Serial Story: हमारे यहां ऐसा नहीं होता (भाग-3)

2 दिन बाद ही अचानक सुबह उठते ही धारा तैयार होने लगी. सुधा चौंकी, ‘‘कहां जा रही हो?‘‘

‘‘मम्मी की तबीयत खराब है. कार ले कर जा रही हूं, जरूरत होगी तो उन्हें डाक्टर को दिखा दूंगी, 1-2 कपडे़ भी ले जा रही हूं. मैं शायद वहां रुक जाऊं 2-4 दिन.’’

‘‘अरे, तुम ने पूछा भी नहीं. सीधे बता रही हो. हमारे यहां ऐसा नहीं होता कि बहू सीधे तैयार हो कर चल दे, और किसी से पूछे भी न.‘‘

‘‘आप आज देर से उठीं, तब तक मैं ने नाश्ता भी बना दिया और फिर तैयार हो गई. और अपने ही घर जाने की परमिशन क्या लेना, मां, मैं ने नई जिम्मेदारियां ली हैं और निभाना भी जानती हूं, मैं जब यहां आऊंगी तब भी मुझे अपनी मम्मी से परमिशन नहीं लेनी होगी. मेरे लिए दोनों घर बराबर हैं, यह आप स्वीकार करें, प्लीज.‘‘

धारा अपनी मम्मी की हेल्थ की चिंता करते हुए कार ले कर चली गई. सुधा ने कहा, ‘‘आजकल की बहुओं के ढंग… वाह, जबान तो ऐसे चलती है कि पूछो मत. एक हम थे कि ससुराल में मुंह नहीं खोला.‘‘

विनय ने जोर से हंसते हुए कहा, ‘‘देखो, झूठ मत बोलो, अम्मां और जीजी को तुम पानी पीपी कर मेरे सामने कोसती थी कि कहां फंस गई, हमारे तो करम ही फूट गए. मुझे याद मत दिलाओ कि तुम कैसे टपरटपर शिकायत करती थी सब की.‘‘

अजय ने जोर का ठहाका लगाते हुए कहा,‘‘पापा, कम से कम मेरी पत्नी पीछे से तो मेरे कान नहीं खाती, जो भी कहना होता है, सीधे मां से ही कह लेती है.‘‘

‘‘देख रही हूं, जोरू के गुलाम बन कर रहोगे तुम, पर हमारे यहां जो होता आया है, उस का पालन क्या उसे नहीं करना चाहिए?‘‘

‘‘देखो सुधा, वह आज की समझदार, मेहनती लड़की है, उसे तुम इतना दबा कर रखने के बजाय उस की बातों को, उस के तर्कों को ध्यान से सुनोगी तो समझ जाओगी कि वह कितनी समझदार है. तुम ने देखा था न, कितनी बिजी थी वह कल अपनी मीटिंग में, तो भी फोन पर बात करते हुए तुम्हें एक किलो भिंडी काट कर दे दी कि तुम इतनी देर किचन में न खड़ी रहो, जरा सा उठती है, कितने कामों को यों ही निबटा देती है, उस के गुण देखो, मन खुश होगा. जरूरी नहीं कि आज तक जो घर में होता आया है, कोई बोला नहीं, चुप रहा तो वह ठीक ही था.‘‘

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धारा ने फोन कर बताया कि उस ने अपनी मां को डाक्टर को दिखा दिया है. दवाओं से आराम होते ही वह हाउस हेल्प को सब समझा कर आ जाएगी.

2 दिन बाद धारा लौट भी आई. सब अपनेअपने रूटीन में व्यस्त हो गए.

घर में एक दिन सब डिनर करते हुए टीवी देख रहे थे. सुधा सरकार की अंधभक्त थी, यह बिहार में चुनाव की रैलियों का समय था, विपक्ष की रैलियों में जबरदस्त भीड़ की तसवीरें देखते हुए सुधा बोली, ‘‘ये देखो, ये मरवाएंगे सब को, कोरोना काल में बिना मास्क के इतनी भीड़…‘‘

धारा जोर से हंसी, ‘‘मां, आप को बस ये भीड़ दिख रही है, और कहीं भीड़ नहीं दिख रही? क्या मां… आप तो बहुत ही एक तरफ हो कर सोचती हैं. न हमें सरकार घर आ कर कुछ दे रही है, न विपक्ष, पर सही प्वाइंट तो होना चाहिए.

‘‘मां, आंखों पर पट्टी बांध कर सरकार की सब बातों को सही और विपक्ष की हर बात को गलत नहीं ठहराना चाहिए, वैसे भी इस सरकार ने तो दिलों में जो मजहबी दीवारें खड़ी कर दीं, मैं चाह कर भी आप की किसी बात में हां में हां नहीं मिला पाऊंगी.‘‘

‘‘धारा, तुम बहस बहुत करती हो. हमारे यहां कोई बहू कभी ऐसे बड़ों की बात नहीं काटा करती, कभी तो चुपचाप सुन लिया करो.‘‘

‘‘मां, मैं तो अपने मन की बात कहती हूं, जैसे आप ने अपने विचार रखे, मैं ने भी रख दिए.‘‘

कुछ दिन और बीते, सुधा किसी भी तरह अपनी सोचों से, अपने बनाए नियमों से बाहर जा कर जीने के लिए तैयार नहीं थी, उन का साफसाफ कहना था कि बहू जब घर में आती है तो उसे ससुराल के ही तौरतरीके मानने चाहिए, उस की अपनी लाइफ शादी से पहले तक ही होती है, कोई भी सब्जी बनानी होती, सुधा जैसे कहती, वह वैसी ही बननी होती, कोई त्योहार जैसे मनता आया था, वैसा ही मनना चाहिए, उन की नजरों में बहू का अपना अस्तित्व होता ही नहीं. वे कहतीं, ‘‘लड़कियों को पानी की तरह होना चाहिए, जिस में मिला दो, वैसी ही हो जाएं.‘‘

धारा बड़ों का सम्मान करती, औफिस और घर के प्रति अपनी जिम्मेदारी समझने वाली आज की मौडर्न लड़की थी. उस की हर बात में लौजिक होता. वह हर बात बड़ी सोचसमझ कर बोलती और अपना पक्ष पूरी ईमानदारी से रखती.
विनय और अजय उस के व्यक्तित्व से प्रभावित थे. विजय और आरती फोन पर संपर्क में रहते.

शाम को धारा सैर करने जाती, जहां उस की कुछ अच्छी फ्रैंड्स बन गई थीं, सब मिल कर थोड़ी देर बैठ कर बातें करतीं, फिर अपनेअपने घर लौट आतीं.

एक दिन पड़ोस की नेहा ने कहा, ‘‘इतने दिन कोरोना के चक्कर में सब घर में बंद रह गए, मन बुरी तरह ऊब गया, अगर हम पांचों तैयार हों, तो एक छोटी सी आउटिंग कर लें क्या?‘’

धारा ने कहा, ‘‘गुड आइडिया, मैं तैयार हूं.‘‘

कविता ने कहा, ‘‘मेरी सास जरूर अड़ंगा लगाएंगी, कोरोना के चक्कर में न खुद निकल रही हैं, न कहीं जाने दे रही हैं. बस, किसी तरह सैर पर आ जाती हूं.‘‘

धारा हंसी, ‘‘तो एक काम करते हैं, अपनीअपनी सासू मां को भी ले चलते हैं.‘‘

‘‘दिमाग खराब हो गया है क्या तुम्हारा? पिकनिक में भी सासू मां? ओह नो…‘‘

धारा ने कहा, ‘‘देखो, पतियों के साथ तो जाना नहीं है न?‘‘

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सब ने एकसाथ कहा, ‘‘नहीं, उन से ही तो ब्रेक लेना है, रातदिन झेल गए यार, थोड़ा हमें भी टाइम चाहिए.‘‘

‘‘यहां ताज होटल में एक पैकेज चल रहा है. मैं ने इंटरनेट पर यों ही चैक किया था. घर से लंच कर के निकलो, वहां डिनर और ब्रेकफास्ट कौम्प्लीमेंट्री हैं. जबरदस्त सेफ्टी मेजर्स, एक रात के रेट बहुत अच्छे हैं आजकल, स्टेकेशन का कौंसेप्ट हैं ये, कहीं और तो जा नहीं पाएंगे, थोड़ा चेंज हो जाएगा, रात में सब एक रूम में बैठ कर ताश खेलेंगे या कोई और गेम. बोलो दोस्तो, हो जाए…? सासू मांएं तैयार हुईं तो ठीक है, वरना हम चलते हैं.‘‘

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Serial Story: हमारे यहां ऐसा नहीं होता (भाग-4)

तय हुआ, सब अपने घर जल्दी ही इस पर बात कर लेंगी. धारा ने जब यह प्रोग्राम अकेले में अजय को बताया, तो वह खिलखिला कर हंसा, बोला, ‘‘अच्छा, तुम्हें मुझ से ब्रेक चाहिए?’’

‘‘नहीं, बस यों ही रूटीन से ब्रेक चाहिए, दोस्तों के साथ, एक बार दोस्तों के साथ हो आऊं, फिर हम चारों चलेंगे, सोच रही हूं, मां को ले जाऊं.‘‘

‘‘डार्लिंग, फिर तो तुम जा चुकीं,‘‘ अजय हंसा. सुनते ही सुधा ने कहा, ‘‘हमारे यहां ऐसा नहीं होता, धारा, कि घर के पुरुष घर में बैठे हों और औरतें होटलों में घूमती फिरें.‘‘

पर विनय को लग रहा था कि अगर सुधा थोड़ा बाहर निकलेगी और धारा के साथ अकेले में समय बिताएगी, तो दोनों की बौंडिंग बहुत अच्छी हो सकती है. किसी भी तरह से उन्होंने सुधा से हां करवा ही ली.

कविता और नेहा की सासें भी थोड़ा नखरा दिखाने के बाद तैयार हो ही गईं. सीमा और नीता को घर से परमिशन नहीं मिली.

धारा ने अपनी मम्मी से चलने के लिए पूछा, तो उन्होंने खुशीखुशी हां कर दी और वे भी अपनी बैस्ट फ्रैंड रेखा के साथ चलने को तैयार हो गईं. रात को अकेले में अजय ने पूछा, ‘‘डार्लिंग, मेरे बिना जाओगी?‘‘

‘‘तुम्हें अपने मन की बात बताती हूं, अजय, मुझे मां से कोई शिकायत नहीं, जबकि वे हर समय यही कहती हैं कि हमारे यहां ऐसा नहीं होता, वे मुझे मेरे मन की एक बात भी नहीं करने देती, मैं उन्हें गलत नहीं ठहराती. उन्होंने इस घर के सिवा, परंपराओं और अपने संस्कारों से आगे दुनिया देखी ही नहीं. जो चलता आ रहा है, उन्होंने उसी को सही मान लिया है.

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“मैं चाहती हूं कि वे कुछ अलग तरह से दुनिया को देखें और समझें, बातबात में उन्हें उलटा जवाब मैं देना नहीं चाहती. मैं उन की सोच किसी और तरह से बदलने की कोशिश करूंगी. उन्हें बाहर की दुनिया से अपने साथ घुमा कर मिलवाऊंगी, एक औरत अपनी लाइफ को भी कुछ आजादी से जी सकती है. उन्होंने देखा ही नहीं, इस घर की चारदीवारी में रहरह कर उन की सोच कैसे बदलेगी?”

धारा की बात सुन कर अजय ने बांहों में भर कर उस पर चुंबनों की बौछार कर दी. कहा, ‘‘प्राउड औफ यू, डिअर.‘‘ धारा भी उस की बांहों में सिमटती चली गई.

कविता और नेहा के साथ धारा ने प्रोग्राम फाइनल कर लिया और ताज होटल में चार डबल रूम बुक करवा ही लिए.

सुधा थोड़ी टेंशन में थीं. ऐसा तो कभी नहीं हुआ था कि वे पति के बिना कभी इस तरह गई हों, उन्हें रहरह कर धारा पर गुस्सा आ रहा था. साथ ही, पति और बेटे पर भी कि घर में कब इस तरह हुआ है कि औरतें अकेली बाहर घूम रही हों. वे तो मुंबई में रहने के बाद भी कभी अकेली घर से निकली नहीं थीं. शनिवार को लंच कर के धारा और सुधा ने अपने छोटेछोटे बैग पैक किए. धारा ने कहा, ‘‘जो खाना बचा है, आप लोगों के लिए डिनर हो जाएगा. अजय, तुम कल कुछ बना लेना. हम दोपहर तक तो आ ही जाएंगे.‘‘

सुधा ने पति और बेटे के मुसकराते चेहरों पर नजर डाली, तो उन्हें और गुस्सा आया. धारा ने कार निकाली. वह रास्ते से अपनी मम्मी और रेखा आंटी को लेने वाली थी. कविता और नेहा की सासें मंजू और गीता लाइफ को खुल कर जीने वाली जिंदादिल औरतें थीं, जिन की सुधा से अच्छी जानपहचान भी थी.

कविता अपनी कार ले जा रही थी. नेहा को ड्राइविंग नहीं आती थी. आठों लोग आगेपीछे ताज होटल पहुंचे. सुधा माया और रेखा से अच्छी तरह ही मिलीं. माया का नेचर बहुत दोस्ताना था, सब सामान अच्छी तरह सैनेटाइज करने के बाद सब की एंट्री हुई. कदमकदम पर सेफ्टी का ध्यान रखा गया था. लिफ्ट में भी तीनतीन जनों के ही खड़े होने की जगह गोल घेरा था.

सुधा को लग रहा था, जैसे वे किसी जादुई दुनिया में हैं. किसी फाइवस्टार होटल में उन्होंने पहली बार कदम रखा था और अब तो मुंबई में आठ महीने बाद घर से निकलना हुआ था, जैसे उन्होंने खुली हवा में पहली बार सांस ली हो, फाइवस्टार के वैभव पर उन की आंखें चकाचौंध से भरी थीं. एकएक चीज देखने में मगन सुधा को देख कर धारा को अच्छा लगा. वह उन के लगातार टोकते रहने पर भी कभी उन से नाराज नहीं हुई थी. वह जानती थी कि सुधा को कभी कोई एक्सपोजर मिला ही नहीं, हमेशा घर की चारदीवारी में रहने वाली सास की संकुचित सोच को समझती थी. उन्होंने यही सीखा था कि शादी के बाद अपनी लाइफ होनी ही नहीं चाहिए, इसलिए उसे टोकती थीं.

फ्रेश होने के बाद सब धारा के रूम में ही आ गए. वहां रखी इलैक्ट्रिकल केतली में धारा ने चाय बनाई. किसी को उस में मजा तो नहीं आया, पर सब ने गप्पों में पी ही ली. उस के बाद शुरू हुआ, हंसीठहाकों, एक से बढ़ कर एक जोक्स का दौर.

सुधा हैरान थी कि कैसे सब की सब पति और बच्चों के बिना इतनी खुश हो रही हैं, पति पर इतने जोक्स मारे गए, लौकडाउन में पति की आदतों का इतना मजाक उड़ाया गया कि एक बार तो सुधा भी खिलखिला कर हंस पड़ी और एक बार क्या हंसी, फिर तो उन की हंसी थमने का नाम ही नहीं ले रही थी.

धारा ने चुपके से उन के हंसने का एक प्यारा सा वीडियो बना कर अजय को व्हाट्सएप पर भेज दिया. उस का मैसेज आया, “क्या अब हमारे यहां ऐसा होगा, मेरी मां को बिगाड़ मत देना तुम.‘‘

धारा ने हार्ट की इमोजी भेज दी थी, फिर अंत्याक्षरी खेली गई. डिनर के लिए खूब अच्छी तरह से तैयार हो कर सब ताज के रेस्तरां शामियाना गए, जहां सब का टैम्प्रेचर चेक करने के बाद एंट्री की गई. चांदी की थाली में बढ़िया डिनर कर के सब ताज का एकएक कोना देखने लगीं, फिर थोड़ी देर के लिए होटल से बाहर टहलने निकल गईं. सामने गेट वे औफ इंडिया पर घूमते हुए कई फोटो लिए गए.

सुधा के लिए यह सब एक सपने जैसा था. उन्हें अपने जीवन का यह नियम याद ही नहीं आया कि उन के यहां की औरतें कभी अकेले बाहर नहीं जातीं. उन्होंने सब अपनी हमउम्रों को देखा तो यही सोचा कि इन सब को ऐसे जीना आता है. उस ने यह सब कभी सोचा भी क्यों नहीं, आज उन्हें अपने ऊपर पहली बार गुस्सा आया.

रात को सब ने ताश खेले. सुधा को ताश खेलना नहीं आता था, पर वे सब को देखती रहीं. धारा ने जब कहा, ‘‘मां, मेरे पास आ कर बैठो, मैं आप को सिखाती भी जाऊंगी,‘‘ सुधा कहने को हुई, ‘‘हमारे यहां औरतें ताश…’’

पर, उन्होंने मन ही मन खुद को तुरंत लताड़ा और धारा के पास बैठ कर सीखने लगीं. अगली सुबह सब ने साथ में ब्रेकफास्ट किया, लजीज व्यंजन, बेहतरीन माहौल, एक पुलक से भरता रहा सब का मन. सब ने चेकआउट 11 बजे किया और इस ट्रिप को 10 में से 10 नंबर देते हुए घर आ गए.

माया और रेखा को धारा घर छोड़ने गई, तो माया दोनों को एक कप कौफी के लिए रोकने लगी, तो धारा ने कहा, ‘‘नहीं मम्मी, फिर आ जाएंगे. अभी पापा और अजय के लिए जा कर अच्छा सा लंच बनाऊंगी,‘‘ कहते हुए धारा के चेहरे पर जो मुसकान थी, सुधा को पहली बार उस पर इतना प्यार आया. धारा ने रास्ते में पूछा, ‘‘मां, मजा आया? सच बताना.‘‘

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‘‘हां बेटा, बहुत अच्छा लगा.‘‘

‘‘फिर आओगी कभी ऐसे फ्रैंड्स के साथ?‘‘

‘‘हां, जरूर.‘‘

धारा ने छेड़ा, ‘‘पर मां, हमारे यहां तो ऐसा…’’

यह सुुनते ही सुधा जोर से हंसी, ‘‘चुप रहो.‘‘

कार में अच्छे म्यूजिक के साथ सासबहू का जोर का ठहाका भी गूंज उठा.

देहमुक्ति: जब मेरे भाई ने दी मौसी को वेश्या की संज्ञा  

सुबह टीवी औन कर न्यूज चैनल लगाया तो रिपोर्टर को यह कहते सुन कर कि अपने शोषण के लिए औरतें स्वयं दोषी हैं, मन गुस्से से भर गया. फिर खिन्न मन से टीवी बंद कर दिया. सोचने लगी कि हर समय दोषी औरत की क्यों? आजकल जो भी घटित हो रहा है वह क्या कुछ नया है? न तो बाबा नए हैं न ही आश्रम रातोंरात बन गए. फिर अशांत मन से उठ कर चाय बनाने रसोईघर में घुस गई. पर मन था कि गति पकड़ बैठा और न जाने कब की भूलीबिसरी यादें ताजा हो गईं, फिर सारा दिन मन उन यादों के इर्दगिर्द घूमता रहा. बहुत कोशिश की इन यादों से बाहर आने की पर मन न जाने किस धातु का बना है? लाख साधो, सधता ही नहीं.

कभी लगता है कि नहीं हमारा मन हमारे कहने में है. लेकिन फिर छिटक कर दूर जा बैठता है. जीवन के घेरे में न जाने कितनी बार मन को परे धकेल देते हैं. पर आज तो जैसे इस मन का ही साम्राज्य था.

आज न जाने क्यों मौसी बहुत याद आ रही थीं. हम बच्चे इतना कुछ समझते नहीं थे. कमला मौसी आतीं तो बहुत खुश हो जाते. वे मां की बड़ी बहन थीं. लेकिन मां और मौसी बातें करतीं तो हमें वहां से हटा देती थीं. कहती थीं, ‘‘जाओ बच्चो अपना खेल खेलो.’’

उन की आधीअधूरी बातें कानों में जाती, तो भी पल्ले नहीं पड़ती थीं. बस जो भी समझ में आता था वह यह था कि मौसी बालविधवा है. शायद उस समय हमें विधवा का अर्थ भी ठीक से नहीं पता था. थोड़ा बड़ा होने पर जब मां से पूछा कि मौसी बालविधवा क्यों हैं, तो मां ने बस इतना ही कहा कि मौसाजी, मौसी को बहुत छोटी उम्र में छोड़ कर, परलोक सिंधार गए थे और फिर कभी कुछ पूछने की जरूरत ही नहीं पड़ी, क्योंकि वक्त के साथसाथ हम भी बड़े होते चले गए.

मौसी की शादी एक अच्छे घराने में हुई थी. काफी धनदौलत थी. पर मौसाजी का स्वास्थ्य ठीक नहीं रहता था. वे अपने मांबाप के अकेले बेटे और मौसी से उम्र में काफी बड़े थे. उन के स्वास्थ्य की सलामती के लिए घर में पूजापाठ चलते रहते. वृंदावन से एक गुरुजी का भी आनाजाना था. वे कुछ दिन वहीं रुकते और सब सदस्य उन के आदेशों का पालन करते. गुरुजी को भगवान जैसा पूजा जाता था. उन के आदेश को सब पत्थर की लकीर मानते थे.

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मौसी से जो भी कार्य मौसाजी के स्वास्थ्य के लिए करने को कहा जाता, मौसी पूरे यत्न से करतीं. मुझे याद है एक बार गुरुजी ने कड़ाके की सर्दी में उन्हें रात में मिट्टी की 1001 गौरी की पिंडलियां बनाने के लिए कहा तो इतनी छोटी उम्र में भी मौसी ने नानुकुर किए बिना बना दीं. लेकिन होनी को कुछ और ही मंजूर था. उन के रत्न भी मौसाजी को नहीं बचा पाए.

किसी ने कहा कि बहुत छोटी है, दूसरा विवाह करा दो, तो किसी ने सती होने की सलाह दी. पर ऐसा कुछ नहीं हुआ.

गुरुजी ने कहा कि इसे भगवान की सेवा में लगा दो. सब को वही सही लगा.

एक यक्ष प्रश्न यह भी था कि संतान न होने की वजह से इतनी बड़ी जायदाद को कौन संभालेगा? परिवार वालों ने रिश्तेदारी में से ही एक लड़का गोद ले लिया और अपने कर्तव्यों की इतिश्री कर ससुराल वाले मौसी की तरफ से उदासीन हो गए. घर को वारिस की जरूरत थी. यह जरूरत पूरी होते ही मौसी की हैसियत नौकरानी से कुछ ही ज्यादा रही. फिर भी उन्होंने कुछ नहीं कहा. वे सिर्फ शांतिपूर्वक रहना चाहती थीं.

दिन बीतते चले गए और लोगों का व्यवहार मौसी से बदलता चला गया. एक दिन वृंदावन से गुरुजी ने संदेश भिजवाया कि बहू को गुरुसेवा के लिए वृंदावन भेज दो, पुण्य मिलेगा.

घर के सभी सदस्यों ने बिना सोचविचार किए उन्हें वृंदावन भेज दिया. हमेशा की तरह मौसी ने भी बिना कुछ कहे बड़ों की आज्ञा का पालन किया. वैसे भी एक हकीकत यह भी है कि आज भी बहुत सी विधवाओं को वृंदावन में भीख मांगते देखा जा सकता है. पर मौसी को एक आश्रम में आश्रय मिल गया. अब मौसी कुछ दिन वृंदावन और कुछ दिन अपने घर रहतीं.

रुपएपैसों की कोई कमी नहीं थी. इसलिए गुरुजी के कहने पर वृंदावन में एक बड़ा सा आश्रम बनवा दिया गया. धीरेधीरे मौसी का वृंदावन से आना बंद हो गया और वे उसी आश्रम में एक कमरा बनवा कर रहने लगीं. कहीं न कहीं लोगों का बदलता व्यवहार और नजरिया इस का एक बड़ा कारण रहा.

कभीकभी मम्मी की और मौसी की फोन पर बात हो जाती. पर बात करने के बाद मां बहुत दुखी रहती थीं. एक दिन में पस्थितियां कुछ ऐसी बन गई कि मां ने गुस्से में वृंदावन जाने का निश्चय कर लिया और फिर घर से चल दीं. पर भाई ने उन्हें अकेले नहीं जाने दिया और वह भी उन के साथ कुछ दिनों के लिए वृंदावन चला गया. मां को मौसी से मिल कर बहुत खुशी हुई. पर मौसी ने उन्हें यहां 2 दिन से ज्यादा रुकने नहीं दिया.

मौसी ने कहा, ‘‘इस तरह से नाराजगी में घर छोड़ कर तूने सही नहीं किया, सुधा. मेरी बात कड़वी लगेगी पर स्त्री को हमेशा एक संरक्षण की जरूरत पड़ती है. शादी से पहले पिता और भाई, शादी के बाद पति और बुढ़ापे में बेटा. समाज में इस से इतर स्त्री को सम्मानपूर्वक जीने का हक नहीं मिलता. आगे से यह गलती दोबारा मत दोहराना. अकेली औरत का दर्द मुझ से ज्यादा कौन समझ सकता है?’’

वापसी में मां ने भाई से कहा, ‘‘बेटा, मौसी के चरणस्पर्श करो.’’

मगर भाई ने पैर छूने से इनकार कर दिया. मां को बहुत बुरा लगा. मौसी ने यह कह कर कि बच्चा है भाई के सिर पर हाथ रखा. लेकिन भाई ने उन का हाथ झटक दिया. शायद मौसी भाई की आंखों में अपने लिए नफरत साफ देख पा रही थीं. इसलिए उन्होंने मां को गुस्सा करने नहीं दिया. शांत रहने का आदेश दे कर बिदा करा.

घर आ कर मां और भाई में बहुत कहासुनी हुई. मां मौसी के खिलाफ कुछ सुनना नहीं चाहती थीं, पर भाई था कि एक ही बात की रट लगाए हुए था, ‘‘वह मौसी नहीं वेश्या है, वेश्या?’’

यह सुनते ही मां ने तड़ाक से एक थप्पड़ जड़ दिया.

इस पर भाई ने गुस्से में कहा, ‘‘आप चाहे कुछ भी कहो, मारो, लेकिन यह एक कड़वी हकीकत है, जिसे आप झुठला नहीं सकतीं. वह वेश्याओं का अड्डा है. वहां सब तरह का धंधा होता है.’’

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मां ने चीख कर कहा, ‘‘बस…बहन है वह मेरी. मां समान है. मैं उस के खिलाफ एक शब्द नहीं सुनना चाहूंगी.’’

इस पर भाई ने कहा, ‘‘इन 2 दिनों में मैं ने वहां जो देखा या मुझे बताया गया, तो क्या वह सब झूठ है?’’

‘‘हां, सब झूठ है. होगा सच औरों के लिए पर मेरी मां समान बहन के लिए नहीं. अगर आज के बाद उन के लिए एक भी शब्द बोला, तो मुझ से बुरा कोई नहीं होगा.’’

उन दोनों के बीच की कहासुनी सुन कर हम लोगों को बहुत डर लग रहा था. पर जैसे भाईर् भी जिद पर उतर आया था. उस ने कहा, ‘‘आप के लिए होगी मां. मेरे लिए तो…’’

मां बीच में ही बोल पड़ीं, ‘‘बस चुप रहो. मैं एक भी शब्द नहीं सुनना चाहती.’’

भाई गुस्से से वहां से चला गया. झगड़ा खत्म नहीं हो रहा था. मां ने कई बार उसे समझाना चाहा, लेकिन वह भी जिद पर अड़ा रहा. शायद उस के मानसपटल पर सबकुछ चिह्नित हो गया था. मां ने एक बार फिर उसे समझाने की नाकाम कोशिश की.

इस पर उस ने कहा, ‘‘चलो अब बात छोड़ो. अभी मेरे साथ वृंदावन चलो. मैं आप को उन सब लोगों से मिलवाता हूं, जिन्होंने मुझे ये सब बताया.’’

तभी अचानक मौसी का फोन आ गया. मां के सवाल करने पर मौसी रो पड़ीं और फिर बोलीं, ‘‘जब मुझे भेजने का निर्णय लिया गया था तब किसी ने भी नहीं रोका. तब कहां थे सब? यह निर्णय तो समाज का ही था. जितने मुंह उतनी बातें. एक अकेली औरत को क्या नहीं सहना पड़ता? सब का सामना करना आसान नहीं है?’’

‘‘इस जीवन से तो अच्छा मरना है, जीजी,’’ मां ने कहा.

‘‘क्या मरना इतना आसान है सुधा?’’ मौसी ने पूछा.

कुछ देर चुप्पी छाई रही, फिर मौसी ने ही चुप्पी को तोड़ा और कहा, ‘‘सुधा, इस बात की वजह से अपने घर में क्लेश मत रखना. हां, यहां दोबारा मत आना और न ही कोई पत्र व्यवहार करना.’’

‘‘पर… जीजी…’’ अभी मां कुछ पूछतीं उस से पहले ही मौसी ने कहा, ‘‘तुझे मेरा वास्ता.’’

शायद मां में इतनी हिम्मत नहीं थी कि मां समान बहन की बात न मानें. खैर, बात आईगई हो गई. महीनों या कहो सालों तक न तो मां ने ही फोन करना ठीक समझा और न ही मौसी का फोन आया.

कुछ सालों बाद एक पत्र से पता चला कि मौसी बहुत बीमार हैं और इलाज के लिए दिल्ली गई हैं. तब मां से रहा नहीं गया और उन्होंने भाई के सामने मौसी से मिलने की इच्छा जताई. भाई खुद मां को मौसी से मिलवाने के लिए दिल्ली ले गया. मौसी और मां मिल कर बहुत रोईं. मौसी को कैंसर बताया गया था और वह भी लास्ट स्टेज का.

मौसी की हालत देख मां रोए जा रही थीं. तब कमला मौसी ने नर्स को कमरे में बाहर जाने को कहा और मां से बोलीं, ‘‘सुधा, पूछ क्या पूछना चाहती थी?’’

मां की रूलाई फूट गई. शब्द नहीं निकल रहे थे. मौसी ने अपने जर्जर शरीर से बैठना चाहा पर नाकामयाब रहीं. भाई दूर खड़ा सब देख रहा था. उस ने आगे बढ़, मौसी को सहारा दे कर बैठाया. कमला मौसी ने हाथ से इशारा करते हुए कहा, ‘‘आशू बैठ. नाराज है न मौसी से? सुधा तेरे सभी सवालों के आज जवाब मिल जाएंगे. तू जानना चाहता है न कि कितनी सचाई है इस आशू की बातों में?’’ उन की सांस उखड़ने लगी थी.

मां ने कहा भी, ‘‘मुझे कुछ नहीं जानना. आप शांत रहो.’’

मौसी ने कहा, ‘‘अकेली स्त्री का दर्द बहुत बड़ा होता है. हां मैं अछूती नहीं… सुधा कड़वी सचाई यह है कि यह जो इज्जत, शीलशुचिता, शब्द हैं न, जिन की वजह से बारबार स्त्रियों को कमजोर किया जाता है असल में औरतों के शोषण की सब से बड़ी वजह शायद यही हैं.

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‘‘आज भी वह इस तथाकथित चारित्रिक बंधन से मुक्त नहीं हो पाई है. जब मैं जा रही थी, तो किसी ने मुझे हक से रोका भी तो नहीं था. कोई कहता तो सही कि हम मर गए हैं क्या? तुम कैसे जा सकती हो, अपना घर छोड़ कर? लेकिन ऐसा नहीं हुआ. किसी ने भी तो मेरे लिए दरवाजे नहीं खोले. मैं एकदम इतनी पराई हो गई सब के लिए. यह शायद मेरे औरत होने की सजा थी.’’

कुछ देर सुबकने के बाद वे फिर बोलीं, ‘‘आज सब मुझ पर ऊंगलियां उठा रहे हैं. जिन लोगों ने, जिस समाज ने भेजा, वही पीठ पीछे हंसता था, बातें बनाता था. पता है एक महिला अपने चरित्र पर उठती ऊंगली आज भी बरदाश्त नहीं कर पाती और शायद यहीं वह चूक जाती है. यही वजह उस के मानसिक और शारीरिक शोषण का कारण होती है.

‘‘हां, आश्रम में सबकुछ होता है. लेकिन मेरे लिए यह वेश्यालय नहीं. वह आश्रम तो मुझ जैसी और भी कई औरतों के लिए एक आश्रय है. मैं ने उन्हें गुरु माना है. वही मेरे सबकुछ हैं. बहुत सी बार स्थितियोंवश जब 2 लोग जुड़ते हैं तब उस समय एक भावनात्मक संबंध जुड़ता है जो शारीरिक संबंध का रूप ले लेता है. वैसे भी अपनों ने तो मुंह मोड़ लिया था. कहां जाती? ससुराल वालों ने पीछा छुड़ाना चाहा तो मायके वालों का भी तो साथ नहीं मिला… किस ने ढोना चाहा इस बोझ को? बोलो? ऐसे में गुरुजी ने ही सहारा दिया, आश्रय दिया.

‘‘सहारा देने वाला ही मेरे लिए सबकुछ होता होगा. आश्रम में मेरे जैसी न जाने कितनी बेसहारा औरतों को संरक्षण तो मिल जाता है. पति की मृत्यु के बाद तो कुछ लोगों ने कहा कि इस लड़की को मर जाना चाहिए. अब यह जी कर क्या करेगी? पर… मेरे अंदर इतनी शक्ति नहीं थी, जो मैं अपने प्राण त्याग देती. कहना बहुत आसान होता है पर करना बहुत मुश्किल. अपनेअपने गरीबान में झांक कर देखो सब,’’ कहतेकहते फफक कर रो पड़ीं.

फिर थोड़ी देर चुप रहने के बाद आगे बोलीं, ‘‘सत्य की भूख तो सब को होती है, लेकिन जब यह परोसा जाता है, तो बहुत कम लोग इसे पचा पाते हैं, सुधा. अकेली औरत को हजारों बुनियादी दिक्कतों का सामना करना पड़ता है और इसी कारण उसे कई अत्याचारों, शोषण और प्रतिरोध करने पर दमन का शिकार होना पड़ता है.

‘‘मुझे मालूम है पति के साए से दूर औरत को वेश्या ही समझा जाता है. आखिरकार इस पुरुषप्रधान समाज में स्त्री को एक देह से अलग एक स्त्री के रूप में देखता ही कौन है? यहां तो, स्त्री के कपड़ों के भीतर से नग्नता को खींचखींच कर बाहर लाने की परंपरा है. नग्नता और शालीनता के मध्य की बारीक रेखा समाज स्वयं बनाता और स्वयं बिगाड़ता है. हर औरत इस दलदल में हमेशा फंसा महसूस करती है. स्त्री की मुक्ति केवल देह की मुक्ति है? मेरी जिंदगी क्या है? मैं तो एक टूटा हुआ पत्ता हूं. न मेरा कोई आगे, न पीछे. क्या पता एक हवा का झोंका कहां फेंक दे?’’

उस दिन मां और मौसी घंटों रोती रही थीं. भाई को भी अपने कहे शब्दों पर बहुत अफसोस हुआ था. मां से इस मुलाकात के बाद मौसी का मन हलका हो गया था शायद इतना हलका कि उस के बाद उन की सांसें हमेशा के लिए चली गईं.

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बेबसी एक मकान की: सब उसे लूटते रहे लेकिन आखिर क्यों

एक ट्रंक, एक अटैची और एक बिस्तर, बस, यही संपत्ति समेट कर वे अंधेरी रात में घर छोड़ कर चले गए थे. 6 लोग. वह, उस की पत्नी, 2 अबोध बच्चे और 2 असहाय वृद्ध जिन का बोझ उसे जीवन में पहली बार महसूस हो रहा था. ‘‘अम्मी, हम इस अंधेरे में कहां जा रहे हैं?’’ जाते समय 7 साल की बच्ची ने मां से पूछा था.

‘‘नरक में…बिंदिया, तुम चुपचाप नहीं बैठ सकतीं,’’ मां ने खीझते हुए उत्तर दिया था. बच्ची का मुंह बंद करने के लिए ये शब्द पर्याप्त थे. वे कहां जा रहे थे उन्हें स्वयं मालूम न था. कांपते हाथों से पत्नी ने मुख्यद्वार पर सांकल चढ़ा दी और फिर कुंडी में ताला लगा कर उस को 2-3 बार झटका दे कर अपनी ओर खींचा. जब ताला खुला नहीं तो उस ने संतुष्ट हो कर गहरी सांस ली कि चलो, अब मकान सुरक्षित है.

धीरेधीरे सारा परिवार न जाने रात के अंधेरे में कहां खो गया. ताला कोई भी तोड़ सकता था. अब वहां कौन किस को रोकने वाला था. ताला स्वयं में सुरक्षा की गारंटी नहीं होता. सुरक्षा करते हैं आसपास के लोग, जो स्वेच्छा से पड़ोसियों के जानमाल की रक्षा करना अपना कर्तव्य समझते हैं. लेकिन यहां पर परिस्थितियों ने ऐसी करवट बदली थी कि पड़ोसियों पर भरोसा करना भी निरर्थक था. उन्हें अपनी जान के लाले पड़े हुए थे, दूसरों की रखवाली क्या करते. अगर वे किसी को ताला तोड़ते देख भी लेते तो उन की भलाई इसी में थी कि वे अपनी खिड़कियां बंद कर के चुपचाप अंदर बैठे रहते जैसे कुछ देखा ही न हो. फिर ऐसा खतरा उठाने से लाभ भी क्या था. तालाब में रह कर मगरमच्छ से बैर. कई महीने ताला अपने स्थान पर यों ही लटकता रहा. समय बीतने के साथसाथ उस निर्वासित परिवार के वापस आने की आशा धूमिल पड़ती गई. मकान के पास से गुजरने वाला हर व्यक्ति लालची नजरों से ताले को देखता रहता और फिर अपने मन में सोचता कि काश, यह ताला स्वयं ही टूट कर गिर जाता और दोनों कपाट स्वयं ही खुल जाते.

फिर एक दिन धायं की आवाज के साथ लोहा लोहे से टकराया, महीनों से लटके ताले की अंतडि़यां बाहर आ गईं. किसी अज्ञात व्यक्ति ने अमावस के अंधेरे की आड़ ले कर ताला तोड़ दिया. सभी ने राहत की सांस ली. वे आश्वस्त थे कि कम से कम उन में से कोई इस अपराध में शामिल नहीं है.

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ताला जिस आदमी ने तोड़ा था वह एक खूंखार आतंकवादी था, जो सुरक्षाकर्मियों से छिपताछिपाता इस घर में घुस गया था. खाली मकान ने रात भर उस को अपने आंचल में पनाह दी थी. अंदर आते ही अपने कंधे से एके-47 राइफल उतार कर कुरसी पर ऐसे फेंक दी जैसे वर्षों की बोझिल और घृणित जिंदगी का बोझ हलका कर रहा हो. उस के बाद उस ने अपने भारीभरकम शरीर को भी उसी घृणा से नरम बिस्तर पर गिरा दिया और कुछ ही मिनटों में अपनी सुधबुध खो बैठा. आधी रात को वह भूख और प्यास से तड़प कर उठ बैठा. सामने कुरसी पर रखी एके-47 न तो उस की भूख मिटा सकती थी और न ही प्यास. साहस बटोर कर उस ने सिगरेट सुलगाई और उसी धीमी रोशनी के सहारे किचन में जा कर पानी ढूंढ़ने लगा. जैसेतैसे उस ने मटके में से कई माह पहले भरा हुआ पानी निकाल कर गटागट पी लिया. फिर एक के बाद एक कई माचिस की तीलियां जला कर खाने का सामान ढूंढ़ने लगा. किचन पूरी तरह से खाली था. कहीं पर कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा था.

‘‘कुछ भी नहीं छोड़ा है घर में. सब ले कर भाग गए हैं,’’ उस के मुंह से सहसा निकल पड़ा. तभी उस की नजर एक छोटी सी अलमारी पर पड़ी जिस में कई चेहरों की बहुत सारी तसवीरें सजी हुई थीं. उन पर चढ़ी हुई फूलमालाएं सूख चुकी थीं. तसवीरों के सामने एक थाली थी जिस में 5 मोटे और मीठे रोट पड़े थे जो भूखे, खतरनाक आतंकवादी की भूख मिटाने के काम आए. पेट की भूख शांत कर वह निश्चिन्त हो कर सो गया.

सुबह होने से पहले उस ने मकान में रखे हुए ट्रंकों, संदूकों और अलमारियों की तलाशी ली. भारीभरकम सामान उठाना खतरे से खाली न था. वह तो केवल रुपए और गहनों की तलाश में था मगर उस के हाथ कुछ भी न लगा. निराश हो कर उस ने फिर घर वालों को एक मोटी सी गाली दी और अपने मिशन पर चल पड़ा. दूसरे दिन सुरक्षाबलों को सूचना मिली कि एक खूंखार आतंकवादी ने इस मकान में पनाह ली है. उन का संदेह विश्वास में उस समय बदला जब उन्होंने कुंडे में टूटा हुआ ताला देखा. उन्होंने मकान को घेर लिया, गोलियां चलाईं, गोले बरसाए, आतंकवादियों को बारबार ललकारा और जब कोई जवाबी काररवाई नहीं हुई तो 4 सिपाही अपनी जान पर खेलते हुए अंदर घुस गए. बेबस मकान गोलीबारी से छलनी हो गया मगर बेजबानी के कारण कुछ भी बोल न पाया.

खैर, वहां तो कोई भी न था. सिपाहियों को आश्चर्य भी हुआ और बहुत क्रोध भी आया. ‘‘सर, यहां तो कोई भी नहीं,’’ एक जवान ने सूबेदार को रिपोर्ट दी.

‘‘कहीं छिप गया होगा. पूरा चेक करो. भागने न पाए,’’ सूबेदार कड़क कर बोला. उन्होंने सारे मकान की तलाशी ली. सभी ट्रंकों, संदूकों को उलटापलटा. उन में से साडि़यां ऐसे निकल रही थीं जैसे कटे हुए बकरे के पेट से अंतडि़यां निकल कर बाहर आ रही हों. कमरे में चारों ओर गरम कपड़े, स्वेटर, बच्चों की यूनिफार्म, बरतन और अन्य वस्तुएं जगहजगह बिखर गईं. जब कहीं कुछ न मिला तो क्रोध में आ कर उन्होंने फर्नीचर और टीन के ट्रंकों पर ताबड़तोड़ डंडे बरसा कर अपने गुस्से को ठंडा किया और फिर निराश हो कर चले गए.

उस दिन के बाद मकान में घुसने के सारे रास्ते खुल गए. लोग एकदूसरे से नजरें बचा कर एक के बाद एक अंदर घुस जाते और माल लूट कर चले आते. पहली किस्त में ब्लैक एंड व्हाइट टीवी, फिलिप्स का ट्रांजिस्टर, स्टील के बरतन और कपड़े निकाले गए. फिर फर्नीचर की बारी आई. सोफा, मेज, बेड, अलमारी और कुरसियां. यह लूट का क्रम तब तक चलता रहा जब तक कि सारा घर खाली न हो गया. उस समय मकान की हालत ऐसी अबला नारी की सी लग रही थी जिस का कई गुंडों ने मिल कर बलात्कार किया हो और फिर खून से लथपथ उस की अधमरी देह को बीच सड़क पर छोड़ कर भाग गए हों.

मकान में अब कुछ भी न बचा था. फिर भी एक पड़ोसी की नजर देवदार की लकड़ी से बनी हुई खिड़कियों और दरवाजों पर पड़ी. रात को बापबेटे इन खिड़कियों और दरवाजों को उखाड़ने में ऐसे लग गए कि किसी को कानोंकान खबर न हुई. सूरज की किरणें निकलने से पहले ही उन्होंने मकान को आग के हवाले कर दिया ताकि लोगों को यह शक भी न हो कि मकान के दरवाजे और खिड़कियां पहले से ही निकाली जा चुकी हैं और शक की सुई सुरक्षाबलों की तरफ इशारा करे क्योंकि मकान की तलाशी उन्होंने ली थी. आसपास रहने वालों को ज्यों ही पता चला कि मकान जल रहा है और आग की लपटें अनियंत्रित होती जा रही हैं, उन्हें अपनेअपने घरों की चिंता सताने लगी. वे जल्दीजल्दी पानी से भरी बाल्टियां लेले कर अपने घरों से बाहर निकल आए और आग पर पानी छिड़कने लगे. किसी ने फायर ब्रिगेड को भी सूचना दे दी. उन की घबराहट यह सोच कर बढ़ने लगी कि कहीं आग की ये लपटें उन के घरों को राख न कर दें.

मकान जो पहले से ही असहाय और बेबस था, मूक खड़ा घंटों आग के शोलों के साथ जूझता रहा. …शोले, धुआं, कोयला. दिल फिर भी मानने को तैयार न था कि इस मलबे में अब कुछ भी शेष नहीं बचा है. ‘कुछ न कुछ, कहीं न कहीं जरूर होगा. आखिर इतने बड़े मकान में कहीं कोई चीज तो होगी जो किसी के काम आएगी,’ दिल गवाही देता.

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एक अधेड़ उम्र की औरत ने मलबे में धंसी हुई टिन की जली हुई चादरों को देख लिया. उस ने अपने 2 जवान बेटों को आवाज दी. देखते ही देखते उन से सारी चादरें उठवा लीं और स्वयं सजदे में लीन हो गई. टीन की चादरें, गोशाला की मरम्मत के काम आ गईं. एक और पड़ोसी ने बचीखुची ईंटें और पत्थर उठवा कर अपने आंगन में छोटा सा शौचालय बनवा लिया. जो दीवारें आग और पानी के थपेड़ों के बावजूद अब तक खड़ी थीं, हथौड़ों की चोट न सह सकीं और आंख झपकते ही ढेर हो गईं. कुछ दिन बाद एक गरीब विधवा वहां से गुजरी. उस की निगाहें मलबे के उस ढेर पर पड़ीं. यहांवहां अधजली लकडि़यां और कोयले दिखाई दे रहे थे. उसे बीते हुए वर्ष की सर्दी याद आ गई. सोचते ही सारे बदन में कंपकंपी सी महसूस हुई. उस ने आने वाले जाड़े के लिए अधजली लकडि़यां और कोयले बोरे में भर लिए और वापस अपने रास्ते पर चली गई.

मकान की जगह अब केवल राख का ढेर ही रह गया था. पासपड़ोस के बच्चों ने उसे खेल का मैदान बना लिया. हर रोज स्कूल से वापस आ कर बैट और विकेटें उठाए बच्चे चले आते और फिर क्रिकेट का मैच शुरू हो जाता.

हमेशा की तरह उस दिन भी 4 लड़के आए. एक लड़का विकेटें गाड़ने लगा. विकेट जमीन में घुस नहीं रहे थे. अंदर कोई चीज अटक रही थी. उस ने छेद को और चौड़ा किया. फिर अपना सिर झुका कर अंदर झांका. सूर्य की रोशनी में कोई चमकीली चीज नजर आ रही थी. वह बहुत खुश हुआ. इस बीच शेष तीनों लड़के भी उस के इर्दगिर्द एकत्रित हो गए. उन्होंने भी बारीबारी से छेद के अंदर देखने की कोशिश की और उस चमकती वस्तु को देखते ही उन की आंखों में चमक आ गई और मन में लालच ने पहली अंगड़ाई ली. ‘हो न हो सोने का कोई जेवर होगा.’ हरेक के मन में यही विचार आया लेकिन कोई भी इस बात को जबान पर लाना नहीं चाहता था.

पहले लड़के ने विकेट की नोक से वस्तु के इर्दगिर्द खोदना शुरू कर दिया. दूसरा लड़का दौड़ कर अपने घर से लोहे की कुदालनुमा एक वस्तु ले कर आ गया और उस को पहले लड़के को सौंप दिया. पहला लड़का अब कुदाल से लगातार खोदने लगा जबकि बाकी तीनों लड़के उत्सुकता और बेचैनी से मन ही मन यह दुआ मांगते रहे कि काश, कोई जेवर निकल आए और उन को खूब सारा पैसा मिल जाए.

खुदाई पूरी हो गई. इस से पहले कि पहला लड़का अपना हाथ सुराख में डालता और गुप्त खजाने को बाहर निकालता, दूसरे लड़के ने कश्मीरी भाषा में आवाज दी : ‘‘अड़स…अड़स…’’ अर्थात मैं भी बराबर का हिस्सेदार हूं.

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दिल्ली त्रिवेंद्रम दिल्ली: एक जैसी थी समीर और राधिका की कहानी

लेखकडा. कृष्ण कांत

समीर टैक्सी से उतर कर तेज कदमों से इंदिरा गांधी हवाईअड्डे की ओर बढ़ा, क्योंकि रास्ते में काफी देर हो चुकी थी.

काउंटर पर बैठी युवती ने उस से टिकट ले कर कहा, ‘‘आप की सीट है 12वी, आपातकालीन द्वार के पास.’’

बोर्डिंग कार्ड ले कर वह सुरक्षा कक्ष में चला गया. फ्लाइट जाने वाली थी, इसलिए

वह तुरंत विमान तक ले जाने वाली बस में बैठ गया.

‘‘नमस्ते,’’ विमान परिचारिका ने उस का हाथ जोड़ कर स्वागत किया.

समीर उसे देखता रह गया.

‘‘सर, आप का बोर्डिंग कार्ड?’’ परिचारिका मुसकरा कर बोली.

समीर ने उसे अपना बोर्डिंग कार्ड पकड़ा दिया.

वह उसे उस की सीट 12बी पर ले गई. समीर ने अपने बैग से काले रंग की डायरी निकाली और बैग ऊपर रख कर सीट पर बैठ गया.

उस की बगल वाली सीट, जो बीच के रास्ते के पास थी, खाली थी. समीर अपनी डायरी देखने लगा. पहले ही पन्ने पर विधि की तसवीर चिपकी थी. उस के जेहन में विधि का स्वर गूंज गया…

‘समीर मैं तुम से प्यार नहीं करती. यदि तुम ने कभी सोचा तो यह सिर्फ तुम्हारी गलती है. मैं तुम से शादी नहीं कर सकती…’

‘‘नमस्कार,’’ आवाज सुन समीर ने चौंक कर आंखें खोलीं. विमान परिचारिका उद्घोषणा कर रही थी, ‘‘आप का विमान संख्या आईसी 167 में, जो मुंबई होता हुआ त्रिवेंद्रम जा रहा है, स्वागत है. आप सभी अपनीअपनी कुरसी की पेटी बांध लीजिए…’’

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समीर ने एक गहरी सांस ली. अपनी कुरसी की पेटी बांधी और आंखें मूंद लीं. आंखों के सामने विधि का मुसकराता हुआ चेहरा घूमने लगा…

‘‘माफ कीजिए…’’

समीर ने चौंक कर आंखें खोलीं. सामने वही परिचारिका खड़ी थी.

‘‘आप मेरी सीट बैल्ट के ऊपर बैठे हैं.’’

समीर थोड़ा झेंप गया. उस ने चुपचाप अपने नीचे से सीट बैल्ट निकाल कर उसे पकड़ा दी. वह मुसकरा कर बैठ गई. उस के हाथ में भी समीर की डायरी के समान एक काले रंग की डायरी थी. वह अपनी डायरी पढ़ने लगी.

समीर ने फिर आंखें मूंद लीं और सोचने लगा, ‘विधि, क्या यह सब झूठ था? हमारा रोज मिलना, तुम्हारा पत्र लिखना क्या यह सब एक खेल था? क्या तुम्हें कभी मेरी याद नहीं आएगी?’

उसी समय सीट बैल्ट खोलने की उद्घोषणा हुई तो परिचारिका खड़ी हुई.

‘‘सुनिए,’’ वह समीर को देख कर धीरे से बोली.

समीर ने उस की ओर देखा.

‘‘आप की आंखों में आंसू हैं. इन्हें पोंछ लीजिए,’’ उस के स्वर में गंभीरता थी.

आंसुओं की धार ने उस के दोनों गालों पर रास्ते के निशान बना दिए थे. उस ने झट

से रूमाल से अपनी आंखों और चेहरे को पोंछ लिया.

‘‘सुबह नाश्ते में मिर्च ज्यादा थी.’’

वह बिना कुछ बोले चली गई.

थोड़ी देर बाद वह नाश्ते की ट्राली घसीटते हुए लाई और यात्रियों को नाश्ता देने लगी.

‘‘सर, आप क्या लेंगे, वैज या नौनवैज?’’ उस ने समीर से पूछा.

‘‘कुछ नहीं.’’

‘‘चाय या कौफी?’’

‘‘नहीं, कुछ नहीं.’’

वह बिना कुछ बोले आगे बढ़ गई. उस के भावों से लगा कि उसे थोड़ी सी खीज हुई है.

थोड़ी देर बाद वह फिर आई और बिना कुछ बोले एक प्लेट में चाय और कुछ बिस्कुट रख कर चली गई.

समीर को उस का आग्रह भरा मौन आदेश लगा, क्योंकि इस में अपनत्व था. उस ने चुपचाप चाय पी और बिस्कुट खा लिए. कुछ देर बाद वह दोबारा आई और प्लेट ले कर जाने लगी. प्लेट लेते समय दोनों की नजरें मिलीं.

समीर ने देखा कि उस की साड़ी पर राधिका नाम का टैग लगा था. वह थोड़ा मुसकरा दी. समीर को एक क्षण के लिए लगा कि उस की मुसकराहट में उदासी की छाया है.

उसे फिर विधि की याद सताने लगी. उस ने डायरी खोल ली और लिखने लगा, ‘क्या लड़की का प्यार सिर्फ शादी के बाद दौलत और सुविधाओं के लिए होता है? विधि मुझे छोड़ कर अरुण से शादी इसलिए कर रही है, क्योंकि उस के पास बंगला और कार है, जबकि मैं अभी किराए के मकान में हूं. आज ही उस की शादी है. अच्छा है कि मैं दिल्ली में नहीं रहूंगा. उसे अपने सामने विदा होते देखता तो न जाने क्या कर बैठता.’

समीर की आंखों में एक बार फिर आंसू आ गए. उस ने आंसू पोंछ लिए, डायरी बंद

कर के बगल वाली सीट पर रख दी और आंखें बंद कर लीं.

‘‘कृपया ध्यान दीजिए. अब हमारा विमान मुंबई के छत्रपति शिवाजी हवाईअड्डे पर उतरेगा. आप अपनीअपनी कुरसी की पेटी बांध लें. त्रिवेंद्रम जाने वाले यात्रियों से निवेदन है कि वे विमान में ही रहें,’’ उद्घोषणा हो रही थी.

राधिका उस की बगल में आ कर बैठ गई. समीर की डायरी उस ने सामने सीट की जेब में रख दी. समीर ने आंखें खोल कर राधिका को देखा, तो वह मुसकरा कर धीरे से बोली, ‘‘जिंदगी के सारे गमों को पी कर मुसकराना होता है.’’

समीर की इच्छा हुई कि बोले उपदेश देना सरल है, लेकिन जब खुद पर गुजरती है तब सारे उपदेश धरे रह जाते हैं, मगर वह चुप रहा.

‘‘मैं ने शायद कुछ गलत कह दिया. आई एम सौरी, सर,’’ वह थोड़ी देर बाद फिर बोली.

‘‘ऐसी बात नहीं है. आप ने बोला तो सही है. मुझे इस का बिलकुल बुरा नहीं लगा,’’ समीर के मुंह से निकला, ‘‘आप त्रिवेंद्रम तक मेरे साथ चलेंगी न?’’ समीर ने पूछा और फिर सकुचा गया.

‘‘आप खाना खाएंगे, तब जरूर चलूंगी,’’ वह मुसकरा कर बोली.

उसी समय विमान मुंबई उतर गया. राधिका अपनी डायरी ले कर चली गई.

समीर ने अपनी डायरी बैग में रख दी और औफिस की फाइल निकाल कर मीटिंग की तैयारी करने लगा.

बीच में उसे पानी की जरूरत महसूस हुई. वह पीछे की ओर गया परंतु राधिका की जगह कोई और परिचारिका थी. वह बिना पानी मांगे ही अपनी सीट पर आ गया.

थोड़ी देर बाद राधिका उस की बगल से गुजरी, तो वह बोला, ‘‘राधिका, एक गिलास पानी चाहिए.’’

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‘‘जरूर,’’ राधिका ने मुसकरा कर कहा. लगता था कि उसे अपने नाम के संबोधन से आश्चर्य भी हुआ और खुशी भी.

पीछे से खिलखिलाने की आवाज आई. शायद दूसरी परिचारिका ने भांप लिया था कि समीर ने पानी के लिए राधिका का इंतजार किया. वह राधिका को छेड़ रही थी.

राधिका ने उसे पानी की बोतल दे दी. बोतल लेते समय दोनों के हाथ स्पर्श हुए तो दोनों के शरीर में सिहरन दौड़ गई. उस ने राधिका को देखा. वह कुछ उदास हो गई थी.

उसी समय मुंबई में यात्री चढ़ने लगे. विमान जब मुंबई से चला तो राधिका उस की बगल वाली सीट पर ही थी, पर न जाने किन खयालों में खोई थी.

‘‘यह बहुत थकाने वाली फ्लाइट है,’’ समीर ने बात शुरू करने के इरादे से कहा.

‘‘हां,’’ कह कर वह फिर अपने खयालों में खो गई.

समीर ने अपनी आंखें बंद कर लीं.

‘‘सर, आप वैज लेंगे या नौनवैज?’’

समीर चौंक कर उठा. राधिका उस के कंधे को हलके से थपथपा कर पूछ रही

थी. वह बीच में कब सो गया, उसे पता ही नहीं चला.

‘‘वैज,’’ समीर के मुंह से निकला.

राधिका ने चुपचाप उसे वैज खाने की ट्रे दे दी. उस समय दोनों की नजरें टकराईं. नजरों में ही बातें हो गईं कि समीर उस के कहने पर ही खाना खा रहा है.

‘बनावटी मुसकानों और खोखले वाक्यों के पीछे विमान परिचारिकाओं के पास दिल भी होता है, जो दूसरों का दर्द महसूस कर सकता है,’ समीर ने सोचा.

‘इसे कम से कम मेरा कहना याद तो है. भूखा रहने से कोई दुख कम नहीं होता, इतना तो इसे पता होना चाहिए,’ राधिका सोच रही थी.

खाना खाने के बाद समीर की आंख फिर लग गई.

‘‘अब हम त्रिवेंद्रम हवाईअड्डे पर आ पहुंचे हैं. आशा है कि आप की यात्रा सुखद रही. आप हमारे साथ फिर यात्रा करें तो हमें खुशी होगी,’’ उद्घोषणा हो रही थी.

विमान से उतरते समय समीर की नजरें राधिका से मिलीं तो वह मुसकरा दी. ऐसा लगा कि शायद कुछ कहना चाहती है.

पूरा दिन समीर मीटिंग में व्यस्त रहा. शाम को समय काटने के लिए वह कोवलम बीच चला गया और वहां समुद्र के किनारे टहलने लगा. बरबस ही उसे विधि की याद आने लगी. उस ने और विधि ने शादी के बाद ऐसी ही किसी जगह जाने का प्रोग्राम बनाया था, वह सोचने लगा.

उसे लगा कि कोई पहचाना हुआ चेहरा उस के सामने से गुजरा. अरे यह तो वही है, सुबह वाली विमान परिचारिका. क्या नाम था इस का? हां, राधिका, उसे याद आया.

राधिका आगे जा कर रेत पर बैठ गई. समुद्र की लहरें उस के पैरों को छू रही थीं. जब भी वह त्रिवेंद्रम आती थी, कोवलम बीच जरूर आती थी. समुद्र में सूर्य का विलीन होते देखना उसे बहुत अच्छा लगता था.

राधिका को यह दृश्य आदित्य से बिछड़ने के बाद अपनी जिंदगी के बहुत करीब लगता था. वह सोचने लगी, ‘कब उस ने आदित्य को आखिरी बार देखा था? शायद

2 साल से ज्यादा हो गए. वह अपनी नईनवेली दुलहन के साथ गोवा घूमने जा रहा था.

विमान में उसे देख कर व्यंग्यपूर्वक मुसकरा दिया था.’ ‘‘आप के सुंदर चेहरे पर आंसू शोभा नहीं देते,’’ सुन कर राधिका चौंक पड़ी. सामने एक पहचाना सा चेहरा था. यह तो सुबह की फ्लाइट में था. आंसुओं की धार उस के चेहरे को भिगो रही थी. उस ने आंसू पोंछ लिए.

‘‘लगता है, आंख में रेत का कण चला गया था,’’ वह बोली.

‘‘आप क्या पहली बार त्रिवेंद्रम आए हैं?’’ राधिका ने बात बदलने के लिहाज से पूछा.

‘‘राधिका, मेरा नाम समीर है. मैं साल में 2-3 बार यहां आता हूं.’’

उसी समय पास से मूंगफली वाला गुजरा. समीर ने एक पैकेट मूंगफली खरीद कर राधिका को आधी मूंगफली दीं. राधिका ने बताया कि इतनी लंबी फ्लाइट के बाद उसे एक दिन का विश्राम मिलता है. कल फिर वह उसी फ्लाइट से दिल्ली जाएगी.

मूंगफली खातेखाते वे इधरउधर की बातें करते रहे. अंधेरा होने पर दोनों ने मुसकरा कर एकदूसरे से विदा ली. राधिका को यह बहुत अच्छा लगा कि समीर ने उस के आंसुओं का कारण जानने की कोशिश नहीं की.

समीर ने अपने गैस्टहाउस में लौट कर हमेशा की तरह अपनी डायरी निकाली. उस ने सोचा कि वह आज राधिका से मुलाकात का पूरा विवरण लिखेगा. डायरी खोलते ही उस के अंदर से फोटो गिर पड़ा. फोटो में राधिका किसी लड़के के साथ थी.

‘तो मेरी डायरी राधिका की डायरी से बदल गई है,’ उस ने सोचा. पहले तो उसे

लगा कि उसे डायरी नहीं पढ़नी चाहिए, परंतु उस के मन में राधिका की उदासी का राज जानने की इच्छा थी, इसलिए उस ने पढ़ना शुरू किया.

दिनांक ………..

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मैं आज बहुत खुश हूं. मुझे इंडियन एअरलाइंस में विमान परिचारिका के लिए चुन लिया गया है. मम्मीपापा ने कहा कि उन्हें मुझ पर गर्व है.

दिनांक ………..

आज मुझे आदित्य ने लोदी गार्डन में मिलने के लिए बुलाया. मेरा हाथ पकड़ कर बोला कि वह मुझ से प्यार करता है और शादी करना चाहता है. पता नहीं कितने वर्षों से मैं आदित्य के मुंह से यह वाक्य सुनने का इंतजार कर रही थी. लगता है कि आज रात नींद नहीं आएगी.

दिनांक ………..

मेरी जिंदगी बंध गई है आदित्य और इंडियन एयरलाइंस के बीच में, परंतु मन हमेशा आदित्य में ही लगा रहता है.

दिनांक ………..

आज मैं ने अपनी सहेली शीला को आदित्य से अपने प्यार और शादी के बारे में बताया तो वह चुप रही. लगता है कि उसे मुझ से जलन हुई है.

दिनांक ………..

कई दिनों से आदित्य के स्वभाव में परिवर्तन देख रही हूं. कई बार मिलने का वादा कर के भी वह नहीं आता. लेकिन वादा तोड़ने का उसे कोई पछतावा नहीं होता. लगता है कि उसे कोई परेशानी है, जिसे मैं समझ नहीं पा रही.

दिनांक ………..

शीला ने मुझे कल शाम 6.00 बजे नेहरू पार्क में मिलने के लिए बुलाया है. मैं ने मना करने की कोशिश की, परंतु उस ने दोस्ती का वास्ता दिया है.

दिनांक ………..

आज मेरे सारे सपने चकनाचूर हो गए. शीला मुझे नेहरू पार्क में एक कोने में ले गई और मुझे मेरे प्यार की असलियत बता दी. आदित्य किसी युवती को अपने आलिंगन में ले कर प्यार भरी बातें कर रहा था. हमें देख कर बेशर्मों की तरह मुसकरा दिया.

शीला ने बाद में बताया कि आदित्य ने शीला के साथ भी खेल खेला था. मैं शीला की एहसानमंद हूं कि उस ने मुझे बरबाद होने से बचा लिया.

दिनांक ………..

जिंदगी में एक सूनापन सा भर गया है. दिन तो किसी तरह कट जाता है, लेकिन रात नहीं कटती. लगता है कि नींद आंखों से रूठ चुकी है.

दिनांक ………..

आज मेरी दिल्लीगोवा फ्लाइट पर ड्यूटी थी. अचानक देखा कि आदित्य अपनी नईनवेली दुलहन के साथ बैठा है. मुझे देख कर व्यंग्य से मुसकरा दिया. मन में तो तूफान उठ रहे थे परंतु मैं ने अपने चेहरे पर भाव नहीं आने दिए.

समीर ने पाया कि वह राधिका के दर्द को महसूस कर सकता है, क्योंकि वह भी इसी तरह के दर्द से गुजर रहा है.

राधिका ने अपने होटल में समीर की डायरी बंद कर दी और बालकनी में आ कर बैठ गई. वह सोचने लगी, ‘अब तक मैं पुरुषों को ही बेवफा और धोखेबाज समझती थी. क्या विधि के लिए सुखसुविधाओं की कीमत समीर के सच्चे प्यार से ज्यादा थी?’

दूसरे दिन सुबह समीर औफिस पहुंचा तो उस के निदेशक ने कहा कि उस के साथ

2 और साथी त्रिवेंद्रम से दिल्ली जाएंगे. उसे उन्हीं लोगों के साथ बैठना पड़ा. राधिका से नजरें चार हुईं तो दोनों समझ गए कि वे एकदूसरे की डायरी पढ़ चुके हैं.

वह 1-2 बार बाथरूम के बहाने पीछे गया परंतु राधिका के साथ दूसरी परिचारिकाएं थीं, इसलिए कुछ नहीं कह पाया.

मुंबई में हवाईजहाज रुका तब उस ने राधिका की डायरी निकाली और पीछे की ओर गया. राधिका ने उसे देख लिया. चुपचाप उन्होंने एकदूसरे की डायरी वापस कर दी.

राधिका ने अपनी डायरी खोली. उसमें समीर का संदेश था, ‘मैं आप का दर्द अनुभव कर सकता हूं. मुझे विश्वास है कि आप को जिंदगी में सच्चा प्यार अवश्य मिलेगा. यदि मैं आप के लिए कुछ कर सका तो मुझे खुशी होगी.’

– समीर

समीर अपनी सीट पर आ गया और डायरी पलटने लगा. अंदर राधिका ने लिखा था, ‘जिंदगी में सुख एवं दुख दोनों होते हैं. आशा करती हूं कि आप जिंदगी भर विधि का रोना नहीं रोएंगे.’

– राधिका

जब समीर दिल्ली आने पर विमान से उतरने लगा तो राधिका जैसे दरवाजे पर उस का इंतजार कर रही थी. दोनों की आंखों में चमक थी. इस बात को 2 साल गुजर गए. राधिका और समीर पहले अच्छे दोस्त और फिर पतिपत्नी बन गए. उन के स्मृतिपटल पर दिल्ली त्रिवेंद्रम दिल्ली फ्लाइट हमेशा रहेगी, क्योंकि यहीं से उन्हें अपनी जिंदगी की दिशा मिली.

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Short Story: आइसोलेशन या आजादी

मैं कोविड हॉस्पिटल के रिसेप्शन पर खड़ा था. हाथ में कोरोना निगेटिव की रिपोर्ट थी. आसपास कुछ लोग तालियां बजा कर उस का अभिनंदन कर रहे थे. दरअसल यह रिपोर्ट मेरे एक कमरे के उस जेल से आजादी का फरमान था जिस में मैं पिछले 10 दिनों से बंद था. मेरा अपराध था कोरोना पॉजिटिव होना और सजा के रूप में मुझे दिया गया था आइसोलेशन का दर्द.

आइसोलेशन के नाम पर मुझे न्यूनतम सुविधाओं वाले एक छोटे से कमरे में रखा गया था जहां रोशनी भी सहमसहम कर आती थी. उस कमरे का सूनापन मेरे दिल और दिमाग पर भी हावी हो गया था. वहां कोई मुझ से बात नहीं करता था न कोई नज़दीक आता था. खाना भी बस प्लेट में भर कर सरका दिया जाता था. मन लगाने वाला कोई साधन नहीं, कोई अपना कोई हमदर्द आसपास नहीं. बस था तो सिर्फ एक खाली कमरा और खामोश लम्हों की कैद में तड़पता मेरा दिल जो पुरानी यादों के साए में अपना मन बहलाने की कोशिश करता रहता था.

इन 10 दिनों की कैद में मैं ने याद किए थे बचपन के उन खूबसूरत दिनों को जब पूरी दुनिया को मैं अपनी मुट्ठी में कैद कर लेना चाहता था. पूरे दिन दौड़भाग, उछलकूद और फिर घर आ कर मां की गोद में सिमट जाना. तब मेरी यही दिनचर्या हुआ करती थी. उस दौर में मां के आंचल में कैद होना भी अच्छा लगता था क्यों कि इस से आजाद होना मेरे अपने हाथ में था.

सचमुच बहुत आसान था मां के प्यार से आजादी पा लेना. मुझे याद था आजादी का वह पहला कदम जब हॉस्टल के नाम पर मैं मां से दूर जा रहा था.

“बेटा, अपने शहर में भी तो अच्छे कॉलेज हैं. क्या दूसरे शहर जा कर हॉस्टल में रह कर ही पढ़ना जरूरी है ?” मां ने उदास स्वर में कहा था.

तब मां को पापा ने समझाया था ,” देखो प्रतिभा पढ़ाई तो हर जगह हो सकती है मगर तेरे बेटे के सपने बाहर जा कर ही पूरे होंगे क्यों कि वहां ए ग्रेड की पढ़ाई होती है.”

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“पता नहीं नए लोगों के बीच अनजान शहर में कौन सा सपना पूरा हो जाएगा जो यहां नहीं होगा? मेरे बच्चे को ढंग का खाना भी नहीं मिलेगा और कोई पूछने वाला भी नहीं होगा कि किसी चीज की कमी तो नहीं.”

मां मुझे आजादी देना नहीं चाहती थी मगर मैं हर बंधन से आजाद हो कर दूर उड़ जाना चाहता था.

तब मैं ने मां के हाथों को अपने हाथ में ले कर कहा था,” मान जाओ न मां मेरे लिए…”

और मां ने भीगी पलकों के साथ मुझे वह आजादी दे दी थी. मैं हॉस्टल चला गया था. यह पहली आजादी थी मेरी. अपनी जिंदगी का बेहद खूबसूरत वक्त बिताया था मैं ने हॉस्टल में. पढ़ाई के बाद जल्द ही मुझे नौकरी भी मिल गई थी. नौकरी मिली तो शादी की बातें होने लगीं.

इधर अपने ऑफिस की एक लड़की प्रिया मुझे पसंद आ गई थी. वह दिखने में जितनी खूबसूरत थी दिमाग की भी उतनी ही तेज थी. बातें भी मजेदार किया करती. उस के कपड़े काफी स्टाइलिश और स्मार्ट होते जिन में उस का लुक निखर कर सामने आता. मैं उस पर से नजरें हटा ही नहीं पाता था.

एक दिन मैं ने उसे प्रपोज कर दिया. वह थोड़ा अचकचाई फिर उस ने भी मेरा प्यार स्वीकार कर लिया. यह बात मैं ने घर में बताई तो मेरे दादाजी और पिताजी भड़क उठे.

दादाजी ने स्पष्ट कहा,” ऐसा नहीं हो सकता. तू गैर जाति की लड़की से शादी करेगा तो हमारे नातेरिश्तेदार क्या बोलेंगे?”

मां ने दबी जबान से मेरा पक्ष लिया तो उन लोगों ने मम्मी को चुप करा दिया. तब मैं ने मां के आगे अपनी भड़ास निकालते हुए कहा था,” मां आप एक बात सुन लो. मुझे शादी इसी लड़की से करनी है चाहे कुछ भी हो जाए. आप ही बताओ आज के जमाने में भला जात धर्म की बात कौन देखता है? मैं नहीं मानता इन बंधनों को. अगर मुझे यह शादी नहीं करने दी गई तो मैं कभी भी खुश नहीं रह पाऊंगा.”

मां बहुत देर तक कुछ सोचती रहीं. फिर मेरी खुशी की खातिर मां ने पिताजी और दादा जी को मना लिया. उन्होंने पता नहीं दादा जी को ऐसा क्या समझाया कि वे शादी के लिए तुरंत मान गए. पिताजी ने भी फिर विरोध में एक शब्द भी नहीं कहा. इस तरह मां ने मुझे जातपांत और ऊंचनीच के उन बंधनों से आजादी दे कर प्रिया के साथ एक खूबसूरत जिंदगी की सौगात दी थी.

प्रिया दुल्हन बन कर मेरे घर आ गई थी. मां बहुत खुश थीं कि उन्हें अब एक बेटे के साथ बेटी भी मिल गई है मगर प्रिया के तो तेवर ही अलग निकले. उसे किसी भी काम में मां की थोड़ी सी भी दखलंदाजी बर्दाश्त के बाहर थी. मां कोई काम अपने तरीके से करने लगतीं तो तुरंत प्रिया वहां पहुंच जाती और मां को बिठा देती. मां धीरेधीरे खुद ही चुपचाप बैठी रहने लगी. वह काफी खामोश हो गई थीं.

इस बीच हमारे बेटे का जन्म हुआ तो पहली दफा मैं ने मां के चेहरे पर वह खुशी देखी जो आज तक नहीं देखी थी. अब तो मां पोते को गोद में लिए ही बैठी रहतीं. शुरू में तो प्रिया ने कुछ भी नहीं कहा क्यों कि उसे बच्चे को संभालने में मदद मिल जाती थी. बेटे के बाद हमारी बिटिया ने भी जन्म ले लिया. मां ने दोनों बच्चों की बहुत सेवा की थी. दोनों को एक साथ संभालना प्रिया के वश की बात नहीं थी. मां के कारण दोनों बच्चे अच्छे से पल रहे थे.

इधर एक दिन अचानक दिल का दौरा पड़ने से पिताजी चल बसे. मां अकेली रह गई थीं मगर बच्चों के साथ अपना दिल लगाए रखतीं. अब बेटा 6 साल का और बेटी 4 साल की हो गई थी. सब ठीक चल रहा था. मगर इधर कुछ समय से प्रिया फिर से मां के कारण झुंझलाई सी रहने लगी थी. वह अक्सर मुझ से मां की शिकायतें करती और मैं मां को बात सुनाता. मां खामोशी से सब सुनती रहतीं.

एक दिन तो हद ही हो गई जब प्रिया अपनी फेवरिट ड्रैस लिए मेरे पास आई और चिल्लाती हुई बोली,” यह देखो अपनी मां की करतूत. जानते हो न यह ड्रैस मुझे मेरी बहन ने कितने प्यार से दी थी. 5 हजार की ड्रैस है यह. पर तुम्हारी मां ने इसे जलाने में 5 सेकंड का समय भी नहीं लगाया.”

“यह क्या कह रही हो प्रिया? मां ने इसे जला दिया?”

“हां सुरेश, मां ने इसे जानबूझ कर जला दिया. मैं इसे पहन कर अपनी सहेली की एनिवर्सरी में जो जा रही थी. मेरी खुशी कहां देख सकती हैं वह? उन्हें तो बहाने चाहिए मुझे परेशान करने के.”

“ऐसा नहीं हैं प्रिया. हुआ क्या ठीक से बताओ. जल कैसे गई यह ड्रैस ?”

” देखो सुरेश, मैं ने इसे प्रेस कर के बेड पर पसार कर रखा था. वहीं पर मां तुम्हारे और अपने कपड़े प्रेस करने लगीं. मौका देख कर गर्म प्रेस इस तरह रखी कि मेरी ड्रैस का एक हिस्सा जल गया,” प्रिया ने इल्जाम लगाते हुए कहा.

“मां यह क्या किया आप ने? थोड़ी तो सावधानी रखनी चाहिए न,” सारी बात जाने बिना मैं मां पर ही बरस पड़ा था.

मां सहमी सी आवाज में बताने लगीं,” बेटा मैं जब प्रेस कर रही थी उसी समय गोलू खेलताखेलता उधर आया और गिर पड़ा. प्रेस किनारे खड़ी कर के मैं उसे उठाने के लिए दौड़ी कि इस बीच नेहा ने हाथ मारा होगा तभी प्रेस पास रखी ड्रैस पर गिर गई और कपड़ा जल गया. ”

मैं समझ समझ रहा था कि गलती मां की नहीं थी मगर प्रिया ने इस मामले को काफी तूल दिया. इसी तरह की और 2 -3 घटनाएं होने के बाद मैं ने प्रिया के कहने पर मां को घर के कोने में स्थित एक अलग छोटा सा कमरा दे दिया और समझा दिया कि आप अपने सारे काम यहीं किया करो. उस दिन के बाद से मां उसी छोटे से कमरे में अपना दिन गुजारने लगीं. मैं कभीकभी उन से मिलने जाता मगर मां पहले की तरह खुल कर बात नहीं करतीं. उन की खामोश आंखों में बहुत उदासी नजर आती मगर मैं इस का कारण नहीं समझ पाता था.

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शायद समझना चाहता ही नहीं था. मैं घर की शांति का वास्ता दे कर उन्हें उसी कमरे में रहे आने की सिफारिश करता क्यों कि मुझे लगता था कि मां अपने कमरे में रह कर जब प्रिया से दूर रहेंगी तो दोनों के बीच लड़ाई होने का खतरा भी कम हो जाएगा. वैसे मैं समझता था कि लड़ती तो प्रिया ही है पर इस की वजह कहीं न कहीं मां की कोई चूक हुआ करती थी.

अपने कमरे में बंद हो कर धीरेधीरे मां प्रिया से ही नहीं बल्कि मुझ से और दोनों बच्चों से भी दूर होने लगी थीं. बच्चे शुरूशुरू में दादी के कमरे में जाते थे मगर धीरेधीरे प्रिया ने उन के वहां जाने पर बंदिशें लगानी शुरू कर दी थीं. वैसे भी बच्चे बड़े हो रहे थे और उन पर पढ़ाई का बोझ भी बढ़ता जा रहा था. इसलिए दादी उन के जीवन में कहीं नहीं रह गई थीं.

प्रिया मां को उन के कमरे में ही खाना दे आती. मां पूरे दिन उसी कमरे में चुपचाप बैठी रहतीं. कभी सो जातीं तो कभी टहलने लगतीं. उन के चेहरे की उदासी बढ़ती जा रही थी. मैं यह सब देखता था पर पर कभी भी इस उदासी का अर्थ समझ नहीं पाया था. यह नहीं सोच सका था कि मां के लिए यह एकांतवास कितना कठिन होगा.

पर आज जब मुझे 10 दिनों के एकांतवास से आजादी मिली तो समझ में आया कि हमेशा से मुझे हर तरह की आजादी देने वाली मां को मैं ने किस कदर कैद कर के रखा है. आज मैं समझ सकता हूं कि मां जब अकेली कमरे में बैठी खाना खाती होंगी तो दिल में कैसी हूक उठती होगी. कैसे निबाला गले में अटक जाता होगा. उस समय कोई उन की पीठ पर थपकी देने वाला भी नहीं होता होगा. खाना आधा पेट खा कर ही बिस्तर पर लुढ़क जाती होंगी. कभी आंखें नम होती होंगी तो कोई पूछने वाला नहीं होता होगा. बच्चों के साथ हंसने वाली मां हंसने को तरस जाती होंगी और पुराने दिनों की भूलभुलैया में खुद को मशगूल रखने की कोशिश में लग जाती होंगी. सुबह से शाम तक अपनी खिड़की के बाहर उछलकूद मचाते पक्षियों के झुंड में अपने दुखदर्द का भी कोई साथी ढूंढती रह जाती होंगी.

अस्पताल की सारी कागजी कार्यवाही पूरी करने के बाद मैं ने गाड़ी बुक की और घर के लिए निकल पड़ा. अचानक घर पहुंच कर मैं सब को सरप्राइज करना चाहता था खासकर अपनी मां को. आइसोलेशन के इन 10 दिनों में मैं ने बीती जिंदगी का हर अध्याय फिर से पढ़ा और समझा था. मुझे एहसास हो चुका था कि एकांतवास का दंश कितना भयानक होता है. मैं ने मन ही मन एक ठोस फैसला लिया और मेरा चेहरा संतोष से खिल उठा.

घर पहुंचा तो स्वागत में प्रिया और दोनों बच्चे आ कर खड़े हो गए. सब के चेहरे खुशी और उत्साह से खिले हुए थे. मगर हमेशा की तरह एक चेहरा गायब था. प्रिया और बच्चों को छोड़ मैं सीधा घर के उसी उपेक्षित से कोने वाले कमरे में गया. मां मुझे देख कर खुशी से चीख पड़ीं. वह दौड़ कर आईं और रोती हुई मुझे गले लगा लिया. मेरी आंखें भी भीग गई थीं. मैं झुका और उन के पांवों में पड़ कर देर तक रोता रहा. फिर उन्हें ले कर बाहर आया.

मैं ने पिछले कई सालों से आइसोलेशन का दर्द भोगती अपनी बूढ़ी मां से कहा,” मां आज से आप हम सबों के साथ एक ही जगह रहेंगी. आप अकेली एक कमरे में बंध कर नहीं रहेंगी. मां पूरा घर आप का है.”

मां विस्मित सी मेरी तरफ प्यार से देख रही थीं. आज प्रिया ने भी कुछ नहीं कहा. शायद मेरी अनुपस्थिति में दूर रहने का गम उस ने भी महसूस किया था. बच्चे खुशी से तालियां बजा रहे थे और मेरा दिल यह सोच कर बहुत सुकून महसूस कर रहा था कि आज पहली बार मैं ने मां को एकांतवास से आजादी दिलाई है. उधर मां को लग रहा था जैसे बेटे की नेगेटिव रिपोर्ट से उन की जिंदगी पॉजिटिव हो गई है.

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हे राष्ट्रद्रोही!

अक्सर मेरी निगाह इन दिनों राष्ट्रद्रोह शब्द पर पड़ जाती है. यह राष्ट्र द्रोही है!यह राष्ट्रद्रोही है!! वह राष्ट्रद्रोही है!!!अज्ञात चेहरे को “राष्ट्रदोही” कह कर हमारे नामचीन और अनाम चेहरे तलवार भांज रहे हैं.कुछ वर्ष पूर्व एक जनरल ने, एक पत्र  प्रधानमंत्री को लिखा था वह  लीक हो गया.उसमें  जनरल महाशय  ने बेहद गंभीर बातें लिखी थी, वह सारी बातें मीडिया में आ गई और हाय-तौबा मच गई . विपक्ष को मौका मिल गया. संसद का सत्र चल  रहा था . सरकार की किरकिरी हो गई तो उद्घोष हो गया -” जिसने पत्र लीक किया “राष्ट्रद्रोही” है !”

रक्षा मंत्री ने जोर देकर कहा,- पत्र लीक करने वाला देशद्रोही ही हो सकता है.”  मै मंत्री जी के स्टेटमेंट से गंभीर हो गया.हमारे रक्षा मंत्री अगर कह रहे हैं तो मानना पड़ेगा, पत्र को लीक करने वाला, भारत माता का सपूत हो ही नहीं सकता. जरूर उसकी माता “पाक की धरती” होगी या चीन की, इसलिए उसने ऐसा धतकरम किया होगा.

इधर जनरल  ने भी रक्षा मंत्री के स्वर में स्वर मिलाकर बयान दे डाला .जिसका लब्बोलुबाब यही था कि उसके द्वारा लिखित पत्र को लीक करने वाला देशद्रोही है. उसे कड़ी सजा मिलनी चाहिए.
अब इतना गंभीर विषय है. देश की सर्वोच्च विभूतियां अगर उसे देशद्रोही निरूपित कर रही हैं तो सवाल है वह विदेश से प्रेम करने वाला शख्स हमारे देश में कौन है ? वह कहां है ? क्या वह कोई विदेशी है या भारतीय ?
मुझे पूर्ण यकीन है यह काम किसी विदेशी बंदे का कतई नहीं है. जरूर यह कार्य हमारे देश के ही किसी सपूत ने किया है . अब सवाल है, जब पत्र लीक करने वाला इस देश का ही बाशिंदा है तो क्या वह देशद्रोह की सजा पाएगा ? क्या हमारे देश की पुलिस, सीबीआई, इंटेलिजेंस उसे गिरफ्तार करने और सजा देने में कामयाब हो पाएगी ?

मेरे  मन में एक प्रश्न और है- क्या गिरफ्तारी हो भी गई, तो कोर्ट में मामला ठहरेगा ? और ठहरेगा भी तो क्या इस देश के कानून के तहत उस शख्स को देशद्रोही ठहराया जा सकता है ?

मै जानता हूँ, यह संभव ही नहीं. जब  मेरे  जैसा अदना सा आदमी यह निष्कर्ष निकाल सकता है तो इत्ते पढ़े-लिखे देश को चलाने वाले नेता क्या यह बात नहीं जानते हैं… !
और अगरचे जानते हैं तो फिर ऐसी बातें क्यों कहते हैं, जिनका न हाथ है न ही पैर . यह तो कुछ ऐसी बात हुई-
मोहल्ले की दो महिलाएं लड़ पड़ी, एक दूसरे पर आक्षेप लगाने लगी ।
एक- तू छिनाल है!
दूसरी-  जा तू भी छिनाल है!!
एक- तू तो एक मर्द के पीछे मरी जा रही है. तूझे तो दूसरा घास ही नहीं डालता .
दूसरी – और तू एक से संतुष्ट नहीं है छिनाल.
एक- मेरे तो छत्तीस-छत्तीस आगे पीछे डोलते हैं .
या फिर गली के बदमाश बच्चे झगड़ते चिल्लाते मिल जाते हैं-
एक बच्चा- श्यामू!राजू से खिड्ड़ी हो जा ।
दूसरा बच्चा- क्यों ?
एक बच्चा- यह मेरा कहना नहीं मान रहा…
दूसरा बच्चा- जा, मैं भी तेरा कहना नहीं मानता.
गोकि मुझेको महसूस होता है जो पराया है वह आज भी राजनीति में देशद्रोही है. चाहे उसका अपराध क्षुद्र  सा ही क्यों न हो. और अगर अपना है तो देश को बेच भी रहा है, तो वह क्षम्य  है और आंख बंद कर ली जाती है . बड़े मजे की बात कहते हैं- “इस मुद्दे पर कहने से देश को हानि होगी. यह देश हित में नहीं होगा.”

वाह ! क्या तर्क है. अब काले धन की बात ही करें . जब जब कोई विदेश में बंदा कालेधन को लाने की बात करता है तो देश के कर्णधार अनसुनी कर देते हैं या फिर रटारटाया जवाब होता- यह राष्ट्रहित में नहीं है, उन नामों की घोषणा सार्वजनिक रूप से नहीं की जा सकती .
अब यह समझने वाली बात है, समझने वाले समझ गए की सूची में किनके नाम है.दरअसल, इन नामों में कुछ देश के लिए सर्वस्व न्योछावर करने वाले भी होंगे . अब अगर इन नामों को उजागर कर दिया जाएगा तो देश भक्त और देशद्रोही की परिभाषा पुन: तय करने की स्थिति निर्मित होगी की नहीं .
तो हमे प्रधानमंत्री को लिखी चिट्ठी लीक मामले में इंतजार है देशद्रोही की गिरफ्तारी का. पत्र में इतनी इतनी गंभीर बातें लिखी गई हैं कि देश के हालात आईने की तरह दुनिया के सामने है . विदेशी शक्तियों के समक्ष हम नंगे हो गए हैं . अब जब हम नग्न हैं और नंगे हो गए हैं, तो उस आदमी को कैसे छोड़ सकते हैं, जिसने हमें नग्न, सरे बाजार कर दिया है . सवाल यह नहीं है कि हम नंगे क्यों है, सवाल है, तुमने हमें दुनिया के समक्ष नंगा क्यों किया ? वाह रे भारतीय नेताओं के राष्ट्र प्रेम और राष्ट्र द्रोह की परिभाषा…

देश मेरी मुट्ठी में है!- मंहगाई

– “यह देश मेरी मुट्ठी में है.” महंगाई ने तुनक कर कहा .

– ” यह तुम्हारा भ्रम है .” एक गरीब ईमानदार आदमी ने चींख कर प्रतिकार किया.
– “यह भ्रम तो तुम पाले हो, की इस देश को कोई “सरकार” चला रही है, जिसे तुमने चुना है.” महंगाई ने हंसते हुए कहा

– ” यही सत्य है, महंगाई !”  उस आदमी ने कहा
-“अच्छा,भला सिध्द करो ” महंगाई ने मुस्कुरा कर मानो चैलेंज सामने रखा.
-“यह तो सारी दुनिया जानती है, देश में एक तिनका भी, चुनी हुई सरकार के इशारे के बगैर हिल नहीं सकता.”
-“यही तो भ्रम है.” महंगाई हो.. हो… कर हंसते हुए बोली

-“तुम हमारी चुनी हुई सरकार के समक्ष राई का कण भी नहीं .”
आदमी ने कुछ सच्चाई समझने के बाद, चेहरे पर उतर आए पसीने को पोंछते हुए कहा.

-“अच्छा, अभी जो  रसोई गैस के 50 रुपए प्रति सिलेंडर बढ़ गए, आलू, प्याज, टमाटर के दाम बढ़ गए…भला उसके पीछे कौन है ?” महंगाई के चेहरे पर गर्वोवित का भाव था.
-“वो… वो.. मैं क्या जानूं।”
-“कहो, कहो बेहिचक कहो या फिर स्वीकार करो .”महंगाई ने आत्मविश्वास भरे स्वर में कहा.
-“क्या स्वीकार करूं ?”
-“यही की सरकार असहाय है।”
-“यह मैं कैसे स्वीकार कर लूं ।”
-“यह मेरी करामात है, समझ लो । मैंने उछाल भरी है. सरकार के हाथ पांव फूले हुए हैं. तुम क्या जानो.” महंगाई हंसी.
-“तुम्हें गलतफहमी है, ऐसा मैं मानता हूं .”व्यक्ति ने संभलकर कहा,- “तुम्हें सरकार जब चाहेगी धर दबोचेगी और तुम रिरियाती रह जाओगी.”
-“अच्छा ! यह मुंह और मसूर की दाल. ” महंगाई हंसी
-“सच कह रहा हूं, हमारी सरकार के पास असीम अमोध शक्ति है .इस देश के हित में सरकार तुम्हें चाहे तो देश निकाला दे दे तुम कुछ नहीं कर पाओगी .”व्यक्ति ने अब विश्वास पूर्वक कहा था.
-” अच्छा, ऐसा है और इस देश मे सरकार नाम की चिड़िया है तो मुझे काबू में करके दिखाएं.” महंगाई के स्वर में आत्मविश्वास था.
-“तुम सरकार को चैलेंज कर रही हो ?”
-“हां, यह सरकार, यह विपक्ष, यह बड़बोले नेता, यह संसद मेरी मुट्ठी में है,यह देश मेरी मुट्ठी में है .”
महंगाई हंसी .
-“अच्छे-अच्छों के घमंड टूट गए हैं . भ्रष्टाचार भी कुछ दिन पूर्व इठलाता घूमता था, कहता था, सरकार मेरी जेब में है. उसका कितना दर्दनाक हश्र हुआ है, पता है.कई दिग्गज भ्रष्टाचारी जेल चले गए  लालू यादव से लेकर पूर्व केंद्रीय वित्त मंत्री पी चिदंबरम तलक अब बोलो.” आदमी ने अपनी ईमानदारी की रौ में कहा.

-हो हो हो…. महंगाई हंसने लगी.
-” हंसने से सत्य नहीं छिप सकता, तुम घमंड मत पालो,मेरी तो यही राय है ।”
-“देखो, भ्रष्टाचार मेरे समाने च्युंटी सरीखा है. उसके पास मेरी सरीखी असीमित शक्तियां नहीं है .मेरा जादू  मायाजाल तो तुम अभी देख रहे हो .
एक ही दिन में  एक साथ 50 रुपये  प्रति सिलेंडर का महंगा होना. यह एक नजीर है . समझ लो मेरी असीमित शक्ति को . मेरे सामने सरकार गिड़गिड़ाती है, हाथ जोड़कर कह रही है मेरे बस में महंगाई को रोकना नहीं है.यह हमारे वश से बाहर है… हा हा हा….”
-“और  संसद… देश की पार्लियामेंट ?” आदमी ने मुस्कुराते हुए  कहा.
-“संसद तो मेरे भय से भीगी बिल्ली बन कर भाग खड़ी हुई .मुझे आता देख… हा हा हा .”

-“तुम्हारा यह नकचढ़़ा हाव भाव, तुम्हें किसी दिन कहीं का नहीं छोड़ेगा.” आदमी ने दु:खी होकर कहा,-“तुम ऐसे ही प्रमाद  करो, तुम क्या, किसी से नहीं डरती, किसी से भय नहीं, क्या तुम्हारे ऊपर कोई नहीं”
-“यह मैं क्यों बताऊं.मगर यह जान लो,  मेरा विराट स्वरूप, अनंत है. मैं आज की परम शक्ति हूं . मेरे समक्ष सभी च्यूटी सदृश्य हैं . सभी मुझसे है, मैं किसी से नहीं.” महंगाई ने दृढ शब्दों में कहा.
-“मैं तुम्हारी शिकायत प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति से करूंगा मैं… मैं….” आदमी हांफने लगा ।
-हा… हा हा  जाओ… कहीं भी चले जाओ, तुम्हें कहीं कोई रियायत नहीं दे सकता . मैं ..मैं.. हूं .” महंगाई अट्टास करने लगी.

-“मैं … मैं… मैं…” आदमी के मुंह से   सफेद झाग निकलने लगा ….वह कुछ बोल पाता उससे पूर्व बेहोश होकर गिर पड़ा.

दुविधा: किस कशमकश में थी वह?

एमबीए करते ही एक बहुत बड़ी कंपनी में मेरी नौकरी लग गई. हालांकि यह मेरी वर्षों की कड़ी मेहनत का ही परिणाम था फिर भी मेरी आशा से कुछ ज्यादा ही था. हाईटैक सिटी की सब से ऊंची इमारत की 15वीं मंजिल पर, जहां से पूरा शहर दिखाई देता है, मेरा औफिस है. एक बड़े एयरकंडीशंड हौल में शीशे के पार्टीशन कर के सब के लिए अलगअलग केबिन बने हुए हैं. आधुनिक सुविधाओं तथा तकनीकी उपकरणों से लैस है मेरा औफिस.

मेरे केबिन के ठीक सामने अकाउंट्स विभाग का स्टाफ बैठता है. उन से हमारा काम का तो कोई वास्ता नहीं है लेकिन हमारी तनख्वाह, भत्ते, अन्य बिल वही बनाते तथा पास करते हैं. कंपनी में पहले ही दिन अपनी टीम के लोगों से विधिवत परिचय हुआ लेकिन शेष सब से परिचय संभव नहीं था. सैकड़ों का स्टाफ है, कई डिवीजन हैं. उस पर ज्यादातर स्टाफ दिनभर फील्ड ड्यूटी पर रहता है.

मेरे सामने बैठने वाले अकाउंट्स विभाग के ज्यादातर कर्मचारी अधेड़ उम्र के हैं. बस, ठीक मेरे सामने वाले केबिन में बैठने वाला अकाउंटैंट मेरा हमउम्र था. वैसे उस से कोई परिचय तो नहीं हुआ था, बस, एक दिन लिफ्ट में मिला तो अपना परिचय स्वयं देते हुए बोला, ‘‘मैं सुबोध, अकाउंटैंट हूं. कभी भी अकाउंट्स से जुड़ी कोई समस्या हो तो आप बेझिझक मुझ से कह सकती हैं,’’ बदले में मैं ने भी उसे अपना नाम बताया और उस का धन्यवाद किया था जबकि वह मेरे बारे में सब पहले से जानता ही था क्योंकि अकाउंट्स विभाग से कुछ छिपा नहीं होता है. उस के पास तो पूरे स्टाफ की औफिशियल कुंडली मौजूद होती है.

इस संक्षिप्त से परिचय के बाद वह जब कभी लिफ्ट में, सीढि़यों में, डाइनिंग हौल में या रास्ते में टकरा जाता तो कोई न कोई हलकाफुलका सवाल मेरी तरफ उछाल ही देता. ‘औफिस में कैसा लग रहा है?’, ‘आप का कोई बिल तो पैंडिंग नहीं है न?’, ‘आप अखबार और पत्रिका का बिल क्यों नहीं देती?’, ‘आप ने अपनी नई मैडिकल पौलिसी के नियम देख लिए हैं न?’ वगैरहवैगरह. बस, मैं उस के सवाल का संक्षिप्त सा उत्तर भर दे पाती, हर मुलाकात में इतना ही अवसर होता.

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मुझे यहां काम करते 2-3 महीने बीत चुके थे. अभी भी अपनी टीम के अलावा शेष स्टाफ से जानपहचान नहीं के बराबर थी. वैसे भी दिनभर सब काम में इतना व्यस्त रहते हैं कि इधरउधर की बात करने का कोई  मौका ही नहीं मिल पाता. हां, काम करतेकरते जब कभी नजरें उठतीं तो सामने बैठे सुबोध से जा टकराती थीं. ऐसे में कभीकभी वह मुसकरा देता तो जवाब में मैं भी मुसकरा कर फिर अपने काम में लग जाती. लेकिन जैसेजैसे दिन बीत रहे थे, मैं ने एक बात नोटिस की कि जब कभी भी मैं अपनी गरदन उठाती तो सुबोध को अपनी तरफ ही देखते हुए पाती. अब वह पहले की तरह मुसकराता नहीं था बल्कि अचकचा कर नीचे देखने लगता था या न देखने का बहाना करने लगता था.

खैर, मेरे पास यह सब सोचने का समय ही कहां था? मेरे सपनों के साकार होने का समय पलपल करीब आने लगा था. घर में मेरे और प्रखर के विवाह की तैयारियां शुरू हो चुकी थीं. प्रखर और मैं कालेज में साथसाथ पढ़ते थे. वहीं हमारी दोस्ती हुई फिर पता ही नहीं लगा कब हमारी दोस्ती इतनी आगे बढ़ गई कि हम दोनों ने जीवनसाथी बनना तय कर लिया.

घर वालों से बात की तो उन्होंने भी इस रिश्ते के लिए हां कर दी लेकिन शर्त यही थी कि पहले हम दोनों अपनीअपनी पढ़ाई पूरी करेंगे, अपना भविष्य बनाएंगे. फिर शादी की सोचेंगे. पढ़ाई पूरी होते ही प्रखर को भी एक मल्टीनैशनल कंपनी में अच्छी नौकरी मिल गई थी.

एक दिन सुबह सुबोध लिफ्ट में फिर मिल गया. लिफ्ट में हम दोनों ही थे. बिना एक पल भी गंवाए उस ने और दिनों से हट कर सवाल पूछा था, ‘‘आप के घर में कौनकौन है?’’

मुझे उस से ऐसे सवाल की आशा नहीं थी. पूछा, ‘‘क्यों, क्या करेंगे जान कर?’’ मेरा उत्तर भी उस के अनुरूप नहीं था.

‘‘यों ही. सोचा, मां को आप के बारे में क्या बताऊंगा, जब मुझे ही आप के बारे में कुछ पता नहीं है?’’

‘‘क्यों, सब कुछ तो है आप के पास औफिस रिकौर्ड में नाम, पता, ठिकाना, शिक्षा वगैरह,’’ कहते हुए मैं हंस दी थी और वह मुझे देखता ही रह गया.

लिफ्ट हमारी मंजिल पर पहुंच चुकी थी. हम दोनों उतरे और अपनेअपने केबिन की ओर बढ़ गए.

अपनी सीट पर आ कर बैठी तो एहसास हुआ कि सुबोध क्या पूछ रहा था और नादानी में मैं ने उसे क्या उत्तर दे दिया. सब सोच कर इतनी झेंप हुई कि दिनभर गरदन उठा कर सामने बैठे हुए सुबोध को देखने का साहस ही नहीं हुआ. हालांकि उस की नजरों की चुभन को मैं ने दिनभर अपने चेहरे पर महसूस किया था. पता नहीं वह क्या सोच रहा था.

अगले दिन मैं जानबूझ कर लंच के लिए देर से गई ताकि मेरा सुबोध से सामना न हो जाए. उस समय तक डाइनिंग हौल लगभग खाली ही था. मैं ने जैसे ही प्लेट उठाई, अपने पीछे सुबोध को खड़ा पाया. उसी चिरपरिचित मुसकान के साथ, खाना प्लेट में डालते हुए वह धीमे से बोला, ‘‘कल आप ने मेरे सवाल का जवाब नहीं दिया?’’

‘‘मम्मी को बताना क्या है, अगले महीने की 20 तारीख को मेरी शादी है. उन्हें साथ ले आइएगा, मिलवा ही दीजिएगा.’’

मेरे इतना कहते ही उस के चेहरे पर दुख की ऐसी काली छाया दिखाई दी मानो हवा के तेज झोंके से बदली ने सूरज को ढक लिया हो. उस की आंखें मेरे चेहरे पर ऐसे टिक गईं मानो जानना चाहती हों, कहीं मैं मजाक तो नहीं कर रही.

लेकिन यह सच था. एक पल के लिए मुझे भी लगा कि भले ही यह सच था लेकिन मुझे उसे ऐसे सपाट शब्दों में नहीं बताना चाहिए था. वह प्लेट ले कर डाइनिंग टेबल के दूसरे छोर की कुरसी पर जा बैठा. वह लगातार मुझे देख रहा था. वह बहुत उदास था. शायद उस की आंखें भी नम थीं. मैं ने खाना खाते हुए उसे कई बार बहाने से देखा था. वह सिर्फ बैठा था, उस ने खाना छुआ भी नहीं था. मुझे यह सब अच्छा नहीं लग रहा था लेकिन मैं क्या करती? ऐसे में उस से क्या कहती?

शादी में औफिस से बहुत से लोग आए लेकिन सुबोध नहीं आया. हां, औफिस वालों के हाथ उस ने बहुत ही खूबसूरत तोहफा जरूर भिजवाया था. क्रिस्टल का बड़ा सा फूलदान था, जिस ने भी देखा तारीफ किए बिना न रह सका.

विवाह होते ही मैं और प्रखर अपनी नई दुनिया में खो गए. हम ने वर्षों इस सब के लिए इंतजार किया था. हमें लग रहा था, हम बने ही एकदूसरे के लिए हैं. शादी के बाद हम विदेश घूमने चले गए.

महीनेभर की छुट्टियां कब खत्म हो गईं पता ही नहीं चला. मैं औफिस आई तो सहकर्मियों ने सवालों की झड़ी लगा दी. कोई ‘छुट्टियां कैसी रहीं’ पूछ रहा था,  कोई नई ससुराल के बारे में जानना चाह रहा था, कोई प्रखर के बारे में पूछ कर चुटकी ले रहा था. वहीं, कोई शादी के अरेंजमेंट की तारीफ कर रहा था तो कोईकोई शादी में न आ पाने के लिए माफी भी मांग रहा था.

सब से फुरसत पा कर जब सामने वाले केबिन पर मेरी नजर पड़ी तो वहां सुबोध की जगह कोई अधेड़ उम्र का व्यक्ति चश्मा पहने बैठा था. मेरी नजरें पूरे हौल में एक कोने से दूसरे कोने तक सुबोध को तलाशने लगीं. वह कहीं नजर नहीं आया. मैं उसे क्यों तलाश रही थी, मेरे पास इस सवाल का कोई जवाब नहीं था. पता नहीं मुझे उस से हमदर्दी थी या मुझे उस को देखने की आदत सी हो गई थी. खैर, जो भी था मुझे उस की कमी खल रही थी.

कुछ दिनों बाद मुझे पता लगा था कि सुबोध ने ही अपना तबादला दूसरे डिवीजन में करवा लिया था जो थोड़ी दूर, दूसरी बिल्ंिडग में है. सुबोध यहां से चला तो गया था लेकिन कुछ यहां ऐसा छोड़ गया था जो औफिस में यदाकदा उस की याद दिलाता रहता था. विशेष रूप से जब काम करतेकरते कभी अपनी नजर ऊपर उठाती तो सुबोध को वहां न पा कर कुछ अच्छा नहीं लगता था.

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समय बीत रहा था. घर पहुंचते ही एक दूसरी दुनिया मेरा इंतजार कर रही होती थी, जिस में मेरे और प्रखर के अलावा किसी तीसरे के लिए कोई जगह नहीं थी. दिनरात जैसे पंख लगा कर उड़े चले जा रहे थे. घूमनाफिरना, दावतें, मिलना- मिलाना आदि यानी हमारे जीवन का एक दूसरा ही अध्याय शुरू हो गया था.

6 महीने कैसे बीत गए, कुछ पता ही नहीं लगा. एक सुबह मैं अपनी सीट पर जा कर बैठी तो यों ही नजर सामने वाले कैबिन पर पड़ी तो सुबोध को वहां बैठे पाया. पलभर को तो अपनी आंखों पर यकीन ही नहीं हुआ लेकिन यह सच था. सुबोध वापस लौट आया था, पता नहीं यह औफिस की जरूरत थी या सुबोध की. किस से पूछती, कौन बताता?

इस बात को कई सप्ताह बीत गए लेकिन हमारे बीच कभी कोई बात नहीं हुई. इस के लिए न कभी सुबोध ने कोई कोशिश की न ही मैं ने. मैं ने न तो उस से शादी में न आने का कारण पूछा और न उस खूबसूरत तोहफे के लिए धन्यवाद ही दिया. हमारे बीच ज्यादा बातचीत का सिलसिला तो पहले भी नहीं था लेकिन अब एक अबोला सा छा गया था.

अब जब भी हमारी नजरें आपस में यों ही टकरा भी जातीं तो न वह पहले की भांति मुसकराता और न ही मैं मुसकरा पाती. वैसे उस की नजरों को मैं ने अकसर अपने आसपास ही महसूस किया है. एक सुरक्षा कवच की भांति उस की नजरें मेरा पीछा करती रहती हैं. मैं समझ नहीं पाती कि क्या नाम दूं उस की इस मूक चाहत को?

समय इस सब से बेखबर आगे बढ़ रहा था. हमारा एक बेटा हो गया. अब मेरी जिम्मेदारियां बहुत बढ़ गई थीं. ऐसे में समय अपने लिए ही कम पड़ने लगा था और कुछ सोचने का समय ही कहां था? मेरा जीवन घर, बेटे और औफिस में ही उलझ कर रह गया था. वैसे भी मैं उम्र के उस पड़ाव पर पहुंच गई थी जहां अपनी घरगृहस्थी के आगे औरत को कुछ सूझता ही नहीं.

हां, प्रखर जरूर घर से बाहर दोस्तों के साथ ज्यादा रहने लगा था क्योंकि औफिस के बाद क्लब और पार्टियों में जाने की न तो मेरा थकाहारा शरीर आज्ञा देता, न मेरा मन ही इस के लिए राजी होता था. लेकिन प्रखर को रोकना मुश्किल था. बड़ी तनख्वाह, बड़ी गाड़ी, महंगा सैलफोन, कीमती लैपटौप, पौश कौलोनी में बढि़या तथा जरूरत से बड़ा फ्लैट वगैरह सब कुछ हो तो व्यक्ति क्लब, दोस्तों और पार्टियों पर ही तो खर्च करेगा? पहले दोस्तों के बीच कभीकभी पीने वाला प्रखर अब लगभग हर रात पीने लगा था. यह बात अलग है कि वह पीता लिमिट में ही था.

एक रात प्रखर क्लब से लौटा तो मैं बेटे को सुला रही थी. मेरे पास बैठते हुए बोला, ‘‘तुम्हारे औफिस में कोई सुबोध शर्मा है?’’

मैं इस सवाल के लिए बिलकुल तैयार नहीं थी. प्रखर सुबोध के बारे में क्यों पूछ रहा है? वह सुबोध के बारे में क्या जानता है? उसे सुबोध के बारे में किस ने क्या बताया है? एकसाथ न जाने कितने ही सवाल मेरे दिमाग में उठ खड़े हुए.

‘‘क्यों?’’ न चाहते हुए भी मेरे मुंह से निकल गया.

‘‘बस, यों ही, आज बातोंबातों में रवि बता रहा था. सुबोध, रवि का साला है. उसे घर वाले लड़कियां दिखादिखा कर परेशान हो गए हैं, वह शादी के लिए राजी ही नहीं होता. बूढ़ी मां बेटे के गम में बीमार रहने लगी है. वह तो रवि ने तुम्हारे औफिस का नाम लिया तो सोचा तुम जानती होगी. पता तो लगे आखिर सुबोध क्या चीज है जो कोई लड़की उसे पसंद ही नहीं आती.’’

प्रखर बोले जा रहा था और मेरी परेशानी बढ़ती जा रही थी. मैं खीज उठी, ‘‘इतना बड़ा औफिस है, इतने डिवीजन हैं. क्या पता कौन सुबोध है जो तुम्हारे दोस्त रवि का साला है. नहीं करता शादी तो न करे, इस से तुम्हारी सेहत पर क्या फर्क पड़ता है?’’

कुछ तो प्रखर नशे में था उस पर मेरी दिनभर की थकान का खयाल कर वह इस बेवक्त के राग से स्वयं ही शर्मिंदा हो उठा.

‘‘तुम ठीक कहती हो, अब नहीं करता शादी तो न करे. रवि जाने या उस की बीवी, अब आधी रात को इस से हमें क्या लेनादेना है,’’ कह कर प्रखर तो कपड़े बदल कर सो गया लेकिन मैं रातभर सो न सकी. कितनी शंकाएं, कितने प्रश्न, कितने भय मुझे रातभर घेरे रहे.

अगले ही दिन जब ज्यादातर स्टाफ लंच के लिए जा चुका था, मैं सुबोध के केबिन में गई. मुझे अचानक आया देख कर वह हड़बड़ा कर उठ खड़ा हुआ. मैं ने घबराई सी नजर अपने आसपास के स्टाफ पर डाली और उसे बैठने का इशारा करते हुए पूछा, ‘‘आप शादी क्यों नहीं कर रहे? आप के परिवार वाले कितने परेशान हैं?’’

एकाएक मेरे इस प्रश्न से वह चौंक उठा. शायद उसे कुछ ठीक से समझ भी नहीं आया होगा.

‘‘आप की बहन और जीजाजी इतनी लड़कियां दिखा चुके हैं, आप को एक भी पसंद नहीं आई? आखिर आप को लड़की में ऐसा क्या चाहिए?’’

मेरे स्वर में थोड़ी तलखी थी, शायद भीतर का कोई डर था. हालांकि यह बेवजह था लेकिन धुआं उठता देख कर मैं डर गई थी, कहीं भीतर कोई चिनगारी न दबी हो जो मेरी घरगृहस्थी को जला कर राख कर दे.

‘‘घर जा कर आईना देखिएगा, स्वयं समझ जाएंगी,’’ सुबोध धीरे से फुसफुसाया था.

इतना सुनते ही मैं वहां उस की नजरों के सामने खड़ी न रह सकी. मैं लौट तो आई लेकिन मेरा दिल इतनी जोर से धड़क रहा था मानो सीने से उछल कर बाहर आ जाएगा.

मैं सुबोध के बारे में सोचने पर मजबूर हो गई. ऊपर से शांत दिखने वाले इस समुद्र की तलहटी में कितना बड़ा ज्वालामुखी छिपा था. अगर कहीं यह फूट पड़ा तो कितनी जिंदगियां तबाह हो जाएंगी.

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भले ही मेरी और प्रखर की पहचान 10 वर्ष पुरानी है. मैं ने आज तक कभी उसे शिकायत का कोई मौका नहीं दिया है, फिर भी अगर कभी कहीं से कुछ यों ही सुबोध के बारे में सुनेगा तो क्या होगा? अनजाने में ही अगर सुबोध ने अपनी दीदीजीजाजी से मेरे बारे में या अपनी पसंद के बारे में कुछ कह दिया तो क्या रवि वह सब प्रखर को बताए बिना रहेगा? तब क्या होगा? पतिपत्नी का रिश्ता कितना भी मजबूत, कितना भी पुराना क्यों न हो, शक की आशंका से ही उस में दरार पड़ जाती है. फिर भले ही लाख यत्न कर लो उसे पहले रूप में लाया ही नहीं जा सकता.

हालांकि मुझे लगता था कि सुबोध ऐसा कुछ नहीं करेगा फिर भी मेरा दिल बैठा जा रहा था. मैं सुबोध से कुछ कह भी तो नहीं सकती थी. क्या कहती, किस अधिकार से कहती? हमारे बीच ऐसा था भी क्या जिस के लिए सुबोध को रोकती. मेरी तो कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था. मैं इतनी परेशान हो गई कि हर समय डरीसहमी, घबराई सी रहने लगी.

एक दिन अचानक प्रखर की तबीयत बहुत बिगड़ गई. कई दिनों से उस का बुखार ही नहीं उतर रहा था. उसे अस्पताल में दाखिल करवाना पड़ा लेकिन बीमारी पकड़ में ही नहीं आ रही थी. हालत बिगड़ती देख कर उसे शहर के बड़े अस्पताल में भेज दिया. वहां पहुंचते ही प्रखर को आईसीयू में भरती कर लिया गया. कई टैस्ट हुए, कई बड़े डाक्टर देखने आए. उस की बीमारी को सुनते ही मेरे पैरों तले जमीन निकल गई. प्रखर की दोनों किडनियां बेकार हो गई थीं.

घरपरिवार तथा मित्रों की मदद से उस के लिए 1 किडनी की व्यवस्था करनी थी, वह भी एबी पोजिटिव ब्लड ग्रुप वाले की. किस का होगा यह ब्लड ग्रुप? कौन भला आदमी अपनी किडनी दान करेगा और क्यों? रेडियो, टीवी, अखबार तथा स्वयंसेवी संस्थाओं के माध्यम से हम हर कोशिश में जुट गए.

2 दिनों बाद डाक्टर ने आ कर खुशखबरी दी कि किडनी डोनर मिल गया है. उस के सब जरूरी टैस्ट भी हो गए हैं. आशा है प्रखर जल्दी ठीक हो जाएगा.

मैं पागलों की भांति उस फरिश्ते से मिलने दौड़ पड़ी. डाक्टर के बताए कमरे में जाते ही मेरी आंखें फटी की फटी रह गईं. मेरे सामने पलंग पर सुबोध लेटा था. मेरे कदम वहीं रुक गए. मैं कुछ भी कहने की स्थिति में नहीं थी. प्रखर के जीवन का प्रश्न था जो पलपल मौत की तरफ बढ़ रहा था. मुझे इस तरह सन्न देख कर वह बोला, ‘‘वह तो रवि जीजाजी से पता लगा कि उन के दोस्त, प्रखर बहुत सीरियस हैं. सौभाग्य से मेरा ब्लडग्रुप भी एबी पौजिटिव है इसलिए…’’

‘‘आप को पता था न, प्रखर मेरे पति हैं?’’ पता नहीं मैं ने यह सवाल क्यों किया था.

‘‘मेरे लिए आप की खुशी माने रखती है, बीमार कौन है यह नहीं.’’

शब्द जैसे उस के दिल की गहराइयों से निकल रहे थे. एक बार फिर उस ने मुझे निरुत्तर कर दिया था. मैं भारी कदमों, भारी दिल से लौट आई थी. प्रखर उस समय ऐसी स्थिति में ही नहीं था कि पूछता कि उसे जीवनदान देने वाला कौन है, कहां से आया है, क्यों आया है?

औपरेशन हो गया. औपरेशन सफल रहा. दोनों की अस्पताल से छुट्टी हो गई. प्रखर स्वस्थ हो रहा है. उसे पता लग चुका है कि उसे किडनी दान करने वाला कोई और नहीं रवि का साला सुबोध ही है, जो मेरे ही औफिस में काम करता है. वह दिनरात तरहतरह के सवाल पूछता रहता है फिर भी बहुत कुछ ऐसा है जो वह पूछना तो चाहता है लेकिन पूछ नहीं पाता.

सवाल तो अब मेरे अंदर भी सिर उठाते रहते हैं जिन के जवाब मेरे पास नहीं हैं या मैं उन्हें तलाशना ही नहीं चाहती. डरती हूं, यदि कहीं मुझे मेरे सवालों के जवाब मिल गए तो मैं बिखर ही न जाऊं.

आजकल प्रखर बहुत बदल गया है. डाक्टरों के इतना समझाने के बावजूद वह फिर से पीने लग गया है. कभी सोचती हूं एक दिन उस से खुल कर बात करूं. फिर सोचती हूं क्या बात करूं? किस बारे में बात करूं? हमारे जीवन में किस का महत्त्व है? उन 2-4 वाक्यों का जो इतने वर्षों में सुबोध ने मुझ से बोले हैं या उस के त्याग का जिस ने प्रखर को नया जीवन दिया है?

मैं अजीब सी कशमकश में घिरती जा रही हूं. प्रखर के पास होती हूं तो यह एहसास पीछा नहीं छोड़ता कि प्रखर के बदन में सुबोध की किडनी है जिस के कारण प्रखर आज जीवित है. हमारे न चाहते हुए भी सुबोध हम दोनों के बीच में आ गया है.

जबजब सुबोध को देखती हूं तो एक अनजाना सा डर पीछा नहीं छोड़ता कि उस के पास अब एक ही किडनी है. हर सुबह औफिस पहुंचते ही जब तक उसे देख नहीं लेती, मुझे चैन नहीं आता. उस के स्वास्थ्य के प्रति भी चिंतित रहने लगी हूं.

मेरा पूरा वजूद 2 भागों में बंट गया है. ‘जल बिन मछली’ सी छटपटाती रहती हूं. आजकल मुझे किसी करवट चैन नहीं. मैं जानती हूं प्रखर को मेरी खुशी प्रिय है इसीलिए मुझ से न कुछ कहता है, न कुछ पूछता है. बस, अंदर ही अंदर घुट रहा है. दूसरी तरफ बिना किसी मांग, बिना किसी शर्त के सुबोध को मेरी खुशी प्रिय है लेकिन क्या मैं खुश हूं?

सुबोध को देखती हूं तो सोचती हूं काश, वह मुझे कुछ वर्ष पहले मिला होता तो दूसरे ही पल प्रखर को देखती हूं तो सोचती हूं काश, सुबोध मिला ही न होता. यह कैसी दुविधा है? मैं यह कैसे दोराहे पर आ खड़ी हुई हूं जिस का कोई भी रास्ता मंजिल तक जाता नजर नहीं आता.

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मैट्रो मेरी जान: रफ्तार से चलती जिंदगी की कहानी

मैट्रो का दरवाजा खुला. भीड़ के साथ बासू भी अंदर हो गया. वह सवा 9 बजे से मैट्रो स्टेशन पर खड़ा था. स्टेशन पर आने के बाद बासू ने 4 टे्रनें इसलिए निकाल दीं क्योंकि उन में भीड़ अधिक थी. उस ने इस ट्रेन में हर हालत में घुसने का इरादा कर लिया. इतने बड़े रेले के एकसाथ घुसने से लोगों को परेशानी हुई. एक यात्री ने आने वाली भीड़ से परेशान होते हुए कहा, ‘‘अरे, कहां आ रहे हो भाईसाहब? यहां जगह नहीं है.’’

दरअसल दरवाजे से दूर खड़े लोगों को धक्का लग रहा था. ‘‘भाईसाहब, थोड़ाथोड़ा अंदर हो जाइए. अंदर काफी जगह है,’’ कोच में सब से बाद में चढ़ने वाले एक व्यक्ति ने कहा. वह दरवाजे पर लटका हुआ था.

‘‘हां हां, यहां तो प्लाट कट रहे हैं. तू भी ले ले भाई,’’ अंदर से कोई बोल पड़ा. यह व्यंग्य उस व्यक्ति की समझ में नहीं आया. उस ने कहने वाले का चेहरा देखने का प्रयास किया पर भीड़ में पता न चला.

‘‘क्या मतलब है आप का? मैं समझा नहीं,’’ उस ने भी हवा में मतलब समझने का प्रयास किया.

‘‘जब समझ में नहीं आता तो समझने की तकलीफ क्यों करता है?’’ फिर कहीं से आवाज आई.

पहले वाले ने फिर सिर उठा कर जवाब देने वाले को देखने का प्रयास किया पर मैट्रो की भीड़ ने उस का दूसरा प्रयास भी विफल कर दिया. उसे थोड़ा गुस्सा आ गया.

‘‘कौन हैं आप? कैसे बोल रहे हैं?’’ उस ने गुस्से से कहा.

‘‘क्यों भाई, आई कार्ड दिखाऊं के?’’ जवाब भी उतने ही जोश में दिया गया.

‘‘ला दिखा,’’ उस ने भी कह दिया.

‘‘तू कोई लाट साहब है जो मेरा आई कार्ड देखेगा?’’ वह भी बड़ा ढीठ था.

इस के साथ ही वाक्युद्ध शुरू हो गया. कोई किसी को देख नहीं पा रहा था. गालीगलौज का दौर पूरे शबाब पर आ कर मारपीट में तब्दील होने वाला था कि लोगों ने दोनों अदृश्य लड़कों के बीच में पड़ कर युद्ध विराम करवा दिया. इतने में पहले वाले का स्टेशन आ गया. वह बड़बड़ाता हुआ स्टेशन पर उतर गया. इस के साथ ही सारा मामला खत्म हो गया. अभी टे्रन थोड़ी दूर ही चली होगी कि एकाएक धीमी हुई और रुक गई. इस के साथ ही घोषणा होने लगी :

‘इस यात्रा में थोड़ा विलंब होगा. आप को हुई असुविधा के लिए खेद है.’ इस पर यात्रियों के चेहरे बिगड़ने लगे.

‘‘ओ…फ्…फो….या…र…व्हाट नानसेंस.’’

‘‘यार…यह तो रोजरोज की बात हो गई.’’

‘‘हर स्टेशन पर खड़ी हो जाती है.’’

‘‘आजकल रोज औफिस देर से पहुंचता हूं. बौस बहुत नाराज रहता है. उस को क्या पता कि मैट्रो की हालत क्या हो रही है,’’ एक ने अपनी परेशानी बताई.

‘‘एक दिन बौस को मैट्रो में ले आओ. उस को भी पता चल जाएगा,’’ इस मुफ्त की सलाह के साथ ही एक जोर का ठहाका लगा. किसी ने हंसतेहंसते कहा, ‘‘श्रीधरन को भी ले आओ. उसे भी इस रूट की हालत पता चल जाएगी.’’ और इसी के साथ सुझावों की झड़ी लग गई.

‘‘भाई साहब, जब तक कोच नहीं बढ़ेंगे तब तक समस्या नहीं सुलझेगी,’’ एक ने कहा.

‘‘मेरे खयाल में फ्रीक्वेंसी बढ़ानी चाहिए,’’ एक महिला ने बहुमूल्य सुझाव दिया.

‘‘फ्रीक्वेंसी बढ़ाने से कुछ नहीं होगा. कोच ही बढ़ाने चाहिए.’’

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इस के साथ ही मैट्रो चल पड़ी. लोग चुप हो गए. थोड़ी देर में ही मैट्रो ने सीटी बजाते हुए स्टेशन मेें प्रवेश किया. चढ़ने वाले कतारबद्ध खड़े थे. दरवाजा खुलते ही लोग बाड़े में बंद भेड़बकरियों की तरह अपनेअपने गंतव्य की ओर भागे. इस तेजी से कुछ लोगों का मन  खिन्न हो उठा. ‘‘एक जमाना हुआ करता था. लोग फुरसत के क्षणों को बेहतरीन ढंग से बिताने के लिए कनाट प्लेस आया करते थे. गेलार्ड रेस्टोरैंट और शिवाजी स्टेडियम के पास बना कौफी हाउस तो कनाट प्लेस की जान और शान हुआ करते थे. कौफी हाउस में बुद्धजीवियों का जमघट रहता था. लंबेलंबे बहस मुबाहिसे चलते रहते थे. किसी को जल्दी नहीं,’’ एक व्यक्ति ने कनाट प्लेस के इतिहास की झलक दिखाई.

‘‘अरे, अपनीअपनी विचारधारा और मान्यताओं के हिसाब से जीनेमरने वाले लोग तर्कवितर्क की रणभूमि में जब अपनेअपने अस्त्रशस्त्र के साथ उतरते थे तो बेचारी निरीह जनता कौतूहल से मूकदर्शक बनी देखती, सुनती रहती थी. इस बौद्धिक युद्ध में आराम तो कतई हराम था. युद्धविराम तभी होता था जब मुद्दे का कोई हल निकल आता था. वक्त की कोई बाधा न थी.’’ दूसरे ने कनाट प्लेस का बौद्धिक पक्ष उजागर किया.

दूर खड़े एक सज्जन बड़ी देर से सबकुछ सुन रहे थे. वह भी बहती गंगा में हाथ धोने का लोभ संवरण नहीं कर पाए. उन के अंदर का कलाकार बाहर आ कर कहने लगा, ‘‘कई कलाकार, साहित्यकार और रचनाशील प्रकृति के हुनरमंद लोग हाथ में कौफी ले कर अधखुली पुतलियों को घुमाते हुए शरीर की बाधा को लांघ जाते थे. किसी और दुनिया में विचरण करतेकरते कालजयी कृतियों को जन्म दे डालते थे.’’

बासू के पास इस से ज्यादा सुनने का वक्त न था. वह तेजी से उतरा. भीड़ के रेले के साथ लगभग भागते हुए नीचे केंद्रीय सचिवालय-जहांगीरपुरी मैट्रो रेल लाइन पर पहुंच गया. गनीमत थी कि यहां की लाइन छोटी थी. 2 मिनट में ट्रेन आ गई. दरवाजा खुला. एक रेला तेजी से निकला. ज्यादातर लोग एस्केलेटर की ओर भागे. दरवाजे से भीड़ छटते ही वह तेजी से ट्रेन में घुस गया. अगला स्टेशन पटेल चौक था. स्टेशन आते ही वह उतरा और तेजी से सीढि़यों की ओर भागा. यहां पर ‘इफ यू वांट टू स्टे फिट, यूज स्टेअर्स’ लिखा हुआ था. परंतु लोग उन का उपयोग स्वेच्छा से नहीं, अपितु मजबूरी में कर रहे थे क्योंकि एस्केलेटर पर भारी भीड़ थी. उस ने जल्दीजल्दी कदम बढ़ाने शुरू किए. यातायात की चिल्लपों के साथसाथ चलते हुए वह अपने दफ्तर के सामने आ गया. यहां पर हड़बड़ी में असावधानी से सड़क पार करना अपनी मौत को दावत देने जैसा ही था. पता नहीं कब कौन सा वाहन आप की मौत का सामान बन जाए. उस ने सड़क पर दोनों ओर देखा और तेजी से सड़क पार करने लगा.

शाम को औफिस से निकलने के बाद जब वह राजीव चौक पहुंचा तो वहां का नजारा देख कर दंग रह गया. पूरा स्टेशन कुंभ मेले में तब्दील हो चुका था. जिधर देखो सिर ही सिर. यों तो लाइनें लगी हुई थीं. लाइनों में लगे पढ़ेलिखे, नौकरीपेशा और जागरूक नागरिक थे. पर जैसे ही ट्रेन आती, सारी तमीजतहजीब गधे के सिर से सींग की तरह गायब हो जाती.

लाइन मेें खड़े कुछ लोग बेचारे शराफत के पुतले बन कर चींटी की गति से आगे बढ़ रहे थे. उधर ‘बी प्रैक्टीकल, टैंशन लेने का नहीं, देने का है’ टाइप के लोग इस लोचेलफड़े में पड़ने को तैयार नहीं थे. वे लाइन की परवा किए बगैर सीधे ट्रेन में चढ़ रहे थे. इस पुनीत कार्य में महिला सशक्तीकरण से सशक्त हुई महिलाएं भी कतई पीछे न थीं. तमीज, तहजीब और कायदेकानून से चलने वाले लोग यों भी आज के जमाने में निरीह और बेचारे ही सिद्ध हो रहे हैं. अपने देश में विदेशों की कानून व्यवस्था की तारीफ के पुल बांधने वालों की कमी नहीं है. देश में इस के पालनहार गिनती के हैं. तुर्रा यह कि इस देश में वे लोग भी नियमकानून का पालन नहीं करते जो कई वर्ष विदेशों में रह कर आते हैं. जो वहां मौजूद सुविधाओं के बारे में बिना रुके बोलते रहते हैं.

एक दिन उसे मैट्रो कोच में कहीं से एक महिला की तेज आवाज सुनाई दी. वह किसी आदमी से मुखातिब थी, ‘‘आप जरा ठीक से खड़े होइए,’’ उस ने गर्जना की. ‘‘भीड़ इतनी है. क्या करें?’’ उस आदमी ने सच में दूर होने की कोशिश करते हुए कहा. पर कुछ अधिक नहीं कर पाया तो बोला, ‘‘अगर इतनी समस्या है तो आप टैक्सी क्यों नहीं कर लेतीं? यहां तो ऐसा ही होता है,’’ उस ने सचाई बताने की कोशिश की.

‘‘शटअप, इडियट.’’

पुरुष के कुछ कहने से पहले ही स्टेशन आ गया. महिला को वहीं उतरना था, सो वह उतर गई. पुरुष कसमसा कर रह गया. किसी महिला पीडि़त व्यक्ति ने उस की पीड़ा बांटते हुए कहा, ‘छोड़ो भाईसाहब, जमाना इन्हीं का है. बड़ी बदतमीज हो गई हैं ये,’’ उस के इस वाक्य से उस के जख्मों पर मरहम लग गया. वह ‘और नहीं तो क्या?’ कह कर शांत हो गया.

तभी सीट पर बैठी एक महिला ने अपने आसपास नजर दौड़ाई. वह उतरना चाह रही थी. सो उस ने रास्ते में खड़े लगभग 65 साल के आदमी से पूछा, ‘‘आप कहां उतरेंगे?’’ इस प्रश्न के लिए वह सज्जन तैयार नहीं थे. सो वह अचकचा गए. उन्हें अपनी निजता पर किया गया यह हमला कतई पसंद नहीं आया. सो उन्होंने प्रश्न के मंतव्य पर गौर न करते हुए जवाबी मिसाइल दाग दी.

‘‘व्हाई शुड आई टैल यू?’’

यह सुन कर महिला स्तब्ध रह गई और वह चुपचाप अपने स्टेशन पर उतर गई. वह सज्जन भी शांत हो अपने स्टेशन पर उतर गए. तभी किसी ने बताया, ‘‘दरअसल मैट्रो के लगातार विस्तार ने जहां एक ओर सुविधाएं दी हैं वहीं दूसरी ओर कुछ समस्याएं भी उत्पन्न कर दी हैं.’’ एक दिन बासू सुबह कुछ जल्दी निकला. उस ने देखा कि डब्बे के बीच में कालेज के कुछ विद्यार्थियों का झुंड खड़ा है. उन के युवा होने की खुशबू पूरे कोच में फैल रही थी. लड़कियां तितलियों की मानिंद और लड़के उन्मुक्त पंछियों की तरह मानो खुले आकाश में विचरण कर रहे हों. हंसी के ठहाके गूंज रहे थे. तभी एक लड़की ने लड़के से पूछा, ‘‘ओए प्रिंस, तेरी प्रैक्टीकल की फाइल कंपलीट हो गई?’’

‘‘तू अब पूछ रही है. वह तो मैं ने कब की कंपलीट कर के सबमिट भी करा दी.’’

‘‘चल, झूठा कहीं का,’’ यह कहने के साथ ही उस लड़की ने उस के गाल पर एक प्यार भरी चपत भी जड़ दी. मानो यह प्यारे से झूठ की प्यारी सी सजा हो.

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‘‘मैं झूठ नहीं बोल रहा. तू रवि से पूछ ले,’’ लड़के ने फिर झूठ बोला.

‘‘ओए, उस से क्या पूछूं. वह तो है ही एक नंबर का झूठा,’’ यह कहने के साथ ही उस ने रवि की पीठ पर भी एक हलकी सी चपत रख दी.

‘‘ओए, नैंसी…क्या कर रही है. मुझे क्यों मार रही है? मैं ने क्या किया है?’’ रवि ने प्यार भरी झिड़की दी.

‘‘ओए, तू ही सब का गुरु है,’’ अब स्वीटी ने उस के गाल पर हलकी चपत मारते हुए कहा.

‘‘यार, तू भी शुरू हो गई,’’ उस ने स्वीटी की तरफ दिलकश नजरों से देखते हुए कहा.

‘‘इस पुनीत से पूछते हैं. इस ने अब तक क्या किया है?’’ अब दीपिका ने नैंसी और स्वीटी की ओर देखते हुए कहा.

‘‘यार, क्या बताऊं, मेरा तो बहुत बुरा हाल है. मैं ने तो अब तक फाइल भी नहीं बनाई,’’ पुनीत ने मायूसी से कहा.

‘‘ओ हो हो…इस बेचारे का क्या होगा,’’ दीपिका ने अफसोस जताने का अभिनय करते हुए कहा.

‘‘यूनिवर्सिटी आ गई. चलो उतरो,’’ नैंसी ने प्रिंस को लगभग आगे की ओर धकेलते हुए कहा.

इस के साथ ही वे हंसते हुए उतर गए. उन के जाते ही ऐसा लगा मानो चहचहाते पंछियों का कोई झुंड पेड़ से उड़ कर मुक्त गगन में विचरण करने चला गया हो. एक दिन एक अधेड़ युवक और एक  युवती कोच को जोड़ने वाले ज्वाइंट  पर खड़े अपनी बातों में मशगूल थे. एक स्टेशन पर अचानक कुछ लड़कियां और कुछ स्त्रियां कपड़े, बरतनों की पोटली लिए उन के करीब आ धमकीं. वे पोटलियां इधरउधर फैला कर वहीं बैठ गईं. इस प्रयास में पोटली पास खड़े युवक की पैंट से टकरा गई.

‘‘अरे, तुझे दिखाई नहीं देता क्या?’’ युवक ने नाराज होते हुए कहा.

‘‘ऐसा क्या कर दिया जो बोल रहा है?’’ स्त्री उस की ओर देखते हुए बोली.

‘‘पोटली मार कर मेरी पैंट खराब कर दी और पूछ रही है कि क्या कर दिया?’’ उस ने गुस्से से देखते हुए कहा.

‘‘तो क्या हो गया? चढ़नेउतरने में ऐसा ही होता है.’’

‘‘ऐसा कैसे होता है? पोटली ले कर चलते हो. दूसरों के कपड़े खराब करते रहते हो.’’

‘‘ओए, ज्यादा बकवास न कर. मैट्रो तेरे बाप की नहीं है.’’

इस के बाद वह युवक भी गुस्से में कुछ और कहना चाहता था पर तभी किसी नेक आदमी ने नेक सलाह दी, ‘‘अरे, भाई साहब, किस के मुंह लग रहे हो? इन से आप जीत नहीं सकते. समझदार लोग बेवकूफों के मुंह नहीं लगा करते.’’ अपनेआप को समझदार सुनने के बाद वह आदमी चुप हो गया. हां, उस ने इतना अवश्य किया कि वहां से हट कर दूर खड़ा हो गया. नए साल के नए दिन जब बासू ट्रेन में चढ़ा तो अजब वाकया पेश आ रहा था. बहुत सारे लोग कान पर मोबाइल लगाए बातों में मशगूल हो रहे थे. अपनीअपनी धुन में मस्त. एक सज्जन कान से मोबाइल लगाए चिल्ला कर कुछ इस तरह बधाई दे रहे थे, ‘‘नहीं यार, मैं हैप्पी न्यू ईयर कह रहा हूं.’’ वहीं दूसरे सज्जन कुछ गुस्से में किसी को फोन पर धमका  रहे थे, ‘‘अबे तू पागल है. इतनी बात हो गई और तुझे हैप्पी न्यू ईयर की पड़ी है. कुछ सोचता भी है या नहीं…’’

एक अन्य सज्जन मोबाइल पर कुछ झल्ला रहे थे, ‘‘चिल्ला क्यों रहा है. मैं कोई बहरा हूं? तेरी गलती है. पहले बताना चाहिए था.’’

‘‘कितनी बार बता चुका हूं? पर तुझे सुनाई ही नहीं देता,’’ ये कोई और सज्जन थे जो फोन पर किसी को डांट रहे थे.

एक सज्जन सिर हिला कर किसी की बात से सहमत होते हुए बोल रहे थे, ‘‘हां हां, चाची 60 की हैं, साली 16 की.’’

‘‘तू ऐसा कर 60 वाली रहने दे और 16 वाली 100 भेज दे,’ उन के बगल में खड़े सज्जन फोन पर स्टील प्लेट्स का आर्डर दे रहे थे.

एक सज्जन फोन पर कुछ यों बोल रहे थे, ‘‘यार, बाहरवाली से ही इतना परेशान हो जाता हूं कि घरवाली की चिंता कौन करे?’’ तो उन्हीं के पास खड़े एक अन्य सज्जन किसी को इस तरह सांत्वना दे रहे थे, ‘‘यार, तू उस की टैंशन मत ले. उसे मैं संभाल लूंगा.’’ एक लड़का अपनी गर्लफ्रैंड से कुछ नोट्स लेने के लिए बड़ी देर से उस की चिरौरी कर रहा था. अचानक उस की आवाज तेज हो गई, ‘‘यार, इतनी देर से मांग रहा हूं, दे दे ना.’’

वहीं एक कोने में कंधा टिकाए खड़ी लड़की हंसते हुए अपने बौयफ्रैंड को यह कह कर नचा रही थी, ‘‘यार, जब देखो तब कुछ न कुछ मांगते रहते हो. मेहनत करो. कब तक मांगते रहोगे?’’ तभी दरवाजे के पास एक ग्रुप आ कर खड़ा हो गया. इस में 2 लड़के और 2 लड़कियां थीं. उन की बातचीत से लग रहा था कि वे डेटिंग पर जा रहे हैं. उन में से एक लड़का फोन पर बड़ी देर से किसी से हंसहंस कर बात कर रहा था. उस के पास खड़ी लड़की काफी परेशान हो रही थी. जब उस से न रहा गया तो वह बोल पड़ी, ‘‘ओए, हम भी हैं. भूल गया क्या?’’

काफी इंतजार करने के बाद जब उस ने फोन बंद किया तो लड़की ने हाथ बढ़ा कर उस का सेल फोन छीनने की कोशिश की. फोन स्विच औफ हो गया. लड़का भाव खा गया, ‘‘क्या यार, सोमी तू भी कमाल है. बात भी नहीं करने दी,’’ उस ने गुस्से से कहा.

‘‘हम यहां बेवकूफ हैं,’’ सोमी ने जवाब में कहा, ‘‘तू हमें अवौइड कर के इतनी देर से उस से बातें कर रहा है और हम से कह रहा है कि 2 मिनट सब्र नहीं कर सकती.’’

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‘‘लीव इट यार,’’ दूसरा लड़का जो काफी देर से शांत था, अब बोल पड़ा.

‘‘व्हाई लीव इट? सोमी सही कह रही है,’’ दूसरी लड़की ने सोमी का पक्ष लिया.

‘‘ओके. आई नो. पर बात को खत्म करो यार,’’ रोमी ने कहा.

‘‘मैं ने बहुत बार कहा पर यह नहीं माना. ज्यादा स्मार्ट समझता है अपने को,’’ सोमी ने कहा.

‘‘टैनी, मैं साफसाफ कह रही हूं. अगर तुझे वह पसंद है तो तू उसी के साथ जा पर यह नहीं होगा कि तू डेटिंग पर मेरे साथ जा रहा है और मजे किसी और के साथ कर रहा है. ऐसा नहीं चलेगा.’’

‘‘यार, तेरी प्रौब्लम क्या है? तू क्या करेगी,’’ वह भी भाव खाने लगा.

‘‘मैं तेरा फोन तोड़ डालूंगी.’’

‘‘ले तोड़,’’ यह कहने के साथ ही वह फिर फोन मिलाने लगा.

इस पर सोमी आपा खो बैठी. उस ने हाथ बढ़ा कर फोन छीनना चाहा. लड़के ने फोन जोर से पकड़ लिया. दोनोें के बीच छीनाझपटी में फोन मैट्रो के फर्श पर गिर कर टूट गया. दोनों के चेहरे तमतमा गए. तकरार में डेटिंग की मस्ती खत्म हो चुकी थी. इसलिए डेटिंग को वेटिंग बना चारों अगले स्टेशन पर उतर गए. तभी एक सज्जन के फोन की घंटी बज उठी, ‘‘हैलो…हैलो…’’

‘‘मैं हरी बोल रहा हूं,’’ दूसरी ओर से आवाज आई.

‘‘हां हरी, बोलो. क्या बात है?’’ उन्होंने पान की गिलौरी चबाते हुए कहा.

‘‘बाबा के क्या हालचाल हैं? पापा कह रहे हैं कि आज शाम को बाबा के घर जाएंगे,’’ दूसरी ओर से आवाज आई.

इस पर उन्होंने पान चबाते हुए जवाब दिया, ‘‘बाबा तो अजमेर गए.’’ तभी मैट्रो राजीव चौक में प्रवेश करने लगी. अंडरग्राउंड होेने से यहां कभीकभी फोन का नेटवर्क काम नहीं करता, सो उन के लाख चिल्लाने का कोई फायदा नहीं हुआ. नेटवर्क फेल हो गया और मैट्रो सीटी बजाती हुई तेजी से आगे बढ़ी जा रही थी.

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