अपने हिस्से की जिंदगी: मोबाइल फोन से कनु को क्यों इतनी चिढ़ थी?

पहलीडेट का पहला तोहफा. खोलते हुए कनु के हाथ कांप रहे थे. पता नहीं क्या होगा… हालांकि निमेश के साथ इस रिश्ते को आगे बढ़ाने के लिए कनु का दिल बिलकुल भी गवाही नहीं दे रहा था, मगर कहते हैं न कि कभीकभी आप की अच्छाई ही आप की दुश्मन बन जाती है. कनु के साथ भी यही हुआ था. उस ने अपनी छोटी सी जिंदगी में इतने दुख देख लिए थे कि अब वह हमेशा इसी कोशिश में रहती कि कम से कम वह किसी के दुखी होने का कारण न बने. इसीलिए न चाहते हुए भी वह आज की इस डेट का प्रस्ताव ठुकरा नहीं सकी.

निमेश उस का सहकर्मी, उस का दोस्त, उस का मैंटर, उस का लोकल गार्जियन, सभी कुछ तो था. ऐसा भी नहीं था कि कनु उस के भीतर चल रहे झंझावात से अनजान थी. अनजान बनने का नाटक जरूर कर रही थी. कितने बहाने बनाए थे उस ने जब कल औफिस में निमेश ने उसे आज शाम के लिए इनवाइट किया था.

‘यह निमेश भी न बिलकुल जासूस सा दिमाग रखता है… पता नहीं इसे कैसे पता चल गया कि आज मेरा जन्मदिन है. मना करने पर भी कहां मानता है यह लड़का…’ कनु सोचतेसोचते गिफ्ट रैप के आखिरी फोल्ड पर पहुंच चुकी थी.

बेहद खूबसूरती से पैक किए गए लेटैस्ट मौडल के मोबाइल को देखते ही कनु के होंठों पर एक फीकी सी मुसकान तैर गई. वह पहले से ही जानती थी कि इस में ऐसा ही कुछ होगा, क्योंकि उस के ओल्ड मौडल मोबाइल हैंडसैट को ले कर औफिस में अकसर ही निमेश ‘ओल्ड लेडी औफ न्यू जैनरेशन’ कह कर उस का मजाक उड़ाता था.

कनु कैसे बताती निमेश को कि यह छोटा सा मोबाइल ही उस की जिंदगी में इतना बड़ा तूफान ले कर आया था कि उस का परिवार तिनकातिनका बिखर गया था. उसे आज भी याद है लगभग 10 साल पहले का वह काला दिन जब पापा से लड़ाई होने के बाद गुस्से में आ कर उस की मां ने अपनेआप को आग के हवाले कर दिया था. मां की दर्दनाक और कातर चीखें आज भी उस की रातों की नींदें उड़ा देती हैं. मां शायद मरना नहीं चाहती थीं, मगर पापा पर मानसिक दबाव डालने के लिए उन्होंने यह जानलेवा दांव खेला था. उन्हें यकीन था कि पापा उन्हें रोक लेंगे, मगर पापा तो गुस्से में आ कर पहले ही घर से बाहर निकल चुके थे. उन्होंने देखा ही नहीं था कि मां कौन सा खतरनाक कदम उठा रही हैं.

मां को लपटों में घिरा देख कर वही दौड़ कर पापा को बुलाने गई थी. मगर पापा उसे आसपास नजर नहीं आए तो पड़ोस वाले अनिल अंकल ने पापा को मोबाइल पर फोन कर के हादसे की सूचना दी थी. आननफानन में मां को हौस्पिटल ले जाया गया, मगर तब तक बहुत देर हो चुकी थी. मोबाइल ने उस की मां को हमेशा के लिए उस से छीन लिया था.

कनु के पापा को शुरू से ही नईनई तकनीक इस्तेमाल करने का शौक था. उन दिनों मोबाइल लौंच हुए ही थे. पापा भी अपनी आदत के अनुसार नया हैंडसैट ले कर आए थे. घंटों बीएसएनएल की लाइन में खड़े हो कर उन्होंने सिम ली थी. उन दिनों मोबाइल में अधिक फीचर नहीं हुआ करते थे. बस कौल और मैसेज ही कर पाते थे. हां, मोबाइल पर कुछ गेम्स भी खेले जाते थे.

पापा के मोबाइल पर जब भी कोई फनी या फिर रोमांटिक मैसेज आता था तो पापा उसे पढ़ कर मां को सुनाते थे. मां जोक सुन कर तो खूब हंसा करती थीं, मगर रोमांटिक शायरी सुनते ही जैसे किसी सोच में पड़ जाती थीं. वे पापा से पूछती थीं कि इस तरह के रोमांटिक मैसेज उन्हें कौन भेजता है… पापा भेजने वाले का नाम बता तो देते थे, मगर फिर भी मां को यकीन नहींहोता था.

धीरेधीरे मां को यह शक होने लगा था कि पापा के दूसरी महिलाओं से संबंध हैं और वे ही उन्हें इस तरह के रोमांटिक मैसेज भेजती हैं. वे पापा से छिप कर अकसर उन का मोबाइल चैक करती थीं. पापा को उन की यह आदत अच्छी नहीं लगी या फिर शायद पापा के मन में ही कोई चोर था, उन्होंने अपने मोबाइल में सिक्युरिटी लौक लगा दिया.

मां दिमागीरूप से परेशान रहने लगी थीं. हालत यह हो गई थी कि जब भी पापा के मोबाइल में मैसेज अलर्ट बजता मां दौड़ कर देखने जातीं कि किस का मैसेज है और क्या लिखा है… मगर लौक होने की वजह से देख नहीं पाती थीं. वे पापा से मोबाइल चैक करवाने की जिद करतीं तो पापा का ईगो हर्ट होता और वे मां पर चिल्लाने लगते. बस यही कारण था दोनों के बीच लड़ाई होने का.

यह लड़ाई कभीकभी तो इतनी बढ़ जाती थी कि पापा मां पर हाथ भी उठा देते थे. जब कभी पापा अपना मोबाइल मां को पकड़ा देते और उन्हें किसी महिला का कोई मैसेज उस में दिखाई नहीं देता तो मां को लगता था कि पापा ने सारे मैसेज डिलीट कर दिए हैं.

पापा का ध्यान मोबाइल से हटाने के लिए मां उन पर मानसिक दबाव बनाने लगी थीं. कभी सिरदर्द का बहाना तो कभी पेटदर्द का बहाना करतीं… कभी कनु और उस के बड़े भाई सोनू को बिना वजह ही पीटने लगतीं… कभी कनु की दादी को समय पर खाना नहीं देतीं… कभी पापा को आत्महत्या करने और जेल भिजवाने की धमकियां देतीं… और एक दिन धमकी को हकीकत में बदलने के लिए उन्होंने खुद पर तेल छिड़क कर आग लगा ली. उन का यह नासमझी में उठाया गया कदम कनु और सोनू के लिए जिंदगी भर का नासूर बन गया.

मां के जाते ही गृहस्थी का सारा बोझ कनु की बूढ़ी दादी के कमजोर कंधों पर आ गया.

उस समय कनु की उम्र 10 साल और सोनू की 13 साल थी. साल बीततेबीतते कनु के पापा किसी दलाल की मार्फत एक अनजान महिला से शादी कर के उसे अपने घर ले आए. वह महिला कुछ महीने तो उन के साथ रही, मगर बूढ़ी सास और बच्चों की जिम्मेदारी ज्यादा नहीं उठा सकी और एक दिन चुपचाप बिना किसी को बताए घर छोड़ कर चली गई.

कुछ साल अकेले रहने के बाद कनु के पापा फिर से अपने लिए एक पत्नी ढूंढ़ लाए. इस बार महिला उन के औफिस की ही विधवा चपरासिन थी. नई मां ने सास और बच्चों के साथ रहने से इनकार कर दिया तो कनु के पापा वहीं उसी शहर में अलग किराए का मकान ले कर रहने लगे. गृहस्थी फिर से कनु की दादी संभालने लगी थीं. कुछ साल तो घर खर्च और बच्चों की पढ़ाई का खर्चा कनु के पापा देते रहे, मगर फिर धीरेधीरे वह भी बंदकर दिया.

अब सोनू 18 साल का हो चुका था. उस ने ड्राइविंग सीखी और टैक्सी चलाने लगा.

घर में पैसा आने से जिंदगी की गाड़ी फिर से पटरी पर आने लगी थी. कनु की दादी से अब घर का कामकाज नहीं हो पाता था, इसलिए उन की इच्छा थी कि घर में जल्दी से बहू आ जाए जो घर के साथसाथ जवान होती कनु का भी खयाल रख सके. मगर सोनू चाहता था कि 2-4 साल टैक्सी चला कर कुछ बचत कर फिर खुद की टैक्सी खरीद कर अपने पैरों पर खड़ा हो तब शादी की बात सोचे. इसलिए वह देर रात तक टैक्सी चलाता था.

इन सालों में मोबाइल आम आदमी के शौक से होता हुआ उस की जरूरत बन चुका था, साथ ही उस में कई तरह के आकर्षक फीचर भी जुड़ गए थे. सोनू को भी मोबाइल का शौक शायद अपने पापा से विरासत में मिला था. वह जब रात में घर लौटता था तो कानों में इयर फोन लगा कर तेज आवाज में गाने सुनता था. रात में ट्रैफिक कम होने के कारण टैक्सी की स्पीड भी ज्यादा ही होती थी.

एक दिन मोबाइल में बजने वाले गाने का टै्रक चेंज करते समय सोनू मोड़ पर आने वाले ट्रक को देख नहीं पाया और टैक्सी ट्रक से टकरा गई. ट्रक ड्राइवर तो घबराहट में ट्रक छोड़ कर भाग गया और सोनू वहीं जख्मी हालत में तड़पता पड़ा रहा. लगभग 1 घंटे बाद पुलिस गश्ती दल की मोबाइल वैन ने गश्त के दौरान उसे घायल अवस्था में देखा तो हौस्पिटल ले गई. वक्त पर हौस्पिटल पहुंचने से उस की जान तो बच गई, मगर सिर में चोट लगने से उस के दिमाग का एक हिस्सा डैमेज हो गया और वह लकवे का शिकार हो कर हमेशा के लिए बिस्तर पर आ गया. डाक्टर्स को उस के बचने की उम्मीद कम ही थी, इसलिए उन्होंने सोनू को कुछ जरूरी दवाएं घर पर ही देने की सलाह दे कर हौस्पिटल से डिस्चार्ज कर दिया.

कनु पर एक बार फिर से मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ा. जब तक सोनू हौस्पिटल में रहा तब तक तो उस के पापा ने इलाज के लिए पैसा दिया, मगर हौस्पिटल से घर आने के बाद फिर उन्होंने बच्चों की कोई सुध नहीं ली. घर खर्च के साथसाथ सोनू की दवाइयों के खर्च की व्यवस्था भी अब कनु को ही करनी थी.

कहते हैं कि मुसीबत कभी अकेले नहीं आती. एक दिन बूढ़ी दादी बाथरूम में फिसल गईं और रीढ़ की हड्डी में चोट लगने से वे भी चलनेफिरने से लाचार हो गईं.

घरबाहर की सारी जिम्मेदारी अब कनु की थी. वह अब तक ग्रैजुएशन कर चुकी थी. उस ने एक कौल सैंटर में पार्टटाइम जौब कर ली. सुबह 11 से शाम 5 बजे तक वह कौल सैंटर में रहती थी. इस दौरान सोनू और दादी की देखभाल करने के लिए उस ने एक नर्स की व्यवस्था कर ली थी. घर लौटने के बाद देर रात तक घर से ही औनलाइन जौब किया करती थी. घरबाहर संभालती, कभी दादी तो कभी सोनू को दवाएं देती, उन की दैनिक क्रियाएं निबटाती कनु अकेले में फूटफूट कर रोती थी. मगर अंदर से बेहद कमजोर कनु बाहर से एकदम आयरन लेडी थी. मजबूत, बहादुर और स्वाभिमानी.

यहीं कौलसैंटर में ही उसे निमेश का साथ मिला था. अपनेआप में सिमटी कनु निमेश को एक पहेली सी लगती थी. कनु ने अपने चारों तरफ कछुए सा कठोर आवरण बना रखा था और निमेश ने जैसे उसे बेधने की ठान रखी थी. पता नहीं कैसे और कहां से वह कनु के बारे में सारी जानकारी इकट्ठा कर लाया था. कनु अभी नए मोबाइल हैंडसैट को हाथ में ही लिए बैठी थी

कि उस का पुराना फोन बज उठा. देखा तो निमेश का ही फोन था. कनु ने अपने आंसू पोंछे फोन रिसीव किया.

‘‘कैसा है बर्थडे गिफ्ट?’’ निमेश ने फोन उठाते ही पूछा.

‘‘गिफ्ट तो अच्छा ही है, मगर मेरे किसी काम का नहीं… अगर किसी और लड़की पर ट्राई किया होता तो शायद तुम्हारे पैसे वसूल हो जाते…’’ कनु ने अपनेआप को सामान्य करने की कोशिश करते हुए मजाक किया.

‘‘कोई बात नहीं… अभी शायद तुम्हारा मूड ठीक नहीं है, कल बात करते हैं,’’ कह कर निमेश ने फोन काट दिया.

कनु अपने साधारण मोबाइल में नैट यूज नहीं करती है, इसीलिए न तो व्हाट्सऐप पर वह दिखाई देती है और न ही किसी और सोशल साइट पर उस का कोई अकाउंट है. उस की कोई पर्सनल मेल आईडी भी नहीं है. हां एक औफिसियल मेल आईडी जरूरी है जिस की जानकारी सिर्फ उस के स्टाफ मैंबर्स को ही है और उसे वह अपने लैपटौप पर ही इस्तेमाल करती है. बहुत मना करने पर भी निमेश उस पर अकसर पर्सनल मैसेज डाल देता है, मगर पढ़ने के बाद भी कनु उसे कोई जवाब नहीं देती.

अगले दिन जैसे ही कनु कौल सैंटर पहुंची, निमेश तुरंत उस के पास आया और बोला, ‘‘कनु तुम से कोई जरूरी बात करनी है.’’

‘‘फ्री हो कर करती हूं,’’ कह कनु ने उसे टाल दिया. पूरा दिन निमेश उस के फ्री होने का इंतजार करता रहा, मगर कनु उसे नजरअंदाज करती रही और शाम को चुपचाप वहां से निकल गई. अभी उसे घर पहुंचे 1 घंटा ही हुआ था कि निमेश भी पीछेपीछे आ गया. क्या करती कनु. घर आए मेहमान को अंदर तो बुलाना ही था. मगर उस एक कमरे के घर में उसे बैठाने की जगह भी नहीं थी.

‘चलो अच्छा ही हुआ… आज हकीकत अपनी आंखों से देख लेगा तो इस के इश्क का बुखार उतर जाएगा…’ सोचती हुई कनु उसे भीतर ले गई. कमरे में 3 चारपाइयां लगी थीं. एक पर सोनू और एक पर दादी सो रहे थे.

तीसरी शायद कनु की थी. निमेश खाली चारपाई पर चुपचाप बैठ गया. कनु चाय बना कर ले आई. दादी को सहारा दे कर तकिए के सहारे बैठा कर उस ने एक कप दादी को थमाया और एक निमेश की तरफ बढ़ा दिया. निमेश चुपचाप चाय पीता रहा. सोच कर तो बहुत आया था कि कनु से यह कहूंगा, वह कहूंगा, मगर यहां आ कर तो उस की जबान तालू से ही चिपक गई थी. एक भी शब्द नहीं निकला उस के मुंह से. चाय पी कर निमेश ने ‘चलता हूं’ कह कर उस से बिदा ली.

1 सप्ताह हो गया कनु को निमेश कहीं नजर नहीं आया. मन ही मन सोचा कि निकल गई न इश्क की हवा… फिर सोचा कि इस में बेचारे निमेश की क्या गलती है… कुदरत ने मेरी जिंदगी में प्यार वाला कौलम ही खाली रखा है. निमेश ठीक ही तो कर रहा है… अब कोई जानबूझ कर जिंदा मक्खी कैसे निगल सकता है… सपने देखने की उम्र में कोई जिम्मेदारियों के लबादे भला क्यों ओढ़ेगा?

शाम को अचानक पापा को घर आया देख कर कनु को बहुत आश्चर्य हुआ. ‘2 साल से सोनू बिस्तर पर है, मगर पापा ने कभी आ कर देखा तक नहीं कि वह किस हाल में है… यहां तक कि उन की अपनी मां के चोटिल होने तक की खबर सुन कर भी उन्होंने उन की कोई खैरखबर नहीं ली… आज जरूर कुछ सीरियस बात है जो पापा को यहां खींच लाई है… क्या बात हो सकती है…’ कनु का दिल तेजी से धड़कने लगा.

‘‘कनु, मुझे माफ कर दे बेटी. मैं सिर्फ अपनी खुशियां ही तलाश करता रहा, तेरी खुशियों के बारे में जरा भी नहीं सोचा… धिक्कार है मुझ जैसे बाप पर… मुझे तो अपनेआप को पिता कहते हुए भी शर्म आ रही है… भला हो निमेश का जिस ने मेरी आंखें खोल दी वरना पता नहीं और कितने गुनाहों का भागी बनता मैं…’’ पापा ने कनु के  हाथ अपने हाथ में लेते हुए भर्राए गले से कहा.

‘‘अच्छा तो ये सब निमेश का कियाधरा है… उसे कोई अधिकार नहीं है इस तरह उस के घरेलू मामले में दखल देने का…’’ पापा के मुंह से निमेश का नाम सुनते ही कनु का पारा चढ़ गया. उस ने अपना हाथ छुड़ाते हुए कहा, ‘‘पापा, आप हमारी फिक्र न करें… हम सब ठीक हैं… सोनू और दादी की देखभाल मैं कर सकती हूं… बोझ नहीं हैं वे दोनों मेरे लिए…’’ बरसों से मन के भीतर दबी कड़वाहट धीरेधीरे पिघल कर बाहर आ रही थी.

‘‘मैं अपने किए पर पहले ही बहुत पछता रहा हूं, मुझे और शर्मिंदा मत करो कनु. मां और सोनू तुम्हारी नहीं बल्कि मेरी जिम्मेदारी है…’’ पापा ने ग्लानि से कहा.

तभी कनु ने निमेश को आते हुए देखा तो नाराजगी से अपना मुंह फेर लिया. कनु के पापा ने भी उसे देख लिया था. बोले, ‘‘सोनू और मां को तो मैं अपने साथ ले जाऊंगा, मगर एक और बड़ी जिम्मेदारी है मुझ पर पिता होने की… उस से अगर मुक्ति मिल जाती तो मैं गंगा नहा लेता.’’ कनु ने प्रश्नवाचक नजरों से उन की तरफ देखा.

‘‘कनु, निमेश बहुत ही अच्छा जीवनसाथी होगा… तुम्हें बहुत खुश रखेगा…. तुम्हें राजी करने के लिए इस ने क्याक्या पापड़ नहीं बेले… तुम बस हां कर दो… इसे इस के प्यार का प्रतिदान दे दो,’’ पापा ने निमेश की वकालत करते हुए कनु से मनुहार की.

‘‘अगर आप सोनू और दादी को अपने साथ ले जाएंगे तो क्या आप की पत्नी को एतराज नहीं होगा?’’ कनु ने अपनी कड़वाहट जाहिर की.

‘‘कौन पत्नी… कैसी पत्नी? वह औरत तो 2 साल पहले ही मुझे यह कह कर छोड़ गई थी कि जो अपनी मां और बच्चों का नहीं हुआ वह मेरा कैसे हो सकता है… वैसे सही ही कहा था उस ने… मुझे आईना दिखा दिया था उस ने… मगर मुझ में ही हिम्मत नहीं बची थी तुम्हारा सामना करने की… क्या मुंह ले कर आता तुम्हारे पास… मैं एहसानमंद हूं निमेश का जिस ने मुझे हिम्मत बंधाई और अपनी जिम्मेदारी निभाने का हौसला दिया…’’ कनु के पापा की आंखों से आंसू बह चले.

कनु ने प्यार से निमेश की तरफ देखा तो वह शरारत से मुसकरा रहा था. बोला, ‘‘कनु, मैं बेशक छोटी सी नौकरी करता हूं, ज्यादा पैसा नहीं हैं मेरे पास… मगर मैं तुम से वादा करता हूं कि तुम्हें कोई कमी नहीं रहने दूंगा… तुम्हारे हिस्से की जिंदगी अब खुशियों से भरपूर होगी.’’

‘‘मैं सोनू और मां के लिए ऐंबुलैंस मंगवाता हूं. तुम तब तक अपना जरूरी सामान पैक कर लो,’’ कनु के पापा ने उसे लाड़ से कहा. फिर निमेश की तरफ मुड़ कर बोले, ‘‘तुम इस रविवार अपने घर वालों को हमारे यहां ले कर आओ… रिश्ते की बात घर के बड़ों के बीच हो तो ही अच्छा लगता है.’’

अपने आंसू पोंछते हुए कनु बोली, ‘‘एक शर्त पर मैं आप सब की बात मान सकती हूं… आप सभी को मुझ से वादा करना होगा कि कोई भी अनावश्यक रूप से मोबाइल का उपयोग नहीं करेगा… इसे जरूरत पर ही इस्तेमाल किया जाएगा, शौक के लिए नहीं…’’

‘‘वादा’’ सब ने एकसाथ चिल्ला कर कहा और फिर घर में हंसी की लहर दौड़ गई.

रुपहली चमक: विशेष के मन में क्यों था अधूरेपन का एहसास

उस दिन सुबह से ही आसमान पर बादल छाए हुए थे और सदा की भांति मुझे उदास कर गए थे, न जाने क्यों ये बादल मेरे मन के अंधेरों को और भी अधिक गहन कर देते हैं और तब आरंभ हो जाता है मेरे भीतर का द्वंद्व. इस अंतर्द्वंद्व में मैं कभी विजयी हुआ हूं तो कभी बुरी तरह पराजित भी हुआ हूं.

मैं आत्मविश्लेषण करते हुए कभी तो स्वयं को दोषी पाता हूं तो कभी बिलकुल निर्दोष. सोचता हूं, दुनिया में और भी तो लोग हैं. सब के सब बड़े संतुष्ट प्रतीत होते हैं या फिर यह मेरा भ्रम मात्र है अर्थात सब मेरी ही तरह सुखी होने का ढोंग रचाते होंगे. खैर, जो भी हो, मैं उस दिन उदास था. उस उदासी के दौर में मुझे अपनी ममताभरी मां बहुत याद आईं.

उत्तर प्रदेश के गोरखपुर शहर में मेरे घर में सभी सुखसुविधाएं मौजूद थीं. पिता अच्छे पद पर कार्यरत थे. मैं अपने मातापिता की एकमात्र संतान था. न जाने क्यों, कब और कैसे विदेश देखने तथा वहीं बसने की इच्छा मन में उत्पन्न हो गई. मित्रों के मुख से जब कभी अमेरिका, इंगलैंड में बसे हुए उन के संबंधियों के बारे में सुनता तो मेरी यह इच्छा प्रबल हो उठती थी. मां तो कभी भी नहीं चाहती थीं कि मैं विदेश जाऊं क्योंकि लेदे कर उन का एकमात्र चिराग मैं ही तो था.

एक दिन कालेज में मेरे साथ बी.एससी. में पढ़ने वाले मित्र सुरेश ने मुझे बताया कि उस के इंगलैंड में बसे हुए मौसाजी का पत्र आया है. वे अपनी एकमात्र पुत्री सुकेशनी के लिए भारत के किसी पढ़ेलिखे लड़के को इंगलैंड बुलाना चाहते हैं. वहां और मित्र भी बैठे हुए थे. मैं ने बात ही बात में पूछ लिया, ‘‘सुरेश, तुम्हारी बहन सुकेशनी है कैसी?’’

सुनते ही सुरेश ठहाका लगाते हुए बोला, ‘‘क्यों, तू शादी करेगा उस से?’’

उस का यह कहना था कि सभी मित्र खिलखिला कर हंस पड़े. मैं झेंप कर पुस्तकालय की ओर बढ़ गया. उन सब के ठहाके वहां तक भी मेरा पीछा करते रहे.

उस के कुछ दिन पश्चात मैं किसी आवश्यक काम से सुरेश के घर गया हुआ था. उस के मातापिता भी घर पर थे. हम सभी ने एकसाथ चाय पी. तभी सुरेश के पिता ने पूछा, ‘‘विशेष, तुम बी.एससी. के बाद क्या रोगे?’’

‘‘जी, चाचाजी, मैं एम.एससी. में प्रवेश लूंगा. मेरे मातापिता भी यही चाहते हैं.’’

तभी सुरेश की मां ने मुसकराते हुए पूछ लिया, ‘‘सुरेश कह रहा था कि तुम विदेश जाने के बड़े इच्छुक हो. अपनी बहन की लड़की के लिए हमें अच्छा पढ़ालिखा लड़का चाहिए. तुम्हें व तुम्हारे परिवार को हम लोग भलीभांति जानते हैं, कहो तो तुम्हारे लिए बात चलाएं?’’

मैं ने जल्दी से कहा, ‘‘जी, आप मेरे मातापिता से बात कर लें,’’ मैं उन्हें नमस्ते कह कर बाहर निकल गया.

अगले रविवार को सुरेश के माता- पिता हमारे घर आए. मैं ने मां को पहले ही सब बता दिया था. मां तो वैसे भी मेरी इस इच्छा को मेरा पागलपन ही समझती थीं लेकिन इस रिश्ते की बात सुन कर वे बौखला सी गईं जबकि पिताजी तटस्थ थे. न जाने क्यों? यह मुझे ज्ञात नहीं था. परंतु मां पर तो मानो वज्र ही गिर पड़ा. हम सभी ने एकसाथ नाश्ता किया. उन लोगों ने अपना प्रस्ताव रख दिया था.

सुन कर मां बोलीं, ‘‘बहनजी, एक ही तो बेटा है हमारा, वह भी हम से दूर चला जाएगा तो यह हम कैसे सह पाएंगे?’’

सुरेश की मां बोलीं, ‘‘बहनजी, सहने का तो प्रश्न ही नहीं उठता. भाई साहब की अवकाशप्राप्ति के पश्चात आप लोग भी वहीं बस जाइएगा.’’

मैं ने पिताजी के चेहरे पर व्यंग्यात्मक मुसकराहट सहज ही देख ली थी. वे बोले, ‘‘बहनजी, आप हमारी चिंता छोड़ दीजिए. आप बात चलाइए, मैं विशेष की एक फोटो आप को दे रहा हूं.’’

फोटो की बात चलने पर सुरेश की मां ने भी सुकेशनी की एक रंगीन फोटो हमारे सामने रख दी. लड़की बहुत सुंदर तो नहीं थी पर ऐसी अनाकर्षक भी नहीं थी. फिर मैं ने भला कब अपने लिए अद्वितीय सुंदरी की कामना की थी. मेरे लिए तो यह साधारण सी लड़की ही विश्वसुंदरी से कम न थी क्योंकि इसी की बदौलत तो मेरी वर्षों से सहेजी मनोकामना पूर्ण होने जा रही थी.

बात चलाई गई और सुरेश के मौसामौसी अपनी पुत्री सहित एक माह के उपरांत ही भारत आ गए. मुझे तो उन लोगों ने फोटो देख कर ही पसंद कर लिया था.

बड़ी धूमधाम से विवाह संपन्न हुआ. सुकेशनी फोटो की अपेक्षा कुछ अच्छी थी, पर रिश्तेदार दबी जबान से कहते सुने गए कि राजकुमार जैसा सुंदर लड़का अपने जोड़ की पत्नी न पा सका.

पिताजी ने मेरा पारपत्र दौड़धूप कर के बनवा लिया था व वीजा के लिए प्रयत्न सुकेशनी के पिता अर्थात मेरे ससुर कर रहे थे. चूंकि सुकेशनी इंगलैंड में ही जन्मी थी, अत: वीजा मिलने में भी अधिक परेशानी नहीं हुई. शादी के 1 माह पश्चात ही मुझे सदा के लिए अपनी पत्नी के घर जाने हेतु विदा हो जाना था. लोग तो बेटी की विदाई पर आंसू बहाए जा रहे थे. मां बराबर रोए जा रही थीं परंतु अपनी जननी के आंसू भी मुझे विचलित न कर सके. निश्चित दिन मैं भारत से इंगलैंड के लिए रवाना हुआ.

हवाई जहाज में मेरे समीप बैठी मेरी पत्नी शरमाईसकुचाई ही रही परंतु जब हम लंदन स्थित अपने घर पहुंचे तो सुकेशनी ने साड़ी ऐसे उतार फेंकी, जैसे लोग केले का छिलका फेंकते हैं. मैं क्षण भर के लिए हतप्रभ रह गया. उस ने चिपकी हुई जींस व बिना बांहों वाला ब्लाउज पहना तो ऐसा लगा कि अब वह अपने वास्तविक रूप में वापस आई है, मानो अभी तक तो वह अभिनय ही कर रही थी. एक क्षण के लिए मेरे मन के अंदर यह विचार कौंध गया कि कहीं इस ने शादी को भी अभिनय ही तो नहीं समझ लिया है. पर बाद में लगा कि 22 वर्षीय युवती शादी को मजाक तो कदापि न समझेगी.

कान्वेंट स्कूल में आरंभ से ही पढ़े होने के कारण भाषा की समस्या तो मेरे लिए बिलकुल ही न थी. भारत में अटकअटक कर हिंदी बोलने वाली सुकेशनी, जिसे मैं प्यार से सुकू कहने लगा था, केवल अंगरेजी ही बोलती थी. यहां पर आधुनिक सुखसुविधाओं से संपन्न घर मुझे कुछ दिनों तक तो असीम सुख का एहसास दिलाता रहा. सुकु जब फर्राटेदार अंगरेजी बोलती हुई मेरे कंधों पर हाथ मारते हुए बेशरमी से हंसती तो मेरे सासससुर मानो निहाल हो जाते. परंतु मैं आखिरकार था तो भारतीय सभ्यता व संस्कृति की मिट्टी में ही उपजा पौधा, इसलिए मुझे यह सब बड़ा अजीब सा लगता था, पर विदेश में बसने की इच्छा के समक्ष मैं ने इन बातों को अधिक महत्त्व देना उचित न समझा.

देखतेदेखते 1 वर्ष बीत गया था. एकाएक ऐसा लगा जैसे मुझे किसी ने खाई में गिराना चाहा हो. हड़बड़ा कर मैं ने देखा, सामने सुकु खड़ी थी. वह मुझे हिलाहिला कर पूछ रही थी, ‘‘विशेष, कहां खो गए?’’

एकाएक मैं अतीत से वर्तमान में आ गया.

‘‘विशेष, तुम्हें पिताजी बुला रहे हैं,’’ मैं सुकु के साथ ही उस के पिता के अध्ययन कक्ष में पहुंचा तो वे बोले, ‘‘बेटा विशेष, मैं ने तुम्हारे लिए बरमिंघम शहर में एक नौकरी का प्रबंध किया है, तुम्हें साक्षात्कार हेतु बुलाया गया है.’’

मैं ने हड़बड़ा कर उत्तर दिया, ‘‘पर पिताजी, मैं तो अभी आगे पढ़ना चाहता हूं…’’

वे बात काटते हुए बोले, ‘‘बेटे, यहां के हालात दिनप्रतिदिन खराब होते जा रहे हैं. यहां पर काम मिलना मुश्किल होता जा रहा है. वह तो कहो कि उस फैक्टरी के मालिक मेरे मित्र हैं. अत: तुम्हें बगैर किसी अनुभव के ही काम मिल रहा है. मेरा कहा मानो, तुम बरमिंघम जा कर साक्षात्कार दे ही डालो. रही पढ़ाई की बात, तो बेटे, तुम्हारे सामने अभी पूरा जीवन पड़ा है. पढ़ लेना, जितना चाहो.’’

मुझे उन की बात में तर्क व अनुभव दोनों ही दृष्टिगोचर हुए. अत: मैं उन की बात मानते हुए निश्चित दिन साक्षात्कार हेतु बरमिंघम चला गया.

यह डब्बाबंद खाद्य पदार्थ बनाने वाली एक बड़ी फैक्टरी थी. साक्षात्कार के बाद ही मुझे पता चल गया कि मुझे यहां नौकरी मिल गई है. मैं प्रसन्न मन से लंदन पहुंचा व सब को यह खुशखबरी बता डाली.

सुकु के मातापिता निश्चिंत हो गए कि दामाद आत्मनिर्भर होने जा रहा है और सुकु इस बात से बड़ी प्रसन्न हुई कि अन्य लड़कियों की भांति वह भी अब अपना अलग घर बनाने व सजाने जा रही है. ससुरजी ने हमारे साथ जा कर किराए के फ्लैट व अन्य आवश्यक वस्तुओं का प्रबंध कर दिया. हम फ्लैट में रहने के लिए भी आ गए. हमें व्यवस्थित होता देख कर मेरे ससुर एक हफ्ते के पश्चात लंदन वापस चले गए.

हम दोनों बड़े ही उत्साहित और खुश थे. सुकु घर को सजाने की नवीन योजनाएं बनाने लगी. पर उन योजनाओं में मां बनने की योजना भी सम्मिलित रही, यह मुझे बाद में पता चला. 9 माह के पश्चात मैं एक फूल सी कोमल व अत्यंत सुंदर बच्ची का पिता बन गया.

सुकु की मां 2 माह पूर्व ही सब संभालने आ गई थीं. इधर मैं ने भी कार चलाना सीखना आरंभ किया हुआ था. आशा थी कि ड्राइविंग लाइसेंस प्राप्त होते ही कोई बढि़या हालत की पुरानी कार खरीद लूंगा. पर बच्ची के आ जाने से खर्चे कुछ ऐसे बढ़े कि मुझे कार खरीदने की बात को फिलहाल कुछ समय तक भूल जाना पड़ा. बच्ची का नाम हम ने अनुप्रिया रखा था.

समय अपनी गति से बीतता जा रहा था. अनुप्रिया के प्रथम जन्मदिन पर मैं ने ढाई हजार पौंड की एक पुरानी कार खरीद ली थी. 2-3 माह बाद ही एक दिन सुकु ने अपने दोबारा गर्भवती होने की सूचना मुझे दी तो मैं अचंभित रह गया. परंतु सुकु ने समझाया, ‘‘देखो, यदि परिवार जल्दी ही पूर्ण हो जाए तो बुराई क्या है? 2 बच्चे हो जाएं तो मैं भी जल्दी मुक्त हो जाऊंगी व नौकरी कर सकूंगी.’’

मैं पुन: अपने कार्यों में व्यस्त हो गया. कहना आवश्यक न होगा कि मुझे घर के सभी कार्यों में सुकु की सहायता अंगरेज पतियों की भांति करनी पड़ती थी. यहां तक तो ठीक था, पर मुझे एक बात बहुत खलती थी और वह थी सुकु की तेज जबान व दबंग स्वभाव. मुझ से दबने का तो प्रश्न ही नहीं उठता था, इस के विपरीत वह मुझ पर पूर्ण रूप से हावी हो जाना चाहती थी. यहां पर मैं समझौता करने को तैयार न था. फलस्वरूप घर में झगड़े होते रहते थे.

इन्हीं झगड़ों के मध्य सुकु ने एक सुंदर पुत्र को जन्म दिया. मेरी सास इस बार भी यहीं पर थीं. नाती पा कर वह निहाल हो गई थीं. मैं ने अपने घर के लिए अनुप्रिया के साथ अनन्य की फोटो खींच कर पत्र व फोटो अपने मातापिता को भेज दी थी कि वे भी अपने पोते की खबर से खुश होंगे.

2 बच्चों की वजह से हमारे खर्चे बहुत बढ़ रहे थे. इस देश में जहां आमदनी अच्छी थी, वहां महंगाई भी बहुत अधिक थी. बच्चों का पालनपोषण यहां बहुत महंगा पड़ता है. अत: मैं ने कार पर होने वाले खर्चे को बचाने के लिए अपनी कार 2 हजार पौंड में बेच दी. यह बात सुकु को बहुत बुरी लगी क्योंकि उसे अब खरीदारी करने के लिए टैक्सी और बसों पर निर्भर रहना पड़ता था. कार बिकने के परिणामस्वरूप प्राप्त 2 हजार पौंड को मैं ने बैंक में जमा कर दिया था. मैं फैक्टरी बस से चला जाता था. कार के रखरखाव व पैट्रोल पर होने वाले खर्चे अब बचने लगे थे.

अनुप्रिया ढाई वर्ष की तथा अनन्य 3 माह का हो चला था कि मुझे पता चला कि सुकु नौकरी की तलाश कर रही है. मैं ने आश्चर्य भरे स्वर में पूछा, ‘‘तुम नौकरी करोगी तो बच्चों को कौन संभालेगा?’’

वह चिढ़े हुए स्वर में फुफकारते हुए बोली, ‘‘अच्छा…तो तुम चाहते हो कि इन बच्चों को संभालने के लिए मैं दिनरात घर में ही घुसी रहूं? इन के लिए तुम्हें चिंतित होने की जरूरत नहीं है, किसी अच्छे शिशुसदन में इन का प्रबंध भी हो जाएगा.’’

मैं ने उत्तेजित हो कर पूछा, ‘‘तो क्या तुम दृढ़ निश्चय कर चुकी हो कि नौकरी अवश्य करोगी?’’

तब वह धीरे से बोली, ‘‘हां, विशेष, हमें कार की आवश्यकता है, उस के बिना हमारा काम कैसे चलेगा?’’

तब मैं ने कहा, ‘‘हमारा न कह कर केवल ‘अपना’ काम कहो. बच्चों की देखभाल का उत्तरदायित्व तुम्हें बोझ लग रहा है. कार की आवश्यकता के आगे तुम बच्चों की आवश्यकताओं के महत्त्व को नकार रही हो. यदि ऐसा ही था तो मां बनने का शौक क्यों पाला था?’’

पर मेरी इन बातों को अनसुनी सी करती हुई वह ऊपर सोने के कमरे में चली गई और मैं सोचता रहा, यह कैसी नारी है जो भौतिक साधनों के समक्ष अपने ही बच्चों की उपेक्षा कर रही है.

अनन्य सिर्फ 3 माह का है, उसे मां की आवश्यकता है. यह उसे शिशुसदन के भरोसे छोड़ कर नौकरी करना चाहती है. क्या 2-3 वर्ष और प्रतीक्षा नहीं कर सकती थी?

अंत में सुकु की अनुपस्थिति में मैं ने उस के पिता को फोन किया व परिस्थितियों से अवगत करा दिया. सुन कर वे बोले, ‘‘विशेष, सुकेशनी तो आरंभ से ही बहुत जिद्दी है, वह सदा से मनमानी करती आई है. यदि उस ने अपने मन में नौकरी करने की ठान ली है तो वह नौकरी कर के ही मानेगी. अत: बजाय घर में झगड़ा कर के घर का वातावरण विषमय बनाओ, अच्छा यह होगा कि अभी से किसी अच्छे शिशुसदन की तलाश जारी कर दो.’’

कुछ ही दिनों बाद सुकु को एक स्कूल में नौकरी मिल गई. तब तक मैं शिशुसदन की तलाश भी कर चुका था. मैं और सुकु दोनों बच्चों के साथ वहां पहुंचे. वहां की संचालिका करीब 35 वर्षीय एक अंगरेज स्त्री थी. उस ने कहा कि वह 25 पौंड प्रति सप्ताह लेगी. हम ने उसे अपने बच्चों के बारे में संक्षेप में सबकुछ बताया और यह निश्चित किया कि अगले दिन से साढ़े 8 बजे हम दोनों बच्चों को वहां पहुंचा दिया करेंगे और शाम को वापस ले जाया करेंगे.

घर आ कर सुकु ने दोनों बच्चों की विभिन्न आवश्यकताओं व अनुप्रिया की पसंदनापसंद चीजों की सूची बनाई. बच्चों के सारे सामान के बैग के साथ हम ने बच्चों को दूसरे दिन शिशुसदन पहुंचा दिया. इस प्रकार बच्चों की समस्या का समाधान हो गया था.

सुकु साढ़े 8 बजे दोनों बच्चों को शिशुसदन छोड़ती हुई स्कूल चली जाती थी और लौटते समय उन्हें लेते हुए घर चली आती थी. कुछ माह यों ही व्यतीत हो गए. अनुप्रिया कुछ दुबली लगने लगी थी लेकिन अनन्य का स्वास्थ्य ठीक था.

एक दिन सुकु की अनुपस्थिति में मैं ने अनु से पूछा, ‘‘बेटे अनु, तुम्हें शिशुसदन में रहना अच्छा नहीं लगता है क्या?’’

वह पलकें झपकाते हुए मासूमियत भरे स्वर में बोली, ‘‘पिताजी, यदि मैं कहूं कि मुझे वहां अच्छा नहीं लगता तो क्या मां नौकरी छोड़ देंगी?’’

छोटी सी बच्ची की इस तर्कसंगत बात को सुन कर मैं खामोश हो गया. उस दिन मैं ने मन में सोचा कि जो उम्र बच्चों को मां के साथ अपने परिवार में गुजारनी चाहिए, वह उम्र उन्हें एक नितांत ही अनजान स्त्री व परिवार के साथ व्यतीत करनी पड़ रही है.

परंतु सुकु के पास यह सब सोचने- समझने का समय नहीं था. वह तो स्वयं को शतप्रतिशत सही समझती थी. शीघ्र ही उस ने कार ले ली. मैं अब भी बस से फैक्टरी जाता था.

देखतेदेखते 3 वर्ष व्यतीत हो गए. इस अंतराल में हमारे मध्य सैकड़ों बार झगड़े हुए थे. अनु अब प्राथमिक स्कूल व अनन्य नर्सरी स्कूल में जाता था. अब दोनों बच्चों को हम दूसरे शिशुसदन में भेजने लगे थे.

जब से बच्चे नए शिशुसदन में जाने लगे थे तब से सुकु के आने के समय में मैं ने आधे घंटे का अंतर लक्ष्य करना आरंभ किया था. एक दिन मैं ने उस से पूछा, ‘‘तुम आजकल समय से नहीं आती हो, कहां रह जाती हो?’’

उस ने उत्तर दिया, ‘‘कभीकभी स्कूल के पास रहने वाली पामेला के घर चली जाती हूं. वह मेरी अच्छी मित्र है, चाय के लिए खींच कर ले जाती है.’’

उस समय तो मैं कुछ न बोला पर मेरे चेहरे के भाव छिप न सके थे. परंतु मुझे सप्ताह में कभी 2 तो कभी 3 दिन उस का देर से आना जरा भी न भाया था. मैं झगड़े की वजह से चुप था क्योंकि बच्चे भी समझदार हो चले थे और मैं नहीं चाहता था कि वे मातापिता के झगड़ों के प्रत्यक्ष गवाह बनें. अत: मैं खून के घूंट पी कर रह जाता.

एक दिन मेरे एक भारतीय मित्र अभिन्न ने बताया, ‘‘विशेष, तुम्हारी पत्नी तो मेरी गली में रहने वाले पाल के घर अकसर ही आती है.’’

मैं ने पूछा, ‘‘तुम्हें कैसे पता?’’

‘‘भई, मैं भाभीजी व कार दोनों को ही पहचानता हूं,’’ वह धीरे से बोला.

फिर मैं ने स्वयं को सांत्वना देते हुए सोचा कि पामेला शायद पाल की पत्नी होगी. पर नहीं, मेरा यह अनुमान भी गलत निकला. मेरे उसी मित्र ने फिर बताया कि पाल अविवाहित है. अब मेरे लिए काटो तो खून नहीं वाली स्थिति हो गई. किसी पति के लिए इस से अधिक शर्मनाक बात भला और क्या होगी कि उसे अपनी पत्नी के गलत आचरण की सूचना किसी तीसरे से मिले.

दूसरे दिन मैं रोज की तरह फैक्टरी गया, पर काम में मन नहीं लगा. अत: 11 बजे मैं ने अपने मैनेजर से अस्वस्थ होने की बात कह कर उस दिन का अवकाश मांगा और सीधे सुकु के स्कूल में पहुंचा. मैं पहली बार वहां गया था. अत: पहचाने जाने का भय भी नहीं था. मैं ने एक कर्मचारी से पाल के बारे में पूछा तो उस ने कैंटीन की ओर इशारा किया. मैं वहां पहुंचा तो देखा कि पाल और सुकेशनी अगलबगल बैठे हुए कौफी की चुसकियां ले रहे हैं और जोरजोर से हंस रहे हैं.

लंबे कद का गोल चेहरे व नीली आंखों वाला लगभग 35 वर्षीय अंगरेज युवक पाल ठहाके लगाता हुआ बीचबीच में सुकु के कंधों को दबाना नहीं भूलता था, ‘जब यहां अर्थात सार्वजनिक स्थल पर यह हाल है तो अपने घर पर न जाने क्या करता होगा?’ यह सोचते ही सुकेशनी के प्रति इतनी घृणा हुई कि इच्छा हुई, उसी क्षण अपनी दुश्चरित्र पत्नी के मुंह पर थूक दूं. परंतु वहां पर मैं ने कोई दृश्य उपस्थित करना उचित न समझा और सीधे घर लौट आया.

उस दिन प्रथम बार मुझे विदेश आने पर पछतावा हो रहा था. इस इच्छा के कारण मैं ने अपने मातापिता के अनमोल प्यार को धूल बराबर भी महत्त्व नहीं दिया था. संभवत: इसी का दंड मुझे मिल रहा था. मेरे हिस्से का प्यार किसी और को मिल रहा था. मेरी पत्नी ने मुझे तो निरा बेवकूफ समझा था. मैं विश्वास की डोर थामे न जाने कब तक बैठा रहता यदि मेरे मित्र अभिन्न ने मेरे हाथ से वह डोर झटक कर यथार्थ का दर्शन न कराया होता.

आज मैं अपना मनोविश्लेषण कर रहा था, सोच रहा था कि मनुष्य कभीकभी अपनी अदम्य आकांक्षाओं के समक्ष किस हद तक स्वार्थी व लोभी हो जाता है. मैं विदेश आना चाहता था. यह जानते हुए भी कि मैं अपने मातापिता की एकमात्र संतान हूं और मेरे विदेश जाने से ये लोग कितने अकेले पड़ जाएंगे, उन्हें संतान सुख से वंचित हो जाना पड़ेगा. फिर भी मैं ने आगापीछा सोचे बगैर विदेश गमन की इस अदम्य लालसा के समक्ष स्वयं को इस तरह समर्पित कर दिया, जैसे मातापिता से कभी मेरा कोई संबंध ही न रहा हो. यह क्या मेरी भयंकर भूल न थी?

मेरे पिता इतने अच्छे पद पर कार्यरत थे. क्या मेरे लिए योग्य लड़की खोजना उन के लिए असंभव था? मेरे मातापिता अपने पोतापोती का मुंह देखने को तरस गए और मैं ने कुछ फोटो भेज कर अपने कर्तव्यों की इतिश्री समझ ली. उस दिन पहली बार मेरे अंतर्मन ने मुझे अपने मातापिता का अपराधी सिद्ध कर दिया. उस ने मुझे बारबार धिक्कारा.

मेरे मातापिता ने मुझे भलीभांति पालपोस कर क्या इसीलिए बड़ा किया था कि मैं अपने जीवन से उन्हें दूध में पड़ी मक्खी की भांति निकाल फेंकूं? उस दिन मुझे उन के दुख का अनुमान हो रहा था, वह भी इसलिए कि मुझे भी मेरी पत्नी ने दूध में पड़ी मक्खी की भांति अपने जीवन से निकाल बाहर फेंका था. दूसरे की स्थिति का भान तो तभी होता है, जब स्वयं उस स्थिति को भोगना पड़े.

शाम को बच्चों को ले कर सुकेशनी घर आई. कपड़े बदल कर अनु व अनन्य टेलीविजन देखने लगे. मैं वहीं बैठा रहा. तभी सुकु भी कपड़े बदल कर आई व चाय के लिए पूछने लगी, ‘नहीं’ का संक्षिप्त उत्तर पा कर वह स्वयं के लिए चाय बनाने चली गई.

थोड़ी देर बाद चाय का प्याला हाथ में लिए हुए वह आई और बोली, ‘‘विशेष, बढि़या खबर सुनो, मैं स्कूल की ओर से 2 वर्ष के प्रशिक्षण हेतु अमेरिका जा रही हूं.’’ मैं समझ गया कि मुझ से पूछा नहीं बल्कि बताया जा रहा है.

मैं ने पूछा, ‘‘और बच्चों का क्या होगा?’’

‘‘बच्चे केवल मेरे नहीं, तुम्हारे भी हैं और उन्हें साथ ले जाने का कोई औचित्य भी नहीं है.’’

तब मैं ने शांत स्वर में ही पूछा, ‘‘तुम्हारे साथ और कौनकौन जा रहा है?’’

‘‘मेरे ही स्कूल के कुछ लोग.’’

‘‘अच्छा…तो एक बात बताओ, उन कुछ लोगों में पामेला भी है?’’

एक क्षण के लिए सुकेशनी का चेहरा फक पड़ गया. ऐसा प्रतीत हुआ कि उसे आभास हो गया है कि मुझे उस की तथाकथित सखी पामेला के विषय में सबकुछ ज्ञात हो गया है. फिर भी वह सकपकाए स्वर में बोली, ‘‘हां.’’

तब मैं ने उस की आंखों में गहरी नजर से झांकते हुए पूछा, ‘‘क्या मैं तुम्हारी इस परम सखी पामेला से मिल सकता हूं?’’

अब चौंकने व स्तब्ध रह जाने की बारी सुकेशनी की थी. वह चकित स्वर में बोली, ‘‘तुम क्यों उस से मिलना चाहते हो?’’

‘‘इसलिए कि मेरी अपेक्षा उस के सान्निध्य में तुम अधिक खुश रहती हो और यह मैं स्वयं अपनी आंखों से देख चुका हूं,’’ मैं ने संयत स्वर में कहा.

ऐसा लगा कि उस पर किसी ने घड़ों पानी एकसाथ उड़ेल दिया हो, पर एका- एक उस ने शर्म को उतार कर बेशर्मी का बाना पहन लिया और बोली, ‘‘ओह, तो तुम्हें पता लग गया है, पर इस से क्या…मैं और पाल अच्छे मित्र हैं.’’

अब मैं चीख पड़ा, ‘‘मत बतलाओ मुझे कि वह तुम्हारा मित्र है. मैं अच्छी तरह से जानता हूं कि इस देश में पले लोगों के मित्र की परिभाषा क्या होती है? यदि ऐसा ही था तो तुम ने कभी उसे घर क्यों नहीं बुलाया? मुझ से क्यों नहीं मिलवाया? मुझे पता है क्योंकि तुम्हारे मन में चोर था, तभी तो उस के साथ सारा दिन स्कूल में व्यतीत करने के पश्चात तुम्हें सप्ताह में 3-4 दिन उस के घर भी मिलने जाना पड़ता था. तुम और पाल अमेरिका जा कर मौज करो और मैं तुम्हारा नाममात्र का पति अपनी नौकरी के साथ इन बच्चों का पालनपोषण करूं. शायद ही इस दुनिया में कोई ऐसा बेगैरत पति होगा जो ऐसा करेगा.’’

कुछ क्षण ठहर कर मैं फिर बोला था, ‘‘तुम्हें पाल अच्छा लगता है न? तो ठीक है, तुम्हें तुम्हारा पाल, तुम्हारा देश, तुम्हारा सुख मुबारक हो, तुम उस के साथ अमेरिका खुशीखुशी जा सकती हो. पर एक बात ध्यान से सुन लो, हमारे विवाह में तुम्हारे मातापिता ने कन्यादान कर के तुम्हारा दायित्व मुझे सौंपा था.

‘‘यदि तुम मुझ से संतुष्ट व खुश नहीं हो तो मैं तुम्हें मुक्त कर दूंगा. पर इस के पहले तुम पाल के पास जाओ, तुम उसे चाहती हो न? और वह भी तुम्हें चाहता है…तो जाओ और जा कर उस से पूछो कि वह तुम से विवाह करेगा? यदि करेगा तो मैं तुम्हें तलाक दे कर इन बच्चों के साथ सदा के लिए भारत चला जाऊंगा. मैं अपने बच्चों को यहां के खुले व बेशर्म वातावरण में खराब नहीं होने दूंगा. मैं तुम से वादा करता हूं कि भविष्य में मैं कभी भी तुम्हारे रास्ते में नहीं आऊंगा.’’

सुकेशनी मुझे आंखें फाड़े देखती रही. ऐसा लगा कि उसे मुंहमांगी मुराद मिल गई हो. वह भौचक्के स्वर में बोली, ‘‘तो तुम्हें कोई एतराज नहीं है?’’

मैं शांत पर खीजे स्वर में बोला, ‘‘नहीं, 10 लोगों से तुम्हारे बारे में तरह- तरह के किस्से सुनने से तो यही अच्छा होगा कि तुम पाल से विवाह कर लो.’’

सुकेशनी उसी समय पर्स उठा कर बाहर चली गई. उस की आधी बची चाय में से अभी तक थोड़ीथोड़ी भाप निकल रही थी. मेरे संतप्त हृदय का भी यही हाल था. मैं समझ गया कि वह पाल के घर गई है. मैं दोनों बच्चों को साथ ले कर पार्क में चला गया.

मुझे सुखसुविधाओं से संपन्न इस घर से विरक्ति सी हो रही थी. विरक्ति से उत्पन्न घुटन मुझे सांस नहीं लेने दे रही थी. मैं रोना चाहता था, पर बच्चों के सामने रो भी नहीं सकता था. पार्क में ठंडी हवा में टहलने से मन कुछ शांत हुआ. हाथ में हाथ डाले अनेक जोड़े वहां टहल रहे थे, उन्हें देख कर मैं और भी उदास हो गया. तभी एहसास हुआ कि रात घिर आई है और मैं बच्चों को ले कर घर आ गया.

लगभग 10-15 मिनट के बाद ही सुकेशनी के आने की आहट हुई.

मैं सोचने लगा कि वह आ कर खिले हुए मुख से मुझे एक और खुश- खबरी सुनाएगी. मैं उदास व खोयाखोया सा बैठा रहा. वह कमरे में आई, पर उदास, निढाल व थकीथकी सी. मैं अभी भी चुप रहा.

उस चुप्पी को भंग करते हुए सुकेशनी बोली, ‘‘विशेष, मुझे क्षमा कर दो, मैं तुम्हारी अपराधी हूं. मैं तुम से दंड चाहती हूं…वह यह कि तुम मुझे जिंदगी भर के लिए अपने हृदयरूपी पिंजरे में कैद कर लो. पाल मुझे खिलौना समझ कर मुझ से खेल रहा था. विवाह की बात सुनते ही वह साफ इनकार कर गया और बोला, ‘मैं ने तुम से विवाह करने की बात तो कभी सोची भी नहीं, यह बात तुम्हारे दिमाग में आई कैसे? क्या तुम अपने पति व बच्चों को जरा भी नहीं चाहती हो? कैसी औरत हो तुम? जब तुम उन से प्यार नहीं कर सकीं तो मुझ से क्या कर पाओगी?’

‘‘विशेष, मुझे अपनी भयंकर भूल का उसी समय एहसास हो गया. मैं तुम से वादा करती हूं कि ऐसी भूल मैं भविष्य में कभी भी नहीं दोहराऊंगी. मुझे एक और अवसर दे दो, विशेष. मैं ने सोच लिया है कि उस स्कूल से अपना तबादला करवा लूंगी. आज से मैं तुम्हारे व बच्चों के प्रति अपने सभी उत्तरदायित्व पूरी ईमानदारी के साथ निभाऊंगी,’’ कहतेकहते वह हिचकियां ले कर रोते हुए मेरे पैरों पर गिर पड़ी.

मैं ने उसे बांहों से पकड़ कर उठाते हुए कहा, ‘‘सुकु, तुम एक भयंकर भूल कर रही थीं, पर तुम्हें सही समय पर ही अपनी भूल का एहसास हो गया, यह अच्छी बात है. मैं संकीर्ण विचारधारा का नहीं हूं, पर मेरा यह दृष्टिकोण है कि प्रत्येक व्यक्ति को अपनी मर्यादा व सीमाओं में रहना चाहिए. फिर भी मैं तुम्हें क्षमा कर रहा हूं और तुम्हारे लिए तुम्हारे द्वारा मांगा दंड ही निर्धारित कर रहा हूं अर्थात जीवन भर तुम्हें अपने हृदयरूपी पिंजरे में कैद रखूंगा. तुम्हारे लिए यह अंतिम अवसर है और मुझे विश्वास है कि तुम अपनी कही बातों का पालन करोगी.’’

दोनों बच्चे वहीं आ गए थे, जिन्हें सुकु ने अपनी बांहों में समेट लिया. आंसू उस की आंखों में झिलमिला रहे थे. बच्चों के चेहरों को देख कर ऐसा लगा कि उन्हें वर्षों बाद अपनी मां मिली हो और मुझे भी एक तरह से उसी दिन अपनी पत्नी मिली थी क्योंकि सुकु की आंखों में बहते हुए आंसुओं में उस का मिथ्या- भिमान, जिद, अहं मुझे साफ बहते दिखाई दे रहे थे.

उसी रात हम दोनों ने यह निर्णय लिया कि अपने मतभेदों को बजाय झगड़ा कर के और बढ़ाने के, बच्चों की अनुपस्थिति में एकसाथ बैठ कर सुलझाएंगे. तभी सुकु ने अनुप्रिया व अनन्य का हाथ पकड़ कर कहा, ‘‘चलो बच्चो, तुम्हें कल स्कूल भी तो जाना है.’’

मैं ने प्रश्नसूचक दृष्टि से सुकु की ओर देखा तो वह बोली, ‘‘विशेष, मैं एक माह की छुट्टी ले लूंगी. मुझे वर्षों से बिखरा घर सहेजना है.’’

मैं कुछ न बोल कर मुसकराता रहा. दोनों बच्चे मेरे दोनों गालों पर स्नेहचिह्न अंकित कर अपनी मां का हाथ पकड़े खुशीखुशी सोने के कमरे में चले गए.

मुझे गहन काले बादलों में रुपहली चमक दृष्टिगोचर हो रही थी. ऐसी चमक, जो सूर्योदय की प्रतीक थी.

आजादी: राधिका का आखिर क्या था कुसूर

फैमिली कोर्ट की सीढि़यां उतरते हुए पीछे से आती हुई आवाज सुन कर वह ठिठक कर वहीं रुक गई. उस ने पीछे मुड़ कर देखा. वहां होते कोलाहल के बीच लोगों की भीड़ को चीरता हुआ नीरज उस की तरफ तेज कदमों से चला आ रहा था.

‘‘थैंक्स राधिका,’’ उस के नजदीक पहुंच नीरज ने अपने मुंह से जब आभार के दो शब्द निकाले तो राधिका का चेहरा एक अनचाही पीड़ा के दर्द से तन गया. उस ने नीरज के चेहरे पर नजर डाली. उस की आंखों में उसे मुक्ति की चमक दिखाई दे रही थी. अभी चंद मिनटों पहले ही तो एक साइन कर वह एक रिश्ते के भार को टेबल पर रखे कागज पर छोड़ आगे बढ़ गई थी.

‘‘थैंक्स राधिका टू डू फेवर. मुझे तो डर था कि कहीं तुम सभी के सामने सचाई जाहिर कर मुझे जीने लायक भी न छोड़ोगी,’’ राधिका को चुप पा कर नीरज ने आगे कहा.

राधिका ने एक बार फिर ध्यान से नीरज के चेहरे को देखा और बिना कुछ कहे आगे बढ़ गई. फैमिली कोर्ट के बाहर से रिकशा ले कर वह सीधे औफिस ही पहुंच गई. उस के मन में था कि औफिस के कामों में अपने को व्यस्त रख कर मन में उठ रही टीस को वह कम कर पाएगी. लेकिन वहां पहुंच कर भी उस का मन किसी भी काम में नहीं लगा. उस ने घड़ी पर नजर डाली. एक बज रहा था. औफिस में आए उसे अभी एक घंटा ही हुआ था. अपनी तबीयत ठीक न होने का बहाना कर उस ने हाफडे लीव को फुल डे सिकलीव में कन्वर्ट करवा लिया और औफिस से निकल कर सीधे घर जाने के लिए रिकशा पकड़ लिया.

सोसाइटी कंपाउंड में प्रवेश कर उस ने लिफ्ट का बटन दबाया, पर सहसा याद आया कि आज सुबह से बिजली बंद है और शाम 5 बजे के बाद ही सप्लाई वापस चालू होगी. बुझे मन से वह सीढि़यां चढ़ कर तीसरी मंजिल पर आई. फ्लैट नंबर सी-302 का ताला खोल कर अंदर से दरवाजा बंद कर वह सीधे जा कर बिस्तर पर पसर गई.

कुछ देर पहले बरस कर थम चुकी बारिश की वजह से वातावरण में ठंडक छा गई थी. लेकिन उस का मन अंदर से एक आग की तपिश से जला जा रहा था. नेहा अपने बौस के साथ बिजनैस टूर पर गई हुई थी और कल सुबह से पहले नहीं आने वाली थी वरना मन में उठ रही टीस उस के संग बांट कर अपने को कुछ हलका कर लेती. बैडरूम में उसे घबराहट होने लगी, तो वह उठ कर हौल में आ कर सोफे पर सिर टिका कर बैठ गई. उस की आंखों के आगे जिंदगी के पिछले 4 साल घूमने लगे…

‘चलो अच्छा ही है 2 दोस्तों के बच्चे अब शादी की गांठ से बंध जाएंगे तो दोस्ती अब रिश्तेदारी में बदल कर और पक्की हो जाएगी,’ राधिका के नीरज से शादी के लिए हां कहते ही जैसे पूरे घर में खुशियां छा गई थीं. राधिका के पिता ने अपने दोस्त का मुंह मीठा करवाया और गले से लगा लिया.

राधिका ने अपने सामने बैठे नीरज को चोरीछिपे नजरें उठा कर देखा. वह शरमाता हुआ नीची नजरें किए हुए चुपचाप बैठा था. न्यूजर्सी से अपनी पढ़ाई पूरी कर अभी कुछ महीने पहले ही आया नीरज शायद यहां के माहौल में अपनेआप को फिर से पूरी तरह से एडजस्ट नहीं कर पाया. यही सोच कर राधिका उस वक्त उस के चेहरे के भाव नहीं पढ़ पाई. अपने पापा के दोस्त दीनानाथजी को वह बचपन से जानती थी लेकिन नीरज से उस की मुलाकात इस रिश्ते की नींव बनने से पहले कभीकभी ही हुई थी. 12वीं पास करने के बाद नीरज 5 साल के लिए स्टूडैंट वीजा पर न्यूजर्सी चला गया था और जब वापस आया तो पहली ही मुलाकात में चंद घंटों की बातों के बाद उन की शादी का फैसला हो गया.

‘‘नीरज, मैं तुम्हें पसंद तो हूं न?’’ बगीचे में नीरज का हाथ थाम कर चलती राधिका ने पूछा.

‘‘हां. लेकिन क्यों ऐसा पूछ रही हो?’’ उस की बात का जवाब देते हुए नीरज ने पूछा.

‘बस ऐसे ही. अगले महीने हमारी शादी होने वाली है. पर तुम्हारे चेहरे पर कोई उत्साह न देख कर मुझे डर सा लगता है. कहीं तुम ने किसी दबाव में आ कर तो इस शादी के लिए हां नहीं की न?’ पास ही लगी बैंच पर बैठते हुए राधिका ने नीरज को देखा.

‘वैल. अपना बिजनैस सैट करने की थोड़ी टैंशन है. इसी उलझन में रहता हूं कि कहीं शादी का यह फैसला जल्दी तो नहीं ले लिया,’ कहते हुए नीरज ने अपनी पैंट की जेब से रूमाल निकाला और माथे पर उभर आई पसीने की बूंदों को पोंछ डाला.

‘इस में टैंशन लेने वाली बात ही क्या है? शादी तो समय पर हो ही जानी चाहिए. वैसे भी, जीने के लिए पैसा नहीं, अपने लोगों के पास होने की जरूरत होती है,’ कहती हुई राधिका ने नीरज के कंधे पर अपना सिर टिका दिया.

‘बात तो सच है तुम्हारी पर फिर भी हर वक्त एक डर सा बना रहता है,’ नीरज ने अपने हाथ में अभी भी रूमाल पकड़ रखा था.

‘छोड़ो भी अब यह डर और कोई रोमांटिक बात करो न मुझ से,’ कहती हुई राधिका ने आसपास नजर दौड़ाई. बगीचे में अधिकांश जोड़े अपनी ही मस्ती में खोए हुए थे. सहसा राधिका नीरज के और करीब आ गई और उस के हाथ की उंगलियां उस की छाती पर हरकत करने लगीं.

‘यह क्या हरकत है राधिका?’ कहते हुए नीरज ने एक झटके से राधिका को अपने से दूर कर दिया और अपनी जगह से खड़ा हो गया. राधिका के लिए नीरज का यह व्यवहार अप्रत्याशित था. वह नीरज की इस हरकत से सहम गई. तभी दरवाजे की घंटी बज उठी. राधिका अपनी यादों से बाहर निकल कर खड़ी हुई और दरवाजा खोला.

‘‘नेहा प्रधान हैं?’’

दरवाजे पर कूरियर वाला खड़ा था. ‘‘जी, इस वक्त वह घर पर नहीं है. लाइए मैं साइन कर देती हूं,’’ राधिका ने पैकेट लेने के लिए अपना हाथ आगे बढ़ाया.

पैकेट दे कर कूरियर वाला चला गया. दरवाजा बंद करती हुई राधिका ने पैकेट को देख कर उस के अंदर कोई पुस्तक होने का अंदाजा लगाया. नेहा अकसर कोई न कोई पुस्तक मंगाती रहती थी. उस ने पैकेट टेबल पर रख दिया और वापस सोफे पर बैठ गई.

4 वर्षों का साथ आज यों ही एक झटके में तो नहीं टूट गया था. उस के पीछे की भूमिका तो शायद शादी के पहले से ही बन चुकी थी. पर नीरज का मौन राधिका की जिंदगी भी दांव पर लगा गया. नीरज के बारे में और सोचते हुए उस का चेहरा तन गया.

‘नीरज,  तुम्हारे मन में आखिर चल क्या रहा है? हमारी शादी हुए एक महीने से ज्यादा हो गया और 10 दिनों के अच्छेखासे हनीमून के बाद भी तुम्हारे चेहरे पर नईनई शादी वाली खुशी नदारद सी है. बात क्या है? मुझ से तो खुल कर कहो,’ पूरे हनीमून के दौरान राधिका ने महसूस किया कि नीरज हमेशा उस से एक सीमित अंतर बना कर रह रहा है. रात के हसीन पल भी उसे रोमांचित नहीं कर पा रहे थे. वह, बस, शादी के बाद की रातों को एक जिम्मेदारी मान कर जैसेतैसे निभा ही रहा था. हनीमून से लौट कर आने के बाद राधिका के चेहरे पर अतृप्ति के भाव छाए हुए थे.

‘कुछ नहीं राधिका. मुझे लगता है हम ने शादी करने में जल्दबाजी कर दी है,’ राधिका की बात सुन कर नीरज इतना ही बोल पाया.

‘जनाब, अब ये सब बातें सोचने का समय बीत चुका है. बेहतर होगा हम मिल कर अपनी शादी का जश्न पूरे मन से मनाएं,’ राधिका ने नीरज की बात सुन कर कहा.

‘तुम नहीं समझ पाओगी राधिका और मैं तुम्हें अपनी समस्या समझ भी नहीं पाऊंगा,’ कह कर नीरज राधिका की प्रतिक्रिया की परवा किए बिना ही कमरे से बाहर चला गया.

अकेले बैठी हुई राधिका का मन बारबार पिछली बातों में जा कर अटक रहा था. लाइट भी नहीं थी जो टीवी औन कर अपना मन बहला पाती. तभी उस के मन में कुछ कौंधा और उस ने नेहा के नाम से अभी आया पैकेट खोल लिया. उस के हाथों में किसी नवोदित लेखक की पुस्तक थी. पुस्तक के कवर पर एक स्त्री की एक पुरुष के साथ हाथों में हाथ डाले हुए मनमोहक छवि थी और उस के ऊपर पुस्तक का शीर्षक छपा हुआ था- ‘उस के हिस्से का प्यार’. कहानियों की इस पुस्तक की विषय सूची पर नजर डालते हुए उस ने एक के बाद एक कुछ कहानियां पढ़नी शुरू कर दीं. बच्चे के यौन उत्पीड़न और फिर उस को ले कर वैवाहिक जीवन में आने वाली समस्या को ले कर लिखी गई एक कहानी पढ़ कर वह फिर से नीरज की यादों में खो गई.

उस दिन नीरज बेहद खुश था. वह घर खाने पर अपने किसी विदेशी दोस्त को ले कर आया था.

‘राधिका, 2 दिनों पहले मैं अपने जिस दोस्त की बात कर रहा था वह यह माइक है. न्यूजर्सी में हम दोनों रूममेट थे और साथ ही पढ़ते थे,’ नीरज ने राधिका को माइक का परिचय देते हुए कहा.

राधिका ने अपने पति की बाजू में खड़े उस श्वेतवर्णी स्निग्ध त्वचा वाले लंबे व छरहरे युवक पर नजर डाली. राधिका को पहली ही नजर में नीरज का यह दोस्त बिलकुल पसंद नहीं आया. उस का क्लीनशेव्ड नाजुक चेहरा और उस पर सिर पर थोड़े लंबे बालों को बांध कर बनाई गई छोटी सी चोटी देख कर राधिका को आश्चर्य हो रहा था कि ऐसा लड़का नीरज का दोस्त कैसे हो सकता है. नीरज तो खुद अपने पहनावे और लुक को ले कर काफी कौन्शियस रहता है. उस वक्त इस बात को नजरअंदाज कर वह इस बात पर ज्यादा कुछ न सोचते हुए खाना बनाने में जुट गई.

उसी रात नीरज ने जब राधिका से सीधेसीधे तलाक लेने की बात छेड़ी तो राधिका के पैरोंतले जमीन खिसक गई.

‘लेकिन बात क्या हुई नीरज? न हमारे बीच कोई झगड़ा है न कोई परेशानी. सबकुछ तो बराबर चल रहा है. कहीं तुम्हारा किसी के संग अफेयर तो…’ रिश्तों को बांधे रखने की दुहाई देते हुए सहसा उस का मन एक आशंका से भर गया.

‘अफेयर ही समझ लो. अब तुम से मैं आगे कुछ और नहीं छिपाऊंगा,’ कहते हुए नीरज चुप हो गया. राधिका ने नीरज के चेहरे को देखते हुए उस की आंखों में अजीब सी मदहोशी महसूस की.

‘तुम कहना क्या चाहते हो नीरज?’ राधिका नीरज की अधूरी छोड़ी बात पूरी सुनना चाहती थी. उस के बाद नीरज ने जो कुछ उस से कहा, उन में से आधी बात तो वह ठीक से सुन ही नहीं पाई.

‘तुम्हारे संग मेरी शादी मेरे लिए एक जुआ ही थी. मैं अपनी सारी जिंदगी इसी तरह कशमकश में गुजार देता पर अब यह कुछ नामुमकिन सा लगता है राधिका. बेहतर होगा हम अपनेअपने रास्ते अलगअलग ही तय करें,’ नीरज से शादी टूटने से पहले कहे गए आखिरी वाक्य उस के दिमाग में बारबार कौंधने लगे.

राधिका ने कमरे की लाइट बंद कर दी और चुपचाप लेट कर सारी रात अपनी बरबादी पर आंसू बहाती रही.

अब एक ही घर में नीरज के साथ रहते हुए वह अपनेआप को एक अजनबी महसूस कर रही थी. अपने मन की बात राधिका को जता कर जैसे नीरज के मन का भार हलका हो चुका था लेकिन राधिका जैसे मन पर एक अनचाहा भार ले कर जी रही थी. जब उस के मन का भार असहनीय हो गया तो वह नीरज के घर की दहलीज छोड़ कर अपने पिता के घर आ गई.

फिर जो हुआ वह आज के दिन में परिणत हो कर उस के सामने खड़ा था. कानूनी तौर पर वह भले ही नीरज से अलग हो चुकी थी लेकिन नीरज की सचाई और उस के द्वारा दी गई अनचाही पीड़ा अब भी उस के मन के कोने में कैद थी जिसे वह चाह कर भी किसी से बयान नहीं कर सकती थी. घर में बैठेबैठे अकेले घुटन होने से वह घर लौक कर बाहर निकल गई और एमजी रोड पर स्थित मौल में दिल बहलाने के लिए चक्कर लगाने लगी.

रात देर से नींद आने की वजह से सुबह उस की नींद देर से ही खुली. वैसे भी आज उस का वीकली औफ होने से औफिस जाने का कोई झंझट न था. उस ने उठ कर समाचार सुनने के लिए टीवी औन ही किया था कि डोरबेल बज उठी.

‘‘हाय राधिका. हाऊ आर यू?’’ दरवाजा खोलते ही नेहा राधिका से लिपट गई.

‘‘मैं ठीक हूं. तेरा टूर कैसा रहा?’’ राधिका के चेहरे पर एक फीकी सी मुसकान तैर गई.

‘‘बौस के साथ टूर हमेशा ही मजेदार रहता है. वैसे भी अब जिंदगी ऐसे मोड़ तक पहुंच गई है जहां से वापस लौटना संभव ही नहीं. यह टूर तो एक बहाना होता है एकांत पाने का,’’ कहती हुई नेहा सोफे पर पसर गई.

राधिका ने रिमोट उठा कर चुपचाप न्यूज चैनल शुरू कर दिया.

‘‘सुन, कल तेरी आखिरी सुनवाई थी न फैमिली कोर्ट में. क्या फैसला आया?’’ नेहा ने राधिका को अपने पास खींचते हुए उस से पूछा.

‘‘फैसला तो पहले से ही तय था. बस, साइन ही करने तो जाना था,’’ राधिका ने बुझेमन से जवाब दिया.

‘‘लेकिन तू ने अभी तक नहीं बताया कि आखिर ऐसा क्या हुआ जो तू ने नीरज से अलग होने का फैसला ले लिया?’’ पिछले एक साल से साथ रहने के बावजूद राधिका ने अपनी जिंदगी का एक अधूरा सच नेहा से अब तक छिपाए रखा था.

‘भारत की न्याय प्रणाली में एक ऐतिहासिक फैसला सैक्शन 377 के तहत अब गे और लैस्बियन संबंध वैध.’

तभी टीवी स्क्रीन पर आती ब्रैकिंग न्यूज देख कर राधिका असहज हो गई.

‘‘स्ट्रैंज,’’ नेहा ने न्यूज पर अपनी छोटी सी प्रतिक्रिया जताते हुए राधिका से फिर से पूछा, ‘‘तू ने बताया नहीं राधिका? कुछ कारण तो रहा होगा न?’’

‘‘बस, समझ ले कल उसे एक अनचाहे रिश्ते से कानूनीतौर पर मुक्ति मिली और आज उस मुक्ति की खुशी मनाने का मौका भी उसी कानून ने उसे दे दिया,’’ राधिका की नजरें अभी भी टीवी स्क्रीन पर जमी हुई थीं. लेकिन नेहा उस की नम हो चुकी आंखों में तैर रही खामोशी को पढ़ चुकी थी. द्य

गलतफहमी: क्या था रिया का जवाब

आज नौकरी का पहला दिन था. रिया ने सुबह उठ कर तैयारी की और औफिस के लिए निकल पड़ी. पिताजी के गुजरने के बाद घर की सारी जिम्मेदारी उस पर ही थी. इंजीनियरिंग कालेज में अकसर अव्वल रहने वाली रिया के बड़ेबड़े सपने थे. लेकिन परिस्थितिवश उसे इस राह पर चलना पड़ा था. इस के पहले छोटी नौकरी में घर की जिम्मेदारियां पूरी न हो पाती थीं. ऐसे में एक दिन औनलाइन इंटरव्यू के इश्तिहार पर उस का ध्यान गया. उस ने फौर्म भर दिया और उस कंपनी में उसे चुन लिया गया.

रिया जब औफिस में पहुंची तो औफिस के कुछ कर्मी थोड़े समय से थोड़ा पहले ही आ गए थे. वहीं, रिसैप्शन पर बैठी अंजली ने रिया से पूछा, ‘‘गुडमौर्निंग मैडम, आप को किस से मिलना है?’’

‘‘मैं इस कंपनी में औनलाइन इंटरव्यू से चुनी गईर् हूं. आज से मु झे औफिस जौइन करने लिए कहा गया था, यह लैटर…’’

‘‘ओके, कौंग्रेट्स. आप का इस कंपनी में स्वागत है. थोड़ी देर बैठिए. मैं मैनेजर साहब से पूछ कर आप को बताती हूं.’’

रिया वहीं बैठ कर कंपनी का निरीक्षण करने लगी. उसी वक्त कंपनी में काफी जगह लगा हुआ आर जे का लोगो उस का बारबार ध्यान खींच रहा था. उतने में अंजली आई, ‘‘आप को मैनेजर साहब ने बुलाया है. वे आप को आगे का प्रोसीजर बताएंगे.’’

‘‘अंजली मैडम, एक सवाल पूछूं? कंपनी में जगहजगह आर जे लोगो क्यों लगाया गया है?’’

‘‘आर जे लोगो कंपनी के सर्वेसर्वा मजूमदार साहब के एकलौते सुपुत्र के नाम के अक्षर हैं. औनलाइन इंटरव्यू उन का ही आइडिया था. आज उन का भी कंपनी में पहला दिन है. चलो, अब हम अपने काम की ओर ध्यान दें.’’

‘‘हां, बिलकुल, चलो.’’

कंपनी के मैनेजर, सुलझे हुए इंसान थे. उन की बातों से और काम सम झाने के तरीके से रिया के मन का तनाव काफी कम हुआ. उस ने सबकुछ समझ लिया और काम शुरू कर लिया. शुरू के कुछ दिनों में ही रिया ने अपने हंसमुख स्वभाव से और काम के प्रति ईमानदारी से सब को अपना बना लिया. लेकिन अभी तक उस की कंपनी के मालिक आर जे सर से मुलाकात नहीं हुई थी. कंपनी की मीटिंग हो या और कोई अवसर, जहां पर उस की आर जे सर के साथ मुलाकात होने की गुंजाइश थी, वहां उसे जानबू झ कर इग्नोर किया जा रहा था. ऐसा क्यों, यह बात उस के लिए पहेली थी.

एक दिन रोज की फाइल्स देखते समय चपरासी ने संदेश दिया, ‘‘मैनेजर साहब, आप को बुला रहे हैं.’’

‘‘आइए, रिया मैडम, आप से काम के बारे में बात करनी थी. आज आप को इस कंपनी में आए कितने दिन हुए?’’

‘‘क्यों, क्या हुआ सर? मैं ने कुछ गलत किया क्या?’’

‘‘गलत हुआ, ऐसा मैं नहीं कह सकता, मगर अपने काम की गति बढ़ाइए और हां, इस जगह हम काम करने की तनख्वाह देते हैं, गपशप की नहीं. यह ध्यान में रखिए. जाइए आप.’’

रिया के मन को यह बात बहुत बुरी लगी. वैसे तो मैनेजर साहब ने कभी भी उस के साथ इस तरीके से बात नहीं की थी लेकिन वह कुछ नहीं बोल सकी. अपनी जगह पर वापस आ गई.

थोड़ी देर में चपरासी ने उस के विभाग की सारी फाइलें उस की टेबल पर रख दीं. ‘‘इस में जो सुधार करने के लिए कहे हैं वे आज ही पूरे करने हैं, ऐसा साहब ने कहा है.’’

‘‘लेकिन यह काम एक दिन में कैसे पूरा होगा?’’

‘‘बड़े साहब ने यही कहा है.’’

‘‘बड़े साहब…?’’

‘‘हां मैडम, बड़े साहब यानी अपने आर जे साहब, आप को नहीं मालूम?’’

अब रिया को सारी बातें ध्यान में आईं. उस के किए हुए काम में आर जे सर ने गलतियां निकाली थीं, हालांकि वह अब तक उन से मिली भी नहीं थी. फिर वे ऐसा बरताव क्यों कर रहे थे, यह सवाल रिया को परेशान कर रहा था.

उस ने मन के सारे विचारों को  झटक दिया और काम शुरू किया. औफिस का वक्त खत्म होने को था, फिर भी रिया का काम खत्म नहीं हुआ था. उस ने एक बार मैनेजर साहब से पूछा, मगर उन्होंने आज ही काम पूरा करने की कड़ी चेतावनी दी. बाकी सारा स्टाफ चला गया. अब औफिस में रिया, चपरासी और आर जे सर के केबिन की लाइट जल रही थी यानी वे भी औफिस में ही थे. काम पूरा करतेकरते रिया को काफी वक्त लगा.

उस दिन के बाद रिया को तकरीबन हर दिन ज्यादा काम करना पड़ता था. उस की बरदाश्त करने की ताकत अब खत्म हो रही थी. एक दिन उस ने तय किया कि आज अगर उसे हमेशा की तरह ज्यादा काम मिला तो सीधे जा कर आर जे सर से मिलेगी. हुआ भी वैसा ही. उसे आज भी काम के लिए रुकना था. उस ने काम बंद किया और आर जे सर के केबिन की ओर जाने लगी. चपरासी ने उसे रोका, मगर वह सीधे केबिन में घुस गई.

‘‘सौरी सर, मैं बिना पूछे आप से मिलने चली आई. क्या आप मु झे बता सकेंगे कि निश्चितरूप से मेरा कौन सा काम आप को गलत लगता है? मैं कहां गलत कर रही हूं? एक बार बता दीजिए. मैं उस के मुताबिक काम करूंगी, मगर बारबार ऐसा…’’

रिया के आगे के लफ्ज मुंह में ही रह गए क्योंकि रिया केबिन में आई थी तब आर जे सर कुरसी पर उस की ओर पीठ कर के बैठे थे. उन्होंने रिया के शुरुआती लफ्ज सुन लिए थे. बाद में उन की कुरसी रिया की ओर मुड़ी ‘‘सर…आप…तुम…राज…कैसे मुमकिन है? तुम यहां कैसे?’’ रिया हैरान रह गई. उस का अतीत अचानक उस के सामने आएगा, ऐसी कल्पना भी उस ने नहीं की थी. उसे लगने लगा कि वह चक्कर खा कर वहीं गिर जाएगी.

‘‘हां, बोलिए रिया मैडम, क्या तकलीफ है आप को?’’

राज के इस सवाल से वह अतीत से बाहर आई और चुपचाप केबिन के बाहर चली गई. उस का अतीत ऐसे अचानक उस के सामने आएगा, यह उस ने सोचा भी नहीं था.

आर जे सर कोई और नहीं उस का नजदीकी दोस्त राज था. उस दोस्ती में प्यार के धागे कब बुन गए, यह दोनों सम झे नहीं थे. रिया को वह कालेज का पहला दिन याद आया. कालेज के गेट के पास ही सीनियर लड़कों के एक गैंग ने उसे रोका था.

‘आइए मैडम, कहां जा रही हो? कालेज के नए छात्र को अपनी पहचान देनी होती है. उस के बाद आगे बढि़ए.’

रिया पहली बार गांव से पढ़ाई के लिए शहर आई थी और आते ही इस सामने आए संकट से वह घबरा गई.

‘अरे हीरो, तू कहां जा रहा है? तु झे दिख नहीं रहा यहां पहचान परेड चल रही है. चल, ऐसा कर ये मैडम जरा ज्यादा ही घबरा गई हैं. तू इन्हें प्रपोज कर. उन का डर भी चला जाएगा.’

अभीअभी आया राज जरा भी घबराया नहीं. उस ने तुरंत रिया की ओर देखा. एक स्माइल दे कर बोला. ‘हाय, मैं राज. घबराओ मत. बड़ेबड़े शहरों में ऐसी छोटीछोटी बातें होती रहती हैं.’

रिया उसे देखती ही रह गई.

‘आज हमारे कालेज का पहला दिन है. इस वर्षा ऋतु के साक्षी से मेरी दोस्ती को स्वीकार करोगी.’ रिया के मुंह से अनजाने में कब ‘हां’ निकल गई यह वह सम झ ही नहीं पाई. उस के हामी भरने से सीनियर गैंग  झूम उठा.

‘वाह, क्या बात है. यह है रियल हीरो. तुम से मोहब्बत के लैसंस लेने पड़ेंगे.’

‘बिलकुल… कभी भी…’

रिया की ओर एक नजर डाल कर राज कालेज की भीड़ में कब गुम हुआ, यह उसे मालूम ही नहीं हुआ. एक ही कालेज में, एक ही कक्षा में होने की वजह से वे बारबार मिलते थे. राज अपने स्वभाव के कारण सब को अच्छा लगता था. कालेज की हर लड़की उस से बात करने के लिए बेताब रहती थी. मगर राज किसी दूसरे ही रिश्ते में उल झ रहा था.

यह रिश्ता रिया के साथ जुड़ा था. एक अव्यक्त रिश्ता. उस का शांत स्वभाव, उस का मनमोहता रूप जिसे शहर की हवा छू भी नहीं पाई थी. उस का यही निरालापन राज को उस की ओर खींचता था.

एक दिन दोनों कालेज कैंटीन में बैठे थे. तब राज ने कहा, ‘रिया, तुम कितनी अलग हो. हमारा कालेज का तीसरा साल शुरू है. लेकिन तुम्हें यहां के लटके झटके अभी भी नहीं आते…’

‘मैं ऐसी ही ठीक हूं. वैसे भी मैं कालेज में पढ़ने आई हूं. पढ़ाई पूरी करने के बाद मु झे नौकरी कर के अपने पिताजी का सपना पूरा करना है. उन्होंने मेरे लिए काफी कष्ट उठाए हैं.’

रिया की बातें सुन कर राज को रिया के प्रति प्रेम के साथ आदर भी महसूस हुआ. तीसरे साल के आखिरी पेपर के समय राज ने रिया को बताया, ‘मु झे तुम्हें कुछ बताना है. शाम को मिलते हैं.’ हालांकि उस की आंखें ही सब बोल रही थीं. रिया भी इसी पल का बेसब्री से इंतजार कर रही थी. इसी खुशी में वह होस्टल आई. मगर तभी मैट्रन ने बताया, ‘तुम्हारे घर से फोन था. तुम्हें तुरंत घर बुलाया है.’

रिया ने सामान बांधा और गांव की ओर निकल पड़ी. घर में क्या हुआ होगा, इस सोच में वह परेशान थी. इन सब बातों में वह राज को भूल गई. घर पहुंची तो सामने पिताजी का शव, उस सदमे से बेहोश पड़ी मां और रोता हुआ छोटा भाई. अब किसे संभाले, खुद की भावनाओं पर कैसे काबू पाए, यह उस की सम झ में नहीं आ रहा था. एक ऐक्सिडैंट में उस के पिताजी का देहांत हो गया था. घर में सब से बड़ी होने की वजह से उस ने अपनी भावनाओं पर बहुत ही मुश्किल से काबू पाया.

इस घटना के बाद उस ने पढ़ाई आधी ही छोड़ दी और एक छोटी नौकरी कर घर की जिम्मेदारी संभाली.

इधर राज बेचैन हो गया. सारी रात रिया का इंतजार करता रहा. मगर वह आई नहीं. उस ने कालेज, होस्टल सब जगह ढूंढ़ा मगर उस का कुछ पता नहीं चला. रिया ने ही ऐसी व्यवस्था कर रखी थी. वह राज पर बो झ नहीं बनना चाहती थी. पर राज इस सब से अनजान था. उस के दिल को ठेस पहुंची थी. इसलिए उस ने भी कालेज छोड़ दिया और आगे की पढ़ाई के लिए अमेरिका चला गया.

‘‘मैडम, आप का काम हो गया क्या? मु झे औफिस बंद करना है. बड़े साहब कब के चले गए.’’

चपरासी की आवाज से रिया यादों की दुनिया से बाहर आई. उस ने सब सामान इकट्ठा किया और घर के लिए निकल पड़ी. उस के मन में एक ही खयाल था कि राज की गलतफहमी कैसे दूर करे. उसे उस का कहना रास आएगा या नहीं? वह नौकरी भी छोड़ नहीं सकती. क्या करे. इन खयालों में वह पूरी रात जागती रही.

दूसरे दिन औफिस में अंजली ने रिसैप्शन पर ही रिया से पूछा, ‘‘अरे रिया, क्या हुआ? तुम्हारी आंखें ऐसी क्यों लग रही हैं? खैरियत तो है न?’’

‘‘अरे कुछ नहीं, थोड़ी थकान महसूस कर रही हूं, बस. आज का शैड्यूल क्या है?’’

‘‘आज अपनी कंपनी को एक बड़ा प्रोजैक्ट मिला है. इसलिए कल पूरे स्टाफ के लिए आर जे सर ने पार्टी रखी है. हरेक को पार्टी में आना ही है.’’

‘‘हां, आऊंगी.’’

दू सरे दिन शाम को पार्टी शुरू हुई. रिया बस केवल हाजिरी लगा कर निकलने की सोच रही थी. राज का पूरा ध्यान उसी पर था. अचानक उसे एक परिचित  आवाज आई.

‘‘हाय राज, तुम यहां कैसे? कितने दिनों बाद मिल रहे हो. मगर तुम्हारी हमेशा की मुसकराहट किधर गई?’’

‘‘ओ मेरी मां, हांहां, कितने सवाल पूछोगी. स्नेहल तुम तो बिलकुल नहीं बदलीं. कालेज में जैसी थीं वैसी ही हो, सवालों की खदान. अच्छा, तुम यहां कैसे…?’’

‘‘अरे, मैं अपने पति के साथ आई हूं. आज उन के आर जे सर ने पूरे स्टाफ को परिवार सहित बुलाया है. इसलिए मैं आई. तुम किस के साथ आए हो?’’

‘‘मैं अकेला ही आया हूं. मैं ही तुम्हारे पति का आर जे सर हूं.’’

‘‘सच, क्या कह रहे हो. तुम ने तो मु झे हैरान कर दिया. अरे हां, रिया भी इसी कंपनी में है न. तुम लोगों की सब गलतफहमियां दूर हो गईं न.’’

‘‘गलतफहमी? कौन सी गलतफहमी?’’

‘‘अरे, रिया अचानक कालेज छोड़ कर क्यों गई, उस के पिताजी का ऐक्सिडैंट में देहांत हो गया था, ये सब…’’

‘‘क्या, मैं तो ये सब जानता ही नहीं.’’

स्नेहल रिया और राज की कालेज की सहेली थी. उन दोनों की दोस्ती, प्यार, दूरी इन सब घटनाओं की साक्षी थी. उसे रिया के बारे में सब मालूम हुआ था. उस ने ये सब राज को बताया.

राज को यह सब सुन कर बहुत दुख हुआ. उस ने रिया के बारे में कितना गलत सोचा था. हालांकि, उस की इस में कुछ भी गलती नहीं थी. अब उस की नजर पार्टी में रिया को ढूंढ़ने लगी. मगर तब तक रिया वहां से निकल चुकी थी.

वह उसे ढूंढ़ने बसस्टौप की ओर भागा.

बारिश के दिन थे. रिया एक पेड़ के नीचे खड़ी थी. उस ने दूर से ही रिया को आवाज लगाई.

‘‘रिया…रिया…’’

‘‘क्या हुआ सर? आप यहां क्यों आए? आप को कुछ काम था क्या?’’

‘‘नहीं, सर मत पुकारो, मैं तुम्हारा पहले का राज ही हूं. अभीअभी मु झे स्नेहल ने सबकुछ बताया. मु झे माफ कर दो, रिया.’’

‘‘नहीं राज, इस में तुम्हारी कोई गलती नहीं है. उस समय हालात ही ऐसे थे.’’

‘‘रिया, आज मैं तुम से पूछता हूं, क्या मेरे प्यार को स्वीकार करोगी?’’

रिया की आंसूभरी आंखों से राज को जवाब मिल गया.

राज ने उसे अपनी बांहों में भर लिया. उन के इस मिलन में बारिश भी उन का साथ दे रही थी. इस बारिश की  झड़ी में उन के बीच की दूरियां, गलतफहमियां पूरी तरह बह गई थीं.

दिल से दिल तक: शादीशुदा आभा के प्यार का क्या था अंजाम

‘‘हर्ष,अब क्या होगा?’’ आभा ने कराहते हुए पूछा. उस की आंखों में भय साफसाफ देखा जा सकता था. उसे अपनी चोट से ज्यादा आने वाली परिस्थिति को ले कर घबराहट हो रही थी.

‘‘कुछ नहीं होगा… मैं हूं न, तुम फिक्र मत करो…’’ हर्ष ने उस के गाल थपथपाते हुए कहा.

मगर आभा चाह कर भी मुसकरा नहीं सकी. हर्ष ने उसे दवा खिला कर आराम करने को कहा और खुद भी उसी बैड के एक किनारे अधलेटा सा हो गया. आभा शायद दवा के असर से नींद के आगोश में चली गई, मगर हर्र्ष के दिमाग में कई उल झनें एकसाथ चहलकदमी कर रही थी…

कितने खुश थे दोनों जब सुबह रेलवे स्टेशन पर मिले थे. उस की ट्रेन सुबह 8 बजे ही स्टेशन पर लग चुकी थी. आभा की ट्रेन आने में अभी

1 घंटा बाकी था. चाय की चुसकियों के साथसाथ वह आभा की चैट का भी घूंटघूंट कर स्वाद ले रहा था. जैसे ही आभा की ट्रेन के प्लेटफौर्म पर आने की घोषणा हुई, वह लपक कर उस के कोच की तरफ बढ़ा. आभा ने उसे देखते ही जोरजोर से हाथ हिलाया. स्टेशन की भीड़ से बेपरवाह दोनों वहीं कस कर गले मिले और फिर अपनाअपना बैग ले कर स्टेशन से बाहर निकल आए.

पोलो विक्ट्री पर एक स्टोर होटल में कमरा ले कर दोनों ने चैक इन किया. अटैंडैंट के सामान रख कर जाते ही दोनों फिर एकदूसरे से लिपट गए. थोड़ी देर तक एकदूसरे को महसूस करने के बाद वे नहाधो कर नाश्ता करने बाहर निकले. हालांकि आभा का मन नहीं था कहीं बाहर जाने का, वह तो हर्ष के साथ पूरा दिन कमरे में ही बंद रहना चाहती थी, मगर हर्ष ने ही मनुहार की थी बाहर जा कर उसे जयपुर की स्पैशल प्याज की कचौरी खिलाने की जिसे वह टाल नहीं सकी थी. हर्ष को अब अपने उस फैसले पर अफसोस हो रहा था. न वह बाहर जाने की जिद करता और न यह हादसा होता…

होटल से निकल कर जैसे ही वे मुख्य सड़क पर आए, पीछे से आई एक अनियंत्रित कार ने आभा को टक्कर मार दी. वह सड़क पर गिर पड़ी. कोशिश करने के बाद भी जब वह उठ नहीं सकी तो हर्ष ऐबुलैंस की मदद से उसे सिटी हौस्पिटल ले कर आया. ऐक्सरे जांच में आभा के पांव की हड्डी टूटी हुई पाई गई. डाक्टर ने दवाओं की हिदायत देने के साथसाथ 6 सप्ताह का प्लास्टर बांध दिया. थोड़ी देर में दर्द कम होते ही उसे हौस्पिटल से डिस्चार्ज कर दिया गया.

मोबाइल की आवाज से आभा की नींद टूटी. उस के मोबाइल में ‘रिमाइंडर मैसेज’ बजा. लिखा था, ‘से हैप्पी ऐनिवर्सरी टू हर्ष.’ आभ दर्द में भी मुसकरा दी. उस ने हर्ष को विश करने के लिए यह रिमाइंडर अपने मोबाइल में डाला था.

पिछले साल इसी दिन यानी 4 मार्च को दोपहर 12 बजे जैसे ही इस ‘रिमाइंडर मैसेज’ ने उसे विश करना याद दिलाया था उस ने हर्ष को किस कर के अपने पुनर्मिलन की सालगिरह विश की थी और उसी वक्त इस में आज की तारीख सैट कर दी थी. मगर आज वह चाह कर भी हर्ष को गले लगा कर विश नहीं कर पाई क्योंकि वह तो जख्मी हालत में बैड पर है. उस ने एक नजर हर्ष पर डाली और रिमाइंडर में अगले साल की डेट सैट कर दी. हर्ष अभी आंखें मूंदे लेटा था. पता नहीं सो रहा था या कुछ सोच रहा था. आभा ने दर्द को सहन करते हुए एक बार फिर से अपनी आंखें बंद कर लीं.

‘पता नहीं क्याक्या लिखा है विधि ने मेरे हिस्से में,’ सोचते हुए अब आभा का दिमाग भी चेतन हो कर यादों की बीती गलियों में घूमने लगा…

लगभग सालभर पहले की बात है. उसे अच्छी तरह याद है 4 मार्च की वह शाम. वह अपने कालेज की तरफ से 2 दिन का एक सेमिनार अटैंड करने जयपुर आई थी. शाम के समय टाइम पास करने के लिए जीटी पर घूमतेघूमते अचानक उसे हर्ष जैसा एक व्यक्ति दिखाई दिया. वह चौंक गई.

‘हर्ष यहां कैसे हो सकता है?’ सोचतेसोचते वह उस व्यक्ति के पीछे हो ली. एक  शौप पर आखिर वह उस के सामने आ ही गई. उस व्यक्ति की आंखों में भी पहचान की परछाईं सी उभरी. दोनों सकपकाए और फिर मुसकरा दिए. हां, यह हर्ष ही था… उस का कालेज का साथी… उस का खास दोस्त… जो न जाने उसे किस अपराध की सजा दे कर अचानक उस से दूर चला गया था…

कालेज के आखिरी दिनों में ही हर्ष उस से कुछ खिंचाखिंचा सा रहने लगा था और फिर फाइनल ऐग्जाम खत्म होतेहोते बिना कुछ कहेसुने हर्ष उस की जिंदगी से चला गया. कितना ढूंढ़ा था उस ने हर्ष को, मगर किसी से भी उसे हर्ष की कोई खबर नहीं मिली. आभा आज तक हर्ष के उस बदले हुए व्यवहार का कारण नहीं सम झ पाई थी.

धीरेधीरे वक्त अपने रंग बदलता रहा. डौक्टरेट करने के बाद आभा  स्थानीय गर्ल्स कालेज में लैक्चरर हो गई और अपने विगत से लड़ कर आगे बढ़ने की कोशिश करने लगी. इस बीच आभा ने अपने पापा की पसंद के लड़के राहुल से शादी भी कर ली. बच्चों की मां बनने के बाद भी आभा को राहुल के लिए अपने दिल में कभी प्यार वाली तड़प महसूस नहीं हुई. दिल आज भी हर्ष के लिए धड़क उठता था.

शादी कर के जैसे उस ने अपनी जिंदगी से एक सम झौता किया था. हालांकि समय के साथसाथ हर्ष की स्मृतियां पर जमती धूल की परत भी मोटी होती चली गई थी, मगर कहीं न कहीं उस के अवचेतन मन में हर्ष आज भी मौजूद था. शायद इसलिए भी वह राहुल को कभी दिल से प्यार नहीं कर पाई थी. राहुल सिर्फ उस के तन को ही छू पाया था, मन के दरवाजे पर न तो कभी राहुल ने दस्तक दी और न ही कभी आभा ने उस के लिए खोलने की कोशिश की.

जीटी में हर्ष को अचानक यों अपने सामने पा कर आभा को यकीन ही नहीं हुआ. हर्ष का भी लगभग यही हाल था.

‘‘कैसी हो आभा?’’ आखिर हर्ष ने ही चुप्पी तोड़ी.

‘तुम कौन होते हो यह पूछने वाले?’ आभा मन ही मन गुस्साई. फिर बोली, ‘‘अच्छी हूं… आप सुनाइए… अकेले हैं या आप की मैडम भी साथ हैं?’’ वह प्रत्यक्ष में बोली.

‘अभी तो अकेला ही हूं,’’ हर्ष ने अपने चिरपरिचित अंदाज में मुसकराते हुए कहा और आभा को कौफी पीने का औफर दिया. उस की मुसकान देख कर आभा का दिल जैसे  उछल कर बाहर आ गया.

‘कमबख्त यह मुसकान आज भी वैसी ही कातिल है,’ दिल ने कहा. लेकिन दिमाग ने सहज हो कर हर्ष का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया. पूरी शाम दोनों ने साथ बिताई.

थोड़ी देर तो दोनों में औपचारिक बातें हुईं. फिर एकएक कर के संकोच की दीवारें टूटने लगीं और देर रात तक गिलेशिकवे होते रहे. कभी हर्ष ने अपनी पलकें नम कीं तो कभी आभा ने. हर्ष ने अपनेआप को आभा का गुनहगार मानते हुए अपनी मजबूरियां बताईं… अपनी कायरता भी स्वीकार की… और यों बिना कहेसुने चले जाने के लिए उस से माफी भी मांगी…

आभा ने भी ‘‘जो हुआ… सो हुआ…’’ कहते हुए उसे माफ कर दिया. फिर डिनर के बाद विदा लेते हुए दोनों ने एकदूसरे को गले लगाया और अगले दिन शाम को फिर यहीं मिलने का वादा कर के दोनों अपनेअपने होटल की तरफ चल दिए.

अगले दिन बातचीत के दौरान हर्ष ने उसे बताया कि वह एक कंस्ट्रक्शन  कंपनी में साइट इंजीनियर है और इस सिलसिले में उसे महीने में लगभग 15-20 दिन घर से बाहर रहना पड़ता है और यह भी कि उस के 2 बच्चे हैं और वह अपनी शादीशुदा जिंदगी से काफी संतुष्ट है.

‘‘तुम अपनी लाइफ से संतुष्ट हो या खुश भी हो?’’ एकाएक आभा ने उस की आंखों में  झांका.

‘‘दोनों में क्या फर्क है?’’ हर्ष ने पूछा.

‘‘वक्त आने पर बताऊंगी,’’ आभा ने टाल दिया.

आभा की टे्रन रात 11 बजे की थी और हर्ष तब तक उस के साथ ही था. दोनों ने आगे भी टच में रहने का वादा करते हुए विदा ली.

अगले दिन कालेज पहुंचते ही आभा ने हर्ष को फोन किया. हर्ष ने जिस तत्परता से फोन उठाया उसे महसूस कर के आभा को हंसी आ गई.

‘‘फोन का इंतजार ही कर रहे थे क्या?’’ आभा हंसी तो हर्ष को भी अपने उतावलेपन पर आश्चर्य हुआ.

बातें करतेकरते कब 1 घंटा बीत गया, दोनों को पता ही नहीं चला. आभा की क्लास का टाइम हो गया, वह पीरियड लेने चली गई. वापस आते ही उस ने फिर हर्ष को फोन लगाया… और फिर वही लंबी बातें… दिन कैसे गुजर गया पता ही नहीं चला… देर रात तक दोनों व्हाट्सऐप पर औनलाइन रहे और सुबह उठते ही फिर वही सिलसिला…

अब तो यह रोज का नियम ही बन गया. न जाने कितनी बातें थीं उन के पास जो खत्म होने का नाम ही नहीं लेती थीं. कई बार तो ये होता था कि दोनों के पास ही कहने के लिए शब्द नहीं होते थे, मगर बस वे एकदूसरे से जड़े हुए हैं यही सोच कर फोन थामे रहते. इसी चक्कर में दोनों के कई जरूरी काम भी छूटने लगे. मगर न जाने कैसा नशा सवार था दोनों पर ही कि यदि 1 घंटा भी फोन पर बात न हो तो दोनों को ही बेचैनी होने लगती… ऐसी दीवानगी तो शायद उस कच्ची उम्र में भी नहीं थी जब उन के प्यार की शुरुआत हुई थी.

आभा को लग रहा था जैसे खोया हुआ प्यार फिर से उस के जीवन में दस्तक  दे रहा है, मगर हर्ष अब भी इस सचाई को जानते हुए भी यह स्वीकार करने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था कि उसे आभा से प्यार है.

‘‘हर्ष, तुम इस बात को स्वीकार क्यों नहीं कर लेते कि तुम्हें आज भी मु झ से प्यार है?’’ एक दिन आभा ने पूछा.

‘‘मैं अगर यह प्यार स्वीकार कर भी लूं तो क्या समाज इसे स्वीकार करने देगा? कौन इस बात का समर्थन करेगा कि मैं ने शादी किसी और से की है और प्यार तुम से करता हूं…’’ हर्ष ने कड़वा सच उस के सामने रखा.

‘‘शादी करना और प्यार करना दोनों अलगअलग बातें हैं हर्ष… जिसे चाहें शादी भी उसी से हो यह जरूरी नहीं… तो फिर यह जरूरी क्यों है कि जिस से शादी हो उसी को चाहा भी जाए?’’ आभा का तर्क भी अपनी जगह सही था.

‘‘चलो, माना कि यह जरूरी नहीं, मगर इस में हमारे जीवनसाथियों की क्या गलती है? उन्हें हमारी अधूरी चाहत की सजा क्यों मिले?’’ हर्ष अपनी बात पर अड़ा था.

‘‘हर्ष, मैं किसी को सजा देने की बात नहीं कर रही… हम ने अपनी सारी जिंदगी उन की खुशी के लिए जी है… क्या हमें अपनी खुशी के लिए जीने का अधिकार नहीं? वैसे भी अब हम उम्र की मध्यवय में आ चुके हैं, जीने लायक जिंदगी बची ही कितनी है हमारे पास… मैं कुछ लमहे अपने लिए जीना चाहती हूं… मैं तुम्हारे साथ जीना चाहती हूं… मैं महसूस करना चाहती हूं कि खुशी क्या होती है…’’ कहतेकहते आभा का स्वर भीग गया.

‘‘क्यों? क्या तुम अपनी लाइफ से अब तक खुश नहीं थी? क्या कमी है तुम्हें? सबकुछ तो है तुम्हारे पास…’’ हर्ष ने उसे टटोला.

‘‘खुश दिखना और खुश होना… दोनों में बहुत फर्क होता है हर्ष… तुम नहीं सम झोगे.’’ आभा ने जब कहा तो उस की आवाज की तरलता हर्ष ने भी महसूस की. शायद वह भी उस में भीग गया था. मगर सच का सामना करने की हिम्मत फिर भी नहीं जुटा पाया.

लगभग 10 महीने दोनों इसी  तरह सोशल मीडिया पर जुड़े रहे. रोज घंटों बात कर के भी उन की बातें खत्म होने का नाम ही नहीं लेती थीं. आभा की तड़प इतनी ज्यादा बढ़ चुकी थी कि अब वह हर्ष से प्रत्यक्ष मिलने के लिए बेचैन होने लगी, लेकिन हर्ष का व्यवहार अभी भी उस के लिए एक पहले बना हुआ था. कभी तो उसे लगता था जैसे हर्ष सिर्फ उसी का है और कभी वह एकदम बेगानों सा लगने लगता.

हर्ष के अपनेआप से तर्क अब तक भी जारी थे. वह 2 कदम आगे बढ़ता और अगले ही पल 4 कदम पीछे हट जाता. वह आभा का साथ तो चाहता था, मगर समाज में दोनों की ही प्रतिष्ठा को भी दांव पर नहीं लगाना चाहता था. उसे डर था कि कहीं ऐसा न हो वह एक बार मिलने के बाद आभा से दूर ही न रह पाए. फिर क्या करेगा वह? मगर आभा अब मन ही मन एक ठोस निर्णय ले चुकी थी.

4 मार्च आने वाला था. आभा ने हर्ष को याद दिलाया कि पिछले साल इसी दिन वे दोनों जयपुर में मिले थे. उस ने आखिर हर्षको यह दिन एकसाथ बिताने के लिए मना ही लिया और बहुत सोचविचार कर के दोनों ने फिर से उसी दिन उसी जगह मिलना तय किया.

हर्ष दिल्ली से टूर पर और आभा जोधपुर से कालेज के काम का बहाना बना कर सुबह ही जयपुर आ गई. होटल में पतिपत्नी की तरह रुके… पूरा दिन साथ बिताया. जीभर के प्यार किया और दोपहर ठीक 12 बजे आभा ने हर्ष को ‘हैप्पी एनिवर्सरी’ विश किया. उसी समय आभा ने अपने मोबाइल में अगले साल के लिए यह रिमाइंडर डाल लिया.

‘‘हर्ष खुशी क्या होती है, यह आज तुम ने मु झे महसूस करवाया. थैंक्स… अब अगर मैं मर भी जाऊं तो कोई गम नहीं…’’ रात को जब विदा लेने लगे तो आभा ने हर्ष को एक बार फिर चूमते हुए कहा.

‘‘मरें तुम्हारे दुश्मन… अभी तो हमारी जिंदगी से फिर से मुलाकात हुई है… सच आभा, मैं तो मशीन ही बन चुका था. मेरे दिल को फिर से धड़काने के लिए शुक्रिया. और हां, खुशी और संतुष्टि में फर्क महसूस करवाने के लिए भी…’’ हर्ष ने उस के चेहरे पर से बाल हटाते हुए कहा और फिर से उस की कमर में हाथ डाल कर उसे अपनी ओर खींच लिया.

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‘‘अब आशिकी छोड़ो…मेरी ट्रेन का टाइम हो रहा है…’’ आभा ने मुसकराते हुए हर्ष को अपनेआप से अलग किया. उसी शाम दोनों ने वादा किया कि हर साल 4 मार्च को वे दोनों इसी तरह… इसी जगह मिला करेंगे… उसी वादे के तहत आज भी दोनों यहां जयपुर आए थे और यह हादसा हो गया.

‘‘आभा, डाक्टर ने तुम्हारे डिस्चार्ज पेपर बना दिए… मैं टैक्सी ले कर आता हूं…’’ हर्ष ने धीरे से उसे जगाते हुए कहा.

‘कैसे वापस जाएगी अब वह जोधपुर? कैसे राहुल का सामना कर पाएगी? आभा फिर से भयभीत हो गई, मगर जाना तो पड़ेगा ही. जो होगा, देखा जाएगा…’ सोचते हुए आभा ने अपनी सारी हिम्मत को एकसाथ समेटने की कोशिश की और जोधपुर जाने के लिए अपनेआप को मानसिक रूप से तैयार करने लगी.

आभा ने राहुल को फोन कर के अपने ऐक्सीडैंट के बारे में बता दिया.

‘‘ज्यादा चोट तो नहीं आई?’’ राहुन ने सिर्फ इतना ही पूछा.

‘‘नहीं.’’

‘‘सरकारी हौस्पिटल में ही दिखाया था न… ये प्राइवेट वाले तो बस लूटने के मौके ही ढूंढ़ते हैं.’’

सुन कर आभा को कोई आश्चर्य नहीं हुआ. उसे राहुल से इसी तरह की उम्मीद थी.

आभा ने बहुत कहा कि वह अकेली ही जोधपुर चली जाएगी, मगर हर्ष ने उस की एक न सुनी और टैक्सी में उस के साथ जोधपुर चल पड़ा. आभा को हर्ष का सहारा ले कर उतरते देख राहुल का माथा ठनका.

‘‘ये मेरे पुराने दोस्त हैं… जयपुर में अचानक मिल गए,’’ आभा ने परिचय करवाते हुए कहा.

राहुल ने हर्ष में ज्यादा दिलचस्पी नहीं दिखाई. बोला, ‘‘टैक्सी से आने की क्या जरूरत थी? टे्रन से भी आ सकती थी,’’ टैक्सी वाले को किराया चुकाना राहुल को अच्छा नहीं लग रहा था.

‘‘आप रहने दीजिए… किराया मैं दे दूंगा…वापस भी जाना है न…’’ हर्ष ने उसे इस स्थिति से उबार लिया. आभा को जोधपुर छोड़ कर उसी टैक्सी से हर्ष लौट गया.

आभा 6 सप्ताह की बैड रैस्ट पर थी. दिन भर बिस्तर पर पड़ेपड़े उसे हर्ष से बातें करने के अलावा और कोई काम ही नहीं सू झता था. कभी जब हर्ष अपने प्रोजैक्ट में बिजी होता तो उस से बात नहीं कर पाता था. यह बात आभा को अखर जाती थी. वह फोन या व्हाट्सऐप पर मैसेज कर के अपनी नाराजगी जताती थी. फिर हर्ष उसे मनुहार कर के मनाता था.

आभा को उस का यों मनाना बहुत सुहाता था. वह मन ही मन प्रार्थना करती कि उन के रिश्ते को किसी की नजर न लग जाए.

ऐसे ही एक दिन वह अपने बैड पर लेटीलेटी हर्ष से बातें कर रही थी. उस ने अपनी  आंखें बंद कर रखी थीं. उसे पता ही नहीं चला कि राहुल कब से वहां खड़ा उस की बातें सुन रहा है.

‘‘बाय… लव यू…’’ कहते हुए फोन रखने के साथ ही जब राहुल पर उस की नजर पड़ी तो वह सकपका गई. राहुल की आंखों का गुस्सा उसे अंदर तक हिला गया. उसे लगा मानो आज उस की जिंदगी से खुशियों की विदाई हो गई.

‘‘किस से कहा जा रहा था ये सब?’’

‘‘जो उस दिन मु झे जयपुर से छोड़ने आया था यानी हर्ष,’’ आभा अब राहुल के सवालों के जवाब देने के लिए मानसिक रूप से तैयार हो चुकी थी.

‘‘तो तुम इसलिए बारबार जयपुर जाया करती थी?’’ राहुल अपने काबू में नहीं था.

आभा ने कोई जवाब नहीं दिया.

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‘‘अपनी नहीं तो कम से कम मेरी इज्जत का ही खयाल कर लेती… समाज में बात खुलेगी तो क्या होगा? कभी सोचा है तुम ने?’’ राहुल ने उस के चरित्र को निशाना बनाते हुए चोट की.

‘‘तुम्हारी इज्जत का खयाल था, इसीलिए तो बाहर मिली उस से वरना यहां… इस शहर में भी मिल सकती थी और समाज, किस समाज की बात करते हो तुम? किसे इतनी फुरसत है कि इतनी आपाधापी में मेरे बारे में कोई सोचे… मैं कितना सोचती हूं किसी और के बारे में और यदि कोई सोचता भी है तो 2 दिन सोच कर भूल जाएगा… वैसे भी लोगों की याददाश्त बहुत कमजोर होती है,’’ आभा ने बहुत ही संयत स्वर में कहा.

‘‘बच्चे क्या सोचेंगे तुम्हारे बारे में? उन का तो कुछ खयाल करो…’’ राहुल ने इस बार इमोशनल वार किया.

‘‘2-4 सालों में बच्चे भी अपनीअपनी जिंदगी में व्यस्त हो जाएंगे, फिर शायद वे वापस मुड़ कर भी इधर न आएं. राहुल. मैं ने सारी उम्र अपनी जिम्मेदारियां निभाई हैं… बिना तुम से कोईर् सवाल किए अपना हर फर्ज निभाया है, फिर चाहे वह पत्नी का हो अथवा मां का… अब मैं कुछ समय अपने लिए जीना चाहती हूं… क्या मु झे इतना भी अधिकार नहीं? आभा की आवाज लगभग भर्रा गई थी.

‘‘तुम पत्नी हो मेरी… मैं कैसे तुम्हें किसी और की बांहों में देख सकता हूं?’’ राहुल ने उसे  झक झोरते हुए कहा.’’

‘‘हां, पत्नी हूं तुम्हारी… मेरे शरीर पर तुम्हारा अधिकार है… मगर कभी सोचा है तुम ने कि मेरा मन आज तक तुम्हारा क्यों नहीं हुआ? तुम्हारे प्यार के छींटों से मेरे मन का आंगन क्यों नहीं भीगा? तुम चाहो तो अपने अधिकार का प्रयोग कर के मेरे शरीर को बंदी बना सकते हो… एक जिंदा लाश पर अपने स्वामित्व का हक जता कर अपने अहम को संतुष्ट कर सकते हो, मगर मेरे मन को तुम सीमाओं में नहीं बांध सकते… हर्ष के बारे में सोचने से नहीं रोक सकते…’’ आभा ने शून्य में ताकते हुए कहा.

‘‘अच्छा? क्या वह हर्ष भी तुम्हारे लिए इतना ही दीवाना है? क्या वह भी तुम्हारे लिए अपना सब कुछ छोड़ने को तैयार है?’’ राहुल ने व्यंग्य से कहा.

‘‘दीवानगी का कोई पैमाना नहीं होता… वह मेरे लिए किस हद तक जा सकता है यह मैं नहीं जानती, मगर मैं उस के लिए किसी भी हक तक जा सकती हूं,’’ आशा ने दृढ़ता से कहा.

‘‘अगर तुम ने इस व्यक्ति से अपना रिश्ता खत्म नहीं किया तो मैं उस के घर जा कर उस की सारी हकीकत बता दूंगा,’’ कहते हुए राहुल ने गुस्से में आ कर आभा के हाथ से मोबाइल छीन कर उसे जमीन पर पटक दिया. मोबाइल बिखर कर आभा के दिल की तरह टुकड़ेटुकड़े हो गया.

राहुल की आखिरी धमकी ने आभा को सचमुच ही डरा दिया था. वह नहीं  चाहती थी कि उस के कारण हर्ष की जिंदगी में कोई तूफान आए. वह अपनी खुशियों की इतनी बड़ी कीमत नहीं चुका सकती थी. उस ने मोबाइल के सारे पार्ट्स फिर से जोड़े और देखा तो पाया कि वह अभी भी चालू स्थिति में है.

‘‘शायद मेरे हिस्से नियति ने खुशी लिखी ही नहीं… मगर मैं तुम्हारी खुशियां नहीं निगलने दूंगी… तुम ने जो खूबसूरत यादें मु झे दी हैं उन के लिए तुम्हारा शुक्रिया…’’ एक आखिरी मैसेज उस ने हर्ष को लिखा और मोबाइल से सिम निकाल कर टुकड़ेटुकड़े कर दी.

उधर हर्ष को कुछ भी सम झ नहीं आया कि यह अचानक क्या हो गया. उस ने आभा को फोन लगाया, मगर फोन ‘स्विच्डऔफ’ था. फिर उस ने व्हाट्सऐप पर मैसेज छोड़ा, मगर वह भी अनसीन ही रह गया. अगले कई दिन हर्ष उसे फोन ट्राई करता रहा, मगर हर बार ‘स्विच्डऔफ’ का मैसेज पा कर निराश हो उठता. उस ने आभा को फेस बुक पर भी कौंटैक्ट करने की कोशिश की, लेकिन शायद आभा ने फेस बुक का अपना अकाउंट ही डिलीट कर दिया था. उस के किसी भी मेल का जवाब भी आभा की तरफ से नहीं आया.

एक बार तो हर्र्ष ने जोधपुर जा कर उस से मिलने का मन भी बनाया, मगर फिर यह सोच कर कि कहीं उस की वजह से स्थिति ज्यादा खरब न हो जाए… उस ने सबकुछ वक्त पर छोड़ कर अपने दिल पर पत्थर रख लिया और आभा को तलाश करना बंद कर दिया.

इस वाकेआ के बाद आभा ने अब मोबाइल रखना ही बंद कर दिया. राहुल के बहुत जिद करने पर भी उस ने नई सिम नहीं ली. बस कालेज से घर और घर से कालेज तक ही उस ने खुद को सीमित कर लिया. कालेज से भी जब मन उचटने लगा तो उस ने छुट्टियां लेनी शुरू कर दीं, मगर छुट्टियों की भी एक सीमा होती है. साल भर होने को आया. अब आभा अकसर ही विदआउट पे रहने लगी. धीरेधीरे वह गहरे अवसाद में चली गई. राहुल ने बहुत इलाज करवाया, मगर कोई फायदा नहीं हुआ.

अब राहुल भी चिड़चिड़ा सा होने लगा था. एक तो आभा की बीमारी ऊपर से उस की सैलरी भी नहीं आ रही थी. राहुल को अपने खर्चों में कटौती करनी पड़ रही थी जिसे वह सहन नहीं कर पा रहा था. पतिपत्नी जैसा भी कोई रिश्ता अब उन के बीच नहीं रहा था. यहां तक कि आजकल तो खाना भी अक्सर या तो राहुल को खुद बनाना पड़ता था या फिर बाहर से आता.

‘‘मरीज ने शायद खुद को खत्म करने की ठान ली है… जब तक यह खुद जीना नहीं चाहेंगी, कोई भी दवा या इलाज का तरीका इन पर कारगर नहीं हो सकता,’’ सारे उपाय करने के बाद अंत में डाक्टर ने भी हाथ खड़े कर दिए.

‘‘देखो, अब बहुत हो चुका… मैं अब तुम्हारे नाटक और नहीं सहन कर सकता… आज तुम्हारी प्रिंसिपल का फोन आया था. कह रहे थे कि तुम्हारे कालेज की तरफ से जयपुर में 5 दिन का एक ट्रेनिंग कैंप लग रहा है. अगर तुम ने उस में भाग नहीं लिया तो तुम्हारा इन्क्रीमैंट रुक सकता है. हो सकता है कि यह नौकरी ही हाथ से चली जाए. मेरी सम झ में नहीं आता कि तुम क्यों अच्छीभली नौकरी को लात मारने पर तुली हो… मैं ने तुम्हारी प्रिंसिपल से कह कर कैंप के लिए तुम्हारा नाम जुड़वा दिया है. 2 दिन बाद तुम्हें जयपुर जाना है,’’ एक शाम राहुल ने आभा से तलखी से कहा.

आभा ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी.

आभा के न चाहते हुए भी राहुल ने उसे ट्रेनिंग कैंप में भेज दिया.

‘‘यह लो अपना मोबाइल… इस में नई सिम डाल दी है. अपनी प्रिसिपल को फोन कर के कैंप जौइन करने की सूचना दे देना ताकि उसे तसल्ली हो जाए,’’ टे्रन में बैठाते समय राहुल ने कहा.

आभा ने एक नजर अपने पुराने टूटे मोबाइल पर डाली और फिर उसे पर्स में धकेलते हुए टे्रन की तरफ बढ़ गई. सुबह जैसे ही आभा की ट्रेन जयपुर स्टेशन पर पहुंची, वह यंत्रचलित सी नीचे उतरी और धीरेधीरे उस बैंच की तरफ बढ़ चली जहां हर्ष उसे बैठा मिला करता था. अचानक ही कुछ याद कर के आभा के आंसुओं का बांध टूट गया. वह उस बैंच पर बैठ कर फफक पड़ी. फिर अपनेआप को संभालते हुए उसी होटल की तरफ चल दी जहां वह हर्ष के साथ रुका करती थी. उसे दोपहर बाद 3 बजे कैंप में रिपोर्ट करनी थी.

संयोग से आभा आज भी उसी कमरे में ठहरी थी जहां उस ने पिछली दोनों बार हर्ष के साथ यादगार लमहे बिताए थे. वह कटे वृक्ष की तरह बिस्तर पर गिर पड़ी. उस ने रूम का दरवाजा तक बंद नहीं किया था.

तभी अचानक उस के पर्र्स में रखे मोबाइल में रिमाइंडर मैसेज बज उठा, ‘से हैप्पी ऐनिवर्सरी टू हर्ष’ देख कर आभा एक बार फिर सिसक उठी, ‘‘उफ्फ, आज 4 मार्च है.’’

अचानक 2 मजबूत हाथ पीछे से आ कर उस के गले के इर्दगिर्द लिपट गए. आभा ने अपना भीगा चेहरा ऊपर उठाया तो सामने हर्ष को देख कर उसे यकीन ही नहीं हुआ. वह उस से कस कर लिपट गई. हर्ष ने उस के गालों को चूमते हुए कहा, ‘हैप्पी ऐनिवर्सरी.’

आभा का सारा अवसाद आंखों के रास्ते बहता हुआ हर्ष की शर्ट को भिगोने लगा. वह सबकुछ भूल कर उस के चौड़े सीने में सिमट गई.

रूह का स्पंदन: क्या थी दीक्षा के जीवन की हकीकत

‘‘डूयू बिलीव इन वाइब्स?’’ दक्षा द्वारा पूरे गए इस सवाल पर सुदेश चौंका. उस के चेहरे के हावभाव तो बदल ही गए, होंठों पर हलकी मुसकान भी तैर गई. सुदेश का खुद का जमाजमाया कारोबार था. वह सुंदर और आकर्षक युवक था. गोरा चिट्टा, लंबा, स्लिम,

हलकी दाढ़ी और हमेशा चेहरे पर तैरती बाल सुलभ हंसी. वह ऐसा लड़का था, जिसे देख कर कोई भी पहली नजर में ही आकर्षित हो जाए. घर में पे्रम विवाह करने की पूरी छूट थी, इस के बावजूद उस ने सोच रखा था कि वह मांबाप की पसंद से ही शादी करेगा.

सुदेश ने एकएक कर के कई लड़कियां देखी थीं. कहीं लड़की वालों को उस की अपार प्यार करने वाली मां पुराने विचारों वाली लगती थी तो कहीं उस का मन नहीं माना. ऐसा कतई नहीं था कि वह कोई रूप की रानी या देवकन्या तलाश रहा था. पर वह जिस तरह की लड़की चाहता था, उस तरह की कोई उसे मिली ही नहीं थी.

सुदेश का अलग तरह का स्वभाव था. उस की सीधीसादी जीवनशैली थी, गिनेचुने मित्र थे. न कोई व्यसन और न किसी तरह का कोई महंगा शौक. वह जितना कमाता था, उस हिसाब से उस के कपड़े या जीवनशैली नहीं थी. इस बात को ले कर वह हमेशा परेशान रहता था कि आजकल की आधुनिक लड़कियां उस के घरपरिवार और खास कर उस के साथ व्यवस्थित हो पाएंगी या नहीं.

अपने मातापिता का हंसताखेलता, मुसकराता, प्यार से भरपूर दांपत्य जीवन देख कर पलाबढ़ा सुदेश अपनी भावी पत्नी के साथ वैसे ही मजबूत बंधन की अपेक्षा रखता था. आज जिस तरह समाज में अलगाव बढ़ रहा है, उसे देख कर वह सहम जाता था कि अगर ऐसा कुछ उस के साथ हो गया तो…

सुदेश की शादी को ले कर उस की मां कभीकभी चिंता करती थीं लेकिन उस के पापा उसे समझाते रहते थे कि वक्त के साथ सब ठीक हो जाएगा. सुदेश भी वक्त पर भरोसा कर के आगे बढ़ता रहा. यह सब चल रहा था कि उस से छोटे उस के चचेरे भाई की सगाई का निमंत्रण आया. इस से सुदेश की मां को लगा कि उन के बेटे से छोटे लड़कों की शादी हो रही हैं और उन का हीरा जैसा बेटा किसी को पता नहीं क्यों दिखाई नहीं देता.

चिंता में डूबी सुदेश की मां ने उस से मेट्रोमोनियल साइट पर औनलाइन रजिस्ट्रेशन कराने को कहा. मां की इच्छा का सम्मान करते हुए सुदेश ने रजिस्ट्रेशन करा दिया. एक दिन टाइम पास करने के लिए सुदेश साइट पर रजिस्टर्ड लड़कियों की प्रोफाइल देख रहा था, तभी एक लड़की की प्रोफाइल पर उस की नजर ठहर गई.

ज्यादातर लड़कियों ने अपनी प्रोफाइल में शौक के रूप में डांसिंग, सिंगिंग या कुकिंग लिख रखा था. पर उस लड़की ने अपनी प्रोफाइल में जो शौक लिखे थे, उस के अनुसार उसे ट्रैवलिंग, एडवेंचर ट्रिप्स, फूडी का शौक था. वह बिजनैस माइंडेड भी थी.

उस की हाइट यानी ऊंचाई भी नौर्मल लड़कियों से अधिक थी. फोटो में वह काफी सुंदर लग रही थी. सुदेश को लगा कि उसे इस लड़की के लिए ट्राइ करना चाहिए. शायद लड़की को भी उस की प्रोफाइल पसंद आ जाए और बात आगे बढ़ जाए. यही सोच कर उस ने उस लड़की के पास रिक्वेस्ट भेज दी.

सुदेश तब हैरान रह गया, जब उस लड़की ने उस की रिक्वेस्ट स्वीकार कर ली. हिम्मत कर के उस ने साइट पर मैसेज डाल दिया. जवाब में उस से फोन नंबर मांगा गया. सुदेश ने अपना फोन नंबर लिख कर भेज दिया. थोड़ी ही देर में उस के फोन की घंटी बजी. अनजान नंबर होने की वजह से सुदेश थोड़ा असमंजस में था. फिर भी उस ने फोन रिसीव कर ही लिया.

दूसरी ओर से किसी संभ्रांत सी महिला ने अपना परिचय देते हुए कहा, ‘‘मैं दक्षा की मम्मी बोल रही हूं. आप की प्रोफाइल मुझे अच्छी लगी, इसलिए मैं चाहती हूं कि आप अपना बायोडाटा और कुछ फोटोग्राफ्स इसी नंबर पर वाट्सऐप कर दें.’’

सुदेश ने हां कह कर फोन काट दिया. उस के लिए यह सब अचानक हो गया था. इतनी जल्दी जवाब आ जाएगा और बात भी हो जाएगी, सुदेश को उम्मीद नहीं थी. सोचविचार छोड़ कर उस ने अपना बायोडाटा और फोटोग्राफ्स वाट्सऐप कर दिए.

फोन रखते ही दक्षा ने मां से पूछा, ‘‘मम्मी, लड़का किस तरह बातचीत कर रहा था? अपने ही इलाके की भाषा बोल रहा था या किसी अन्य प्रदेश की भाषा में बात कर रहा था?’’

‘‘बेटा, फिलहाल वह दिल्ली में रह रहा है और दिल्ली में तो सभी प्रदेश के लोग भरे पड़े हैं. यहां कहां पता चलता है कि कौन कहां का है. खासकर यूपी, मध्य प्रदेश, उत्तराखंड और राजस्थान वाले तो अच्छी हिंदी बोल लेते हैं.’’ मां ने बताया.

‘‘मम्मी, मैं तो यह कह रही थी कि यदि वह अपने ही क्षेत्र का होता तो अच्छा रहता.’’ दक्षा ने मन की बात कही. लड़का गढ़वाली ही नहीं, अपने इलाके का ही है. मां ने बताया तो दक्षा खुश हो उठी.

दक्षा मां से बातें कर रही थी कि उसी समय वाट्सऐप पर मैसेज आने की घंटी बजी. दक्षा ने फटाफट बायोडाटा और फोटोग्राफ्स डाउनलोड किए. बायोडाटा परफेक्ट था. दक्षा की तरह सुदेश भी अपने मांबाप की एकलौती संतान था. न कोई भाई न कोई बहन. दिल्ली में उस का जमाजमाया कारोबार था. खाने और ट्रैवलिंग का शौक. वाट्सऐप पर आए फोटोग्राफ्स में एक दाढ़ी वाला फोटो था.

दक्षा को जो चाहिए था, वे सारे गुण तो सुदेश में थे. पर दक्षा खुश नहीं थी. उस के परिवार में जो घटा था, उसे ले कर वह परेशान थी. उसे अपनी मर्यादाओं का भी पता था. साथ ही स्वभाव से वह थोड़ी मूडी और जिद्दी थी. पर समय और संयोग के हिसाब से धीरगंभीर और जिम्मेदारी भी थी.

दक्षा का पालनपोषण एक सामान्य लड़की से हट कर हुआ था. ऐसा नहीं करते, वहां नहीं जाते, यह नहीं बोला जाता, तुम लड़की हो, लड़कियां रात में बाहर नहीं जातीं. जैसे शब्द उस ने नहीं सुने थे, उस के घर का वातावरण अन्य घरों से कदम अलग था. उस की देखभाल एक बेटे से ज्यादा हुई थी. घर के बिजली के बिल से ले कर बैंक से पैसा निकालने, जमा करने तक का काम वह स्वयं करती थी.

दक्षा की मां नौकरी करती थीं, इसलिए खाना बनाना और घर के अन्य काम करना वह काफी कम उम्र में ही सीख गई थी. इस के अलावा तैरना, घुड़सवारी करना, कराटे, डांस करना, सब कुछ उसे आता था. नौकरी के बजाए उसे बिजनैस में रुचि ही नहीं, बल्कि सूझबूझ भी थी. वह बाइक और कार दोनों चला लेती थी. जयपुर और नैनीताल तक वह खुद गाड़ी चला कर गई थी. यानी वह एक अच्छी ड्राइवर थी.

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दक्षा को पढ़ने का भी खासा शौक था. इसी वजह से वह कविता, कहानियां, लेख आदि भी लिखती थी. एकदम स्पष्ट बात करती थी, चाहे किसी को अच्छी लगे या बुरी. किसी प्रकार का दंभ नहीं, लेकिन घरपरिवार वालों को वह अभिमानी लगती थी. जबकि उस का स्वभाव नारियल की तरह था. ऊपर से एकदम सख्त, अंदर से मीठी मलाई जैसा.

उस की मित्र मंडली में लड़कियों की अपेक्षा लड़के अधिक थे. इस की वजह यह थी कि लिपस्टिक या नेल पौलिश के बारे में बेकार की चर्चा करने के बजाय वह वहां उठनाबैठना चाहती थी, जहां चार नई बातें सुननेसमझने को मिलें. वह ऐसी ही मित्र मंडली पसंद करती थीं. उस के मित्र भी दिलवाले थे, जो बड़े भाई की तरह हमेशा उस के साथ खड़े रहते थे.

सब से खास मित्र थी दक्षा की मम्मी, दक्षा उन से अपनी हर बात शेयर करती थी. कोई उस से प्यार का इजहार करता तो यह भी उस की मम्मी को पता होता था. मम्मी से उस की इस हद तक आत्मीयता थी. रूप भी उसे कम नहीं मिला था. न जाने कितने लड़के सालों तक उस की हां की राह देखते रहे.

पर उस ने निश्चय कर लिया था कि कुछ भी हो, वह प्रेम विवाह नहीं करेगी. इसीलिए उस की मम्मी ने बुआ के कहने पर मेट्रोमोनियल साइट पर उस की प्रोफाइल डाल दी थी. जबकि अभी वह शादी के लिए तैयार नहीं थी. उस के डर के पीछे कई कारण थे.

सुदेश और दक्षा के घर वाले चाहते थे कि पहले दोनों मिल कर एकदूसरे को देख लें. बातें कर लें और कैसे रहना है, तय कर लें. क्योंकि जीवन तो उन्हें ही साथ जीना है. उस के बाद घर वाले बैठ कर शादी तय कर लेंगे.

घर वालों की सहमति से दोनों को एकदूसरे के मोबाइल नंबर दे दिए गए. उसी बीच सुदेश को तेज बुखार आ गया, इसलिए वह घर में ही लेटा था. शाम को खाने के बाद उस ने दक्षा को मैसेज किया. फोन पर सीधे बात करने के बजाय उस ने पहले मैसेज करना उचित समझा था.

काफी देर तक राह देखने के बाद दक्षा का कोई जवाब नहीं आया. सुदेश ने दवा ले रखी थी, इसलिए उसे जब थोड़ा आराम मिला तो वह सो गया. रात करीब साढ़े 10 बजे शरीर में दर्द के कारण उस की आंखें खुलीं तो पानी पी कर उस ने मोबाइल देखा. उस में दक्षा का मैसेज आया हुआ था. मैसेज के अनुसार, उस के यहां मेहमान आए थे, जो अभीअभी गए हैं.

सुदेश ने बात आगे बढ़ाई. औपचारिक पूछताछ करतेकरते दोनों एकदूसरे के शौक पर आ गए. यह हैरानी ही थी कि दोनों के अच्छेबुरे सपने, डर, कल्पनाएं, शौक, सब कुछ काफी हद इस तरह से मेल खा रहे थे, मानो दोनों जुड़वा हों. घंटे, 2 घंटे, 3 घंटे हो गए. किसी भी लड़की से 10 मिनट से ज्यादा बात न करने वाला सुदेश दक्षा से बातें करते हुए ऐसा मग्न हो गया कि उस का ध्यान घड़ी की ओर गया ही नहीं, दूसरी ओर दक्ष ने भी कभी किसी से इतना लगाव महसूस नहीं किया था.

सुदेश और दक्षा की बातों का अंत ही नहीं हो रहा था. दोनों सुबह 7 बजे तक बातें करते रहे. दोनों ने बौलीवुड हौलीवुड फिल्मों, स्पोर्ट्स, पौलिटिकल व्यू, समाज की संरचना, स्पोर्ट्स कार और बाइक, विज्ञान और साहित्य, बच्चों के पालनपोषण, फैमिली वैल्यू सहित लगभग सभी विषयों पर बातें कर डालीं. दोनों ही काफी खुश थे कि उन के जैसा कोई तो दुनिया में है. सुबह हो गई तो दोनों ने फुरसत में बात करने को कह कर एकदूसरे से विदा ली.

घर वालों की सहमति पर सुदेश और दक्षा ने मिल कर बातें करने का निश्चय किया. सुदेश सुबह ही मिलना चाहता था, लेकिन दक्षा ने ब्रेकफास्ट कर के मिलने की बात कही. क्योंकि वह पूजापाठ कर के ही ब्रेकफास्ट करती थी. सुदेश में दक्षा से मिलने के लिए गजब का उत्साह था. दक्षा की बातों और उस के स्वभाव ने आकर्षण तो पैदा कर ही दिया था. इस के अलावा दक्षा ने अपने जीवन की कुछ महत्त्वपूर्ण बातें मिल कर बताने को कहा था. वो बातें कौन सी थीं, सुदेश उन बातों को भी जानना चाहता था.

निश्चित की गई जगह पर सुदेश पहले ही पहुंच गया था. वहां पहुंच कर वह बेचैनी से दक्षा की राह देख रहा था. वह काले रंग की शर्ट और औफ वाइट कार्गो पैंट पहन कर गया था. रेस्टोरेंट में बैठ कर वह हैडफोन से गाने सुनने में मशगूल हो गया. दक्षा ने काला टौप पहना था, जिस के लिए उस की मम्मी ने टोका भी था कि पहली बार मिलने जा रही है तो जींस टौप, वह भी काला.

तब दक्षा ने आदत के अनुसार लौजिकल जवाब दिया था, ‘‘अगर मैं सलवारसूट पहन कर जाती हूं और बाद में उसे पता चलता है कि मैं जींस टौप भी पहनती हूं तो यह धोखा देने वाली बात होगी. और मम्मी इंसान के इरादे नेक हों तो रंग से कोई फर्क नहीं पड़ता.’’

तर्क करने में तो दक्षा वकील थी. बातों में उस से जीतना आसान नहीं था. वह घर से निकली और तय जगह पर पहुंच गई. सढि़यां चढ़ कर दरवाजा खोला और रेस्टोरेंट में अंदर घुसी. फोटो की अपेक्षा रियल में वह ज्यादा सुंदर और मस्ती में गाने के साथ सिर हिलाती हुई कुछ अलग ही लग रही थी.

अचानक सुदेश की नजर दक्षा पर पड़ी तो दोनों की नजरें मिलीं. ऐसा लगा, दोनों एकदूसरे को सालों से जानते हों और अचानक मिले हों. दोनों के चेहरों पर खुशी छलक उठी थी.

खातेपीते दोनों के बीच तमाम बातें हुईं. अब वह घड़ी आ गई, जब दक्षा अपने जीवन से जुड़ी महत्त्वपूर्ण बातें उस से कहने जा रही थी. वहां से उठ कर दोनों एक पार्क में आ गए थे, जहां दोनों कोने में पेड़ों की आड़ में रखी एक बेंच पर बैठ गए. दक्षा ने बात शुरू की, ‘‘मेरे पापा नहीं हैं, सुदेश. ज्यादातर लोगों से मैं यही कहती हूं कि अब वह इस दुनिया में नहीं है, पर यह सच नहीं है. हकीकत कुछ और ही है.’’

इतना कह कर दक्षा रुकी. सुदेश अपलक उसे ही ताक रहा था. उस के मन में हकीकत जानने की उत्सुकता भी थी. लंबी सांस ले कर दक्षा ने आगे कहा, ‘‘जब मैं मम्मी के पेट में थी, तब मेरे पापा किसी और औरत के लिए मेरी मम्मी को छोड़ कर उस के साथ रहने के लिए चले गए थे.

‘‘लेकिन अभी तक मम्मीपापा के बीच डिवोर्स नहीं हुआ है. घर वालों ने मम्मी से यह कह कर उन्हें अबार्शन कराने की सलाह दी थी कि उस आदमी का खून भी उसी जैसा होगा. इस से अच्छा यही होगा कि इस से छुटकारा पा कर दूसरी शादी कर लो.’’

दक्षा के यह कहते ही सुदेश ने उस की तरफ गौर से देखा तो वह चुप हो गई. पर अभी उस की बात पूरी नहीं हुई थी, इसलिए उस ने नजरें झुका कर आगे कहा, ‘‘पर मम्मी ने सभी का विरोध करते हुए कहा कि जो कुछ भी हुआ, उस में पेट में पल रहे इस बच्चे का क्या दोष है. यानी उन्होंने गर्भपात नहीं कराया. मेरे पैदा होने के बाद शुरू में कुछ ही लोगों ने मम्मी का साथ दिया. मैं जैसेजैसे बड़ी होती गई, वैसेवैसे सब शांत होता गया.

‘‘मेरा पालनपोषण एक बेटे की तरह हुआ. अगलबगल की परिस्थितियां, जिन का अकेले मैं ने सामना किया है, उस का मेरी वाणी और व्यवहार में खासा प्रभाव है. मैं ने सही और गलत का खुद निर्णय लेना सीखा है. ठोकर खा कर गिरी हूं तो खुद खड़ी होना सीखा है.’’

अपनी पलकों को झपकाते हुए दक्षा आगे बोली, ‘‘संक्षेप में अपनी यह इमोशनल कहानी सुना कर मैं आप से किसी तरह की सांत्वना नहीं पाना चाहती, पर कोई भी फैसला लेने से पहले मैं ने यह सब बता देना जरूरी समझा.

‘‘कल कोई दूसरा आप से यह कहे कि लड़की बिना बाप के पलीबढ़ी है, तब कम से कम आप को यह तो नहीं लगेगा कि आप के साथ धोखा हुआ है. मैं ने आप से जो कहा है, इस के बारे में आप आराम से घर में चर्चा कर लें. फिर सोचसमझ कर जवाब दीजिएगा.’’

सुदेश दक्षा की खुद्दारी देखता रह गया. कोई मन का इतना साफ कैसे हो सकता है, उस की समझ में नहीं आ रहा था. अब तक दोनों को भूख लग आई थी. सुदेश दक्षा को साथ ले कर नजदीक की एक कौफी शौप में गया. कौफी का और्डर दे कर दोनों बातें करने लगे तभी अचानक दक्षा ने पूछा था, ‘‘डू यू बिलीव इन वाइब्स?’’

सुदेश क्षण भर के लिए स्थिर हो गया. ऐसी किसी बात की उस ने अपेक्षा नहीं की थी. खासकर इस बारे में, जिस में वह पूरी तरह से भरोसा करता हो. वाइब्स अलौकिक अनुभव होता है, जिस में घड़ी के छठें भाग में आप के मन को अच्छेबुरे का अनुभव होता है. किस से बात की जाए, कहां जाया जाए, बिना किसी वजह के आनंद न आए और इस का उलटा एकदम अंजान व्यक्ति या जगह की ओर मन आकर्षित हो तो यह आप के मन का वाइब्स है.

यह कभी गलत नहीं होता. आप का अंत:करण आप को हमेशा सच्चा रास्ता सुझाता है. दक्षा के सवाल को सुन कर सुदेश ने जीवन में एक चांस लेने का निश्चय किया. वह जो दांव फेंकने जा रहा था, अगर उलटा पड़ जाता तो दक्षा तुरंत मना कर के जा सकती थी. क्योंकि अब तक की बातचीत से यह जाहिर हो गया था. पर अगर सब ठीक हो गया तो सुदेश का बेड़ा पार हो जाएगा.

सुदेश ने बेहिचक दक्षा से उस का हाथ पकड़ने की अनुमति मांगी. दक्षा के हावभाव बदल गए. सुदेश की आंखों में झांकते हुए वह यह जानने की कोशिश करने लगी कि क्या सोच कर उस ने ऐसा करने का साहस किया है. पर उस की आंखो में भोलेपन के अलावा कुछ दिखाई नहीं दिया. अपने स्वभाव के विरुद्ध उस ने सुदेश को अपना हाथ पकड़ने की अनुमति दे दी.

दोनों के हाथ मिलते ही उन के रोमरोम में इस तरह का भाव पैदा हो गया, जैसे वे एकदूसरे को जन्मजन्मांतर से जानते हों. दोनों अनिमेष नजरों से एकदूसरे को देखते रहे. लगभग 5 मिनट बाद निर्मल हंसी के साथ दोनों ने एकदूसरे का हाथ छोड़ा. दोनों जो बात शब्दों में नहीं कह सके, वह स्पर्श से व्यक्त हो गई.

जाने से पहले सुदेश सिर्फ इतना ही कह सका, ‘‘तुम जो भी हो, जैसी भी हो, किसी भी प्रकार के बदलाव की अपेक्षा किए बगैर मुझे स्वीकार हो. रही बात तुम्हारे पिछले जीवन के बारे में तो वह इस से भी बुरा होता तब भी मुझ पर कोई फर्क नहीं पड़ता. बाकी अपने घर वालों को मैं जानता हूं. वे लोग तुम्हें मुझ से भी अधिक प्यार करेंगे. मैं वचन देता हूं कि बचपन से ले कर अब तक अधूरे रह गए सपनों को मैं हकीकत का रंग देने की कोशिश करूंगा.’’

सुदेश और दक्षा के वाइब्स ने एकदूसरे से संबंध जोड़ने की मंजूरी दे दी थी.

कुछ मत लाना प्रिय: रश्मि की सास ने कौनसी बात बताई थी

अजय ने टूअर पर जाते हुए हमेशा की तरह मुझे किस किया. बंदा आज भी रोमांटिक तो बहुत है पर मैं उस बात से मन ही मन डर रही थी जिस बात से शादी के पिछले 10 सालों से आज भी डरती हूं जब भी वे टूअर पर निकलते हैं. मेरा डर हमेशा की तरह सच साबित हुआ, वे बोले, ”चलता हूं डार्लिंग, 5 दिनों बाद आ जाऊंगा. बोलो, हैदराबाद से तुम्हारे लिए क्या लाऊं?”

मैं बोल पङी, ”नहीं, प्लीज कुछ मत लाना, डिअर.”

पर क्या कभी कह पाई हूं, फिर भी एक कोशिश की और कहा, ‘’अरे नहीं, कुछ मत लाना, अभी बहुत सारे कपड़े पङे हैं जो पहने ही नहीं हैं.’’

‘’ओह, रश्मि, तुम जानती हो न कि जब भी मैं टूअर पर जाता हूं, तुम्हारे लिए कुछ जरूर लाता हूं, मुझे अच्छा लगता है तुम्हारे लिए कुछ लाना.’’

थोङा प्यार और रोमांस के साथ (टूअर पर जाते हुए पति पर प्यार तो बहुत आ रहा होता है ) मैं ने भी अजय को भेज कर अपनी अलमारी खोली. यों ही ऊपरी किनारे में रखे कपड़ों का और बाकी कुछ चीजों का वही ढेर उठा लिया जो अजय पिछले कुछ सालों में टूअर से लाए थे. इस में कोई शक नहीं कि अजय मुझे प्यार करते हैं पर मुश्किल थोड़ी यह है कि अजय और मेरी पसंद थोड़ी अलगअलग है.

अजय हमेशा मेरे लिए कुछ लाते हैं. कोई भी पत्नी इस बात पर मुझ से जल सकती है. सहेलियां जलती भी हैं, साफसाफ आहें भी भरती हैं कि हाय, उन के पति तो कभी नहीं लाते ऐसे गिफ्ट्स. हर बार इस बात पर खुश मैं भी होती हूं पर परेशानी यह है कि अजय जो चीजें लाते हैं, अकसर मेरी पसंद की नहीं होतीं.

अब यह देखिए, यह जो ब्राउन कलर की साड़ी है, इस का बौर्डर देख रहे हैं कि कितना चौड़ा है. यह मुझे पसंद ही नहीं है और सब से बड़ी बात यह कि ब्राउन कलर ही नहीं पसंद है. अजीब सा लगता है यह पीला सूट. इतना पीला? मुझे खुद ही आंखों में चुभता है, औरों की क्या कहूं.

अजय को ब्राइट कलर पसंद है. कहते हैं कि तुम कितनी गोरी हो… तुम पर तो हर रंग अच्छा लगता है. मैं मन ही मन सोचती हूं कि हां, ठीक है, प्रिय, गोरी हूं तो कभी मेरे लिए मेरे फैवरिट ब्लू, व्हाइट, ब्लैक, रैड कलर भी तो लाओ. मुझ पर तो वे रंग भी बहुत अच्छे लगते हैं. और अभी तो अजय ने एक नया काम शुरू किया है. वह अपनेआप को इस आइडिया के लिए शाबाशी देते हैं, अब वह टूअर पर फ्री टाइम मिलते ही जब मेरे लिए शौपिंग के लिए किसी कपड़े की शौप पर जाते हैं, वीडिओ कौल करते हैं, कहते हैं कि मैं तुम्हें कपड़े दिखा रहा हूं तो तुम ही बताओ तुम्हें क्या चाहिए? मैं ने इस बात पर राहत की थोड़ी सांस ली पर यह भी आसान नहीं था.

पिछले टूअर पर अजय जब मेरे लिए रैडीमैड कुरती लेने गए, दुकानदार को ही फोन पकड़ा दिया कि इसे बता दो तुम्हें. मैं ने बताना शुरू किया कि कोई प्लेन ब्लू कलर की कुरती है?

”हां जी, मैडम, बिलकुल है.”

फिर वह कुरतियां दिखाने लगा. साइज समझने में थोड़ी दिक्कत उसे भी हुई और समझाने में मुझे भी. अजय को मैं ने व्हाट्सऐप पर मैसेज भी भेजे कि अभी न लें, साइज समझ नहीं आ रहा है, उन का रिप्लाई आया कि सही करवा लेना. एक कुरती लिया गया, फिर अजय हैदराबाद में वहां के फेमस पर्ल सैट लेने गए. मैं यहां दिल्ली में बैठीबैठी इस बात पर नर्वस थी कि क्या खरीदा जाएगा.

मैं बोली जा रही थी कि पहले वाले भी रखे हैं अभी तो. न खरीदो पर पत्नी प्रेम में पोरपोर डूबे हैं अजय. आप लोग मुझे पति के लाए उपहारों की कद्र न करने वाली पत्नी कतई न समझें. बस, जिस बात से घबराती हूं, वह है पसंद में फर्क.

रास्ते से अजय ने फोन किया, ”किस तरह का सैट लाऊं?”

”बहुत पतला सा, जिस में कोई बड़ा डिजाइन न हो, बस छोटेछोटे व्हाइट मोतियों की पतली सी माला और साथ में छोटी कान की बालियां, जो मैं कभी भी पहन पाऊं.’’

मैं ने काफी अच्छी तरह से अपनी पसंद बता दी थी. अगले दिन सुबह ही अजय को वापस आना था. हमारे दोनों बच्चों के लिए भी वे वहां से करांची बिस्कुट और वहां की मिठाई भी लाने वाले थे. अजय को दरअसल सब के लिए ही कुछ न कुछ लाने का शौक है. यह शौक शायद उन्हें अपने पिताजी से मिला है.

ससुरजी भी जब घर आते, कुछ न कुछ जरूर लाया करते. कभी किसी के लिए, तो कभी किसी के लिए कुछ लाने की उन की प्यारी सी आदत थी. सासूमां हमेशा इस बात को गर्व से बताया करतीं.

उन्होंने मुझे भी एक बार हिंट दिया, ”तुम्हारे ससुरजी को मेरे लिए कुछ लाने की आदत है. यह अलग बात है कि कभी मुझे उन की लाई चीजें कभी पसंद आती हैं, तो कभी नहीं, पर जिस प्यार से लाते हैं, बस उस प्यार की कद्र करते हुए मैं भी उन की लाई चीजें देखदेख कर थोड़ा चहकने की ऐक्टिंग कर लेती हूं जिस से वे खुश हो जाएं. तो बहू, जब भी अजय कुछ लाए, पसंद न भी हो तो खुश हो कर दिखाना,” हम दोनों इस बात पर बहुत देर तक हंसी थीं और इस बात पर जीभर कर हंसने के बाद हमारी बौंडिंग बहुत अच्छी हो गई थी.

सासूमां तो बहुत ही खुश हो गई थीं जब उन्हें समझ आया कि हम दोनों एक ही कश्ती में सवार हैं, कभी मूड में होतीं तो ससुरजी की अनुपस्थिति में अपनी अलमारी खोल कर दिखातीं, ”यह देखो, बहू, यह जितनी भी गुलाबी छटा बिखरी देख रही हो मेरे कपड़ों में, सब गुलाबी कपड़े तुम्हारे ससुरजी के लाए हुए हैं. उन्हें गुलाबी रंग बहुत पसंद हैं. वे जीवनभर मेरे लिए जो भी लाए, सब गुलाबी ही लाए. सहेलियां, रिश्तेदार गुलाबी रंग में ही मुझे देखदेख कर बोर हो गए पर तुम्हारे ससुरजी ने अपनी पसंद न छोड़ी. गुलाबी ढेर लगता रहा एक कोने में.”

मैं बहुत हंसी थी उस दिन, पर मैं ने प्यारी सासूमां की बात जरूर गांठ से बांध ली थी कि अजय जो भी लाते हैं, मैं ऐसी ऐक्टिंग करती हूं कि वे खुद को ही शाबाशी देने लगते हैं कि कितनी अच्छी चीज लाए हैं मेरे लिए. मुझे तो कुछ भी खरीदने की जरूरत ही नहीं पड़ती. ऐक्टिंग का अच्छा आइडिया दे गईं सासूमां. आज अगर वे होतीं तो अपनी चेली को देख खुश होतीं.

यह अलग बात है कि मैं अजय को यह नहीं समझा पाई कभी कि जब इतने नए कपड़े रखे रहते हैं तो मैं बीचबीच में अपनी पसंद का बहुत कुछ क्यों खरीदती रहती हूं. कुछ भी कहें लोग, पति होते तो हैं भोलेभाले और आसानी से आ जाते हैं बातों में. तभी तो आजतक जान नहीं पाए कि मैं खुद भी क्यों खरीदती रहती हूं बहुत कुछ.

दरअसल, मैं वह गलती भी नहीं करना चाहती जो मेरी अजीज दोस्त रीता ने की थी. उस ने शादी के बाद अपने पति की लाई हुई चीजें देख कर उन्हें साफसाफ समझा दिया कि दोनों की पसंद में काफी फर्क है. उसे उन का लाया कुछ पसंद नहीं आएगा तो पैसे बेकार जाएंगे. वह अपनी पसंद की ही चीजें खरीदना पसंद करती है और वे उस के लिए कुछ न लाया करें. वह जो भी खरीदेगी, आखिर होगा तो उन का ही पैसा, तो उन पति पत्नी में यहां बात ही खत्म हो गई.

जीवनभर का टंटा एक बात में साफ. पर मैं ने देखा है कि जब भी उस का फ्रैंड सर्किल उस से पूछता है कि भाई साहब ने क्या गिफ्ट दिया या क्या लाए, तो उस का चेहरा उतरता तो है, क्योंकि उन के पति ने भी उन की बात पर ध्यान दे कर फिर कभी न उन पर अपना पैसा वैस्ट किया, न ही समय. मतलब पति के लाए उपहारों में बात तो है.

खैर, रात को बच्चे खुश थे कि पापा उन के लिए जरूर कुछ लाएंगे. मैं हमेशा की तरह उन के आने पर तो खुश थी पर कुछ लाने पर तो डरी ही हुई थी, जब सुबह बच्चे अपनी चीजों में खुश थे.

अजय ने किसी फिल्मी हीरो की तरह पर्ल सैट का बौक्स मुझे देते हुए रोमांटिक नजरों से देखते हुए कहा, ”अभी पहन कर दिखाओ, रश्मि.”

मैं ने बौक्स खोला, खूब बड़ेबड़े मोतियों की माला, बड़ा सा हरा पेडैंट, कंधे तक लटकने वाली कान खी बालियां, खूब भारीभरकम सा सैट. शायद मेरे चेहरे का रंग उड़ा होगा जो अजय पूछ रहे थे, ”क्या हुआ? पसंद नहीं है?”

”अरे, नहींनहीं, यह तो बहुत ही जबरदस्त है,” मुझे सासूमां की बात सही समय पर याद आई तो मैं ने कहा.

”थैंक यू,’’ कहते हुए मैं मुसकरा दी. मैं ने बौक्स अलमारी में रखा, वे फ्रैश होने चले गए. मैं ने उन के सामने चाय रखते हुए टूअर की बातें पूछीं और साथ में लगे हाथ पूरी चालाकी से यह भी कहा, ”बहुत भारी सैट ले आए. कोई हलकाफुलका ले आते जो कभी भी पहन लेती. यह तो सिर्फ किसी फंक्शन में ही निकलेगा. कोई हलका सा नहीं था क्या?’’

”अरे, था न. बहुत वैराइटी थी. पर मैं ने सोचा कि हलका क्या लेना.’’

मन हुआ कहूं कि प्रिय, इतना मत सोचा करो, बस जो हिंट दूं, ले आया करो. पर चुप ही रही और सामने बैठी कल्पना में हलकेफुलके सैट पहने अपनेआप को देखती रही.

अजय महीने में 15 दिन टूअर पर ही रहते हैं. एक दिन औफिस से आ कर बोले, ”रश्मि, अगले हफ्ते चंडीगढ़ जाना है, बोलो, क्या चाहिए? क्या लाऊं तुम्हारे लिए?’’

मैं ने प्यार से उन के गले में बांहें डाल दीं,”कुछ नहीं, इतना कुछ तो रखा है. हर बार लाना जरूरी नहीं, डिअर.’’

”मेरी जान, पर मुझे शौक है लाने का.’’

मेरा दिल कह रहा था कि नहीं… जानते हैं न आप, क्यों कह रहा था?

नीड़: सिद्धेश्वरीजी क्या समझ पाई परिवार और घर की अहमियत

सिद्धेश्वरीजी बड़बड़ाए जा रही थीं. जितनी तेजी से वे माथे पर हाथ फेर रही थीं उतनी ही तेजी से जबान भी चला रही थीं.

‘नहीं, अब एक क्षण भी इस घर में नहीं रहूंगी. इस घर का पानी तक नहीं पियूंगी. हद होती है किसी बात की. दो टके के माली की भी इतनी हिम्मत कि हम से मुंहजोरी करे. समझ क्या रखा है. अब हम लौट कर इस देहरी पर कभी आएंगे भी नहीं.’

रमानंदजी वहीं आरामकुरसी पर बैठे उन का बड़बड़ाना सुन रहे थे. आखिरकार वे बोले, ‘‘एक तो समस्या जैसी कोई बात नहीं, उस पर तुम्हारा यह बरताव, कैसे काम चलेगा? बोलो? कुल इतनी सी ही बात है न, कि हरिया माली ने तुम्हें गुलाब का फूल तोड़ने नहीं दिया. गेंदे या मोतिया का फूल तोड़ लेतीं. ये छोटीछोटी बातें हैं. तुम्हें इन सब के साथ समझौता करना चाहिए.’’

सिद्धेश्वरीजी पति को एकटक निहार रही थीं. मन उलझा हुआ था. जो बातें उन के लिए बहुत बड़ी होती हैं, रमानंदजी के पास जा कर छोटी क्यों हो जाती हैं?

क्रोध से उबलते हुए बोलीं, ‘‘एक गुलाब से क्या जाता. याद है, लखनऊ में कितना बड़ा बगीचा था हम लोगों का. सुबह सैर से लौट कर हरसिंगार और चमेली के फूल चुन कर हम डोलची में सजा कर रख लिया करते थे. पर यह माली, इस तरह अकड़ रहा था जैसे हम ने कभी फूल ही नहीं देखे हों.’’

बेचारा हरिया माली कोने में खड़ा गिड़गिड़ा रहा था. घर के दूसरे लोग भी डरेसहमे खड़े थे. अपनी तरफ से सभी ने मनाने की कोशिश की किंतु व्यर्थ. सिद्धेश्वरीजी टस से मस नहीं हुईं.

‘‘जो कह दिया सो कह दिया. मेरी बात पत्थर की लकीर है. अब इसे कोई भी नहीं मिटा सकता. समझ गए न? यह सिद्धेश्वरी टूट जाएगी पर झुकेगी नहीं.’’

घर वाले उन की धमकियों के आदी थे. उन की बातचीत का तरीका ही ऐसा है, बातबात पर कसम खा लेना, बिना बात के ही ताल ठोंकना आदि. पहले ये बातें उन के अपने घर में होती थीं. अपना घर, यानी सरकार द्वारा आवंटित बंगला. सिद्धेश्वरीजी गरजतीं, बरसतीं फिर सामान्य हो जातीं. घर छोड़ कर जाने की नौबत कभी नहीं आई. हर बात में दखल रखना वे अपना जन्मसिद्ध अधिकार समझती थीं. सो, वे दूसरों को घर से निकल जाने को अकसर कहतीं. पर स्वयं पर यह बात कभी लागू नहीं होने देती थीं. आखिर वे घर की मालकिन जो थीं.

आज परिस्थिति दूसरी थी. यह घर, उन के बेटे समीर का था. बहुराष्ट्रीय कंपनी में कार्यरत सीनियर एग्जीक्यूटिव. राजधानी में अत्यधिक, सुरुचिपूर्ण ढंग से सजा हुआ टैरेस वाला फ्लैट. बेटे के अत्यधिक आज्ञाकारी होने के बावजूद वे उस के घर को कभी अपना नहीं समझ पाईं क्योंकि वे उन महिलाओं में से थीं जो बेटे का विवाह होने के साथ ही उसे पराया समझने लगती हैं. अपनी हमउम्र औरतों के अनुभवों को ध्यान में रखते हुए वे जब भी समीर और शालिनी से बात करतीं तो ताने या उलटवांसी के रूप में. बातबात में दोहों और मुहावरों का प्रयोग, भले ही मूलरूप के बजाय अपभ्रंश के रूप में, सिद्धेश्वरीजी करती अवश्य थीं, क्योंकि उन का मानना था कि अतिशय लाड़प्यार जतलाने से बहूबेटे का दिमाग सातवें आसमान पर पहुंच जाता है.

विवाह से पहले समीर उन की आंखों का तारा था. उस से उन का पहला मनमुटाव तब हुआ जब उस ने विजातीय शालिनी से विवाह करने की अनुमति मांगी थी. रमानंदजी सरल स्वभाव के व्यक्ति थे. दूसरों की खुशी में अपनी खुशी ढूंढ़ते थे. बेटे की खुशी को ध्यान में रख कर उन्होंने तुरंत हामी भर दी थी. पत्नी को भी समझाया था, ‘शालिनी सुंदर है, सुशिक्षित है, अच्छे खानदान से है.’ पर सिद्धेश्वरीजी अड़ी रहीं. इस के पीछे उन्हें अपने भोलेभाले बेटे का दिमाग कम, एमबीए शालिनी की सोच अधिक नजर आई थी. बेटे के सीनियर एग्जीक्यूटिव होने के बावजूद उन्हें उस के लिए डाक्टर या इंजीनियर लड़की के बजाय मात्र इंटर पास साधारण सी कन्या की तलाश थी, जो हर वक्त उन की सेवा में तत्पर रहे और घर की परंपरा को भी आगे कायम रखे.

रमानंदजी लाख समझाते रहे कि ब्याह समीर को करना है. अगर उस ने अपनी पसंद से शालिनी को चुना है तो हम क्यों बुरा मानें. दोनों एकदूसरे को अच्छी तरह से जानते हैं, पहचानते हैं और सब से बड़ी बात एकदूसरे को समझते भी हैं. सो, वे अच्छी तरह से निभा लेंगे. पर सिद्धेश्वरीजी के मन में बेटे का अपनी मनमरजी से विवाह करने का कांटा हमेशा चुभता रहा. उन्हें ऐसा लगता जैसे शालिनी के साथ विवाह कर के समीर ने बहुत बड़ा गुनाह किया है. खैर, किसी तरह से निभ रही थी और अच्छी ही निभ रही थी. रमानंदजी सिंचाई विभाग में अधिशासी अभियंता थे. हर 3 साल में उन का तबादला होता रहता था. इसी बहाने वे भी उत्तर प्रदेश के कई छोटेबड़े शहर घूमी थीं. बड़ेबड़े बंगलों का सुख भी खूब लूटा. नौकर, चपरासी सलाम ठोंकते. समीर और शालिनी दिल्ली में रहते थे. कभीकभार ही आनाजाना हो पाता. जितने दिन रहते, हंसतेखिलखिलाते समय निकल जाता था. स्वाति और अनिरुद्ध के जन्म के बाद तो जीवन में नए रंग भरने लगे थे. उन की धमाचौकडि़यों और खिलखिलाहटों में दिनरात कैसे बीत जाते, पता ही नहीं चलता था.

देखते ही देखते रमानंदजी की रिटायरमैंट की उम्र भी आ पहुंची. लखनऊ में रिटायरमैंट से पहले उन्होंने अनूपशहर चल कर रहने का प्रस्ताव सिद्धेश्वरीजी के सामने रखा तो वे नाराज हो गईं.

‘हम नहीं रहेंगे वहां की घिचपिच में.’

‘तो फिर?’

‘इसीलिए हम हमेशा आप से कहते थे. एक छोटा सा मकान, बुढ़ापे के लिए बनवा लीजिए पर आप ने हमेशा मेरी बात को हवा में उछाल दिया.’

रमानंदजी मायूस हो गए थे. ‘सिद्धेश्वरी, तुम तो जानती हो, सरकारी नौकरी में कितना पैसा हाथ में मिलता है. घूस मैं ने कभी ली नहीं. मुट्ठीभर तनख्वाह में से क्या खाता, क्या बचाता? बाबूजी की बचपन में ही मृत्यु हो गई. भाईबहनों के दायित्व निभाए. तब तक समीर और नेहा बड़े हो गए थे. एक ही समय में दोनों बच्चों को इंजीनियरिंग और एमबीए की डिगरी दिलवाना, आसान तो नहीं था. उस के बाद जो बचा, वह शादियों में खर्च हो गया. यह अच्छी बात है कि दोनों बच्चे सुखी हैं.’

रमानंदजी भावुक हो उठे थे. आंखों की कोर भीग गई. स्वर आर्द्र हो उठा था, रिटायरमैंट के बाद रहने की समस्या जस की तस बनी रही. इस समस्या का निवारण कैसे होता?

फिलहाल, दौड़भाग कर रमानंदजी ने सरकारी बंगले में ही 6 महीने रहने की अनुमति हासिल कर ली. कुछ दिनों के लिए तो समस्या सुलझ गई थी लेकिन उस के बाद मार्केट रेंट पर बंगले में रहना, उन के लिए मुश्किल हो गया था. सो, लखनऊ के गोमती नगर में 2 कमरों का मकान उन्होंने किराए पर ले लिया था. जब भी मौका मिलता, समीर आ कर मिल जाता. शालिनी नहीं आ पाती थी. बच्चे बड़े हो रहे थे. स्वाति ने इंटर पास कर के डाक्टरी में दाखिला ले लिया था. अनिरुद्ध ने 10वीं में प्रवेश लिया था. बच्चों के बड़े होने के साथसाथ दादादादी की भी उम्र हो गई थी.

बुढ़ापे में कई तरह की परेशानियां बढ़ जाती हैं, यह सोच कर इस बार जब समीर और शालिनी लखनऊ आए तो, आग्रहसहित उन्हें अपने साथ रहने के लिए लिवा ले गए थे. सिद्धेश्वरीजी ने इस बार भी नानुकुर तो बहुतेरी की थी, पर समीर जिद पर अड़ गया था. ‘‘बुढ़ापे में आप दोनों का अकेले रहना ठीक नहीं है. और बारबार हमारा आना भी उतनी दूर से संभव नहीं है. बच्चों की पढ़ाई का नुकसान अलग से होता है.’’ सिद्धेश्वरीजी को मन मार कर हामी भरनी पड़ी. अपनी गृहस्थी तीनपांच कर यहां आ तो गई थीं पर बेटेबहू की गृहस्थी में तारतम्य बैठाना थोड़ा मुश्किल हो रहा था उन के लिए. बेटाबहू उन की सुविधा का पूरा ध्यान रखते थे. उन्हें शिकायत का मौका नहीं देते थे. फिर भी, जब मौका मिलता, सिद्धेश्वरीजी रमानंदजी को उलाहना देने से बाज नहीं आती थीं, ‘अपना मकान होता तो बहूबेटे के साथ रहने की समस्या तो नहीं आती. अपनी सुविधा से घर बनवाते और रहते. यहां पड़े हैं दूसरों की गृहस्थी में.’

‘दूसरों की गृहस्थी में नहीं, अपने बहूबेटे के साथ रह रहे हैं सिद्धेश्वरी,’ वे हंस कर कहते.

‘तुम नहीं समझोगे,’ सिद्धेश्वरीजी टेढ़ा सा मुंह बिचका कर उठ खड़ी होतीं.

उन्हें बातबात में हस्तक्षेप करने की आदत थी. मसलन, स्वाति कोएड में क्यों पढ़ती है? स्कूटर चला कर कालेज अकेली क्यों जाती है? शाम ढलते ही घर क्यों नहीं लौट आती? देर रात तक लड़केलड़कियों के साथ बैठ कर कंप्यूटर पर काम क्यों करती है? लड़कियों के साथ तो फिर भी ठीक है, लड़कों के साथ क्यों बैठी रहती है? उन्होंने कहीं सुना था कि कंप्यूटर अच्छी चीज नहीं है. वे अनिरुद्ध को उन के बीच जा कर बैठने के लिए कहतीं कि कम से कम पता तो चले वहां हो क्या रहा है. तो अनिरुद्ध बिदक जाता. उधर, स्वाति को भी बुरा लगता. ऐसा लगता जैसे दादी उस के ऊपर पहरा बिठा रही हों. इतना ही नहीं, वह जींसटौप क्यों पहनती है? साड़ी क्यों नहीं पहनती? रसोई में काम क्यों नहीं करती आदि?

धीरेधीरे स्वाति ने उन से बात करना कम कर दिया. वह उन से दूर ही छिटकी रहती. वे कुछ कहतीं तो उन की बातें एक कान से सुनती, दूसरे कान से निकाल देती. पोती के बाद उन का विरोध अपनी बहू से भी था. उसे सीधेसीधे टोकने के बजाय रमानंदजी से कहतीं, ‘बहुत सिर चढ़ा रखा है बहू ने स्वाति को. मुझे तो डर है, कहीं उस की वजह से इन दोनों की नाक न कट जाए.’ रमानंदजी चुपचाप पीतल के शोपीस चमकाते रहते. सिद्धेश्वरीजी का भाषण निरंतर जारी रहता, ‘बहू खुद भी तो सारा दिन घर से बाहर रहती है. तभी तो, न घर संभल पा रहा है न बच्चे. कहीं नौकरों के भरोसे भी गृहस्थी चलती है?’

‘बहू की नौकरी ही ऐसी है. दिन में 2 घंटे उसे घर से बाहर निकलना ही पड़ता है. अब काम चाहे 2 घंटे का हो या 4 घंटे का, आवाजाही में भी समय निकलता है.’

‘जरूरत क्या है नौकरी करने की? समीर अच्छा कमाता ही है.’

‘अब इस उम्र में बहू मनकों की माला तो फेरने से रही. पढ़ीलिखी है. अपनी प्रतिभा सिद्ध करने का अवसर मिलता है तो क्यों न करे. अच्छा पैसा कमाती है तो समीर को भी सहारा मिलता है. यह तो हमारे लिए गौरव की बात है.’ इधर, रमानंदजी ने अपनेआप को सब के अनुसार ढाल लिया था. मजे से पोतापोती के साथ बैठ कर कार्टून फिल्में देखते, उन के लिए पिज्जा तैयार कर देते. बच्चों के साथ बैठ कर पौप म्यूजिक सुनते. पासपड़ोस के लोगों से भी उन की अच्छी दोस्ती हो गई थी. जब भी मन करता, उन के साथ ताश या शतरंज की बाजी खेल लेते थे.

बहू के साथ भी उन की खूब पटती थी. रमानंदजी के आने से वह पूरी तरह निश्चिंत हो गई थी. अनिरुद्ध को नियमित रूप से भौतिकी और रसायनशास्त्र रमानंदजी ही पढ़ाते थे. उस की प्रोजैक्ट रिपोर्ट भी उन्होंने ही तैयार करवाई थी. बच्चों को छोड़ कर शालिनी पति के साथ एकाध दिन दौरे पर भी चली जाती थी. रमानंदजी को तो कोई असुविधा नहीं होती थी पर सिद्धेश्वरीजी जलभुन जाती थीं. झल्ला कर कहतीं, ‘बहू को आप ने बहुत छूट दे रखी है.’

रमानंदजी चुप रहते, तो वे और चिढ़ जातीं, ‘अपने दिन याद हैं? अम्मा जब गांव से आती थीं तो हम दोनों का घूमनाफिरना तो दूर, साड़ी का पल्ला भी जरा सा सिर से सरकता तो वे रूठ जाती थीं.’

‘अपने दिन नहीं भूला हूं, तभी तो बेटेबहू का मन समझता हूं.’

‘क्या समझते हो?’

‘यही कि अभी इन के घूमनेफिरने के दिन हैं. घूम लें. और फिर बहू हमारे लिए पूरी व्यवस्था कर के जाती है. फिर क्या परेशानी है?’

‘परेशानी तुम्हें नहीं, मुझे है. बुढ़ापे में घर संभालना पड़ता है.’

‘जरा सोचो, बहू तुम्हारे पर विश्वास करती है, इसीलिए तो तुम्हारे भरोसे घर छोड़ कर जाती है.’

सिद्धेश्वरीजी को कोई जवाब नहीं सूझता था. उन्हें लगता, पति समेत सभी उन के खिलाफ हैं.

दरअसल, वे दिल की इतनी बुरी नहीं हैं. बस, अपने वर्चस्व को हमेशा बरकरार रखने की, अपना महत्त्व जतलाने की आदत से मजबूर थीं. उन की मरजी के बिना घर का पत्ता तक नहीं हिलता था. यहां तक कि रमानंदजी ने भी कभी उन से तर्क नहीं किया था. बेटे के यहां आ कर उन्होंने देखा, सभी अपनीअपनी दुनिया में मगन हैं, तो उन्हें थोड़ी सी कोफ्त हुई. उन्हें ऐसा महसूस होने लगा जैसे वे अब एक अस्तित्वविहीन सा जीवन जी रही हों. पिछले हफ्ते से एक और बात ने उन्हें परेशान कर रखा था. स्वाति को आजकल मार्शल आर्ट सीखने की धुन सवार हो गई थी. उन्होंने रोकने की कोशिश की तो वह उग्र स्वर में बोली, ‘बड़ी मां, आज के जमाने में अपनी सुरक्षा के लिए ये सब जरूरी है. सभी सीख रहे हैं.’

पोती की ढिठाई देख कर सिद्धेश्वरीजी सातवें आसमान से सीधी धरातल पर आ गिरीं. उस से भी अधिक गुस्सा आया अपने बहूबेटे पर, जो मूकदर्शक बने सारा तमाशा देख रहे थे. बेटी को एक बार टोका तक नहीं. और अब, इस हरिया माली की, गुलाब का फूल न तोड़ने की हिदायत ने आग में घी डालने जैसा काम किया था. एक बात का गुस्सा हमेशा दूसरी बात पर ही उतरता है, इसीलिए उन्होंने घर छोड़ कर जाने की घोषणा कर दी थी.

‘‘मां, हम बाहर जा रहे हैं. कुछ मंगाना तो नहीं है?’’

सिद्धेश्वरीजी मुंह फुला कर बोलीं, ‘‘इन्हें क्या मंगाना होगा? इन के लिए पान का जुगाड़ तो माली, नौकर यहां तक कि ड्राइवर भी कर देते हैं. हमें ही साबुन, क्रीम और तेल मंगाना था. पर कहें किस से? समीर भी आजकल दौरे पर रहता है. पिछले महीने जब आया था तो सब ले कर दे गया था. जिस ब्रैंड की क्रीम, पाउडर हम इस्तेमाल करते हैं वही ला देता है.’’

‘‘मां, हम आप की पसंदनापसंद का पूरा ध्यान रखते हैं. फिर भी कुछ खास चाहिए तो बता क्यों नहीं देतीं? समीर से कहने की क्या जरूरत है?’’

बहू की आवाज में नाराजगी का पुट था. पैर पटकती वह घर से बाहर निकली, तो रमानंदजी का सारा आक्रोश, सारी झल्लाहट पत्नी पर उतरी, ‘‘सुन लिया जवाब. मिल गई संतुष्टि. कितनी बार कहा है, जहां रहो वहीं की बन कर रहो.  पिछली बार जब नेहा के पास मुंबई गई थीं तब भी कम तमाशे नहीं किए थे तुम ने. बेचारी नेहा, तुम्हारे और जमाई बाबू के बीच घुन की तरह पिस कर रह गई थी. हमेशा कोई न कोई ऐसा कांड जरूर करती हो कि वातावरण में सड़ी मच्छी सी गंध आने लगती है.’’ पछता तो सिद्धेश्वरीजी खुद भी रही थीं, सोच रही थीं, बहू के साथ बाजार जा कर कुछ खरीद लाएंगी. अगले हफ्ते मेरठ में उन के भतीजे का ब्याह है. कुछ ब्लाउज सिलवाने थे. जातीं तो बिंदी, चूडि़यां और पर्स भी ले आतीं. बहू बाजार घुमाने की शौकीन है. हमेशा उन्हें साथ ले जाती है. वापसी में गंगू चाट वाले के गोलगप्पे और चाटपापड़ी भी जरूर खिलाती है.

रमानंदजी को तो ऐसा कोई शौक है नहीं. लेकिन अब तो सब उलटापुलटा हो गया. क्यों उन्होंने बहू का मूड उखाड़ दिया? न जाने किस घड़ी में उन की बुद्धि भ्रष्ट हो गई और घर छोड़ने की बात कह दी? सब से बड़ी बात, इस घर से निकल कर जाएंगी कहां? लखनऊ तो कब का छोड़ चुकीं. आज तक गांव में एक हफ्ते से ज्यादा कभी नहीं रहीं. फिर, पूरा जीवन कैसे काटेंगी? वह भी इस बुढ़ापे में, जब शरीर भी साथ नहीं देता है. शुरू से ही नौकरों से काम करवाने की आदी रही हैं. बेटेबहू के घर आ कर तो और भी हड्डियों में जंग लग गया है.

सभी चुपचाप थे. शालिनी रसोई में बाई के साथ मिल कर रात के खाने की तैयारी कर रही थी. और स्वाति, जिस की वजह से यह सारा झमेला हुआ, मजे से लैपटौप पर काम कर रही थी. सिद्धेश्वरीजी पति की तरफ मुखातिब हुईं और अपने गुस्से को जज्ब करते हुए बोलीं, ‘‘चलो, तुम भी सामान बांध लो.’’

‘‘किसलिए?’’ रमानंदजी सहज भाव से बोले. उन की नजरें अखबार की सुर्खियों पर अटकी थीं.

‘‘हम, आज शाम की गाड़ी से ही चले जाएंगे.’’

रमानंदजी ने पेपर मोड़ कर एक तरफ रखा और बोले, ‘‘तुम जा रही हो, मैं थोड़े ही जा रहा हूं.’’

‘‘मतलब, तुम नहीं जाओगे?’’

‘‘नहीं,’’ एकदम साफ और दोटूक स्वर में रमानंदजी ने कहा, तो सिद्धेश्वरीजी बुरी तरह चौंक गईं. उन्हें पति से ऐसे जवाब की उम्मीद नहीं थी. मन ही मन उन का आत्मबल गिरने लगा. गांव जा कर, बंद घर को खोलना, साफसफाई करना, चूल्हा सुलगाना, राशन भरना उन्हें चांद पर जाने और एवरेस्ट पर चढ़ने से अधिक कठिन और जोखिम भरा लग रहा था. पर क्या करतीं, बात तो मुंह से फिसल ही गई थी. पति के हृदयपरिवर्तन का उन्हें जरा भी आभास होता तो यों क्षणिक आवेश में घर छोड़ने का निर्णय कभी न लेतीं. हिम्मत कर के वे उठीं और अलमारी में से अपने कपड़े निकाल कर बैग में रख लिए. ड्राइवर को गाड़ी लाने का हुक्म दे दिया. कार स्टार्ट होने ही वाली थी कि स्वाति बाहर निकल आई. ड्राइवर से उतरने को कह कर वह स्वयं ड्राइविंग सीट पर बैठ गई और सधे हाथों से स्टीयरिंग थाम कर कार स्टार्ट कर दी. सिद्धेश्वरीजी एक बार फिर जलभुन गईं. औरतों का ड्राइविंग करना उन्हें कदापि पसंद नहीं था. बेटा या पोता, कार ड्राइव करे तो उन्हें कोई परेशानी नहीं होती थी. वे यह मान कर चलती थीं कि ‘लड़कियों को लड़कियों की तरह ही रहना चाहिए. यही उन्हें शोभा देता है.’

इसी उधेड़बुन में रास्ता कट गया. कार स्टेशन पर आ कर रुकी तो सिद्धेश्वरीजी उतर गईं. तुरतफुरत अपना बैग उठाया और सड़क पार करने लगीं. उतावलेपन में पोती को साथ लेने का धैर्य भी उन में नहीं रहा. तभी अचानक एक कार…पीछे से किसी ने उन का हाथ पकड़ कर खींच लिया. और वे एकदम से दूर जा गिरीं. फिर उन्हीं हाथों ने सिद्धेश्वरीजी को सहारा दे कर कार में बिठाया. ऐसा लगा जैसे मृत्यु उन से ठीक सूत भर के फासले से छू कर निकल गई हो. यह सब कुछ दो पल में ही हो गया था. उन का हाथ थाम कर खड़ा करने और कार में बिठाने वाले हाथ स्वाति के थे. नीम बेहोशी की हालत से उबरीं तो देखा, वे अस्पताल के बिस्तर पर थीं. रमानंदजी उन के सिरहाने बैठे थे. समीर और शालिनी डाक्टरों से विचारविमर्श कर रहे थे. और स्वाति, दारोगा को रिपोर्ट लिखवा रही थी. साथ ही वह इनोवा कार वाले लड़के को बुरी तरह दुत्कारती भी जा रही थी. ‘‘दारोगा साहब, इस सिरफिरे बिगड़ैल लड़के को कड़ी से कड़ी सजा दिलवाइएगा. कुछ दिन हवालात में रहेगा तो एहसास होगा कि कार सड़क पर चलाने के लिए होती है, किसी की जान लेने के लिए नहीं. अगर मेरी बड़ी मां को कुछ हो जाता तो…?’’

सिद्धेश्वरीजी के पैरों में मोच आई थी. प्राथमिक चिकित्सा के बाद उन्हें घर जाने की अनुमति मिल गई थी. उन के घर पहुंचने से पहले ही बहू और बेटे ने, उन की सुविधानुसार कमरे की व्यवस्था कर दी थी. समीर और शालिनी ने अपना बैडरूम उन्हें दे दिया था क्योंकि बाथरूम बैडरूम से जुड़ा था. वे दोनों किनारे वाले बैडरूम में शिफ्ट हो गए थे. सिरहाने रखे स्टूल पर बिस्कुट का डब्बा, इलैक्ट्रिक कैटल, मिल्क पाउडर और टी बैग्स रख दिए गए. चाय की शौकीन सिद्धेश्वरीजी जब चाहे चाय बना सकती थीं. उन्हें ज्यादा हिलनेडुलने की भी जरूरत नहीं थी. पलंग के नीचे समीर ने बैडस्विच लगवा दिया था. वे जैसे ही स्विच दबातीं, कोई न कोई उन की सेवा में उपस्थित हो जाता.

अगले दिन तक नेहा और जमाई बाबू भी पहुंच गए. घर में खुशी की लहर दौड़ गई थी. उन के आने से समीर और शालिनी को भी काफी राहत मिल गई थी. कुछ समय के लिए दोनों दफ्तर हो आते. नेहा मां के पास बैठती तो स्वाति अस्पताल हो आती थी. इन दिनों उस की इन्टर्नशिप चल रही थी. अस्पताल जाना उस के लिए निहायत जरूरी था. शाम को सभी उन के कमरे में एकत्रित होते. कभी ताश, कभी किस्सेकहानियों के दौर चलते तो घंटों का समय मिनटों में बदल जाता. वे मंदमंद मुसकराती अपनी हरीभरी बगिया का आनंद उठाती रहतीं. सिद्धेश्वरीजी एक दिन चाय पी कर लेटीं तो उन का ध्यान सामने खिड़की पर बैठे कबूतर की तरफ चला गया. खिड़की के जाली के किवाड़ बंद थे, जबकि शीशे के खुले थे. मुश्किल से 5 इंच की जगह रही होगी जिस पर वह पक्षी बड़े आराम से बैठा था. तभी नेहा और शालिनी कमरे में आ गईं, बोलीं, ‘‘मां, इस कबूतर को यहां से उड़ाना होगा. यहां बैठा रहा तो गंदगी फैलाएगा.’’

‘‘न, न. इसे उड़ाने की कोशिश भी मत करना. अब तो चैत का महीना आने वाला है. पक्षी जगह ढूंढ़ कर घोंसला बनाते हैं.’’

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उन की बात सच निकली. देखा, एक दूसरा कबूतर न जाने कहां से तिनके, घास वगैरह ला कर इकट्ठे करने लगा. वह नर व मादा का जोड़ा था. मादा गर्भवती थी. नर ही उस के लिए दाना लाता था और चोंच से उसे खिलाता था. सिद्धेश्वरीजी मंत्रमुग्ध हो कर उन्हें देखतीं. पक्षियों को नीड़ बनाते देख उन्हें अपनी गृहस्थी जोड़ना याद आ जाता. उन्होंने भी अपनी गृहस्थी इसी तरह बनाई थी. रमानंदजी कमा कर लाते, वे बड़ी ही समझदारी से उन पैसों को खर्चतीं. 2 देवर, 2 ननदें ब्याहीं. मायके से जो भी मिला, वह ननदों के ब्याह में चढ़ गया. लोहे के 2 बड़े संदूकों को ले कर अपने नीड़ का निर्माण किया. बच्चे पढ़ाए. उन के ब्याह करवाए. जन्मदिन, मुंडन-क्या नहीं निभाया.  खैर, अब तो सब निबट गया. बच्चे अपनेअपने घर में सुख से रह रहे हैं. उन्हें भी मानसम्मान देते हैं. हां, एक कसक जरूर रह गई. अपने मकान की. वही नहीं बन पाया. बड़ा चाव था उन्हें अपने मकान का.  मनपसंद रसोई, बड़ा सा लौन, पीछे आंगन, तुलसीचौरा, सूरज की धूप की रोशनी, खिड़की से छन कर आती चांदनी और खिड़की के नीचे बनी क्यारी व उस क्यारी में लगी मधुमालती की बेल.

वे बैठेबैठे बोर होतीं. करने को कुछ था नहीं. एक दिन उन्होंने कबूतरी की आवाज देर तक सुनी. वह एक ही जगह बैठी रहती. अनिरुद्ध उन के कमरे में आया तो अतिउत्साहित, अति उत्तेजित स्वर में बोला, ‘‘बड़ी मां, कबूतरी ने घोंसले में अंडा दिया है.’’

‘‘इसे छूना मत. कबूतरी अंडे को तब तक सहेजती रहेगी जब तक उस में से बच्चे बाहर नहीं आ जाते.’’

अनिरुद्ध पीछे हट गया था. उन्हें इस परिवार से लगाव सा हो गया था. जैसे मां अपने बच्चे के प्रति हर समय आशंकित सी रहती है कि कहीं उस के बच्चे को चोट न लग जाए, वैसे ही उन्हें भी हर पल लगता कि इन कबूतरों के उठनेबैठने से यह अंडा मात्र 4 इंच की जगह से नीचे न गिर जाए. एक दिन उस अंडे से एक बच्चा बाहर आया. सिर्फ उस की चोंच, आंखें और पंजे दिखाई दे रहे थे. अब कबूतर का काम और बढ़ गया था. वह उड़ता हुआ जाता और दाना ले आता. कबूतरी, एकएक दाना कर के उस बच्चे को खिलाती जाती. सिद्धेश्वरीजी ने अनिरुद्ध से कह कर उन कबूतरों के लिए वहीं खिड़की पर, 2 सकोरों में दाने और पानी की व्यवस्था करा दी थी. अब कबूतर का काम थोड़ा आसान हो गया था.

सिद्धेश्वरीजी अनजाने ही उस कबूतर जोड़े की तुलना खुद से करने लगी थीं. ये पक्षी भी हम इंसानों की तरह ही अपने बच्चों के प्रति समर्पित होते हैं. फर्क यह है कि हमारे सपने हमारे बच्चों के जन्म के साथ ही पंख पसारने लगते हैं. हमारी अपेक्षाएं और उम्मीदें भी हमारे स्वार्थीमन में छिपी रहती हैं. इंसान का बच्चा जब पहला शब्द मुंह से निकालता है तो हर रिश्ता यह उम्मीद करता है कि उस प्रथम उच्चारण में वह हो. जैसे, मां चाहती है बच्चा ‘मां’ बोले, पापा चाहते हैं बच्चा ‘पापा’ बोले, बूआ चाहती हैं ‘बूआ’ और बाबा चाहते हैं कि उन के कुलदीपक की जबान पर सब से पहले ‘बाबा’ शब्द ही आए. हम उस के हर कदम में अपना बचपन ढूंढ़ते हैं. अपनी पसंद के स्कूल में उस का ऐडमिशन कराते हैं.

यह हमारा प्रेम तो है पर कहीं न कहीं हमारा स्वार्थ भी है. उस का भविष्य बनाने के लिए किसी अच्छे व्यावसायिक संस्थान में उसे पढ़ाते हैं. उस की तरक्की से खुद को गौरवान्वित महसूस करते हैं. समाज में हमारी प्रतिष्ठा बढ़ती है. हम अपनी मरजी से उस का विवाह करवाना चाहते हैं. यदि बच्चे अपना जीवनसाथी स्वयं चुनते हैं तो हमारा उन से मनमुटाव शुरू हो जाता है, हमारी सामाजिक प्रतिष्ठा को बट्टा जो लग जाता है. हमारी संवेदनाओं को ठेस पहुंचती है. बच्चे बड़े हो जाते हैं, हमारी अपेक्षाएं वही रहती हैं कि वे हमारे बुढ़ापे का सहारा बनें. हमारे उत्तरदायित्व पूरे करें. हमारे प्रेम, हमारी कर्तव्यपरायणता के मूल में कहीं न कहीं हमारा स्वार्थ निहित है. कुछ दिन बाद उस बच्चे के छोटे पंख दिखाई देने लगे. फिर पंख थोड़े और बड़े हुए. अब उस ने स्वयं दाना चुगना शुरू कर दिया था. फिर एक दिन उस के मातापिता उसे साथ ले कर उड़ने लगे. तीनों विहंग छोटा सा चक्कर लगाते और फिर लौट आते वापस अपने नीड़ में.

धीरेधीरे सिद्धेश्वरीजी की तबीयत सुधरने लगी. अब वे घर में चलफिर लेती थीं. अपना काम भी स्वयं कर लेती थीं. रमानंदजी को नाश्ता भी बना देती थीं. घर के कामों में शालिनी की सहायता भी कर देती थीं. अब यह घर उन्हें अपना सा लगने लगा था. दिन स्वाति उन्हें अस्पताल ले गई. मोच तो ठीक हो गई थी. फिजियोथेरैपी करवाने के लिए डाक्टर ने कहा था, सो प्रतिदिन स्वाति ही उन्हें ले जाती. वापसी में समीर अपनी गाड़ी भेज देता. अब ये सब भला लगता था उन्हें.

एक दिन उन्होंने देखा, कबूतर उड़ गया था. वह जगह खाली थी. अब वह नीड़ नहीं मात्र तिनकों का ढेर था. क्योंकि नीड़ तो तब था जब उस में रहने वाले थे. मन में अनेक सवाल उठने लगे, क्या वह बच्चा हमेशा उन के साथ रहेगा? क्या वह बड़ा हो कर मातापिता के लिए दाना लाएगा? उन की सामाजिक प्रतिष्ठा बढ़ाएगा? इसी बीच उन के मस्तिष्क में एक ऋषि और राजा संवाद की कुछ पंक्तियां याद आ गई थीं. ऋषि ने राजा से कहा था, ‘‘हे राजा, हम मनुष्य अपने बच्चों का भरणपोषण करते हैं, परंतु योग माया द्वारा भ्रमित होने के कारण, उन बच्चों से अपेक्षाएं रखते हैं. पक्षी भी अपने बच्चों को पालते हैं पर वे कोई अपेक्षा नहीं रखते क्योंकि वे बुद्धिजीवी नहीं हैं और न ही माया में बंधे हैं.’’

उन्होंने खिड़की खोल कर वहां सफाई की और घोंसला हटा दिया. धीरेधीरे तेज हवाएं चलने लगीं. उन्होंने खिड़की बंद कर दी. कुछ दिन बाद कबूतर का एक जोड़ा फिर से वहां आ गया. अपना नीड़ बनाने. वे मन ही मन सुकून महसूस कर रही थीं. अब फिर घोंसला बनेगा, कबूतरी अंडे देगी, उन्हें सेना शुरू करेगी, अंडे में से चूजा निकलेगा, फिर पर निकलेंगे और फिर कबूतर उड़ जाएगा और कपोत का जोड़ा टुकुरटुकुर उस नीड़ को निहारता रह जाएगा, उदास मन से. ठंड बढ़ने के साथसाथ मोच वाले स्थान पर हलकी सी टीस एक बार फिर से उभरने लगी थी. परिवार में उन की हालत सब के लिए चिंता का विषय बनी हुई थी. रमानंदजी आयुर्वेद के तेल से उन के टखनों की मालिश कर रहे थे. स्वाति ने एक अन्य डाक्टर से उन के लिए अपौइंटमैंट ले लिया था. सिद्धेश्वरीजी ने उसे रोकने की कोशिश की, तो वह उन्हें चिढ़ाते हुए बोली, ‘‘बड़ी मां, टांग का दर्द ठीक होगा तभी तो गांव जाएंगी न.’’

स्वाति समेत सभी खिलखिला कर हंसने लगे थे. नौकर गरम पानी की थैली दे गया तो सिद्धेश्वरीजी पलंग पर लेट कर सोचने लगीं, ‘सही कहते हैं बड़ेबुजुर्ग, घर चारदीवारी से नहीं बनता, उस में रहने वाले लोगों से बनता है.’ घोंसला अवश्य उन का अस्थायी रहा पर वे तो भरीपूरी हैं. बेटेबहू, पोतेपोती से खुश, संतप्त भाव से एक नजर उन्होंने रमानंदजी की दुर्बल काया पर डाली, फिर दुलार से हाथ फेरती हुई बुदबुदाईं, ‘उन का जीवनसाथी तो उन के साथ है ही, उन के बच्चे भी उन के साथ हैं. अब उन्हें किसी नीड़ की चाह नहीं. जहां हैं सुख से हैं, संतुष्ट और संतप्त.’ उन्होंने कामवाली बाई से कह कर बक्से में से सामान निकलवाया और अलमारी में रखवा दिया. और फिर मीठी नींद के आगोश में समा गईं.

शुभस्य शीघ्रम: कौनसी घटना घटी थी सुरभि के साथ 

हैडऔफिस से ब्रांच औफिस के कर्मचारियों को अचानक निर्देश मिला कि इस काम को आज ही पूरा किया जाए, तो काम पूरा करते रात के 10 बज गए. नई नियुक्त सुरभि को उस के घर छोड़ने की जिम्मेदारी मैं ने ले ली, क्योंकि मेरा और उस का घर आसपास है.

मैं सुरभि के साथ घर के लिए रवाना हुआ, तो वह चुप बैठी थी. बातचीत मैं ने शुरू की, ‘‘तुम ने एम.बी.ए. कहां से किया सुरभि?’’

‘‘जी, वाराणसी से.’’

‘‘यहां फ्लैट में रहती हो या पी.जी. में?’’

‘‘सर, पी.जी. में.’’

‘‘घर पर कौनकौन है?’’

‘‘सर, मैं अकेली हूं.’’

‘‘हांहां यहां तो अकेली ही हो. मैं तुम्हारे घर के बारे में पूछ रहा हूं.’’

‘‘जी, मैं अकेली ही हूं.’’

‘‘क्या मतलब सुरभि, घर पर मम्मीपापा, भाईबहन तो होंगे न?’’

‘‘सर, मेरा कोई नहीं. मेरे पापा बहुत पहले चल बसे थे. 4 माह पहले मां का भी देहांत हो गया. मैं उन की इकलौती संतान हूं,’’ उस का चेहरा दुख से मलिन हो गया तथा आंखें सजल

हो गईं.

‘‘ओह सौरी, मैं ने तुम्हें दुखी कर दिया.’’

हम दोनों के बीच कुछ देर चुप्पी पसर गई. फिर चुप्पी तोड़ते हुए मैं ने पूछा, ‘‘तुम्हें, फिल्में देखना पसंद है?’’

‘‘सर, टीवी पर देख लेती हूं. मेरा टीवी हर समय औन रहता है.’’

‘‘ओहो, पूरे समय टीवी का शोर. सिरदर्द नहीं हो जाता तुम्हें?’’

‘‘नहीं सर, बंद टीवी से हो जाता है. शांत वातावरण में मुझे अपने दुखदर्द कचोटते हैं.’’

उस ने इतनी गमगीन गंभीरता से यह बात कही तो मैं ने कहा, ‘‘सही बात है, स्वयं को व्यस्त रखने का कोई बहाना तो चाहिए ही. मैं भी हर समय म्यूजिक सुनता रहता हूं.’’

फिर थोड़ी देर में उस का पी.जी. आ गया तो उस ने नीची नजरों से मुझे थैंक्स कहा और गाड़ी से उतर गई. मैं भी उसे बाय, गुडनाइट कहता हुआ आगे निकल गया.

अगले दिन से हम दोनों की ही नजरों में एकदूसरे के लिए कुछ विशेष था. मुझ से नजरें मिलते ही वह नजरें झका लेती थी. मौका देख कर मैं ने कहा, ‘‘सुरभि, हम दोनों का औफिस आनेजाने का रास्ता एक ही है. हम रोज साथ में आनाजाना कर सकते हैं. हां मैं इतना दावे के साथ कह सकता हूं कि तुम मुझ पर विश्वास कर सकती हो.’’

उस ने मुसकराते हुए नीची नजरों से सहमति प्रकट कर दी.

फिर हम दोनों साथसाथ ही आनेजाने लगे.

हमारे बीच अपनत्व पनप चुका था. एक दिन मैं ने पहल करते हुए कहा, ‘‘सुरभि, हमें मिले ज्यादा समय तो नहीं हुआ, किंतु मेरा मन रातदिन तुम्हारे नाम की माला जपता रहता है. मैं तुम्हें चाहने लगा हूं और तुम से शादी करना चाहता हूं. मैं तुम्हारे मन की बात भी जानना चाहता हूं. और हां, मेरा नाम राज है, वही बोलो. ये सर, सर क्या लगा रखा है?’’

मेरे इतना कहने पर भी वह खामोश रही तो मैं ने उस के कंधे पर हाथ रख पूछा, ‘‘क्या बात है, सुरभि खामोश क्यों हो?’’

मेरा अपनत्व पा कर वह फफक कर रो पड़ी, ‘‘राज सर, मेरा बलात्कार हो चुका है. मैं कलंकित हूं. मुझे कोई कैसे स्वीकार करेगा? मैं इस कलंक को पूरी उम्र ढोने के लिए मजबूर हूं…’’

मैं ने उस के होंठों पर अपना हाथ रखते हुए कहा, ‘‘सुरभि, स्वयं को संभालो. मैं तुम्हें अपनाऊंगा. तुम से शादी करूंगा. स्वयं को हीन न समझे. चलो सब से पहले थोड़ा पानी पी कर स्वयं को संयत करो.’’

वह पानी पी कर कुछ शांत हुई, किंतु आंसू बहाती रही.

‘‘देखो सुरभि, तुम्हारे गुजरे कल से मेरा कोई सरोकार नहीं है, लेकिन मैं तुम्हारे साथ अपना आज और आने वाला कल संवारना चाहता हूं. किंतु हां, जो हादसा तुम्हें इतना दुखी कर गया है, उसे अवश्य बांटना चाहूंगा. तुम अपनी आपबीती, बे?िझक मुझे बताओ. तुम्हारे सामने तुम्हारा दोस्त, हितैषी, हमदर्द बैठा हुआ है.’’

वह धीमे स्वर में बोली, ‘‘राज, हमारे गांव में दादा साहब के यहां मेरे पापाजी अकाउंटैंट का काम करते थे. उन के बेटे बाबा साहब भी अपने पिता की तरह पापाजी की ईमानदारी की बहुत इज्जत करते थे और दोनों ही पापाजी से मित्रवत व्यवहार करते थे. एक दिन काम करते हुए अचानक पापाजी का दिल का दौरा पड़ने से देहांत हो गया. उन दोनों ने हम लोगों की सहायता के लिए हर माह पैंशन देने की घोषणा करते हुए आदेश दिया कि जब तक वे दोनों हैं तब तक पैंशन हमारे परिवार को दी जाए.

‘‘पैंशन से हम लोगों का घर खर्च चलने लगा, फिर 3 सालों में दादा साहब एवं बाबा साहब का निधन हो गया तो उन का बेटा शहर से गांव आ गया और कामकाज देखने लगा.

‘‘उस दिन हर माह की तरह मैं पैंशन लेने पहुंची थी. मैं बहुत खुश थी, क्योंकि मेरा 12वीं का रिजल्ट आ गया था और मुझे बहुत अच्छे अंक मिले थे. वहां काम करने वाले रजत से मालूम हुआ कि मुझे पैंशन लेने लंच टाइम में पुन: आना होगा, क्योंकि अभी छोटे साहब बाहर गए हुए हैं.

‘‘मैं लंच टाइम में दोबारा वहां पहुंची तो देखा वह बैठा हुआ जैसे मेरा इंतजार ही कर रहा था. मुझे देखते ही बोला, ‘बधाई हो सुरभि, सुना है तुम्हारे बहुत अच्छे नंबर आए हैं.’

‘‘मैं ने पैंशन की बात कही तो बोला, ‘अरे बैठो, खड़ी क्यों हो? थोड़ा शरबत तो पी लो. इतनी दुपहरिया में तो आई हो.’

‘‘फिर शरबत का एक गिलास उस ने स्वयं उठा लिया तथा दूसरा मेरी ओर सरका दिया.

‘‘मैं यह सोच कर कि ये बडे़ लोग हैं, इन की कही बातों को मानना चाहिए शरबत पी गई. फिर जब होश आया तो स्वयं को निर्वस्त्र पाया. मेरे ऊपर वह दरिंदा भी निर्वस्त्र पड़ा हुआ था. सारा माहौल देख कर व अपनी शारीरिक पीड़ा से इतना तो समझ सकी कि इस दुष्ट ने मेरा सर्वनाश कर दिया है.

‘‘मेरी दशा घायल शेरनी सी हो रही थी, पर वह दरिंदा मेरी बरबादी का आनंद

लेता हुआ बोला, ‘मुफ्त में पैसा ले जाती है तो अच्छा लगता है. आज अपना हक वसूल लिया

तो काटने दौड़ती है. खबरदार, चुपचाप निकल ले. वह तेरे बाप की पैंशन रखी है, तेरी कीमत

भी बढ़ा कर उस में रख दी है. गिन ले, कम

लगे तो और ले ले. जो कीमत कहेगी दे दूंगा. बहुत आनंद मिला. तू ने मुझे अपना प्रशंसक

बना लिया है. तू तो मुझे पहली नजर में ही भा

गई थी…’ और न जाने क्याक्या वह निर्लज्ज बकता रहा.

‘‘उस के पैसे वहीं छोड़ कर, लड़खड़ाते कदमों से मैं जब घर पहुंची तो उस वक्त मां के पास पासपड़ोस की औरतें भी बैठी हुई थीं. मैं मां के गले लग कर फफकफफक कर रोती हुई सब बोल गई. मां के साथ सभी ने मेरी आपबीती सुन ली तो वे अपनेअपने ढंग से सभी ढाढ़स बंधा कर चली गईं. मां पत्थर की मूर्ति सी बन गईं.

‘‘2 दिनों तक हम मांबेटी, अपने दुख के साथ घर में अकेली बंद पड़ी रहीं. जो पासपड़ोस रातदिन हमारे घर आताजाता रहता था, कोई झंकने नहीं आया, जैसे हमारे घर में छूत की बीमारी हो गई हो. 2 दिनों बाद पड़ोस की राधा दीदी खाना ले कर आईं और बोलीं, ‘भाभी,

यों पत्थर बनने से काम नहीं चलेगा. दिल को मजबूत करो. बिट्टो की हिम्मत बन कर उसे

राह दिखाओ, मेरा कहा मानो तो इस गांव से दूर चली जाओ.’

‘‘दीदी का अपनत्व पा कर, मां के दिल में जमा दर्द आंखों से आंसू बन कर बह निकला. वे रोते हुए बोलीं, ‘दीदी, जिस गांव को अपना रक्षक मानती थी, वही तो इज्जत का भक्षक बन बैठा, अब मैं अकेली विधवा, एक जवान, खूबसूरत लड़की को ले कर कहां जाऊं?’

‘‘दीदी, मां को सस्नेह गले लगा कर बोलीं, ‘भाभी, यों हिम्मत हारने से काम नहीं बनेगा. यहां रातदिन इसी कुकर्म की चर्चा से जीना दूभर हो जाएगा. बिट्टो अच्छे अंक लाई है. यहां का घरबार बेच कर, वाराणसी चली जाओ. उसे पढ़ाओ, पैरों पर खड़ा करो. भैया भी तो यही चाहते थे. भाभी, उन का सपना पूरा करना भी तो तुम्हारा कर्तव्य है.

‘‘मां पर उन की बातों का अवश्य कुछ असर हुआ, जिस से वे कुछ शांत हो गईं. फिर धीरे से बोलीं, ‘घर के लिए इतनी जल्दी ग्राहक ढूंढ़ना भी कठिन है, सौ बातें उठेंगी.’

‘‘तो वे बोलीं, ‘भाभी, तुम उठने वाली बातों की चिंता छोड़ो, बिट्टो का जीवन संवारने की सोचो. बहुत से लोग हैं जो घरजमीन खरीदना चाहते हैं. तुम तो जाने की तैयारी करो. हां इस बात का पूरा ध्यान रखना कि किसी को कानोकान खबर न हो कि तुम कहां जा रही हो.’

‘‘दीदी की मदद से गांव का सब काम निबटा कर हम वाराणसी आ पहुंचे. यहां थोड़ी भागदौड़ के बाद मां को एक बुटीक में काम मिल गया और मुझे अच्छे कालेज में ऐडमिशन. दोनों अपनेअपने काम में तनमन से लग गईं.’’

राज, यह मां ने ही कहा था कि कभी शादी के निर्णय का समय आए, तो अपने साथी को अवश्य बता देना. अन्य किसी के सामने कभी भी इस दुष्कर्म की चर्चा न करना.’’

यह कह कर सुरभि खामोश हो गई तो मैं ने उस के हाथों पर हाथ रखते हुए कहा, ‘‘मैं तुम्हें और तुम्हारी मां की हिम्मत को तहे दिल से सलाम करता हूं. रोज ही टीवी पर, पेपर्स में इस तरह की दुर्घटनाएं सुनने, पढ़ने को मिल जाती हैं. हमेशा से पुरुष वर्ग स्त्रियों पर इस तरह के जुल्म करता रहा है.

‘‘इन ज्यादतियों की जड़ें हमारे धार्मिक ग्रंथों से भी जुड़ी हुई हैं. रामायण में वर्णित है कि सीता को रावण हरण कर ले जाता है तो उन के पति राम उन की पवित्रता की अग्निपरीक्षा लेते हैं. उस के बाद भी उन्हें त्याग कर वनवास हेतु मजबूर कर दिया जाता है.’’

वह दिन शनिवार का दिन था. हम दोनों लगभग 2 बजे औफिस से निकले थे और अब समय 4 से ऊपर हो चुका था. हम दोनों का मन भी कसैला हो गया था तथा कुछ भूख भी लग आई थी, इसलिए हम पास के रैस्टोरैंट में चले गए. वहां सुरभि ने आहिस्ता से कहा, ‘‘राज, मैं अपने कलंक से आप का जीवन बरबाद नहीं करना चाहती. मुझे माफ कीजिएगा, मैं बेवजह आप की राह में आ गई.’’

‘‘कैसी बातें करती हो सुरभि’’, मैं ने उस के करीब आ कर कहा, मैं तहेदिल से तुम से प्यार करने लगा हूं. प्यार कोई सूखा पत्ता नहीं होता, जो हवा से उड़ जाए. वह तो मजबूत चट्टान सा अडिग होता है, जो अनेक तूफानों का सामना कर सकता है.

‘‘एक अनजान पुरुष ने तुम्हारे साथ दुष्कर्म किया, उस से तुम कैसे कलंकित हो

गई? उस की सजा तुम क्यों पाओगी? जो भी सजा मिलनी चाहिए, उस दुष्कर्मी को मिलनी चाहिए, तुम स्वयं को हीन न समझे, मैं तुम्हारे साथ हूं. हम दोनों मिल कर एक खुशहाल दुनिया बसाएंगे, जहां घृणा तिरस्कार नहीं, सिर्फ प्यार और विश्वास होगा.’’

‘‘राज, आप को विश्वास है कि आप के मातापिता मुझ जैसी लड़की को अपनाएंगे, स्वीकार करेंगे?’’ उस ने अपनी शंका धीरे से व्यक्त की.

‘‘हां, मुझे पूरा विश्वास है. वे दोनों बहुत समझदार हैं और दकियानूसी विचारों के नहीं हैं. मेरे परिवार में मेरे कुछ कजिंस ने अंतर्जातीय विवाह किए तो उस मौके पर सारे परिवार को समझने का काम मेरे मम्मीपापा ने ही किया.

‘‘मैं अपने मम्मीपापा को अपने प्यार

अपने निर्णय के बारे में तो बताऊंगा. मुझे पूरा विश्वास है कि जीवन और समाज के प्रति

मेरी इस सकारात्मक सोच, मेरी पहल का वे स्वागत करेंगे.’’

मैं ने प्यार से उस का हाथ अपने हाथों में

ले कर कहा, ‘‘सुरभि, मेरी इस सकारात्मक

पहल में मेरा साथ दोगी न? मेरी हमसफर बन कर मेरा संबल बनोगी न? यदि मम्मीपापा को समझने में थोड़ा समय लग जाए, तो मेरा इंतजार करोगी न?’’

उस ने मुसकराते हुए सहमति से सिर हिला दिया.

मैं ने गाड़ी की रफ्तार बढ़ाते हुए कहा, ‘‘चलो, फिर आज ही तुम्हें मम्मीपापा से मिलवा देता हूं, देरी क्यों करना, शुभस्य शीघ्रम.’’

वह खिलखिला कर हंस पड़ी. उस की हंसी में मेरी खुशी समाहित थी, इसलिए वह खुशहाल जीवन की ओर इशारा करती प्रतीत हो रही थी.

असली चेहरा : अवंतिका अपनी पति की क्यों बुराई करती थी ?

नई कालोनी में आए मुझे काफी दिन हो गए थे. किंतु समयाभाव के कारण किसी से मिलनाजुलना नहीं हो पाता था. इसी वजह से किसी से मेरी कोई खास जानपहचान नहीं हो पाई थी. स्कूल में टीचर होने के कारण मुझे घर से सुबह 8 बजे निकलना पड़ता और 3 बजे वापस आने के बाद घर के काम निबटातेनिबटाते शाम हो जाती थी. किसी से मिलनेजुलने की सोचने तक की फुरसत नहीं मिल पाती थी. मेरे घर से थोड़ी दूर पर ही अवंतिका का घर था. उस की बेटी योगिता मेरे ही स्कूल में और मेरी ही कक्षा की विद्यार्थी थी. वह योगिता को छोड़ने बसस्टौप पर आती थी. उस से मेरी बातचीत होने लगी. फिर धीरेधीरे हम दोनों के बीच एक अच्छा रिश्ता कायम हो गया. फिर शाम को अवंतिका मेरे घर भी आने लगी. देर तक इधरउधर की बातें करती रहती.

अवंतिका से मिल कर मुझे अच्छा लगता था. उस की बातचीत का ढंग बहुत प्रभावशाली था. उस के पहनावे और साजशृंगार से उस के काफी संपन्न होने का भी एहसास होता था. मैं खुश थी कि एक नई जगह अवंतिका के रूप में मुझे एक अच्छी सहेली मिल गई है. योगिता वैसे तो पढ़ाई में ठीक थी पर अकसर होमवर्क कर के नहीं लाती थी. जब पहले दिन मैं ने उसे डांटते हुए होमवर्क न करने का कारण पूछा, तो उस ने बड़ी मासूमियत से जवाब दिया, ‘‘पापा ने मम्मा को डांटा था, इसलिए मम्मा रो रही थीं और मेरा होमवर्क नहीं करा पाईं.’’ योगिता आगे भी अकसर होमवर्क कर के नहीं लाती थी और पूछने पर कारण हमेशा मम्मापापा का झगड़ा ही बताती थी.

वैसे तो मात्र एक शिक्षिका की हैसियत से घर पर मैं अवंतिका से इस बारे में बात नहीं करती पर वह चूंकि मेरी सहेली बन चुकी थी और फिर प्रश्न योगिता की पढ़ाई से भी संबंधित था, इसलिए एक दिन अवंतिका जब मेरे घर आई तो मैं ने उसे योगिता के बारबार होमवर्क न करने और उस के पीछे बताने वाले कारण का उस से उल्लेख किया. मेरी बात सुन उस की आंखों में आंसू आ गए और फिर बोली, ‘‘मैं नहीं चाहती थी कि आप के सामने अपने घर की कमियां उजागर करूं, पर जब योगिता से आप को पता चल ही गया है हमारे झगड़े के बारे में तो आज मैं भी अपने दिल की बात कह कर अपना मन हलका करना चाहूंगी… दरअसल, मेरे पति का स्वभाव बहुत खराब है.

उन की बातबात पर मुझ में कमियां ढूंढ़ने और मुझ पर चीखनेचिल्लाने की आदत है. लाख कोशिश कर लूं पर मैं उन्हें खुश नहीं रख पाती. मैं उन्हें हर तरह से बेसलीकेदार लगती हूं. आप ही बताएं आप को मैं बेसलीकेदार लगती हूं? क्या मुझे ढंग से पहननाओढ़ना नहीं आता या मेरे बातचीत का तरीका अशिष्ट है? मैं तो तंग आ गई हूं रोजरोज के झगड़े से… पर क्या करूं बरदाश्त करने के अलावा कोई रास्ता भी तो नहीं है मेरे पास.’’

‘‘मैं तुम्हारे पति से 2-4 बार बसस्टौप पर मिली हूं. उन से मिल कर तो नहीं लगता कि वे इतने बुरे मिजाज के होंगे,’’ मैं ने कहा.

‘‘किसी के चेहरे से थोड़े ही उस की हकीकत का पता चल सकता है… हकीकत क्या है, यह तो उस के साथ रह कर ही पता चलता है,’’ अवंतिका बोली.

मैं ने उस की लड़ाईझगड़े वाली बात को ज्यादा महत्त्व न देते हुए कहा, ‘‘तुम ने बताया था कि तुम्हारे पति अकसर काम के सिलसिले में बाहर जाते रहते हैं… वे बाहर रहते हैं तब तो तुम्हारे पास घर के काम और योगिता की पढ़ाई दोनों के लिए काफी समय होता होगा? तुम्हें योगिता की पढ़ाई पर ध्यान देना चाहिए.’’ ‘‘किसी एक के खयाल रखने से क्या होगा? उस के पापा को तो किसी बात की परवाह ही नहीं होती. बेटी सिर्फ मेरी ही तो नहीं है? उन की भी तो है. उन्हें भी तो अपनी जिम्मेदारी का एहसास होना चाहिए. समय नहीं है तो न पढ़ाएं पर जब घर में हैं तब बातबात पर टोकाटाकी कर मेरा दिमाग तो न खराब करें… मैं तो चाहती हूं कि ज्यादा से ज्यादा दिन वे टूअर पर ही रहें…कम से कम घर में शांति तो रहती है.’’

अवंतिका की बातें सुन कर मेरा मन खराब हो गया. देखने में तो उस के पति सौम्य, सुशिक्षित लगते हैं, पर अंदर से कोई कैसा होगा, यह चेहरे से कहां पता चल सकता है? एक पढ़ालिखा उच्चपदासीन पुरुष भी अपने घर में कितना दुर्व्यवहार करता है, यह सोचसोच कर अवंतिका के पति से मुझे नफरत होने लगी. अब अकसर अवंतिका अपने घर की बातें बेहिचक मुझे बताने लगी. उस की बातें सुन कर मुझे उस से सहानुभूति होने लगी कि इतनी अच्छी औरत की जिंदगी एक बदमिजाज पुरुष की वजह से कितनी दुखद हो गई… पहले जब कभी योगिता को बसस्टौप पर छोड़ने अवंतिका की जगह योगिता के पापा आते थे, तो मैं उन से हर विषय पर बात करती थी, किंतु उन की सचाई से अवगत होने के बाद मैं कोशिश करती कि उन से मेरा सामना ही न हो और जब कभी सामना हो ही जाता तो मैं उन्हें अनदेखा करने की कोशिश करती. मेरी धारणा थी कि जो इनसान अपनी पत्नी को सम्मान नहीं दे सकता उस की नजरों में दूसरी औरतों की भला क्या अहमियत होगी.

एक दिन अवंतिका काफी उखड़े मूड में मेरे पास आई और रोते हुए मुझ से कहा कि मैं 2 हजार योगिता के स्कूल टूअर के लिए अपने पास से जमा कर दूं. पति के वापस आने के बाद वापस दे देगी. चूंकि मैं योगिता की कक्षाध्यापिका थी, इसलिए मुझे पता था कि स्कूल टूअर के लिए बच्चों को 2 हजार देने हैं. अत: मैं ने अवंतिका से पैसे देने का वादा कर लिया. पर उस का रोना देख कर मैं पूछे बगैर न रह सकी कि उसे पैसे मुझ से लेने की जरूरत क्यों पड़ गई?

मेरे पूछते ही जैसे अवंतिका के सब्र का बांध टूट पड़ा. बोली, ‘‘आप को क्या बताऊं मैं अपने घर की कहानी… कैसे जिंदगी गुजार रही हूं मैं अपने पति के साथ… बिलकुल भिखारी बना कर रखा है मुझे. कितनी बार कहा अपने पति से कि मेरा एटीएम बनवा दो ताकि जब कभी तुम बाहर रहो तो मैं अपनी जरूरत पर पैसे निकाल सकूं. पर जनाब को लगता है कि मेरा एटीएम कार्ड बन गया तो मैं गुलछर्रे उड़ाने लगूंगी, फुजूलखर्च करने लगूंगी. एटीएम बनवा कर देना तो दूर हाथ में इतने पैसे भी नहीं देते हैं कि मैं अपने मन से कोई काम कर सकूं. जाते समय 5 हजार पकड़ा गए. कल 3 हजार का एक सूट पसंद आ गया तो ले लिया.1 हजार ब्यूटीपार्लर में खत्म हो गए. रात में 5 सौ का पिज्जा मंगा लिया. अब केवल 5 सौ बचे हैं. अब देख लीजिए स्कूल से अचानक 3 हजार मांग लिए गए टूअर के लिए तो मुझे आप से मांगने आना पड़ गया… क्या करूं 2 ही रास्ते बचे थे मेरे पास या तो बेटी की ख्वाहिश का गला घोट कर उसे टूअर पर न भेजूं या फिर किसी के सामने हाथ फैलाऊं. क्या करती बेटी को रोता नहीं देख सकती, तो आप के ही पास आ गई.’’

अवंतिका की बात सुन कर मैं सोच में पड़ गई. अगर 2 दिन के लिए पति क्व5 हजार दे कर जाता है, तो वे कोई कम तो नहीं हैं पर उन्हीं 2 दिनों में पति के घर पर न होते हुए उन पैसों को आकस्मिक खर्च के लिए संभाल कर रखने के बजाय साजशृंगार पर खर्च कर देना तो किसी समझदार पत्नी के गुण नहीं हैं? शायद उस की इसी आदत की वजह से ही उस के पति एटीएम या ज्यादा पैसे एकसाथ उस के हाथ में नहीं देते होंगे, क्योंकि उन्हें पता होगा कि पैसे हाथ में रहने पर अवंतिका इन्हीं चीजों पर खर्च करती रहेगी. पर फिर भी मैं ने यह कहते हुए उसे पैसे दे दिए कि मैं कोई गैर थोड़े ही हूं, जब कभी पैसों की ऐसी कोई आवश्यकता पड़े तो कहने में संकोच न करना.

कुछ ही दिनों बाद विद्यालय में 3 दिनों की छुट्टी एकसाथ पड़ने पर मेरे पास कुछ खाली समय था, तो मैं ने सोचा कि मैं अवंतिका की इस शिकायत को दूर कर दूं कि मैं एक बार भी उस के घर नहीं आई. मैं ने उसे फोन कर के शाम को अपने आने की सूचना दे दी और निश्चित समय पर उस के घर पहुंच गई. पर डोरबैल बजाने से पहले ही मेरे कदम ठिठक गए. अंदर से अवंतिका और उस के पति के झगड़े की आवाजें आ रही थीं. उस के पति काफी गुस्से में थे, ‘‘कितनी बार समझाया है तुम्हें कि मेरा सूटकेस ध्यान से पैक किया करो, पर तुम्हारा ध्यान पता नहीं कहां रहता है. हर बार कोई न कोई सामान छोड़ ही देती हो तुम… इस बार बनियान और शेविंग क्रीम दोनों ही नहीं रखे थे तुम ने. तुम्हें पता है कि गैस्टहाउस शहर से कितनी दूर है? दूरदूर तक दुकानों का नामोनिशान तक नहीं है. तुम अंदाजा भी नहीं लगा सकती हो कि मुझे कितनी परेशानी और शर्म का सामना करना पड़ा वहां पर… इस बार तो मेरे सहयोगी ने हंसीहंसी में कह भी दिया कि भाभीजी का ध्यान कहां रहता है सामान पैक करते समय?’’

‘‘देखो, तुम 4 दिन बाद घर आए हो… आते ही चीखचिल्ला कर दिमाग न खराब करो. तुम्हें लगता है कि मैं लापरवाह और बेसलीकेदार हूं तो तुम खुद क्यों नहीं पैक कर लेते हो अपना सूटकेस या फिर अपने उस सहयोगी से ही कह दिया करो आ कर पैक कर जाया करे? मुझे क्यों आदेश देते हो?’’ यह अवंतिका की आवाज थी.

‘‘जब मुझे पहले से पता होता है कि मुझे जाना है तो मैं खुद ही तो पैक करता हूं अपना सूटकेस, पर जब औफिस में जाने के बाद पता चलता है कि मुझे जाना है तो मेरी मजबूरी हो जाती है कि मैं तुम से कहूं कि मेरा सूटकेस पैक कर के रखना. मैं तुम्हें कार्यक्रम तय होते ही सूचित कर देता हूं ताकि तुम्हें हड़बड़ी में सामान न डालना पड़े. इस बार भी मैं ने 3 घंटे पहले फोन कर दिया था तुम्हें.’’

‘‘जब तुम्हारा फोन आया था उसी समय मैं ने चेहरे पर फेस पैक लगाया था. उसे सूखने में तो समय लगता है न? जब तक वह सूखा तब तक तुम्हारा औफिस बौय आ गया सूटकेस लेने, बस जल्दी में चीजें छूट गईं. इस में मेरी इतनी गलती नहीं है जितना तुम चिल्ला रहे हो.’’

‘‘गलती छोटी है या बड़ी यह तो नतीजे पर निर्भर करता है. 3 दिन मैं ने बिना बनियान के शर्ट पहनी और अपने सहयोगी से क्रीम मांग कर शेविंग की. इस में तुम्हें न शर्म का एहसास है और न अफसोस का.’’ ‘‘तुम्हें तो बस बात को तूल देने की आदत पड़ गई है. कोई दूसरा पति होता तो बीवीबच्चों से मिलने की खुशी में इन बातों का जिक्र ही नहीं करता… और तुम हो कि उसी बात को तूल दिए जा रहे हो.’’ ‘‘बात एक बार की होती तो मैं भी न तूल देता, पर यह गलती तो तुम हर बार करती हो… कितनी बार चुप रहूं?’’

‘‘नहीं चुप रह सकते हो तो ले आओ कोई दूसरी जो ठीक से तुम्हारा खयाल रख सके. मुझ में तो तुम्हें बस कमियां ही कमियां नजर आती हैं.’’ टूअर पर गए पति के पास पहनने को बनियान नहीं थी, दाढ़ी करने के लिए क्रीम नहीं थी अवंतिका की गलती की वजह से. फिर भी वह शर्मिंदा होने के बजाय उलटा बहस कर रही है. कैसी पत्नी है यह? अवंतिका का असली रूप उजागर हो रहा था मेरे सामने. अंदर के माहौल को सोच कर मैं ने उलटे पांव लौट जाने में ही भलाई समझी. पर ज्यों ही मैं ने लौटने के लिए कदम बढ़ाया. अंदर से गुस्से में बड़बड़ाते उस के पति दरवाजा खोल कर बाहर निकल आए.

दरवाजे पर मुझे खड़ा देख उन के कदम ठिठक गए. बोले, ‘‘अरे, मैम आप? आप बाहर क्यों खड़ी हैं? अंदर आइए न,’’ कह कर दरवाजे के एक किनारे खड़े हो कर उन्होंने मुझे अंदर आने का इशारा किया साथ ही अवंतिका को आवाज दी, ‘‘अवंतिका देखो नेहा मैम आई हैं.’’ मुझे देखते ही अवंतिका खुश हो गई. उस के चेहरे पर कहीं भी शर्मिंदगी का एहसास न था कि कहीं मैं ने उन की बहस सुन तो नहीं ली है. किंतु उस के पति के चेहरे पर शर्मिंदगी का भाव साफ नजर आ रहा था.

अवंतिका के घर के अंदर पहुंचने से पहले ही पतिपत्नी के झगड़े को सुन खिन्न हो चुका मेरा मन अंदर पहुंच कर अवंतिका के बेतरतीब और गंदे घर को देख कर और खिन्न हो गया. अवंतिका के हर पल सजेसंवरे व्यक्तित्व के ठीक विपरीत उस का घर अकल्पनीय रूप से अस्तव्यस्त था. कीमती सोफे पर गंदे कपड़े और डाइनिंगटेबल पर जूठे बरतनों के साथसाथ कंघी और तेल जैसी वस्तुएं भी पड़ी हुई थीं. योगिता का स्कूल बैग और जूते ड्राइंगरूम में ही इधरउधर पड़े थे. आज तो स्कूल बंद था. इस का मतलब यह सारा सामान कल से ही इसी तरह पड़ा है. बैडरूम का परदा खिसका पड़ा था. अत: न चाहते हुए वहां भी नजर चली ही गई. बिस्तर पर भी कपड़ों का अंबार साफ नजर आ रहा था. ऐसा लग रहा था कि धुले कपड़ों को कई दिनों से तह कर के नहीं रखा गया. उस के घर की हालत पर अचंभित मैं सोफे पर कपड़े सरका कर खुद ही जगह बना कर बैठ गई. ‘‘आप आज हमारे घर आएंगी यह सुन कर योगिता बहुत खुश थी. बेसब्री से आप का इंतजार कर रही थी पर अभीअभी सहेलियों के साथ खेलने निकल गई है,’’ कहते हुए अवंतिका मेरे लिए पानी लेने किचन में गई तो पीछेपीछे उस के पति भी चले गए.

मुझे साफ सुनाई दिया वे कह रहे थे, ‘‘जब तुम्हें पता था कि मैम आने वाली हैं तब तो घर को थोड़ा साफ कर लिया होता…क्या सोच रही होंगी वे घर की हालत देख कर?’’

‘‘मैम कोई मेहमान थोड़े ही हैं… कुछ भी नहीं सोचेंगी… तुम उन की चिंता न करो और जरा जल्दी से चायपत्ती और कुछ खाने को लाओ,’’ कह उस ने पति को दुकान पर भेज दिया. उस के घर पहुंच कर मुझे झटके पर झटका लगता जा रहा था. मैं अवंतिका की गृहस्थी चलाने का ढंग देख कर हैरान हो रही थी. 2 दिन पहले ही अवंतिका मेरे घर से चायपत्ती यह कह कर लाई थी कि खत्म हो गई है और तब से आज तक खरीद कर नहीं लाई? बारबार कहने और बुलाने के बाद आज पूर्व सूचना दे कर मैं आई हूं फिर भी घर में चाय के साथ देने के लिए बिस्कुट तक नहीं?

उस के पति के जाने के बाद मैं ने सोचा कि अकेले बैठने से अच्छा है अवंतिका के साथ किचन में ही खड़ी हो जाऊं. पर किचन में पहुंचते ही वहां जूठे बरतनों का अंबार देख और अजीब सी दुर्गंध से घबरा कर वापस ड्राइंगरूम में आ कर बैठने में ही भलाई समझी. मेरा मन बुरी तरह उचट चुका था. मैं समझ गई थी कि अवंतिका उन औरतों में से है, जिन के लिए बस अपना साजशृंगार ही महत्त्वपूर्ण होता है. घर के काम और व्यवस्था से उन्हें कुछ लेनादेना नहीं होता और उन पर कोई उंगली न उठा पाए, इस के लिए वे सब के सामने अपने को बेबस और लाचार सिद्ध करती रहती हैं और सारा दोष अपने पति के मत्थे मढ़ देती हैं. उस के घर आने के अपने निर्णय पर मुझे अफसोस होने लगा था. हर समय सजीसंवरी दिखने वाली अवंतिका के घर की गंदगी में घुटन होने लगी थी. चाय के कप पर जमी गंदगी को अनदेखा कर जल्दीजल्दी चाय का घूंट भर कर मैं वहां से निकल ली. वहां से वापस आ कर मेरी सोच पलट गई. उस के घर की तसवीर मेरे सामने स्पष्ट हो गई थी. अवंतिका उन औरतों में से थी, जो अपनी कमियों को छिपाने के लिए अपने पति को दूसरों के सामने बदनाम करती हैं. अवंतिका के पति एक सौम्य, सुशिक्षित और सलीकेदार व्यक्ति थे. निश्चित ही वे घर को सुव्यवस्थित और आकर्षक ढंग से सजाने के शौकीन होंगे तभी तो अपनी मेहनत की कमाई का एक बड़ा हिस्सा उन्होंने घर में कीमती फर्नीचर, परदों और शो पीस पर खर्च किया था. पर उन के रखरखाव और देखभाल की जिम्मेदारी तो अवंतिका की ही होगी. पर अवंतिका के स्वभाव में घर की सफाई और सुव्यवस्था शामिल नहीं थी. इसी वजह से उस के पति नाखुश और असंतुष्ट हो कर उस पर अपनी खीज उतारते होंगे.

सुबहसवेरे घर छोड़ कर काम पर गए पतियों के लिए घर एक आरामगाह होता है. वहां के लिए शाम को औफिस से छूटते ही पति ठीक उसी तरह भागते हैं जैसे स्कूल से छूटते ही छोटे बच्चे भागते हैं. बाहर की आपाधापी, भागदौड़ से थका पति घर पहुंच कर अगर साफसुथरा घर और शांत माहौल पाता है, तो उस की सारी थकान और तनाव खत्म हो जाता है. पर अवंतिका के अस्तव्यस्त घर में पहुंच कर तो किसी को भी सुकून का एहसास नहीं हो सकता है. जिस घर के कोनेकोने में नकारात्मकता विद्यमान हो वहां रहने वालों को सुकून और शांति कैसे मिल सकती है? सुबह से शाम तक औफिस में खटता पति अपनी पत्नी के ही हाथों दूसरों के बीच बदनाम होता रहता है. अवंतिका के घर से निकलते वक्त मेरी धारणा पलट चुकी थी. अब मेरे अंदर उस के पति के लिए सम्मान और सहानुभूति थी और अवंतिका के लिए नफरत.

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