Hindi Kahaniyan : अब कोई नाता नहीं – क्या सब ठीक हुआ निशा और दिशा के बीच

Hindi Kahaniyan : “मुझे माफ करना, अतुल. मैं ने तुम्हारा बहुत अपमान किया है, तिरस्कार किया है और कई बार तुम्हारा मजाक भी उड़ाया है. मगर आज जब मुझे अपने बेटे की सब से ज्यादा जरूरत थी तब तुम ही मेरे करीब थे. अगर आज तुम न होते तो न जाने मेरा क्या हाल होता. मैं शायद इस दुनिया में न होता. अतुल बेटा, हम दोनों तो बिलकुल अकेले पड़ गए थे. अब तो मुझे सुमित को अपना बेटा कहने में भी शर्म आ रही है. उसे विदेश क्या भेजा, वह विदेशी हो कर रह गया, मांबाप को भी भूल गया. अब मेरा उस से कोई नाता नहीं,” यह कहते हुए कांता प्रसाद फफकफफक कर रो पड़े, उन्होंने अतुल को खींच कर गले लगा लिया.

अतुल की आंखें भी नम हो गईं., वह अतीत की यादों में खो गया. अतुल के पिता रमाकांत की एक छोटी सी मैडिकल शौप थी जो सरकारी अस्पताल के सामने थी. परिवार की आर्थिक स्थिति विकट होने से अतुल ज्यादा पढ़ नहीं पाया था. कक्षा 12 वीं उत्तीर्ण करने के बाद उस ने फार्मेसी में डिप्लोमा किया और अपने पिता के साथ दुकान में उन का हाथ बंटाने लगा.

एक ही शहर में दोनों भाइयों का परिवार रहता था मगर रिश्तों में मधुरता नहीं थी. कांता प्रसाद और छोटे भाई राम प्रसाद के बीच अमीरीगरीबी की दीवार दिनबदिन ऊंची होती जा रही थी. दोनों भाइयों के बीच एक बार पैसों के लेनदेन को ले कर अनबन हो गई थी जिस के कारण उन के बीच कई सालों से बोलचाल बंद थी. होलीदीवाली जैसे त्योहारों पर महज औपचारिकता निभाते हुए उन के बीच मुलाकात होती थी.

अतुल के ताऊजी कांता प्रसाद एक प्राइवेट बैंक में मैंनेजर थे जो अपने इकलौते बेटे सुमित की पढ़ाई के लिए पानी की तरह पैसा बहा रहे थे. सुमित शहर की सब से महंगे और मशहूर पब्लिक स्कूल में पढ़ता था. जब कभी अतुल उन से बैंक में या घर पर मिलने जाता था तब वे उस का मजाक उड़ाते हुए कहते थे–

‘अरे अतुल, एक बार कालेज का तो मुंह देख लेता. अभी 20-22 का हुआ नहीं कि दुकानदारी करने बैठ गया. कालेजलाइफ कब एंजौय करेगा? तेरा बाप क्या पैसा साथ ले कर जाएगा?’

‘नहीं ताऊजी, ऐसी बात नहीं है. मेरी भी आगे पढ़ने की इच्छा है और पापा भी मुझे पढ़ाना चाहते हैं पर मैं अपने घर की आर्थिक स्थिति से अच्छी तरह से अवगत हूं. मैं ने ही उन्हें मना कर दिया कि मुझे आगे नहीं पढ़ना है. निशा और दिशा को पहले पढ़ानालिखाना है ताकि वे पढ़लिख कर अपने पैरों पर खड़ी हो जाएं जिस से उन के विवाह में अड़चन न आए. एक बार उन के हाथ पीले हो जाएं तो मम्मीपापा की चिंता मिट जाएगी. वे दोनों आएदिन निशा और दिशा की चिंता करते हैं. आजकल के लड़के पढ़ीलिखी और नौकरी करने वाली लड़कियां ही ज्यादा पसंद करते हैं. ताऊजी, आप को तो पता ही है कि हमारी मैडिकल शौप से ज्यादा आमदनी नहीं होती. सरकारी अस्पताल के सामने मैडिकल की पचासों दुकानें हैं. कंपीटिशन बहुत बढ़ गया है. फिर आजकल औनलाइन का भी जमाना है. मेरा क्या है, मैं निशा और दिशा की विदाई के बाद भी प्राइवेटली कालेज कर लूंगा पर अभी परिवार की जिम्मेदारी निभाना जरूरी है.’

अतुल ने अपनी मजबूरी बताते हुए कहा तो कांता प्रसाद को बड़ा ताज्जुब हुआ कि अतुल खेलनेकूदने की उम्र में इतनी समझदारी व जिम्मेदारी की बातें करने लग गया है. और एक उन का बेटा सुमित जो अतुल की ही उम्र का है मगर उस पर अभी भी बचपना और अल्हड़पन सवार था, वह घूमनेफिरने और मौजमस्ती में ही मशगूल है. कांता प्रसाद के पास रुपएपैसों की कमी न थी. उन के बैंक के कई अधिकारियों के बेटे विदेशों में पढ़ रहे थे, सो  कांता प्रसाद ने भी सुमित को विदेश भेजने के सपने संजो कर रखे थे.

वक्त बीत रहा था. सुमीत इंजीनियरिंग में बीई करने के बाद एमएस के लिए आस्ट्रेलिया चला गया. इसी बीच कांता प्रसाद बैंक से सेवानिवृत हो गए. पत्नी रमा के साथ आराम की जिंदगी बसर कर रहे थे. सुमित के लिए विवाह के ढेरों प्रस्ताव आने शुरू हो गए थे. अपना इकलौता बेटा विदेश में है, यह सोच कर ही कांता प्रसाद मन ही मन फूले न समाते थे. अब तो वे ज़मीन से दो कदम ऊपर ही चलने लगे थे. जब भी कोई रिश्तेदार या दोस्त मिलता तो वे सुमित की तारीफ में कसीदे पढ़ने लग जाते. कुछ दिन तक तो परिवार के सदस्य और यारदोस्त उन का यह रिकौर्ड सुनते रहे मगर धीरेधीरे उन्हें जब बोरियत होने लगी तो वे उन से कन्नी काटने लगे.

वक्त अपनी रफ्तार से चल रहा था. सुमित को आस्ट्रेलिया जा कर 3 साल का वक्त हो गया था. एक दिन सुमित ने बताया कि उस ने एमएस की डिग्री हासिल कर ली है और वह अब यूएस जा रहा है जहां उसे एक मल्टीनैशनल कंपनी में मोटे पैकेज की नौकरी भी मिल गई है. कांता प्रसाद के लिए यह बेशक बहुत ही बड़ी खुशी की बात थी.

कांता प्रसाद और रमा अभी खुशी के इस नशे में चूर थे कि एक दिन सुमित ने बताया कि उस ने अपनी ही कंपनी में नौकरी करने वाली एक फ्रांसीसी लड़की एडेला से शादी कर ली है. सुमित के विवाह को ले कर सपनों के खूबसूरत संसार में खोए हुए कांता प्रसाद और रमा बहुत ही जल्दी यथार्थ के धरातल पर धराशायी हो गए. अब तो दोनों अपने घर में ही बंद हो कर रह गए. लड़की वालों के फोन आने पर ‘अभी नहीं, अभी नहीं’ कह कर टालते रहे. कांता प्रसाद और रमा ने सुमित के विवाह की बात छिपाने की बहुत कोशिश की मगर जिस तरह प्यार और खांसी छिपाए नहीं छिपती, उसी तरह सुमित के विदेशी लड़की से विवाह करने की बात उन के करीबी रिश्तेदारों के बीच बहुत ही जल्दी फैल गई. परिणास्वरूप रिश्तेदारों एवं करीबी लोगों ने उन से किनारा करना शुरू कर दिया.

उधर, सुमित दिनबदिन अपने काम में इतना मसरूफ हो गया था कि वह महीनों तक अपने मातापिता को फोन नहीं कर पाता था. यहां से कांता प्रसाद और रमा फोन करते तो वह कभी काम में व्यस्त बता कर या मीटिंग में है, कह कर फोन काट देता था. अब तो कांता प्रसाद और रमा बिलकुल अकेले पड़ गए थे. छोटीमोटी बीमारी होने पर उन्हें पड़ोसियों का सहारा लेना पड़ता था. मगर हर बार यह मुमकिन नहीं था कि जब उन्हें जरूरत पड़े तब पड़ोसी उन की सेवा में हाजिर हो जाएं. इसी बीच देश में कोरोना महामारी की दूसरी लहर ने कहर ढाना शुरू कर दिया. लौकडाऊन के कारण कामवाली बाई यशोदा ने आना बंद कर दिया और घरेलू नौकर किशन अपने गांव चला गया. लोग अपनेअपने घरों में बंद हो गए. रमा को दमे की शिकायत थी, तो कांता प्रसाद डायबेटिक थे. चिंता और तनाव ने दोनों को और अधिक बीमार बना दिया था. सुमित इस संकट की घड़ी में व्हाट्सऐप पर ‘टेक केयर, बाहर बिलकुल मत जाना, और जाना पड़ जाए तो मास्क पहन कर जाना, सैनिटाइजर का उपयोग करते रहना, बारबार साबुन से हाथ धोते रहना, सोशल दूरी बनाए रखना’ जैसे महज औपचारिक संदेश नियमित रूप से भेज कर अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ लेता था.

एक दिन रात में कांता प्रसाद को तेज बुखार आया. उन्हें लगा, मौसम बदलने से आया होगा. घर में ही दवा खा ली. मगर बुखार न उतरा. 2 दिनों बाद उन्हें सांस लेने में तकलीफ होने लगी और मुंह का स्वाद चला गया. तब रमा को पता चला कि ये तो कोरोना के लक्षण हैं. रात में करीब 1 बजे उन्होंने अतुल को फोन किया और सारी बात बताई. अतुल और उस के पिता ने तुरंत भागदौड़ शुरू कर दी. अतुल ने एक सामाजिक संस्था के यहां से एम्ब्युलैंस मंगवाई और अपने पिता के साथ कांता प्रसाद के घर के लिए रवाना हो गया. बीच रास्ते में अतुल अस्पतालों में बैड की उपलब्धता के लिए लगातार फोन कर रहा था. दोतीन अस्पतालों से नकारात्मक उत्तर मिला, मगर एक अस्पताल में एक बैड मिल गया. अतुल ने कांता प्रसाद को फोन कर के अस्पताल जाने के लिए तैयार रहने के लिए कहा. रात करीब 2 बजे कांता प्रसाद को एक अस्पताल के कोरोना वार्ड में एडमिट कर दिया और ट्रीटमैंट चालू हो गया.

रमा की आंखों में छिपा हुआ नीर आंसुओं का रूप धारण कर उस के गालों को भिगोने लगा जिसे देख अतुल ने कहा–

‘ताईजी, प्लीज आंसू न बहाओ. अब चिंता की बात नहीं है. यह शहर का बहुत अच्छा अस्पताल है. ताऊजी जल्दी ही स्वस्थ हो जाएंगे. ताईजी, अब आप हमारे घर चलो. ताऊजी के ठीक होने तक आप हमारे ही घर पर रहना. अस्पताल में कोरोना मरीज के रिश्तेदारों को ठहरने की अनुमति नहीं है.’

रमा का कंठ रुंध गया था. वह बोल नहीं पा रही थी. खामोशी से अतुल के साथ रवाना हो गई.

कांता प्रसाद का औक्सीजन लैवल कम हो जाने से कुछ दिनों तक उन्हें वैंटिलेटर पर रखा गया. फिर उन्हें जनरल वार्ड में शिफ्ट कर दिया गया. डाक्टरों ने बताया कि समय पर बैड मिल जाने से उन की जान बच गई है. कुछ ही दिनों के बाद उन्हें अस्पताल से छुट्टी मिल गई. कांता प्रसाद मन ही मन सोच रहे थे कि आज अतुल उन की सहायता के लिए दौड़ कर न आता तो न जाने उन का क्या हाल होता. इस कोरोना महामारी ने आज इंसान को इंसान से दूर कर दिया है. कोरोना का नाम सुनते ही अपने लोग ही दूरियां बना लेते हैं. ऐसे में अतुल और राम प्रसाद ने अपनी जान की परवा किए बगैर उन की हर संभव सहायता की थी. बुरे वक्त में अतुल ही उन के काम आया था, उन के अपने बेटे सुमित ने तो उन से अब महज औपचारिक रिश्ता बना कर रखा था. वे मन ही मन सोचने लगे कि अब उस से तो नाता रखना बेकार है.

अतुल के साथसाथ कांता प्रसाद भी अतीत की यादों से वर्तमान में लौटे. वे अभी भी अतुल को अपने गले से लगाए हुए थे. अतुल ने अपने आप को उन से अलग करते हुए कहा–

“ताऊजी, पुरानी बातों को छोड़ दीजिए, मैं तो आप के बेटे के समान हूं. क्या पिता अपने बेटे को डांटताफटकारता नहीं है. फिर आप तो मेरे बड़े पापा हैं. मुझे आप की बातों का कभी बुरा नहीं लगा. अब आप अतीत की कटु यादों को बिसरा दो और अपनी तबीयत का ध्यान रखो. अपनी मैडिकल की दुकान होने से कई बार अस्पतालों में जाना पड़ता है, इसी कारण कुछेक डाक्टरों से मेरी पहचान हो गई है. इसलिए आप को बैड मिलने में ज्यादा परेशानी नहीं हुई और आप का समय पर इलाज हो गया. अब आप को डाक्टरों ने सख्त आराम की हिदायत दी है.“

बाद में वह ताईजी की ओर मुखातिब होते हुए बोला–

“ताईजी, अब आप ताऊजी के पास ही बैठी रहोगी और इन का पूरा ध्यान रखोगी, साथ ही, अपना भी ध्यान रखोगी. अब आप की उम्र हो गई है, सो आप दोनों को आराम करना चाहिए. अब आप दोनों को किसी तरह की चिंता करने की आवश्यकता नहीं है. अभी कुछ ही देर में दिशा और निशा यहां पर आ रही हैं. वे किचन संभाल लेंगी और घर का सारा काम भी वे दोनों कर लेंगी.“

अभी अतुल ने अपनी बात समाप्त भी नहीं की कि राम प्रसाद ने अपनी पत्नी सरला और दोनों बेटियों के साथ घर में प्रवेश किया.

राम प्रसाद भीतर आते ही कांता प्रसाद के पैर छूने के लिए आगे बढ़े तो कांता प्रसाद ने उन्हें अपने गले से लगा लिया. दोनों की आंखों से गंगाजमुना बहने लगी. एक लंबे अरसे से दोनों के मन में जमा सारा मैल पलभर में आंसुओं में बह गया.

दोनों भाइयों को वर्षों बाद गले मिलते देख परिवार के अन्य सदस्यों की आंखें भी पनीली हो गईं. निशा और दिशा सभी के लिए चायनाश्ता बनाने के लिए रसोई घर की ओर मुड़ गई. बैठक में कुछ देर तक निस्तब्धता छायी रही जिसे अतुल ने भंग करते हुए कहा–

“ताऊजी, एक बात कहूं, कोरोना महामारी ने लोगों के बीच दूरियां जरूर बढ़ाई हैं पर हमारे लिए कोरोना लकी साबित हुआ है क्योंकि इस ने 2 परिवारों की दूरियां मिटाई हैं.” यह कहते हुए वह जोर से हंसने लगा, अतुल की हंसी ने गमगीन माहौल को खुशनुमा बना दिया.

कांता प्रसाद और राम प्रसाद की नम आंखों में भी हंसी चमक उठी. कांता प्रसाद ने अतुल को इशारे से अपने करीब बुलाया और अपने पास बैठाते हुए कहा–

“अतुल बेटा, एक बात ध्यान से सुनना, सरकारी अस्पताल के सामने मैं ने अपनी एक दुकान बनवारीलाल को किराए पर दे रखी है न, वह इस महीने की 30 तारीख को खाली कर रहा है. अब तुम इस दुकान में शिफ्ट हो जाना, आज से यह दुकान तुम्हारी है, समझे. मैं जल्दी ही वकील से यह दुकान तुम्हारे नाम करवाने के लिए बात कर लूंगा.”

अतुल बीच में बोल पड़ा–

“नहीं ताऊजी, मेरी अपनी दुकान अच्छी चल रही है. प्लीज, आप ऐसा न करें.”

“अरे अतुल, मुझे पता है, तेरी दुकान कितनी अच्छी चलती है, एक कोने में तेरी छोटी सी दुकान है और अस्पताल से बहुत दूर भी. बस, तू मेरी बात मान ले. अपने ताऊजी से बहस न कर,” कांता प्रसाद ने मुसकराते हुए अतुल को डांट दिया.

“भाईसाहब, आप ऐसा न करें, दुकान भले ही चलाने के लिए हमें किराए पर दे दें पर इसे अतुल के नाम पर न करें, सुमित…”

राम प्रसाद भविष्य का विचार करते हुए सुझाव देने लगे तो कांता प्रसाद किंचित आवेश में बीच में बोल पड़े, “अरे रामू, यह मेरी प्रौपर्टी है, मैं चाहे जिसे दे दूं. सुमित से अब हम कोई नाता नहीं रखना नहीं चाहते हैं. अब वह हमारा नहीं रहा. सुमित ने तो अपनी अलग दुनिया बसा ली है. उसे हम दोनों की कोई जरूरत नहीं है. अब तो अतुल ही हमारा बेटा है.”

कांता प्रसाद की आंखें फिर छलक गईं. राम प्रसाद ने इस समय बात को और आगे बढ़ाना उचित न समझा.

कुछ ही देर में निशा और दिशा किचन से नाश्ता ले कर बाहर आ गईं. रमा ने निशा और दिशा को अपने पास बैठाया. दोनों रमा के दाएंबाएं बैठ गईं. रमा ने दोनों के सिर पर हाथ रखते हुए कहा–

“ये जुड़वां बहनें जब छोटी थीं तब दोनों छिपकली की तरह मुझ से चिपकी रहती थीं. रात को सरला बेचारी सो नहीं पाती थी. तब मैं एक को अपने पास सुलाती थी. इन का पालनपोषण करना सरला के लिए तार पर कसरत करने के समान था. देखो, अब ये कितनी बड़ी हो गई हैं.” यह कहते हुए रमा निशा और दिशा का माथा चूमने लगी, फिर कांता प्रसाद की ओर मुखातिब होते हुए बोली–

“आप ने बहुत बातें कर लीं जी, अब मेरी बात भी सुन लो. मैं ने निशा और दिशा का कन्यादान करने का निर्णय लिया है. इन दोनों के विवाह का संपूर्ण खर्च मैं करूंगी. अतुल इन्हें जितना पढ़ना है, पढ़ने देना और अगर तुम प्राइवेटली आगे पढ़ना चाहो तो पढ़ सकते हो. अब तुम्हें और तुम्हारे मम्मीपापा को निशा-दिशा की चिंता करने की जरूरत नहीं है.“

“रमा, तुमने तो मेरे मुंह की बात छीन ली है. मैं भी यही कहने वाला था. हम तो बेटी के लिए तरस रहे थे. ये अपनी ही तो बेटियां हैं.”

कांता प्रसाद ने उत्साहित होते हुए कहा तो उन का चेहरा खुशी से चमक उठा मगर उन की बातें सुन कर राम प्रसाद और मूकदर्शक बन कर बैठी सरला की आंखों से आंसुओं की धारा धीरेधीरे बहने लग गई. माहौल फिर गंभीर बन रहा था,  इस बार निशा ने माहौल को हलकाफुलका करते हुए कहा–

“आप सब तो बस बातें करने में ही मशगूल हो गए हैं. चाय की ओर किसी का ध्यान ही नहीं है. देखो, यह ठंडी हो गई है. मैं फिर से गरम कर के लाती हूं.“ यह कहते हुए निशा उठी तो उस के साथसाथ दिशा भी खड़ी हो गई. दिशा ने सभी के सामने रखी नाश्ते की खाली प्लेटें उठाईं तो निशा ने ठंडी चाय से भरे कप उठाए. फिर दोनों किचन की ओर मुड़ गईं जिन्हें कांता प्रसाद और रमा अपनी नज़रों से ओझल हो जाने तक डबडबाई आंखों से देखते रहे.

Online Hindi Story : मुंबई की लड़की – क्या हुआ था मीना के साथ

Online Hindi Story : ‘‘मीनादीदी, आप को लेने के लिए मैं कब तक आऊं?’’ ड्राइवर सुरेश ने पूछा.

‘‘अं… मेरे खयाल से ढाई बजे तक मेरा स्कूल खत्म हो जाएगा,’’ मीना बोली.

उस का जवाब सुन कर सुरेश अपनी हंसी दबाते हुए बोला, ‘‘ठीक है, मैं उस वक्त तक आ जाऊंगा. बस एक मिस कौल दे देना, मैं गेट के पास गाड़ी ले आऊंगा.’’

सुरेश गाड़ी ले कर चला गया पर उस का इस तरह अपनी हंसी को दबाना मीना के मन से जा ही नहीं रहा था. मराठी बोलते वक्त उस से कोई गलती तो हुई, पर क्या यह उसे सम झ नहीं आ रहा था. स्कूल जातेजाते उस का मूड बिगड़ गया और आंखें भर आईं. लेकिन स्कूल के स्मार्ट वातावरण में इस तरह की भावुकता कहीं दूसरों के लिए हंसी का विषय न बन जाए, यह सोच कर मीना ने अपनी आंखें पोंछीं और ‘हाय पैम’, ‘हाय जैकी’ कहते हुए एक टोली में घुस गई. फिर तो घर जाने तक मराठी से संबंध पूरी तरह से टूट गया.

सच पूछो तो उस स्कूल में जाने के बाद भारत के किसी क्षेत्र से कोई खास संबंध बाकी नहीं रहता था. दरअसल, यह एक अंतर्राष्ट्रीय स्कूल था. भव्य इमारत, वातानुकूलित क्लास रूम्स, अंदर का फर्नीचर भी अमेरिकन किस्म का. क्लास रूम में 20-21 बच्चे और कोई यूनिफार्म नहीं. बच्चों ने कुछ ऐसे कपड़े पहन रखे थे जैसे फैशन परेड लगी हो. सभी के पास खुद का कंप्यूटर था. टीचर्स भी ऊंचे घराने के लोग थे.

मीना की क्लास में कुछ बच्चे फिल्मी हीरोहीरोइंस के, कुछ क्रिकेटर्स के तो कुछ बड़ेबड़े उद्योगपतियों के घरानों के पढ़ रहे थे. स्कूल की कैंटीन में सभी खानेपीने की चीजें पाश्चात्य तरीके की मिलती थीं तो स्कूली पढ़ाई व बोलचाल तो अंगरेजी में थी ही, व्यवहार भी अंगरेजी स्टाइल का था. पूरे माहौल में समृद्धि की खुशबू ऐसी थी जैसे स्कूल के बाहर की मुंबई, वहां की भागदौड़, गरीबी और गंदगी का इस स्कूली दुनिया से कोई भी वास्ता ही न हो.

मुंबई के नए कलेवर से मीना पूरी तरह से अनजान थी. वैसे उस का जन्म भले ही दिल्ली में हुआ हो पर वह मुंबई में ही पलीबढ़ी थी. उस के पिताजी भी यहीं के थे. डा. श्रीनिवास के इकलौते बेटे अभय. मीना की दादादादी का दादर वाला पुराना घर बहुत प्यारा था. मध्यवर्गीय हाउसिंग सोसाइटी का 2 बैडरूम वाला यह घर दूसरी मंजिल पर था. इमारत पुरानी थी इसलिए वहां लिफ्ट नहीं थी. सीढि़यां चढ़ कर जाते वक्त दादी हमेशा बड़बड़ातीं पर इस जगह को छोड़ कर कहीं और जाना संभव नहीं था. दादाजी का क्लिनिक भी नजदीक ही था. उन के कई पेशैंट्स दादर में ही रहने वाले थे. दादी की सहेलियां भी वहीं की थीं. उन का वहां अपना ही एक ग्रुप था.

डाक्टर श्रीनिवास के पास पुरानी फिएट कार थी. ठंड के मौसम में उसे

स्टार्ट करना मुश्किल हो जाया करता था. फिर तो सोसाइटी के वाचमैन के साथ छोटी मीना भी गाड़ी को धक्का लगाने आ जाती. गरमी में तो गाड़ी पूरी तरह से तप जाती थी. डाक्टर साहब ने जब एक छोटा पंखा ला कर गाड़ी में लगवाया था, तब मीना बहुत खुश हुई थी. ‘मेरे लिए न, दादाजी?’ ऐसा पूछते वक्त, ‘हां तुम्हारे लिए ही है,’ यही जवाब मिलेगा वह जानती थी. दादी के साथ बैठ कर सब्जी साफ करना, अलमारी ठीक से लगाना, खाने की तैयारी करना आदि कामों में मीना को बड़ा मजा आता था. और चाय का वक्त होने पर दादीमां के साथ प्लेट में चाय पीने की खुशी तो वह बयान ही नहीं कर सकती.

लेकिन फिर मम्मीपापा के पास वापस जाने का समय होता. अपनी नई मारुती जेन में बैठ कर उस के मम्मीपापा अभय व नंदिनी उसे लेने दादर आते. फिर तब बेमन से मीना उस ठंडी गाड़ी में बैठ कर अपने घर विले पार्ले जाती. उस का घर काफी बड़ा था. उस का एक अलग कमरा था. ढेर सारे खिलौने थे. दिन भर घर का काम करने वाली हेमा का भी खुद का एक अलग कमरा था. उस वक्त विदेशी कंपनियों ने भारत में कदम रखा था. पुरानी पीढ़ी ने कभी कल्पना भी नहीं की होगी जितना वेतन वे अभय जैसे नई पीढ़ी के नौकरी करने वाले लोगों को दे रहे थे. जीवन भर ईमानदारी से काम करते हुए सामान्य रूप से खापी कर सुखी रहने वाले अपने पिता के लिए अभय के मन में बहुत आदर था. पर वे उन के आदर्श नहीं थे, इसलिए डाक्टर के रूप में इतना मानसम्मान देने के बावजूद भी अभय ने बीकौम और एमबीए जैसी राह चुनी थी. उन्हें नौकरी भी अपनी इच्छानुसार और मोटी तनख्वाह वाली मिली और फिर अपने साथ ही एमबीए पढ़ी नंदिनी के साथ उन्होंने शादी करने का निर्णय लिया.

नंदिनी के पिता आर्मी औफिसर थे. उन के दिल्ली के आलीशान बंगले में

अभय और नंदिनी की बड़ी धूमधाम से शादी हुई. अभय के मातापिता भी इस रिश्ते से खुश थे. शादी के बाद जब नंदिनी मुंबई आईं तो सीधे अभय के नए और बड़े फ्लैट में. दादर के घर में भी वे बीचबीच में आयाजाया करती थीं. उन के व्यवहार में उत्तरी तहजीब साफ  झलकती थी. उन्होंने सभी का मन जीत लिया था. स्वभाव से भी वे काफी उदार थीं, लेकिन दादर के छोटे घर में रहना उन के लिए संभव नहीं था. फिर भी उन्होंने उस घर का कायापलट करने की ठानी. उन्होंने सब से पहले रसोई में नया किचन प्लेटफार्म बनवाया. फिर सुंदर फर्श बनवाया और पुरानी खिड़कियां निकलवा कर नई खिड़कियां लगवाईं. अच्छा कुकिंग रेंज, नया फ्रिज, फूड प्रोसेसर. अभय की मां को तो अपना किचन पहचान में ही नहीं आ रहा था.

साल भर के अंदर मीना का जन्म हुआ. महीने भर की छोटी मीना को ले कर जब नंदिनी दिल्ली से लौटीं तब डाक्टर साहब के परिवार में तो जैसे खुशी की लहर दौड़ गई. अब उन के बैडरूम में एअरकंडीशनर लग गया था. सप्ताह में 2-3 दिन मीना दादादादी के पास ही रहने लगी थी. 3 साल की होने के बाद उस ने दादी के काम में हाथ बंटाना भी शुरू किया. उस का सब से पसंदीदा काम वाटर फिल्टर से बोतलें भर कर रखना था. उस काम में आधा पानी गिर जाता था पर दादी उस पर कभी गुस्सा नहीं करती थीं फिर नीचे गिरा पानी पोंछना भी उस का पसंदीदा काम था.

सब कुछ अच्छा चल रहा था. पर अचानक अभय का लंदन ट्रांसफर हो गया. थोड़ी कोशिशों के बाद नंदिनी को भी वहीं पर काम मिल गया. उन दोनों के लिए तो यह सुनहरा मौका था. छोटी मीना तो अपने मम्मीपापा के साथ शान से एअरपोर्ट के लिए निकली. दादादादी, नानानानी सभी लोग उन्हें विदा करने आए थे. पर उस कांच के दरवाजे से अंदर जाते वक्त केवल मीना ही नहीं, अभय और नंदिनी का भी दिल भर आया था.

और अब पूरे 10 साल बाद वे ट्रांसफर ले कर फिर से मुंबई आए थे. बीच के

समय में मुंबई पूरी तरह से बदल गई थी. बौंबे नाम होते हुए भी देशी  झलक देने वाला यह शहर मुंबई जैसा देशी नाम पड़ने के बावजूद बिलकुल विदेशी शहरों से प्रतियोगिता करता दिख रहा था. बड़ेबड़े मौल्स, उस में स्थित आधुनिक सिनेमागृह, विदेशी कंपनियों की दुकानें, रास्ते पर दौड़ने वाली नईनई गाडि़यां, दुनिया भर की डिशेज खिलाने वाले होटल्स, बिलकुल आसानी से मिलने वाले और अच्छेअच्छे मोबाइल फोंस. यह सब देख कर अभय और नंदिनी तो बहुत खुश हुए. जागरूकता का प्रत्यक्ष परिणाम उन्हें खुश कर गया. हर चीज से परिपूर्ण अपने देश को देख कर उन्हें बहुत गर्व हुआ. लेकिन फिर भी एक बहुत बड़े वर्ग की गरीबी उन्हें साफ नजर आ ही रही थी. लेकिन वह तो पहले भी थी. पर अब विकास के कई नए रास्ते खुल गए थे. गरीबी से अमीरी तक पहुंचने वालों के किस्से सुनने में आने लगे थे. साथ ही मन में अपने लोगों के बीच वापस आने का एक अलग ही संतोष भी था. मांबाप से दूर रहने की अपराधी भावना भी एक  झटके में खत्म हो गई थी.

लेकिन अब मीना काफी चिड़चिड़ी हो गई थी. बौंबे से मुंबई बना यह शहर उसे पराया लग रहा था. लंदन में रहते वक्त ‘आई एम फ्रोम बौंबे’ आसानी से कह देती थी. पर अब तो बौंबे बोलना किसी को अच्छा नहीं लगता था. मुंबई बोलना उस की अंगरेजी जीभ को भारी पड़ता था और उस से भी ज्यादा बुरा उसे इस शहर का माहौल लग रहा था. दादी के घर में जब एअरकंडीशनर लगवाया था तब वह सभी को कितना दुर्लभ लग रहा था. और अब तो घरघर में दिनरात एअरकंडीशनर चलता दिखाई पड़ रहा था. पहले फौरेन से लाई कांच की चीजें, टेबल मैट्स, यहां तक की चम्मच भी लोगों को काफी कीमती लगते थे, पर अब वे सारी चीजें यहीं पर मिलने लगी थीं. ‘लंदन से आते वक्त अब शैंपू, साबुन, परफ्यूम कुछ नहीं लाना. अब यहीं पर सब कुछ मिलता है,’ ऐसा दादी ने बड़े गर्व से कहा था.

मीना के जानपहचान की सारी निशानियां मिट रही थीं. उसे लग रहा था जैसे हमारी जड़ें ही उखड़ती जा रही हैं. उस की भरोसे की एक ही जगह थी, दादी का घर. पर वह भी पराया लगने लगा था. पहले ही दिन जब बड़े आत्मविश्वास के साथ वह दादी की मदद करने रसोईघर में गई तब नई ऐक्वागार्ड मशीन देख कर उसे रोना ही आ गया. उसे इतना दुख हुआ जैसे पहले वाला फिल्टर बदल कर जैसे दादी ने उस के साथ विश्वासघात किया हो.

फिर भी इस शहर के साथ सम झौता करने की मंशा से उस ने मराठी बोलने की कोशिश शुरू की. घर वालों ने उस की प्रशंसा भी की, लेकिन बाहर वालों ने उस का मजाक ही उड़ाया. मीना को लगता था कि वह मूल रूप से मुंबई की है पर मुंबई वालों ने तो उसे लंदन वाली बना दिया था. फिर मैं हूं कहां की? यह सवाल उसे बारबार तकलीफ दे रहा था. मांबाप का इतनी आसानी से यहां घुल जाना उसे सम झ नहीं आ रहा था. आसपास की गरीबी और असभ्यता उन्हें कैसे नजर नहीं आ रही थी? रास्ते की गंदगी,  झोंपड़पट्टियां यह सब उन्हें क्यों नजर नहीं आ रहा था? या सिर्फ अपने देश वापस आने की खुशी ही इन सभी बातों को अनदेखा कर रही थी? फिर मेरा देश कौन सा है? मु झे कहां पर यह लगेगा कि मैं अपने घर आई हूं?

झोंपड़पट्टी के बारे में उस ने जब नंदिनी से पूछा तब वे

बोलीं कि वह तो हमें दिखाई देती है बेटी, लेकिन तुम यह बात भी सोचो कि अपना गांव, शहर, प्रदेश छोड़ कर ये लोग इस शहर में रहने क्यों आते हैं? इस शहर में उन्हें रोजगार मिलता है. मेहनत कर के वे अपना भविष्य बना सकते हैं. किसी भी क्षेत्र में वे उड़ान भर सकते हैं. और यह शहर ऐसा है जो किसी को भी यहां आने से रोकता नहीं है, क्योंकि उन की मेहनत से ही यहां का काम चलता है. यानी यहां सच में उन की जरूरत है. है ना बेटी? कोई अपना घरबार छोड़ कर बेमतलब तो यहां नहीं आएगा न?’’

अब मीना के मन की उल झन कुछ कम हो गई थी, लेकिन वह मुंबई को अपना कहे या न कहे उसे सम झ में नहीं आ रहा था. उस की मराठी बोली पर हंसीमजाक बनाने वाली बातें भी अनुत्तरित थीं.

एक बार घर की नौकरानी को उस ने सीधे अंगरेजी में पूछा, ‘‘नंदा, कैन यू गैट दिस ड्रैस आयरंड?’’

सलीके से रहने वाली नंदा बोली, ‘‘श्योर मीना दीदी. ऐनी थिंग एल्स?’’

?अब मीना के मन की उल झन सुल झने लगी. दुकानदार तो थोड़ीबहुत अंगरेजी बोल ही लेते थे, पर ड्राइवर सुरेश भी उस के सामने अंगरेजी बोलने की कोशिश करता दिख रहा था. एक दिन सुबहसुबह जब वह स्कूल के लिए निकली तब एक जवान लड़का उस के पास आया और बिलकुल सहजता से उस से बोला, ‘‘गुड मौर्निंग दीदी, आय एम योर स्वीपर.’’

मीना की आंखें खुल गईं. मन में बसे पहले के बौंबे की जगह आज की वास्तविक और तेज गति से आगे बढ़ने वाली मुंबई उसे नजर आने लगी थी. आज पानीपूरी वाला प्लास्टिक के ग्लब्स पहन कर बिसलेरी के पानी में बनी पानीपूरी दे रहा था. पिज्जा हट के पिज्जा और मैकडोनाल्ड के बर्गर में भी अच्छा भारतीय टेस्ट आने लगा था. हर प्रकार के कौस्मैटिक्स आसानी से मिल रहे थे. लिंकिंग रोड में आधुनिक विदेशी फैशन वाले कपड़े भी सस्ते में मिल रहे थे. नई रिलीज हुई हौलीवुड पिक्चर्स भी अब विदेशी थिएटर्स जैसे ही भारतीय थिएटर्स में देखने को मिल रही थीं.

देखते ही देखते यह बदली हुई मुंबई मीना के भी मन में बस गई. उस ने उसे बौंबे के बंधन से मुक्त कर दिया. ‘तु झे हमारी भाषा भले ही न आती हो पर तू हमारी है. तु झ से जैसा संभव हो तू बोल. तू हमारी हंसीमजाक वाली नहीं है बल्कि प्रशंसा और प्यार वाली है. और अगर बोलने में कुछ ज्यादा ही रुकावट आ रही हो तो हम हैं न, हम तुम से अंगरेजी में बात करेंगे,’ किसी ने उस के मन में उसे ऐसा भरोसा दिलाया.

फिर एक शाम मीना दादी के पास आई और बोली, ‘‘दादी, आज थाई खाना मंगाएं क्या?’’

‘‘हांहां जरूर. हमें भी उस की ग्रीन करी बहुत पसंद है,’’ दादी बोलीं.

फिर कुछ ही देर में एक सुंदर से बरतन में खाना आया तो ठंडी हवा में टीवी सीरियल देखते हुए दादादादी और पोती खाना खाने लगे.

Summer Special : वीकेंड को बनाना है स्पेशल, तो बनाएं पनीर की ये टेस्टी रेसिपी

Summer Special : रेस्टोरेंट में पनीर की कई वैरायटी मिलती है, जिनमें से एक है पनीर लबाबदार. पनीर लबाबदार की रेसिपी अगर आप घर पर अपनी फैमिली और मेहमानों के लिए बनाना चाहते हैं तो ये रेसिपी आपके काम की है.

सामग्री

500 ग्राम पनीर,

1 शिमलामिर्च कटी,

1/2 छोटा चम्मच छोटी इलायची,

1/2 छोटा चम्मच जीरा,

2 प्याज कटे हुए,

5 टमाटरों की प्यूरी,

2 सूखी कश्मीरी लालमिर्चों का पाउडर,

4 हरीमिर्चें कटी हुई,

1 छोटा चम्मच लहसुन पेस्ट,

1/2 छोटा चम्मच सफेद तिल,

1/2 कप दूध,

2 बडे़ चम्मच ताजा क्रीम,

1 छोटा चम्मच मक्खन बिना नमक वाला,

1 छोटा चम्मच कसूरी मेथी,

3/4 छोटे चम्मच हलदी पाउडर,

1/2 छोटा चम्मच लालमिर्च पाउडर,

1 छोटा चम्मच गरममसाला,

1/2 छोटा चम्मच धनिया पाउडर,

2 छोटे चम्मच तेल,

थोड़ी सी धनियापत्ती कटी,

थोड़ी सी पुदीनापत्ती कटी,

1/2 छोटा चम्मच अदरक लंबाई में कटा,

नमक स्वादानुसार.

विधि

तिलों को रोस्ट कर पाउडर बना कर एक तरफ रख लें. फिर एक बरतन में तेल गरम कर जीरा और छोटी इलायची चटकाएं. अब इस में हरीमिर्च, लहसुन का पेस्ट मिला कर भूनें. फिर नमक और प्याज डाल कर अच्छी तरह भूनें. इस में टोमैटो प्यूरी, लालमिर्च, हलदी, धनिया पाउडर, छोटी इलायची पाउडर मिला कर तेल छोड़ने तक भूनें. अब इस में कटी शिमलामिर्च, दूध और तिलों का पाउडर मिला कर उबाल आने तक पकाएं. इस में पनीर काट कर डालें. फिर गरममसाला डाल कर अच्छी तरह मिला कर

1-2 मिनट पकाएं. फ्रैश क्रीम, कसूरी मेथी डाल कर धीमी आंच पर पकाएं. अब आंच से उतार कर मक्खन पिघला कर डालें. ऊपर से कश्मीरी मिर्च पाउडर डालें. अदरक और धनियापत्तीपुदीनापत्ती से सजा कर सर्व करें.

जो हालात के हिसाब से ढलते हैं और सीखते रहते हैं वही कामयाब होते हैं : सोनम गर्ग

Sonam Garg : मैडिकल लिंकर्स की सह संस्थापक सोनम गर्ग का मानना है कि सही समय पर सही इलाज तक पहुंच किसी की भी जिंदगी बदल सकती है. मैडिकल लिंकर्स की शुरुआत उन के एक सपने से हुई थी. मरीजों और बेहतरीन इलाज के बीच की दूरी को खत्म करने का सपना. आज मैडिकल लिंकर्स दुनियाभर में सब से भरोसेमंद मैडिकल टूरिज्म प्लेटफौर्म्स में से एक है जो लोगों की उचित डाक्टरों, अस्पतालों और इलाज तक पहुंचने में मदद करता है.

मैडिकल लिंकर्स की स्थापना की कहानी बताते हुए सोनम गर्ग कहती हैं कि उन के पिताजी का अचानक निधन हो गया था. उस दुख के समय में उन्होंने देखा कि सही इलाज तक पहुंचना कितना मुश्किल और उलझन भरा हो सकता है खासकर जब उस की सब से ज्यादा जरूरत हो. यह प्रक्रिया थकाने वाली थी, व्यवस्था बिखरी हुई थी और उस ने पहले से ही चल रहे मुश्किल वक्त को और कठिन बना दिया. कुछ महीनों बाद उन की एक करीबी दोस्त ने उन्हें फोन किया. वह भी कुछ ऐसी ही स्थिति से गुजर रही थी. उस पल सोनम के लिए सबकुछ बदल गया. उन्हें एहसास हुआ कि अगर लोगों को सही समय पर सही मार्गदर्शन मिले तो जिंदगियां बचाई जा सकती हैं. अच्छे इलाज तक पहुंच एक विशेषाधिकार नहीं  बल्कि हर किसी का हक होना चाहिए और वह इस के लिए कुछ करना चाहती थी.

2015 में सोनम ने इस सोच को हकीकत में बदला और मैडिकल लिंकर्स की नींव रखी. आज भी वे सुनिश्चित करती हैं कि उन के पास आने वाला कोई भी मरीज खुद को खोया हुआ या अकेला न महसूस करे. उन की पहली कौल से ले कर इलाज पूरा होने तक वे मरीजों के साथ रहती हैं. उन की जरूरतों को समझती हैं, हर कदम पर उन का मार्गदर्शन करती हैं और उन्हें सहारा देती हैं.

सोनम को फोर्टिस से बैस्ट इनोवेटर अवार्ड मिला है, बंगलादेश सैंट्रल पुलिस हौस्पिटल से ऐप्रिसिएशन अवार्ड और स्टेलर स्टार अवार्ड फोर्टिस मिला है.

पेश हैं, उन से की गई बातचीत के कुछ अंश:

मैडिकल लिंकर्स के बारे में और बताएं?

मैडिकल लिंकर्स मरीजों के लिए एक जीवनरेखा है. हम लोगों को भारत और विदेश के सब से अच्छे अस्पतालों और डाक्टरों से जोड़ते हैं. यह सुनिश्चित करते हैं कि उन्हें सब से प्रभावी और किफायती इलाज मिले. मगर हम सिर्र्फ यहीं नहीं रुकते. बाकी मैडिकल टूरिज्म प्लेटफौर्म्स से अलग हम व्यक्तिगत रूप से जुड़े रहते हैं. मैं अपने मरीजों की स्थितियां जानती हूं, उन से खुद संपर्क रखती हूं और यह सुनिश्चित करती हूं कि उन्हें वह देखभाल मिले जिस के वे हकदार हैं. हम अपने कई मरीजों के साथ आज भी संपर्क में हैं. हम उन की खैरियत पूछते रहते हैं क्योंकि वे हमारे लिए माने रखते हैं. इलाज के दौरान जो रिश्ता बनता है वह हमारे लिए माने रखता है. हम हर चीज का ध्यान रखते हैं ताकि मरीज और उन के परिवार सिर्फ ठीक होने पर ध्यान दे सकें.

आप का सब से बड़ा सपोर्ट सिस्टम कौन है?

बिना किसी शक के मेरे पति. वे मेरे लिए हर चीज एक आधार हैं और हमेशा मुझे बेहतर करने में मदद करते हैं. जब मैं ने पहली बार अपना खुद का काम शुरू करने की बात की तो मेरे सासससुर इसे ले कर उलझन में थे. वे चाहते थे कि मैं एक सुरक्षित नौकरी करूं. लेकिन मेरे पति ने मुझ पर भरोसा किया. उन्होंने मुझे याद दिलाया कि मेरे सपने माने रखते हैं और मुझे हिम्मत दी कि मैं यह कदम उठाऊं.

उन के अलावा मेरी मां, मेरा भाई और मेरी टीम मेरे साथ हर कदम पर खड़ी रही. इस क्षेत्र में कई लोगों को मेरी काबिलीयत पर शक था क्योंकि यह पुरुषों का दबदबा वाला क्षेत्र है. लेकिन मेरे अपनों का अटूट विश्वास मुझे आगे बढ़ाता रहा. कुछ भी शुरू से बनाना आसान नहीं होता लेकिन एक सहारा देने वाला परिवार सबकुछ संभव कर देता है.

आप के सफर का कोई भावुक करने वाला पल?

मेरे सफर का एक बहुत भावुक पल एक मरीज के लिवर ट्रांसप्लांट के दौरान का है. उस के परिवार ने उसे इलाज के बीच में ही छोड़ दिया था और वह बिलकुल अकेला था. मैं खुद आईसीयू में उस से मिलने जाती थी और हर बार मुझे देख कर उस का चेहरा खिल उठता था. वह कहता कि बाजी आ गई. उस साधारण से अभिवादन में भरोसा और गरमजोशी थी जिस ने मुझे एहसास कराया कि हम मरीजों की जिंदगी में सिर्फ इलाज से कहीं ज्यादा असर डाल सकते हैं.

एक और ऐसा ही पल कोविड-19 महामारी के दौरान आया जब हम एक बहुत नाजुक ट्रांसप्लांट केस को संभाल रहे थे. पति को ट्रांसप्लांट चाहिए था और उन की पत्नी डोनर थीं. वे भारत से नहीं थे तो हमें ढेर सारी मुश्किलों का सामना करना पड़ा जैसे यात्रा प्रतिबंध, औक्सीजन की कमी. लेकिन हम ने सबकुछ संभाला और ट्रांसप्लांट करवाया. लगा कि सब से मुश्किल दौर पार हो गया लेकिन तभी एक दुखद घटना हो गई. डिस्चार्ज के दिन पति को गंभीर इन्फैक्शन हो गया और उन की मृत्यु हो गई.

यह दिल तोड़ने वाला पल था. उन के 5 बच्चे थे और उस दुख के पल में उन के समुदाय के 8-10 लोग मुझ पर और मैडिकल टीम पर इलजाम लगाने लगे. लेकिन उन की पत्नी आगे आईं और बोलीं कि मुझे सोनम पर भरोसा है. मुझे पता है कि उस ने हमारे परिवार के लिए अपना सर्वश्रेष्ठ किया. उन के शब्द मेरे लिए सबकुछ थे. यह उस गहरे भरोसे को दिखाता है जो हम अपने मरीजों और उन के परिवारों के साथ बनाते हैं.

सिर्फ इलाज से आगे बढ़ कर हम ने उस परिवार को उस मुश्किल वक्त में सहारा दिया. हम ने बच्चों की देखभाल की, अंतिम संस्कार का इंतजाम किया और उन के अपने देश वापस जाने की व्यवस्था की. ये पल मुझे याद दिलाते हैं कि स्वास्थ्य सेवा सिर्फ इलाज नहीं बल्कि इंसानियत, करुणा और लोगों के सब से मुश्किल वक्त में उन के साथ खड़े होने के बारे में है.

अपने परिवार के बारे में बताएं?

मेरे पति भी एक उद्यमी हैं और हमारी एक प्यारी बेटी है. वह भारत में सब से कम उम्र की मेन्सा सदस्यों में से एक है. वह अभी स्कूल में है और उस की ऊर्जा, जिज्ञासा और उस का सकारात्मक नजरिया मुझे हर दिन प्रेरित करता है. वह मुझे याद दिलाती है कि मैं यह सब क्यों करती हूं क्योंकि हर मातापिता को अपने बच्चों को स्वस्थ और खुशहाल देखने का हक है.

आप को महिलाओं की सब से बड़ी ताकत क्या लगती है?

महिलाओं की सब से बड़ी ताकत है उन की सहनशक्ति. वे इतने सारे किरदार निभाती हैं जैसे बेटी, पत्नी, मां व पेशेवर और यह सब वे एक अद्भुत ताकत के साथ करती हैं. जब एक महिला कुछ ठान लेती है तो उसे कोई नहीं रोक सकता. मेरे लिए व्यक्तिगत रूप से एक महिला उद्यमी होना आसान नहीं रहा. मेरे सामने सामाजिक अपेक्षाएं, व्यक्तिगत बलिदान, काम, परिवार के बीच संतुलन की चुनौती हमेशा बनी रही. लेकिन मुझे हमेशा यकीन रहा कि हम जो चाहें हासिल कर सकती हैं.

एक महिला को बिजनैस में सफल होने के लिए क्या चाहिए?

आत्मविश्वास, धैर्य और कभी हार न मानने का जज्बा. आप को चुनौतियों का सामना करना पड़ेगा जैसे सामाजिक रूढि़यां, आत्मसंदेह, आर्थिक परेशानियां आएंगी लेकिन जो आगे बढ़ते हैं, हालात के हिसाब से ढलते हैं और सीखते रहते हैं वही कामयाब होते हैं. मैं यह भी कहना चाहूंगी कि एक सहारा देने वाला परिवार बहुत जरूरी है. व्यापार किसी के लिए भी आसान नहीं खासकर महिलाओं के लिए क्योंकि उन्हें हमेशा रूढि़वादी भूमिकाओं में बांधा जाता है.

Manoj Kumar की फिल्म ‘शहीद’ देखकर अनिल शर्मा बचपन में फांसी लगाने को तैयार हो गए थे…

Manoj Kumar : लीजेंड एक्टर मनोज कुमार आज हमारे बीच नहीं रहे, लेकिन उनके चाहने वालों के दिलो में 87 वर्षीय मनोज कुमार हमेशा जिंदा रहेंगे. क्योंकि मनोज कुमार सिर्फ अच्छे एक्टर ही नहीं बल्कि एक बेहतरीन फिल्म मेकर भी थे , मनोज कुमार द्वारा निर्देशित फिल्में उपकार, शोर , रोटी कपड़ा और मकान, क्रांति आदि फिल्मे आज भी याद की जाती है.

फिल्मों में अपना सशक्त योगदान देकर फिल्म इतिहास के पन्नों में मनोज कुमार ने अपना नाम सुनहरे अक्षरों से लिख लिया है यही वजह है कि उनके अनगिनत प्रशंसक हैं जिसमें से एक बौलीवुड के प्रसिद्ध डायरेक्टर अनिल शर्मा है. जो मनोज कुमार को अपना गुरु मानते हैं, अनिल शर्मा के अनुसार बचपन से वह मनोज कुमार की फिल्में देखकर ही बड़े हुए हैं.

अनिल शर्मा मनोज कुमार को लेकर अपनी बचपन की यादें ताजा करते हुए बताते हैं जब मैं छोटा था और मथुरा में रहता था तो वहां पर शहीद फिल्म रिलीज हुई थी वह फिल्म अपने दोस्तों के साथ मैने देखी . उस फिल्म का प्रभाव हम पर इतना ज्यादा पड़ा कि हम बच्चों ने शहिद नाटक करने के बारे में सोचा और इसके लिए हम फांसी पर लटकाने को भी तैयार हो गए और जब हम सच में फांसी पर लटकने के लिए फंदा बनाकर नाटक के समय सही में लटकने वाले ही थे तो हमें कुछ लोगों ने पकड़ लिया और बहुत डाटा. क्योंकि हम जोश जोश में सही में फंदा गले में डालकर फांसी लगाने वाले थे.

बचपन में सिर्फ जोश ही होता है अकल थोड़ी कम होती है. लेकिन फिल्म शहिद का प्रभाव इतना था कि हम कुछ भी करने को तैयार थे. अपने गुरु मनोज साहब की फिल्म देखने के बाद ही मैं मुंबई आया और फिल्म निर्माण करने के बारे में संघर्ष करना शुरू किया. मैं आज जो भी कुछ हूं अपने गुरु मनोज कुमार की वजह से ही हूं मैने उनकी सारी फिल्में देखी हैं . लेकिन उपकार और पूरब पश्चिम ने मुझे बहुत ज्यादा प्रभावित किया इस फिल्म के गाने, जीरो दिया मेरे भारत ने… है प्रीत जहां की रीत सदा,एक एक गाने और एक एक सीन मेरे दिमाग में बैठा हुआ है. आज भले ही वह हमें छोड़ कर चले गए, लेकिन मेरे दिल में वह हमेशा जिंदा रहेंगे.

Salman Khan की फ्लौप फिल्म सिकंदर के ट्रेलर ने 24 घंटे में 81 मिलियन व्यूज बनाकर बनाया नया रिकौर्ड

Salman Khan : कहते हैं हाथी मरने के बाद भी सवा लाख का होता है. ऐसा ही कुछ बौलीवुड के सुपरस्टार कहलाने वाले स्टार एक्टर सलमान खान का भी है. क्योंकि काफी समय से रिलीज होने वाली फिल्म सिकंदर आखिरकार जब ईद पर रिलीज हुई तो फिल्म ने बौक्स औफिस पर पानी भी नहीं मांगा.

ढाई सौ करोड़ के बजट में बनने वाली फिल्म सिकंदर पहले ही हफ्ते में सिनेमाघर से उतरने लगी, बावजूद इसके सलमान की सिकंदर ने अपनी फिल्म के ट्रेलर को लेकर एक नया रिकौर्ड बनाया है जो की फिल्म के निर्माता साजिद नाडियाडवाला ने इंस्टाग्राम स्टोरी पर शेयर करके बताया है.

साजिद के अनुसार फिल्म सिकंदर ने 24 घंटे के अंदर 81 मीलियन फिल्म का ट्रेलर देखने वाले व्यूज बनाकर एक नया रिकॉर्ड बनाया है. इंडिया फौर्म के अनुसार यूट्यूब और सोशल मीडिया पर सलमान खान की फिल्म सिकंदर का ट्रेलर देखने का आंकड़ा सबसे ज्यादा रहा है. जिसके चलते सिकंदर ने पठान को भी ट्रेलर लौन्च व्यूवर्स के मामले में पीछे छोड़ दिया है.

Manoj Kumar Death : फिल्म जगत में शोक की लहर, दिग्गज अभिनेता मनोज कुमार ने दुनिया को कहा अलविदा

Manoj Kumar Death : हिंदी फिल्मों में अपनी बेहतरीन एक्टिंग से पहचान बनाने वाले जाने-माने एक्टर मनोज कुमार अब इस दुनिया में नही रहें.

दुनिया को कहा अलविदा

एक रिपोर्ट के अनुसार तबियत बिगड़ने पर फरवरी से वह कोकिलाबेन धीरूभाई अंबानी अस्पताल में भर्ती थे और इलाज के दौरान उन्होंने 87 साल की उम्र में दुनिया को अलविदा कह दिया. उनके निधन के बाद पूरे फिल्म जगत में शोक की लहर दौड़ गई। वहीं दूसरी ओर फैंस उन्हें नम आंखों से विदाई दे रहे हैं.

खास पहचान 

एक्टर मनोज कुमार ने देशभक्ति फिल्मों के माध्यम से ‘भारत कुमार’ के रूप में खास पहचान बनाई. उनका योगदान न केवल हिंदी सिनेमा को, बल्कि राष्ट्रभक्ति की भावना को भी समर्पित रहा। जब-जब देशभक्ति फिल्मों की बात होगी, मनोज कुमार को याद किया जाएगा.

कार्डियोजेनिक शौक से हुई मौत

एक रिपोर्ट के अनुसार, मनोज कुमार मौत मायोकार्डियल इन्फार्क्शन के कारण हुए कार्डियोजेनिक शॉक से हुई. साथ ही, वे डीकंपेंसेटेड लिवर सिरोसिस जैसी गंभीर बीमारी से भी जूझ रहे थे. उन्हें 21 फरवरी 2025 को अस्पताल में भर्ती कराया गया था.

मनोज कुमार की हिट फिल्म

मनोज कुमार ने 1957 में ‘फैशन’ से अपने करियर की शुरुआत की थी, लेकिन उन्हें पहचान मिली 1960 में आई फिल्म ‘कांच की गुड़िया’ इस फिल्म में उन्होंने बतौर लीड एक्टर काम किया. इसके बाद उन्होंने फिल्म ‘उपकार’, ‘पत्थर के सनम’, ‘रोटी कपड़ा और मकान’, ‘संन्यासी’ और ‘क्रांति’ जैसी कई हिट फिल्में दी. उनकी फिल्मों में देशभक्ति की भावना वाली बात होती थी जो उन्हें एक अलग ही खास पहचान देती थी.

कई अवार्ड से सम्मानित

मनोज कुमार सिर्फ एक बेहतरीन एक्टर ही नहीं, बल्कि एक शानदार निर्देशक भी रह चुके हैं. उन्होंने न सिर्फ दमदार अभिनय किया बल्कि निर्देशन में भी अपने जौहर दिखाए. उन्हें 1992 में राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार पद्म श्री, और 2015 में दादासाहेब फाल्के पुरस्कार से नवाजा जा चुका है

Married Life : पति के कारण परेशान हो गई हूं, मैं क्या करूं?

Married Life : अगर आपकी भी ऐसी ही कोई समस्या है, तो ये लेख अंत तक जरूर पढ़ें…

सवाल-

मैं 24 वर्षीय विवाहिता हूं. मैं अपनी एक बेहद अंतरंग समस्या से परेशान हूं. मैं जब भी सहवास करती हूं मेरे गुप्तांग में जलन और खुजली होती है. कृपया उपचार बताएं?

जवाब-

सब से पहले आप दोनों पतिपत्नी को चाहिए कि अपने यौनांगों की सफाई पर ध्यान दें खासकर सहवासपूर्व. फिर भी समस्या जस की तस रहती है तो किसी यौन विशेषज्ञा से परामर्श लें.

ये भी पढ़ें- 

विवेक कई दिनों से अपनी पत्नी आशु के साथ अंतरंग संबंध बनाना चाह रहा था, पर आशु कोई न कोई बहाना बना कर टाल देती. रोज की नानुकर से तंग आ कर एक दिन आखिर विवेक ने झल्लाते हुए आशु से कहा कि आशु, तुम्हें क्या हो गया है? मैं जब भी तुम्हें प्यार करना चाहूं, तुम कोई न कोई बहाना बना कर टाल देती हो. कम से कम खुल कर तो बताओ कि आखिर बात क्या है?

यह सुन कर आशु रोते हुए बोली कि ये सब करने का उस का मन नहीं करता और वैसे भी बच्चे तो हो ही गए हैं. अब इस सब की क्या जरूरत है?

यह सुन कर विवेक हैरान रह गया कि उस की बीवी की रुचि अंतरंग संबंध में बिलकुल खत्म हो गई है. उस की समझ में नहीं आ रहा था कि ऐसा क्यों हो गया जबकि उस की पत्नी पहले इस सब में बहुत रुचि लेती थी?

यह परेशानी सिर्फ विवेक की ही नहीं है, बल्कि ऐसे बहुत से पति हैं, जो मिडिल ऐज में आने पर या बच्चों के हो जाने पर इस तरह की समस्याओं से जूझते हैं.

कम क्यों हो जाती है दिलचस्पी

सैक्सोलौजिस्ट डा. बीर सिंह का कहना है कि कई बार पतिपत्नी के बीच प्यार में कोई कमी नहीं होती है, फिर भी उन के बीच सैक्स को ले कर समस्या खड़ी हो जाती है. विवाह के शुरू के बरसों में पतिपत्नी के बीच सैक्स संबंधों में जो गरमाहट होती है, वह धीरेधीरे कम हो जाती है. घरेलू जिम्मेदारियां बढ़ने के कारण सैक्स को ले कर उदासीनता आ जाती है. इस की वजह से आपस में दूरी बढ़ने लगती है. इस समस्या से बाहर आने के लिए पतिपत्नी को एकदूसरे से अपने सैक्स अनुभव शेयर

अगर आपकी भी ऐसी ही कोई समस्या है तो हमें इस ईमेल आईडी पर भेजें- submit.rachna@delhipress.biz
 
सब्जेक्ट में लिखे…  गृहशोभा-व्यक्तिगत समस्याएं/ Personal Problem

Latest Hindi Stories : बहुरंगी आस्था

Latest Hindi Stories :  ‘‘ऐ छोकरी… चल, पीछे हट…’’ मंदिर का पुजारी कमली को गणेश की मूर्ति के बहुत करीब देख कर आगबबूला हो उठा. वह अपनी आंखों से अंगारे बरसाते हुए कमली के पास आ गया और चिल्लाते हुए बोला, ‘‘सुनाई नहीं देता… मूर्ति को छू कर गंदा करेगी क्या… चल, पीछे हट…’’

कमली 10 साल की थी. उस समय वह ऊंची जातियों की मेम साहबों की नकल करने के लिए अपनी ही धुन में गणेश की मूर्ति के बिलकुल सामने खड़ी सिद्धि विनायक मंत्र के जाप में मगन थी.

उसे पहली बार ऐसा मौका मिला था, जब वह मंदिर में गणेश चतुर्थी की पूजा के लिए सब से पहले आ कर खड़ी हो गई थी. अभी तक दर्शन के लिए कोई लाइन नहीं लगी थी. मंदिर के अहाते को रस्सियों से घेरा जा रहा था, ताकि औरत और मर्द अलगअलग लाइनों में खड़े हो कर गणेश के दर्शन कर सकें और किसी तरह की कोई भगदड़ न मचे.

कमली पूजा शुरू होने के बहुत पहले ही चली आई थी और चूंकि मंदिर में भीड़ नहीं थी, इसलिए वह बेझिझक गणेश की मूर्ति के बिलकुल ही सामने बने उस ऊंचे चबूतरे पर भी चढ़ गई, जिस पर खड़े हो कर पुजारी सामने लाइन में लगे श्रद्धालुओं का प्रसाद ग्रहण करते हैं और फिर उन में से थोड़ा सा प्रसाद ले कर मूर्ति की ओर चढ़ाते हुए बाकी प्रसाद श्रद्धालुओं को वापस कर देते हैं.

उस ऊंचे चबूतरे पर खड़े रहने का हक केवल और केवल मंदिर के पुजारियों के पास ही था, इसलिए कमली का उस चबूतरे पर खड़े हो कर गणेश की पूजा करना पुजारी को कतई स्वीकार नहीं था. उस ने फिर चिल्ला कर कहा, ‘‘ऐ लड़की… परे हट…’’ इस बार उस ने कमली की बांह पकड़ कर धक्का दे दिया.

अपनी पूजा में अचानक से आई इस बाधा से कमली ठिठक गई. उस ने खुद को गिरने से बचा कर सामने खड़े पुजारी को देखा और फिर हाथ जोड़ कर बोली, ‘‘क्या हुआ पंडितजी, आप मुझे धक्का क्यों दे रहे हैं?’’

‘‘तो क्या मैं तेरी यहां आरती उतारूं…?’’ गुस्से से तमतमाते हुए पुजारी के मुंह से आग के गोले फूट पड़े, ‘‘तेरी हिम्मत कैसे हुई इस चबूतरे पर चढ़ने की… प्रभु की मूर्ति को गंदा कर दिया… चल भाग यहां से…’

कमली को अब भी समझ में नहीं आया कि यह पंडितजी को क्या हो गया… अब तक तो हमेशा उस ने इन से ज्ञान की बातें ही सुनी थीं, लेकिन… आज… उस ने फिर कहा, ‘‘गुस्सा क्यों होते हैं आप? सामने कोई लाइन तो थी नहीं, इसलिए मैं ऊपर चढ़ आई. बस, मंत्र खत्म होने ही वाले हैं,’’ कह कर उस ने फिर आंखें बंद कर लीं और मूर्ति के आगे अपने हाथ जोड़ लिए.

‘यह तो सरासर बेइज्जती है… एक लड़की की इतनी हिम्मत… पहले तो चबूतरे तक चढ़ आई और अब… कहने से भी पीछे नहीं हटती…’ सोच कर पुजारी बौखला गया और बादलों सा गरजा, ‘‘कोई है…’’

देखते ही देखते भगवा कपड़ों में 2 लड़के आ कर पुजारी के पास खड़े हो गए. कमली अब भी रटेरटाए मंत्रों को बोलने में ही मगन थी.

पुजारी ने दोनों लड़कों को इशारे में जाने क्या समझाया, दोनों ने कमली को पीछे धक्का देते हुए चबूतरे से नीचे गिरा दिया और फिर दोनों ओर से कमली को जमीन पर घसीटते हुए मंदिर के बाहर ले कर चले गए.

पुजारी ने अपने हाथ की उंगलियों को देखा और फिर अपनी नाक के पास ले जा कर सूंघते हुए नफरत से बोला, ‘‘इतनी सुबहसुबह फिर से दोबारा नहाना पड़ेगा.’’

मंदिर से जबरदस्ती निकाली गई कमली मंदिर के बाहर जमीन पर ही बैठ कर फफक पड़ी. कितने मन से उस ने रातभर जाग कर मां से कह कर गणेश के लिए लड्डू बनाए थे और फिर आज सुबह ही वह नहाधो कर नई फ्रौक पहने पूजा के लिए दौड़ी चली आई थी.

साथ ही, भाई को भी कह आई थी कि जल्दी से नहाधो कर मां से लड्डू व फलफूल की गठरी लिए मंदिर में चले आना. मां ने बड़ी जतन से घी, आटे का इंतजाम किया था.

कमली का भाई सूरज मंदिर के बाहर आ कर ठिठक गया. कमली धूलमिट्टी में अपने दोनों घुटने मोड़ कर बैठी हुई थी. उस की नई फ्रौक भी तो धूल में गंदी हो गई थी. माथे पर हाथ रख कर बैठी कमली ने सामने अपने भाई को देखा तो मानो उसे आसरा मिला.

‘‘क्या हुआ…’’ सूरज ने झट से गठरी उस के पास ही जमीन पर रख दी और उस के कंधे पर हाथ रख कर पूछा, ‘‘तू तो यहां पूजा करने आई थी… फिर ऐसी हालत कैसे?’’

‘‘वह… पुजारी ने…’’ रोतेरोते कमली की हिचकियां बंध गईं. उस ने वैसे ही रोते हुए सूरज को सारा हाल कह सुनाया.

सबकुछ सुन कर सूरज भी ताव में आ गया और बोला, ‘‘यह पुजारी तो… खुद को भगवान का दूत समझ बैठा है… जो औरत पूरे महल्ले और मंदिर के बाहर की सफाई करती है, उस औरत की बेटी के छूने से मंदिर गंदा हो जाता है… वाह रे पंडित…’’

फिर उस ने कमली को भी फटकारते हुए कहा, ‘‘ऐसे भगवान की पूजा करने के लिए तू इतने दिनों से पगलाई थी, जो मूर्ति बने तेरी बेइज्जती होते देखते रहे… चल उठ यहां से… हमें कोई पूजा नहीं करनी…’’

‘‘लेकिन, ये लड्डू और…’’ कमली को अब अपनी मेहनत का खयाल हो आया. आखिर मां को रातभर जगा कर उस ने गणेश के लिए एक किलो लड्डू बनवाए थे. मेहनत तो थी ही, साथ ही रुपए भी लगे थे… उसे लगा, सबकुछ बरबाद हो गया.

‘‘कमली, मुझे ये लड्डू अब तो खाने को दे दे…’’ सूरज को पूजा से क्या लेनादेना था, वह तो बस अपने लिए ही परेशान था.

‘‘ले, तू सब खा ले…’’ कह कर कमली ने पास रखी पोटली गुस्से से सूरज के आगे कर दी और खुद खड़ी हो कर बोली, ‘‘मेरी तो मेहनत और मां के पैसे दोनों पर पानी फिर गया… बेइज्जती हुई सो अलग…’’ फिर मंदिर की ओर देखते हुए वह सूरज से बोली, ‘‘अब इस मंदिर में मैं कभी पैर न धरूंगी… मां ठीक कहती हैं… बप्पा भी मूर्ति बने सब देखते रहे… मेरा साथ उन्होंने न दिया… वे भी उसी पुजारी और लड़कों से मिले हैं…’’ फिर अपने आंसू पोंछ कर उस ने कहा, ‘‘अगर बप्पा को मेरी जरूरत नहीं है तो मुझे भी उन की जरूरत नहीं है, रह लूंगी मैं उन के बिना…’’ और फिर पैर पटक कर कमली घर की ओर जाने लगी, तो सूरज ने उसे रोकते हुए पूछा, ‘‘इन लड्डुओं का क्या करूं?’’

‘‘जो जी में आए… फेंक दे… जो मन करे वह कर…’’

‘‘गणेश को चढ़वा दूं…’’ सूरज ने अपना सिर खुजाते हुए पूछा.

‘‘बप्पा को… मगर, कैसे… इतनी बेइज्जती के बाद मैं तो अंदर न जाऊंगी और न तुझे जाने दूंगी… फिर कैसे…?’’

‘‘पुजारी ने तुझे गंदा कहा है न… अब यही तेरे हाथ के बने लड्डुओं को वह छुएगा और गणेश को चढ़ाएगा भी…’

‘‘मगर, कैसे…?’’

‘‘बस तू देखती जा…’’ कह कर सूरज मंदिर से थोड़ा आगे बढ़ कर एक ढाबे पर गया और वहां से मिट्टी के कुछ बरतन मांग लाया. फिर उस ने मंदिर के पास लगे नल से सभी बरतनों को धोया और फिर एक साफ पक्की जगह पर गठरी और बरतन ले कर जा बैठा.

मंदिर के बाहर अब श्रद्धालुओं की भीड़ बढ़ने लगी थी. सूरज ने गठरी खोल दी और आनेजाने वाले लोगों को देख कर आवाज लगाने लगा, ‘‘बप्पा के लिए घी के लड्डू… फलफूल समेत केवल 21 रुपए में.’’

और फिर क्या था, देखते ही देखते कमली के हाथ के बने लड्डू, फलफूल समेत एक श्रद्धालु और पुजारी के हाथों से होते हुए गणेश की मूर्ति को चढ़ गए. सूरज ने रुपयों का हिसाब किया, लागत से ज्यादा मुनाफा हुआ था.

सूरज ने सारे रुपए कमली के हाथ पर धर दिए और कहा, ‘‘ले… तेरी बेइज्जती का बदला पूरा हो गया. जिस के हाथ के छूने से गणेश मैले हुए जा रहे थे, उसी हाथ के बने लड्डुओं से वे पटे हुए हैं और वह पुजारी… आज तो वह न जाने कितनी बार मैला हुआ होगा…’’

सूरज की बात सुन कर कमली हंस दी और बोली, ‘‘कितनी बेवकूफ थी मैं, जो कितने दिनों से पैसे जमा कर के इन की पूजा करने का जुगाड़ कर रही थी. यही अक्ल पहले आई होती तो अब तक कितने पैसे बच गए होते…’’ फिर कुछ सोच कर वह बोली, ‘‘गणेश चतुर्थी का यह उत्सव तो अभी 3-4 दिन तक चलना है… क्या ऐसा नहीं हो सकता कि बप्पा पर रोज मेरे ही हाथों का प्रसाद चढ़े…’’

‘‘क्यों नहीं हो सकता… यहां बेवकूफों की कोई कमी है क्या…’’ फिर कुछ रुक कर सूरज ने आगे कहा, ‘‘तू एक काम कर, घर चली जा… कुछ देर आराम कर ले… मैं लाला से जा कर बेसन, घी, चीनी वगैरह ले आता हूं. कल फिर हम यहीं लड्डू बेचेंगे…’’

उधर मंदिर के अंदर पुजारी अपने साथ के लोगों को बताते नहीं थक रहा था कि कैसे आज एक अछूत लड़की के मलिन स्पर्श से उस ने अपने प्रभु को बचाया. और गणेशजी, उन्हें इस फलफूल, मानअपमान, स्पर्शअस्पर्श से कहां कुछ फर्क पड़ने वाला था. वे अब भी पहले के समान ही जड़ थे.

राइटर – एकता बृजेश गिरि

Hindi Moral Tales : चरित्रहीन नहीं हूं मैं – क्यों मीनू पर लगा इल्जाम

Hindi Moral Tales :  सुबह के 7 बजे थे, पर उठने का मन नहीं कर रहा था. ज्यों ही विकास ने करवट बदली तभी पत्नी मीनू बोल उठी  “उठ जाइए, कब तक ऐसे लेटे रहेंगे.”

यह सुन कर गुड मॉर्निंग कहता हुआ विकास मुस्कराहट बिखेरते हुए बोला, ” यार मीनू, अब तो अच्छी तरह सो लेने दो. कहीं जाना थोड़े ही न है. ऑफिस बंद है. घर में भी बंद हैं. तुम घर से बाहर निकलने दे नहीं रही हो. बताओ, क्या करूं मैं?”

“करोगे क्या, पहले फ्रेश हो जाओ. चाय पी लो. उस के बाद थोड़ा साफसफाई कर दो, कुछ नहीं है तो छत पर ही टहल लो,” मीनू ने अपनी बात रखी और सलाह देते हुए कहा कि सुबह समय पर उठने से पूरे दिन  एनर्जी बनी रहती है.

पति विकास बोला, “एनर्जी तो तुम ही लो, मुझे बख्शो. साफसफाई तो हो रखी है. फिर क्या जबरदस्ती साफसफाई करूं?”

इस पर मीनू तुनकते हुए बोली,”अच्छा आया कोरोना…? इस ने तो घर में ही कुहराम मचा रखा है.”

“क्या कुहराम…?” पति झल्लाहट भरी आवाज में बोला.

“सुबहसुबह झल्लाने की जरूरत नहीं है, ” मीनू भी अपने तेवर दिखाते हुए बोली तो विकास नरम पड़ गया.

जैसे ही विकास फ्रेश हो कर आया, मीनू से गरमागरम चाय की मांग कर डाली. इस पर मीनू बोली, “जितना यह घर मेरा है उतना ही तुम्हारा भी है. क्या ऐसा नहीं हो सकता कि आज चाय तुम बनाओ और मैं भी तुम्हारे साथ छुट्टियों का मजा लूं.”

यह सुन कर विकास के ऊपर घड़ों पानी पड़ गया. वह नरमी से बोला,”यदि ऐसी बात है तो आज तो बना देता हूं, पर हर रोज नहीं.”

“हर रोज की कह कौन रहा है,” मीनू भी नहले पर दहला मारते हुए बोली.

विकास किचन में चाय बनाने चला गया, पर न चीनी का पता था और न चाय की पत्ती का. जब पानी उबल गया तो किचन से ही आवाज लगाई,”मीनू, ओ मीनू, चाय की पत्ती कहां है?”

अब तो मीनू को भी बिस्तर से उठ कर किचन तक आना पड़ा. वह मुस्कराते हुए बोली,”रहने दो आप…? मैं बनाती है

चाय की महक से विकास के चेहरे पर मुस्कान तैर गई.

घर में टेलीविजन खोल कर देखा तो वहां भी कोरोना… कोरोना… को ले कर ही खबरें आ रही थीं.

ऐसी खबरें सुन विकास गुमसुम सा रहने लगा था, वहीं शराब की तलब भी उसे बेचैन कर रही थी.

अनजान बनते हुए मीनू बारबार हाल पूछती, पर वह टाल देता क्योंकि जब से लॉकडाउन हुआ है तब से उसे पीने को शराब नहीं मिल रही थी और न ही वे दोस्त मिल पा रहे थे जो शराब पीने के तलबगार थे.

दिन यों ही गुजरते जा रहे थे. शराब न पीने से विकास की बेचैनी बढ़ती जा रही थी.

तभी दरवाजे पर किसी की दस्तक हुई. कालबेल बजी. विकास ने उठ कर दरवाजा खोला. सामने उस का पड़ोसी राकेश खड़ा था.

कमरे में आते ही राकेश ने विकास की चालढाल देख कर पूछ लिया तो पता चला कि शराब न मिलने से तबीयत खराब हो रही है.

मीनू राकेश के लिए चाय बना कर लाई, तभी उस की नजर विकास की खूबसूरत पत्नी मीनू पर पड़ी. वह मन ही मन उस को पाने के ख्वाब देखने लगा.

राकेश और विकास ने चाय ली. कुछ देर इधरउधर की बात करने के बाद राकेश वहां से चला गया.

अगले दिन राकेश ने विकास को फोन किया और पूछ बैठा,”आज शाम क्या कर रहा है? क्या आज छत पर आ सकता है, कुछ प्रोग्राम करते हैं.”

विकास बोला,”चल ठीक है, पर किसी को बताना नहीं.”

राकेश भी मजाक करते हुए बोला,” भाभी को भी नहीं?”

“नहीं, नहीं, उसे भी नहीं,” विकास ने जवाब दिया.

“चल ठीक है, फिर शाम को मिलते हैं,” इतना कहने के बाद राकेश ने फोन काट दिया.

शाम को राकेश किसी जरूरी काम में फंस गया और छत पर नहीं पहुंचा. न ही विकास को खबर दी.

शाम को विकास छत पर आ गया. काफी देर राकेश का इंतजार भी किया, पर वह नहीं आया तो उस ने कई बार राकेश को फोन लगाए, पर उस ने उठाया ही नहीं. मन मार कर वह नीचे उतर आया.

रात में विकास की तबीयत बिगड़ने लगी. वह बारबार राकेश से बात करने की कह रहा था. मीनू ने रात में ही राकेश को फोन किया.

फोन सुन कर राकेश तभी शराब ले कर वहां पहुंच गया. राकेश को आया देख विकास खुश हो गया.

2 घूंट गले के नीचे उतरते ही विकास की बेचैनी कम हो गई, पर राकेश के ज्यादा जोर देने पर विकास ने उस रात जम कर शराब पी. कुछ देर बाद विकास बेसुध हो गया.

जब विकास को होश न रहा, तब मौका देख कर राकेश मीनू के पास आया और उसे अपनी बांहों में जकड़ लिया और मनमानी कर के छोड़ा.

फिर चुपचाप मुंहअंधेरे अपने घर चला गया.

अब जब भी विकास को शराब पीने की तलब लगती, राकेश को फोन कर देता. राकेश शराब ले कर आ जाता और दोनों ही मिल कर पीते.

विकास तो पी कर नशे में धुत्त हो जाता, वहीं राकेश लिमिट में ही पीता और मीनू से अपनी जिस्मानी भूख शांत करता.

पर, एक दिन तो हद हो गई. मीनू और विकास के बीच जबरदस्त झगड़ा हुआ. झगड़े की वजह राकेश ही था, क्योंकि वह हर दूसरेतीसरे दिन घर पर आ धमकता था और मीनू पर संबंध बनाने के लिए जोर डालता, इस से मीनू उकता चुकी थी.

राकेश का शराब ले कर इस तरह आना मीनू को बिलकुल भी पसंद नहीं था. मीनू नहीं चाहती थी कि राकेश घर आए, पर विकास चाहता था.

इस बात को ले कर मीनू और विकास  में जम कर झगड़ा भी हुआ. मीनू अब राकेश के सामने भी झगड़ने लगी थी.

एक दिन राकेश शराब लाया. नशे में धुत्त होने के बाद राकेश ने विकास को मीनू और अपने संबंध के बारे में बता दिया.

यह सुन कर विकास के पैरों तले जमीन खिसक गई. कभी वह मीनू की ओर देखता तो कभी राकेश की ओर. मीनू भी चुपचाप राकेश की बातें सुन रही थी. पर कुछ बोल नहीं पाई.

राकेश के सामने ही विकास ने मीनू की जम कर पिटाई की.

मौका देख राकेश ने वहां से जाने में ही अपनी भलाई समझी.

उस के जाते ही मीनू और विकास में फिर जम कर झगड़ा हुआ. विकास ने मीनू को चरित्रहीन कहा तो मीनू यह सुनते ही बिफर गई और चिल्ला कर बोली,” चरित्रहीन नहीं हूं मैं, चरित्रहीन तो तुम हो, जो लॉकडाउन में भी गलत तरीके से शराब मंगवा कर पी रहे हो. मैं तो सिर्फ तुम्हारे द्वारा किए गए नाजायज सौदे की नाजायज कीमत अदा कर रही हूं.”

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