वे मेरे साथ स्कूल आईं और मेरे दोस्त से पैंसिल के बारे में पूछा. उस के इनकार करने पर मुझे जो डांट पिलाई थी, वह मैं आज तक नहीं भूला,’ कुणाल ने कहा, ‘तब से ले कर आज तक मैं ने कभी अम्मा से झूठ नहीं बोला.

‘पिताजी के निधन के बाद अम्मा हमेशा इस बात से आशंकित रहती थीं कि मैं और मेरे भैया कहीं गलत राह पर न चले जाएं.’

प्राची हमेशा अपनी सास की तसवीर में उन के चेहरे को देखते हुए उन के व्यक्तित्व को आंकने का प्रयास करती रहती. अम्मा की तसवीर की तरफ देखते हुए कुणाल उस से कहता, ‘जानती हो, यह अम्मा की शादी की तसवीर है. इस के अलावा उन की और कोई तसवीर मेरे पास नहीं है.’

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‘कुणाल, मैं कई बार यह सोच कर खुद को अपराधी महसूस करती हूं कि मेरी वजह से तुम अम्मा से दूर हो गए, न तुम मुझ से विवाह करते, न अम्मा से जुदा होना पड़ता.’

‘प्राची, क्या पागलों जैसी बात कर रही हो. अम्मा को मैं अच्छी तरह से जानता हूं. वे हम से ज्यादा दिनों तक अलग नहीं रह सकतीं. वे हमें जल्दी ही अपने पास बुलाएंगी.’

‘काश, वह दिन जल्दी आता,’ प्राची धीमे स्वर में कहती, ‘मैं ने अपनी मां को नहीं देखा है. मैं 6 माह की थी जब उन की मृत्यु हो गई. पिताजी ने मेरी देखरेख में कोई कमी नहीं की थी, लेकिन मां की ममता के लिए हमेशा मेरा मन ललकता रहता है. कल रागिनी आई थी. जब उसे पता चला कि मैं गर्भवती हूं तो मुझ से पूछने आ गई कि मेरी क्या खाने की इच्छा है? मेरा मन भर आया. रागिनी मेरी सहेली है, उस के पूछने में एक दर्द था. मेरी मां नहीं हैं न, इसीलिए शायद वह अपने स्नेह से उस कमी को थोड़ा कम करने का प्रयास कर रही थी,’ आंखों को पोंछते हुए प्राची बोली.

कुणाल ने उसे सीने से लगाते हुए कहा, ‘यह कभी मत कहना कि तुम्हारी मां नहीं, अम्मा तुम्हारी भी तो मां हैं?’

‘जरूर हैं, इसीलिए तो उन से मिलने को ललचाती रहती हूं. पर न जाने उन से कब मिलना हो पाएगा. और फिर यह भी तो नहीं पता कि मुझे माफ करना उन के लिए संभव होगा या नहीं.’

‘सबकुछ ठीक हो जाएगा,’ कहते हुए कुणाल ने प्राची के माथे पर हाथ फेरते हुए उसे यकीन दिलाने की कोशिश की.

प्राची की अम्मा के प्रति छटपटाहट और उन के स्नेह को पाने की ललक देख कर कुणाल का मन पीडि़त हुआ करता था. अम्मा चाहे कुणाल को पत्र लिखें या न लिखें. लेकिन कुणाल हर हफ्ते उन्हें पत्र जरूर लिखता.

प्राची कई बार कुणाल से जिद करती कि वह अम्मा से टैलीफोन कर बात करे, ताकि प्राची भी कम से कम उन की आवाज तो सुन सके. लेकिन जब भी कुणाल फोन करता, अम्मा रिसीवर रख देतीं.

कुणाल द्वारा पिछले हफ्ते लिखे गए खत में प्राची के गर्भवती होने की सूचना के साथसाथ उस की मां का प्यार पाने की इच्छा का कुछ ज्यादा ही बखान हो गया था, तभी तो अम्मा पसीज गई थीं और फोन पर सूचित किया था कि वे आ रही हैं.

प्राची अम्मा के आने की खबर सुन कर पूरी रात सो न पाई थी. उस ने कल्पना की थी कि अम्मा आते ही उसे सीने से लगा लेंगी, हालचाल पूछेंगी, लेकिन यहां तो सबकुछ उलटा नजर आ रहा था.

कुणाल और अम्मा की बातों का स्वर काफी तेज था. अम्मा शायद भैया के व्यापार के बारे में कुछ बता रही थीं और कुणाल अपने को अधिक बुद्धिजीवी साबित करने का प्रयास करते हुए उन की छोटीमोटी गलतियों का आभास कराता जा रहा था.

गर्भावस्था में भी अब तक प्राची को काम करने में कोई असुविधा नहीं हुई थी, लेकिन पूरी रात न सो पाने से वह असहज हो उठी थी. साथ ही, अम्मा को अपने खयालों के मुताबिक न पा कर उस में एक अजीब सा तनाव आ गया था. अचानक उसे कुणाल भी पराया सा लगने लगा था.

किसी तरह नाश्ता बना कर प्राची ने डाइनिंग टेबल पर लगा दिया और अम्मा व कुणाल को बुलाने कमरे में आ गई.

अम्मा पलंग पर बैठी थीं और कुणाल उन की गोद में सिर रख कर लेटा था. अम्मा की उंगलियां कुणाल के बालों में उलझी हुई थीं. प्राची ने देखा, अम्मा का एक भी बाल सफेद नहीं है. ‘शायद बालों को रंगती हों,’ प्राची ने सोचा और मन ही मन हंस दी, ‘युवा दिखने का शौक भी कितना अजीब होता है. बच्चे बड़े हो गए और मां का जवान दिखने का पागलपन.’

प्राची के मनोभावों से परे अम्मा और कुणाल अपनी ही बातचीत में खोए हुए थे. अम्मा कह रही थीं, ‘‘बेटा, तू अब वहीं आ जा, अपना अस्पताल खोल ले. अब दूरदूर नहीं रहा जाता.’’

‘‘अभी नहीं, अम्मा, मैं करीब 5 साल मैडिकल अस्पताल में ही प्रैक्टिस करना चाहता हूं. यहां रह कर तरहतरह के मरीजों से निबटना तो सीख लूं. जब भी अस्पताल खोलूंगा, वहीं खोलूंगा, तुम्हारे पास, यह तो तय है.’’

‘‘अम्मा, नाश्ता तैयार है,’’ दोनों के प्रेमालाप में विघ्न डालते हुए प्राची को बोलना पड़ा.

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‘‘अच्छा बेटी, चलो कुणाल, तुम दोनों से मिल कर मेरी तो भूख ही मर गई,’’ अम्मा ने उठते हुए कहा.

‘‘पर अम्मां, मेरी भूख तो दोगुनी हो गई,’’ कुणाल ने उन के हाथों को अपने हाथ में लेते हुए कहा.

‘‘पागल कहीं का, तू तो बिलकुल नहीं बदला,’’ अम्मा ने लाड़ जताते हुए कहा.

नाश्ते की मेज पर न तो अम्मा और न कुणाल को इतनी फुरसत थी कि नाश्ते की तारीफ में कुछ कहें, न ही यह याद रहा कि प्राची भी भूखी है. रात अम्मा से मिलने की उत्सुकता में उस की नींद और भूख, दोनों मर गई थीं.

पर अब प्राची भूख सहन नहीं कर पा रही थी. उसे लग रहा था, अम्मा उस से भी साथ खाने को कहेंगी या कम से कम कुणाल तो उस का खयाल रखेगा. पर सबकुछ आशा के उलट हो रहा था. अब तक प्राची के बगैर चाय तक न पीने वाला कुणाल बड़े मजे से कटलेट सौस में डुबो कर खाए जा रहा था. प्राची के मन में अकेलेपन का एहसास बढ़ता ही जा रहा था.

मां व बेटे के इस रूप को देख कर प्राची को भी संकोच को दरकिनार करना पड़ा और वह अपने लिए प्लेट ले कर नाश्ता करने के लिए बैठ गई. नाश्ता स्वादहीन लग रहा था, पर भूख को शांत करने के लिए वह बड़ी तेजी से 2-3 कटलेट निगल गई. फलस्वरूप, उसे उबकाई आने लगी. रातभर के जागरण और सुबह से हो रहे मानसिक तनाव से पीडि़त प्राची को कटलेट हजम नहीं हुए.

प्राची तेजी से उठ कर बाथरूम की ओर दौड़ पड़ी. भीतर जा कर जो कुछ खाया था, सब उगल दिया. माथे पर छलक आई पसीने की बूंदों को पोंछते हुए बाथरूम में खड़ी रही. ऐसा लग रहा था जैसे अभी गिर पड़ेगी. सिर भी चकराने लगा था. तभी 2 कोमल भुजाओं ने प्राची को संभाल लिया. ‘‘चल बेटी, तू आराम कर.’’ लेकिन प्राची वहां से हट न पाई. थोड़ी सी गंदगी बाथरूम के बाहर भी फैल गई थी. सो, यह बोली, ‘‘अम्मा, वह वहां भी थोड़ी सी गंदगी…’’

‘‘मैं साफ कर लूंगी, तू चल कर आराम कर,’’ अम्मा प्राची को सहारा दे कर उसे उस के कमरे तक ले आईं. फिर बिस्तर पर लिटा कर उस के चेहरे को तौलिए से पोंछ कर साफ किया.

कुणाल ने एक गिलास पानी से प्राची को एक गोली खिला दी. अब कुणाल के चेहरे पर परेशानी के भाव साफ नजर आ रहे थे. ‘‘ज्यादा भागदौड़ हो गई होगी न. अब तुम आराम करो.’’

‘कुणाल, मुझे उबकाई आ गई थी. बाथरूम के बाहर भी जरा सी गंदगी हो गई है. अम्मा साफ करेंगी तो अच्छा नहीं लगेगा. सास से कोई ऐसे काम नहीं करवाता.’’

‘‘पागल,’’ प्राची के गालों पर प्यार से चपत मारता हुआ कुणाल बोला, ‘‘वे तुम्हारी मां हैं मां. और उन्हें जो करना है, वह करेंगी ही. मेरे कहने से मानेंगी थोड़े ही.’’

‘‘फिर भी,’’ प्राची ने उठने का प्रयास करते हुए कहा.

‘‘तुम चुपचाप लेटी रहो और सोने का प्रयास करो,’’ कुणाल धीरेधीरे उस के माथे पर हाथ फेरता रहा. कब नींद आ गई, प्राची को पता ही न चला.

जब उस की आंख खुली तो अम्मा को अपने सिरहाने बैठा पाया. वे नेलपौलिश रिमूवर से अपने नाखून साफ कर रही थीं, प्राची ने उठने का प्रयास किया तो अम्मा ने रोक दिया, ‘‘न बेटी, तुम आराम करो. तुम्हें चिंता करने की जरूरत नहीं. मैं आ गईर् हूं और सिर्फ तुम्हें आराम देने के लिए ही आई हूं.’’

‘‘अम्मा, मुझे अच्छा नहीं लग रहा, मैं आप की सेवा भी नहीं कर पा रही हूं.’’

‘‘नहीं बेटी, मैं अपने हिस्से का आराम करती रहूंगी, तुम चिंता मत करो. जब से योगाभ्यास करने लगी हूं, खुद को काफी स्वस्थ महसूस कर रही हूं. अपने योग शिक्षक से तुम्हारे करने योग्य योग भी सीख कर आई हूं, तुम्हें जरूर सिखाऊंगी, लेकिन पहले तुम्हारे डाक्टर से मिलना होगा. तुम मेरी और कुणाल की चिंता छोड़ दो. तुम्हारे प्रसव तक घर की देखभाल मैं करूंगी.’’

‘‘अम्मां, तब तक आप यहीं रहेंगी?’’

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‘‘हां,’’ उन्होंने मुसकराते हुए कहा.

प्राची एकटक अम्मा को ताकती रही, वे ममता की प्रतिमूर्ति लग रही थीं. वह सोचने लगी कि केवल वेशभूषा से किसी के दिल को भला कैसे आंका जा सकता है. अम्मा ने लिपस्टिक भी लगाई थी, चेहरे पर पाउडर और कटे बालों में हेयरबैंड भी. पर अब प्राची को सबकुछ अच्छा लग रहा था क्योंकि अम्मा के मेकअप वाले आवरण की ओट से झांकती उन की अंदरूनी खूबसूरती और ममत्व का रंग उसे अब स्पष्ट दिखाई देने लगा था.

लेन नं 5: क्या कोई कर पाया समस्या का समाधान

लेखिका – सुधा थपलियाल 

पानी बरसने के कारण पूरी गली पानी से भरी हुई थी. गली में कहींकहीं ईंटें पड़ी हुई थीं. निर्मलजी एक हाथ में सब्जी का थैला पकड़े व दूसरे में छाता संभाले उन्हीं पर चलने की कोशिश कर रहे थे कि अचानक तेजी से आती मोटरसाइकिल पर सवार 2 लड़कों ने उन के सारे प्रयास पर पानी फेर दिया.

निर्मलजी चिल्लाए, ‘‘दिखाई नहीं देता क्या?’’

लड़के अभद्रता से हंसते हुए निकल गए.

‘‘मैं अभी गली के सभी लोगों से मिलता हूं, सारे के सारे सोए हुए हैं,’’ निर्मलजी गुस्से से बुदबुदाए.

लेन नं. 5 में संभ्रांत लोगों का निवास था. वे न केवल उच्च शिक्षित थे वरन उच्च पदों पर भी आसीन थे. कुछ तो विदेशों में भी सर्विस कर चुके थे. पिछले वर्ष सीवर लाइन डालने के लिए गली खोदी गई थी. सीवर लाइन पड़े भी अरसा हो गया था, मगर गली अब भी ऊबड़खाबड़ पड़ी थी. जगहजगह ईंटों व मिट्टी के ढेर लगे थे. पानी का सही निकास न होने के कारण बरसात के दिनों में गली पानी से लगभग भर जाती थी, जिस कारण चलना मुश्किल हो जाता था.

‘‘आइएआइए निर्मलजी,’’ घंटी बजने पर उन्हें दरवाजे पर खड़ा देख सुभाषजी बोले.

‘‘अरे सुनती हो, 1 कप चाय भेजना, निर्मलजी आए हैं,’’ सुभाषजी पत्नी अनीता को आवाज दे कर निर्मलजी की ओर उन्मुख हो कर बोले, ‘‘कहिए, आज कैसे आने का कष्ट किया?’’

‘‘आप तो गली का हाल देख ही रहे हैं,’’ सुबह हुए हादसे का असर अभी भी दिमाग पर छाया हुआ था. अत: जबान पर उस की कड़वाहट आ ही गई.

‘‘मैं भी परेशान हूं. 1 साल से गली का यह हाल है. पहले खुदी तब परेशान हुए, अब बन नहीं रही है,’’ सुभाषजी भी अपनी भड़ास निकालते हुए बोले.

‘‘ऐसा है, सभी लेन के लोगों को बुला कर मीटिंग करते हैं, नगर निगम के औफिस जा कर शिकायत दर्ज कराते हैं, तभी कुछ होगा.’’

‘‘आप बिलकुल सही कह रहे हैं,’’ निर्मलजी की बात का समर्थन करते हुए सुभाषजी बोले.

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‘‘क्या कह रहे थे निर्मलजी?’’ उन के जाने के बाद सुभाषजी की पत्नी अनीता ने पूछा.

‘‘वही गली के बारे में कह रहे थे,’’ अखबार में नजर गड़ाए सुभाषजी बोले.

‘‘आप उन से कहते कि पहले अपने नौकर को तो समझाएं, जो रोज कूड़ा हमारे घर के सामने फेंक जाता है,’’ अनीताजी ने भी अपनी भड़ास निकालते हुए कहा.

‘‘तुम फिर शुरू हो गईं,’’ झुंझला कर अखबार एक तरफ फेंक कर सुभाषजी बोले.

‘‘क्या बात है, कर्नल विक्रमजी नहीं दिखाई दे रहे हैं,’’ शाम को मीटिंग के लिए एकत्र होने पर उन्हें उपस्थित न देख कर निर्मलजी व्यंग्य से बोले.

‘‘कहीं उठा रहे होंगे रास्ते से कूड़ा,’’ सुभाषजी ने कहा तो सभी ठहाका लगा कर हंस पड़े.

‘‘अरे भई, उन से कहो यह कैंट नहीं है, जहां सिर्फ आर्मी के लोग रहते हैं. यहां सभी का आनाजाना लगा रहता है. कितनी भी कोशिश कर लो, यह लेन ऐसी ही गंदी रहेगी.’’

मीटिंग शुरू हुई. सभी लोग न केवल गली के हाल से परेशान थे वरन एकदूसरे के व्यवहार से भी क्षुब्ध थे. कोई किसी के पानी के अपने गेट के पास इकट्ठा होने से परेशान था, कोई गली गंदी करने के कारण से, कोई किसी के आचरण से, कोई बच्चों की गेंद बारबार घर आने से, तो कोई अपने गेट के पास किसी की गाड़ी की पार्किंग से.

‘‘मैं तो रोज एक शिकायती पत्र ईमेल करता हूं, मेयर साहब को,’’ विदेश में 10 वर्ष रह चुके दिनेशजी बोले.

उन पर विदेशी अनुभव पूरी तरह छाया हुआ था, अपनी मातृभूमि का प्रभाव कहीं नजर नहीं आ रहा था.

‘‘आप ईमेल की बात करते हैं. आप तो सशरीर भी उन के सामने उपस्थित हो जाएं तब भी वे आप को न पढ़ें,’’ निर्मलजी की बात पर फिर सब हंसने लगे.

‘‘तभी तो इस देश का कुछ नहीं हो रहा,’’ खीज कर चिरपरिचित जुमला हवा में उछालते हुए दिनेशजी बोले.

अंत में यह तय हुआ कि एक शिकायती पत्र लिख कर उस पर सब के हस्ताक्षर करा कर नगर निगम के औफिस जा कर जमा कराया जाए. पत्र को निर्मलजी और सुभाषजी ले कर जाएंगे. कारण, दोनों सेवानिवृत्त थे और दोनों के पास पर्याप्त समय था इन कार्यों को करने का.

अगले दिन निर्मलजी और सुभाषजी पत्र ले कर कर्नल विक्रमजी के घर पहुंचे, ‘‘आप मीटिंग में उपस्थित नहीं थे. हम सब एक शिकायती पत्र पर सब के हस्ताक्षर करा कर नगर निगम के औफिस में जमा करा रहे हैं. उसी संबंध में आप से इस पत्र पर हस्ताक्षर कराने आए हैं,’’ गर्व से निर्मलजी बोले.

‘‘बहुत अच्छा किया,’’ कह कर विक्रमजी ने हस्ताक्षर कर दिए.

शिकायती पत्र को नगर निगम के कार्यालय में दिए 1 महीने से ऊपर समय बीत जाने के बाद भी कोई कार्यवाही नहीं हो रही थी. जब भी उन के पास जाते एक ही जवाब सुनने को मिलता कि फंड नहीं है.

प्रशासन को कोसते हुए लेन नं. 5 के निवासियों की सहनशक्ति दिनबदिन कम होती जा रही थी.

‘‘तुम्हारी हिम्मत कैसे होती है हमारे घर के पास कूड़ा फेंकने की?’’ सुभाषजी की पत्नी अनीताजी दहाड़ते हुए बोलीं.

एकाएक हुए इस आक्रमण से निर्मलजी का नौकर सकपका गया.

‘‘जब देखो तब कूड़ा हमारे घर के पास फेंक देता है,’’ रात के 10 बजे अनीताजी की बुलंद आवाज से आसपास के सभी लोग घरों से बाहर निकल आए.

‘‘आप के घर के पास कहां फेंका? आप बिना वजह नाराज हो रही हैं,’’ निर्मलजी की पत्नी आशा नाराजगी से बोलीं.

‘‘आप जरा देखिए…आप ने अपने नौकर को इतने भी मैनर्स नहीं सिखा रखे.’’

‘‘आप ज्यादा मैनर्स की बातें न करें तो अच्छा रहेगा.’’

‘‘क्या कहा?’’

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‘‘और नहीं तो क्या. आप के पोते, जो इतना शोर मचाते हुए खेलते हैं…कई बार गेंद हमारे घर आती है. गेंद के लिए जब देखो तब गेट खोलते रहते हैं. तब आप कुछ नहीं सोचतीं,’’ आशाजी हाथ नचाती हुई बोलीं.

दोनों एकदूसरे को गलत ठहरा रही थीं. कोई अपनी गलती मानने को तैयार नहीं थी, सारा पड़ोस तमाशा देख रहा था, दोनों के पति बीचबचाव करने में लगे हुए थे.

 

उस दिन के बाद वातावरण बेहद तनावग्रस्त हो गया. 2 खेमों में विभाजित हो गई लेन नं. 5. एक सुभाषजी का पक्षधर तो दूसरा निर्मलजी का. गली की समस्या अपनी जगह ज्यों की त्यों थी.

एक दिन जब मलबे से भरा ट्रैक्टर गली में आया तो सब चौंक उठे. कर्नल विक्रम ने 2 मजदूरों की सहायता से गली में जहांजहां  पानी भरा था वहां मलबा डलवाना शुरू कर दिया.

‘‘यह आप क्या करा रहे हैं कर्नल साहब?’’ निर्मलजी बोले.

‘‘मलबे से भरा यह ट्रैक्टर जा रहा था. मैं ने इन से यहां फेंकने के लिए कहा तो ये तैयार हो गए. पानी इकट्ठा होने से मच्छर आदि पैदा होने से कई बीमारियां पैदा होने का खतरा भी है.’’

‘‘यह काम तो प्रशासन का है. हम टैक्स देते हैं.’’

‘‘लेकिन परेशानी तो हमें हो रही है,’’ निर्मलजी के पोते को चिप्स खाने के बाद रैपर को सड़क पर फेंकते देख कर्नल साहब ने टोका, ‘‘नहीं बेटा, रैपर सड़क पर नहीं फेंकते. इसे कूड़ेदान में फेंकना चाहिए.’’

‘‘यहां पर तो सभी फेंकते हैं. एक इस के न फेंकने से गली साफ तो नहीं हो जाएगी?’’

कर्नल साहब द्वारा अपने पोते को इस तरह टोकना निर्मलजी को अच्छा नहीं लगा. लेकिन जब उन्होंने कर्नल साहब को रैपर उठा कर अपने घर ले जाते देखा तो कुछ सोचने पर मजबूर हो गए.

दूसरे दिन सुबह जब कूड़ा उठाने वाली एक ठेली के साथ एक सफाई कर्मचारी को निर्मलजी के घर से कूड़ा ले जाते देखा तो दिनेशजी से रहा न गया और वे पूछ ही बैठे, ‘‘निर्मलजी, यह तो आप ने बहुत अच्छा किया. मैं भी काफी दिनों से इस विषय में सोच रहा था,’’ फिर सफाई कर्मचारी की ओर उन्मुख हो कर बोले, ‘‘कहां ले कर जाते हो इस कूड़े को? पता चला यहां से उठा कर किसी और के घर के सामने फेंक दिया.’’

‘‘जी, नहीं. हम इस कूड़े को 2 हिस्सों में अलगअलग कर देते हैं. एक हिस्से में फलों व सब्जियों के छिलके, बचा हुआ खाना, कागज, पत्ते आदि रखते हैं, जिन्हें आसानी से खाद में बदला जा सकता है और दूसरे में वे चीजें, जिन्हें सड़ाया न जा सके. जैसे, पौलिथीन बैग्स आदि. इन्हें हम सुरक्षित तरीकों से नष्ट कर देते हैं,’’ सफाई कर्मचारी बोला.

‘‘तभी तो सरकार पौलिथीन बैग्स के इस्तेमाल पर पाबंदी लगा रही है, क्योंकि ये अपनेआप नहीं सड़ते. वैसे हम इन वस्तुओं से अपने घरों में भी खाद बना सकते हैं?’’ निर्मलजी ने पूछा.

‘‘बिलकुल, अगर आप के पास किचन गार्डन है तो आप उस में छोटा सा गड्ढा खोद कर उस के अंदर फलों व सब्जियों के छिलके, सूखे पत्ते, बचा खाना डालते रहें, जब गड्ढा भर जाए तो उसे मिट्टी से बंद कर उस में पानी का छिड़काव करते रहें. 3-4 महीनों में ये सब वस्तुएं सड़ जाती हैं और खाद में परिवर्तित हो जाती हैं, जिन्हें आप खाद के रूप में अपने गमलों व क्यारियों में इस्तेमाल कर सकते हैं,’’ सफाई कर्मचारी बोला.

‘‘अगर लोग सफाई के प्रति थोड़ी सी भी जागरूकता दिखाएं तो सड़कों के किनारे इतनी गंदगी नहीं दिखाई देगी,’’ दिनेशजी बोले.

‘‘कैसे?’’

‘‘सड़कों, गलियों आदि को भी अपने घरों की तरह साफ रखने की कोशिश करें और कोई भी गंदगी सड़कों व गलियों में न फेंकें. मैं तो कहता हूं कि हमें भी विदेशों की तरह थोड़ीथोड़ी दूरी पर कूड़ेदान रखने चाहिए ताकि  रास्ते में कोई गंदगी न फेंके और अगर फेंके तो हम उसे कूड़ेदान में फेंकने के लिए कहें. विदेशों में इसीलिए इतनी सफाई रहती है, क्योंकि वहां सड़कों पर कोई भी गंदगी नहीं फेंकता. सभी सड़कों और लेन आदि को साफ रखना अपना नैतिक कर्तव्य समझते हैं. वहां सार्वजनिक स्थानों पर तो क्या लोग निर्जन स्थानों पर भी कूड़ा नहीं फेंकते. यह उन की आदत है न कि किसी दबाव के कारण, क्योंकि बचपन से वे यह सब देखते आए हैं.

‘‘हमारा देश प्रत्येक क्षेत्र में प्रगति कर रहा है, लेकिन सफाई के प्रति हम जरा भी सचेत नहीं हैं. इतना भी नहीं सोचते कि इन सब का कितना बुरा प्रभाव पड़ता है. हमारा देश इतना सुंदर है. पर्यटन से हमें आय की कितनी संभावनाएं हैं. लेकिन यहां जगहजगह फैली गंदगी को देख कर विदेशी पर्यटक

चाह कर भी यहां आने से कतराते हैं,’’ अपना विदेश का अनुभव बताते हुए दिनेशजी बोले.

कुछ सोचते हुए निर्मलजी बोले, ‘‘सड़कों पर तो प्रशासन ही कूड़ेदान रखेगा, लेकिन अपनी गली में हम आपसी सहयोग से कूड़ेदान रख सकते हैं और इसी सफाई कर्मचारी से उन की सफाई कराते रहेंगे. चलिए, सब से बात कर के देखते हैं.’’

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कूड़ेदान के प्रस्ताव पर सब सहर्ष तैयार हो गए. सब के सहयोग से लेन नं. 5 में कूड़ेदान भी आ गए. कर्नल विक्रमजी के मलबा डलवाने, सफाई कर्मचारी के कूड़ा उठाने व कूड़ेदान रखने से लेन नं. 5 साफ और व्यवस्थित रहने लगी. घर के पास कूड़ा न पड़ने के कारण अब अनीताजी ने भी अपने पोतों पर लगाम लगानी शुरू कर दी.

‘‘देखिए, सब के थोड़े से प्रयास और सफाई के प्रति थोड़ा सा सजग रहने से लेन कितनी साफ रहने लगी है,’’ निर्मलजी बोले.

‘‘इस सब का श्रेय तो कर्नल साहब को देना चाहिए,’’ गोद में 3 वर्ष की पोती को उठाए सुभाषजी बोले.

‘‘आप बिलकुल ठीक कह रहे हैं.’’

तभी कर्नल विक्रमजी की कार ने लेन में प्रवेश किया.

‘‘कहां से आ रहे हैं कर्नल साहब?’’ सुभाषजी बोले.

‘‘नगर निगम के औफिस से आ रहा हूं.’’

‘‘आप और नगर निगम के औफिस से?’’

‘‘क्यों नहीं? मैं भी इस देश का नागरिक हूं और अपने अधिकारों के प्रति जागरूक हूं.’’

‘‘क्या कहा उन्होंने?’’ उत्सुकता से सुभाषजी ने पूछा.

‘‘उन्होंने कहा, फंड आ गया है, जल्द ही काम शुरू हो जाएगा.’’

तभी सुभाषजी की पोती गोद से उतरने के लिए मचलने लगी. जब वह नहीं मानी तो सुभाषजी को उसे गोद से उतारना पड़ा. गोद से उतरते ही अपने नन्हे कदमों से चल कर चौकलेट का रैपर, जो उस के हाथ से गिर गया था, को उठा कर कूड़ेदान में डालने की कोशिश करने लगी.

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चश्मा: एस्थर ने किया पाखंडी गुरूजी को बेनकाब

लेखिका- प्रेमलता यदु

आज एस्थर का ससुराल में पहला दिन था. उस ने सोचा जब परिवार के हर सदस्य ने उसे खुले दिल से अपनाया है तो क्यों ना वह भी उन के ही रंग में रंग जाए और उन जैसा ही बन कर सब का दिल जीत ले. यही सोच वह भोर होने से पहले अपनी सासूमां सुनंदा की भांति ही जाग गई.

रोज सुबह 8 बजने जागने वाली एस्थर आज अलार्म लगा कर 5:30 बजे ही जाग गई. घर के सभी लोगों की सुबह की शुरुआत चाय से होती है, इसलिए वह चाय बनाने के लिए रसोईघर की ओर चल पड़ी.

उस ने कभी सोचा ही नहीं था की पराग का परिवार इतनी सहजतापूर्वक उस की और पराग की शादी के लिए स्वीकृति प्रदान कर देगा और उसे पूरे दिल से अपना लेगा, क्योंकि अकसर पराग की बातों से उसे ऐसा प्रतीत होता था कि उस का परिवार एक रूढ़िवादी ब्राह्मण परिवार है पर कल के रिसैप्शन पार्टी में एस्थर का यह भ्रम टूट गया. उसे एक पल के लिए भी यह महसूस नहीं हुआ कि वह किसी दूसरे धर्म या समुदाय में ब्याही है.

जाति, धर्म कभी भी प्यार एवं स्नेह के बीच दीवार नहीं बन सकते, पराग के परिवार ने इस बात पर मुहर लगा दी थी.

यही सब सोचती हुई अभी वह रसोईघर में प्रवेश करने ही वाली थी कि सुमित्रा बुआ जोरजोर से चिल्लाने लगीं,”अरे…अरे… बहुरिया यह क्या अनर्थ करने जा रही हो…”

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सुमित्रा बुआ अपना ससुराल छोड़ कर यहां मायके में डेरा डाले बैठी हैं. सुबहसुबह ही जाग जाती हैं और अकसर माला फेरने का ढोंग रचा हौल में धुनी रमाए बैठ जाती हैं. आज भी वह अपना आसन जमाए बैठी हुई थीं.

असल में उन का सुबह से ले कर रात तक केवल इस बात पर पूरा ध्यान रहता है कि घर में कौनकौन सदस्य क्याक्या कर रहा है? भगवान की अराधना तो सब एक आडंबर मात्र ही थी.

बुआ का चिल्लाना सुन सुनंदा दौड़ती हुई बाथरूम से वहां आ ग‌ई. एस्थर भी सुमित्रा बुआ को इस तरह चिल्लाता देख पूरी तरह से स्तब्ध रह गई और डर कर रसोईघर के दरवाजे पर ही ठिठक गई.

सुनंदा कुछ पूछती इस से पहले ही सुमित्रा बुआ गुर्राती हुईं एस्थर से बोलीं,”इस घर पर पांव धर कर तुम पहले ही हमारे भैया की जातबिरादरी में नाक कटा चुकी हो. कुल तो भ्रष्ट कर ही दिया है और अब बिन नहाए भीतर जा कर हमारा धर्म भी भ्रष्ट करने का इरादा है क्या? कुछ नियम, धर्म है कि नहीं? वैसे भी तुम्हें मोमबत्ती जलाने के अलावा कुछ मालूम ही क्या होगा पर भौजी तुम… तुम को तो इतना वर्ष हो गया है इस घर में आए फिर भी अब तक तुम हमारे घर का नियम जान नहीं पाईं क्या?

“अपनी बहुरिया को तनिक ज्ञान दो, उस को इस घर के तौरतरीके सिखाओ, बताओ उस को इस घर में क्या होता है क्या नहीं. तुम पुत्रमोह में इतनी अंधी हो गई हो कि सब भूल ग‌ईं?”

यह सुन एस्थर सहम सी गई. वह कुछ समझ ही नहीं पाई कि आखिर उस से क्या चूक हो गई कि जो बुआ कल रात तक सभी के समक्ष उस की बलाईयां लेते हुए नहीं थक रही थीं, आज अचानक सुबह होते ही ऐसा क्या हो गया कि तीखे और कड़वे वचन उगल रही है.

सुनंदा लड़खड़ाती जबान में बोलीं,”दीदी, उस का घर में आज पहला दिन है धीरेधीरे सब सीख जाएगी. आप चिंता ना करें, मैं स्वयं उसे सब बता दूंगी. इस बार माफ कर दीजिए.”

“हां…. सिखाना तो अब पड़ेगा ही. केवल विजातीय बहू नहीं लाया है तुम्हारा लाडला बेटा, बल्कि गैर धर्म की लड़की ही घर उठा लाया है.”

यह सुन सुनंदा वहां से चुपचाप जाती हुई एस्थर को भी अपने संग चलने का इशारा कर गई. एस्थर भी सुनंदा के पीछे हो ली.

एक कोने में जा कर सुनंदा अपना हाथ एस्थर के सिर पर रखती हुई बोलीं,”दीदी के बातों का बुरा नहीं मानना. उन की जबान ही थोड़ी कड़वी है लेकिन वह दिल की बहुत अच्छी हैं. तुम एक काम करो पहले नहा लो, तब तक मैं पूजा कर लेती हूं फिर दोनों मिल कर चायनाश्ता बनाते हैं,” इतना कह सुनंदा चली गई.

*एस्थर* को सुबहसुबह नहाने की आदत नहीं है पर वह क्या करे ससुराल वालों का दिल जीतना बहुत जरूरी है क्योंकि पराग पहले ही कह चुका है कि उस की वजह से परिवार के लोगों को किसी प्रकार की कोई शिकायत का मौका नहीं मिलना चाहिए वरना वह उस की कोई मदद नहीं कर पाएगा.

घर के सदस्यों के प्रति नकारात्मक विचारों की बेल एस्थर के मन को जकड़ने लगे जिन्हें वह झटक नहाने चली गई और जब वह तैयार हो कर पहुंची तो उस ने देखा सासूमां ने सभी के लिए चायनाश्ता बना लिया है और सभी बैठक में नाश्ते के साथ चाय की चुसकियां ले रहे हैं.

सुनंदा बेचारी भागभाग कर सभी के प्लेट्स पर कभी कचौड़ियां परोस रही थीं तो कभी चटनी. कोई मीठी चटनी की फरमाइश कर रहा था तो कोई हरी धनिया की चटनी, पर उन की मदद कोई नहीं कर रहा. यहां तक कि उन की अपनी बेटी शिल्पी भी उन का हाथ बंटाने के बजाय उलटा उन से दोपहर पर बनने वाले खाने की सूची में अपनी फरमाइश जोड़ रही थी.

यह सब देख एस्थर अंदर ही अंदर क्रोध से भर गई पर स्वयं पर संयम रखती हुई शांत खड़ी रही. वह काफी देर तक वहां खड़ी रही लेकिन किसी ने भी उस से कुछ नहीं कहा.

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सभी इस प्रकार व्यवहार कर रहे थे जैसे वह वहां पर उपस्थित ही नहीं है. यहां तक कि पराग ने भी उसे अनदेखा कर दिया.

सब का रवैया देख एस्थर की आंखें नम हो गईं पर किसी को भी इस बात का आभास तक नहीं हुआ, तभी सुनंदा बोलीं,”एस्थर तुम भी चाय पी लो.”

सुनंदा का इतना कहना था कि पराग की दादी, सुमित्रा बुआ की मां, सुनंदा की सासूमां और इस घर की मुखिया गायत्री देवी भड़कती हुई सुनंदा से बोलीं,”बहू, अब तुम इस घर की केवल बहू ही नहीं रहीं सास भी बन गई हो, तो इस बात का ध्यान रखना तुम्हारी जिम्मेदारी है कि गलती से भी कोई चूक ना हो. यह तुम्हारा मायके नहीं है जहां कुछ भी चल जाएगा.”

“जी मां जी,” सुनंदा ने सिर झुकाए हुए ही जवाब दिया.

तभी फिर दोबारा गायत्री देवी अपने रोबदार आवाज में बोलीं,”आज मैं ने अपने गुरु महाराज को घर पर बुलाया है. उस की सारी व्यवस्था तुम कर लेना. पूजा की सारी सामग्री गुरू महाराज स्वयं ही ले आएंगे. उन्होंने कहा है कि आज वे घर के साथसाथ इस छोरी का नामकरण और शुद्धिकरण भी करेंगे.”

इतना सुनते ही माला फेरतीं सुमित्रा बुआ अपनी ईश्वर अराधना पर अल्पविराम लगाते हुए बोलीं,”अम्मां, नामकरण… भला क्यों?”

“अरे भई, इस छोरी का नाम जो इतना विचित्र है पुकार लो तो ऐसा लगे है जैसे जबान ही पूरी अशुद्ध हो गई हो और फिर गुरु महाराज ने भी कहा है कि नाम बदलने से ही पराग का वैवाहिक जीवन सुखमय बना रहेगा अन्यथा नहीं और उन्होंने यह भी कहा है कि हमारे कुल और पूर्वज पर जो इस छोरी की वजह से कलंक लगा है वह धुल जाएगा और हमारे पूर्वजों को वहां परलोक में किसी प्रकार की कोई यातना नहीं सहनी पड़ेगी. शिल्पी की शादी हेतु भी ग्रहशांति करने का कह रहे थे गुरूजी.

“मोहन, तुम जल्दी बैंक जा कर ₹1 लाख निकाल लाना. पूजा में जरूरत पड़ेगी.”

₹1 लाख सुनते ही पराग के पिता और गायत्री देवी के पुत्र मोहनजी के कान खड़े हो गए और उन्होंने आश्चर्य से कहा, “अम्मां ₹1 लाख वह भी पूजा के लिए… बहुत ज्यादा नहीं है क्या?”

“बहुत ज्यादा कहां है भैया…यह तो बहुत ही कम है. इस प्रकार की पूजा में ₹1-2 लाख खर्च हो जाते हैं. वह तो गुरू महाराज की हम सब पर कृपा एवं उन का आशीष है और फिर अम्मां उन की परमभक्त हैं इसलिए इतने कम में सब काम हो रहा है वरना आप और भाभी ने तो जो अपने पुत्रमोह में इस गैर धर्म की छोरी को बहू बना कर घर ले आए हैं उस के लिए तो आजीवन आप को और इस घर के पूर्वजों को सदा के लिए कष्ट भोगना पड़ता.”

यह सुन पराग बोला,”पापा, आप चिंता ना करें, मैं अपने अकाउंट से रुपए निकाल लूंगा.”

एस्थर आश्चर्य से पराग की ओर देखने लगी. उस ने आज से पहले कभी पराग का यह अंधविश्वासी अवतरण नहीं देखा था. उस ने कभी सोचा नहीं था कि इतना पढ़ालिखा और आधुनिकता का आवरण ओढ़ने वाला यह पूरा परिवार असल में पूर्ण रूप से अंधविश्वास के गिरफ्त में जकड़ा हुआ होगा.

*वह* विचार करने लगी कि इतना रूढ़िवादी और अंधविश्वासी परिवार ने उसे स्वीकार किया तो किया कैसे?

असल में वह इस सत्य से अनभिज्ञ थी कि इस ब्राह्मण परिवार का उसे अपनाना एक पाखंड था. वह तो बस यह नहीं चाहते थे कि उन का इकलौता कमाऊ बेटा शादी कर के अलग हो जाए क्योंकि अभी उन की छोटी बेटी की भी शादी होनी बाकी थी जिस में दहेज लगना था और एस्थर स्वयं भी एक कमाऊ मुरगी थी जिस का वह भरपूर इस्तेमाल कर सकते थे. इसलिए उन्होंने एस्थर को अलग धर्म का होते हुए भी अपनाने का स्वांग रचा.

इन सब बातों के बीच सहसा एस्थर को ऐसा एहसास हुआ जैसे गुरू महाराज और ग्रह शांति की बातें सुन सासूमां सुनंदा के चेहरे का रंग उड़ गया है और शिल्पी भी थोड़ी घबराई एवं असहज लगने लगी है.

अब तक जो लड़की हंसखेल रही थी, मुसकरा रही थी अचानक वह वहां से उठ कर चली गई और उसे इस प्रकार जाता देख सुनंदा भी उस के पीछे हो गईं.

दोनों को इस तरह परेशान देख एस्थर भी वहां से चली गई. जब वह शिल्पी के कमरे के करीब पहुंची तो उस ने सुना शिल्पी कह रही है,”अम्मां, मैं पूजा में ग्रहशांति हेतु नहीं बैठूंगी चाहे मेरी शादी हो या ना हो.”

सुनंदा उसे समझाने का प्रयत्न करते हुए कह रही थीं,”देखो शिल्पी, अम्मांजी ने गुरू महाराज को तुम्हारे ग्रहशांति हेतु पहले ही कह दिया है इसलिए इस बार तो तुम्हें बैठना ही होगा और फिर इस में तुम्हारा ही भला है. इस पूजा से तुम्हें अच्छा घरपरिवार मिलेगा.”

माजरा क्या है यह जानने के लिए एस्थर कमरे के अंदर जा अपनी सासूमां सुनंदा से बोली,”क्या बात है मम्मीजी, शिल्पी ग्रहशांति के नाम से इतना रो क्यों रही है?”

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सुनंदा ने कोई जवाब नहीं दिया बस वह लगातार शिल्पी को पूजा पर बैठने के लिए मना रही थी.

तभी शिल्पी चिढ़ती और जोर से चिल्लाती हुई बोली,”अम्मां, आप समझती क्यों नहीं. पूजा के बाद हर बार मैं बेहोश हो जाती हूं. मेरा पूरा शरीर दर्द से भर जाता है. मुझे बहुत डर लगता है मम्मी. प्लीज, मैं पूजा में नही बैठूंगी.”

शिल्पी का डर उस के शब्दों से अधिक उस की आंखों में नजर आ रहा था.

*शिल्पी* को अपनी मां के समक्ष गिड़गिड़ाता देख एस्थर ने बड़े सहज भाव से कहा,”मम्मीजी, क्या शिल्पी का पूजा में बैठना जरूरी है?”

“बस… अभी तुम्हें इस घर में आए चंद घंटे ही हुए हैं. बेहतर होगा ज्यादा सवालजवाब करना छोड़ो और मेरे साथ चल के गुरू महाराज की सेवा और उन के खानपान की व्यवस्था में मेरा हाथ बंटाओ. और हां, पराग से कहना ₹1 लाख अधिक निकाल ले क्योंकि गुरू महाराज को पूजा के उपरांत दक्षिणा भी देना होगा ताकि शिल्पी के लिए अच्छे रिश्ते आएं.”

सासूमां की बातें सुन एस्थर यह जान चुकी थी कि वक्त रहते उसे सही कदम उठाना होगा अन्यथा उस का घर बरबाद हो जाएगा. साथ ही वह अपनी पहचान खो देगी और उस का अस्तित्व भी समाप्त हो जाएगा.

इस घरपरिवार के लोगों पर अंधविश्वास का ऐसा चश्मा लगा हुआ था जिसे उतार पाना इतना आसान नहीं था. यदि वह प्रयास भी करेगी तो सफल होना मुश्किल था, इसलिए वह यह जानते हुए कि शुद्धिकरण, नामकरण और शादी के लिए ग्रहशांति की पूजा सब बकवास एवं बेकार की बातें हैं, पूजा में हिस्सा लेने एवं अपनी सासूमां का हाथ बंटाने को वह स्वेच्छा से तैयार हो गई.

*गुरू* महाराज निर्धारित समय पर अपने 5 शिष्यों के साथ घर पहुंचे. सभी उन का चरणस्पर्श करने लगे. एस्थर दूर ही खड़ी सब देख रही थी.

तभी दादी एस्थर की ओर इशारा करती हुई बोलीं,”अरे बहूरानी, तुम्हें अलग से कहना पड़ेगा… जाओ और गुरू महाराज का आशीष लो.”

एस्थर ने जैसे ही गुरू चरणों में अपना शीश नवाया, आशीष देते हुए गुरू महाराज ने उसे जिस प्रकार से स्पर्श किया एवं उन के शिष्यों की जो दृष्टि उस पर पड़ी वह सिहर उठी. उसी क्षण गायत्री देवी ने गुरू महाराज को पूजा प्रारंभ करने का आग्रह किया तो उन्होंने एक अजीब सी मादक मुसकान लिए एस्थर की ओर इशारा करते हुए बोले,”हम पहले इस लड़की का शुद्धिकरण करेंगे फिर पूजा संपन्न होगा.”

फिर वे उस कमरे की ओर बढ़ ग‌ए जहां पहले से ही सारे कर्मकांड की व्यवस्था की गई थी. सासूमां के इशारे पर एस्थर भी गुरू महाराज के साथ उस कमरे में चली गई और घर के बाकी सदस्य वहीं हाल में ही गुरूजी के साथ आए शिष्यों के संग पूजा की बाकी तैयारियों में जुट गए.

करीब 2 घंटे बाद गुरू महाराज और एस्थर कमरे से बाहर निकले फिर गुरूजी तुरंत ही अपने शिष्यों के साथ पूजा की वेदी पर पूजा कराने लगे.

पूजा कराते हुए बारबार उन्हें एस्थर के साथ कमरे में बिताए क्षण स्मरण होने लगे कि कैसे एस्थर ने बड़ी चालाकी से अपने मोबाइल फोन का कैमरा कमरे में छिपा दिया था जिस में उन की सारी हरकतें कैद हो गई थीं. किस प्रकार उन्होंने एस्थर को भभूत का पुड़िया खाने को दिया जिस में बेहोशी की दवा थी. कैसे वे अपने साथ लाए पूजा समाग्री में नशीली मादक दवाएं ले कर आए थे और उस का सेवन कर वे एस्थर को बेहोश समझ उस के साथ दुराचार करने का प्रयत्न करने लगे.

यह सब विचार करते हुए गुरू महाराज आननफानन में पूजा निबटा जल्दी से जल्दी यहां से निकाल जाना चाहते थे क्योंकि एस्थर की दी हुई धमकी उन के कानों में गूंज रही थी,”चुपचाप शांतिपूर्ण ढंग से पूजा निबटा कर यहां से निकलो, वरना पुलिस बुला कर तुम्हारा यह वीडियो दिखा, तुम्हें पाखंड, ढोंग, मासूम लड़कियों की इज्जत से खेलने, उन्हें अपना शिकार बना और दूसरों को धर्म और ग्रहों का डर दिखा कर लूटने के नाम पर अंदर करवा दूंगी.”

पूजा संपन्न करा जब गुरू महाराज जाने लगे तो गायत्रीजी बड़ी विनम्रता पूर्वक बोलीं,”गुरूजी, आप ने इस छोरी का नामकरण और मेरी पोती का ग्रह शांति तो कराया नहीं?”

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गुरू महाराज एस्थर की ओर घूरते हुए बोले,”नामकरण की कोई आवश्यकता नहीं है. शादी बहुत ही शुभ लग्न में हुई है. यह कन्या ईश्वर का वरदान है. आप के घर पर इस के पैर पड़ते ही घर की सभी विघ्न बाधाएं दूर हो गईं. सभी ग्रह अपनेआप ठीक स्थानों पर चले गए हैं इसलिए ग्रहशांति की भी अब कोई आवश्यकता नहीं.”

इतना कह गुरू महाराज चले गए और घर के सभी सदस्यों का एस्थर की ओर देखने का नजरिया ही बदल गया. सभी बड़े प्यार से उसे देखने लगे और एस्थर यह सोच कर मुसकराने लगी कि चश्मा तो अब भी सब के आंखों पर चढ़ा हुआ है लेकिन इस चश्मे की वजह से अब ना तो शिल्पी की शादी रुकेगी और ना ही उस का दैहिक शोषण होगा, जो अब तक होता आया है.

क्षोभ- शादी के नाम पर क्यों हुआ नितिन का दिल तार-तार

यह कहना सही नहीं होगा कि नितिन की जिंदगी में खुशी कभी आई ही नहीं. खुशी आई तो जरूर, लेकिन बिलकुल बरसात की उस धूप की तरह, जो तुरंत बादलों से घिर जाती है. जहां धूप खिली वहीं बादलों ने आ कर चमक धुंधली कर दी, यानी जैसे ही मुसकराहट कहकहों में बदली वैसे ही आंखों ने बरसना शुरू कर दिया.

यों तो नितिन के पापा नामीगिरामी डाक्टर थे, पैसे की कोई कमी नहीं थी, फिर भी परिवार इतना बड़ा था कि सब के शौक पूरे करना या सब को हमेशा उन की मनचाही चीज दिलाना मुश्किल होता था. इस मामले में नितिन कुछ ज्यादा ही शौकीन था और अपने शौक पूरे करने का आसान तरीका उसे यह लगा कि फिलहाल पढ़ाई में दिल लगाए ताकि जल्दी से अच्छी नौकरी पा कर अपने सारे अरमान पूरे कर सके.

कुछ सालों में ही नितिन की यह तमन्ना पूरी हो गई. बढि़या नौकरी तो मिल गई, लेकिन नौकरी मिलने की खुशी में दी गई पार्टी में पापा का अचानक हृदयगति रुक जाने के कारण देहांत हो गया. खुशियां गम में बदल गईं.

7 भाईबहनों में नितिन तीसरे नंबर पर था. बस एक बड़ी बहन और भाई की शादी हुई थी बाकी सब अभी पढ़ रहे थे.

नितिन ने शोकाकुल मां को आश्वस्त किया कि अब छोटे भाईबहनों की पढ़ाई और शादी की जिम्मेदारी उस की है. सब को सेट करने के बाद ही वह अपने बारे में सोचेगा यानी अपनी गृहस्थी बसाएगा और उस ने यह जिम्मेदारी बखूबी निबाही भी. अपने शौक ही नहीं कैरिअर को भी दांव पर लगा दिया.

हालांकि दूसरे शहरों में ज्यादा वेतन की अच्छी नौकरियां मिल रही थीं, लेकिन नितिन ने हमेशा अपने शहर में रहना ही बेहतर समझा. कारण, एक तो रहने को अपनी कोठी थी, दूसरे मां और छोटे भाईबहन उस के साथ रहने से मानसिक रूप से सुरक्षित और सहज महसूस करते थे.

अत: वह मेहनत कर के वहीं तरक्की करता रहा. वैसे बड़े भाई ने भी हमेशा यथासंभव सहायता की, फिर दूसरे भाईबहनों ने भी नौकरी लगते ही घर का छोटामोटा खर्च उठाना शुरू कर दिया था.

कुछ सालों के बाद सब चाहते थे कि नितिन शादी कर ले, लेकिन उस का कहना था कि सब से पहले छोटे भाई निखिल को डाक्टर बनाने का पापा का सपना पूरा करने के बाद ही वह अपने बारे में सोचगा.

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निखिल से बड़ी बहन विभा की शादी से पहले ही मां की मृत्यु हो गई. तब तक दूसरे भाइयों के बच्चे भी बड़े हो चले थे और उन सब के अपने खर्चे ही काफी बढ़ गए थे. नितिन से उन की परेशानी देखी नहीं गई. उस ने विभा की शादी और निखिल की पढ़ाई का पूरा खर्च अकेले उठाने का फैसला किया. भविष्य निधि से कर्ज ले कर उस ने विभा की शादी उस की पसंद के लड़के से धूमधाम से करा दी और निखिल को भी मैडिकल कालेज में दाखिल करा दिया.

निखिल की नौकरी लग जाने के बाद नितिन पुश्तैनी कोठी में बिलकुल अकेला रह गया था. 2 बहनें उसी शहर में रहती थीं, जो उसे अकेलापन महसूस नहीं होने देती थीं.

दूसरे भाईबहन भी बराबर उस से संपर्क बनाए रखते थे, सिवा निखिल के. वह कन्याकुमारी में अकेला रहता था और सब को तो फोन करता था, लेकिन नितिन से उस का कोई संपर्क नहीं था. चूंकि उस का हाल दूसरों से पता चल जाता था, इसलिए नितिन ने स्वयं कभी निखिल से बात करने की पहल नहीं की.

मझली बहन शोभा की बेटी की शादी की तारीख तय हो गई थी, लेकिन उस के पति को किसी जरूरी काम से विदेश जाना पड़ रहा था और वह शादी से 2 दिन पहले ही लौट सकता था. उधर लड़के वाले तारीख आगे बढ़ाने को तैयार नहीं थे. शोभा बहुत परेशान थी कि अकेले सारी तैयारी कैसे करेगी?

‘‘तू बेकार में परेशान हो रही है, मैं हूं न तेरी मदद करने को. हरि से बेहतर तैयारी करा दूंगा,’’ नितिन ने आश्वासन दिया, ‘‘तुम सब की शादियां कराने का तजरबा है मुझे.’’

 

एक दिन बाहर से आने वाले मेहमानों की सूची बनाते हुए नितिन ने शोभा से कहा, ‘‘निखिल से भी आग्रह कर न शादी में आने के लिए. इसी बहाने उस से भी मिलना हो जाएगा. बहुत दिन हो गए हैं उसे देखे हुए.’’

‘‘हम सब भी चाहते हैं भैया कि निखिल आए और वह आने को तैयार भी है, लेकिन उस की जो शर्त है वह हमें मंजूर नहीं है,’’ शोभा ने सकुचाते हुए कहा.

‘‘ऐसी क्या शर्त है?’’

‘‘शर्त यह है कि आप शादी में शरीक न हों. वह आप से मिलना नहीं चाहता.’’

‘‘मगर क्यों?’’ नितिन ने चौंक कर पूछा. उसे यकीन नहीं आ रहा था कि जिस निखिल की पढ़ाई का कर्ज वह अभी तक उतार रहा है, जिस निखिल ने रैचेल से उस का परिचय यह कह कर करा दिया था कि अगर मेरे यह भैया नहीं होते तो मैं कभी डाक्टर नहीं बन सकता था, वह उस की शक्ल देखना नहीं चाहता.

फिर शोभा को चुप देख कर नितिन ने अपना सवाल दोहराया, ‘‘मगर निखिल मुझ से मिलना क्यों नहीं चाहता?’’

‘‘क्योंकि रैचेल की मौत के लिए वह आप को जिम्मेदार मानता है.’’

‘‘यह क्या कह रही है तू?’’ नितिन चीखा, ‘‘तुझे मालूम भी है कि रैचेल की

मौत कैसे हुई थी? मगर तुझे मालूम भी कैसे होगा, तू तो तब जरमनी में थी. सुनाऊं तुझे पूरी कहानी?’’

‘‘जी, भैया.’’

नितिन बेचैनी से कमरे में टहलने लगा, जैसे तय कर रहा हो कि कहां से शुरू करे, क्या और कितना बताए? फिर बताना शुरू किया, ‘‘उन दिनों अपनी कोठी में मैं अकेला ही रह गया था. पढ़ाई खत्म होते ही निखिल को शहर से दूर एक अस्पताल में रैजीडैंट डाक्टर की नौकरी मिल गई अत: उसे वहीं रहना पड़ा. एक दिन अचानक निखिल ने मुझे फोन किया कि मैं शाम को जल्दी घर आ जाऊं, वह मुझे किसी से मिलवाना चाहता है. उस दिन बहुत उमस थी, इसलिए मैं ने छत पर कुरसियां लगवा दीं. कुछ देर बाद निखिल रैचेल के साथ आया. उस ने बताया कि वह और रैचेल हाई स्कूल से एकदूसरे से प्यार करते हैं, अब डाक्टर बनने के बाद दोनों चाहते हैं कि अगर मेरी इजाजत हो तो वे शादी कर लें.

‘‘न जाने क्यों मुझे रैचेल बहुत ही प्यारी और अपनी सी लगी. ऐसा लगा जैसे मैं उसे बहुत दिनों से जानता हूं. उस के आते ही उस उमस भरी शाम में अचानक किसी बरसात की सुहानी शाम की सी खुशगवार नमी तैरने लगी थी. मैं ने कहा कि मैं तो खुशी से उन की शादी के लिए तैयार हूं, लेकिन क्या रैचेल का परिवार इस विजातीय शादी के लिए इजाजत देगा? तब रैचेल बोली कि उस की मां कहती हैं कि अगर निखिल का परिवार एक विधर्मी बहू को सहर्ष स्वीकार लेता है तो उन्हें भी कोई एतराज नहीं होगा.

‘‘मैं ने उसे आश्वासन दिया कि सब से छोटा होने के कारण निखिल सब का लाड़ला है और उस की खुशी पूरे परिवार की खुशी होगी. रही विधर्मी होने की बात तो अभी तक तो अपने परिवार में कोई विजातीय शादी नहीं हुई है, मगर मैं भी शीघ्र ही एक विधर्मी और अकेली महिला से शादी करने वाला हूं, बस निखिल के सैटल होने का इंतजार कर रहा था. निखिल यह सुन कर बहुत खुश हुआ. उस के पूछने पर मैं ने बताया कि वह महिला एक बहुराष्ट्रीय कंपनी के चेयरमैन की सेके्रटरी है, औफिस के काम के सिलसिले में उस से मुलाकात हुई थी. विधवा है या परित्यक्ता, यह मैं ने कभी नहीं पूछा, क्योंकि उस ने शुरू में ही बता दिया था कि उसे खुद के बारे में बात करना कतई पसंद नहीं है और न ही निजी जिंदगी को दोस्ती से जोड़ना. दोस्ती को भी वह सीमित समय ही दे सकती है, क्योंकि नौकरी के अलावा उस की अपनी निजी जिम्मेदारियां भी हैं. मैं ने उसे बताया कि जिम्मेदारियां तो मेरी भी कम नहीं हैं, समय और पैसे दोनों का ही अभाव है और किसी स्थाई रिश्ते यानी शादीब्याह के बारे में तो फिलहाल सोच भी नहीं सकता.

‘‘निखिल और रैचेल के कुरेदने पर मैं ने बताया कि यह सुन कर वह और ज्यादा आश्वस्त हो गई और उस ने मेरी ओर दोस्ती का हाथ बढ़ा दिया. फुरसत के गिनेचुने क्षण हम दोनों इकट्ठे गुजारने लगे, जिस से हमारी एक ही ढर्रे पर चलती वीरान जिंदगी में बहार आ गई.

‘‘खुद के बारे में कभी न सोचने वालों को भी अपने लिए जीने की वजह मिल गई थी. दूसरों के साथसाथ अब हम अपने लिए भी सोचने लगे थे. अकसर सोचते थे कि जब हमारी सारी जिम्मेदारियां खत्म हो जाएंगी, तब हम दोनों इकट्ठे सिर्फ एकदूसरे के लिए जीएंगे. सपने देखा करते थे कि क्याक्या करेंगे, कहांकहां जाएंगे.’’

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‘‘निखिल यह सुन कर भावविह्वल हो गया और बोला कि भैया, कितने जुल्म किए आप ने खुद पर हमारे लिए, जब तक किसी से प्यार न हो, शायद अकेले रहना आसान हो, लेकिन किसी को चाहने के बाद उस से दूर रहना बहुत मुश्किल होता है.

‘‘मैं ने मजाक में पूछा कि उस की क्या मजबूरी थी, वह क्यों रैचेल से दूर रह रहा था? तब निखिल बोला कि एक तो शादी से पहले आत्मनिर्भर होना चाहता था, दूसरे रैचेल की भी कुछ मजबूरियां थीं. लेकिन अब जब मैं डाक्टर बन गया हूं और अलग भी रहने लगा हूं, तो आप अपनी शादी क्यों टाल रहे हैं?

‘‘तुम्हारी होने वाली भाभी का कहना है कि वह अभी कुछ दिन और शादी नहीं कर सकती. इस पर वह बोला कि यानी फिलहाल आप के ब्रह्मचर्य के खत्म होने के आसार नहीं हैं.

‘‘मैं ठहाका लगा कर हंस पड़ा कि ब्रह्मचर्य तो तुम्हारे यहां से जाते ही खत्म हो गया था निखिल. अकेला रहता हूं, इसलिए न तो कोई रोकटोक है और न ही समय की पाबंदी. जब भी उसे मौका मिलता है या उस का दिल करता है वह आ जाती है, फिर पूरे घर में हम दोनों स्वच्छंद विहार करते हैं.

‘‘रैचेल और निखिल को हैरान होते देख कर मैं चुप हो गया. फिर कुछ सोच कर बोला कि तुम दोनों तो डाक्टर हो, जीवविज्ञान के ज्ञाता, तुम क्यों जीवन के शाश्वत सत्य और परमसुख के बारे में सुन कर शरमा रहे हो? जल्दी से शादी करो और जीवन का अलौकिक आनंद लो. तुम दोनों को तो खैर सब कुछ मालूम ही होगा, मैं बालब्रह्मचारी तो उस से सट कर बैठने में ही खुश था, लेकिन उस की तो पहले शादी हो चुकी है न इसलिए उस ने मुझे बताया कि इस से आगे भी बहुत कुछ है. अभी भी कहती रहती है कि यह तो कुछ भी नहीं है, अपने रिश्ते पर समाज और कानून की मुहर लग जाने दो, फिर पता चलेगा कि चरमसुख क्या होता है.

‘‘तभी मेरे मोबाइल की घंटी बजी, उसी का फोन था यह बताने को कि वह आ रही है कुछ देर के लिए. मैं ने निखिल को उत्साह से बताया कि संयोग से वह आ रही है अत: वे लोग उस से मिल कर ही जाएं और फिर शरारत से कहा कि लेकिन मिलते ही चले जाना. हमारे सीमित समय के रंग में भंग करने रुके मत रहना.

‘‘निखिल ने कहा कि वे भी जल्दी में हैं, क्योंकि उन्हें रैचेल की मां के पास भी जाना है यह बताने कि आप ने इजाजत दे दी है और अब उन की इजाजत ले कर जल्दी से जल्दी शादी करना चाहते हैं.

‘‘मैं ने कहा कि तुम्हारी भाभी से पूछते हैं. अगर वह मान जाती हैं तो दोनों भाई एकसाथ ही शादी कर लेंगे. निखिल को बात बहुत पसंद आई और उस ने कहा कि मैं भी आज ही यह बात पूछ लेता हूं ताकि वह भी रैचेल की मां से उसी तारीख के आसपास शादी तय करने को कह सकें.

‘‘तभी नीचे से गाड़ी के हार्न की आवाज आई तो मैं ने उत्साह से कहा कि लो तुम्हारी भाभी आ गईं. रैचेल लपक कर मुंडेर के पास जा कर नीचे देखने लगी और फिर पलक झपकते ही वह मुंडेर पर चढ़ कर नीचे कूद गई.

‘‘जब मैं और निखिल नीचे पहुंचे तो सिल्विया रैचेल के क्षतविक्षत शव को संभाल रही थी. उस ने मुझ से एक चादर लाने को कहा. जब मैं चादर ले कर आया तो वह निखिल से बात कर रही थी. उस ने मुझे बताया कि वह निखिल के साथ रैचेल को उस के घर ले जा रही है. मैं ने कहा कि मैं भी साथ चलूंगा, मगर वे दोनों बोले कि मैं वहीं रुक कर पानी से खून साफ कर दूं ताकि किसी को कुछ पता न चले और पुलिस केस न बने. फिर वे दोनों तुरंत चले गए. मैं ने खून को अच्छी तरह साफ कर दिया.

‘‘उस रात सिल्वी ने अपना मोबाइल बंद रखा. अपने घर का फोन नंबर और पता तो उस ने मुझे कभी दिया ही नहीं था. निखिल का मोबाइल भी बंद था.

‘‘अगले दिन वह औफिस नहीं आई और निखिल भी अस्पताल नहीं गया. उस हादसे के बाद दोनों की मनोस्थिति काम पर जाने लायक नहीं होगी और क्या मालूम रात को कब घर आए हों और अभी सो रहे हों, यह सोच कर मैं ने उस दिन दोनों से ही संपर्क नहीं किया.

अगले दिन भी दोनों के मोबाइल बंद थे. शाम को मैं निखिल के अस्पताल में गया तो पता चला कि वह उसी सुबह अचानक नौकरी छोड़ने के एवज में 1 महीने का वेतन दे कर जाने कहां चला गया है.

‘‘मुझे निखिल के इस अनापेक्षित व्यवहार से धक्का तो लगा, लेकिन इस से पहले कि मैं उस की शिकायत दूसरे भाईबहनों से करता, कुदरत ने मुझे एक और जबरदस्त झटका दिया. घर लौटने पर मुझे कुरिअर द्वारा सिल्विया का पत्र मिला, जिस में उस ने लिखा था कि जब तक मुझे यह पत्र मिलेगा तब तक वह इस दुनिया से जा चुकी होगी और मेरे लिए उसे भूलना ही बेहतर होगा.

‘‘मैं ने उसे भूलने के बजाय और सब को भूल कर उस के साथ गुजारे लमहों की यादों के सहारे जीना बेहतर समझा. मैं भी लंबी छुट्टी ले कर हिमालय की घाटियों में चला गया. लेकिन उम्र भर कोल्हू के बैल की तरह काम करने वाला आदमी ज्यादा दिनों तक खाली नहीं रह सकता था. फिर चाहे कितनी ही सादगी से क्यों न रहो पैसा तो चाहिए ही और मेरे पास कोई जमापूंजी भी नहीं थी.

फिर अभी भविष्य निधि से लिया कर्ज भी चुकाना था.

‘‘अत: मैं फिर काम पर लौट आया. काम के अलावा और किसी भी चीज में अब मेरी दिलचस्पी नहीं रही थी. लेकिन खून के रिश्ते टूटते नहीं. तुझे निक्की की शादी के काम के लिए परेशान देख कर मैं उस की शादी की तैयारी करवाने के चक्कर में फिर से दुनियादारी में लौट आया. यह सोच कर कि जब और सब आ रहे हैं तो निखिल क्यों न आए, तुझे उसे बुलाने को कहा. अब तू ही बता, रैचेल की मृत्यु के लिए मैं जिम्मेदार क्यों और कैसे?’’

‘‘आप ने शायद सिल्विया के साथ अपने अंतरंग संबंधों का खुलासा कुछ ज्यादा खुल कर कर दिया था भैया,’’ शोभा धीरे से बोली.

नितिन चिढ़ गया, फिर बोला, ‘‘हो सकता है, लेकिन उस का रैचेल के छत से कूदने से क्या ताल्लुक?’’

‘‘क्षोभ, शर्म भैया, क्योंकि सिल्विया उस की मां थी.’’

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झूठा सच- कंचन के पति और सास आखिर क्या छिपा रहे थे?

कंचन का शक यकीन में बदलता जा रहा था कि कोई न कोई बात है जो पंकज और उस की मां उस से छिपा रहे हैं. और वह दिन भी आया जब सच उस के सामने था. लेकिन अब सच और झूठ का फैसला उसे ही करना था.

जीवनलालने अपने दोस्त गिरीश और उस की पत्नी दीपा को उन की बेटी कंचन के लिए उपयुक्त वर तलाशने में मदद करने हेतु अपने सहायक पंकज से मिलवाया. दोनों को सुदर्शन और विनम्र पंकज अच्छा लगा. वह रेलवे वर्कशौप में सहायक इंजीनियर था. परिवार में सिवा मां के और कोई न था जो एक जानेमाने ट्यूटोरियल कालेज में पढ़ाती थीं. राजनीतिशास्त्र की प्रवक्ता कंचन की शादी के लिए पहली शर्त यही थी कि उसे नौकरी छोड़ने के लिए नहीं

कहा जाएगा. स्वयं नौकरी करती सास को बहू

की नौकरी से एतराज नहीं हो सकता था. यह

सब सोच कर गिरीश ने जीवनलाल से पंकज

और उस की मां को रिश्ते के लिए अपने घर लाने को कहा.

अगले रविवार को जीवनलाल अपनी पत्नी तृप्ता, दोनों बच्चों-कपिल, मोना और पंकज व उस की मां गीता के साथ गिरीश के घर पहुंच गए.

‘‘मामा, चाचा, मौसा और फूफा वगैरा सब हैं लेकिन उत्तर प्रदेश में. हैदराबाद आने के बाद उन से संपर्क नहीं रहा या सच कहूं तो पापा के रहते जिन रिश्तेदारों से हमारी सरकारी कोठी भरी रहती थी, पापा के जाते ही वही रिश्तेदार हम बेसहारा मांबेटों से कन्नी काटने लगे थे,’’ पंकज ने अन्य रिश्तेदारों के बारे में पूछने पर बताया, ‘‘इसलिए मैं मां को ले कर हैदराबाद चला आया और यहां के परिवेश में हम एकदूसरे के साथ पूर्णतया संतुष्ट हैं.’’

‘‘पंकज की शादी हो जाए तो मेरा परिवार भरापूरा हो जाएगा,’’ गीता ने जोड़ा.

‘‘आप कंचन को पसंद कर लें तो वह भी जल्दी हो जाएगा,’’ जीवनलाल ने कहा.

‘‘हम तो आप के बताए विवरण से ही कंचन को पसंद कर के यहां आए हैं लेकिन

हम भी तो कंचन को पसंद आने चाहिए,’’

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गीता हंसी.

‘‘कंचन की पसंद पूछ कर ही आप को यहां आने की तकलीफ दी है,’’ दीपा ने भी उसी अंदाज में कहा, ‘‘हमारी बेटी की एक ही शर्त है कि आप उसे नौकरी छोड़ने को न कहें.’’

‘‘नहीं कहूंगी लेकिन एक शर्त पर कि यह भी कभी मुझे नौकरी छोड़ने को नहीं कहेगी.’’

‘‘तो फिर तो बात पक्की, मुंह मीठा करवाओ दीपा बहन.’’

तृप्ता के कहने पर दीपा मिठाई ले आई. चायनाश्ते के बाद जीवनलाल ने कहा कि अब सगाईशादी की तारीखें भी तय कर लो.

‘‘वह तो आप कब छुट्टी देंगे, उस पर निर्भर करता है, सर,’’ पंकज बोला, ‘‘इस पर भी कि वे स्वयं कब छुट्टी लेते हैं, क्योंकि सबकुछ उन्हें ही तो करना है.’’

गीता गिरीश और दीपा की ओर मुड़ी, ‘‘जिस तरह से उन्होंने यह

शादी की बात चलाई है उसी तरह से तृप्ता भाभी और जीवन भैया, पंकज के अभिभावक बन कर बहू के गृहप्रवेश तक की सभी रस्में निबाहेंगे. आप अब क्या करना है या कैसे करना है, उन से ही पूछिएगा. रहा लेनदेन का सवाल तो मुझे बस आप की बेटी चाहिए और अब इस विषय में मुझ से कोई कुछ नहीं पूछेगा.’’

गीता आराम से सोफे से पीठ लगा कर

बैठ गई.

‘‘पूछेंगे कैसे नहीं गीताजी, शादी में आने वाले रिश्तेदारों के बारे में तो बताना ही होगा,’’ दीपा ने प्रतिवाद किया, ‘‘शादी में रौनक तो उन लोगों के आने से ही आएगी.’’

‘‘रौनक की फिक्र मत करिए,’’ पंकज बोला, ‘‘मेरे बहुत दोस्त और सहकर्मी हैं, ज्यादा हंगामा चाहिए तो मम्मी के छात्रछात्राएं हैं.’’

‘‘मेरे छात्रछात्राओं की क्या जरूरत है?’’ गीता हंसी, ‘‘कंचन के ननददेवर हैं न मोना

और कपिल, अपने दोस्त सहेलियों के साथ धूम मचाने को.’’

शादी बहुत धूमधाम और हंसीखुशी से हो गई. कंचन पंकज के साथ बेहद खुश थी. गीता से भी उसे कोई शिकायत नहीं थी. कोचिंग कक्षाएं तो सुबहशाम ही लगती हैं. सो, गीता सुबह से ही जाती थी और कंचन के कालेज जाने के बाद लौटती थी. दिनभर घर में रहती थी. सो, नौकरानी से सब काम भी करवा लेती थी.

कंचन को घर लौटने पर गरम चायनाश्ता मिल जाता था. कुछ देर गपशप के बाद गीता फिर कालेज चली जाती थी और कंचन पूरी शाम पंकज के साथ जैसे चाहे बिता सकती थी. संक्षेप में, सास के संरक्षण का सुख बगैर किसी हस्तक्षेप या जिम्मेदारी के.

1 साल पलक झपकते गुजर गया. मांबेटे में रात को ही बात होती थी लेकिन कुछ रोज से कंचन को लग रहा था कि गीता कुछ असहज है. वह पंकज से अकेले में बात करने की कोशिश में रहती थी. कंचन के आते ही, बड़ी सफाई से बात बदल देती थी. कंचन ने यह बात अपनी मां दीपा को बताई.

‘‘पंकज के उस बेचारी का अपना सगा कोई और तो है नहीं जिस से कोई निजी दुखसुख या पुरानी यादें बांटे. तू खुद ही उन्हें अकेले छोड़ा कर, और पंकज से भी कभी मत पूछना कि मां उस से क्या कह रही थीं,’’ दीपा ने समझाया.

एक रात सब ने खाना खत्म ही किया था कि बिजली चली गई. पंकज और गीता बाहर बरामदे में बैठ गए और कंचन मोमबत्ती की रोशनी में मेज साफ कर के रसोई समेटने लगी. काम खत्म कर के उस ने बेखयाली में मोमबत्ती बुझा दी. स्ट्रीट लाइट की रोशनी में बरामदे का रास्ता नजर आ रहा था. वह धीरे से उसी के सहारे आगे बढ़ गई. तभी उसे बरामदे से मांबेटे की वार्तालाप सुनाई दी. पंकज कह रहा था, ‘‘कितनी भी सिफारिश लगवा लूं रेलवे से तो भी 3 बैडरूम वाला घर नहीं मिल सकता, मां. कई हजार रुपया किराया दे कर बाहर ही घर लेना पड़ेगा. सोच रहा हूं इतना किराया देने से बेहतर है अपना फ्लैट ही खरीद लें. गाड़ी

के बजाय मकान के लिए ऋण ले लेता हूं.’’

‘‘उस सब में समय लगेगा पंकज, हमें तो 3 कमरों का घर जल्दी से जल्दी चाहिए,’’ गीता के स्वर में चिंता थी, ‘‘किराए की फिक्र मत कर, जितना भी होगा मैं देने को तैयार हूं. तू बस इतना देख कि गैस्टरूम तुम्हारे व मेरे कमरे से अलग हो.’’

कंचन चौंक पड़ी. रेलवे की ओर से उन्हें 2

बैडरूम का कौटेजनुमा घर मिला हुआ था. सामने छोटा सा लौन था, पीछे किचन गार्डन और ऊपर खुली छत भी थी. नौकरानी भी पास के बंगले के आउट हाउस में रहती

थी. सो, देरसवेर जब बुलाओ, वह आ जाती थी. ये सब छोड़ कर किराए के आधुनिक दड़बेनुमा

फ्लैट में जाने की क्या जरूरत आ पड़ी थी? अपने 3 सदस्यों के परिवार के लिए तो यह घर काफी है. तो फिर क्या कोई मेहमान आ रहा है? मगर कौन?

‘‘हड़बड़ाओ मत, मां. बराबर वाले घर में विधुर चौधरीजी बेटे के साथ रहते हैं और बेटा अगले महीने विदेश जा रहा है. वे खुशी से हमें एक कमरा दे देंगे. आप अब इस बारे में न तो फिक्र करो और न ही बात,’’ पंकज ने कहा और पुकारा, ‘‘तुम अंधेरे और गरमी में अंदर क्या कर रही हो, कंचन?’’

‘‘हां, बेटी, यहां आ कर बैठ. बड़ी अच्छी हवा चल रही है,’’ गीता भी बोली.

इस का मतलब था कि मां ने भी बात खत्म कर दी है. अब पूछने पर भी कोई कुछ नहीं बताएगा और वैसे भी पंकज ने फिलहाल तो मकान बदलना टाल ही दिया था.

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जयपुर में होने वाली अंतर्राज्यीय बैडमिंटन प्रतियोगिता

में कंचन के कालेज की टीम चुनी गई थी. अपने समय में कंचन भी राज्य स्तर की खिलाड़ी रह चुकी थी और अभी भी छात्राओं के साथ अकसर बैडमिंटन खेलती थी. प्रिंसिपल और छात्राएं चाहती थीं कि कंचन भी टीम के साथ

जयपुर जाए. कंचन ने पंकज और गीता से पूछा. दोनों ने सहर्ष अनुमति दे दी.

लौटने वाले रोज उन सब की ट्रेन रात की थी. लड़कियां जयपुर घूमना और खरीदारी करना चाहती थीं. आयोजकों ने उन के लिए एक प्राइवेट टैक्सी की व्यवस्था करवा दी. ड्राइवर रामसेवक अधेड़ उम्र का संभ्रांत व्यक्ति था, उस ने बड़ी अच्छी तरह से लड़कियों को दर्शनीय स्थल दिखाए. दिनभर

घूमने के बाद कंचन थक गई

थी. सो, मिर्जा इस्माइल रोड

पहुंचने पर उस ने कहा कि वह शौपिंग के बजाय गाड़ी में आराम करना चाहेगी.

‘‘इतनी गरमी में? हम आप को अकेले नहीं छोड़ेंगे, मैडम,’’ लड़कियों ने कहा.

‘‘मैं हूं न मैडम के पास,

गाड़ी में एसी भी चलता रहेगा,’’ रामसेवक ने कहा. ‘‘आप लोग इतमीनान से जा कर खरीदारी

कर लो.’’

‘‘धन्यवाद, भैयाजी. नाम और बोलचाल से तो आप उत्तर भारत के लगते हैं, यहां कैसे आ गए?’’ कंचन ने पूछा.

रामसेवक ने आह भरी, ‘‘अब क्या बताएं मैडम. हालात ही कुछ ऐसे हो गए कि रोटीरोजी के लिए घर से दूर आना पड़ गया.’’

‘‘क्यों, ऐसा क्या हो गया?’’

‘‘अपने घर में सभी पढ़ेलिखे और सरकारी नौकरी में हैं. हमें न पढ़ना पसंद था न नौकरी करना, गाड़ी चलाने का बहुत शौक था. सो, बाबूजी ने हमें टैक्सी दिलवा दी. हम भी सब के मुकाबले में कमा खा रहे थे कि हमारे बड़के भैया ने गड़बड़ कर दी. वे थे तो सरकारी अफसर मगर शबाब और शराब के शौकीन.

‘‘एक रोज नशे की हालत में एक मातहत की बीवी पर हाथ

डाल दिया और पकड़े गए. जीजाजी के रसूख से किसी तरह छूट गए. भाभी के चिरौरी करने और बेटे के भविष्य का हवाला देने से कुछ साल तो संभल कर रहे लेकिन

बेटे को रेलवे में नौकरी मिलते ही फिर पुराने रंगढंग चालू कर दिए और एक नेता की चहेती के साथ मुंह काला करते हुए पकड़े गए. नेता की चहेती थी, सो मामला

तूल पकड़ गया और 7 साल की जेल हो गई.

‘‘परिवार की इतनी बदनामी हुई कि लोग मेरी टैक्सी में बैठने से भी डरने लगे. टैक्सी का धंधा तो शहर के होटल और अन्य संस्थानों से जुड़ने पर ही चलता है. सो उन के नकारे जाने पर यहां आ गया. मुझे ही नहीं, भाभी और उन के बेटे को भी अपना शहर छोड़ कर दूर जाना पड़ा.’’

कंचन की दिलचस्पी थोड़ी बढ़ी, ‘‘दूर कहां?’’

‘‘हैदराबाद. वहां रेलवे में इंजीनियर है हमारा भतीजा लेकिन हमारे ताल्लुकात नहीं हैं अब उन से,’’ उस ने मायूसी से कहा.

‘‘ऐसा क्यों?’’

‘‘परिवार वाले उन से कन्नी काटने लगे थे. मांबेटे खुद्दार थे. सो, सब से दूर चले गए. अब तो भैया की सजा की अवधि भी खत्म होने वाली है, तब शायद वे लोग झांसी आएं.’’

तभी लड़कियां शौपिंग कर के आ गईं और ड्राइवर चुप

हो गया. कंचन ने जितना भी सुना था उस से साफ जाहिर था कि वह किस की बात कर रहा था और क्यों गीता बड़ा मकान लेने के लिए व्याकुल थी. व्यभिचारी पति को

न नकारना चाहती थी और न ही उस के साथ रहना. पंकज सदा की तरह मां की भावनाओं का ध्यान रख रहा था लेकिन कंचन की भावनाओं का क्या? परिवार का यह कलुषित सत्य तो उन्हें शादी से पहले ही बताना चाहिए था. शादी के बाद भी यह कहने वाला

पंकज कि पतिपत्नी तो एकदूसरे

के लिए खुली किताब होते हैं, कितना बड़ा झूठा था. झूठ की

नींव पर टिकी शादी कितने रोज टिक सकेगी?

मांबेटे के व्यवहार से तो लग रहा था कि वे उस

बदचलन, सजायाफ्ता व्यक्ति को स्वीकार करने वाले थे. भले ही दूर रखें, देरसवेर तो उस से भी वास्ता पड़ेगा ही. फिर उस की अस्मत का क्या होगा? कंचन सोच कर ही सिहर उठी. सिरदर्द के बहाने वह पूरे रास्ते चुप रही और फिर अपने कमरे में जा कर फूटफूट कर रो पड़ी. उसे समझ नहीं आ रहा

था कि वह क्या करे? खैर,

किसी तरह लंबा सफर तय कर के घर पहुंची.

‘‘शुक्र है तुम आ गईं, जिया ही नहीं जा रहा था तुम्हारे बगैर,’’ पंकज ने विह्वल स्वर में कहा.

‘‘अब तो मेरे बगैर ही जीना पड़ेगा क्योंकि मैं तुम्हें हमेशा के लिए छोड़ कर जा रही हूं,’’ कंचन ने अलमारी में से अपने कपड़े निकालते हुए कहा.

‘‘मगर क्यों? जयपुर में पुराना प्रेमी मिल गया क्या?’’ पंकज ने चुहल की.

‘‘प्रेमी तो नहीं, हां चचिया ससुर रामसेवक जरूर मिले थे. मैं ने तो तुम्हें अपने जीवन के

मूक प्रेम के बारे में भी बता दिया था जिस का ताना तुम ने मुझे अभी दिया है लेकिन तुम ने और मां ने अपने परिवार के उस घिनौने सच को छिपाया हुआ है जिस के लिए अपनों से मुंह छिपा कर तुम यहां रह रहे हो. झूठ की बुनियाद पर टिकी शादी का कोई भविष्य नहीं होता पंकज और इस से पहले

कि वह भरभरा कर गिरे, मैं स्वयं ही यह रिश्ता खत्म कर देती हूं. तुरंत तलाक लेने के लिए सचाई छिपाने का आरोप काफी है. वैसे तो तुम्हें सजा भी दिलवा सकती हूं लेकिन अगर चुपचाप तलाक दे

दोगे तो ऐसा कुछ नहीं करूंगी,’’ कंचन ने सूटकेस में सामान भरते हुए कहा.

पंकज हतप्रभ हो गया था, फिर भी संयत स्वर में बोला, ‘‘तुम ने जो सुना वह सच है लेकिन जो झूठ की बुनियाद वाली बात कही है वह सही नहीं है. इस शहर में किसी ने कभी भी हम से पापा के बारे में नहीं पूछा तो हम स्वयं आगे बढ़ कर क्यों बताते? तुम ने देखा होगा शादी के मंडप में दिवंगत मातापिता की तसवीर रखी जाती है. मगर हम ने तो नहीं रखी, न किसी ने रखने को कहा. तुम ने भी तो कभी नहीं पूछा कि घर में पापा की कोई तसवीर क्यों नहीं है या कभी उन के बारे में कोई और बात पूछी हो? मैं ने और मां ने यह फैसला किया था कि हम स्वयं पापा के बारे में किसी को कुछ नहीं बताएंगे मगर पूछने पर कुछ छिपाएंगे भी नहीं. अब किसी ने कुछ नहीं पूछा तो इस में हमारा क्या कसूर है? एक बात और, मां विधवा की तरह नहीं रहतीं. सादे मगर रंगीन कपड़े पहनती हैं और थोड़ेबहुत जेवर भी.’’

‘‘लेकिन सिंदूर या बिंदी तो नहीं लगातीं?’’ कंचन को पूछने के लिए यही मिला.

‘‘तुम लगाती हो, तुम्हारी मम्मी या तृप्ता आंटी?’’ पंकज ने पूछा, ‘‘कितनी

सुहागिनें मांग भरती हैं या पांव में बिछिया पहनती हैं आजकल? हम ने सच को छिपाने का कोई

प्रयास नहीं किया है कंचन?’’

‘‘अच्छा? और यह जो मुझे बगैर बताए लोन ले कर बड़ा मकान बनाने की योजना बना रहे हो, उसे क्या कहोगे?’’ कंचन ने व्यंग्य से पूछा.

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‘‘योजना ही है, लिया तो नहीं? पापा के यहां आने का पक्का होने पर तुम्हें सब बताने की सोची थी क्योंकि पापा यहां आएंगे, यह अभी पक्का नहीं है. वे बहुत बदल चुके हैं और उन्हें संसार से विरक्ति हो गई है. केरल से कोई सज्जन जेल में सद्वचन देने आते हैं और पापा अपना शेष जीवन उन के त्रिचूर आश्रम में बिताना चाहते हैं…’’

‘‘तुम्हें कैसे मालूम?’’ कंचन ने उस की बात काटी.

‘‘क्योंकि मैं बगैर मां को बताए सरकारी काम का बहाना बना कर पापा से मिलने झांसी जेल में जाता रहता हूं. अदालत की पेशी के

दौरान मैं ने पापा की आंखों में पश्चात्ताप देखा

था, सो मैं ने उन्हें माफ कर दिया लेकिन मां पर मैं ने अपनी मंशा नहीं थोपी और न ही अभी से उन्हें यह बताना चाहता हूं कि पापा यहां नहीं रहेंगे. रिहाई के रोज मां मेरे साथ उन्हें जेल से लेने जाएंगी, तब कह नहीं सकता दोनों की क्या प्रतिक्रिया होगी. पापा को घर लाना चाहेंगी या स्वयं उन के साथ त्रिचूर जाना

या पापा को अपने रास्ते जाने देना और स्वयं जिस रास्ते पर चल रही हैं उसी

पर चलते रहना. मेरा यह मानना है कंचन, कि जिस को जो उचित

लगता है वही करना उस का जन्मसिद्ध अधिकार है और उस

में टांग अड़ाने का मुझे कोई हक नहीं है.’’

‘‘यानी तुम्हें छोड़ने का फैसला मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है?’’ कंचन ने शरारत से पूछा.

‘‘बशर्ते कि तुम यह सिद्ध कर सको कि तुम से झूठ बोल कर तुम्हें धोखा दिया गया या नुकसान पहुंचाया गया.’’

‘‘वह तो सिद्ध नहीं कर सकती,’’ कंचन ने कपड़े अलमारी में वापस रखते हुए कहा, ‘‘क्योंकि झूठ तो तुम ने कभी बोला नहीं. बगैर कभी कुछ पूछे मैं ही अपने सोचे झूठ को सच समझती रही.’’

गमोत्सव: क्या मीना को हुआ बाहरी दुनियादारी का एहसास

शोकाकुल मीना, आंसुओं में डूबी, सिर घुटनों में लगाए बैठी थी. उस के आसपास रिश्तेदारों व पड़ोसियों की भीड़ थी. पर मीना की ओर किसी का ध्यान नहीं था. सब पंडितजी की कथा में मग्न थे. पंडितजी पूरे उत्साह से अपनी वाणी प्रसारित कर रहे थे- ‘‘आजकल इतनी महंगाई बढ़ गई है कि लोगों ने दानपुण्य करना बहुत ही कम कर दिया है. बिना दान के भला इंसान की मुक्ति कैसे होगी, यह सोचने की बात है. शास्त्रोंपुराणों में वर्णित है कि स्वयं खाओ न खाओ पर दान में कंजूसी कभी न करो. कलियुग की यही तो महिमा है कि केवल दानदक्षिणा द्वारा मुक्ति का मार्ग खुद ही खुल जाता है. 4 दिनों का जीवन है, सब यहीं रह जाता है तो…’’ पंडितजी का प्रवचन जारी था.

गैस्ट हाउस के दूसरे कक्ष में भोज का प्रबंध किया गया था. लड्डू, कचौड़ी, पूड़ी, सब्जी, रायता आदि से भरे डोंगे टेबल पर रखे थे. कथा चलतेचलते दोपहर को 3 बज रहे थे. अब लोगों की अकुलाहट स्पष्ट देखी जा सकती थी. वे बारबार अपनी घड़ी देखते तो कभी उचक कर भोज वाले कक्ष की ओर दृष्टि उठाते.

पंडितजी तो अपनी पेटपूजा, घर के हवन के समाप्त होते ही वहीं कर आए थे. मनोहर की आत्मा की शांति के लिए सुबह घर में हवन और 13 पंडितों का भोजन हो चुका था. लोगों यानी रिश्तेदारों आदि ने चाय व प्रसाद का सेवन कर लिया था पर मीना के हलक के नीचे तो चाय का घूंट भी नहीं उतरा था. माना कि दुख संताप से लिपटी मीना सुन्न सी हो रही थी पर उस के चेहरे पर थकान, व्याकुलता पसरी हुई थी. ऐसे में कोई तो उसे चाय पीने को बाध्य कर सकता था, उसे सांत्वना दे कर उस की पीड़ा को कुछ कम कर सकता था. पर, ये रीतिपरंपराएं सोच व विवेक को छूमंतर कर देती हैं, शायद.

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इधर, पंडितजी ने मृतक की तसवीर पर, श्रद्धांजलिस्वरूप पुष्प अर्पित करने के लिए उपस्थित लोगों को इशारा किया. पुष्पांजलि के बाद लोग जल्दीजल्दी भोजकक्ष की ओर बढ़ चले थे. देखते ही देखते हलचल, शोर, हंसी आदि का शोर बढ़ता गया. लग रहा था कि कोई उत्सव मनाया जा रहा है. ‘‘अरे भई, लड्डू तो लाना, यह कद्दू की सब्जी तो कमाल की बनी है. तुम भी खा कर देखो,’’ एक पति अपनी पत्नी से कह रहा था, ‘‘कचौड़ी तो एकदम मथुरा शहर में मिलने वाली कचौडि़यों जैसी बनी है वरना यहां ऐसा स्वाद कहां मिलता है.’’

ये सब रिश्तेदार और परिचितजन थे जो कुछ ही समयपूर्व मृतक की पत्नी से अपनी संवेदना प्रकट कर, अपना कर्तव्य पूरा कर चुके थे.

मैं विचारों के भंवर में फंसी, उस रविवार को याद करने लगी जब मीना अपने पति मनोहर व बच्चों के साथ मौल में शौपिंग करती मिली थी. हर समय चहकती मीना का चेहरा मुसकान से भरा रहता. एक हंसताखेलता परिवार जिस में पतिपत्नी के प्रेमविश्वास की छाया में बच्चों की जिंदगी पल्लवित हो रही थी. अचानक वह घातक सुबह आई जो दफ्तर जाते मनोहर को ऐक्सिडैंट का जामा पहना कर इस परिवार से बहुत दूर हमेशा के लिए ले गई.

मीना अपने घर पति व बच्चों की सुखी व्यवस्था तक ही सीमित थी. कहीं भी जाना होता, पति के साथ ही जाती. बाहरी दुनिया से उसे कुछ लेनादेना नहीं था. पर अब बैंक आदि का कार्य…और भी बहुतकुछ…

मेरी विचारशृंखला टूटी और वर्तमान पर आ गई. अब कैसे, क्या करेगी मीना? खैर, यह तो उसे करना ही होगा. सब सीखेगी धीरेधीरे. समय की धारा सब सिखा देगी.

तभी दाहिनी ओर से शब्द आए, ‘‘यह प्रबंध अच्छा किया है. किस ने किया है?’’

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‘‘यह सब मीना के भाई ने किया है. उस की आर्थिक स्थिति सामान्य सी है. पर देखो, उस ने पूरी परंपरा निभाई है. यही तो है भाई का कर्तव्य,’’ प्रत्युत्तर था.

3 दिनों पूर्व की बातें मुझे फिर याद हो आई थीं. भोजन प्रबंध का जिम्मा मैं ने व मेरे पति ने लेना चाहा था. तब घर के बड़ों ने टेढ़ी दृष्टि डालते हुए एक प्रश्न उछाला था, ‘तुम क्या लगती हो मीना की? 2 वर्षों पुरानी पहचान वाली ही न. यह रीतिपरंपरा का मामला है, कोई मजाक नहीं. क्या हम नहीं कर सकते भोज का प्रबंध? पर यह कार्य मीना के मायके वाले ही करेंगे. अभी तो शय्यादान, तेरहवीं का भोज, पंडितों को दानदक्षिणा, पगड़ी रस्म आदि कार्य होंगे. कृपया आप इन सब में अपनी सलाह दे कर टांग न अड़ाएं.’

‘और क्या, ये आजकल की पढ़ीलिखी महिलाओं की सोच है जो पुराणों की मान्यताओं पर भी उंगली उठाती हैं,’ उपस्थित एक बुजुर्ग महिला का तीखा स्वर उभरा. इस स्वर के साथ और कई स्वर सम्मिलित हो गए थे.

मेरे कारण मीना को कोई मानसिक क्लेश न पहुंचे, इसीलिए मैं निशब्द हो, चुप्पी साध गई थी. पर आज एक ही शब्द मेरे मन में गूंज रहा था, यहां इस तरह गम नहीं, गमोत्सव मनाया जा रहा है. मीना व उस के बच्चों के लिए किस के मन में दर्द है, कौन सोच रहा है उस के लिए? चारों तरफ की बातें, हंसीभरे वाक्य- एक उत्सव ही तो लग रहे थे.

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…और दीप जल उठे: अरुणा ने आखिर क्यों कस ली थी कमर

ट्रिनट्रिन…फोन की घंटी बजते ही हम फोन की तरफ झपट पड़े. फोन पति ने उठाया. दूसरी ओर से भाईसाहब बात कर रहे थे. रिसीवर उठाए राजेश खामोशी से बात सुन रहे थे. अचानक भयमिश्रित स्वर में बोले, ‘‘कैंसर…’’ इस के बाद रिसीवर उन के हाथ में ही रह गया, वे पस्त हो सोफे पर बैठ गए. तो वही हुआ जिस का डर था. मां को कैंसर है. नहीं, नहीं, यह कोई बुरा सपना है. ऐसा कैसे हो सकता है? वे तो एकदम स्वस्थ थीं. उन्हें कैंसर हो ही नहीं सकता. एक मिनट में ही दिमाग में न जाने कैसेकैसे विचार तूफान मचाने लगे थे. 2 दिनों से जिन रिपोर्टों के परिणाम का इंतजार था आज अचानक ही वह काला सच बन कर सामने आ चुका था.

‘‘अब क्या होगा?’’ नैराश्य के स्वर में राजेश के मुंह से बोल फूटे. विचारों के भंवर से निकल कर मैं भी जैसे यह सुन कर अंदर ही अंदर सहम गई. ‘भाईसाहब से क्या बात हुई,’ यह जानने की उत्सुकता थी. औचक मैं चिल्ला पड़ी, ‘‘क्या हुआ मां को?’’ बच्चे भी यह सुन कर पास आ गए. राजेश का गला सूख गया. उन के मुंह से अब आवाज नहीं निकल रही थी. मैं दौड़ कर रसोई से एक गिलास पानी लाई और उन की पीठ सहलाते, उन्हें सांत्वना देते हुए पानी का गिलास उन्हें थमा दिया. पानी पी कर वे संयत होने का प्रयास करते हुए धीमी आवाज में बोले, ‘‘अरुणा, मां की जांच रिपोर्ट्स आ गई हैं. मां को स्तन कैंसर है,’’ कहते हुए वे फफकफफक कर बच्चों की तरह रोने लगे. हम सभी किंकर्तव्यविमूढ़ उन की तरफ देख रहे थे. किसी के भी मुंह से आवाज नहीं निकली. वातावरण में एक सन्नाटा पसर गया था. अब क्या होगा? इस प्रश्न ने सभी की बुद्धि पर मानो ताला जड़ दिया था. राजेश को रोते हुए देख कर ऐसा लगा, मानो सबकुछ बिखर गया है. मेरा घरपरिवार मानो किसी ऐसी भंवर में फंस गया जिस का कोई किनारा नजर नहीं आ रहा था.

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मैं खुद को संयत करते हुए राजेश से बोली, ‘‘चुप हो जाओ राजेश. तुम्हें इस तरह मैं हिम्मत नहीं हारने दूंगी. संभालो अपनेआप को. देखो, बच्चे भी तुम्हें रोता देख कर रोने लगे हैं. तुम इतने कमजोर कैसे हो सकते हो? अभी तो हमारे संघर्ष की शुरुआत हुई है. अभी तो आप को मां और पूरे परिवार को संभालना है. ऐसा कुछ नहीं हुआ है, जो ठीक न किया जा सके. हम मां को यहां बुलाएंगे और उन का इलाज करवाएंगे. मैं ने पढ़ा है, स्तन कैंसर इलाज से पूरी तरह ठीक हो सकता है.’’

मेरी बातों का जैसे राजेश पर असर हुआ और वे कुछ संयत नजर आने लगे. सभी को सुला कर रात में जब मैं बिस्तर पर लेटी तो जैसे नींद आंखों से कोसों दूर हो गई हो. राजेश को तो संभाल लिया पर खुद मेरा मन चिंताओं के घने अंधेरे में उलझ चुका था. मन रहरह कर पुरानी बातें याद कर रहा था. 10 वर्ष पहले जब शादी कर मैं इस घर में आई थी तो लगा ही नहीं कि किसी दूसरे परिवार में आई हूं. लगा जैसे मैं तो वर्षों से यहीं रह रही थी. माताजी का स्नेहिल और शांत मुखमंडल जैसे हर समय मुझे अपनी मां का एहसास करा रहा था. पूरे घर में जैसे उन की ही शांत छवि समाई हुई थी. जैसा शांत उन का स्वभाव, वैसा ही उन का नाम भी शांति था. वे स्कूल में अध्यापिका थीं.

स्कूल के साथसाथ घर को भी मां ने जिस निपुणता से संभाला हुआ था, लगता था उन के पास कोई जादू की छड़ी है जो पलक झपकते ही सारी समस्याओं का समाधान कर देती है. घर के सभी सदस्य और दूरदूर तक रिश्तेदार उन की स्नेहिल डोर से सहज ही बंधे थे. घर में ससुरजी, भाईसाहब, भाभी और दीदी में भी मुझे उन के ही गुणों की छाया नजर आती थी. लगता था मम्मीजी के साथ रहतेरहते सभी उन्हीं के जैसे स्वभाव के हो गए हैं.

इन सारी मधुर स्मृतियों को याद करतेकरते मुझे वह क्षण भी याद आया जब राजेश का तबादला जयपुर हुआ था. मम्मीजी ने एक मिनट भी नहीं सोचा और तुरंत मुझे भी राजेश के साथ ही जयपुर भेज दिया. खुद वे मेरी गृहस्थी जमाने वहां आई थीं और सबकुछ ठीक कर के एक सप्ताह बाद ही लौट गई थीं. यह सब सोचतेसोचते न जाने कब मेरी आंख लग गई. अचानक सवेरे दूध वाले भैया ने दरवाजे की घंटी बजाई तो आवाज सुन कर हड़बड़ा कर मेरी आंख खुली. देखा साढ़े 6 बज चुके थे.

‘अरे, बच्चों को स्कूल के लिए कहीं देर न हो जाए,’ सोचते हुए झपपट पहले दूध लिया. दोनों को तैयार कर के स्कूल भेजतेभेजते दिमाग ने एक निर्णय ले लिया था. राजेश की चाय बना कर उन्हें उठाते हुए मैं ने अपने निर्णय से उन्हें अवगत करा दिया. मेरे निर्णय से राजेश भी सहमत थे. राजेश ने भाईसाहब को फोन किया, ‘‘आप मां को ले कर आज ही जयपुर आ जाइए. हम मां का इलाज यहीं करवाएंगे, लेकिन आप मां को उन की बीमारी के बारे में कुछ भी मत बताना. और हां, कैसे भी उन्हें यहां ले आइए.’’ भाईसाहब भी राजेश से बात कर के थोड़ा सहज हो गए थे और उसी दिन ढाई बजे की बस से रवाना होने को कह दिया.

‘राजेश के साथ पारिवारिक डाक्टर रवि के यहां हो आते हैं,’ मैं ने सोचा, फिर राजेश से बात की. वे राजेश के बहुत अच्छे मित्र भी हैं. हम दोनों को अचानक आया देख कर वे चौंक गए. जब हम ने उन्हें अपने आने का कारण बताया तो उन्होंने हमें महावीर कैंसर अस्पताल जाने की सलाह दी. उसी समय उन्होंने वहां अपने कैंसर स्पैशलिस्ट मित्र डा. हेमंत से फोन कर के दोपहर का अपौइंटमैंट ले लिया. डा. हेमंत से मिल कर कुछ सुकून मिला. उन्होंने बताया कि स्तन कैंसर से डरने की कोई बात नहीं है. आजकल तो यह पूरी तरह से ठीक हो जाता है. आप सब से पहले मुझे यह बताइए कि माताजी की यह समस्या कब सामने आई?

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मैं ने बताया कि एक सप्ताह पहले माताजी ने झिझकते हुए मुझे अपने एक स्तन में गांठ होने की बात कही थी तो अंदर ही अंदर मैं डर गई थी. लेकिन मैं ने उन से कहा कि मम्मीजी, आप चिंता मत करो, सब ठीक हो जाएगा. जब 4-5 दिनों में वह गांठ कुछ ज्यादा ही उभर कर सामने आई तो मम्मीजी चिंतित हो गईं और उन की चिंता दूर करने के लिए भाईसाहब उन्हें दिखाने एक डाक्टर के पास ले गए. जब डाक्टर ने सभी जांच रिपोर्ट्स देखीं तो कैंसर की पुष्टि की.

सब सुनने के बाद डा. हेमंत ने भी कहा, ‘‘आप तुरंत माताजी को यहां ले आएं.’’ मैं ने उन्हें बता दिया कि वे आज शाम को ही यहां पहुंच रही हैं. डा. हेमंत ने अगले दिन सुबह आने का समय दे दिया. राहत की सांस ले कर हम घर चले आए.

रात साढ़े 8 बजे मम्मीजी भाईसाहब के साथ जयपुर पहुंच गईं. राजेश गाड़ी से उन्हें घर ले आए. आते ही मम्मीजी ने पूछा कि क्या हो गया है उन्हें? तुम ने यहां क्यों बुला लिया? मम्मीजी की बात सुन कर मैं ने सहज ही कहा, ‘‘मम्मीजी, ऐसा कुछ नहीं है. बच्चे आप को याद कर रहे थे और आप की गांठ की बात सुन कर राजेश भी कुछ विचलित हो गए थे, इसलिए मैं ने सामान्य चैकअप के लिए आप को यहां बुला लिया है. आप चिंता न करें, आप बिलकुल ठीक हैं.’’ मेरी बात सुन कर मम्मीजी सहज हो गईं. तभी बच्चों को चुप देख कर उन्होंने पूछा, ‘‘अरे, नीटूचीनू तुम दूर क्यों खड़े हो? यह देखो मैं तुम्हारे लिए क्याक्या लाई हूं.’’ बच्चे भी दादी को हंसते हुए देख दौड़ कर उन से लिपट पड़े. ‘‘दादीमां, आप कितने दिनों बाद यहां आई हो. अब हम आप को यहां से कभी भी जाने नहीं देंगे.’’ बच्चों के सहज स्नेह से अभिभूत मम्मीजी उन को अपने लाए खिलौने दिखाने में व्यस्त हो गईं, तो मैं रसोई में उन के लिए चाय बनाने चली गई. इसी बीच राजेश ने भाईसाहब को डा. हेमंत से हुई बातचीत बता दी. अगले दिन सुबह जल्दी तैयार हो कर मम्मीजी राजेश और भाईसाहब के साथ अस्पताल चली गईं.

कैंसर अस्पताल का बोर्ड देख कर मम्मी चौंकी थीं, पर राजेश ने होशियारी बरतते हुए कहा, ‘‘आप पढि़ए, यहां पर लिखा है, ‘भगवान महावीर कैंसर ऐंड रिसर्च इंस्टिट्यूट.’ कैंसर के इलाज के साथ जांचों के लिए यही बड़ा केंद्र है.’’ मां यह बात सुन कर चुप हो गई थीं. अगले 2 दिन जांचों में ही चले गए. इस दौरान उन्हें कुछ शंका हुई, वे बारबार मुझ से पूछतीं, ‘‘तुम ही बताओ, आखिर मुझे हुआ क्या है? ये दोनों भाई तो कुछ बताते नहीं. तुम तो कुछ बताओ. तुम्हें तो सब पता होगा?’’ मैं सहज रूप से कहती, ‘‘अरे, मम्मीजी, आप को कुछ नहीं हुआ है. यह स्तन की साधारण सी गांठ है, जिसे निकलवाना है. डाक्टर छोटी सी सर्जरी करेंगे और आप एकदम ठीक हो जाओगी.’’

‘‘पर यह गांठ कुछ दर्द तो करती नहीं है, फिर निकलवाने की क्या जरूरत है?’’ उन के मुंह से यह सुन कर मुझे सहज ही पता चल गया कि कैंसर के बारे में हमारी अज्ञानता ही इस रोग को बढ़ाती है. मम्मीजी ने तो मुझे यह भी बताया कि उन के स्कूल की एक अध्यापिका ने उन्हें एक वैद्य का पता बताया था जोकि बिना किसी सर्जरी के एक सप्ताह के भीतर अपनी आयुर्वेदिक गोलियों और चूर्ण से यह गांठ गला सकते हैं. मैं ने साफ कह दिया, ‘‘मम्मीजी, हमें इन चक्करों में नहीं पड़ना है.’’ मेरी बात सुन कर वे निरुत्तर हो गईं. जांच रिपोर्ट आने के तीसरे दिन ही डाक्टर ने औपरेशन की तारीख निश्चित कर दी थी. औपरेशन के एक दिन पहले ही रात को मम्मीजी को अस्पताल में भरती करवा दिया गया. राजेश और भाईसाहब मां की जरूरत का सामान बैग में ले कर अस्पताल चले गए.

अगले दिन ब्लडप्रैशर नौर्मल होने पर सवेरे 9 बजे मम्मीजी को औपरेशन थिएटर में ले जाया गया. हम लोग औपरेशन थिएटर के बाहर बैठ इंतजार कर रहे थे. साढ़े 11 बजे तक मम्मीजी का औपरेशन चला. उन के एक ही स्तन में 2 गांठें थीं. सर्जरी से डाक्टर ने पूरे स्तन को ही हटा दिया.

अचानक ही आईसीयू से पुकार हुई, ‘‘शांति के साथ कौन है?’ सुन कर हम सभी जड़ हो गए. राजेश को आगे धकेलते हुए हम ने जैसेतैसे कहा, ‘‘हम साथ हैं.’’ डाक्टर ने राजेश को अंदर बुलाया और कहा कि औपरेशन सफल रहा है. अब इस स्तन के टुकड़े को जांच के लिए मुंबई प्रयोगशाला में भेजेंगे ताकि यह पता लग सके कि कैंसर किस अवस्था में था. राजेश को उन्होंने कहा, ‘‘आप चिंता नहीं करें, आप की माताजी बिलकुल ठीक हैं. औपरेशन सफलतापूर्वक हो गया है तथा 4 से 6 घंटे बाद उन्हें होश आ जाएगा.’’

राजेश जब बाहर आए तो वे सहज थे. उन को शांत देख कर हमें भी चैन आया. तभी भाईसाहब ने परेशान होते हुए पूछा, ‘‘क्या हुआ? तुम्हें अंदर क्यों बुलाया था?’’ राजेश ने बताया कि चिंता की बात नहीं है. डाक्टर ने सर्जरी कर हटाए गए स्तन को दिखाने के लिए बुलाया था. मम्मीजी बिलकुल ठीक हैं.

शाम को करीब साढ़े 7 बजे मम्मीजी को होश आया. होश आते ही उन्होंने पानी मांगा. भाईसाहब ने उन्हें थोड़ा पानी पिलाया. तब तक दीदी भी बीकानेर से आ चुकी थीं. दीदी आते ही रोने लगीं तो हम ने उन्हें मां के सफल औपरेशन के बारे में बताया. जान कर दीदी भी शांत हो गईं. अगले दिन सुबह मां को आईसीयू से वार्ड में शिफ्ट कर दिया गया. उन्हें हलका खाना जैसे खिचड़ी, दलिया, चायदूध देने की इजाजत दी गई थी.

3 दिनों तक तो उन्हें औपरेशन कहां हुआ है, यह पता ही नहीं चला, लेकिन जैसे ही पता चला वे बहुत दुखी हुईं और रोने लगीं. तब मैं ने उन्हें बताया, ‘‘मम्मीजी, अब चिंता की कोई बात नहीं है. एक संकट अचानक आया था और अब टल चुका है. अब आप एकदम स्वस्थ हैं.’’ 10 दिनों तक हम सभी हौस्पिटल के चक्कर लगाते रहे. मम्मीजी को अस्पताल से छुट्टी मिल गई तो फिर घर आ गए. घर पहुंच कर हम सभी ने राहत की सांस ली. भाईसाहब और दीदी को हम ने रवाना कर दिया. मां भी तब तक थोड़ा सहज हो गई थीं. अब उन्हें कैंसर के बारे में पता चल चुका था और वे समझ चुकी थीं कि औपरेशन ही इस का इलाज है.

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एक महीने में उन के टांके सूख गए थे और हम ने हौस्पिटल जा कर उन के टांके कटवाए, क्योंकि वे एक मोटे लोहे के तार से बंधे थे. डाक्टर ने मम्मीजी का हौसला बढ़ाया तथा उन्हें बताया कि अब आप बिलकुल ठीक हैं. आप ने इस बीमारी का पहला पड़ाव सफलतापूर्वक पार कर लिया है. पहले पड़ाव की बात सुन कर हम सभी चौंक गए. ‘‘डाक्टर ये आप क्या कह रहे हैं?’’ राजेश ने जब डाक्टर से पूछा तो उन्होंने बताया कि आप की माताजी का औपरेशन तो अच्छी तरह हो गया है, लेकिन भविष्य में यह बीमारी फिर से उभर कर सामने न आए, इसलिए हमें दूसरे चरण को भी पार करना होगा और वह दूसरा चरण है, कीमोथेरैपी?

‘‘कीमोथेरैपी,’’ हम ने आश्चर्य जताया. डाक्टर ने बताया कि कैंसर अभी शुरुआती दौर में ही है. यह यहीं समाप्त हो जाए, इस के लिए हमें कीमोथेरैपी देनी होगी. कैंसर के कीटाणु के विकास की थोड़ीबहुत आशंका भी अगर हो तो उसे कीमोथेरैपी से खत्म कर दिया जाएगा. डाक्टर ने बताया कि आप की माताजी के टांके अब सूख चुके हैं. सो, ये कीमोथेरैपी के लिए बिलकुल तैयार हैं. अब आप इन्हें कीमोथेरैपी दिलाने के लिए 4 दिनों बाद यहां ले आएं तो ठीक रहेगा. पता चला, मां को कीमोथेरैपी दी जाएगी. कैंसर में दी जाने वाली यह सब से जरूरी थेरैपी है. 4 दिनों बाद मैं और राजेश मां को ले कर हौस्पिटल पहुंचे. 9 बजे से कीमोथेरैपी देनी शुरू कर दी गई. थेरैपी से पहले मां को 3 दवाइयां दी गईं ताकि थेरैपी के दौरान उन्हें उलटियां न हों. 2 बोतल ग्लूकोज की पहले, फिर कैंसर से बचाव की वह लाल रंग की बड़ी बोतल और उस के बाद फिर से 3 बोतल ग्लूकोज की तथा एक और छोटी बोतल किसी और दवाई की ड्रिप द्वारा मां को चढ़ाई जा रही थीं. धीरेधीरे दी जाने वाली इस पहली थेरैपी के खत्म होतेहोते शाम के 7 बज चुके थे. मैं अकेली मां के पास बैठी थी. शाम को औफिस से राजेश सीधे हौस्पिटल ही आ गए थे.

रात को 8 बजे हम तीनों घर पहुंचे. थेरैपी की वजह से मम्मीजी का सिर चकरा रहा था. हलका खाना खा कर वे सो गईं. अब अगली थेरैपी उन्हें 21 दिनों के बाद दी जानी थी. पहली थेरैपी के बाद ही उन के घने लंबे बाल पूरी तरह झड़ गए. यह देख कर हम सभी काफी दुखी हुए. बाल झड़ने के कारण मां पूरे समय अपने सिर को स्कार्फ से ढक कर रखती थीं. कई बार मां इस दौरान कहतीं, ‘‘कैंसर के औपरेशन में इतनी तकलीफ नहीं हुई जितनी इस थेरैपी से हो रही है.’’

मैं उन को ढाढ़स बंधाती, ‘‘मम्मीजी, आप चिंता मत करो, यह तो पहली थेरैपी है न, इसलिए आप को ज्यादा तकलीफ हो रही है. धीरेधीरे सब ठीक हो जाएगा.’’ थेरैपी के प्रभाव के फलस्वरूप उन की जीभ पर छाले उभर आए. पानी पीने के अलावा कोई चीज वे सहज रूप से नहीं खापी पाती थीं. यह देख कर हम सभी को बहुत कष्ट होता था. उन के लिए बिना मिर्च, नमक का दलिया, खिचड़ी बनाने लगी, ताकि वे कुछ तो खा सकें. फलों का जूस भी थोड़ाथोड़ा देती रहती थी ताकि उन को कुछ राहत मिले. इस तरह 21-21 दिन के अंतराल में उन की सभी 6 थेरैपी पूरी हुईं.

हालांकि ये थेरैपी मम्मीजी के लिए बहुत कष्टकारी थीं लेकिन हम सभी यही सोचते थे कि स्वास्थ्य की तरफ मां का यह दूसरा चरण भी सफलतापूर्वक संपन्न हो जाए, तो अच्छा है. जिस दिन अंतिम थेरैपी पूरी हुई तो मां के साथ मैं ने और राजेश ने भी राहत की सांस ली. जब डाक्टर से मिलने उन के कैबिन में गए तो खुश होते हुए डाक्टर ने हमें

बधाई दी, ‘‘अब आप की माताजी बिलकुल स्वस्थ हैं. बस, वे अपने खानेपीने का ध्यान रखें. पौष्टिक भोजन, फल, सलाद और जूस लेती रहें. सामान्य व्यायाम, वाकिंग करती रहें, तो अच्छा होगा.’’ इस के साथ ही डाक्टर ने हमें यह हिदायत विशेषरूप से दी कि जिस स्तन का औपरेशन हुआ है उस तरफ के हाथ पर किसी तरह का कोई कट नहीं लगने पाए. डाक्टर से सारी हिदायतें और जानकारी ले कर हम घर आ गए. अब हर 6 महीने के अंतराल में मां की पूरी जांच करवाते रहना जरूरी था ताकि उन का स्वास्थ्य ठीक रहे और भविष्य में इस तरह की कोई परेशानी सामने न आए. एक महीने आराम के बाद मम्मीजी वापस बीकानेर लौट गई थीं.

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6 साल हो गए हैं. अब तो डाक्टर ने जांच भी साल में एक बार कराने के लिए कह दिया. मम्मीजी का जीवन दोबारा उसी रफ्तार और क्रियाशीलता के साथ शुरू हो गया. आज मम्मीजी अपने स्कूल और महल्ले में सब की प्रेरणास्रोत हैं. आज वे पहले से भी अधिक ऐक्टिव हो गई हैं. अब वे 2 स्तरों पर अध्यापन करवाती हैं- एक अपने स्कूल में और दूसरे कैंसर के प्रति सभी को जागरूक व सजग रहने के लिए प्रेरित करती हैं. उन्हें स्वस्थ और प्रसन्न देख कर मेरे साथ पूरा परिवार और रिश्तेदार सभी फिर से उन के स्नेह की छत्रछाया में खुद को सुरक्षित महसूस करते हैं.

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