रूह का स्पंदन: क्या थी दीक्षा के जीवन की हकीकत

‘‘डूयू बिलीव इन वाइब्स?’’ दक्षा द्वारा पूरे गए इस सवाल पर सुदेश चौंका. उस के चेहरे के हावभाव तो बदल ही गए, होंठों पर हलकी मुसकान भी तैर गई. सुदेश का खुद का जमाजमाया कारोबार था. वह सुंदर और आकर्षक युवक था. गोरा चिट्टा, लंबा, स्लिम,

हलकी दाढ़ी और हमेशा चेहरे पर तैरती बाल सुलभ हंसी. वह ऐसा लड़का था, जिसे देख कर कोई भी पहली नजर में ही आकर्षित हो जाए. घर में पे्रम विवाह करने की पूरी छूट थी, इस के बावजूद उस ने सोच रखा था कि वह मांबाप की पसंद से ही शादी करेगा.

सुदेश ने एकएक कर के कई लड़कियां देखी थीं. कहीं लड़की वालों को उस की अपार प्यार करने वाली मां पुराने विचारों वाली लगती थी तो कहीं उस का मन नहीं माना. ऐसा कतई नहीं था कि वह कोई रूप की रानी या देवकन्या तलाश रहा था. पर वह जिस तरह की लड़की चाहता था, उस तरह की कोई उसे मिली ही नहीं थी.

सुदेश का अलग तरह का स्वभाव था. उस की सीधीसादी जीवनशैली थी, गिनेचुने मित्र थे. न कोई व्यसन और न किसी तरह का कोई महंगा शौक. वह जितना कमाता था, उस हिसाब से उस के कपड़े या जीवनशैली नहीं थी. इस बात को ले कर वह हमेशा परेशान रहता था कि आजकल की आधुनिक लड़कियां उस के घरपरिवार और खास कर उस के साथ व्यवस्थित हो पाएंगी या नहीं.

अपने मातापिता का हंसताखेलता, मुसकराता, प्यार से भरपूर दांपत्य जीवन देख कर पलाबढ़ा सुदेश अपनी भावी पत्नी के साथ वैसे ही मजबूत बंधन की अपेक्षा रखता था. आज जिस तरह समाज में अलगाव बढ़ रहा है, उसे देख कर वह सहम जाता था कि अगर ऐसा कुछ उस के साथ हो गया तो…

सुदेश की शादी को ले कर उस की मां कभीकभी चिंता करती थीं लेकिन उस के पापा उसे समझाते रहते थे कि वक्त के साथ सब ठीक हो जाएगा. सुदेश भी वक्त पर भरोसा कर के आगे बढ़ता रहा. यह सब चल रहा था कि उस से छोटे उस के चचेरे भाई की सगाई का निमंत्रण आया. इस से सुदेश की मां को लगा कि उन के बेटे से छोटे लड़कों की शादी हो रही हैं और उन का हीरा जैसा बेटा किसी को पता नहीं क्यों दिखाई नहीं देता.

चिंता में डूबी सुदेश की मां ने उस से मेट्रोमोनियल साइट पर औनलाइन रजिस्ट्रेशन कराने को कहा. मां की इच्छा का सम्मान करते हुए सुदेश ने रजिस्ट्रेशन करा दिया. एक दिन टाइम पास करने के लिए सुदेश साइट पर रजिस्टर्ड लड़कियों की प्रोफाइल देख रहा था, तभी एक लड़की की प्रोफाइल पर उस की नजर ठहर गई.

ज्यादातर लड़कियों ने अपनी प्रोफाइल में शौक के रूप में डांसिंग, सिंगिंग या कुकिंग लिख रखा था. पर उस लड़की ने अपनी प्रोफाइल में जो शौक लिखे थे, उस के अनुसार उसे ट्रैवलिंग, एडवेंचर ट्रिप्स, फूडी का शौक था. वह बिजनैस माइंडेड भी थी.

उस की हाइट यानी ऊंचाई भी नौर्मल लड़कियों से अधिक थी. फोटो में वह काफी सुंदर लग रही थी. सुदेश को लगा कि उसे इस लड़की के लिए ट्राइ करना चाहिए. शायद लड़की को भी उस की प्रोफाइल पसंद आ जाए और बात आगे बढ़ जाए. यही सोच कर उस ने उस लड़की के पास रिक्वेस्ट भेज दी.

सुदेश तब हैरान रह गया, जब उस लड़की ने उस की रिक्वेस्ट स्वीकार कर ली. हिम्मत कर के उस ने साइट पर मैसेज डाल दिया. जवाब में उस से फोन नंबर मांगा गया. सुदेश ने अपना फोन नंबर लिख कर भेज दिया. थोड़ी ही देर में उस के फोन की घंटी बजी. अनजान नंबर होने की वजह से सुदेश थोड़ा असमंजस में था. फिर भी उस ने फोन रिसीव कर ही लिया.

दूसरी ओर से किसी संभ्रांत सी महिला ने अपना परिचय देते हुए कहा, ‘‘मैं दक्षा की मम्मी बोल रही हूं. आप की प्रोफाइल मुझे अच्छी लगी, इसलिए मैं चाहती हूं कि आप अपना बायोडाटा और कुछ फोटोग्राफ्स इसी नंबर पर वाट्सऐप कर दें.’’

सुदेश ने हां कह कर फोन काट दिया. उस के लिए यह सब अचानक हो गया था. इतनी जल्दी जवाब आ जाएगा और बात भी हो जाएगी, सुदेश को उम्मीद नहीं थी. सोचविचार छोड़ कर उस ने अपना बायोडाटा और फोटोग्राफ्स वाट्सऐप कर दिए.

फोन रखते ही दक्षा ने मां से पूछा, ‘‘मम्मी, लड़का किस तरह बातचीत कर रहा था? अपने ही इलाके की भाषा बोल रहा था या किसी अन्य प्रदेश की भाषा में बात कर रहा था?’’

‘‘बेटा, फिलहाल वह दिल्ली में रह रहा है और दिल्ली में तो सभी प्रदेश के लोग भरे पड़े हैं. यहां कहां पता चलता है कि कौन कहां का है. खासकर यूपी, मध्य प्रदेश, उत्तराखंड और राजस्थान वाले तो अच्छी हिंदी बोल लेते हैं.’’ मां ने बताया.

‘‘मम्मी, मैं तो यह कह रही थी कि यदि वह अपने ही क्षेत्र का होता तो अच्छा रहता.’’ दक्षा ने मन की बात कही. लड़का गढ़वाली ही नहीं, अपने इलाके का ही है. मां ने बताया तो दक्षा खुश हो उठी.

दक्षा मां से बातें कर रही थी कि उसी समय वाट्सऐप पर मैसेज आने की घंटी बजी. दक्षा ने फटाफट बायोडाटा और फोटोग्राफ्स डाउनलोड किए. बायोडाटा परफेक्ट था. दक्षा की तरह सुदेश भी अपने मांबाप की एकलौती संतान था. न कोई भाई न कोई बहन. दिल्ली में उस का जमाजमाया कारोबार था. खाने और ट्रैवलिंग का शौक. वाट्सऐप पर आए फोटोग्राफ्स में एक दाढ़ी वाला फोटो था.

दक्षा को जो चाहिए था, वे सारे गुण तो सुदेश में थे. पर दक्षा खुश नहीं थी. उस के परिवार में जो घटा था, उसे ले कर वह परेशान थी. उसे अपनी मर्यादाओं का भी पता था. साथ ही स्वभाव से वह थोड़ी मूडी और जिद्दी थी. पर समय और संयोग के हिसाब से धीरगंभीर और जिम्मेदारी भी थी.

दक्षा का पालनपोषण एक सामान्य लड़की से हट कर हुआ था. ऐसा नहीं करते, वहां नहीं जाते, यह नहीं बोला जाता, तुम लड़की हो, लड़कियां रात में बाहर नहीं जातीं. जैसे शब्द उस ने नहीं सुने थे, उस के घर का वातावरण अन्य घरों से कदम अलग था. उस की देखभाल एक बेटे से ज्यादा हुई थी. घर के बिजली के बिल से ले कर बैंक से पैसा निकालने, जमा करने तक का काम वह स्वयं करती थी.

दक्षा की मां नौकरी करती थीं, इसलिए खाना बनाना और घर के अन्य काम करना वह काफी कम उम्र में ही सीख गई थी. इस के अलावा तैरना, घुड़सवारी करना, कराटे, डांस करना, सब कुछ उसे आता था. नौकरी के बजाए उसे बिजनैस में रुचि ही नहीं, बल्कि सूझबूझ भी थी. वह बाइक और कार दोनों चला लेती थी. जयपुर और नैनीताल तक वह खुद गाड़ी चला कर गई थी. यानी वह एक अच्छी ड्राइवर थी.

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दक्षा को पढ़ने का भी खासा शौक था. इसी वजह से वह कविता, कहानियां, लेख आदि भी लिखती थी. एकदम स्पष्ट बात करती थी, चाहे किसी को अच्छी लगे या बुरी. किसी प्रकार का दंभ नहीं, लेकिन घरपरिवार वालों को वह अभिमानी लगती थी. जबकि उस का स्वभाव नारियल की तरह था. ऊपर से एकदम सख्त, अंदर से मीठी मलाई जैसा.

उस की मित्र मंडली में लड़कियों की अपेक्षा लड़के अधिक थे. इस की वजह यह थी कि लिपस्टिक या नेल पौलिश के बारे में बेकार की चर्चा करने के बजाय वह वहां उठनाबैठना चाहती थी, जहां चार नई बातें सुननेसमझने को मिलें. वह ऐसी ही मित्र मंडली पसंद करती थीं. उस के मित्र भी दिलवाले थे, जो बड़े भाई की तरह हमेशा उस के साथ खड़े रहते थे.

सब से खास मित्र थी दक्षा की मम्मी, दक्षा उन से अपनी हर बात शेयर करती थी. कोई उस से प्यार का इजहार करता तो यह भी उस की मम्मी को पता होता था. मम्मी से उस की इस हद तक आत्मीयता थी. रूप भी उसे कम नहीं मिला था. न जाने कितने लड़के सालों तक उस की हां की राह देखते रहे.

पर उस ने निश्चय कर लिया था कि कुछ भी हो, वह प्रेम विवाह नहीं करेगी. इसीलिए उस की मम्मी ने बुआ के कहने पर मेट्रोमोनियल साइट पर उस की प्रोफाइल डाल दी थी. जबकि अभी वह शादी के लिए तैयार नहीं थी. उस के डर के पीछे कई कारण थे.

सुदेश और दक्षा के घर वाले चाहते थे कि पहले दोनों मिल कर एकदूसरे को देख लें. बातें कर लें और कैसे रहना है, तय कर लें. क्योंकि जीवन तो उन्हें ही साथ जीना है. उस के बाद घर वाले बैठ कर शादी तय कर लेंगे.

घर वालों की सहमति से दोनों को एकदूसरे के मोबाइल नंबर दे दिए गए. उसी बीच सुदेश को तेज बुखार आ गया, इसलिए वह घर में ही लेटा था. शाम को खाने के बाद उस ने दक्षा को मैसेज किया. फोन पर सीधे बात करने के बजाय उस ने पहले मैसेज करना उचित समझा था.

काफी देर तक राह देखने के बाद दक्षा का कोई जवाब नहीं आया. सुदेश ने दवा ले रखी थी, इसलिए उसे जब थोड़ा आराम मिला तो वह सो गया. रात करीब साढ़े 10 बजे शरीर में दर्द के कारण उस की आंखें खुलीं तो पानी पी कर उस ने मोबाइल देखा. उस में दक्षा का मैसेज आया हुआ था. मैसेज के अनुसार, उस के यहां मेहमान आए थे, जो अभीअभी गए हैं.

सुदेश ने बात आगे बढ़ाई. औपचारिक पूछताछ करतेकरते दोनों एकदूसरे के शौक पर आ गए. यह हैरानी ही थी कि दोनों के अच्छेबुरे सपने, डर, कल्पनाएं, शौक, सब कुछ काफी हद इस तरह से मेल खा रहे थे, मानो दोनों जुड़वा हों. घंटे, 2 घंटे, 3 घंटे हो गए. किसी भी लड़की से 10 मिनट से ज्यादा बात न करने वाला सुदेश दक्षा से बातें करते हुए ऐसा मग्न हो गया कि उस का ध्यान घड़ी की ओर गया ही नहीं, दूसरी ओर दक्ष ने भी कभी किसी से इतना लगाव महसूस नहीं किया था.

सुदेश और दक्षा की बातों का अंत ही नहीं हो रहा था. दोनों सुबह 7 बजे तक बातें करते रहे. दोनों ने बौलीवुड हौलीवुड फिल्मों, स्पोर्ट्स, पौलिटिकल व्यू, समाज की संरचना, स्पोर्ट्स कार और बाइक, विज्ञान और साहित्य, बच्चों के पालनपोषण, फैमिली वैल्यू सहित लगभग सभी विषयों पर बातें कर डालीं. दोनों ही काफी खुश थे कि उन के जैसा कोई तो दुनिया में है. सुबह हो गई तो दोनों ने फुरसत में बात करने को कह कर एकदूसरे से विदा ली.

घर वालों की सहमति पर सुदेश और दक्षा ने मिल कर बातें करने का निश्चय किया. सुदेश सुबह ही मिलना चाहता था, लेकिन दक्षा ने ब्रेकफास्ट कर के मिलने की बात कही. क्योंकि वह पूजापाठ कर के ही ब्रेकफास्ट करती थी. सुदेश में दक्षा से मिलने के लिए गजब का उत्साह था. दक्षा की बातों और उस के स्वभाव ने आकर्षण तो पैदा कर ही दिया था. इस के अलावा दक्षा ने अपने जीवन की कुछ महत्त्वपूर्ण बातें मिल कर बताने को कहा था. वो बातें कौन सी थीं, सुदेश उन बातों को भी जानना चाहता था.

निश्चित की गई जगह पर सुदेश पहले ही पहुंच गया था. वहां पहुंच कर वह बेचैनी से दक्षा की राह देख रहा था. वह काले रंग की शर्ट और औफ वाइट कार्गो पैंट पहन कर गया था. रेस्टोरेंट में बैठ कर वह हैडफोन से गाने सुनने में मशगूल हो गया. दक्षा ने काला टौप पहना था, जिस के लिए उस की मम्मी ने टोका भी था कि पहली बार मिलने जा रही है तो जींस टौप, वह भी काला.

तब दक्षा ने आदत के अनुसार लौजिकल जवाब दिया था, ‘‘अगर मैं सलवारसूट पहन कर जाती हूं और बाद में उसे पता चलता है कि मैं जींस टौप भी पहनती हूं तो यह धोखा देने वाली बात होगी. और मम्मी इंसान के इरादे नेक हों तो रंग से कोई फर्क नहीं पड़ता.’’

तर्क करने में तो दक्षा वकील थी. बातों में उस से जीतना आसान नहीं था. वह घर से निकली और तय जगह पर पहुंच गई. सढि़यां चढ़ कर दरवाजा खोला और रेस्टोरेंट में अंदर घुसी. फोटो की अपेक्षा रियल में वह ज्यादा सुंदर और मस्ती में गाने के साथ सिर हिलाती हुई कुछ अलग ही लग रही थी.

अचानक सुदेश की नजर दक्षा पर पड़ी तो दोनों की नजरें मिलीं. ऐसा लगा, दोनों एकदूसरे को सालों से जानते हों और अचानक मिले हों. दोनों के चेहरों पर खुशी छलक उठी थी.

खातेपीते दोनों के बीच तमाम बातें हुईं. अब वह घड़ी आ गई, जब दक्षा अपने जीवन से जुड़ी महत्त्वपूर्ण बातें उस से कहने जा रही थी. वहां से उठ कर दोनों एक पार्क में आ गए थे, जहां दोनों कोने में पेड़ों की आड़ में रखी एक बेंच पर बैठ गए. दक्षा ने बात शुरू की, ‘‘मेरे पापा नहीं हैं, सुदेश. ज्यादातर लोगों से मैं यही कहती हूं कि अब वह इस दुनिया में नहीं है, पर यह सच नहीं है. हकीकत कुछ और ही है.’’

इतना कह कर दक्षा रुकी. सुदेश अपलक उसे ही ताक रहा था. उस के मन में हकीकत जानने की उत्सुकता भी थी. लंबी सांस ले कर दक्षा ने आगे कहा, ‘‘जब मैं मम्मी के पेट में थी, तब मेरे पापा किसी और औरत के लिए मेरी मम्मी को छोड़ कर उस के साथ रहने के लिए चले गए थे.

‘‘लेकिन अभी तक मम्मीपापा के बीच डिवोर्स नहीं हुआ है. घर वालों ने मम्मी से यह कह कर उन्हें अबार्शन कराने की सलाह दी थी कि उस आदमी का खून भी उसी जैसा होगा. इस से अच्छा यही होगा कि इस से छुटकारा पा कर दूसरी शादी कर लो.’’

दक्षा के यह कहते ही सुदेश ने उस की तरफ गौर से देखा तो वह चुप हो गई. पर अभी उस की बात पूरी नहीं हुई थी, इसलिए उस ने नजरें झुका कर आगे कहा, ‘‘पर मम्मी ने सभी का विरोध करते हुए कहा कि जो कुछ भी हुआ, उस में पेट में पल रहे इस बच्चे का क्या दोष है. यानी उन्होंने गर्भपात नहीं कराया. मेरे पैदा होने के बाद शुरू में कुछ ही लोगों ने मम्मी का साथ दिया. मैं जैसेजैसे बड़ी होती गई, वैसेवैसे सब शांत होता गया.

‘‘मेरा पालनपोषण एक बेटे की तरह हुआ. अगलबगल की परिस्थितियां, जिन का अकेले मैं ने सामना किया है, उस का मेरी वाणी और व्यवहार में खासा प्रभाव है. मैं ने सही और गलत का खुद निर्णय लेना सीखा है. ठोकर खा कर गिरी हूं तो खुद खड़ी होना सीखा है.’’

अपनी पलकों को झपकाते हुए दक्षा आगे बोली, ‘‘संक्षेप में अपनी यह इमोशनल कहानी सुना कर मैं आप से किसी तरह की सांत्वना नहीं पाना चाहती, पर कोई भी फैसला लेने से पहले मैं ने यह सब बता देना जरूरी समझा.

‘‘कल कोई दूसरा आप से यह कहे कि लड़की बिना बाप के पलीबढ़ी है, तब कम से कम आप को यह तो नहीं लगेगा कि आप के साथ धोखा हुआ है. मैं ने आप से जो कहा है, इस के बारे में आप आराम से घर में चर्चा कर लें. फिर सोचसमझ कर जवाब दीजिएगा.’’

सुदेश दक्षा की खुद्दारी देखता रह गया. कोई मन का इतना साफ कैसे हो सकता है, उस की समझ में नहीं आ रहा था. अब तक दोनों को भूख लग आई थी. सुदेश दक्षा को साथ ले कर नजदीक की एक कौफी शौप में गया. कौफी का और्डर दे कर दोनों बातें करने लगे तभी अचानक दक्षा ने पूछा था, ‘‘डू यू बिलीव इन वाइब्स?’’

सुदेश क्षण भर के लिए स्थिर हो गया. ऐसी किसी बात की उस ने अपेक्षा नहीं की थी. खासकर इस बारे में, जिस में वह पूरी तरह से भरोसा करता हो. वाइब्स अलौकिक अनुभव होता है, जिस में घड़ी के छठें भाग में आप के मन को अच्छेबुरे का अनुभव होता है. किस से बात की जाए, कहां जाया जाए, बिना किसी वजह के आनंद न आए और इस का उलटा एकदम अंजान व्यक्ति या जगह की ओर मन आकर्षित हो तो यह आप के मन का वाइब्स है.

यह कभी गलत नहीं होता. आप का अंत:करण आप को हमेशा सच्चा रास्ता सुझाता है. दक्षा के सवाल को सुन कर सुदेश ने जीवन में एक चांस लेने का निश्चय किया. वह जो दांव फेंकने जा रहा था, अगर उलटा पड़ जाता तो दक्षा तुरंत मना कर के जा सकती थी. क्योंकि अब तक की बातचीत से यह जाहिर हो गया था. पर अगर सब ठीक हो गया तो सुदेश का बेड़ा पार हो जाएगा.

सुदेश ने बेहिचक दक्षा से उस का हाथ पकड़ने की अनुमति मांगी. दक्षा के हावभाव बदल गए. सुदेश की आंखों में झांकते हुए वह यह जानने की कोशिश करने लगी कि क्या सोच कर उस ने ऐसा करने का साहस किया है. पर उस की आंखो में भोलेपन के अलावा कुछ दिखाई नहीं दिया. अपने स्वभाव के विरुद्ध उस ने सुदेश को अपना हाथ पकड़ने की अनुमति दे दी.

दोनों के हाथ मिलते ही उन के रोमरोम में इस तरह का भाव पैदा हो गया, जैसे वे एकदूसरे को जन्मजन्मांतर से जानते हों. दोनों अनिमेष नजरों से एकदूसरे को देखते रहे. लगभग 5 मिनट बाद निर्मल हंसी के साथ दोनों ने एकदूसरे का हाथ छोड़ा. दोनों जो बात शब्दों में नहीं कह सके, वह स्पर्श से व्यक्त हो गई.

जाने से पहले सुदेश सिर्फ इतना ही कह सका, ‘‘तुम जो भी हो, जैसी भी हो, किसी भी प्रकार के बदलाव की अपेक्षा किए बगैर मुझे स्वीकार हो. रही बात तुम्हारे पिछले जीवन के बारे में तो वह इस से भी बुरा होता तब भी मुझ पर कोई फर्क नहीं पड़ता. बाकी अपने घर वालों को मैं जानता हूं. वे लोग तुम्हें मुझ से भी अधिक प्यार करेंगे. मैं वचन देता हूं कि बचपन से ले कर अब तक अधूरे रह गए सपनों को मैं हकीकत का रंग देने की कोशिश करूंगा.’’

सुदेश और दक्षा के वाइब्स ने एकदूसरे से संबंध जोड़ने की मंजूरी दे दी थी.

कुछ मत लाना प्रिय: रश्मि की सास ने कौनसी बात बताई थी

अजय ने टूअर पर जाते हुए हमेशा की तरह मुझे किस किया. बंदा आज भी रोमांटिक तो बहुत है पर मैं उस बात से मन ही मन डर रही थी जिस बात से शादी के पिछले 10 सालों से आज भी डरती हूं जब भी वे टूअर पर निकलते हैं. मेरा डर हमेशा की तरह सच साबित हुआ, वे बोले, ”चलता हूं डार्लिंग, 5 दिनों बाद आ जाऊंगा. बोलो, हैदराबाद से तुम्हारे लिए क्या लाऊं?”

मैं बोल पङी, ”नहीं, प्लीज कुछ मत लाना, डिअर.”

पर क्या कभी कह पाई हूं, फिर भी एक कोशिश की और कहा, ‘’अरे नहीं, कुछ मत लाना, अभी बहुत सारे कपड़े पङे हैं जो पहने ही नहीं हैं.’’

‘’ओह, रश्मि, तुम जानती हो न कि जब भी मैं टूअर पर जाता हूं, तुम्हारे लिए कुछ जरूर लाता हूं, मुझे अच्छा लगता है तुम्हारे लिए कुछ लाना.’’

थोङा प्यार और रोमांस के साथ (टूअर पर जाते हुए पति पर प्यार तो बहुत आ रहा होता है ) मैं ने भी अजय को भेज कर अपनी अलमारी खोली. यों ही ऊपरी किनारे में रखे कपड़ों का और बाकी कुछ चीजों का वही ढेर उठा लिया जो अजय पिछले कुछ सालों में टूअर से लाए थे. इस में कोई शक नहीं कि अजय मुझे प्यार करते हैं पर मुश्किल थोड़ी यह है कि अजय और मेरी पसंद थोड़ी अलगअलग है.

अजय हमेशा मेरे लिए कुछ लाते हैं. कोई भी पत्नी इस बात पर मुझ से जल सकती है. सहेलियां जलती भी हैं, साफसाफ आहें भी भरती हैं कि हाय, उन के पति तो कभी नहीं लाते ऐसे गिफ्ट्स. हर बार इस बात पर खुश मैं भी होती हूं पर परेशानी यह है कि अजय जो चीजें लाते हैं, अकसर मेरी पसंद की नहीं होतीं.

अब यह देखिए, यह जो ब्राउन कलर की साड़ी है, इस का बौर्डर देख रहे हैं कि कितना चौड़ा है. यह मुझे पसंद ही नहीं है और सब से बड़ी बात यह कि ब्राउन कलर ही नहीं पसंद है. अजीब सा लगता है यह पीला सूट. इतना पीला? मुझे खुद ही आंखों में चुभता है, औरों की क्या कहूं.

अजय को ब्राइट कलर पसंद है. कहते हैं कि तुम कितनी गोरी हो… तुम पर तो हर रंग अच्छा लगता है. मैं मन ही मन सोचती हूं कि हां, ठीक है, प्रिय, गोरी हूं तो कभी मेरे लिए मेरे फैवरिट ब्लू, व्हाइट, ब्लैक, रैड कलर भी तो लाओ. मुझ पर तो वे रंग भी बहुत अच्छे लगते हैं. और अभी तो अजय ने एक नया काम शुरू किया है. वह अपनेआप को इस आइडिया के लिए शाबाशी देते हैं, अब वह टूअर पर फ्री टाइम मिलते ही जब मेरे लिए शौपिंग के लिए किसी कपड़े की शौप पर जाते हैं, वीडिओ कौल करते हैं, कहते हैं कि मैं तुम्हें कपड़े दिखा रहा हूं तो तुम ही बताओ तुम्हें क्या चाहिए? मैं ने इस बात पर राहत की थोड़ी सांस ली पर यह भी आसान नहीं था.

पिछले टूअर पर अजय जब मेरे लिए रैडीमैड कुरती लेने गए, दुकानदार को ही फोन पकड़ा दिया कि इसे बता दो तुम्हें. मैं ने बताना शुरू किया कि कोई प्लेन ब्लू कलर की कुरती है?

”हां जी, मैडम, बिलकुल है.”

फिर वह कुरतियां दिखाने लगा. साइज समझने में थोड़ी दिक्कत उसे भी हुई और समझाने में मुझे भी. अजय को मैं ने व्हाट्सऐप पर मैसेज भी भेजे कि अभी न लें, साइज समझ नहीं आ रहा है, उन का रिप्लाई आया कि सही करवा लेना. एक कुरती लिया गया, फिर अजय हैदराबाद में वहां के फेमस पर्ल सैट लेने गए. मैं यहां दिल्ली में बैठीबैठी इस बात पर नर्वस थी कि क्या खरीदा जाएगा.

मैं बोली जा रही थी कि पहले वाले भी रखे हैं अभी तो. न खरीदो पर पत्नी प्रेम में पोरपोर डूबे हैं अजय. आप लोग मुझे पति के लाए उपहारों की कद्र न करने वाली पत्नी कतई न समझें. बस, जिस बात से घबराती हूं, वह है पसंद में फर्क.

रास्ते से अजय ने फोन किया, ”किस तरह का सैट लाऊं?”

”बहुत पतला सा, जिस में कोई बड़ा डिजाइन न हो, बस छोटेछोटे व्हाइट मोतियों की पतली सी माला और साथ में छोटी कान की बालियां, जो मैं कभी भी पहन पाऊं.’’

मैं ने काफी अच्छी तरह से अपनी पसंद बता दी थी. अगले दिन सुबह ही अजय को वापस आना था. हमारे दोनों बच्चों के लिए भी वे वहां से करांची बिस्कुट और वहां की मिठाई भी लाने वाले थे. अजय को दरअसल सब के लिए ही कुछ न कुछ लाने का शौक है. यह शौक शायद उन्हें अपने पिताजी से मिला है.

ससुरजी भी जब घर आते, कुछ न कुछ जरूर लाया करते. कभी किसी के लिए, तो कभी किसी के लिए कुछ लाने की उन की प्यारी सी आदत थी. सासूमां हमेशा इस बात को गर्व से बताया करतीं.

उन्होंने मुझे भी एक बार हिंट दिया, ”तुम्हारे ससुरजी को मेरे लिए कुछ लाने की आदत है. यह अलग बात है कि कभी मुझे उन की लाई चीजें कभी पसंद आती हैं, तो कभी नहीं, पर जिस प्यार से लाते हैं, बस उस प्यार की कद्र करते हुए मैं भी उन की लाई चीजें देखदेख कर थोड़ा चहकने की ऐक्टिंग कर लेती हूं जिस से वे खुश हो जाएं. तो बहू, जब भी अजय कुछ लाए, पसंद न भी हो तो खुश हो कर दिखाना,” हम दोनों इस बात पर बहुत देर तक हंसी थीं और इस बात पर जीभर कर हंसने के बाद हमारी बौंडिंग बहुत अच्छी हो गई थी.

सासूमां तो बहुत ही खुश हो गई थीं जब उन्हें समझ आया कि हम दोनों एक ही कश्ती में सवार हैं, कभी मूड में होतीं तो ससुरजी की अनुपस्थिति में अपनी अलमारी खोल कर दिखातीं, ”यह देखो, बहू, यह जितनी भी गुलाबी छटा बिखरी देख रही हो मेरे कपड़ों में, सब गुलाबी कपड़े तुम्हारे ससुरजी के लाए हुए हैं. उन्हें गुलाबी रंग बहुत पसंद हैं. वे जीवनभर मेरे लिए जो भी लाए, सब गुलाबी ही लाए. सहेलियां, रिश्तेदार गुलाबी रंग में ही मुझे देखदेख कर बोर हो गए पर तुम्हारे ससुरजी ने अपनी पसंद न छोड़ी. गुलाबी ढेर लगता रहा एक कोने में.”

मैं बहुत हंसी थी उस दिन, पर मैं ने प्यारी सासूमां की बात जरूर गांठ से बांध ली थी कि अजय जो भी लाते हैं, मैं ऐसी ऐक्टिंग करती हूं कि वे खुद को ही शाबाशी देने लगते हैं कि कितनी अच्छी चीज लाए हैं मेरे लिए. मुझे तो कुछ भी खरीदने की जरूरत ही नहीं पड़ती. ऐक्टिंग का अच्छा आइडिया दे गईं सासूमां. आज अगर वे होतीं तो अपनी चेली को देख खुश होतीं.

यह अलग बात है कि मैं अजय को यह नहीं समझा पाई कभी कि जब इतने नए कपड़े रखे रहते हैं तो मैं बीचबीच में अपनी पसंद का बहुत कुछ क्यों खरीदती रहती हूं. कुछ भी कहें लोग, पति होते तो हैं भोलेभाले और आसानी से आ जाते हैं बातों में. तभी तो आजतक जान नहीं पाए कि मैं खुद भी क्यों खरीदती रहती हूं बहुत कुछ.

दरअसल, मैं वह गलती भी नहीं करना चाहती जो मेरी अजीज दोस्त रीता ने की थी. उस ने शादी के बाद अपने पति की लाई हुई चीजें देख कर उन्हें साफसाफ समझा दिया कि दोनों की पसंद में काफी फर्क है. उसे उन का लाया कुछ पसंद नहीं आएगा तो पैसे बेकार जाएंगे. वह अपनी पसंद की ही चीजें खरीदना पसंद करती है और वे उस के लिए कुछ न लाया करें. वह जो भी खरीदेगी, आखिर होगा तो उन का ही पैसा, तो उन पति पत्नी में यहां बात ही खत्म हो गई.

जीवनभर का टंटा एक बात में साफ. पर मैं ने देखा है कि जब भी उस का फ्रैंड सर्किल उस से पूछता है कि भाई साहब ने क्या गिफ्ट दिया या क्या लाए, तो उस का चेहरा उतरता तो है, क्योंकि उन के पति ने भी उन की बात पर ध्यान दे कर फिर कभी न उन पर अपना पैसा वैस्ट किया, न ही समय. मतलब पति के लाए उपहारों में बात तो है.

खैर, रात को बच्चे खुश थे कि पापा उन के लिए जरूर कुछ लाएंगे. मैं हमेशा की तरह उन के आने पर तो खुश थी पर कुछ लाने पर तो डरी ही हुई थी, जब सुबह बच्चे अपनी चीजों में खुश थे.

अजय ने किसी फिल्मी हीरो की तरह पर्ल सैट का बौक्स मुझे देते हुए रोमांटिक नजरों से देखते हुए कहा, ”अभी पहन कर दिखाओ, रश्मि.”

मैं ने बौक्स खोला, खूब बड़ेबड़े मोतियों की माला, बड़ा सा हरा पेडैंट, कंधे तक लटकने वाली कान खी बालियां, खूब भारीभरकम सा सैट. शायद मेरे चेहरे का रंग उड़ा होगा जो अजय पूछ रहे थे, ”क्या हुआ? पसंद नहीं है?”

”अरे, नहींनहीं, यह तो बहुत ही जबरदस्त है,” मुझे सासूमां की बात सही समय पर याद आई तो मैं ने कहा.

”थैंक यू,’’ कहते हुए मैं मुसकरा दी. मैं ने बौक्स अलमारी में रखा, वे फ्रैश होने चले गए. मैं ने उन के सामने चाय रखते हुए टूअर की बातें पूछीं और साथ में लगे हाथ पूरी चालाकी से यह भी कहा, ”बहुत भारी सैट ले आए. कोई हलकाफुलका ले आते जो कभी भी पहन लेती. यह तो सिर्फ किसी फंक्शन में ही निकलेगा. कोई हलका सा नहीं था क्या?’’

”अरे, था न. बहुत वैराइटी थी. पर मैं ने सोचा कि हलका क्या लेना.’’

मन हुआ कहूं कि प्रिय, इतना मत सोचा करो, बस जो हिंट दूं, ले आया करो. पर चुप ही रही और सामने बैठी कल्पना में हलकेफुलके सैट पहने अपनेआप को देखती रही.

अजय महीने में 15 दिन टूअर पर ही रहते हैं. एक दिन औफिस से आ कर बोले, ”रश्मि, अगले हफ्ते चंडीगढ़ जाना है, बोलो, क्या चाहिए? क्या लाऊं तुम्हारे लिए?’’

मैं ने प्यार से उन के गले में बांहें डाल दीं,”कुछ नहीं, इतना कुछ तो रखा है. हर बार लाना जरूरी नहीं, डिअर.’’

”मेरी जान, पर मुझे शौक है लाने का.’’

मेरा दिल कह रहा था कि नहीं… जानते हैं न आप, क्यों कह रहा था?

नीड़: सिद्धेश्वरीजी क्या समझ पाई परिवार और घर की अहमियत

सिद्धेश्वरीजी बड़बड़ाए जा रही थीं. जितनी तेजी से वे माथे पर हाथ फेर रही थीं उतनी ही तेजी से जबान भी चला रही थीं.

‘नहीं, अब एक क्षण भी इस घर में नहीं रहूंगी. इस घर का पानी तक नहीं पियूंगी. हद होती है किसी बात की. दो टके के माली की भी इतनी हिम्मत कि हम से मुंहजोरी करे. समझ क्या रखा है. अब हम लौट कर इस देहरी पर कभी आएंगे भी नहीं.’

रमानंदजी वहीं आरामकुरसी पर बैठे उन का बड़बड़ाना सुन रहे थे. आखिरकार वे बोले, ‘‘एक तो समस्या जैसी कोई बात नहीं, उस पर तुम्हारा यह बरताव, कैसे काम चलेगा? बोलो? कुल इतनी सी ही बात है न, कि हरिया माली ने तुम्हें गुलाब का फूल तोड़ने नहीं दिया. गेंदे या मोतिया का फूल तोड़ लेतीं. ये छोटीछोटी बातें हैं. तुम्हें इन सब के साथ समझौता करना चाहिए.’’

सिद्धेश्वरीजी पति को एकटक निहार रही थीं. मन उलझा हुआ था. जो बातें उन के लिए बहुत बड़ी होती हैं, रमानंदजी के पास जा कर छोटी क्यों हो जाती हैं?

क्रोध से उबलते हुए बोलीं, ‘‘एक गुलाब से क्या जाता. याद है, लखनऊ में कितना बड़ा बगीचा था हम लोगों का. सुबह सैर से लौट कर हरसिंगार और चमेली के फूल चुन कर हम डोलची में सजा कर रख लिया करते थे. पर यह माली, इस तरह अकड़ रहा था जैसे हम ने कभी फूल ही नहीं देखे हों.’’

बेचारा हरिया माली कोने में खड़ा गिड़गिड़ा रहा था. घर के दूसरे लोग भी डरेसहमे खड़े थे. अपनी तरफ से सभी ने मनाने की कोशिश की किंतु व्यर्थ. सिद्धेश्वरीजी टस से मस नहीं हुईं.

‘‘जो कह दिया सो कह दिया. मेरी बात पत्थर की लकीर है. अब इसे कोई भी नहीं मिटा सकता. समझ गए न? यह सिद्धेश्वरी टूट जाएगी पर झुकेगी नहीं.’’

घर वाले उन की धमकियों के आदी थे. उन की बातचीत का तरीका ही ऐसा है, बातबात पर कसम खा लेना, बिना बात के ही ताल ठोंकना आदि. पहले ये बातें उन के अपने घर में होती थीं. अपना घर, यानी सरकार द्वारा आवंटित बंगला. सिद्धेश्वरीजी गरजतीं, बरसतीं फिर सामान्य हो जातीं. घर छोड़ कर जाने की नौबत कभी नहीं आई. हर बात में दखल रखना वे अपना जन्मसिद्ध अधिकार समझती थीं. सो, वे दूसरों को घर से निकल जाने को अकसर कहतीं. पर स्वयं पर यह बात कभी लागू नहीं होने देती थीं. आखिर वे घर की मालकिन जो थीं.

आज परिस्थिति दूसरी थी. यह घर, उन के बेटे समीर का था. बहुराष्ट्रीय कंपनी में कार्यरत सीनियर एग्जीक्यूटिव. राजधानी में अत्यधिक, सुरुचिपूर्ण ढंग से सजा हुआ टैरेस वाला फ्लैट. बेटे के अत्यधिक आज्ञाकारी होने के बावजूद वे उस के घर को कभी अपना नहीं समझ पाईं क्योंकि वे उन महिलाओं में से थीं जो बेटे का विवाह होने के साथ ही उसे पराया समझने लगती हैं. अपनी हमउम्र औरतों के अनुभवों को ध्यान में रखते हुए वे जब भी समीर और शालिनी से बात करतीं तो ताने या उलटवांसी के रूप में. बातबात में दोहों और मुहावरों का प्रयोग, भले ही मूलरूप के बजाय अपभ्रंश के रूप में, सिद्धेश्वरीजी करती अवश्य थीं, क्योंकि उन का मानना था कि अतिशय लाड़प्यार जतलाने से बहूबेटे का दिमाग सातवें आसमान पर पहुंच जाता है.

विवाह से पहले समीर उन की आंखों का तारा था. उस से उन का पहला मनमुटाव तब हुआ जब उस ने विजातीय शालिनी से विवाह करने की अनुमति मांगी थी. रमानंदजी सरल स्वभाव के व्यक्ति थे. दूसरों की खुशी में अपनी खुशी ढूंढ़ते थे. बेटे की खुशी को ध्यान में रख कर उन्होंने तुरंत हामी भर दी थी. पत्नी को भी समझाया था, ‘शालिनी सुंदर है, सुशिक्षित है, अच्छे खानदान से है.’ पर सिद्धेश्वरीजी अड़ी रहीं. इस के पीछे उन्हें अपने भोलेभाले बेटे का दिमाग कम, एमबीए शालिनी की सोच अधिक नजर आई थी. बेटे के सीनियर एग्जीक्यूटिव होने के बावजूद उन्हें उस के लिए डाक्टर या इंजीनियर लड़की के बजाय मात्र इंटर पास साधारण सी कन्या की तलाश थी, जो हर वक्त उन की सेवा में तत्पर रहे और घर की परंपरा को भी आगे कायम रखे.

रमानंदजी लाख समझाते रहे कि ब्याह समीर को करना है. अगर उस ने अपनी पसंद से शालिनी को चुना है तो हम क्यों बुरा मानें. दोनों एकदूसरे को अच्छी तरह से जानते हैं, पहचानते हैं और सब से बड़ी बात एकदूसरे को समझते भी हैं. सो, वे अच्छी तरह से निभा लेंगे. पर सिद्धेश्वरीजी के मन में बेटे का अपनी मनमरजी से विवाह करने का कांटा हमेशा चुभता रहा. उन्हें ऐसा लगता जैसे शालिनी के साथ विवाह कर के समीर ने बहुत बड़ा गुनाह किया है. खैर, किसी तरह से निभ रही थी और अच्छी ही निभ रही थी. रमानंदजी सिंचाई विभाग में अधिशासी अभियंता थे. हर 3 साल में उन का तबादला होता रहता था. इसी बहाने वे भी उत्तर प्रदेश के कई छोटेबड़े शहर घूमी थीं. बड़ेबड़े बंगलों का सुख भी खूब लूटा. नौकर, चपरासी सलाम ठोंकते. समीर और शालिनी दिल्ली में रहते थे. कभीकभार ही आनाजाना हो पाता. जितने दिन रहते, हंसतेखिलखिलाते समय निकल जाता था. स्वाति और अनिरुद्ध के जन्म के बाद तो जीवन में नए रंग भरने लगे थे. उन की धमाचौकडि़यों और खिलखिलाहटों में दिनरात कैसे बीत जाते, पता ही नहीं चलता था.

देखते ही देखते रमानंदजी की रिटायरमैंट की उम्र भी आ पहुंची. लखनऊ में रिटायरमैंट से पहले उन्होंने अनूपशहर चल कर रहने का प्रस्ताव सिद्धेश्वरीजी के सामने रखा तो वे नाराज हो गईं.

‘हम नहीं रहेंगे वहां की घिचपिच में.’

‘तो फिर?’

‘इसीलिए हम हमेशा आप से कहते थे. एक छोटा सा मकान, बुढ़ापे के लिए बनवा लीजिए पर आप ने हमेशा मेरी बात को हवा में उछाल दिया.’

रमानंदजी मायूस हो गए थे. ‘सिद्धेश्वरी, तुम तो जानती हो, सरकारी नौकरी में कितना पैसा हाथ में मिलता है. घूस मैं ने कभी ली नहीं. मुट्ठीभर तनख्वाह में से क्या खाता, क्या बचाता? बाबूजी की बचपन में ही मृत्यु हो गई. भाईबहनों के दायित्व निभाए. तब तक समीर और नेहा बड़े हो गए थे. एक ही समय में दोनों बच्चों को इंजीनियरिंग और एमबीए की डिगरी दिलवाना, आसान तो नहीं था. उस के बाद जो बचा, वह शादियों में खर्च हो गया. यह अच्छी बात है कि दोनों बच्चे सुखी हैं.’

रमानंदजी भावुक हो उठे थे. आंखों की कोर भीग गई. स्वर आर्द्र हो उठा था, रिटायरमैंट के बाद रहने की समस्या जस की तस बनी रही. इस समस्या का निवारण कैसे होता?

फिलहाल, दौड़भाग कर रमानंदजी ने सरकारी बंगले में ही 6 महीने रहने की अनुमति हासिल कर ली. कुछ दिनों के लिए तो समस्या सुलझ गई थी लेकिन उस के बाद मार्केट रेंट पर बंगले में रहना, उन के लिए मुश्किल हो गया था. सो, लखनऊ के गोमती नगर में 2 कमरों का मकान उन्होंने किराए पर ले लिया था. जब भी मौका मिलता, समीर आ कर मिल जाता. शालिनी नहीं आ पाती थी. बच्चे बड़े हो रहे थे. स्वाति ने इंटर पास कर के डाक्टरी में दाखिला ले लिया था. अनिरुद्ध ने 10वीं में प्रवेश लिया था. बच्चों के बड़े होने के साथसाथ दादादादी की भी उम्र हो गई थी.

बुढ़ापे में कई तरह की परेशानियां बढ़ जाती हैं, यह सोच कर इस बार जब समीर और शालिनी लखनऊ आए तो, आग्रहसहित उन्हें अपने साथ रहने के लिए लिवा ले गए थे. सिद्धेश्वरीजी ने इस बार भी नानुकुर तो बहुतेरी की थी, पर समीर जिद पर अड़ गया था. ‘‘बुढ़ापे में आप दोनों का अकेले रहना ठीक नहीं है. और बारबार हमारा आना भी उतनी दूर से संभव नहीं है. बच्चों की पढ़ाई का नुकसान अलग से होता है.’’ सिद्धेश्वरीजी को मन मार कर हामी भरनी पड़ी. अपनी गृहस्थी तीनपांच कर यहां आ तो गई थीं पर बेटेबहू की गृहस्थी में तारतम्य बैठाना थोड़ा मुश्किल हो रहा था उन के लिए. बेटाबहू उन की सुविधा का पूरा ध्यान रखते थे. उन्हें शिकायत का मौका नहीं देते थे. फिर भी, जब मौका मिलता, सिद्धेश्वरीजी रमानंदजी को उलाहना देने से बाज नहीं आती थीं, ‘अपना मकान होता तो बहूबेटे के साथ रहने की समस्या तो नहीं आती. अपनी सुविधा से घर बनवाते और रहते. यहां पड़े हैं दूसरों की गृहस्थी में.’

‘दूसरों की गृहस्थी में नहीं, अपने बहूबेटे के साथ रह रहे हैं सिद्धेश्वरी,’ वे हंस कर कहते.

‘तुम नहीं समझोगे,’ सिद्धेश्वरीजी टेढ़ा सा मुंह बिचका कर उठ खड़ी होतीं.

उन्हें बातबात में हस्तक्षेप करने की आदत थी. मसलन, स्वाति कोएड में क्यों पढ़ती है? स्कूटर चला कर कालेज अकेली क्यों जाती है? शाम ढलते ही घर क्यों नहीं लौट आती? देर रात तक लड़केलड़कियों के साथ बैठ कर कंप्यूटर पर काम क्यों करती है? लड़कियों के साथ तो फिर भी ठीक है, लड़कों के साथ क्यों बैठी रहती है? उन्होंने कहीं सुना था कि कंप्यूटर अच्छी चीज नहीं है. वे अनिरुद्ध को उन के बीच जा कर बैठने के लिए कहतीं कि कम से कम पता तो चले वहां हो क्या रहा है. तो अनिरुद्ध बिदक जाता. उधर, स्वाति को भी बुरा लगता. ऐसा लगता जैसे दादी उस के ऊपर पहरा बिठा रही हों. इतना ही नहीं, वह जींसटौप क्यों पहनती है? साड़ी क्यों नहीं पहनती? रसोई में काम क्यों नहीं करती आदि?

धीरेधीरे स्वाति ने उन से बात करना कम कर दिया. वह उन से दूर ही छिटकी रहती. वे कुछ कहतीं तो उन की बातें एक कान से सुनती, दूसरे कान से निकाल देती. पोती के बाद उन का विरोध अपनी बहू से भी था. उसे सीधेसीधे टोकने के बजाय रमानंदजी से कहतीं, ‘बहुत सिर चढ़ा रखा है बहू ने स्वाति को. मुझे तो डर है, कहीं उस की वजह से इन दोनों की नाक न कट जाए.’ रमानंदजी चुपचाप पीतल के शोपीस चमकाते रहते. सिद्धेश्वरीजी का भाषण निरंतर जारी रहता, ‘बहू खुद भी तो सारा दिन घर से बाहर रहती है. तभी तो, न घर संभल पा रहा है न बच्चे. कहीं नौकरों के भरोसे भी गृहस्थी चलती है?’

‘बहू की नौकरी ही ऐसी है. दिन में 2 घंटे उसे घर से बाहर निकलना ही पड़ता है. अब काम चाहे 2 घंटे का हो या 4 घंटे का, आवाजाही में भी समय निकलता है.’

‘जरूरत क्या है नौकरी करने की? समीर अच्छा कमाता ही है.’

‘अब इस उम्र में बहू मनकों की माला तो फेरने से रही. पढ़ीलिखी है. अपनी प्रतिभा सिद्ध करने का अवसर मिलता है तो क्यों न करे. अच्छा पैसा कमाती है तो समीर को भी सहारा मिलता है. यह तो हमारे लिए गौरव की बात है.’ इधर, रमानंदजी ने अपनेआप को सब के अनुसार ढाल लिया था. मजे से पोतापोती के साथ बैठ कर कार्टून फिल्में देखते, उन के लिए पिज्जा तैयार कर देते. बच्चों के साथ बैठ कर पौप म्यूजिक सुनते. पासपड़ोस के लोगों से भी उन की अच्छी दोस्ती हो गई थी. जब भी मन करता, उन के साथ ताश या शतरंज की बाजी खेल लेते थे.

बहू के साथ भी उन की खूब पटती थी. रमानंदजी के आने से वह पूरी तरह निश्चिंत हो गई थी. अनिरुद्ध को नियमित रूप से भौतिकी और रसायनशास्त्र रमानंदजी ही पढ़ाते थे. उस की प्रोजैक्ट रिपोर्ट भी उन्होंने ही तैयार करवाई थी. बच्चों को छोड़ कर शालिनी पति के साथ एकाध दिन दौरे पर भी चली जाती थी. रमानंदजी को तो कोई असुविधा नहीं होती थी पर सिद्धेश्वरीजी जलभुन जाती थीं. झल्ला कर कहतीं, ‘बहू को आप ने बहुत छूट दे रखी है.’

रमानंदजी चुप रहते, तो वे और चिढ़ जातीं, ‘अपने दिन याद हैं? अम्मा जब गांव से आती थीं तो हम दोनों का घूमनाफिरना तो दूर, साड़ी का पल्ला भी जरा सा सिर से सरकता तो वे रूठ जाती थीं.’

‘अपने दिन नहीं भूला हूं, तभी तो बेटेबहू का मन समझता हूं.’

‘क्या समझते हो?’

‘यही कि अभी इन के घूमनेफिरने के दिन हैं. घूम लें. और फिर बहू हमारे लिए पूरी व्यवस्था कर के जाती है. फिर क्या परेशानी है?’

‘परेशानी तुम्हें नहीं, मुझे है. बुढ़ापे में घर संभालना पड़ता है.’

‘जरा सोचो, बहू तुम्हारे पर विश्वास करती है, इसीलिए तो तुम्हारे भरोसे घर छोड़ कर जाती है.’

सिद्धेश्वरीजी को कोई जवाब नहीं सूझता था. उन्हें लगता, पति समेत सभी उन के खिलाफ हैं.

दरअसल, वे दिल की इतनी बुरी नहीं हैं. बस, अपने वर्चस्व को हमेशा बरकरार रखने की, अपना महत्त्व जतलाने की आदत से मजबूर थीं. उन की मरजी के बिना घर का पत्ता तक नहीं हिलता था. यहां तक कि रमानंदजी ने भी कभी उन से तर्क नहीं किया था. बेटे के यहां आ कर उन्होंने देखा, सभी अपनीअपनी दुनिया में मगन हैं, तो उन्हें थोड़ी सी कोफ्त हुई. उन्हें ऐसा महसूस होने लगा जैसे वे अब एक अस्तित्वविहीन सा जीवन जी रही हों. पिछले हफ्ते से एक और बात ने उन्हें परेशान कर रखा था. स्वाति को आजकल मार्शल आर्ट सीखने की धुन सवार हो गई थी. उन्होंने रोकने की कोशिश की तो वह उग्र स्वर में बोली, ‘बड़ी मां, आज के जमाने में अपनी सुरक्षा के लिए ये सब जरूरी है. सभी सीख रहे हैं.’

पोती की ढिठाई देख कर सिद्धेश्वरीजी सातवें आसमान से सीधी धरातल पर आ गिरीं. उस से भी अधिक गुस्सा आया अपने बहूबेटे पर, जो मूकदर्शक बने सारा तमाशा देख रहे थे. बेटी को एक बार टोका तक नहीं. और अब, इस हरिया माली की, गुलाब का फूल न तोड़ने की हिदायत ने आग में घी डालने जैसा काम किया था. एक बात का गुस्सा हमेशा दूसरी बात पर ही उतरता है, इसीलिए उन्होंने घर छोड़ कर जाने की घोषणा कर दी थी.

‘‘मां, हम बाहर जा रहे हैं. कुछ मंगाना तो नहीं है?’’

सिद्धेश्वरीजी मुंह फुला कर बोलीं, ‘‘इन्हें क्या मंगाना होगा? इन के लिए पान का जुगाड़ तो माली, नौकर यहां तक कि ड्राइवर भी कर देते हैं. हमें ही साबुन, क्रीम और तेल मंगाना था. पर कहें किस से? समीर भी आजकल दौरे पर रहता है. पिछले महीने जब आया था तो सब ले कर दे गया था. जिस ब्रैंड की क्रीम, पाउडर हम इस्तेमाल करते हैं वही ला देता है.’’

‘‘मां, हम आप की पसंदनापसंद का पूरा ध्यान रखते हैं. फिर भी कुछ खास चाहिए तो बता क्यों नहीं देतीं? समीर से कहने की क्या जरूरत है?’’

बहू की आवाज में नाराजगी का पुट था. पैर पटकती वह घर से बाहर निकली, तो रमानंदजी का सारा आक्रोश, सारी झल्लाहट पत्नी पर उतरी, ‘‘सुन लिया जवाब. मिल गई संतुष्टि. कितनी बार कहा है, जहां रहो वहीं की बन कर रहो.  पिछली बार जब नेहा के पास मुंबई गई थीं तब भी कम तमाशे नहीं किए थे तुम ने. बेचारी नेहा, तुम्हारे और जमाई बाबू के बीच घुन की तरह पिस कर रह गई थी. हमेशा कोई न कोई ऐसा कांड जरूर करती हो कि वातावरण में सड़ी मच्छी सी गंध आने लगती है.’’ पछता तो सिद्धेश्वरीजी खुद भी रही थीं, सोच रही थीं, बहू के साथ बाजार जा कर कुछ खरीद लाएंगी. अगले हफ्ते मेरठ में उन के भतीजे का ब्याह है. कुछ ब्लाउज सिलवाने थे. जातीं तो बिंदी, चूडि़यां और पर्स भी ले आतीं. बहू बाजार घुमाने की शौकीन है. हमेशा उन्हें साथ ले जाती है. वापसी में गंगू चाट वाले के गोलगप्पे और चाटपापड़ी भी जरूर खिलाती है.

रमानंदजी को तो ऐसा कोई शौक है नहीं. लेकिन अब तो सब उलटापुलटा हो गया. क्यों उन्होंने बहू का मूड उखाड़ दिया? न जाने किस घड़ी में उन की बुद्धि भ्रष्ट हो गई और घर छोड़ने की बात कह दी? सब से बड़ी बात, इस घर से निकल कर जाएंगी कहां? लखनऊ तो कब का छोड़ चुकीं. आज तक गांव में एक हफ्ते से ज्यादा कभी नहीं रहीं. फिर, पूरा जीवन कैसे काटेंगी? वह भी इस बुढ़ापे में, जब शरीर भी साथ नहीं देता है. शुरू से ही नौकरों से काम करवाने की आदी रही हैं. बेटेबहू के घर आ कर तो और भी हड्डियों में जंग लग गया है.

सभी चुपचाप थे. शालिनी रसोई में बाई के साथ मिल कर रात के खाने की तैयारी कर रही थी. और स्वाति, जिस की वजह से यह सारा झमेला हुआ, मजे से लैपटौप पर काम कर रही थी. सिद्धेश्वरीजी पति की तरफ मुखातिब हुईं और अपने गुस्से को जज्ब करते हुए बोलीं, ‘‘चलो, तुम भी सामान बांध लो.’’

‘‘किसलिए?’’ रमानंदजी सहज भाव से बोले. उन की नजरें अखबार की सुर्खियों पर अटकी थीं.

‘‘हम, आज शाम की गाड़ी से ही चले जाएंगे.’’

रमानंदजी ने पेपर मोड़ कर एक तरफ रखा और बोले, ‘‘तुम जा रही हो, मैं थोड़े ही जा रहा हूं.’’

‘‘मतलब, तुम नहीं जाओगे?’’

‘‘नहीं,’’ एकदम साफ और दोटूक स्वर में रमानंदजी ने कहा, तो सिद्धेश्वरीजी बुरी तरह चौंक गईं. उन्हें पति से ऐसे जवाब की उम्मीद नहीं थी. मन ही मन उन का आत्मबल गिरने लगा. गांव जा कर, बंद घर को खोलना, साफसफाई करना, चूल्हा सुलगाना, राशन भरना उन्हें चांद पर जाने और एवरेस्ट पर चढ़ने से अधिक कठिन और जोखिम भरा लग रहा था. पर क्या करतीं, बात तो मुंह से फिसल ही गई थी. पति के हृदयपरिवर्तन का उन्हें जरा भी आभास होता तो यों क्षणिक आवेश में घर छोड़ने का निर्णय कभी न लेतीं. हिम्मत कर के वे उठीं और अलमारी में से अपने कपड़े निकाल कर बैग में रख लिए. ड्राइवर को गाड़ी लाने का हुक्म दे दिया. कार स्टार्ट होने ही वाली थी कि स्वाति बाहर निकल आई. ड्राइवर से उतरने को कह कर वह स्वयं ड्राइविंग सीट पर बैठ गई और सधे हाथों से स्टीयरिंग थाम कर कार स्टार्ट कर दी. सिद्धेश्वरीजी एक बार फिर जलभुन गईं. औरतों का ड्राइविंग करना उन्हें कदापि पसंद नहीं था. बेटा या पोता, कार ड्राइव करे तो उन्हें कोई परेशानी नहीं होती थी. वे यह मान कर चलती थीं कि ‘लड़कियों को लड़कियों की तरह ही रहना चाहिए. यही उन्हें शोभा देता है.’

इसी उधेड़बुन में रास्ता कट गया. कार स्टेशन पर आ कर रुकी तो सिद्धेश्वरीजी उतर गईं. तुरतफुरत अपना बैग उठाया और सड़क पार करने लगीं. उतावलेपन में पोती को साथ लेने का धैर्य भी उन में नहीं रहा. तभी अचानक एक कार…पीछे से किसी ने उन का हाथ पकड़ कर खींच लिया. और वे एकदम से दूर जा गिरीं. फिर उन्हीं हाथों ने सिद्धेश्वरीजी को सहारा दे कर कार में बिठाया. ऐसा लगा जैसे मृत्यु उन से ठीक सूत भर के फासले से छू कर निकल गई हो. यह सब कुछ दो पल में ही हो गया था. उन का हाथ थाम कर खड़ा करने और कार में बिठाने वाले हाथ स्वाति के थे. नीम बेहोशी की हालत से उबरीं तो देखा, वे अस्पताल के बिस्तर पर थीं. रमानंदजी उन के सिरहाने बैठे थे. समीर और शालिनी डाक्टरों से विचारविमर्श कर रहे थे. और स्वाति, दारोगा को रिपोर्ट लिखवा रही थी. साथ ही वह इनोवा कार वाले लड़के को बुरी तरह दुत्कारती भी जा रही थी. ‘‘दारोगा साहब, इस सिरफिरे बिगड़ैल लड़के को कड़ी से कड़ी सजा दिलवाइएगा. कुछ दिन हवालात में रहेगा तो एहसास होगा कि कार सड़क पर चलाने के लिए होती है, किसी की जान लेने के लिए नहीं. अगर मेरी बड़ी मां को कुछ हो जाता तो…?’’

सिद्धेश्वरीजी के पैरों में मोच आई थी. प्राथमिक चिकित्सा के बाद उन्हें घर जाने की अनुमति मिल गई थी. उन के घर पहुंचने से पहले ही बहू और बेटे ने, उन की सुविधानुसार कमरे की व्यवस्था कर दी थी. समीर और शालिनी ने अपना बैडरूम उन्हें दे दिया था क्योंकि बाथरूम बैडरूम से जुड़ा था. वे दोनों किनारे वाले बैडरूम में शिफ्ट हो गए थे. सिरहाने रखे स्टूल पर बिस्कुट का डब्बा, इलैक्ट्रिक कैटल, मिल्क पाउडर और टी बैग्स रख दिए गए. चाय की शौकीन सिद्धेश्वरीजी जब चाहे चाय बना सकती थीं. उन्हें ज्यादा हिलनेडुलने की भी जरूरत नहीं थी. पलंग के नीचे समीर ने बैडस्विच लगवा दिया था. वे जैसे ही स्विच दबातीं, कोई न कोई उन की सेवा में उपस्थित हो जाता.

अगले दिन तक नेहा और जमाई बाबू भी पहुंच गए. घर में खुशी की लहर दौड़ गई थी. उन के आने से समीर और शालिनी को भी काफी राहत मिल गई थी. कुछ समय के लिए दोनों दफ्तर हो आते. नेहा मां के पास बैठती तो स्वाति अस्पताल हो आती थी. इन दिनों उस की इन्टर्नशिप चल रही थी. अस्पताल जाना उस के लिए निहायत जरूरी था. शाम को सभी उन के कमरे में एकत्रित होते. कभी ताश, कभी किस्सेकहानियों के दौर चलते तो घंटों का समय मिनटों में बदल जाता. वे मंदमंद मुसकराती अपनी हरीभरी बगिया का आनंद उठाती रहतीं. सिद्धेश्वरीजी एक दिन चाय पी कर लेटीं तो उन का ध्यान सामने खिड़की पर बैठे कबूतर की तरफ चला गया. खिड़की के जाली के किवाड़ बंद थे, जबकि शीशे के खुले थे. मुश्किल से 5 इंच की जगह रही होगी जिस पर वह पक्षी बड़े आराम से बैठा था. तभी नेहा और शालिनी कमरे में आ गईं, बोलीं, ‘‘मां, इस कबूतर को यहां से उड़ाना होगा. यहां बैठा रहा तो गंदगी फैलाएगा.’’

‘‘न, न. इसे उड़ाने की कोशिश भी मत करना. अब तो चैत का महीना आने वाला है. पक्षी जगह ढूंढ़ कर घोंसला बनाते हैं.’’

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उन की बात सच निकली. देखा, एक दूसरा कबूतर न जाने कहां से तिनके, घास वगैरह ला कर इकट्ठे करने लगा. वह नर व मादा का जोड़ा था. मादा गर्भवती थी. नर ही उस के लिए दाना लाता था और चोंच से उसे खिलाता था. सिद्धेश्वरीजी मंत्रमुग्ध हो कर उन्हें देखतीं. पक्षियों को नीड़ बनाते देख उन्हें अपनी गृहस्थी जोड़ना याद आ जाता. उन्होंने भी अपनी गृहस्थी इसी तरह बनाई थी. रमानंदजी कमा कर लाते, वे बड़ी ही समझदारी से उन पैसों को खर्चतीं. 2 देवर, 2 ननदें ब्याहीं. मायके से जो भी मिला, वह ननदों के ब्याह में चढ़ गया. लोहे के 2 बड़े संदूकों को ले कर अपने नीड़ का निर्माण किया. बच्चे पढ़ाए. उन के ब्याह करवाए. जन्मदिन, मुंडन-क्या नहीं निभाया.  खैर, अब तो सब निबट गया. बच्चे अपनेअपने घर में सुख से रह रहे हैं. उन्हें भी मानसम्मान देते हैं. हां, एक कसक जरूर रह गई. अपने मकान की. वही नहीं बन पाया. बड़ा चाव था उन्हें अपने मकान का.  मनपसंद रसोई, बड़ा सा लौन, पीछे आंगन, तुलसीचौरा, सूरज की धूप की रोशनी, खिड़की से छन कर आती चांदनी और खिड़की के नीचे बनी क्यारी व उस क्यारी में लगी मधुमालती की बेल.

वे बैठेबैठे बोर होतीं. करने को कुछ था नहीं. एक दिन उन्होंने कबूतरी की आवाज देर तक सुनी. वह एक ही जगह बैठी रहती. अनिरुद्ध उन के कमरे में आया तो अतिउत्साहित, अति उत्तेजित स्वर में बोला, ‘‘बड़ी मां, कबूतरी ने घोंसले में अंडा दिया है.’’

‘‘इसे छूना मत. कबूतरी अंडे को तब तक सहेजती रहेगी जब तक उस में से बच्चे बाहर नहीं आ जाते.’’

अनिरुद्ध पीछे हट गया था. उन्हें इस परिवार से लगाव सा हो गया था. जैसे मां अपने बच्चे के प्रति हर समय आशंकित सी रहती है कि कहीं उस के बच्चे को चोट न लग जाए, वैसे ही उन्हें भी हर पल लगता कि इन कबूतरों के उठनेबैठने से यह अंडा मात्र 4 इंच की जगह से नीचे न गिर जाए. एक दिन उस अंडे से एक बच्चा बाहर आया. सिर्फ उस की चोंच, आंखें और पंजे दिखाई दे रहे थे. अब कबूतर का काम और बढ़ गया था. वह उड़ता हुआ जाता और दाना ले आता. कबूतरी, एकएक दाना कर के उस बच्चे को खिलाती जाती. सिद्धेश्वरीजी ने अनिरुद्ध से कह कर उन कबूतरों के लिए वहीं खिड़की पर, 2 सकोरों में दाने और पानी की व्यवस्था करा दी थी. अब कबूतर का काम थोड़ा आसान हो गया था.

सिद्धेश्वरीजी अनजाने ही उस कबूतर जोड़े की तुलना खुद से करने लगी थीं. ये पक्षी भी हम इंसानों की तरह ही अपने बच्चों के प्रति समर्पित होते हैं. फर्क यह है कि हमारे सपने हमारे बच्चों के जन्म के साथ ही पंख पसारने लगते हैं. हमारी अपेक्षाएं और उम्मीदें भी हमारे स्वार्थीमन में छिपी रहती हैं. इंसान का बच्चा जब पहला शब्द मुंह से निकालता है तो हर रिश्ता यह उम्मीद करता है कि उस प्रथम उच्चारण में वह हो. जैसे, मां चाहती है बच्चा ‘मां’ बोले, पापा चाहते हैं बच्चा ‘पापा’ बोले, बूआ चाहती हैं ‘बूआ’ और बाबा चाहते हैं कि उन के कुलदीपक की जबान पर सब से पहले ‘बाबा’ शब्द ही आए. हम उस के हर कदम में अपना बचपन ढूंढ़ते हैं. अपनी पसंद के स्कूल में उस का ऐडमिशन कराते हैं.

यह हमारा प्रेम तो है पर कहीं न कहीं हमारा स्वार्थ भी है. उस का भविष्य बनाने के लिए किसी अच्छे व्यावसायिक संस्थान में उसे पढ़ाते हैं. उस की तरक्की से खुद को गौरवान्वित महसूस करते हैं. समाज में हमारी प्रतिष्ठा बढ़ती है. हम अपनी मरजी से उस का विवाह करवाना चाहते हैं. यदि बच्चे अपना जीवनसाथी स्वयं चुनते हैं तो हमारा उन से मनमुटाव शुरू हो जाता है, हमारी सामाजिक प्रतिष्ठा को बट्टा जो लग जाता है. हमारी संवेदनाओं को ठेस पहुंचती है. बच्चे बड़े हो जाते हैं, हमारी अपेक्षाएं वही रहती हैं कि वे हमारे बुढ़ापे का सहारा बनें. हमारे उत्तरदायित्व पूरे करें. हमारे प्रेम, हमारी कर्तव्यपरायणता के मूल में कहीं न कहीं हमारा स्वार्थ निहित है. कुछ दिन बाद उस बच्चे के छोटे पंख दिखाई देने लगे. फिर पंख थोड़े और बड़े हुए. अब उस ने स्वयं दाना चुगना शुरू कर दिया था. फिर एक दिन उस के मातापिता उसे साथ ले कर उड़ने लगे. तीनों विहंग छोटा सा चक्कर लगाते और फिर लौट आते वापस अपने नीड़ में.

धीरेधीरे सिद्धेश्वरीजी की तबीयत सुधरने लगी. अब वे घर में चलफिर लेती थीं. अपना काम भी स्वयं कर लेती थीं. रमानंदजी को नाश्ता भी बना देती थीं. घर के कामों में शालिनी की सहायता भी कर देती थीं. अब यह घर उन्हें अपना सा लगने लगा था. दिन स्वाति उन्हें अस्पताल ले गई. मोच तो ठीक हो गई थी. फिजियोथेरैपी करवाने के लिए डाक्टर ने कहा था, सो प्रतिदिन स्वाति ही उन्हें ले जाती. वापसी में समीर अपनी गाड़ी भेज देता. अब ये सब भला लगता था उन्हें.

एक दिन उन्होंने देखा, कबूतर उड़ गया था. वह जगह खाली थी. अब वह नीड़ नहीं मात्र तिनकों का ढेर था. क्योंकि नीड़ तो तब था जब उस में रहने वाले थे. मन में अनेक सवाल उठने लगे, क्या वह बच्चा हमेशा उन के साथ रहेगा? क्या वह बड़ा हो कर मातापिता के लिए दाना लाएगा? उन की सामाजिक प्रतिष्ठा बढ़ाएगा? इसी बीच उन के मस्तिष्क में एक ऋषि और राजा संवाद की कुछ पंक्तियां याद आ गई थीं. ऋषि ने राजा से कहा था, ‘‘हे राजा, हम मनुष्य अपने बच्चों का भरणपोषण करते हैं, परंतु योग माया द्वारा भ्रमित होने के कारण, उन बच्चों से अपेक्षाएं रखते हैं. पक्षी भी अपने बच्चों को पालते हैं पर वे कोई अपेक्षा नहीं रखते क्योंकि वे बुद्धिजीवी नहीं हैं और न ही माया में बंधे हैं.’’

उन्होंने खिड़की खोल कर वहां सफाई की और घोंसला हटा दिया. धीरेधीरे तेज हवाएं चलने लगीं. उन्होंने खिड़की बंद कर दी. कुछ दिन बाद कबूतर का एक जोड़ा फिर से वहां आ गया. अपना नीड़ बनाने. वे मन ही मन सुकून महसूस कर रही थीं. अब फिर घोंसला बनेगा, कबूतरी अंडे देगी, उन्हें सेना शुरू करेगी, अंडे में से चूजा निकलेगा, फिर पर निकलेंगे और फिर कबूतर उड़ जाएगा और कपोत का जोड़ा टुकुरटुकुर उस नीड़ को निहारता रह जाएगा, उदास मन से. ठंड बढ़ने के साथसाथ मोच वाले स्थान पर हलकी सी टीस एक बार फिर से उभरने लगी थी. परिवार में उन की हालत सब के लिए चिंता का विषय बनी हुई थी. रमानंदजी आयुर्वेद के तेल से उन के टखनों की मालिश कर रहे थे. स्वाति ने एक अन्य डाक्टर से उन के लिए अपौइंटमैंट ले लिया था. सिद्धेश्वरीजी ने उसे रोकने की कोशिश की, तो वह उन्हें चिढ़ाते हुए बोली, ‘‘बड़ी मां, टांग का दर्द ठीक होगा तभी तो गांव जाएंगी न.’’

स्वाति समेत सभी खिलखिला कर हंसने लगे थे. नौकर गरम पानी की थैली दे गया तो सिद्धेश्वरीजी पलंग पर लेट कर सोचने लगीं, ‘सही कहते हैं बड़ेबुजुर्ग, घर चारदीवारी से नहीं बनता, उस में रहने वाले लोगों से बनता है.’ घोंसला अवश्य उन का अस्थायी रहा पर वे तो भरीपूरी हैं. बेटेबहू, पोतेपोती से खुश, संतप्त भाव से एक नजर उन्होंने रमानंदजी की दुर्बल काया पर डाली, फिर दुलार से हाथ फेरती हुई बुदबुदाईं, ‘उन का जीवनसाथी तो उन के साथ है ही, उन के बच्चे भी उन के साथ हैं. अब उन्हें किसी नीड़ की चाह नहीं. जहां हैं सुख से हैं, संतुष्ट और संतप्त.’ उन्होंने कामवाली बाई से कह कर बक्से में से सामान निकलवाया और अलमारी में रखवा दिया. और फिर मीठी नींद के आगोश में समा गईं.

असली चेहरा : अवंतिका अपनी पति की क्यों बुराई करती थी ?

नई कालोनी में आए मुझे काफी दिन हो गए थे. किंतु समयाभाव के कारण किसी से मिलनाजुलना नहीं हो पाता था. इसी वजह से किसी से मेरी कोई खास जानपहचान नहीं हो पाई थी. स्कूल में टीचर होने के कारण मुझे घर से सुबह 8 बजे निकलना पड़ता और 3 बजे वापस आने के बाद घर के काम निबटातेनिबटाते शाम हो जाती थी. किसी से मिलनेजुलने की सोचने तक की फुरसत नहीं मिल पाती थी. मेरे घर से थोड़ी दूर पर ही अवंतिका का घर था. उस की बेटी योगिता मेरे ही स्कूल में और मेरी ही कक्षा की विद्यार्थी थी. वह योगिता को छोड़ने बसस्टौप पर आती थी. उस से मेरी बातचीत होने लगी. फिर धीरेधीरे हम दोनों के बीच एक अच्छा रिश्ता कायम हो गया. फिर शाम को अवंतिका मेरे घर भी आने लगी. देर तक इधरउधर की बातें करती रहती.

अवंतिका से मिल कर मुझे अच्छा लगता था. उस की बातचीत का ढंग बहुत प्रभावशाली था. उस के पहनावे और साजशृंगार से उस के काफी संपन्न होने का भी एहसास होता था. मैं खुश थी कि एक नई जगह अवंतिका के रूप में मुझे एक अच्छी सहेली मिल गई है. योगिता वैसे तो पढ़ाई में ठीक थी पर अकसर होमवर्क कर के नहीं लाती थी. जब पहले दिन मैं ने उसे डांटते हुए होमवर्क न करने का कारण पूछा, तो उस ने बड़ी मासूमियत से जवाब दिया, ‘‘पापा ने मम्मा को डांटा था, इसलिए मम्मा रो रही थीं और मेरा होमवर्क नहीं करा पाईं.’’ योगिता आगे भी अकसर होमवर्क कर के नहीं लाती थी और पूछने पर कारण हमेशा मम्मापापा का झगड़ा ही बताती थी.

वैसे तो मात्र एक शिक्षिका की हैसियत से घर पर मैं अवंतिका से इस बारे में बात नहीं करती पर वह चूंकि मेरी सहेली बन चुकी थी और फिर प्रश्न योगिता की पढ़ाई से भी संबंधित था, इसलिए एक दिन अवंतिका जब मेरे घर आई तो मैं ने उसे योगिता के बारबार होमवर्क न करने और उस के पीछे बताने वाले कारण का उस से उल्लेख किया. मेरी बात सुन उस की आंखों में आंसू आ गए और फिर बोली, ‘‘मैं नहीं चाहती थी कि आप के सामने अपने घर की कमियां उजागर करूं, पर जब योगिता से आप को पता चल ही गया है हमारे झगड़े के बारे में तो आज मैं भी अपने दिल की बात कह कर अपना मन हलका करना चाहूंगी… दरअसल, मेरे पति का स्वभाव बहुत खराब है.

उन की बातबात पर मुझ में कमियां ढूंढ़ने और मुझ पर चीखनेचिल्लाने की आदत है. लाख कोशिश कर लूं पर मैं उन्हें खुश नहीं रख पाती. मैं उन्हें हर तरह से बेसलीकेदार लगती हूं. आप ही बताएं आप को मैं बेसलीकेदार लगती हूं? क्या मुझे ढंग से पहननाओढ़ना नहीं आता या मेरे बातचीत का तरीका अशिष्ट है? मैं तो तंग आ गई हूं रोजरोज के झगड़े से… पर क्या करूं बरदाश्त करने के अलावा कोई रास्ता भी तो नहीं है मेरे पास.’’

‘‘मैं तुम्हारे पति से 2-4 बार बसस्टौप पर मिली हूं. उन से मिल कर तो नहीं लगता कि वे इतने बुरे मिजाज के होंगे,’’ मैं ने कहा.

‘‘किसी के चेहरे से थोड़े ही उस की हकीकत का पता चल सकता है… हकीकत क्या है, यह तो उस के साथ रह कर ही पता चलता है,’’ अवंतिका बोली.

मैं ने उस की लड़ाईझगड़े वाली बात को ज्यादा महत्त्व न देते हुए कहा, ‘‘तुम ने बताया था कि तुम्हारे पति अकसर काम के सिलसिले में बाहर जाते रहते हैं… वे बाहर रहते हैं तब तो तुम्हारे पास घर के काम और योगिता की पढ़ाई दोनों के लिए काफी समय होता होगा? तुम्हें योगिता की पढ़ाई पर ध्यान देना चाहिए.’’ ‘‘किसी एक के खयाल रखने से क्या होगा? उस के पापा को तो किसी बात की परवाह ही नहीं होती. बेटी सिर्फ मेरी ही तो नहीं है? उन की भी तो है. उन्हें भी तो अपनी जिम्मेदारी का एहसास होना चाहिए. समय नहीं है तो न पढ़ाएं पर जब घर में हैं तब बातबात पर टोकाटाकी कर मेरा दिमाग तो न खराब करें… मैं तो चाहती हूं कि ज्यादा से ज्यादा दिन वे टूअर पर ही रहें…कम से कम घर में शांति तो रहती है.’’

अवंतिका की बातें सुन कर मेरा मन खराब हो गया. देखने में तो उस के पति सौम्य, सुशिक्षित लगते हैं, पर अंदर से कोई कैसा होगा, यह चेहरे से कहां पता चल सकता है? एक पढ़ालिखा उच्चपदासीन पुरुष भी अपने घर में कितना दुर्व्यवहार करता है, यह सोचसोच कर अवंतिका के पति से मुझे नफरत होने लगी. अब अकसर अवंतिका अपने घर की बातें बेहिचक मुझे बताने लगी. उस की बातें सुन कर मुझे उस से सहानुभूति होने लगी कि इतनी अच्छी औरत की जिंदगी एक बदमिजाज पुरुष की वजह से कितनी दुखद हो गई… पहले जब कभी योगिता को बसस्टौप पर छोड़ने अवंतिका की जगह योगिता के पापा आते थे, तो मैं उन से हर विषय पर बात करती थी, किंतु उन की सचाई से अवगत होने के बाद मैं कोशिश करती कि उन से मेरा सामना ही न हो और जब कभी सामना हो ही जाता तो मैं उन्हें अनदेखा करने की कोशिश करती. मेरी धारणा थी कि जो इनसान अपनी पत्नी को सम्मान नहीं दे सकता उस की नजरों में दूसरी औरतों की भला क्या अहमियत होगी.

एक दिन अवंतिका काफी उखड़े मूड में मेरे पास आई और रोते हुए मुझ से कहा कि मैं 2 हजार योगिता के स्कूल टूअर के लिए अपने पास से जमा कर दूं. पति के वापस आने के बाद वापस दे देगी. चूंकि मैं योगिता की कक्षाध्यापिका थी, इसलिए मुझे पता था कि स्कूल टूअर के लिए बच्चों को 2 हजार देने हैं. अत: मैं ने अवंतिका से पैसे देने का वादा कर लिया. पर उस का रोना देख कर मैं पूछे बगैर न रह सकी कि उसे पैसे मुझ से लेने की जरूरत क्यों पड़ गई?

मेरे पूछते ही जैसे अवंतिका के सब्र का बांध टूट पड़ा. बोली, ‘‘आप को क्या बताऊं मैं अपने घर की कहानी… कैसे जिंदगी गुजार रही हूं मैं अपने पति के साथ… बिलकुल भिखारी बना कर रखा है मुझे. कितनी बार कहा अपने पति से कि मेरा एटीएम बनवा दो ताकि जब कभी तुम बाहर रहो तो मैं अपनी जरूरत पर पैसे निकाल सकूं. पर जनाब को लगता है कि मेरा एटीएम कार्ड बन गया तो मैं गुलछर्रे उड़ाने लगूंगी, फुजूलखर्च करने लगूंगी. एटीएम बनवा कर देना तो दूर हाथ में इतने पैसे भी नहीं देते हैं कि मैं अपने मन से कोई काम कर सकूं. जाते समय 5 हजार पकड़ा गए. कल 3 हजार का एक सूट पसंद आ गया तो ले लिया.1 हजार ब्यूटीपार्लर में खत्म हो गए. रात में 5 सौ का पिज्जा मंगा लिया. अब केवल 5 सौ बचे हैं. अब देख लीजिए स्कूल से अचानक 3 हजार मांग लिए गए टूअर के लिए तो मुझे आप से मांगने आना पड़ गया… क्या करूं 2 ही रास्ते बचे थे मेरे पास या तो बेटी की ख्वाहिश का गला घोट कर उसे टूअर पर न भेजूं या फिर किसी के सामने हाथ फैलाऊं. क्या करती बेटी को रोता नहीं देख सकती, तो आप के ही पास आ गई.’’

अवंतिका की बात सुन कर मैं सोच में पड़ गई. अगर 2 दिन के लिए पति क्व5 हजार दे कर जाता है, तो वे कोई कम तो नहीं हैं पर उन्हीं 2 दिनों में पति के घर पर न होते हुए उन पैसों को आकस्मिक खर्च के लिए संभाल कर रखने के बजाय साजशृंगार पर खर्च कर देना तो किसी समझदार पत्नी के गुण नहीं हैं? शायद उस की इसी आदत की वजह से ही उस के पति एटीएम या ज्यादा पैसे एकसाथ उस के हाथ में नहीं देते होंगे, क्योंकि उन्हें पता होगा कि पैसे हाथ में रहने पर अवंतिका इन्हीं चीजों पर खर्च करती रहेगी. पर फिर भी मैं ने यह कहते हुए उसे पैसे दे दिए कि मैं कोई गैर थोड़े ही हूं, जब कभी पैसों की ऐसी कोई आवश्यकता पड़े तो कहने में संकोच न करना.

कुछ ही दिनों बाद विद्यालय में 3 दिनों की छुट्टी एकसाथ पड़ने पर मेरे पास कुछ खाली समय था, तो मैं ने सोचा कि मैं अवंतिका की इस शिकायत को दूर कर दूं कि मैं एक बार भी उस के घर नहीं आई. मैं ने उसे फोन कर के शाम को अपने आने की सूचना दे दी और निश्चित समय पर उस के घर पहुंच गई. पर डोरबैल बजाने से पहले ही मेरे कदम ठिठक गए. अंदर से अवंतिका और उस के पति के झगड़े की आवाजें आ रही थीं. उस के पति काफी गुस्से में थे, ‘‘कितनी बार समझाया है तुम्हें कि मेरा सूटकेस ध्यान से पैक किया करो, पर तुम्हारा ध्यान पता नहीं कहां रहता है. हर बार कोई न कोई सामान छोड़ ही देती हो तुम… इस बार बनियान और शेविंग क्रीम दोनों ही नहीं रखे थे तुम ने. तुम्हें पता है कि गैस्टहाउस शहर से कितनी दूर है? दूरदूर तक दुकानों का नामोनिशान तक नहीं है. तुम अंदाजा भी नहीं लगा सकती हो कि मुझे कितनी परेशानी और शर्म का सामना करना पड़ा वहां पर… इस बार तो मेरे सहयोगी ने हंसीहंसी में कह भी दिया कि भाभीजी का ध्यान कहां रहता है सामान पैक करते समय?’’

‘‘देखो, तुम 4 दिन बाद घर आए हो… आते ही चीखचिल्ला कर दिमाग न खराब करो. तुम्हें लगता है कि मैं लापरवाह और बेसलीकेदार हूं तो तुम खुद क्यों नहीं पैक कर लेते हो अपना सूटकेस या फिर अपने उस सहयोगी से ही कह दिया करो आ कर पैक कर जाया करे? मुझे क्यों आदेश देते हो?’’ यह अवंतिका की आवाज थी.

‘‘जब मुझे पहले से पता होता है कि मुझे जाना है तो मैं खुद ही तो पैक करता हूं अपना सूटकेस, पर जब औफिस में जाने के बाद पता चलता है कि मुझे जाना है तो मेरी मजबूरी हो जाती है कि मैं तुम से कहूं कि मेरा सूटकेस पैक कर के रखना. मैं तुम्हें कार्यक्रम तय होते ही सूचित कर देता हूं ताकि तुम्हें हड़बड़ी में सामान न डालना पड़े. इस बार भी मैं ने 3 घंटे पहले फोन कर दिया था तुम्हें.’’

‘‘जब तुम्हारा फोन आया था उसी समय मैं ने चेहरे पर फेस पैक लगाया था. उसे सूखने में तो समय लगता है न? जब तक वह सूखा तब तक तुम्हारा औफिस बौय आ गया सूटकेस लेने, बस जल्दी में चीजें छूट गईं. इस में मेरी इतनी गलती नहीं है जितना तुम चिल्ला रहे हो.’’

‘‘गलती छोटी है या बड़ी यह तो नतीजे पर निर्भर करता है. 3 दिन मैं ने बिना बनियान के शर्ट पहनी और अपने सहयोगी से क्रीम मांग कर शेविंग की. इस में तुम्हें न शर्म का एहसास है और न अफसोस का.’’ ‘‘तुम्हें तो बस बात को तूल देने की आदत पड़ गई है. कोई दूसरा पति होता तो बीवीबच्चों से मिलने की खुशी में इन बातों का जिक्र ही नहीं करता… और तुम हो कि उसी बात को तूल दिए जा रहे हो.’’ ‘‘बात एक बार की होती तो मैं भी न तूल देता, पर यह गलती तो तुम हर बार करती हो… कितनी बार चुप रहूं?’’

‘‘नहीं चुप रह सकते हो तो ले आओ कोई दूसरी जो ठीक से तुम्हारा खयाल रख सके. मुझ में तो तुम्हें बस कमियां ही कमियां नजर आती हैं.’’ टूअर पर गए पति के पास पहनने को बनियान नहीं थी, दाढ़ी करने के लिए क्रीम नहीं थी अवंतिका की गलती की वजह से. फिर भी वह शर्मिंदा होने के बजाय उलटा बहस कर रही है. कैसी पत्नी है यह? अवंतिका का असली रूप उजागर हो रहा था मेरे सामने. अंदर के माहौल को सोच कर मैं ने उलटे पांव लौट जाने में ही भलाई समझी. पर ज्यों ही मैं ने लौटने के लिए कदम बढ़ाया. अंदर से गुस्से में बड़बड़ाते उस के पति दरवाजा खोल कर बाहर निकल आए.

दरवाजे पर मुझे खड़ा देख उन के कदम ठिठक गए. बोले, ‘‘अरे, मैम आप? आप बाहर क्यों खड़ी हैं? अंदर आइए न,’’ कह कर दरवाजे के एक किनारे खड़े हो कर उन्होंने मुझे अंदर आने का इशारा किया साथ ही अवंतिका को आवाज दी, ‘‘अवंतिका देखो नेहा मैम आई हैं.’’ मुझे देखते ही अवंतिका खुश हो गई. उस के चेहरे पर कहीं भी शर्मिंदगी का एहसास न था कि कहीं मैं ने उन की बहस सुन तो नहीं ली है. किंतु उस के पति के चेहरे पर शर्मिंदगी का भाव साफ नजर आ रहा था.

अवंतिका के घर के अंदर पहुंचने से पहले ही पतिपत्नी के झगड़े को सुन खिन्न हो चुका मेरा मन अंदर पहुंच कर अवंतिका के बेतरतीब और गंदे घर को देख कर और खिन्न हो गया. अवंतिका के हर पल सजेसंवरे व्यक्तित्व के ठीक विपरीत उस का घर अकल्पनीय रूप से अस्तव्यस्त था. कीमती सोफे पर गंदे कपड़े और डाइनिंगटेबल पर जूठे बरतनों के साथसाथ कंघी और तेल जैसी वस्तुएं भी पड़ी हुई थीं. योगिता का स्कूल बैग और जूते ड्राइंगरूम में ही इधरउधर पड़े थे. आज तो स्कूल बंद था. इस का मतलब यह सारा सामान कल से ही इसी तरह पड़ा है. बैडरूम का परदा खिसका पड़ा था. अत: न चाहते हुए वहां भी नजर चली ही गई. बिस्तर पर भी कपड़ों का अंबार साफ नजर आ रहा था. ऐसा लग रहा था कि धुले कपड़ों को कई दिनों से तह कर के नहीं रखा गया. उस के घर की हालत पर अचंभित मैं सोफे पर कपड़े सरका कर खुद ही जगह बना कर बैठ गई. ‘‘आप आज हमारे घर आएंगी यह सुन कर योगिता बहुत खुश थी. बेसब्री से आप का इंतजार कर रही थी पर अभीअभी सहेलियों के साथ खेलने निकल गई है,’’ कहते हुए अवंतिका मेरे लिए पानी लेने किचन में गई तो पीछेपीछे उस के पति भी चले गए.

मुझे साफ सुनाई दिया वे कह रहे थे, ‘‘जब तुम्हें पता था कि मैम आने वाली हैं तब तो घर को थोड़ा साफ कर लिया होता…क्या सोच रही होंगी वे घर की हालत देख कर?’’

‘‘मैम कोई मेहमान थोड़े ही हैं… कुछ भी नहीं सोचेंगी… तुम उन की चिंता न करो और जरा जल्दी से चायपत्ती और कुछ खाने को लाओ,’’ कह उस ने पति को दुकान पर भेज दिया. उस के घर पहुंच कर मुझे झटके पर झटका लगता जा रहा था. मैं अवंतिका की गृहस्थी चलाने का ढंग देख कर हैरान हो रही थी. 2 दिन पहले ही अवंतिका मेरे घर से चायपत्ती यह कह कर लाई थी कि खत्म हो गई है और तब से आज तक खरीद कर नहीं लाई? बारबार कहने और बुलाने के बाद आज पूर्व सूचना दे कर मैं आई हूं फिर भी घर में चाय के साथ देने के लिए बिस्कुट तक नहीं?

उस के पति के जाने के बाद मैं ने सोचा कि अकेले बैठने से अच्छा है अवंतिका के साथ किचन में ही खड़ी हो जाऊं. पर किचन में पहुंचते ही वहां जूठे बरतनों का अंबार देख और अजीब सी दुर्गंध से घबरा कर वापस ड्राइंगरूम में आ कर बैठने में ही भलाई समझी. मेरा मन बुरी तरह उचट चुका था. मैं समझ गई थी कि अवंतिका उन औरतों में से है, जिन के लिए बस अपना साजशृंगार ही महत्त्वपूर्ण होता है. घर के काम और व्यवस्था से उन्हें कुछ लेनादेना नहीं होता और उन पर कोई उंगली न उठा पाए, इस के लिए वे सब के सामने अपने को बेबस और लाचार सिद्ध करती रहती हैं और सारा दोष अपने पति के मत्थे मढ़ देती हैं. उस के घर आने के अपने निर्णय पर मुझे अफसोस होने लगा था. हर समय सजीसंवरी दिखने वाली अवंतिका के घर की गंदगी में घुटन होने लगी थी. चाय के कप पर जमी गंदगी को अनदेखा कर जल्दीजल्दी चाय का घूंट भर कर मैं वहां से निकल ली. वहां से वापस आ कर मेरी सोच पलट गई. उस के घर की तसवीर मेरे सामने स्पष्ट हो गई थी. अवंतिका उन औरतों में से थी, जो अपनी कमियों को छिपाने के लिए अपने पति को दूसरों के सामने बदनाम करती हैं. अवंतिका के पति एक सौम्य, सुशिक्षित और सलीकेदार व्यक्ति थे. निश्चित ही वे घर को सुव्यवस्थित और आकर्षक ढंग से सजाने के शौकीन होंगे तभी तो अपनी मेहनत की कमाई का एक बड़ा हिस्सा उन्होंने घर में कीमती फर्नीचर, परदों और शो पीस पर खर्च किया था. पर उन के रखरखाव और देखभाल की जिम्मेदारी तो अवंतिका की ही होगी. पर अवंतिका के स्वभाव में घर की सफाई और सुव्यवस्था शामिल नहीं थी. इसी वजह से उस के पति नाखुश और असंतुष्ट हो कर उस पर अपनी खीज उतारते होंगे.

सुबहसवेरे घर छोड़ कर काम पर गए पतियों के लिए घर एक आरामगाह होता है. वहां के लिए शाम को औफिस से छूटते ही पति ठीक उसी तरह भागते हैं जैसे स्कूल से छूटते ही छोटे बच्चे भागते हैं. बाहर की आपाधापी, भागदौड़ से थका पति घर पहुंच कर अगर साफसुथरा घर और शांत माहौल पाता है, तो उस की सारी थकान और तनाव खत्म हो जाता है. पर अवंतिका के अस्तव्यस्त घर में पहुंच कर तो किसी को भी सुकून का एहसास नहीं हो सकता है. जिस घर के कोनेकोने में नकारात्मकता विद्यमान हो वहां रहने वालों को सुकून और शांति कैसे मिल सकती है? सुबह से शाम तक औफिस में खटता पति अपनी पत्नी के ही हाथों दूसरों के बीच बदनाम होता रहता है. अवंतिका के घर से निकलते वक्त मेरी धारणा पलट चुकी थी. अब मेरे अंदर उस के पति के लिए सम्मान और सहानुभूति थी और अवंतिका के लिए नफरत.

अपने अपने रास्ते: सविता ने विवेक को क्यों अपना जिस्म सौंप दिया?

‘‘एक बार अपने फैसले पर दोबारा विचार कर लें.  पतिपत्नी में झगड़ा होता ही रहता है. तलाक ही समस्या का समाधान नहीं होता. आप की एक बच्ची भी है. उस के भविष्य का भी सवाल है,’’ जिला एवं सत्र न्यायाधीश ने अपने चैंबर में सामने बैठे सोमदत्त और उन की पत्नी सविता को समझाने की गरज से औपचारिक तौर पर कहा. यह औपचारिकता हर जज तलाक की डिगरी देने से पहले पूरी करता है.

सोमदत्त ने आशापूर्ण नजरों से सविता की तरफ देखा. मगर सविता ने दृढ़तापूर्वक इनकार करते हुए कहा, ‘‘जी नहीं, मेलमिलाप की कोई गुंजाइश नहीं बची है.’’

‘‘ठीक है, जैसी आप की मरजी.’’

अदालत से बाहर आ पतिपत्नी अपनेअपने रास्ते पर चल दिए. उस की पत्नी इतनी निष्ठुर हो जाएगी, सोमदत्त ने सोचा भी नहीं था. मामूली खटपट तो आरंभ से थी. मगर विवाद तब बढ़ा जब सविता ने आयातनिर्यात की कंपनी बनाई. वह एक फैशन डिजाइनर थी. कई फर्मों में नौकरी करती आई थी. बाद में 3 साल पहले उस ने जमापूंजी का इंतजाम कर अपनी फर्म बनाई थी.

सोमदत्त सरकारी नौकरी में था. अच्छे पद पर था सो वेतन काफी ऊंचा था. शुरू में आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी इसलिए उस ने पत्नी को नौकरी करने के लिए प्रोत्साहित किया था. धीरेधीरे हालात सुधरते गए. सरकारी मुलाजिमों का वेतन काफी बढ़ गया था.

सविता काफी सुंदर और अच्छे व्यक्तित्व की स्त्री थी. उस की तुलना में सोमदत्त सामान्य व्यक्तित्व और थोड़ा सांवले रंगरूप का था. सरकारी नौकरी का आकर्षण ही था जो सविता के मातापिता ने सोमदत्त से बेटी का रिश्ता किया था. सविता को अपना पति पसंद नहीं था तो नापसंद भी नहीं था. जैसेतैसे जिंदगी गुजारने की मानसिकता से दोनों निबाह रहे थे.

सविता के अपने अरमान थे, उमंगें थीं, महत्त्वाकांक्षाएं थीं. फैशन डिजाइनर की नौकरी से उस को अपनी कुछ उमंगें पूरी करने का मौका तो मिला था मगर फिर भी उस का मन हमेशा खालीखाली सा रहता था.

सोमदत्त अपनी पत्नी के सुंदर व्यक्तित्व से दबता था. इसलिए वह उस को उत्पीडि़त करने में आनंद पाता था. कई बार सविता घर देर से लौटती थी. उस का चालचलन, चरित्र सब बेबाक था. इसलिए उस को अपने पति द्वारा कटाक्ष करना, शक करना अखरता था.

बाद में जब सविता ने अपनी आयातनिर्यात की फर्म बना ली और अच्छी आमदनी होने लगी तो सोमदत्त खुद को काफी हीन समझने लगा. उस की खीज बढ़ गई. रोजरोज क्लेश और झगड़े की परिणति तलाक में हुई. दोनों की एक बच्ची थी, जो 12-13 साल की थी और कान्वैंट में पढ़ रही थी. बच्ची की सरपरस्ती भी सविता को हासिल हुई थी.

तलाक का फैसला होने के बाद सविता अपने आफिस पहुंची तो उस की स्टेनो रेणु ने उस का अभिवादन किया. लगभग 22-23 साल की रेणु पूरी चमकदमक के साथ अपनी सीट पर मौजूद थी.

स्टेनो से लगभग 20 साल बड़ी उस की मैडम यानी मालकिन सविता भी अपने व्यवसाय और चलन के हिसाब से ही बनीठनी रहती थी. वह अपनी फिगर का ध्यान रखती थी. उस का पहनावा भी अवसर के अनुरूप होता था.

सविता को स्टेनो रेणु ने मोबाइल से आफिस में बैठे विजिटर के बारे में बता दिया था. उस ने स्वागतकक्ष में बैठे आगंतुकों की तरफ देखा. कई चेहरे परिचित थे तो कुछ नए भी. सभी का मुसकरा कर मूक अभिवादन करती वह अपने कक्ष में चली गई.

मिलने वालों में कुछ वस्त्र निर्माता थे तो कुछ अन्य सामान के सप्लायर. एकएक कर सभी निबट गए. अंत में एक सुंदर लंबे कद के नौजवान ने अंदर कदम रखा.

उस का विजिटिंग कार्ड ले कर सविता ने उस को बैठने का इशारा किया. विवेक बतरा, एम.बी.ए., आयातनिर्यात प्रतिनिधि. साथ में उस का पता और मोबाइल नंबर दर्ज था.

‘‘मिस्टर बतरा, आप एक्सपोर्ट एजेंट हैं?’’

‘‘जी हां.’’

‘‘कितने समय से आप इस लाइन में हैं?’’

‘‘2 साल से.’’

‘‘आप के काम का एरिया कौन सा है?’’

‘‘सिंगापुर और अमेरिका.’’

‘‘क्या आप के पास कोई एक्सपोर्ट आर्डर है?’’

‘‘बहुत से हैं,’’ कहने के साथ विवेक बतरा ने अपना ब्रीफकेस खोला और सिलेसिलाए वस्त्रों के नमूने निकाल कर मेज पर फैला दिए. साथ ही उन की डिटेल्स भी समझाने लगा. कुछ परिधान जनाना, कुछ मरदाना और कुछ बच्चों के थे.

‘‘इन सब की प्रोसैसिंग में तो समय लगेगा,’’ सविता ने सभी आर्डरों के वितरण समझने के बाद कहा.

‘‘कोई बात नहीं है. हमारे ग्राहक इंतजार कर सकते हैं.’’

‘‘क्या कमीशन लेते हैं आप?’’

‘‘5 प्रतिशत.’’

‘‘बहुत ज्यादा है. हम तो 3 प्रतिशत तक ही देते हैं.’’

‘‘मैडम, मेरा काम स्थायी और कम समय में लगातार आर्डर लाने का है. दूसरे एजेंटों के मुकाबले में मेरा काम बहुत तेज है,’’ विवेक बतरा के स्वर में आत्मविश्वास था जिस से सविता बहुत प्रभावित हुई.

‘‘ठीक है मिस्टर बतरा, फिलहाल हम प्रोसैसिंग के बेस पर आप के साथ एक्सपोर्ट आर्डर ले लेते हैं, काम का भुगतान होने के बाद आप को 5 प्रतिशत कमीशन दे देंगे.’’

‘‘ठीक है, मैडम.’’

‘‘क्या आप रसीद या लिखित मेें कोई करार करना चाहते हैं?’’

‘‘नहीं, इस की कोई जरूरत नहीं है. मुझे आप पर विश्वास है,’’ कहता हुआ विवेक बतरा उठ खड़ा हुआ. अपना ब्रीफकेस बंद किया और ‘बैस्ट औफ लक’ कहता चला गया.

सविता उस के व्यक्तित्व और बेबाक स्वभाव से प्रभावित हुई. थोड़े दिनों में विवेक बतरा के निर्यात आदेशों में अधिकांश सिरे चढ़ गए. सविता की कंपनी को पहली बार ढेर सारा काम मिला था. विवेक ने भी भारी कमीशन कमाया.

फिर कामयाबी का सिलसिला चल पड़ा. विवेक बतरा नियमित आर्डर लाने लगा. बाहर जाने, विदेशी ग्राहकों से मिलने, बात करने, डील फाइनल करने आदि कामों के सिलसिले में सविता, विवेक के साथ जाने लगी. नियमित मिलनेजुलने से दोनों करीब आने लगे. विवेक बतरा इस बात से काफी प्रभावित था कि सविता एक किशोरवय की बेटी की मां होने के बाद भी काफी जवान नजर आती थी.

एक दिन ऐसा भी आया जब दोनों में सभी दूरियां मिट गईं. सविता की औरत को एक मर्द की और विवेक के मर्द को एक औरत की जरूरत थी. अपने प्रौढ़ावस्था के पुराने खयालों के पति की तुलना में विवेक बतरा स्वाभाविक रूप से ताजादम और जोशीला था, दूसरी ओर विवेक बतरा के लिए कम उम्र की लड़कियों के मुकाबले एक अनुभवी औरत से सैक्स नया अनुभव था.

एक रोज सहवास के दौरान विवेक बतरा ने कहा, ‘‘मुझ से शादी करोगी?’’

इस सवाल पर सविता सोच में पड़ गई. विवेक उस से काफी छोटा था. उस को हमउम्र या छोटी उम्र की लड़कियां आसानी से मिल जाएंगी. अपने से उम्र में इतनी बड़ी महिला से वह क्या पाएगा?

‘‘क्या सोचने लगीं?’’ सविता को बाहुपाश में कसते हुए विवेक ने कहा.

‘‘कुछ नहीं, जरा तुम्हारे प्रस्ताव पर विचार कर रही थी. मैं तुम से उम्र में बड़ी हूं. तलाकशुदा हूं. एक किशोर लड़की की मां हूं. तुम्हें तुम्हारी उम्र की लड़की आसानी से मिल जाएगी.’’

‘‘मैं ने सब सोच लिया है.’’

‘‘फिर भी फैसला लेने से पहले सोचना चाहती हूं.’’

इस के बाद विवेक और सविता काफी ज्यादा करीब आ गए. दोनों में व्यावसायिक संबंध काफी प्रगाढ़ हो गए. विवेक अन्य फर्मों को आयातनिर्यात के आर्डर देने से कतराने लगा, उस की कोशिश थी कि ज्यादा से ज्यादा काम सविता की कंपनी को मिले.

सविता भी उसे पूरी तरजीह देने लगी. उस ने अपने दफ्तर में विवेक के बैठने के लिए एक केबिन बनवा दिया जो उस के केबिन से सटा हुआ था. धीरेधीरे अनेक ग्राहकों को, जो पहले सविता के ग्राहक थे, विवेक अपने केबिन में बुला कर हैंडल करने लगा. आफिस स्टाफ को भी विवेक अधिकार के साथ आदेश देने लगा. मालकिन या मैडम का खास होने के कारण सभी कर्मचारी न चाहते हुए भी उस का आदेश मानने लगे.

अभी तक विवेक, सविता से हर आर्डर पर कमीशन लेता था. सविता ने उस को कभी अपने व्यापार का हिसाबकिताब नहीं दिखाया था. मगर वह कभी कंप्यूटर से और कभी लेजर बुक्स से भी व्यापार के हिसाबकिताब पर नजर रखने लगा.

अभी तक विवेक फर्म का प्रतिनिधि और एजेंट ही था. उस को किसी सौदे या डील को फाइनल करने का अधिकार न था. ऐसा करने के लिए या तो वह फर्म का पार्टनर बनता या फिर उस के पास सविता का दिया अधिकारपत्र होता मगर एकदम से उस को यह सब हासिल नहीं हो सकता था. जो भी था आखिर वह एक एजेंट भर था, जबकि सविता फर्म की मालकिन थी.

वह एकदम से सविता से पावर औफ अटौर्नी देने को या पार्टनर बनाने को नहीं कह सकता था इसलिए वह अब फिर से सविता से विवाह के लिए कहने लगा था.

‘‘शादी किए बिना भी हम इतने करीब हैं फिर शादी की औपचारिकता की क्या जरूरत है?’’ सविता ने हंस कर कहा.

‘‘मैं चाहता हूं कि आप मेरी होममिनिस्टर कहलाएं. आप जैसी इतनी कामयाब और हसीन खातून का खादिम बनना समाज में बड़ी इज्जत की बात है,’’ विवेक ने सिर नवा कर कहा.

इस पर सविता खिलखिला कर हंस पड़ी. आखिर कोई स्त्री अपने रूपयौवन की प्रशंसा सुन कर खुश ही होती है. उस शाम विवेक उसे एक फाइवस्टार होटल के रेस्तरां में खाना खिलाने ले गया. वहीं एक ज्वैलरी शोरूम से हीरेजडि़त एक ब्रेसलेट ले कर भेंट किया तो सविता और भी अधिक खुश हो गई.

उस शाम यह तय हुआ कि सविता 3 दिन के बाद अपना पक्का फैसला सुनाएगी.

इन 3 दिनों के बीच में किसी विदेशी फर्म को एक सौदे के लिए भारत आना था जिसे अभी तक सविता खुद ही हैंडल करती आई थी. विवेक भी इस फर्म के प्रतिनिधि के रूप में सविता के साथ उस फर्म के प्रतिनिधि से मिलना चाहता था.

इस बार का सौदा काफी बड़ा था. दोपहर को सविता के दफ्तर में मिस रोज, जो एक अंगरेज महिला थी, ने सविता और विवेक से बातचीत की. सौदा सफल रहा. विवेक ने भी अपने वाक्चातुर्य का भरपूर उपयोग किया. मिस रोज भी विवेक के व्यक्तित्व से खासी प्रभावित हुई.

फिर कांट्रैक्ट साइन हुआ. सविता कंपनी की मालकिन थी. अत: साइन उसी को करने थे. विवेक खामोशी से सब देखता रहा था.

मिस रोज विदा होने लगी तो सविता ने उस को सौदा फाइनल होने की खुशी में रात के खाने पर एक फाइवस्टार होटल के रेस्तरां में आमंत्रित किया. मिस रोज ने खुशीखुशी आना स्वीकार किया.

उस शाम सविता ने आफिस जल्दी बंद कर दिया. फ्लैट पर नहा कर अपनी ब्यूटीशियन के यहां गई. नए अंदाज में मेकअप करवाने के बाद अब सविता और भी दिलकश लग रही थी.

ब्यूटीपार्लर से निकल कर सविता अपने लवर के पास गई. आज विवेक को उसे अपना पक्का फैसला सुनाना था. ज्वैलर्स के यहां से विवेक को देने के लिए उस ने एक महंगी हीरेजडि़त अंगूठी खरीदी.

मिस रोज ठीक समय पर आ गई. वह नए स्टाइल के स्कर्ट, टौप में थी. उस ने हाईहील के महंगे सैंडिल पहने थे. गहरे रंग के स्कर्र्ट व टौप उस के सफेद दूधिया शरीर पर काफी फब रहे थे.

विवेक बतरा भी गहरे रंग के नए फैशन के इवनिंग सूट में था. अपने गोरे रंग और लंबे कद के कारण वह ‘शहजादा गुलफाम’ लग रहा था.

तीनों ने हाथ मिलाए. फिर पहले से बुक की गई मेज के इर्दगिर्द बैठ गए. वेटर चांदी के गिलासों में ठंडा पानी सर्व कर गया.

थोड़ी देर बाद वही वेटर उन के पास आया और सिर नवा कर खड़ा हो गया तो सविता ने ड्रिंक लाने का आर्डर दिया.

थोड़ी देर बाद वेटर आर्डर सर्व कर गया. सभी अपनाअपना ड्रिंक पीने लगे. तभी हाल की बत्तियां बुझ गईं. डायस पर धीमाधीमा संगीत बजने लगा. हाल में एक तरफ डांसिंग फ्लोर था. कुछ जोड़े उठ कर डांसिंग फ्लोर पर चले गए.

वहां का माहौल बहुत रोमानी हो चला था. विवेक ने अपना गिलास खत्म किया और उठ खड़ा हुआ. सिर नवाता हुआ मिस रोज की तरफ देखता हुआ बोला, ‘‘लैट अस हैव ए राउंड.’’

मिस रोज मुसकराई. उस ने अपना गिलास खत्म किया और उठ कर अपना बायां हाथ विवेक के हाथ में  थमा दिया. उस की पीठ पर अपनी बांह फिसला विवेक उसे डांसिंग फ्लोर की तरफ ले गया. दोनों साथसाथ थिरकने लगे.

सविता ईर्ष्यालु नहीं थी. उस ने कभी ईर्ष्या नहीं की. मुकाबला नहीं किया था. मगर आज जाने क्यों ईर्ष्या से भर उठी थी. हालांकि वह जानती थी. आयात- निर्यात के धंधे में विदेशी ग्राहकों को ऐंटरटेन करना व्यवसाय सुलभ था, कोई अनोखी बात न थी.

मगर आज वह एक खास मकसद से विवेक के पास आई थी. इस खास अवसर पर उस का किसी अन्य के साथ जाना, चाहे वह ग्राहक ही क्यों न हो, उसे सहन नहीं हो रहा था.

पहला राउंड खत्म हुआ. विवेक बतरा चहकता हुआ मिस रोज को बांहों में पिरोए वापस आया. मिस रोज ने कुरसी पर बैठते हुए कहा, ‘‘सविताजी, आप के साथी बतरा बहुत मंझे हुए डांसर हैं, मेरी तो कमर टूट रही है.’’

‘‘मिस रोज, यह डांसर के साथसाथ और भी बहुत कुछ हैं,’’ सविता ने हंसते हुए कहा.

‘‘बहुत कुछ का क्या मतलब है?’’

‘‘यह मिस्टर बतरा धीरेधीरे समझा देंगे.’’

डांस का दूसरा दौर शुरू हुआ. विवेक उठ खड़ा हुआ. उस ने अपना हाथ मिस रोज की तरफ बढ़ाया, ‘‘कम अलांग मिस रोज लैट अस हैव अ न्यू राउंड.’’

‘‘आई एम सौरी, मिस्टर बतरा. मैं थक रही हूं. आप अपनी पार्टनर को ले जाएं,’’ मिस रोजी ने अर्थपूर्ण नजरों से सविता की तरफ देखते हुए कहा.

इस पर विवेक बतरा ने अपना हाथ सविता की तरफ बढ़ा दिया. सविता निर्विकार ढंग से उठी. विवेक बतरा ने अपनी एक बांह उस की कमर में पिरोई और उसे अपने साथ सहारा दे कर डांसिंग फ्लोर पर ले गया.

सविता पहले भी विवेक के साथ डांसिंग फ्लोर पर आई थी. मगर आज उस को विवेक के बाहुपाश में वैसी शिद्दत, वैसा जोश, उमंग और शोखी नहीं महसूस हुई जिन्हें वह हर डांस में महसूस करती थी. दोनों को लग रहा था मानो वे प्रोफेशनल डांसर हों, जो औपचारिक तौर पर डांस कर रहे थे.

विवेक बतरा मुड़मुड़ कर मिस रोज की तरफ देख रहा था. स्त्री ही स्त्री की दुश्मन होती है. वह न सौत सह सकती है न मुकाबला या तुलना. विवेक बतरा अनजाने में यह सब कर उसे उत्पीडि़त कर रहा था.

आज से पहले सविता ने कभी विवेक बतरा के व्यवहार की समीक्षा न की थी. उस ने अपने दफ्तर और व्यापार में उस  की खामखा की दखलंदाजी और अनावश्यक रौब जमाने की प्रवृत्ति को यह सोच कर सह लिया था कि वह उस से शादी करने वाली था. मगर आज मात्र 1 घंटे में उस की सोच बदल गई थी.

 

उस के पूर्व पति ने अपनी हीन भावनावश उस को हमेशा सताया था. बेवजह शक किया था. विवेक बतरा उस के पूर्व पति की तुलना में प्रभावशाली व्यक्तित्व का था. वह भी कल को शादी के बाद उसे सता सकता है. एक बार पति का दर्जा पाने पर या पार्टनर बन जाने पर कंपनी का सारा नियंत्रण अपने हाथ में ले सकता है.

आज मात्र एक नई उम्र की हसीना के रूबरू होने पर उस का ऐसा व्यवहार था, कल न जाने क्या होगा?

विवेक बतरा को भी मिस रोज, जो आयु में सविता से काफी छोटी थी, ताजे और खिले गुलाब जैसी लगी थी. उस की तुलना में सविता एक पके फल जैसी थी, जिस में मिठास पूरी थी, मगर यह मिठास ज्यादा होने पर उबा देती थी. इस मिठास में जीभ को ताजगी भरने वाली खास मिठास न थी जो पेड़ से तोड़े गए ताजे फल में होती थी.

डांस का दूसरा दौर समाप्त हुआ. कई महीने से जो फैसला न हो पाया था, मात्र 45 मिनट के डांसिंग सेशन में हो गया था.

नई मोमबत्तियां लग गईं. खाना काफी लजीज था. मिस रोज ने खाने की तारीफ के साथ आगे फिर मिलने की बात कहते हुई विदा ली. विवेक बतरा उसे छोड़ने बाहर तक गया. सविता निर्विकार भाव से सब देख रही थी.

मिस रोज को छोड़ कर विवेक वापस आया तो बोला, ‘‘सविता डार्लिंग, आज आप को अपना फैसला सुनाना था?’’

‘‘क्या जरूरत है?’’ लापरवाही से सविता ने कहा.

‘‘आप ने आज ही तो कहा था,’’ विवेक बतरा जैसे याद दिला रहा था.

‘‘हम दोनों में जो है वह शादी के बिना भी चल सकता है.’’

‘‘मगर शादी फिर शादी होती है.’’

‘‘देखिए, मिस्टर बतरा, जब तक फासला होता है तभी तक हर चीज आकर्षक नजर आती है. पहाड़ हम से दूर हैं, हमें सुंदर लगते हैं मगर जब हम उन पर जाते हैं तब हमें पत्थर नजर आते हैं. आज मैं थोड़ी जवान हूं, कल को प्रौढ़, वृद्धा हो जाऊंगी मगर आप तब भी जवान होंगे. तब आप को संतुष्टि के लिए नई कली का रस ही सुहाएगा, इसलिए अच्छा है आप अभी से नई कली ढूंढ़ लें. मैं आप की व्यापार में सहयोगी ही ठीक हूं.’’

विवेक बतरा भौचक्क था. उसे ऐसे रोमानी माहौल में ऐसे विपरीत फैसले की उम्मीद न थी. वेटर को 500 रुपए का नोट टिप के लिए थमा, सविता सधे कदमों से वापस चली गई. ‘रिंग सेरेमनी’ की अंगूठी बंद की बंद ही रह गई थी. डांस फ्लोर पर डांस का नया दौर आरंभ हो रहा था.

पिया बावरी: कौनसी तरकीब निकाली थी आरती ने

अजयऔफिस के लिए निकला तो आरती भी उसे कार तक छोड़ने नीचे उस के साथ ही उतर आई. यह उस का रोज का नियम था. ऐसा दृश्य कहीं और देखने को नहीं मिलता था कि मुंबई की सुबह की भागदौड़ के बीच कोई पत्नी रोज अपने पति को छोड़ने कार तक आए. आरती का बनाया टिफिन और अपना लैपटौप बैग पीछे की सीट पर रख आरती को मुसकरा कर बाय बोलते हुए अजय कार के अंदर बैठ गए.

आरती ने हाथ हिला कर बाय किया और अपने रूटीन के अनुसार सैर के लिए निकलने लगी तो कुछ ही दूर उस की नैक्स्ट डोर पड़ोसिन अंजलि भी औफिस के लिए भागती सी चली जा रही थी. आरती पर नजर डाली और कुछ घमंड भरी आवाज में कहा, ‘‘हैलो आरती, भई सच कहो, सब को औफिस के लिए निकलते देख दिल में कुछ तो होता होगा कि सभी कुछ कर रहे हैं, काश मैं भी कोई जौब करती? मन तो करता होगा सुबह तैयार हो कर निकलने का. यहां तो लगभग सभी जौब करती हैं.’’

आरती खुल कर हंसी, ‘‘न बाबा, तुम लोगों को औफिस जाना मुबारक. अपन तो अभी सैर से आ कर न्यूज पेपर पढ़ेंगे, आराम करेंगे, फिर बच्चों को कालेज भेजने की तैयारी.’’

‘‘सच बताओ आरती, कभी दिल नहीं  करता कामकाजी स्त्री होने का?’’

‘‘नहीं, बिलकुल नहीं करता. कमाने के लिए पति है मेरे पास,’’ आरती हंस दी, फिर कहा, ‘‘तुम थकती नहीं इस सवाल से? कितनी बार पूछ चुकी हो?’’

‘‘फिर तुम किसलिए हो?’’ कुछ कड़वे से लहजे में अंजलि ने पूछा तो उस के साथ तेज चलती हुई आरती ने कहा, ‘‘अपने पति को प्यार करने के लिए… लो, तुम्हारी बस आ गई,’’ आरती उसे बाय कह कर सैर के लिए निकल गई.

बस में बैठ कर अंजलि ने बाहर झंका. आरती तेज कदमों से सैर कर रही थी.

रोज की तरह 1 घंटे की सैर कर के जब तक आरती आई, पीहू और यश कालेज जाने के लिए तैयार थे. फै्रश हो कर बच्चों के साथ ही उस ने नाश्ता किया, फिर दोनों को भेज न्यूज पेपर पढ़ने लगी. उस के बाद मेड के आने पर रोज के काम शुरू हो गए.

आरती एक पढ़ीलिखी हाउसवाइफ थी. नौकरी न करने का फैसला उस का खुद का था. वह घरपरिवार की जिम्मेदारियां बहुत संतोष और खुशी से निभा कर अपनी लाइफ में बहुत खुश थी. आराम से रहती, खूब हंसमुख स्वभाव था, न किसी से शिकायतें करने की आदत थी, न किसी से फालतू उम्मीदें.

वह वर्किंग महिलाओं का सम्मान करती थी, सम?ाती थी कि इस महानगर की भागदौड़ में घर से निकलना आसान काम नहीं होता, पर उसे यह बात हमेशा अजीब लगती कि वह वर्किंग महिलाओं का सम्मान करती है तो आसपास की वर्किंग महिलाएं अंजलि, मीनू और रीता उस के हाउसवाइफ होने का मजाक क्यों बनाती हैं? उसे नीचे क्यों दिखाती हैं?

उसे याद है जब वह शुरूशुरू में इस सोसाइटी में रहने आई तो अंजलि ने पूछा था, ‘‘कुछ काम नहीं करतीं आप? बस घर में रहतीं?’’

उस के पूछने के ढंग पर आरती को हंसी आ गई थीं. उस ने अपने स्वभाव के अनुसार हंस कर जवाब दिया था, ‘‘भई, घर में भी जो काम होते हैं, उन्हें करती हूं, अपना हाउसवाइफ होना ऐंजौय करती हूं.’’

‘‘तुम्हारे पति तुम्हें कहते नहीं कि कुछ काम करो बाहर जा कर?’’

‘‘नहीं, वे इस में खुश रहते हैं कि जब वे औफिस से लौटें तो मैं उन्हें खूब टाइम दूं, उन्हें भी घर लौटने पर मेरे साथ समय बिताना अच्छा लगता है.’’

‘‘कमाल है.’’

आरती हंस दी पर उसे यह समझ आ गया था कि इन लोगों को आसपास की हाउसवाइफ की लाइफ बिलकुल खराब लगती है. यहां तो मेड भी आ कर उत्साह से पहला सवाल यही पूछती है कि मैडम, काम पर जाती हैं क्या?

उस के आसपास वर्किंग महिलाएं ही ज्यादा थीं जो पूरा दिन घर में रहने वाली महिलाओं को किसी काम का न समझतीं. अजय और आरती ने प्रेम विवाह किया था.

आरती के कोई जौब न करने का फैसला अजय को ठीक लगा था. इस में उसे कोई भी परेशानी नहीं थी. अंजलि, मीनू, रीता के पति भी एकदूसरे को अच्छी तरह जानते थे. वह तो किसी पार्टी में किसी के दोस्त के यह पूछने पर कि भाभीजी क्या करती हैं तो आरती को निहारता हुआ हंस कर कह देता कि उस का काम है मुझे प्यार करना और वह बखूबी इस काम को अंजाम देती है.

आसपास खड़ी हो कर यह बात सुन रहीं अंजलि, मीनू और रीता इस बात पर एकदूसरे को देखतीं और इशारे करतीं कि यह देखो यह भी अजीब ही है.

ऐसी ही एक पार्टी में मीनू के पति ने बात छेड़ दी, ‘‘आरतीजी, आप बोर नहीं होतीं घर रह कर? मीनू तो घर में रहने पर बहुत जल्दी बोर हो जाती है. यह तो बहुत ऐंजौय करती है अपने पैरों पर खड़ी होने को. हर काम अपनी मरजी से करने में एक अलग ही खुशी होती है. आप तो काफी ऐजुकेटेड हैं, आप क्यों कोई जौब नहीं करतीं?’’

आरती ने खुशदिली से कहा, ‘‘मुझे तो शांति से घर रहना पसंद है. मैं ने तो शादी से पहले ही अजय से कह दिया था, मैं कोई जौब नहीं करूंगी, मैं बस घर में रह कर अपनी जिम्मेदारियां उठाऊंगी. फिर आरती ने और मस्ती से कहा, ‘‘मैं क्यों करूं कोई काम, मेरा पति है काम करने के लिए, वह कमाता है, मैं खर्च करती हूं मजे से, और मजे की बातें आज बता ही देती हूं, मैं अपने मन में अजय को आज भी पति नहीं, प्रेमी ही  समझती हूं अपना जो मेरे आसपास रहे तो मुझे अच्छा लगता है, मैं नहीं चाहती कि मैं कोई जौब करूं और वह मुझ से पहले आ कर घर में मेरा इंतजार करे.

‘‘किसी भी मेड के हाथ का बना खाना खा कर मेरे पति और मेरे बच्चों की हैल्थ खराब हो, मुझे तो अजय का हर काम अपने हाथों से करना अच्छा लगता है. आप लोगों को पता है कि मैं लाइफ की किन चीजों को आज भी ऐंजौय करती हूं. जब अजय नहा कर निकलें तो मैं उन का टौवेल उन के हाथ से ले कर तार पर टांग दूं, उन का टिफिन कोई बोझ समझ कर नहीं, मुहब्बत से पैक करूं और बदले में पता है मुझे क्या मिलता है, आरती बताते हुए ही शर्मा गई, ‘‘अपने लिए ढेर सी फिक्र और प्यार. असल में आप लोग घर में रहने को जितनी बुरी चीज सम?ाने लगे हैं, उतनी बुरी बात यह है नहीं.

‘‘मैं जब वर्किंग लेडीज की रिस्पैक्ट कर सकती हूं तो आप लोगों को एक हाउसवाइफ के कामों की वैल्यू क्यों समझ नहीं आती. कल हमारी पीहू भी अपने पैरों पर खड़ी होगी, जौब करेगी, यह उस की चौइस ही होगी कि उसे क्या पसंद है. हां, वह किसी हाउसवाइफ का मजाक कभी नहीं उड़ाएगी, यह भी जानती हूं मैं.’’

सब चुप से हो गए थे. आरती के सभ्य शब्दों में कही बात का असर जरूर हुआ था. सब इधरउधर हुए तो रीता ने कहा, ‘‘आरती, मुझे तुम्हें थैंक्स भी बोलना था. उस दिन जब घर पर रिमी अकेली थी, हम दोनों को औफिस से आने में देर हो गई थी तो तुम ने उसे बुला कर पीहू के साथ डिनर करवाया, हमें बहुत अच्छा लगा.’’

‘‘अरे, यह कोई बड़ी बात नहीं है, बच्चे तो बच्चे हैं, पीहू ने बताया कि रिमी अब तक अकेली है तो मैं ने उसे बुला लिया था.’’

मीनू आरती के ऊपर वाले फ्लैट में रहती थी. उस ने पूछ लिया, ‘‘आरती, तुम ने जो अजय को औफिस में कल करेले की सब्जी दी थी, उस की रैसिपी देना. अमित ने भी टेस्ट की थी. बोल रहे थे कि बहुत बढि़या बनी थी. ऐसी सब्जी उन्होंने कभी नहीं खाई थी और पता है अमित बता रहे थे कि अजय तुम्हारी बहुत तारीफ करते हैं.’’

अमित और अजय एक ही औफिस में थे. आरती हंस पड़ी, ‘‘अजय का बस चले तो वे रोज करेले बनवाएं, रैसिपी भी बता दूंगी और जब भी कभी बनाऊंगी, भेज भी दूंगी.’’

थोड़े दिन आराम से बीते. काफी दिन से कोई आपस में मिला नहीं था. कोरोना वायरस का प्रकोप शुरू हो गया था. सब वर्क फ्रौम होम कर रहे थे. अब अंजलि, मीनू, रीता की हालत खराब थी, न घर में रहने का शौक, न आदत. सब घर में बंद. लौकडाउन ने सब की लाइफ ही बदल कर रख दी थी, न कोई मेड आ रही थी, न कोई घर के काम संभाल पा रहा था. अब सब आपस में बस कभीकभी फोन ही करते.

एक आरती थी जिस ने कोई भी शिकायत किसी से नहीं की. जितना काम होता, उस में किसी की थोड़ी हैल्प ले लेती. अजय तो अब और हैरान था कि जहां उस का हर दोस्त फोन करते ही शुरू हो जाता कि यार, कहां फंस गए, औफिस के काम करो. फिर घर में लड़ाई भी होने लगी है ज्यादा. वहीं वह आरती को धैर्य से सब संभालता देखता. वह भी थोड़ेबहुत काम सब से करवा लेती पर ऐसे नहीं कि घर में जैसे कोई तूफान आया है.

आराम से जब बच्चे औनलाइन पढ़ते, वह खुद औफिस के कामों में बिजी होता, आरती सब शांति से करती रहती. इस दौरान तो उस ने आरती के और गुण भी देख लिए. वह उस पर और फिदा था.

अमित परेशान था. घर से काम करने पर तो औफिस के काम ज्यादा रहने लगे थे. ऊपर

से उसे अपने बड़े बालों पर बहुत गुस्सा आता रहता. सारे सैलून बंद थे. कहने लगा, ‘‘एक तो इतनी जरूरी वीडियो कौल है आज, औफिस के कितने लोग होंगे और मेरे बाल देखो, शक्ल ही बदल गई घर में रहतेरहते. क्या हाल हो गया है बालों का.’’

उस की चिकचिक देख मीनू ने कहा, ‘‘चिढ़ क्यों कर रहे हो. सब का यही हाल होगा. बाकियों ने कहां कटवा रखे होंगे बाल. सब ही परेशानी में हैं आजकल.’’

अमित को बहुत देर झंझलाहट होती रही. उस दिन की मीटिंग शुरू हुई तो सभी के बाल बढ़े हुए थे. पहले तो सब कलीग्स इस बात पर हंसे, फिर अचानक अजय के बहुत ही फाइन हेयर कट पर सब की नजर गई तो सब बुरी तरह चौंके.

एक कलीग ने कहा, ‘‘यह तुम्हारा हेयरकट कहां हो गया इतना बढि़या. कहां हम सब जंगली लग रहे हैं और तुम तो जैसे अभीअभी किसी सैलून से निकले हो.’’

अजय ने मुसकराते हुए कहा, ‘‘आरती ने किया है यह और मेरा ही नहीं, बच्चों का भी.’’

सब दोस्त आरती की तारीफ करने लगे थे. अमित अपने लुक पर बहुत ध्यान देता था. जब वह काम से फ्री हुआ, उस ने एक ठंडी सांस ली. उठ कर फ्रैश हुआ और शीशे के सामने खड़ा हो कर खुद को देखने लगा.

मीनू भी वहीं लैपटौप पर कुछ काम कर रही थी. पूछा, ‘‘क्या निहार रहे हो?’’

‘‘अपने बाल.’’

‘‘क्या कोई और काम नहीं है तुम्हें? हो गई न मीटिंग? सब के ऐसे ही बढ़े हुए थे न?’’

‘‘अजय का हेयरकट बहुत जबरदस्त था.’’

‘‘क्या?’’ मीनू चौंकी.

‘‘हां, आरती ने अजय और बच्चों का बहुत शानदार हेयरकट कर दिया है. मुंह चमक रहा था अजय का, यह औरत क्या है.’’

मीनू ने ठंडी सांस ले कर कहा, ‘‘यह पिया बावरी है.’’

अमित को हंसी आ गई, ‘‘डियर, कभी तुम भी बन जाओ पिया बावरी.’’

मीनू ने हाथ जोड़ दिए, मुसकरा कर कहा, ‘‘आसान नहीं है.’’

पान खाए सैयां हमारो

शाम के 6 बजे जब सब 1-1 कर घर जाने के लिए अपनाअपना बैग समेटने लगे तो सिया ने चोरी से एक नजर अनिल पर डाली. औफिस में नया आया सब से हैंडसम, स्मार्ट, खुशमिजाज अनिल उसे देखते ही पसंद आ गया था. वह मन ही मन उस के प्रति आकर्षित थी.

अनिल ने भी एक नजर उस पर डाली तो वह मुसकरा दी. दोनों अपनीअपनी चेयर से लगभग साथ ही उठे. लिफ्ट तक भी साथ ही गए. 2-3 लोग और भी उन के साथ बातें करते लिफ्ट में आए. आम सी बातों के दौरान सिया ने भी नोट किया कि अनिल भी उस पर चोरीचोरी नजर डाल रहा है.

बाहर निकल कर सिया रिकशे की तरफ जाने लगी तो अनिल ने कहा, ‘‘सिया, कहां जाना है आप को मैं छोड़ दूं?’’

‘‘नो थैंक्स, मैं रिकशा ले लूंगी.’’

‘‘अरे, आओ न, साथ चलते हैं.’’

‘‘अच्छा, ठीक है.’’

अनिल ने अपनी बाइक स्टार्ट की, तो सिया उस के पीछे बैठ गई. अनिल से आती परफ्यूम की खुशबू सिया को भा रही थी. दोनों को एकदूसरे का स्पर्श रोमांचित कर गया. बनारस में इस औफिस में दोनों ही नए थे. सिया की नियुक्ति पहले हुई थी.

अचानक सड़क के किनारे होते हुए अनिल ने ब्रेक लगाए तो सिया चौंकी, ‘‘क्या हुआ?’’

‘‘कुछ नहीं,’’ कहते हुए अनिल ने अपनी पैंट की जेब से गुटका निकाला और बड़े स्टाइल से मुंह में डालते हुए मुसकराया.

‘‘यह क्या?’’ सिया को एक झटका सा लगा.

‘‘मेरा फैवरिट पानमसाला.’’

‘‘तुम्हें इस की आदत है?’’

‘‘हां, और यह मेरी स्टाइलिश आदत है, है न?’’ फिर सिया के माथे पर शिकन देख कर पूछा, ‘‘क्या हुआ?’’

‘‘तुम्हें इन सब चीजों का शौक है?’’

‘‘हां, पर क्या हुआ?’’

‘‘नहीं, कुछ नहीं,’’ कह कर वह चुप रही तो अनिल ने फिर बाइक स्टार्ट कर ली.

धीरेधीरे यह रोज का क्रम बन गया. घर से आते हुए सिया रिकशे में आती, औफिस से वापस जाते समय अनिल उसे उस के घर से थोड़ी दूर उतार देता. धीरेधीरे दोनों एकदूसरे से खुलते गए.

अनिल का सिया के प्रति आकर्षण बढ़ता गया. मौडर्न, सुंदर, स्मार्ट सिया को वह अपने भावी जीवनसाथी के रूप में देखने लगा था. कुछ ऐसा ही सिया भी सोचने लगी थी. दोनों को विश्वास था कि उन के घर वाले उन की पसंद को पसंद करेंगे.

अनिल तो सिया के साथ अपना जीवन आगे बढ़ाने के लिए शतप्रतिशत तय कर चुका था पर सिया एक पौइंट पर आ कर रुक जाती थी. अनिल की लगातार मुंह में गुटका दबाए रखने की आदत पर वह जलभुन जाती थी. कई बार उस ने इस से होने वाली बीमारियों के बारे में चेतावनी भी दी तो अनिल ने बात हंसी में उड़ा दी, ‘‘यह क्या तुम बुजुर्गों की तरह उपदेश देने लगती हो. अरे, मेरे घर में सब खाते हैं, मेरे मम्मीपापा को भी आदत है, तुम खाती नहीं न, इसलिए डरती हो. 2-3 बार खाओगी तो स्वाद अपनेआप अच्छा लगने लगेगा. पहले मेरी मम्मी भी पापा को मना करती थीं. फिर धीरेधीरे वे गुस्से में खुद खाने लगीं और अब तो उन्हें भी मजा आने लगा है, इसलिए अब कोई किसी को नहीं टोकता.’’

सिया के दिल में क्रोध की एक लहर सी उठी पर अपने भावों को नियंत्रण में रखते हुए बोली, ‘‘पर अनिल, तुम इतने पढ़ेलिखे हो, तुम्हें खुद भी यह बुरी आदत छोड़नी चाहिए और अपने मम्मीपापा को भी समझाना चाहिए.’’

‘‘उफ सिया. छोड़ो यार, आजकल तुम घूमफिर कर इसी बात पर आ जाती हो. हमारे मिलने का आधा समय तो तुम इसी बात पर बिता देती हो. अरे, तुम ने वह गाना नहीं सुना, ‘पान खाए सैयां हमारो…’ फिर हंसा, ‘‘तुम्हें तो यह गाना गाना चाहिए, देखा नहीं कभी क्या कि वहीदा रहमान यह गाना गाते हुए कितनी खुश होती हैं.’’

‘‘वे फिल्मों की बातें हैं. उन्हें रहने दो.’’

अनिल उसे फिर हंसाता रहा पर वह उस की इस आदत पर काफी चिंतित थी. उस की समझ में नहीं आ रहा था कि वह अनिल की इस आदत को कैसे छुड़ाए.

एक दिन सिया अपने मम्मीपापा और बड़े भाई राहुल से मिलवाने अनिल को घर ले गई. अनिल का व्यक्तित्व कुछ ऐसा था कि देखने वाला तुरंत प्रभावित होता था. सब अनिल के साथ घुलमिल गए. बातें करतेकरते जब ऐक्सक्यूज मी कह कर अनिल ने अपनी जेब से पानमसाला निकाल कर अपने मुंह में डाला, तो सब उस की इस आदत पर हैरान से चुप बैठे रह गए.

अनिल के जाने के बाद वही हुआ जिस की उसे आशा थी. सिया की मम्मी सुधा ने कहा, ‘‘अनिल अच्छा लगा पर उस की यह आदत …’’ सिया ने बीच में ही कहा, ‘‘हां मम्मी, मुझे भी उस की यह आदत बिलकुल पसंद नहीं है. क्या करूं समझ नहीं आ रहा है.’’

थोड़े दिन बाद ही अनिल सिया को अपने परिवार से मिलवाने ले गया. अनिल के पापा श्याम और मम्मी मंजू अनिल की छोटी बहन मिनी सब सिया से बहुत प्यार से पेश आए. सिया को भी सब से मिल कर बहुत अच्छा लगा. मंजू ने तो उसे डिनर के लिए ही रोक लिया. सिया भी सब से घुलमिल गई. फिर वह किचन में ही मंजू का हाथ बंटाने आ गई. सिया ने देखा, फ्रिज में एक शैल्फ पान के बीड़ों से भरी हुई थी.

‘‘आंटी, इतने पान?’’ वह हैरान हुई.

‘‘अरे हां,’’ मंजू मुसकराईं, ‘‘हम सब को आदत है न. तुम तो जानती ही हो, बनारस के पान तो मशहूर हैं.’’

‘‘पर आंटी, हैल्थ के लिए…’’

‘‘अरे छोड़ो, देखा जाएगा,’’ सिया के अपनी बात पूरी करने से पहले ही मंजू बोलीं.

किचन में ही एक तरफ शराब की बोतलों का ढेर था. वह वौशरूम में गई तो वहां उसे जैसे उलटी आने को हो गई. बाहर से घर इतना सुंदर और वौशरूम में खाली गुटके यहांवहां पड़े थे. टाइल्स पर पड़े पान के छींटों के निशान देखते ही उसे उलटी आ गई. सभ्य, सुसंस्कृत दिखने वाले परिवार की असलियत घर के कोनेकोने में दिखाई दे रही थी. ‘अगर वह इस घर में बहू बन कर आ गई तो उस का बाकी जीवन तो इन गुटकों, इन बदरंग निशानों को साफ करते ही बीत जाएगा,’ उस ने इन विचारों में डूबेडूबे ही सब के साथ डिनर किया.

डिनर के बाद अनिल सिया को घर छोड़ आया. घर आने के बाद सिया के मन में कई विचार आ जा रहे थे. अनिल एक अच्छा जीवनसाथी सिद्ध हो सकता है, उस के घर वाले भी उस से प्यार से पेश आए पर सब की ये बुरी आदतें पानमसाला, शराब, सिगरेट के ढेर वह अपनी आंखों से देख आई थी. घर आ कर उस ने अपने मन की बात किसी को नहीं बताई पर बहुत कुछ सोचती रही. 2-3 दिन उस ने अनिल से एक दूरी बनाए रखी. सिया के इस रवैए से परेशान अनिल बहुत कुछ सोचने लगा कि क्या हुआ होगा पर उसे जरा भी अंदाजा नहीं हुआ तो शाम को घर जाने के समय वह सिया का हाथ पकड़ कर जबरदस्ती कैंटीन में ले गया, वहां बैठ कर उदास स्वर में पूछा, ‘‘क्या हुआ है, बताओ तो मुझे?’’

सिया को जैसे इसी पल का इंतजार था. अत: उस ने गंभीर, संयत स्वर में कहना शुरू किया, ‘‘अनिल, मैं तुम्हें बहुत पसंद करती हूं, पर हम इस रिश्ते को आगे नहीं बढ़ा पाएंगे.’’

अनिल हैरानी से चीख ही पड़ा, ‘‘क्यों?’’

‘‘तुम्हें और तुम्हारे परिवार को जो ये कुछ बुरी आदतें हैं, मुझ से सहन नहीं होंगी, तुम एजुकेटेड हो, तुम्हें इन आदतों का भविष्य तो पता ही होगा. भले ही तुम इन आदतों के परिणामों को नजरअंदाज करते रहो पर जानते तो हो ही न? मैं ऐसे परिवार की बहू कैसे बनूं जो इन बुरी आदतों से घिरा है? आई एम सौरी, अनिल, मैं सब जानतेसमझते ऐसे परिवार का हिस्सा नहीं बनना चाहूंगी.’’

अनिल का चेहरा मुरझा चुका था. बड़ी मुश्किल से उस की आवाज निकली, ‘‘सिया, मैं तो तुम्हारे बिना जीने की कल्पना भी नहीं कर सकता.’’

‘‘हां अनिल, मैं भी तुम से दूर नहीं होना चाहती पर क्या करूं, इन व्यसनों का हश्र जानती हूं मैं. सौरी अनिल,’’ कह उठ खड़ी हुई.

अनिल ने उस का हाथ पकड़ लिया, ‘‘अगर मैं यह सब छोड़ने की कोशिश करूं तो? अपने मम्मीपापा को भी समझांऊ तो?’’

‘‘तो फिर मैं इस कोशिश में तुम्हारे साथ हूं,’’ मुसकराते हुए सिया ने कहा, ‘‘पर इस में काफी समय लगेगा,’’ कह सिया चल दी.

आत्मविश्वास से सधे सिया के कदमों को देखता अनिल बैठा रह गया.

आदतन हाथ जेब तक पहुंचा, फिर सिर पकड़ कर बैठा रह गया.

सिंगल वूमन: क्या सुमित अपनी पड़ोसिन का पा सका

सुमित औफिस से लौटा तो सुधा किचन में व्यस्त दिखी. उस ने पूछा, ‘‘क्या बात है, आज तो बाहर तक खुशबू आ रही है?’’

सुधा मुसकराई, ‘‘जल्दी से फ्रैश हो जाओ, गैस्ट आ रहे हैं.’’

‘‘कौन?’’

‘‘बराबर वाले फ्लैट में जो किराएदार आए हैं, मैं ने उन्हें डिनर पर बुलाया है.’’

‘‘अच्छा, कौन हैं?’’

‘‘एक सिंगल वूमन है और उस की 10 साल की 1 बेटी

भी है.’’

‘‘ठीक है,’’ कह कर सुमित फ्रैश होने लगा. दोनों की 20 वर्षीय बेटी तनु और 17 वर्षीय बेटा राहुल भी अपनी बुक्स समेट कर डिनर के लिए तैयार थे.

सुधा ने तनु के साथ मिल कर डिनर टेबल पर लगाया. तभी घंटी की आवाज सुनाई दी. सुधा ने दरवाजा खोला और फिर मुसकराते हुए बोली, ‘‘आओ अनीता, हैलो बेटा, अंदर आओ.’’

अनीता अपनी बेटी रिनी के साथ अंदर आई. सुधा ने अपने परिवार से उन का परिचय करवाया. सुमित उसे देखता ही रह गया. जींसटौप, कंधों तक लहराते बाल, सलीके से किया गया मेकअप… बहुत स्मार्ट थी अनीता. रिनी तनु और राहुल को हैलो दीदी, हैलो भैया कहती उन से बातें करने लगी. तनु और राहुल उस की बातों का आनंद उठाने लगे. सुमित अनीता के रूपसौंदर्य में घिर बैठा रहा. उस का अनीता के चेहरे से नजरें हटाने का मन नहीं कर रहा था. अनीता और सुधा बातों में व्यस्त थीं. सुमित कनखियों से अनीता को निहार रहा था. सुंदर गोरा चेहरा, खूबसूरत हाथपैर, उन पर लगी आकर्षक नेलपौलिश, हाथ में महंगा फोन, कान व गले में डायमंड सैट. वाह, क्या बात है, सुमित ने उसे मन ही मन खूब सराहा. फिर उन की बातों की तरफ कान लगा दिए. वह दवाओं की एक मल्टीनैशनल कंपनी में प्रोडक्ट मैनेजर थी. यहां मुंबई में इस फ्लैट में वह अपनी बेटी के साथ रहेगी. औफिस के कुछ सहकर्मियों ने उसे यह फ्लैट दिलवाया है. इस सोसाइटी में उस का अच्छा फ्रैंड सर्कल है.

खाने की तारीफ करते हुए अनीता और रिनी ने सब के साथ डिनर किया और फिर थैंक्स बोल कर चली गईं.

उन के जाने के बाद तनु ने कहा, ‘‘मम्मी, आंटी तो बहुत स्मार्ट हैं.’’

सुधा ने कहा, ‘‘मुझे भी यह अच्छी लगी. इस से आतेजाते जितनी भी बातचीत हुई वह मुझे अच्छी लगी. अकेली है इसलिए आज बुला लिया था. वैसे भी इस फ्लोर पर दोनों फ्लैट बंद पड़े थे. खालीखाली सा लगता था. अब कोई तो दिखेगा.’’

सुमित मन ही मन सोच रहा था कि सिंगल वूमन, वाह, अकेली औरत मतलब आसान शिकार. अकेली है सौ काम पड़ेंगे इसे हम लोगों से. चलो, खूब टाइमपास होगा. और फिर मन ही मन अपनी सोच पर मुसकराया. फिर सुधा से बोला, ‘‘चलो, अब तुम्हारा मन लगा रहा करेगा.’’

‘‘हां, यह तो है,’’ सुधा ने कहा.

कुछ दिन और बीत गए. अनीता का घर सैट हो गया था. इस बिल्डिंग में 2 टू बैडरूम फ्लैट थे, तो 2 वन बैडरूम फ्लैट थे. सुमित का टू बैडरूम फ्लैट था और अनीता का वन बैडरूम. सुधा बड़ी उत्सुकता से अनीता की दिनचर्या नोट कर रही थी. उस ने सुधा की मेड को ही रख लिया था. सुबह उस से काम करवा कर अनीता रिनी को अपनी कार से स्कूल छोड़ती, फिर लंचटाइम में स्कूल से ले कर सोसाइटी में ही स्थित डे केयर सैंटर में छोड़ देती. वहां से शाम को ले कर लौटती. रिनी बहुत ही प्यारी और सम?ादार बच्ची थी. अनीता ने उसे बहुत मैनर्स सिखा रखे थे. अनीता दिन में व्यस्त रहती थी. शाम को खाली होती तो सुधा से मिलती. कभी उसे अपने यहां कौफी के लिए बुला लेती तो कभी खुद सुधा के पास आ जाती. अनीता की आत्मनिर्भरता सुधा को काफी अच्छी लगती.

शनिवार को अनीता और रिनी की छुट्टी रहती थी. दोनों मांबेटी मार्केट जातीं. कभी रिनी की फ्रैंड्स आ जातीं तो कभी अनीता की अपनी फ्रैंड्स. कुछ महीनों की दोस्ती के बाद अनीता सुधा से काफी घुलमिल गई थी. एकदिन उस ने अपने बारे में सुधा को इतना ही बताया था, ‘‘सुधाजी, मैं ने अपने पति और ससुराल वालों से निभाने की बहुत कोशिश की थी, लेकिन सब व्यर्थ गया. तलाक लेने के अलावा मेरे पास कोई रास्ता नहीं बचा था. अब मैं रिनी के साथ अपनी लाइफ से बहुत खुश हूं.’’

सुधा मन ही मन अनीता की हिम्मत की दाद देती रहती थी. दोनों के संबंध काफी

अच्छे हो गए थे. सुमित अनीता से बात करने का मौका ढूंढ़ता रहता था, लेकिन सुमित के औफिस से आने के बाद अनीता कभी सुधा के घर नहीं जाती थी. सुमित यहांवहां देखता रहता. अनीता से तो उस का आमनासामना ही नहीं हो पा रहा था. कहां वह अनीता के साथ टाइमपास के सपने देख रहा था और कहां अब अनीता की शक्ल ही नहीं दिखती थी. एक दिन सुमित ने घुमाफिरा कर बातोंबातों में सुधा से कहा, ‘‘और तुम्हारी पड़ोसिन का क्या हाल है?’’

‘‘ठीक है.’’

सुमित थोड़ा ?ाल्लाया, यह सुधा तो उस की कोई बात बताती ही नहीं, फिर दोबारा पूछा, ‘‘मिलती है या नाम की पड़ोसिन है?’’

‘‘जब उसे टाइम मिलता है, मिलती है?’’

सुमित मन ही मन झंझलाया कि कब अनीता से मिलना होगा, कुछ तो करना पड़ेगा. क्या करे वह और फिर पता नहीं क्याक्या सोचता रहा.

संडे को जैसे सुमित के मन की मुराद पूरी हो गई. अनीता ने सुबह ही घंटी बजा दी. सुधा ने दरवाजा खोला तो परेशान सी कहने लगी, ‘‘रिनी को बहुत तेज बुखार है, कोई डाक्टर है, जो घर आ जाए?’’

सुधा ने कहा, ‘‘हांहां, अंदर आ जाओ, मैं नंबर देती हूं.’’

सुमित ड्राइंगरूम में पेपर पढ़ रहा था. फौरन उठ कर खड़ा हो गया. अनीता को देख कर उस का चेहरा खिल उठा. नाइटसूट में अनीता उसे बहुत ही आकर्षक लगी फिर मन ही मन वह उस की सुंदरता की तारीफ करता रहा. प्रत्यक्षत: चिंतित स्वर में बोला, ‘‘मैं डाक्टर को फोन करता हूं.’’

‘‘नहीं, थैंक्स, आप मुझे नंबर दे दें, मैं कर लूंगी.’’

सुधा ने नंबर लिख कर दे दिया. अनीता चली गई तो सुधा ने सुमित से कहा, ‘‘मैं जरा रिनी को देख आती हूं.’’

सुमित ने फौरन कहा, ‘‘मैं भी चलता हूं.’’

सुधा के साथ सुमित पहली बार अनीता के फ्लैट में गया. अनीता के घर में चारों ओर नजर दौड़ाई. घर पूरी तरह से आधुनिक साजसज्जा से सुसज्जित था. वाह, घर भी सुंदर सजाया है अपनी तरह. सुमित मन ही मन अनीता की हर बात पर फिदा हो रहा था.

सुधा ने रिनी का माथा छुआ. बोली, ‘‘हां, तेज बुखार है.’’

अनीता डाक्टर को फोन कर रही थी. लेकिन उधर से फोन उठाया नहीं गया तो कहने लगी, ‘‘संडे है, शायद सो रहे हों. ऐसा करती हूं अस्पताल ही ले जाती हूं.’’

सुमित ने फौरन कहा, ‘‘मैं चलता हूं, आप रिनी को उठा लें. मैं कपड़े चेंज कर के गाड़ी निकालता हूं, आप नीचे आ जाओ.’’

‘‘ठीक है.’’

सुधा ने कहा, ‘‘मैं भी चलती हूं.’’

सुमित ने कहा, ‘‘नहीं, तुम क्या करोगी, बच्चों को क्लास के लिए उठाना है. मेड भी आने वाली होगी. मैं दिखा लाता हूं.’’

‘‘ठीक है,’’ कह कर सुधा अपने घर

आ गई.

सुमित कपड़े चेंज कर के बोला, ‘‘बेचारी सिंगल वूमन है, परेशानी तो होती ही है.’’

सुमित कार की चाबी उठा कर नीचे उतर गया. अनीता भी रिनी को उठा कर कार तक पहुंची. सुमित ने एक नजर उस पर डाली,

टीशर्ट और जींस में अनीता का फिगर देख

कर एक आह भरी और फिर ड्राइविंग सीट पर बैठ गया.

अनीता ने कहा, ‘‘अगर आप को बुरा न लगे तो मैं रिनी के साथ पीछे बैठना चाहूंगी.’’

‘‘हांहां, ठीक है,’’ कह कर सुमित ने मन में सोचा, चलो फिर कभी आगे बैठेगी, फिर कोई काम तो पड़ेगा ही, साथ में तो है, पीछे ही सही. शीशे में सुमित उसे कई बार देखता रहा, वह पूरी तरह से रिनी में खोई थी. उसे बहुत तेज बुखार था. वह लगभग बेसुध थी.

डाक्टर ने चैकअप के बाद उसे तुरंत ऐडमिट कर लिया. अनीता ने एक फोन किया. आधे घंटे में उस की कई सहेलियां और दोस्त पहुंच गए. सब औफिस के लोग थे. लेकिन उस के शुभचिंतक हैं यह बात सुमित ने साफसाफ महसूस की. अनीता ने सुमित का परिचय पड़ोसी कह कर करवा दिया. सब के आने से सुमित असहज हो गया और फिर बोला, ‘‘मैं चलता हूं. कोई जरूरत हो तो फोन कर देना,’’ और सुमित घर आ गया और सुधा को सारी बात बता दी.

सुधा सारे काम निबटा कर और अनीता के लिए खाना बना कर अस्पताल जाने के लिए तैयार हुई तो सुमित ने कहा, ‘‘वहां उस के कई जानपहचान वाले हैं, मैं ही जा कर दे आता हूं खाना,’’ सुमित ने मन ही मन सोचा ऐसा करने से अनीता के दिल में मेरे लिए खास जगह बनेगी. कुछ नजदीकी बढ़ेगी, मजा आएगा.

सुधा ने कहा, ‘‘ठीक है, मैं शाम को चली जाऊंगी.’’

सुमित अच्छी तरह तैयार हो कर अनीता के लिए खाना ले कर अस्पताल पहुंचा तो उसे अकेली देख कर खुश हुआ. वह रिनी के पास अकेली बैठी थी. सब दोस्त जा चुके थे. अनीता ने खाने के लिए कई बार थैंक्स कहा. सुमित अनीता के साथ कुछ समय रह कर खुश था. वह थोड़ी देर रिनी की तबीयत के बारे में बात करता रहा. वह अपनी तरफ से अनीता को प्रभावित करने

का कोई मौका नहीं छोड़ना चाहता था. तभी अनीता की एक सहेली भी खाना ले आई, तो अनीता हंस पड़ी. बोली, ‘‘मेरा ध्यान रखने वाले कितने लोग हैं.’’

थोड़ीबहुत बातों के बाद सुमित घर लौट आया. शाम को सुधा अनीता के लिए डिनर ले कर गई. अनीता ने प्यार से सुधा का हाथ पकड़ लिया, ‘‘आप मेरे लिए कितना कर रही हैं… थैंक्यू वैरी मच.’’

‘‘तो क्या हुआ अनीता, हम दोस्त हैं, पड़ोसी हैं, इतना तो हमारा फर्ज बनता ही है, तुम बेकार की औपचारिकता में न पड़ कर बस रिनी की देखभाल करो. और हां, सुबह तो तुम ऐसे ही उठ कर आ गई थीं, रात को रुकने के लिए तुम्हें कपड़े चाहिए होंगे न. ऐसा करो मैं यहां बैठी हूं, जो चाहिए जा कर ले आओ.’’

‘‘हां, यह ठीक रहेगा. मैं अपना कुछ सामान ले आती हूं.’’

सुमित फौरन खड़ा हो गया, ‘‘आइए, मैं ले चलता हूं.’’

अनीता ने हां में सिर हिलाया तो सुमित का मन खिल उठा कि कार में बस वह और अनीता, वाह.

बराबर की सीट पर बैठी अनीता को सुमित ने कनखियों से कितनी बार देखा, अपने मन के चोर को उस ने किसी भी हावभाव से बाहर नहीं आने दिया. बाहर से वह एकदम शिष्ट, सभ्य पुरुष बना हुआ था, लेकिन अंदर ही अंदर मन में कुटिलता लिए एक अकेली औरत को प्रभावित करने का कोई मौका हाथ से नहीं जाने देना चाहता था.

रास्ते भर दोनों की कोई खास बात नहीं हुई, लेकिन सुमित खुश था. अनीता के कई दोस्त आ गए तो सुधा और सुमित घर लौट आए. रात को बैड पर सुमित की आंखों के आगे अनीता का चेहरा आता रहा.

सुधा ने प्यार से कहा, ‘‘आज तो संडे को काफी व्यस्त रहे तुम, आराम नहीं कर पाए.’’

‘‘तो क्या हुआ? सिंगल वूमन है पड़ोस

में, इतना तो करना ही पड़ता है… बेचारी

अकेली औरत…’’

‘‘हां, यह तो है. लेकिन काफी हिम्मती है, घबराती नहीं है बिलकुल भी. मु?ो उस की यह बात बहुत अच्छी लगती है.’’

अगले दिन सोमवार को सुमित ने औफिस जाते हुए कार अस्पताल के बाहर रोकी, अनीता उसे सुबहसुबह देख कुछ हैरान हुई. रिनी ठीक थी. जब अनीता ने बताया कि शाम तक छुट्टी मिल जाएगी तो सुमित ने कहा, ‘‘ठीक है, औफिस से सीधा इधर ही आ जाऊंगा, साथ ही चलेंगे.’’

‘‘नहींनहीं, मेरी फ्रैंड आ जाएगी कार ले कर.’’

‘‘अरे, एक ही जगह जाना है, उन्हें क्यों परेशान करेंगी?’’

‘‘अच्छा ठीक है, मैं उन्हें फोन कर के मना कर दूंगी.’’

सुमित औफिस चला गया और दिन भर अनीता के खयालों में डूबा रहा. शाम को अनीता और रिनी को ले कर घर आ गया.

अनीता घर आ कर भी बारबार सुधा और सुमित को थैंक्स बोलती रही. सुधा ने कहा, ‘‘मैं तुम्हारा खाना ले कर आती हूं, रिनी के लिए मैं ने सूप और खिचड़ी बना दी है.’’

‘‘आप मेरा कितना ध्यान रखती हैं सुधाजी.’’

सुधा ने अनीता का कंधा प्यार से थपथपा दिया. अगले दिन अनीता ने औफिस से छुट्टी ले ली थी. उस की फ्रैंड्स आतीजाती रहीं. फिर पुराना रूटीन शुरू हो गया. कुछ दिन और बीत गए. अब अनीता और रिनी सुधा से और खुल चुकी थीं. कभीकभी सुमित टूर पर होता तो तीनों मूवी देखने जातीं. बाहर खातीपीतीं. तनु और राहुल तो अनीता आंटी के फैन थे. कुल मिला कर सब सामान्य था. बस सुमित के मन में अनीता को ले कर क्या चलता रहता था, यह वही जानता था. अब उसे इस बात का विश्वास हो गया था कि अनीता भी उस से इंप्रैस्ड है और अगर वह कोई हरकत करता है तो वह पक्का आपत्ति नहीं करेगी. किसी पुरुष के साथ की उसे भी तो जरूरत होती होगी. सुधा के प्यार और विश्वास की एक बार भी चिंता न करते हुए वह अनीता से नजदीकी के सपनों में डूबा रहता.

एक दिन अचानक सुधा के मायके से फोन आया. दिल्ली में उस की मम्मी की तबीयत खराब थी.

सुमित ने फौरन दिल्ली के लिए उस की फ्लाइट बुक की. मेड को खाना बनाने के कई निर्देश दे कर सुधा दिल्ली के लिए फौरन तैयारी करने लगी. सुधा को एअरपोर्ट छोड़ कर आते हुए सुमित कई तरह की योजनाएं बनाता रहा. तनु और राहुल कालेज चले जाते, सुमित अनीता से बात करने के मौके ढूंढ़ता रहता. लेकिन सुधा के जाने के बाद अनीता बच्चों से तभी मिलती जब सुमित औफिस में होता. सुमित सोचता रहा और 6 दिन बीत गए थे. सुमित सोच रहा था आज तनु और राहुल को एक बर्थडे पार्टी में जाना है, सुधा कल सुबह आ जाएगी, उस की मम्मी अब ठीक है, रिनी 8 बजे तक सो ही जाती है. आज ही मौका है, आज ही वह अनीता के और करीब जाने की कोशिश करेगा. वह मन ही मन कई योजनाएं बनाता रहा.

शाम को तनु और राहुल पार्टी में चले गए. कह कर गए थे 11 तो बज ही जाएंगे. सुमित ने नहाधो कर बढि़या कुरतापाजामा पहना, परफ्यूम लगाया, घर में बढि़या रूमस्प्रे किया, बैडरूम ठीक किया. मेड जो खाना गरम कर के रख गई थी, गरम कर के खाया. समय देखा, 9 बज रहे थे. सुधा से भी फोन पर बात कर ली थी. तनु व राहुल से भी बात कर ली थी. उन्हें आने में अभी काफी समय था. रिनी सो ही चुकी होगी. सब मन ही मन हिसाब लगा कर सुमित ने अनीता के घर की घंटी बजाई. उस ने दरवाजा खोला तो सुमित ने कहा, ‘‘एक तकलीफ देनी है आप को.’’

‘‘जी, कहिए.’’

‘‘प्लीज, 1 कप कौफी बना देंगी? पता नहीं सुधा ने कहां रखी है, मिल नहीं रही है. सिर में बहुत दर्द हो रहा है, आप को कोई प्रौब्लम तो नहीं होगी न?’’

‘‘अरे नहीं, आप चलिए, मैं लाती हूं.’’

‘‘आप को भी इस समय कौफी पीने की आदत है न, अपनी भी ले आइए, साथ ही पी लेंगे,’’ कह कर सुमित अपने घर आ गया.

10 मिनट बाद घंटी बजी. अनीता ट्रे में 1 कप कौफी लिए आई. उस ने अनीता को हाथ से अंदर आने का इशारा किया. अनीता जैसे ही अंदर आई, सुमित ने दरवाजा अंदर से बंद कर लिया. पूछा, ‘‘आप अपने लिए

नहीं लाईं?’’

ट्रे टेबल पर रख कर अनीता जैसे ही सीधी हुई, सुमित ने उस के कंधे पर हाथ रख कर कहा, ‘‘बैठो न, कब से तुम से कुछ कहना चाह रहा था,’’ फिर अचानक अनीता की बगल में दबे बैग को देखते हुए बोला, ‘‘इस में क्या है?’’

अनीता ने एक व्यंग्यभरी मुसकान उस पर डाली, बैग की चेन खोल कर स्प्रे निकाला. बोली, ‘‘यह खास स्प्रे है. क्या आप देखेंगे कि कैसे काम करता है?’’ सुमित ने सोचा कि कोई मादक स्प्रे होगा. वह और निकट खिसका तो अनीता ने उस पर स्पे्र कर दिया.

अनीता गुर्राई, ‘‘उन लंपट पुरुषों का इलाज हमेशा मेरे पास रहता है, जो सिंगल वूमन को आसान शिकार सम?ाते हैं,’’ फिर सुमित का चेहरा देख कर बोली, ‘‘उफ सौरी यह तो आप पर स्प्रे हो गया.’’

सुमित बुरी तरह कराह रहा था. अनीता बोली, ‘‘आप मुंह धो लो. शायद रात भर में उतर जाए और कोई गलतफहमी हो तो वह भी दूर हो जाएगी,’’ और फिर अनीता बड़े आराम से सुमित के घर से निकल कर चली गई.

सुमित छटपटाता हुआ जल्दी से बाथरूम में शौवर के नीचे खड़ा हो गया, आंखें बुरी तरह जल रही थीं, वह अनीता को गालियां दे रहा था. आंखों की जलन कम हुई तो जल्दी से गीले कपड़े मशीन में डाले, कपड़े बदले. तनु, राहुल आए तो सुमित की लाल आंखें देख कर परेशान हो उठे.

‘‘बस, आई इन्फैक्शन है, तबीयत कुछ ठीक नहीं है,’’ कह कर सुमित जल्दी सोने चला गया.

सुबह सुधा खुद ही टैक्सी ले कर आ गई थी. आ कर सब से बातें करती रही, फिर दिल्ली से लाई मिठाई अनीता को देने गई. फिर लौट कर बोली, ‘‘कितनी तेज बारिश हो रही है… देखो पहले रिनी को स्कूल छोड़ेगी, फिर औफिस जाएगी, बेचारी सिंगल वूमन, कितनी परेशानियां होती हैं इन की लाइफ में.’’

‘‘कोई बेचारीवेचारी नहीं होती हैं सिंगल वूमन,’’ सुमित ने कहा तो सुधा कुछ सम?ा तो नहीं, बस उस का मुंह देखती रह गई जो अभी तक लाल था.

मेरी पहचान: क्या मां बन पाई अदिति

आज पार्टी में सभी मेरे रंगरूप की तारीफ कर रहे थे. निकिता बोली, ‘‘दीदी, आप की उम्र तो रिवर्स गियर में चल पड़ी है. लगता ही नहीं आप की 4 वर्ष की बेटी भी है.’’

सोनल भी खिलखिलाते हुए बोली, ‘‘आप की त्वचा से आप की उम्र का पता ही नहीं चलता. यह है संतूर साबुन का कमाल,’’ और फिर एक सम्मिलित ठहाके से अनु दीदी का ड्राइंगरूम गूंज उठा.

मैं भी मंदमंद मुसकान के साथ सारी तारीफों का मजा ले रही थी. 32 वर्षीय औसत रंगरूप की महिला हूं तो जब से नौकरी आरंभ करी है तो हाथ थोड़ा खुल गया है. अपने रखरखाव पर थोड़ा अधिक ध्यान देना शुरू कर दिया है. नतीजतन 2 वर्षों के भीतर ही खुद की ही छोटी बहन लगने लगी हूं.

मेरा नाम अदिति है और मैं एक प्राईवेट विद्यालय में प्राइमरी कक्षा के विद्यार्थियों को पढ़ाती हूं. शादी से पहले मैं डंडे की तरह पतली थी, पार्लर बस बाल कटाने ही जाती थी, क्योंकि उन दिनों लड़कियों का पार्लर अधिक जाना अच्छा नहीं समझा जाता था. घनी जुड़ी हुई भौंहें और होंठों के ऊपर रोयों की एक स्पष्ट छाप थी, फिर भी अच्छी लड़की के तमगे के कारण मैं ने कभी उन मूंछों या भौंहों को छुआ नहीं. कपड़े भी अपने से दोगुना बड़े पहनती थी ताकि मेरा पतलापन ढका रहे. अब ऐसे में 10 बार मेरे रिश्ते के लिए न हो चुकी थी पर फिर न जाने मेरे पति कपिल को इस रिश्ते के गणित में क्या नफा दिखा कि उन्होंने मुझे देखते ही पसंद कर लिया.

न न ऐसे मत सोचिए कि कपिल कोई हीरो थे. वे भी मेरी तरह औसत रंगरूप के ही स्वामी थे, पर इस देश में हर ठीकठाक कमाने वाले लड़के को ऐश्वर्य की दरकार होती है. मैं खुश थी और पहली बार फेशियल, ब्लीच, वैक्सिंग इत्यादि कराई और अपनी नाप के कपड़े भी सिलवाए. गलत नहीं होगा अगर मैं कहूं कि शादी में मैं बेहद खूबसूरत लग रही थी, कम से कम आईना और मेरी सहेलियां तो यही कह रही थीं.

शादी के बाद कपिल और उन के परिवार के प्यार और सम्मान ने मुझे आत्मविश्वास के पंख दे दिए और मैं आकाश में उड़ने लगी. कपिल एक सरकारी विभाग में क्लास टू ग्रेड के इंप्लोई थे पर फिर भी उन्होंने खर्चों पर जरा भी टोकाटाकी नहीं की. हर महीने पार्लर जाती हूं और जो भी नई डिजाइनर ड्रैस आती है उस की कौपी जरूर खरीद लेती हूं.

फिर 2 वर्ष के भीतर दीया ने मुझे मां बनने का सुख प्रदान किया पर सुख के साथ बढ़ गई जिम्मेदारियां और खर्चे भी. तब कपिल के कहने पर मैं ने नौकरी के लिए हाथपैर मारे और जल्द ही मुझे एक नामी विद्यालय में शिक्षिका की नौकरी मिल गई. घर पर दीया की देखभाल के लिए उस के दादादादी थे.

एक नया अध्याय शुरू हुआ जिंदगी का, खुद को सही माने में आजाद महसूस करने

का, खुद के वजूद से रूबरू होने का. शुरू में हर काम में घबराहट होती थी. यहां स्कूल में हर काम लैपटौप पर करना होता था. बहुत पहले किया हुआ कंप्यूटर कोर्स काम आ गया. तनाव और नईनई चीजों को सीखने की कोशिश करते हुए 1 माह बीत गया और पहली सैलरी हाथ में आते ही तनाव और अनिश्चितता के बादल हट गए. नए लोगों से दोस्ती के साथ जीवन को एक नए नजरिए से देखना भी आरंभ कर दिया. सच पूछो तो सबकुछ एकदम सही चल रहा था. आज कपिल की दीदी के यहां हाउसवार्मिंग पार्टी में इन सब तारीफों का आनंद ले रही हूं और साथ ही कुदरत को धन्यवाद भी दे रही हूं मुझे इतना अच्छा घरपरिवार देने के लिए.

रात को बहुत थक कर जैसे ही सोने की कोशिश कर रही थी, कपिल नजदीक आने की मनुहार करने लगे पर मैं ने ठंडे स्वर में कहा, ‘‘यार मन नहीं है. 10 दिन ऊपर हो गए हैं, अब तक डेट नहीं आई.’’

कपिल चुहल करते हुए बोले, ‘‘मुबारक हो, लगता दीया के लिए छोटा भाई या बहन आने वाली है… मम्मीपापा की भी दिल की इच्छा पूरी हो जाएगी.’’

मैं ने कपिल के हाथ को झटकते हुए कहा, ‘‘तुम्हें पता है न अभी मैं दूसरा बच्चा नहीं कर सकती, नहीं तो कन्फर्मेशन रुक जाएगी.’’

कपिल ने प्यार से सिर थपथपाते हुए कहा, ‘‘अरे बाबा तनाव के कारण ये सब हो रहा है. लाओ सिर पर तेल की मालिश कर दूं.’’

ऐसे ही देखतेदेखते 10 दिन और बीत गए, फिर बाजार में उपलब्ध प्रैगनैंसी किट से टैस्ट किया पर नतीजा नैगेटिव था.

रविवार को कपिल और मैं डाक्टर के पास गए. डाक्टर ने सारी बातें ध्यान से सुनीं और फिर कुछ टैस्ट कराने के लिए कहा. मंगलवार को रिपोर्ट आ गई और फिर से हम डाक्टर के सामने बैठे थे. रिपोर्ट पढ़ते हुए डाक्टर के चेहरे पर चिंता की रेखाएं थीं.

चश्मा निकाल कर डाक्टर बहुत स्नेहिल परंतु गंभीर स्वर में बोली, ‘‘ये सारी रिपोर्ट्स पैरिमेनोपौजल की तरफ इशारा कर रही हैं. आप को प्रीमैच्योर ओवेरियन फेल्योर है.’’

मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा था कि क्यों और कैसे यह तूफान मेरी जिंदगी में आ गया है. मैं अब तक एक पूर्ण स्त्री थी. अभी तक तो मैं ने अपने स्त्रीत्व को पूर्णरूप से भोगा भी नहीं था और मेरा शरीर मेनोपौज की तरफ जा रहा है और वह भी मात्र 32 वर्ष की उम्र में. इस उम्र में तो बहुत बार लड़कियों की शादी होती है.

एक टूटा हुआ मन और अधूरा तन ले कर मैं कपिल के साथ घर आ गई. सासससुर बहुत आशा से कपिल की तरफ देख रहे थे, कोई खुशखबरी सुनने की आस में पर कपिल ने कहा, ‘‘कोई खास बात नहीं है.’’

मैं ने कपिल से कहा, ‘‘झूठ क्यों बोला? क्यों नहीं बताया मैं अब कभी चाह कर भी मां नहीं बन पाऊंगी?’’ और यह कहते हुए एक तीव्र दर्द की लहर मुझे भीतर तक हिला गई.

पहले मेरी मां बनने की कोई लालसा नहीं थी पर अब मैं दोबारा मां न बन पाने की लिए बिसूर रही थी. सब से ज्यादा साल रहा था एक खालीपन, मेरे स्त्री होने की पहचान मुझ से छूट रही थी वह भी मात्र 32 वर्ष की उम्र में, मैं जब शाम को भी अपने कमरे से बाहर नहीं निकली तो सासूमां अंदर आईं. उन्हें देख कर मैं सकपका गई. बहुत प्यार से उन्होंने सिर पर हाथ फेर कर पूछा तो मैं अपने को रोक नहीं पाई. रोते हुए उन्हें सब बता दिया. वे बिना कुछ बोले कमरे से बाहर निकल गईं. मुझे उन से ऐसी ही प्रतिक्रिया की उम्मीद थी. अब मैं उन्हें उन का दूसरा पोता या पोती नहीं दे पाऊंगी न, फिर वे क्यों परवाह करेंगी मेरी…ये सब सोचतेसोचते मुझे रोतेरोते सुबकियां आने लगीं.

अब मुझे सब समझ आ रहा था कि क्यों मुझे इतना पसीना आता था. क्यों हर समय मैं चिड़चिड़ी रहती थी. क्यों मुझे कपिल का संग अब थोड़ा तकलीफदेह लगने लगा था. मैं इन सारी चीजों को अपने रोजमर्रा के तनाव से जोड़ रही थी पर असली कारण तो पैरिमेनोपौज था.

अगले दिन मैं ने स्कूल में अपनी सब से अच्छी दोस्त से जब यह बात साझा

करी तो उस की आंखों में अपने लिए चिंता और दया के मिलेजुले भाव दिखे पर फिर वह हंसते हुए बोली, ‘‘चल अच्छा है तेरा हर महीने सैनिटरी पैड्स खरीदने का खर्चा बच जाएगा.’’

हर तरफ से बस सहानुभूति मिल रही थी, ‘‘बेचारी अभी उम्र ही क्या थी, अब पति को कैसे बांध कर रख पाएगी.’’

‘‘सुनो अदिति, जिम आरंभ कर लो… इस चरण में तेजी से वजन बढ़ता है.’’

‘‘देखो कहीं जोड़ों का दर्द अभी से आरंभ

न हो जाए, हारमोंस रिप्लेसमैंट थेरैपी करवा लो.’’

मेरा दिमाग चक्करघिन्नी की तरह घूम रहा था. उधर रोज मेरे करीब आने की चाह रखने वाले मेरे प्यारे पति ने पिछले 15 दिनों से मेरे करीब आने की कोशिश नहीं करी. वजह मुझे पता है. उन्हें भी लगता है अब मैं उन्हें सुख नहीं दे पाऊंगी.

न जाने क्यों खिंचेखिंचे से रहते हैं. अगर कुछ बांटना चाहती हूं तो फौरन बोल देंगे, ‘‘अब रोनेबिसूरने से क्या होगा? जो है जैसा है उसे स्वीकार करो और आगे बढ़ो.’’

कैसे समझाऊं उन्हें अपने दिल की बात, मुझे ऐसा लगता है जैसे हरियाली आने से पहले ही मैं बंजर हो गई हूं. यह स्वीकार करना मेरे लिए बहुत मुश्किल हो रहा था कि मेरा यौवनाकाल कुछ ज्यादा ही तेज गति से चला है और जो गंतव्य 47-48 वर्ष के बाद आता है वह 17-18 वर्ष पहले ही मेरे जीवन में आ गया है.

मुझे लग रहा था शारीरिक से ज्यादा मैं मानसिक रूप से कमजोर हो गई हूं. उधर कपिल ने अपनेआप को एक दायरे में कैद कर लिया था. न जाने सारा दिन लैपटौप पर क्या करते रहते हैं. उधर सासूमां ने कहा तो कुछ नहीं पर ऐसा लगता है जैसे मुझ से खुश नहीं हैं या यह मेरा वहम है.

1 माह होने को आ गया और मैं ने अपने मन को समझा लिया था कि अब ये ही मेरी जिंदगी है. आईने को रोज घूरघूर कर देखती थी कि कहीं झुर्रियों ने अपना जाल तो नहीं बना लिया. तेज चलने से डरने लगी कि कहीं गिर कर हड्डी न टूट जाए. आखिर हड्डियां रजोनिवृत्ति के बाद तेजी से कमजोर होती हैं.

आज पूरे 1 महीने बाद ठीक से तैयार हो कर स्कूल के लिए निकली तो पुरुषों

की निगाहों में अपने लिए प्रशंसा के भाव देखे. खुद को अच्छा भी लगा कि अभी भी मैं सराहनीय हूं. आज कुछ मन ठीक था तो दीया को ले कर पार्क जाने लगी. सासूमां भी मुसकरा कर बोलीं, ‘‘ऐसे ही खुश रहा करो, पूरा घर चुप हो जाता है तुम्हारे चुप रहने से और बेटे उतारचढ़ाव का नाम ही तो जिंदगी है, मन को स्थिर रख कर समस्या का समाधान खोजो.’’

मैं ने बुझे मन से कहा, ‘‘पर मम्मी अगर कोई समाधान ही न हो…’’

वे मुसकराते हुए बोलीं, ‘‘यानी कोई समस्या ही नहीं है.’’

रात के 10 बज गए थे पर कपिल का कुछ अतापता नहीं था. आज जब वे आए तो मैं ने आते ही आड़े हाथों लिया, ‘‘तुम्हें याद है कि तुम्हारा एक परिवार भी है?’’

कपिल व्यंग्य कसते हुए बोले, ‘‘हां, अच्छी तरह याद है एक परिवार है और एक रोतीबिसूरती कमजोर बीवी.’’

मैं खड़ीखड़ी कपिल को देखती रह गई… कहां गया यह प्यार और दुलार का… क्या औरत और मर्द का रिश्ता बस दैहिक स्तर तक ही सीमित है? खुद के ही शरीर से पसीने की गंध आ रही थी तो नहाने चली गई. आईने में फिर से खुद को पागलों की तरह देखने लगी. अभी तो शरीर में कसावट है पर शायद 2-3 वर्ष में शरीर ढीला पड़ जाएगा, जब ऐस्ट्रोजन हारमोंस बनना बंद हो जाएगा.

बाहर आई तो कपिल गहरी नींद में सोए थे, बहुत मन हुआ कहूं कि मुझे तुम्हारे साथ की जरूरत है, मुझे अकेला मत छोड़ो.

आज फिर कपिल देर से आए पर मैं ने बिना कुछ कहे खाना लगा दिया. खाना खाते हुए कपिल बोले, ‘‘मुझे तुम से कुछ जरूरी बात करनी है. कल का डिनर हम बाहर करेंगे.’’

मेरा दिल धकधक कर रहा था कि कहीं कपिल किसी और से तो नहीं जुड़ गए हैं. यदि हां तो मैं उन्हें रिहाई दे दूंगी, कोई हक नहीं है मुझे उन से कोई सुख छीनने का. पूरी रात इसी उधेड़बुन में बीत गई और सुबह मैं ने काफी हद तक अपनेआप को तैयार कर लिया था.

अगले दिन कपिल टाइम से घर आ गए थे और फिर हमारी कार एक बिल्डिंग के बाहर खड़ी थी. हम लोग लिफ्ट में ऊपर गए तो देखा वह काउंसलर का औफिस था. मैं कपिल को देखने लगी, कपिल मेरा हाथ पकड़ कर अंदर ले गए. एक बेहद ही खूबसूरत और जहीन महिला थी. कपिल ने मेरा परिचय दिया और मुझ से बोले, ‘‘अदिति, तुम बात करो, मैं थोड़ी देर में आता हूं.’’

काउंसलर से मैं ने अपने मन की सारी बात कर दी. वह बिना कुछ बोले बहुत धैर्य से मेरी बात सुनती रही और फिर बोली, ‘‘अदिति, तुम स्त्री होने से भी पहले एक इंसान हो… तुम्हारी पहचान बस तुम्हारे स्त्रीत्व तक सीमित नहीं है.

‘‘यह जरूर है कि तुम्हें इस दौर का सामना थोड़ा जल्दी करना पड़ रहा है. पर खानपान में थोड़ा बदलाव, थोड़ा व्यायाम करने से तुम्हारी जिंदगी सही पटरी पर आ जाएगी… यह जिंदगी का एक नया अध्याय है. इसे समझो, स्वीकार करो और मुसकराते हुए आगे बढ़ो.’’

थोड़ी देर बाद कपिल आ गए और फिर

हम दोनों आज काफी दिनों बाद एकसाथ डिनर कर रहे थे. कपिल वर्षों बाद मुझे प्यार से देख रहे थे.

मैं ने भीगे स्वर में कहा, ‘‘कहो क्या कहना था?’’

कपिल बोले, ‘‘ध्यान से सुनना… बीच में मत टोकना. तुम मेरी जिंदगी का सब से महत्त्वपूर्ण पन्ना हो. तुम स्त्री हो और मैं पुरुष हूं? इसलिए समाज ने हमें विवाह के बंधन में बांध दिया है पर तुम मेरे लिए एक स्त्री नहीं हो मेरा सबल भी हो. अगर मैं किसी समस्या से गुजर रहा हूंगा तो क्या तुम मुझे अकेला कर दोगी या मेरे साथ खड़ी रहोगी?

‘‘मैं तुम्हारे साथ खड़े रहना चाहता हूं पर तुम ने मुझे अपने से बहुत दूर कर दिया है, अपने इर्दगिर्द इतनी नकारात्मक ऊर्जा इकट्ठी कर ली है कि मैं तो क्या कोई और भी चाह कर तुम्हारी सहायता नहीं कर सकता है.’’

मैं आंखों में आंसू भर कर बोली, ‘‘पर तुम तो खुद मुझ से कटेकटे रहते हो?’’

कपिल हंसते हुए बोले, ‘‘पगली, तुम्हारे रोने की आदत के कारण से कटाकटा रहता हूं, तुम्हारे कारण नहीं? यह जिंदगी में एक मोड़ आया है, थोड़ा सा ज्यादा घुमावदार है तो क्या हुआ हम एकसाथ पार करेंगे… तुम एक शरीर नहीं हो, उस से भी ज्यादा तुम्हारी पहचान है.

‘‘स्पीडब्रेकर पर रुकना पड़ता है न पर संभल कर चलने से पार कर लेते हैं न?’’

कपिल की बातों से यह तो मुझे समझ आ गया था कि क्यों हुआ, कैसे हुआ से ज्यादा महत्त्वपूर्ण है उस समस्या का समाधान कैसे कर सकते हैं.

आज इस बात को 3 वर्ष हो गए हैं.

अभी भी मैं रजोनिवृत्ति के दौर से गुजर रही हूं पर डाक्टर की सलाह और उचित खानपान से काफी हद तक समस्या सुलझ गई है.

अब मेरा वजन पहले से कम हो गया है और मेरी त्वचा भी दमकने लगी हैं, क्योंकि अपनेआप को मेनोपौज के लिए तैयार करने के लिए मैं ने पूरा खानपान ही बदल दिया है. जो है, जैसा है मैं स्वीकार करती हूं, यह सोच अपनाते ही सबकुछ बदल गया और बदल गई मेरी पहचान.

मेरी पहचान न आंकी जाए मेरे स्त्रीत्व से, यह है बस मेरे अस्तित्व का एक हिस्सा, जिंदगी का बचा हुआ है अभी भी, एक और नया सकारात्मक किस्सा.

तुम्हें क्या करना है: जया ने उड़ाए सबके होश

जयाको बहुत दिनों से लग रहा था कि उस ने अपने जीवन के कई साल घरगृहस्थी में ही बिता दिए. अब जब दोनों बच्चे यश और स्नेहा बड़े हो गए हैं और समीर पदोन्नति के बाद बढ़ती जिम्मेदारियों में व्यस्त रहते हैं तो ऐसे में उसे जो समय मिलता है, उस में वह निश्चिंत हो कर अपने लिए कुछ सोच सकती है. लेकिन उस का मूड तब खराब हो गया जब उस ने कुछ नया सीखने की इच्छा समीर से जाहिर की तो उन्होंने कहा, ‘‘तुम्हें कुछ सीख कर क्या करना है?’’

‘‘यह कोई जरूरी तो नहीं कि कुछ करना हो तभी कुछ सीखना चाहिए… बहुत सी चीजें हैं जिन्हें मैं नहीं जानती… और अब मु झे लगता है कि मु झे वे आनी चाहिए. आखिर इस में परेशानी क्या है?’’

‘‘क्या सीखोगी जया तुम… घरगृहस्थी संभाल तो रही हो न?’’

जया को गुस्सा तो बहुत आया, लेकिन स्वभाववश चुप रही. लेकिन हमेशा की तरह समीर उस की चुप्पी से सम झ गए कि उसे बुरा लगा है. अत: हंसते हुए बोले, ‘‘चलो, इस बारे में बच्चों से बात करते हैं. स्नेहा, यश, इधर आना.’’

बच्चे उन के पास आ गए तो समीर ने कहा, ‘‘बच्चो, तुम ही बताओ कि मम्मी को

क्या सीखना चाहिए. तुम्हारी मम्मी जोश में हैं.’’

स्नेहा ने कहा, ‘‘पापा, मम्मी जो चाहे सीख सकती हैं.’’

‘‘हां मम्मी, आप को कंप्यूटर, ड्राइविंग के अलावा और भी बहुत कुछ आना चाहिए… मेरे काफी दोस्तों की मदर्स को बहुत कुछ आता है,’’ यश बोला.

समीर को बच्चों से ऐसी प्रतिक्रिया की उम्मीद नहीं थी. अत: उन के चेहरे पर निराशा सी छा गई. फिर वे बोले, ‘‘अरे जरा सोचो, उन्हें करना क्या है?’’

‘‘मु झे इस बारे में अब किसी से बात नहीं करनी है, जो मेरा मन कहेगा मैं करूंगी,’’ जया

ने कहा.

फिर सब अपनेअपने में व्यस्त हो गए.

जया सोचती रही कि यह क्या बात हुई. अगर किसी दूसरी स्त्री को समीर गाड़ी चलाते, बैंक

के काम करते, आत्मनिर्भर होते देखते हैं तो कहते हैं कि वाह, आज की महिलाओं में क्या स्मार्टनैस हैं और अगर वह कुछ सीखने में रुचि दिखाती है तो उत्साह कम करते हैं. यह कैसी दोहरी मानसिकता है समीर की. नहीं, अब वह काफी जिम्मेदारियां पूरी कर चुकी है, वह अब कुछ

नया जरूर सीखेगी. आर्थिक स्थिति भी अच्छी

है. कुछ सीखने के लिए अपने ऊपर आराम से खर्च करेगी.

फिर उस ने सिर्फ स्नेहा को अपने

विश्वास में लिया, क्योंकि यश समीर की स्नेहपूर्ण बातों में आ कर सब उगल सकता है. वह समीर को सरप्राइज देना चाहती थी, इसलिए उस ने यश को कुछ नहीं बताया. सोसायटी की ही एक महिला अपने घर में कंप्यूटर क्लासेज चलाती थी. अत: जया वहां जाने लगी. सब के जाने के बाद वह 1 घंटा आसानी से निकाल लेती थी. वह पहले कंप्यूटर देख कर खुद को अनाड़ी सा महसूस करती थी पर 1 हफ्ते में ही उंगलियां चलाते हुए एक नई ऊर्जा महसूस करने लगी. उसे लगने लगा कि इंसान किसी भी उम्र में क्या नहीं सीख सकता.

जया ने 1 हफ्ते में काफी कुछ बेसिक

सीख लिया तो एक दिन बेटी स्नेहा ने कहा, ‘‘अब आप घर में भी कुछ करती रहेंगी तो बाकी चीजें भी आ जाएंगी.’’

फिर जया घर में ही कंप्यूटर पर कुछ न कुछ करती रहती. पहले उसे घर में सब के कंप्यूटर पर बिजी होने पर बहुत गुस्सा आता

था, पर अब जब खुद सीखने लगी तो पता चला कि हर विषय पर जानकारी का भंडार आंखों

के सामने. फेसबुक पर अपनी बहुत सी भूलीबिसरी सहेलियों को ढूंढ़ लिया तो मन

खुशी से  झूम उठा. अब उसे इंतजार था समीर के टुअर पर जाने का.

जया समीर को सरप्राइज देना चाहती थी.

1 हफ्ते बाद समीर 5 दिनों के लिए हैदराबाद गए. जया को पता था कि समीर रात में 10 मिनट फेसबुक जरूर खोलते हैं. अत: जया ने उन्हें फ्रैंड्स रिक्वैस्ट भेजी. अब समीर के हैरान होने की बारी थी. रात में समीर का फोन आया, ‘‘जया, तुम फेसबुक पर? यह सब कब सीख लिया?’’

‘‘बस, कुछ ही दिन पहले.’’

‘‘मु झे बताया क्यों नहीं?’’

‘‘बस, ऐसे ही,’’ जया को मजा आ रहा था, उस ने अपनेआप को मन ही मन शाबाशी दी. फिर दोनों थोड़ी देर इसी विषय पर बातें करते रहे. समीर की हैरानी का जया ने पूरा आनंद उठाया. लेकिन जब समीर ने पूछा कि वैसे तुम्हें करना क्या है यह सब सीख कर तो जया को गुस्सा तो बहुत आया, मगर रही शांत.

समीर टुअर से वापस आ कर  झेंपते हुए बोले, ‘‘चलो, अब खुश हो? कुछ

सीख लिया न?’’

जया ने कहा, ‘‘नहीं, अभी बहुत कुछ सीखना है.’’

‘‘अब क्या?’’

‘‘मु झे अपने बैंक के अकाउंट्स के बारे

में कुछ नहीं पता. एक दिन बैठ कर बताओ

मु झे सब.’’

‘‘तुम्हें करना क्या है? शौपिंग के लिए कार्ड है ही तुम्हारे पास?’’

‘‘फिर भी सब पता होना चाहिए.’’

‘‘अरे छोड़ो, मैं हूं न.’’

वह अड़ गई, ‘‘आज तक मु झे खुद ही रुचि नहीं थी, अब लगता है यह सब जानकारी होनी चाहिए तो इस में परेशानी क्या है?’’

‘‘जया, तुम्हें क्या हो गया है, तुम आराम से, शांति से नहीं जी सकतीं क्या?’’

फिर भी जया नहीं मानी तो समीर सेविंग्स

अकाउंट्स के बारे में सम झाने लगे. थोड़ी देर बाद उस छेड़ते हुए बोले, ‘‘पता नहीं बैठेबैठे क्या फुतूर आया है दिमाग में… मु झे छोड़ कर भागने का इरादा है क्या?’’

जया ने घूरा तो समीर हंसते हुए बोले, ‘‘अब तो खुश हो? अब कोई दूसरी चीज मत

ढूंढ़ लेना.’’

जया चुप रही तो बोले, ‘‘तुम्हारी चुप्पी

कुछ खतरनाक लग रही है जया, प्लीज अब शांति से बैठना.’’

जया ने कुछ देर बाद कहा, ‘‘ड्राइविंग भी सीखनी है मु झे.’’

इस बार समीर चिढ़ गए. ‘‘दिमाग तो ठीक है न… मुंबई का ट्रैफिक देखा है… कहां जाना है तुम्हें अकेले गाड़ी चला कर? जहां भी जाने को कहती हो तो ले तो जाता हूं.’’

उस समय तो जया चुप रही, लेकिन मन ही मन सोच चुकी थी कि क्या करना है.

इस बार जया ने बच्चों को भी कुछ नहीं बताया. अगले दिन समीर औफिस और बच्चे कालेज चले गए तो वह ड्राइविंग स्कूल पहुंच

गई. फौर्म भर कर फीस जमा कर दी. 11 से

12 बजे का समय लिया. उस समय घर में कोई नहीं रहता था. अगले दिन से ड्राइविंग क्लास शुरू हो गई.

वह ड्राइविंग से हमेशा डरती आई थी. जब स्टेयरिंग पर हाथ रखे तो अंदर ही अंदर

कांप गई. लगा कहीं ऐक्सीडैंट हो गया और चोट लग गई तो समीर तो जान ही खा जाएंगे. लेकिन उसे अपनी सहेलियों की बातों से अंदाजा था कि कोई ऐक्सीडैंट नहीं होता है. असली कंट्रोल तो बराबर में बैठे सिखाने वाले के हाथ में होता है. अत: उस ने अपनेआप को संभाला और सीखना शुरू किया.

घर में किसी को भनक नहीं लगी. 5-6 दिन तो बिलकुल कुछ सम झ नहीं आया कि क्या करना है. सामने आती गाड़ी देख कर पसीने छूट जाते थे. लगता था कहां फंस गई. समीर ठीक ही तो कह रहे थे कि करना क्या है. 1 हफ्ता तो वह मन ही मन निराश रही, फिर जैसेजैसे दिन बीतते गए, खुद पर विश्वास होता गया. अब सामने आती गाड़ी देख कर नर्वस होना बंद हो गया था. 1 महीना खत्म होतेहोते स्टेयरिंग पर फुल कंट्रोल हो गया. शनिवार और रविवार को वह छुट्टी लेती थी, क्योंकि घर में तीनों रहते थे. ड्राइविंग टैस्ट हो गया. उसे लाइसैंस भी मिल गया. अपना लाइसैंस हाथ में देख कर उसे इतनी खुशी हो रही थी जिस का अंदाजा नहीं लगाया जा सकता था.

जया की ड्राइविंग क्लासेज के बारे में उस की 2 खास सहेलियों अंजू और ममता को ही पता था. जया ने उन्हें भी यह बात अपने तक ही रखने के लिए कहा था.

अब प्रैक्टिस जरूरी थी पर क्या करे, गाड़ी तो समीर औफिस ले जाते थे. अत: उस ने ममता से कहा, ‘‘प्रैक्टिस कैसे करूं?’’

ममता ने कहा, ‘‘यह कौन सी बड़ी बात है, मेरी गाड़ी ले जा.’’

‘‘नहीं, अकेले तो अभी नहीं.’’

ममता ने तसल्ली दी, ‘‘मैं तेरे बराबर में बैठी रहा करूंगी.’’

‘‘मैं तेरी गाड़ी को कहीं नुकसान न पहुंचा दूं. नहीं, रहने दे.’’

‘‘जया, तू चला, कुछ नहीं होगा.’’

अगले दिन 11 बजे जया ने ममता की गाड़ी निकाली. ममता उस का

आत्मविश्वास बढ़ाती रही. जया ने आराम से गाड़ी ले जा कर एक रेस्तरां के बाहर रोक दी. वह बहुत खुश थी. बोली, ‘‘चल, तु झे लंच कराती हूं.’’

‘‘वाह, क्या बात है,’’ कह कर ममता भी हंसी और दोनों खापी कर इधरउधर गाड़ी चला कर बच्चों के आने से पहले घर लौट आईं.

ममता ने जाते हुए कहा, ‘‘अब तू कार अच्छी तरह चला लेती है. मेरी कार से ही प्रैक्टिस करती रहना.’’

अपनी इस महान उपलब्धि के बारे में जया ने किसी को कुछ नहीं बताया. ‘तुम्हें क्या करना है,’ सुनसुन कर वह थक चुकी थी. सब को बताने के लिए जया किसी खास मौके का इंतजार कर रही थी. कुछ दिनों बाद उसे यह मौका मिल गया. समीर को पूना जाना था. मुंबई में जुलाई की लगातार होने वाली तेज बारिश के कारण स्टेशन जाने के लिए कोई औटोरिकशा नहीं मिल रहा था. फोन करने पर टैक्सी कब तक आती यह भी पता नहीं था.

समीर की आदत है घर से थोड़ा पहले निकलने की. ट्रैफिक में फंसने का डर जो रहता है. वे छाता और अपना बैग लिए तेज बारिश में रोड पर खड़े थे, जया फ्लैट की बालकनी से उन्हें परेशान देख रही थी. जया ने अपने कपड़ों पर नजर डाली. वह नाइटगाउन में थी. उस ने फटाफट कपड़े बदले. बच्चे सो रहे थे. 5 बजे थे. वह उन्हें 6 बजे तक उठाती थी. अत: जया गाड़ी की चाबी और छाता ले कर समीर के पास पहुंच गई और बोली, ‘‘आओ, मैं छोड़ देती हूं.’’

‘‘कैसे?’’

‘‘गाड़ी से.’’

‘‘दिमाग खराब हो गया है क्या सुबहसुबह, ऊपर जाओ,’’ समीर  झुं झलाए.

वह हंसी, ‘‘अरे आओ, डरो मत,’’ और गाड़ी की तरफ बढ़ गई. फिर दरवाजा खोल कर ड्राइविंग सीट पर बैठ कर सीट बैल्ट बांधने लगी. समीर को भी बैठने का इशारा किया.

उन्हें कुछ सम झ नहीं आया. चिढ़ते हुए बोले, ‘‘मजाक का टाइम तो देख लिया करो जया, देख रही हो न मैं कितना परेशान हूं और तुम्हें मजाक सू झ रहा है.’’

‘‘मु झे पागल सम झा है क्या? अरे, मैं ड्राइविंग सीख चुकी हूं.’’

समीर गुर्राए, ‘‘क्या बकवास है… लाइसैंस दिखाना.’’

समीर को अच्छी तरह जानती थी जया. वह लाइसैंस ले कर ही उतरी थी. अत: पर्स से लाइसैंस निकाला और समीर के हाथ पर रखती हुई बोली, ‘‘अच्छी तरह देख लो.’’

समीर का अजीब हाल था. गुस्सा, हैरानी, यानी चेहरे पर मिलेजुले भाव थे.

जया ने प्यार से कहा, ‘‘अब हंस भी दो, यह सरप्राइज ऐसे ही किसी टाइम के लिए संभाल कर रखा था.’’

समीर अपने को सामान्य कर चुके थे. बोले, ‘‘इतनी बारिश में स्टेशन तक चला पाओगी और फिर अकेली आओगी… मु झे चिंता रहेगी.’’

‘‘सामने रोड तक साथ बैठ कर थोड़ी दूर तक देख लो, विश्वास हो जाए तो मु झे ले जाना स्टेशन, ठीक है?’’

समीर ने सहमति में सिर हिलाया और फिर सीटबैल्ट बांध ली. जया ने गाड़ी स्टार्ट की और गाड़ी आगे बढ़ाती गई.

समीर काफी देर बाद बोले, ‘‘कब सीखी?’’

‘‘कुछ ही दिन पहले.’’

‘‘प्रैक्टिस तो हो नहीं पाई होगी?’’

‘‘ममता की गाड़ी चला रही थी,’’ कह कर जया तेज बारिश में ध्यान से धीरेधीरे गाड़ी चलाती हुई स्टेशन पहुंच गई.

गाड़ी से उतरने से पहले समीर ने मुसकराते हुए जया के कंधे पर हाथ रख कर

कहा, ‘‘कमाल हो तुम… घर पहुंच कर मु झे

फोन कर देना, बाय, टेक केयर,’’ और गाड़ी से उतर गए.

जया ने कार मोड़ ली. अब यह बात तय थी कि अगली बार कुछ सीखने की बात करने पर समीर यह कभी नहीं कहने वाले थे कि तुम्हें करना क्या है?

तभी जया को ये पंक्तियां याद आ गईं-

‘हर प्यासे को जो दे डुबो, वह एक

सावन चाहिए.

कुछ कर गुजरने के लिए मौसम नहीं

मन चाहिए.’

जया ने मन ही मन प्लान बनाया कि आज शाम को बच्चों को भी गाड़ी से आइसक्रीम खिलाने ले जाएगी. अब उन के हैरान चेहरे देखने की बारी थी.

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