Valentine’s Day 2024: अधूरे प्यार का अर्धसत्य

कालेज का पहला दिन था. मैं काफी नर्वस थी. अपनी क्लास ढूंढ़ रही थी. तभी मेरी मुलाकात एक लड़के से हुई. उस को देखते ही मुझे कुछ अपनेपन का एहसास हुआ. कहते हैं न, लव एट फर्स्ट साइट. बिलकुल वैसा ही था वह एहसास. उस ने पूछा, ‘‘कालेज में नई हो क्या?’’ मैं ने कहा, ‘‘हां, मैं अपनी क्लास ढूंढ़ रही हूं.’’

फिर वह मुझे क्लासरूम तक छोड़ कर आया. बातोंबातों में पता लगा हम दोनों सेम स्ट्रीम के स्टूडैंट हैं. बस, वह मुझे से सीनियर है. क्लासरूम तक जाते हुए उस ने इस कालेज के बारे में न जाने कितनी बातें बिना रुके बता दी थीं. मैं उसे सुनती जा रही थी और वह बोलता जा रहा था.

इस तरह अकसर हमारी मुलाकात कालेज कैंपस में होने लगी. कभी किताब के बहाने, तो कभी नोट्स के बहाने. उस के माथे पर बिखरे हुए बाल, उस की मुसकराहट मुझे आकर्षित करती थी. वह जो कहता, मैं मान लेती. देखते ही देखते 2 साल गुजर गए. मगर न मैं ने कभी अपनी फीलिंग्स उस से शेयर कीं और न ही उस ने मुझेसे. उस का फाइनल ईयर था. जैसेजैसे समय नजदीक आता जा रहा था, मेरी घबराहट बढ़ती जा रही थी. यह सोच कर मेरा मन दुखी रहता था कि वह अब इस कालेज से चला जाएगा. मैं हमेशा बेचैन रहती थी. एक दिन उस ने मुझे  कौफी शौप में बुलाया और कहा, ‘‘अब शायद हमारी मुलाकात न हो. मैं आगे की पढ़ाई के लिए बेंगलुरु जा रहा हूं.’’

यह सुन कर मैं एक पल के लिए उस की आंखों में देखती रही. मुझे  लगा शायद अब वह अपने दिल की बात कहेगा. फिर उस ने कहा, ‘‘तुम दिल की बहुत अच्छी हो. तुम हमेशा मेरी अच्छी दोस्त बन कर रहना.’’

मैं ने उस की बात का कोई जवाब नहीं दिया. बस, इतना ही पूछा, ‘‘तुम तो खुश हो न, बेंगलुरु जाने की बात से?’’

वह बोला, ‘‘हां, मैं बहुत खुश हूं. मेरी गर्लफ्रैंड भी वहीं रहती है.’’

पिछले 2 सालों में उस ने कभी अपनी गर्लफ्रैंड के बारे में नहीं बताया था. मैं उस से कुछ नहीं कहना चाहती थी. अब उस के सामने अपने प्यार का इजहार भी नहीं करना चाहती थी. और उसे रोते हुए विदा भी नहीं करना चाहती थी. वह चला गया और मेरा प्यार हमेशा के लिए अधूरा रह गया.

वह जो उस के साथ गुजरा, वह वक्त, वह लम्हा अब भी मेरी सांसों में जिंदा है. अब उस की ही खुमारी में आने वाला वक्त भी गुजर ही जाएगा. वह जो गुजर गया वह बेशकीमती था, उसे संभाल कर कहीं रख सकें, ऐसा कोई कोना नहीं मिला.

कुछ गुजरा वक्त, कुछ उस की यादें, कुछ उस के फीके पड़ते निशान, कुछ उस की खींची हुई लकीरें जो अभी फीकी नहीं पड़ी हैं. कुछ उन से जुड़ा, कुछ अलग होता हुआ सा, कुछ पीछे छूटता हुआ सा, कुछ उसे फिर से पा लेने की ख्वाहिश, कुछ उसे फिर से लौटा लाने की चाह, कुछ उसे रोक लेने की कोशिश, कुछ उसे एक बार फिर से महसूस करने की ख्वाहिश. कुछ है, कहीं है, जाने कहां खोया, कब खोया, कैसे खोया पर फिर उसे ढूंढ़ लाने और बांध कर रख लेने की ख्वाहिशें.

Valentine’s Day 2024: तरकीब- पति की पूर्व प्रेमिका ने कैसे की नेहा की मदद

हमने अपनी शादी की पहली सालगिरह की पार्टी का आयोजन बैंक्वेटहौल में किया था. ब्यूटीपार्लर से बनसंवर कर जब मैं वहां राजीव के सामने पहुंची, तो उन्होंने मेरी प्रशंसा करते हुए सीटी बजा दी.

‘‘थैंक यू, डार्लिंग. तुम भी किसी फिल्म स्टार से कम नहीं दिख रहे हो,’’ मेरे मुंह से अपनी तारीफ सुन उन का चेहरा भी खुशी से खिल उठा. धीरेधीरे मित्र और रिश्तेदार पार्टी में पहुंचने लगे. राजीव और मैं पूरे उत्साह से उन की आवभगत में लग गए. हमारी आंखें जब भी आपस में टकरातीं, तो वे खुश हो कर मुसकराते जिस से मेरे दिल में अजीब सी गुदगुदी पैदा हो जाती. फिर मेरे मायके वाले आ पहुंचे. भैयाभाभी और मम्मीपापा ने मुझे गले लगा कर शुभकामनाएं दीं. जब राकेश जीजाजी ने मुझे गले लगा कर मुबारकबाद दी, तो मेरे देखते ही देखते राजीव के माथे पर बल पड़ गए. लेकिन अब जीजाजी ने मुड़ कर राजीव को मुबारकबाद दी, तो वे उन से गले लग कर मिले. उस वक्त उन के मधुर व्यवहार को देख कर कोई नहीं कह सकता था कि वे मन ही मन जीजाजी से चिढ़े हुए थे.

‘‘मैं तुम्हारी पत्नी हूं, इस बात का मुझे गर्व है,’’ मैं ने अचानक राजीव का हाथ पकड़ कर प्यार से दबाया और फिर उन के होंठों पर उभरी प्यारी सी मुसकान देखने के बाद अन्य मेहमानों की आवभगत में व्यस्त हो गई. मैं ने जब राजीव से शादी के लिए हां की थी, तब उन के व्यवहार से उन की ईर्ष्यालू प्रवृत्ति को दर्शाने वाला कोई संकेत मेरी पकड़ में नहीं आया था. अपने मौसेरे भाई की शादी में मेरा परिचय राजीव से हुआ था. वे नवीन भैया के खास दोस्त थे. उस शादी में मुझ पर लाइन मारने वाले लड़कों की कमी नहीं थी, पर राजीव ने मेरा दिल जीतने के लिए कोई कसर नहीं छोड़ी थी. हम बरात के साथ खूब नाचतेगाते गए थे. राजीव को ज्यादा अच्छा नाचना नहीं आता था, लेकिन मेरे इर्दगिर्द वे ही सब से ज्यादा जोशीले अंदाज में थिरकते नजर आए थे. मेरी नजरों में चढ़ने के लिए उन्होंने मुझे और मेरी सहेलियों को सारे स्नैक्स भागभाग कर चखाए. वे हर फोटो में मेरे साथ या पीछे खड़े नजर आते. उन के दोस्तों और मेरी सहेलियों ने उन की बहुत टांगखिंचाई की, पर उन्होंने मेरे इर्दगिर्द मंडराना नहीं छोड़ा था. मैं ने उन्हें उस रात ज्यादा लिफ्ट तो नहीं दी, पर यह भी सच है कि उन के लिए मेरे दिल में प्यार का छोटा सा अंकुर फूट जरूर आया था. बाद में उन्होंने मेरे औफिस के चक्कर लगाने शुरू किए. मुझे और मेरी 2 सहेलियों को 3 बार कौफी पिलाने के बाद उन्हें मेरे साथ अकेले में घूमने का मौका मिला था.

कुछ दिनों के बाद वे मेरे सारे दोस्तों से परिचित हो गए. उन के बीच राजीव की लोकप्रियता देखते ही बनती थी. उन जैसा मिलनसार और हंसमुख प्रेमी पा जाने के लिए वे सभी मुझे बहुत खुशहाल मानते थे. पहली बार वे मेरे घर नवीन भैया के साथ आए और अगली बार अपने मम्मीडैडी के साथ. उन दोनों ने उसी दिन मुझे अपने घर की बहू बनाने की इच्छा प्रकट कर दी. मेरी राय जानने के बाद पापा ने भी अगले दिन उन्हें हां कह दी. अपनी शादी की सालगिरह की पार्टी में हम ने डांस करने के शौकीनों के लिए डीजे का इंतजाम किया था. राजीव के कुछ दोस्तों ने सब से पहले हम दोनों को डांस फ्लोर पर खड़ा कर दिया और फिर तालियां व सीटियां बजाबजा कर हमारा उत्साह बढ़ाने लगे. मैं ने पूरा साल काफी मेहनत की थी, पर राजीव को ढंग से नाचना नहीं सिखा पाई. लेकिन वे शरमाने वालों में से नहीं थे. उन के नाचने के जोशीले स्टाइल को देख कर कई मेहमानों के पेट में हंसतेहंसते बल पड़ गए.

डांस फ्लोर पर कुछ और जोड़े आ गए तो मैं ने राजीव से पूछा, ‘‘क्या हम अब मेहमानों की देखभाल करने चलें?’’

‘‘यस, स्वीटहार्ट,’’ उन्होंने मेरा हाथ थामा और डांस फ्लोर से उतर कर मेहमानों की तरफ चल पड़े.

उन्होंने मेरा हाथ बड़ी देर तक नहीं छोड़ा. इस बात से कुछ लोगों ने शायद यह अंदाजा लगाया होगा कि हम जरूरत से ज्यादा बन रहे हैं, लेकिन असली कारण मैं ही समझ रही थी. राजीव नहीं चाहते थे कि मैं किसी और के साथ डांस करूं. इसीलिए वे मुझे अपने साथ लिए मेहमानों के बीच घूम रहे थे. फिर वही हुआ जो वे नहीं चाहते थे. मैं ने अपने कालेज के कुछ दोस्तों को भी आमंत्रित किया था. वे सब मस्त हो कर डांस कर रहे थे और मौका मिलते ही मेरा हाथ पकड़ कर मुझे भी डांस फ्लोर पर खींच लिया. उन के साथ नाचते हुए मुझे इस बात का एहसास था कि राजीव इस वक्त मन ही मन किलस रहे होंगे.

मुश्किल से 5 मिनट भी नहीं गुजरे और राजीव डांस फ्लोर पर पहुंच गए. मेरे दोस्तों का हौसला बढ़ाते हुए उन्होंने मुंह में उंगली डाल कर जब सीटियां बजानी शुरू कीं, तो माहौल और ज्यादा मस्त हो उठा. जब गाना बदला, तो वे मेरा हाथ पकड़ कर फ्लोर से उतर आए. फिर मेरे कान के पास मुंह ला कर नाराजगी प्रकट करते हुए कहा, ‘‘अब तुम कालेज स्टूडैंट नहीं हो, नेहा. एक शादीशुदा स्त्री को सलीके से व्यवहार करना आना चाहिए. तुम ढील दोगी, तो इन्हीं दोस्तों में से कोई बदतमीज तुम्हारे साथ चीप हरकत करने की जुर्रत कर बैठेगा.’’

‘‘तुम मेरी कितनी चिंता करते हो. आई लव यू, डार्लिंग,’’ उन की आंखों में मैं ने प्यार से झांका, तो वे संतुष्ट भाव से मुसकरा उठे. शादी के कुछ हफ्तों बाद से ही मुझे उन के ईर्ष्यालू स्वभाव की झलक दिखने लगी थी. जब भी हमउम्र युवकों के साथ हंसबोल कर हम घर लौटते, तो वे जरूर मुझ से झगड़ा करते.

‘‘मैं तुम्हारे या अपने दोस्तों से सिर्फ मनोरंजन की खातिर हंसतीबोलती हूं… किसी के साथ चक्कर चलाने की मेरी कोई मंशा नहीं है, क्योंकि न मैं चरित्रहीन हूं और न ही तुम से असंतुष्ट. फिर तुम क्यों इस बात को ले कर मुझ से बारबार झगड़ते हो?’’ शुरू में उन्हें बड़े प्यार से समझाने की कोशिश करती थी. ऐसा नहीं कि मेरी बात उन की समझ में नहीं आती थी. वे बड़ी जल्दी सहज हो कर मुझ से हंसनेबोलने लगते, पर अगला मौका मिलते ही वे फिर मेरे पीछे पड़ने से नहीं चूकते थे. राजीव का मेरे चरित्र पर शक करना मुझे धीरेधीरे ज्यादा खलने लगा. इस कारण हमारे बीच हर पार्टी से लौटने के बाद बहस और झगड़ा होता. मैं पहले की तरह उन का लैक्चर आराम से नहीं सुनती थी, इस कारण वे मुझ से ज्यादा देर तक नाराज रहते थे. मुझे मनाने का काम वे जल्दी नहीं करते और मैं भी पहले की तरह आसानी से सहज नहीं हो पाती थी. कई बार ऐसा भी हुआ कि किलस कर मैं ने कुछ पार्टियों में किसी भी आदमी से बात नहीं की. मुझे यों चुपचुप देखना भी राजीव को पसंद नहीं आता और तब उन से अलग तरह का लैक्चर मुझे सुनने को मिलता.

‘‘तुम्हें साथ ले कर कहीं जाना सिरदर्दी बनता जा रहा है, नेहा, यों मुंह फुला कर घूमना था, तो यहां आई ही क्यों?’’ मेरे चुप रहने पर भी वे गुस्सा होते. मेरा समझाना, नाराज हो कर झगड़ना या चुप रहना उन में बदलाव नहीं ला सका था. मैं इस समस्या को हल करने का कोई और तरीका सोच पाती उस से पहले ही जीजाजी वाली घटना घट गई. यह हमारी शादी होने के करीब 8 महीने बाद की घटना है. उन दिनों मैं सप्ताह भर के लिए मायके रहने आई हुई थी. मेरे लौटने वाले दिन दीदी और जीजाजी मिलने आ गए. मुझे वापस ले जाने को राजीव उस शाम को आने वाले थे. शाम के समय दीदी, जीजाजी और मैं गपशप करते हुए छत पर टहल रहे थे. कुछ देर बाद दीदी मां के साथ रसोई में काम कराने नीचे चली गईं.

राजीव के पहुंचने का हमें पता नहीं चला था. जब वे अचानक छत पर पहुंचे, उस वक्त मैं जीजाजी की किसी बात पर बड़ी जोर से हंस रही थी.

‘‘कौन सा चुटकुला सुनाया है तुम्हारे जीजाजी ने, मुझे भी बताओ,’’ राजीव मुसकराते हुए हमारे पास आ गए.

‘‘अरे, हम वैसे ही हंस रहे थे. क्या हालचाल हैं तुम्हारे? नेहा से दूर हो कर हफ्ते भर में ही दुबले हो गए तुम तो,’’ जीजाजी के इस मजाक पर सब से जोर से राजीव ने ही ठहाका लगाया था. कुछ देर बाद जीजाजी हमें अकेला छोड़ कर नीचे चले गए. मैं ने भावुक अंदाज में उन का हाथ पकड़ कर चूमना चाहा, तो उन्होंने झटके से अपना हाथ छुड़ाया और गुस्से से बोले, ‘‘कोई जरूरत नहीं है मेरे साथ प्यार का नाटक करने की.’’

‘‘यह क्या कह रहे हो?’’ उन की खराब सोच को उसी क्षण पकड़ लेने के कारण मुझे भी गुस्सा आ गया.

‘‘मैं ठीक ही कह रहा हूं. अरे, तुम उन औरतों में से हो, जिन्हें फ्लर्ट करना ही करना है. फिर मैं तुम्हारे प्यार पर कैसे विश्वास करूं?’’

‘‘बेकार की बातें सोचसोच कर तुम्हारा दिमाग खराब हो गया है,’’ चिढ़ और फिर गुस्से का शिकार हो मैं नीचे जाने को मुड़ गई.

तब उन्होंने अचानक मेरे बाल पकड़ लिए. मैं ने उन्हें छुड़ाने की कोशिश की, पर उन की पकड़ ढीली नहीं हुई. तेज पीड़ा के कारण मेरी आंखों में आंसू छलक आए. ‘‘मेरी बात पूरी होने से पहले भागने की कोशिश की, तो मुझ से बुरा कोई न होगा,’’ मेरे बालों को जोर से एक झटका देने के बाद ही उन्होंने अपनी पकड़ ढीली की थी. उन की इस जानवर जैसी हरकत के बाद मैं ने उस रात उन के साथ ससुराल लौटने से इनकार कर दिया. किसी के समझाने का मुझ पर कोई असर नहीं हुआ था. राजीव की मुझे मनाने की कोशिशें भी बेकार गई थीं. अब तक उन के गलत व्यवहार को मैं सब से छिपाती आई थी, पर उस बार मैं ने सब को उन के शक्की स्वभाव से परिचित करा दिया.

‘‘नेहा, अभी ज्यादा दुखी और परेशान है, राजीव. तुम कुछ दिन बाद इसे वापस ले जाना,’’ मां ने उन्हें ऐसा कुछ समझा कर विदा कर दिया था. मेरी नाराजगी वक्त के साथ कम नहीं हुई थी. जब भी बाल पकड़ने से हुए अपमान की पीड़ा याद आती, मेरा मन राजीव के प्रति अजीब सी नफरत से भर उठता था. तब एक शाम मुझ से मिलने कविता आई. बातों ही बातों में बोली, ‘‘कभी राजीव और मैं शादी करने के इच्छुक थे, नेहा. मुझे तुम दोनों के रिश्ते के बीच दरार पड़ने की खबर मिली, तो मैं यहां आने से खुद को रोक नहीं पाई. इस मामले में मैं तुम्हारी हैल्प कर सकती हूं, नेहा.’’ वह मेरे दुख में दुखी नजर आ रही थी. मुझे उस की यह बात मेरे मन को प्रभावित कर गई. अत: पूछा, ‘‘कैसे?’’ उस शाम वह मेरे पास 2 घंटे रुकी और विदाई के वक्त तक सचमुच ही मुझे मेरी समस्या का समाधान नजर आ गया था.

राजीव की भूतपूर्व प्रेमिका को उस के पति अरुण के साथ अपनी शादी की पहली वर्षगांठ की पार्टी में मैं ने आमंत्रित किया था. राजीव को इस का पता नहीं था. इसीलिए उस रात उन दोनों को अचानक सामने देख कर वे हैरान रह गए थे. वे अरुण के कभी अच्छे दोस्त हुआ करते थे. शुरू में वे कुछ बेचैन से दिखे, पर जल्द ही उन्होंने खुद को संभाल लिया.

‘‘तुम दोनों की मुलाकात कैसे हुई?’’ राजीव ने कविता से अपनी उत्सुकता शांत करने के लिए पूछा.

‘‘तुम ने तो कभी हमें मिलाया नहीं, तो एक दिन मैं नेहा से उस के मम्मीपापा के घर मिलने खुद ही पहुंच गई थी. मेरी मौसी का घर इन की कालोनी में ही है,’’ कविता ने कुछ सच और कुछ झूठ मिला कर जवाब दिया. ‘‘यह तो हमें शादी में बुलाना भी भूल गया था. अब नेहा ने तुम्हें सरप्राइज देने को हमें पार्टी में बुला लिया है, इस बात के लिए अब उस से झगड़ा मत करना, यार,’’ अरुण ने मजाक किया.

‘‘नेहा मेरे दिल की रानी भी है और मेरी बौस भी. यह जो चाहे कर सकती है,’’ राजीव ने बड़े रोमांटिक अंदाज में मेरा हाथ चूम कर मुझे भी मन ही मन चौंका दिया.

‘‘नेहा ने बताया कि तुम बड़ा अच्छा डांस करना सीख गए हो. क्या यह सच है?’’ कविता के द्वारा राजीव से पूछे गए इस सवाल का जवाब मैं ने हंसते हुए दिया, ‘‘अरे, तुम राजीव के साथ डांस कर के अपने सवाल का जवाब पा लो न.’’

‘‘गुड आइडिया.’’ कविता ने राजीव को सोचने का मौका नहीं दिया और उन का हाथ पकड़ कर डांस फ्लोर की तरफ बढ़ गई.

‘‘तुम अब खुश हो न राजीव के साथ?’’ उन के कुछ दूर जाने के बाद अरुण ने बड़े शिष्ट लहजे में मुझ से सवाल किया.

‘‘बहुत,’’ मैं ने सचाई बयान की.

‘‘राजीव दिल का बहुत अच्छा है.’’

‘‘इसीलिए उन के स्वभाव की वह कमी अब मुझे बिलकुल परेशान नहीं करती है.’’

‘‘गुड.’’

‘‘मैं कविता की और तुम्हारी आजीवन आभारी रहूंगी.’’

‘‘हमारी शुभकामनाएं हमेशा तुम्हारे साथ हैं,’’ मेरा कंधा प्यार से दबाने के बाद अरुण स्नैक्स की ट्रौली की तरफ बढ़ गए. मुझे कविता के साथ हुई पहली मुलाकात के अवसर पर हमारे बीच जो वार्तालाप हुआ था, उस के कुछ अंश याद आए कविता ने भावुक हो कर अपनी आपबीती मुझे सुनाई, ‘‘नेहा, मेरे पति अरुण, राजीव और मैं अच्छे दोस्त थे. अचानक मुझे अरुण की नजरों में अपने लिए प्यार के भाव नजर आने लगे, तो मैं ने उस की तरफ कुछ ज्यादा ध्यान देना शुरू कर दिया था.’’

‘‘लेकिन तुम तो खुद को राजीव की प्रेमिका बता रही हो,’’ मैं उलझन में पड़ गई.

‘‘हां, प्रेमिका तो मैं राजीव की ही बनी थी. उसे यह बात हजम नहीं हुई कि मेरा रुझान अरुण की तरफ ज्यादा होता जा रहा है. तब उस ने मेरा दिल जीतने का अभियान युद्ध स्तर पर छेड़ा और मैं धोखा खा गई.’’ ‘‘मैं ने अरुण के बजाय राजीव को अपना दिल दे दिया, पर यह मेरी भारी भूल साबित हुई. प्रेमी का दर्जा पाते ही राजीव ने मेरे ऊपर बंदिशें लगानी शुरू कर दीं. वह नहीं चाहता था कि मैं किसी भी ऐसे युवक के साथ हंसूंबोलूं जो किसी भी बात में उस से बेहतर हो.’’

‘‘राजीव मेरा प्रेमी बन गया, तो अरुण ने मेरे प्रति अपनी कोमल भावनाओं को नियंत्रित कर लिया. फिर भी राजीव चाहता था कि मैं तो उस से बोलना बहुत कम कर दूं, पर वह खुद उस का पहले की तरह दोस्त बना रहे.

‘‘बिना कारण मैं अरुण से बोलचाल बंद कर देती तो अपनी नजरों में ही गिर जाती. मैं ने हर तरह से राजीव को समझाने की कोशिश की, पर बात नहीं बनी.

‘‘फिर एक दिन हमारे बीच भयंकर झगड़ा हुआ. उस ने मुझे बहुत अपशब्द कहे. मैं उस से इतनी ज्यादा खफा हुई कि उस झगड़े का अंत हमारे प्रेम संबंध के टूट जाने के साथ हुआ.’’ ‘‘जैसा तुम्हारे साथ घटा, बिलकुल वैसा ही मेरे साथ हो रहा है. मैं भी उन के बेवजह के शक्की व्यवहार से बुरी तरह तंग आ चुकी हूं,’’ मेरी आंखों में आंसू छलक आए.

‘‘राजीव में बस यही एक बहुत बड़ी कमी है. वैसे वह दिल का बहुत अच्छा है न?’’

‘‘हां, पर…’’

‘‘अब मैं तुम्हें इस समस्या से निबटने का रास्ता दिखाती हूं. तुम मेरी बात ध्यान से सुनो…’’ उस शाम मुझे राजीव के शक्की व्यवहार के कारण हमारे बीच आएदिन होने वाले झगड़ों से निबटने की कारगर तरकीब समझ आ गई थी. ‘‘राजीव तुम्हें कमजोर चरित्र की नहीं मानता है, नेहा. उसे तो इस बात की फिक्र रहती है कि कोई आकर्षक पुरुष तुम्हें उस से वैसे ही न छीन ले, जैसे उस ने मुझे अरुण से छीना था,’’ कविता से मिली इस समझ ने मेरी समस्या का समाधान कर दिया. कविता से हुई पहली मुलाकात के अगले दिन मैं खुद ही पापा के साथ राजीव के पास लौट आई. मुझे अचानक सामने देख कर उन की आंखें खुशी से चमक उठीं. अब राजीव जब भी किसी आदमी के साथ मेरे हंसनेबोलने पर एतराज प्रकट करते हैं, तो मैं न नाराज होती हूं, न रूठती हूं और न ही उन्हें समझाने की कोशिश करती हूं. अब मैं फौरन कुछ वैसा ही करती हूं, जैसा मैं ने शादी की सालगिरह का केक काटने के समय किया. केक कटने के बाद मेरे कालेज के 2 दोस्तों ने कुछ ज्यादा ही उत्साह का प्रदर्शन करते हुए मुझे अपने हाथों से केक आधा खिलाया और आधा मेरे गाल पर रगड़ दिया. मौका मिलते ही मैं नाराज नजर आ रहे राजीव के पास पहुंची और उन के कान के पास मुंह ले जा कर मादक स्वर में बोली, ‘‘इस केक को मेरे गाल पर मेरा कोई दोस्त भी लगा सकता है, पर आज रात को इस गाल पर लगे केक की मिठास चखने का अधिकार सिर्फ तुम्हारा है.’’

रात के उस दृश्य की कल्पना करते ही उन की सारी नाराजगी दूर हो गई. उन्हें कुछ गलत बोलने का मौका मैं ने फिर नहीं दिया था. अप्रत्यक्ष रूप से उन्हें अपने प्यार व वफा का विश्वास दिला कर मैं ने उन के और अपने मन की सुखशांति को नष्ट करने वाली बहस से एक बार फिर बचा लिया था.

सौतेली: क्या धोखे से उभर पाई शेफाली

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एक प्रश्न लगातार: क्या कमला कर देगी खुलासा?

रजाई में मुंह लपेटे केतकी फोन की घंटी सुन तो रही थी पर रिसीवर उठाना नहीं चाहती थी सो नींद का बहाना कर के पड़ी रही. बाथरूम का नल बंद कर रोहिणी ने फोन उठाया रिसीवर रखने की आवाज सुनते ही जैसे केतकी की नींद खुल गई हो, ‘‘किस का फोन था, ममा?’’

‘‘कमला मौसी का.’’

यह नाम सुनते ही केतकी की मुख- मुद्रा बिगड़ गई.

रोहिणी जानती है कि कमला का फोन करना, घर आना बेटी को पसंद नहीं. उस की स्वतंत्रता पर अंकुश जो लग जाता है.

‘‘आने की खबर दी होगी मौसी ने?’’

‘‘कालिज 15 तारीख से बंद हो रहे हैं, एक बार तो हम सब से मिलने आएगी ही.’’

‘‘ममा, 10 तारीख को हम लोग पिकनिक पर जा रहे हैं. मौसी को मत बताना, नहीं तो वह पहले ही आ धमकेंगी.’’

‘‘केतकी, मौसी के लिए इतनी कड़वाहट क्यों?’’

‘‘मेरी जिंदगी में दखल क्यों देती हैं?’’

‘‘तुम्हारी भलाई के लिए.’’

‘‘ममा, मेरे बारे में उन्हें कुछ भी मत बताना,’’ और वह मां के गले में बांहें डाल कर झूल गई.

‘‘तुम जानती हो केतकी, तुम्हारी मौसी कालिज की प्रिंसिपल है. उड़ती चिडि़या के पंख पहचानती है.’’

‘अजीब समस्या है, जो काम ये लोग खुद नहीं कर पाते मौसी को आगे कर देते हैं. इस बार मैं भी देख लूंगी. होंगी ममा की लाडली बहन. मेरे लिए तो मुसीबत ही हैं और जब मुसीबत घर में ही हो तो क्या किया जाए, केतकी मन ही मन बुदबुदा उठी, ‘पापा भी साली साहिबा का कितना ध्यान रखते हैं. वैसे जब भी आती हैं मेरी खुशामदों में ही लगी रहती हैं. मुझे लुभाने के लिए क्या बढि़याबढि़या उपहार लाती हैं,’ और मुंह टेढ़ा कर के केतकी हंस दी.

‘‘अकेले क्या भुनभुना रही हो, बिटिया?’’

‘‘मैं तो गुनगुना रही थी, ममा.’’

मातापिता के स्नेह तले पलतीबढ़ती केतकी ने कभी किसी अभाव का अनुभव नहीं किया था. मां ने उस की आजादी पर कोई रोक नहीं लगाई थी. पिता अधिकाधिक छूट देने में ही विश्वास करते थे, ऐसे में क्या बिसात थी मौसी की जो केतकी की ओर तिरछी आंख से देख भी सकें.

इस बार गरमियों की छुट्टियों में वह मां के साथ लखनऊ जाएंगी. मौसी ने नैनीताल घूमने का कार्यक्रम बना रखा था. कालिज में अवकाश होते ही तीनों रोमांचक यात्रा पर निकल गईं. रोहिणी और कमला के जीवन का केंद्र यह चंचल बाला ही थी.

नैनी के रोमांचक पर्वतीय स्थल और वहां के मनोहारी दृश्य सभी कुछ केतकी को अपूर्व लग रहे थे.

‘‘ममा, आज मौसी बिलकुल आप जैसी लग रही हैं.’’

‘‘मेरी बहन है, मुझ जैसी नहीं लगेगी क्या?’’

इस बीच कमला भी आ बैठी. और बोली, ‘‘क्या गुफ्तगू चल रही है मांबेटी में?’’

‘‘केतकी तुम्हारी ही बात कर रही थी.’’

‘‘क्या कह रही हो बिटिया, मुझ से कहो न?’’ कमला केतकी की ओर देख कर बोली.

‘‘मौसी, यहां आ कर आप प्रिंसिपल तो लगती ही नहीं हो.’’

सुन कर दोनों बहनें हंस दीं.

‘‘इस लबादे को उतार सकूं इसीलिए तो तुम्हें ले कर यहां आई हूं.’’

‘‘आप हमेशा ऐसे ही रहा करें न मौसी.’’

‘‘कोशिश करूंगी, बिटिया.’’

खामोश कमला सोचने लगी कि यह लड़की कितनी उन्मुक्त है. केतकी की कही गई भोली बातें बारबार मुझे अतीत की ओर खींच रही थीं. कैसा स्वच्छंद जीवन था मेरा. सब को उंगलियों पर नचाने की कला मैं जानती थी. फिर ऐसा क्या हुआ कि शस्त्र सी मजबूत मेरे जैसी युवती कचनार की कली सी नाजुक बन गई.

सच, कैसी है यह जिंदगी. रेलगाड़ी की तरह तेज रफ्तार से आगे बढ़ती रहती है. संयोगवियोग, घटनाएंदुर्घटनाएं घटती रहती हैं, पर जीवन कभी नहीं ठहरता. चाहेअनचाहे कुछ घटनाएं ऐसी भी घट जाती हैं जो अंतिम सांस तक पीछा करती हैं, भुलाए नहीं भूलतीं और कभीकभी तो जीवन की बलि भी ले लेती हैं.

अच्छा घरवर देख कर कमला के  मातापिता उस का विवाह कर देना चाहते थे पर एम.ए. में सर्वाधिक अंक प्राप्त करने पर स्कालरशिप क्या मिली, उस के तो मानो पंख ही निकल आए. पीएच.डी. करने की बलवती इच्छा कमला को लखनऊ खींच लाई. यूनिवर्सिटी के एक प्रोफेसर मुकेश वर्मा के निर्देशन में रिसर्च का काम शुरू किया. 2 साल तक गुरु और शिष्या खूब मेहनत से काम करते रहे. तीसरे साल में दोनों ही काम समाप्त कर थीसिस सबमिट कर देना चाहते थे.

‘कमला, इस बार गरमियों की छुट्टियों में मैं कोलकाता नहीं जा रहा हूं. चाहता हूं, कुछ अधिक समय लगा कर तुम्हारी थीसिस पूरी करवा दूं.’

‘सर, अंधा क्या चाहे दो आंखें. मैं भी यही चाहती हूं.’

थीसिस पूरी करने की धुन में कमला सुबह से शाम तक लगी रहती. कभीकभी काम में इतनी मग्न हो जाती कि उसे समय का एहसास ही नहीं होता और रात हो जाती. साथ खाते तो दोनों में हंसीमजाक की बातें भी चलती रहतीं. रिश्तों की परिभाषा धीरेधीरे नया रूप लेने लगी थी. प्रो. वर्मा अविवाहित थे. कमला को विवाह का आश्वासन दे उन्होंने उसे भविष्य की आशाओं से बांध लिया. धीरेधीरे संकोच की सीमाएं टूटने लगीं.

‘कितना मधुर रहा हमारा यह ग्रीष्मावकाश, समय कब बीत गया पता ही नहीं चला.’

‘अवकाश समाप्त होते ही मैं अपनी थीसिस प्रस्तुत करने की स्थिति में हूं.’

‘हां, कमला, ऐसा ही होगा. मेरे विभाग में स्थान रिक्त होते ही तुम्हारी नियुक्ति मैं यहीं करवा लूंगा, फिर अब तो तुम्हें रहना भी मेरे साथ ही है.’

इन बातों से मन के एकांतिक कोनों में रोमांस के फूल खिल उठते थे. जीवन का सर्वथा नया अध्याय लिखा जा रहा था.

‘तुम्हारी थीसिस सबमिट हो जाए तो मैं कुछ दिन के लिए कोलकाता जाना चाहता हूं.’

‘नहीं, मुकेश, अब मैं तुम्हें कहीं जाने नहीं दूंगी.’

‘अरी पगली, परिवार में तुम्हारे शुभागमन की सूचना तो मुझे देनी होगी न.’

‘सच कह रहे हो?’

‘क्यों नहीं कहूंगा?’

‘मुकेश, किस जन्म के पुण्यों का प्रतिफल है तुम्हारा साथ.’

‘तुम भी कुछ दिन के लिए घर हो आओ, ठीक रहेगा.’

परिवार में कमला का स्वागत गर्मजोशी से हुआ. पहले दिन वह दिन भर सोई. मां ने सोचा बेटी थकान उतार रही है. फिर भी उन्हें कुछ ठीक नहीं लग रहा था. अनुभवी आंखें बेटी की स्थिति ताड़ रही थीं. एक सप्ताह बीता, मां ने डाक्टर को दिखाने की बात उठाई तो कमला ने खुद ही खुलासा कर दिया.

‘विवाह से पहले शारीरिक संबंध… बेटी, समाज क्या सोचेगा?’

‘मां, आप चिंता न करें. हम दोनों शीघ्र ही विवाह करने वाले हैं. वैसे मुझे लखनऊ यूनिवर्सिटी में लेक्चररशिप भी मिल गई है. मुकेश भी वहीं प्रोफेसर हैं. मैं आज ही फोन से बात करूंगी.’

‘जरूर करना बेटी. समय पर विवाह हो जाए तो लोकलाज बच जाएगी.’

कमला ने 1 नहीं, 2 नहीं कम से कम 10 बार नंबर डायल किए, पर हर बार रांग नंबर ही सुनना पड़ा. वह बहुत दिनों तक आशा से बंधी रही. समय बीतता जा रहा था. उस की घबराहट बढ़ती जा रही थी. बड़ी बहन रोहिणी भी चिंतित थी. वह उसे अपने साथ पटना ले आई. नर्सिंग होम में भरती करने के दूसरे दिन ही उस ने एक कन्या को जन्म दिया. पर वह कमला की नहीं रोहिणी की बेटी कहलाई. सब ने यही जाना, यही समझा. इस तरह समस्या का निराकरण हो गया था. मन और शरीर से टूटी विवश कमला ड्यूटी पर लौट आई.

निसंतान रोहिणी को विवाह के 15 वर्ष बाद संतान सुख प्राप्त हुआ था. उस का आंगन खुशियों से महक उठा. बहुत प्रसन्न थी वह. कमला की पीड़ा भी वह समझती थी. सबकुछ भूल कर वह विवाह कर ले, अपनी दुनिया नए सिरे से बसा ले, यही चाहती थी वह. सभी ने बहुत प्रयत्न किए पर सफल नहीं हो पाए.

अवकाश समाप्त होने के कई महीनों बाद भी मुकेश नहीं लौटा था. बाद में उस के नेपाल में सेटिल होने की बात कमला ने सुनी थी. उस दिन वह बहुत रोई थी, पछताई थी अपनी भावुकता पर. आवेश में पुरुष मानसिकता को लांछित करती तो स्वयं भी लांछित होती. अत: जीवन को पुस्तकालय ही हंसतीबोलती दुनिया में तिरोहित कर दिया.

कभी अवकाश में दीदी के पास चली जाती, पर केतकी ज्योंज्यों बड़ी हो रही थी उसे मौसी का आना अखरने लगा था. वह देखती, समाज की वर्जनाओं की परवा न कर के जीजाजीजी ने बिटिया को पूरी छूट दे रखी है. आधुनिक पोशाकें डिस्को, ब्यूटीपार्लर, सिनेमा, थियेटर कहीं कोई रोकटोक नहीं थी. इतना सब होने पर भी वे बेटी का मुंह जोहते, कहीं किसी बात से राजकुमारी नाराज तो नहीं.

‘‘इस बार जन्मदिन पर मुझे कार चाहिए, पापा,’’ बेटी के साहस पर चकित थी रोहिणी. मन ही मन वह जानती थी कि जिस शक्ति का यह अंश है, संसार को उंगली पर नचाने की ऐसी ही क्षमता उस में भी थी. युवा होती केतकी के व्यवहार में रोहिणी को कमला की झलक दिखाई देती.

ऐसी ही हठी थी वह भी. मनमाना करने को छटपटाती रहती. हठ कर के लखनऊ चली आई. बेटी को त्यागने का निश्चय एक बार कर लिया तो कर ही लिया. पर आंख से ही दूर किया है, मन से कैसे हटा सकती है. अभी इस के एम.बी.बी.एस. पूरा करने में 2 वर्ष बाकी हैं. पर अभी से अच्छे जीवनसाथी की तलाश में जुटी हुई है. कैसे समझाऊं कमला को? कब तक छिपाए रखेंगे हम यह सबकुछ. एक न एक दिन तो वह जान ही जाएगी सब. सहसा केतकी के आगमन से उस के विचारों की शृंखला टूटी.

‘‘ममा, आप मेरे बारे में हर बात की राय मौसी से क्यों लेती हैं? माना वह कालिज में पढ़ाती हैं पर मैं जानती हूं कि वह आप से ज्यादा समझदार नहीं हैं.’’

‘‘मां को फुसलाने का यह बढि़या तरीका है.’’

‘‘नहीं, ममा, मैं सच कहती हूं. वह आप जैसी हो ही नहीं सकतीं. आप के साथ कितना अच्छा लगता है. और मौसी तो आते ही मुझे डिस्पिलिन की रस्सियों से बांधने की चेष्टा करने लगती हैं.’’

‘‘केतकी, कमला मुझे तुम्हारे समान ही प्रिय है. मेरी छोटी बहन है वह.’’

‘‘आप की बहन हैं, ठीक है पर मेरी जिंदगी के पीछे क्यों पड़ी रहती हैं?’’

‘‘बिटिया सोचसमझ कर बोला कर. मौसी का अर्थ होता है मां सी.’’

‘‘सौरी, ममा, इस बार आप की बहन को मैं भी खुश रखूंगी.’’

वातावरण हलका हो गया था.

आज मौसम बहुत सुहाना था. लौन की हरी घास कुछ ज्यादा ही गहरी हरी लग रही थी. सफेद मोतियों से चमकते मोगरे के फूल चारों ओर हलकीहलकी मादक सुगंध बिखेर रहे थे. सड़क को आच्छादित कर गुलमोहर के पेड़ फूलों की वर्षा से अपनी मस्ती का इजहार कर रहे थे. प्रकृति का शीतल सान्निध्य पा कर कमला की मानसिक बेचैनी समाप्त हो गई थी. चाय की प्यालियां लिए रोहिणी पास आ बैठी.

‘‘क्या सोच रही हो, कमला?’’

‘‘कुछ नहीं, दीदी, ऊपर देखो, सफेद बगलों का जोड़ा कितनी तेजी से भागा जा रहा है.’’

‘‘अपने गंतव्य तक पहुंचने की जल्दी है इन को. क्या तुम नहीं जानतीं कि संध्या ढल रही है और शिशु नीड़ों से झांक रहे होंगे,’’ इतना कह कर रोहिणी खिलखिला दी.

‘‘जानती हूं दीदी, लेकिन जिस का कोई गंतव्य ही न हो वह कहां जाए? किनारे के लिए भटकती लहरों की तरह मंझधार में ही मिट जाना उस की नियति होती होगी.’’

‘‘ऐसा क्यों सोचती हो, कमला. तुम्हारा वर्तमान तुम्हारा गंतव्य है. चाहो तो अब भी बदल सकती हो इस नियति को.’’

‘‘नहीं, दीदी, मुक्त आकाश ही मेरा गंतव्य है, अब तो यही अच्छा लगता है मुझे.’’

कमला एकदम सावधान हो गई. पिछले कई महीनों से जीजाजी विवाह के लिए जोर डाल रहे हैं. मस्तिष्क में विचार गड्डमड्ड होने लगे. जीजी, आज फिर उस बैंक मैनेजर का किस्सा ले बैठेंगी. जीवन के सुनिश्चित मोड़ पर मिला साथी जब छल कर जाए तो कैसा कसैला हो जाता है संपूर्ण अस्तित्व.

‘‘केतकी को देखती हूं तो अविश्वास का अंधकार मेरे चारों ओर लिपट जाता है. इस मासूम का क्या अपराध? जीजी, तुम्हारा दिल कितना बड़ा है. मेरे जीवन की आशंका को तुम ने अपनी आशा बना लिया. मुकेश की सशक्त बांहों के आश्रय में कितना कुछ सहेज लिया था मैं ने, पर मुट्ठी से झरती रेत की तरह सब बह गया.’’

रात की कालिमा पंख फैलाने लगी थी. कमला के जेहन में बीती घटनाएं केंचुओं की तरह जिस्म को काटती हुई रेंग रही थीं. कैसेकैसे आश्वासन दिए थे मुकेश ने. प्रगतिशील पुरुष का प्रतिबिंब उस का व्यक्तित्व जैसे ‘डिसीव’ शब्द ही नहीं जानता था. मेरी आशंकाओं को निर्मल करने के लिए अपने स्तर पर वह इस शब्द का अस्तित्व ही मिटा देना चाहता था. अंत में क्या हुआ. दोहरे व्यक्तित्व का नकाबपोश. बहुत देर तक रोती रही कमला.

कभी अनजाने में ही मुकेश की उपस्थिति कमला के आसपास मंडराने लगती. तब वह बहुत बेचैन हो जाती, जैसे कोई खूनी शेर तीखे पंजों से उस के कोमल शरीर को नोच रहा हो. सबकुछ बोझिल और उदास लगने लगता. दुनिया को पैनी निगाहों से परखने वाली कमला सोचती, इस संसार में चारों ओर कितना सुख बिखरा है पर दुख की भी तो कमी नहीं है. ऐसे में कवि पंत की ये पंक्तियां वह अकसर गुनगुनाने लगती : ‘जग पीडि़त है अति सुख से जग पीडि़त है अति दुख से.

मानव जग में बंट जाए सुख दुख से, दुख सुख से.’

अंधकार बढ़ रहा था, वातावरण पूरी तरह से नीरव था. कमला बुदबुदा रही थी, अपने ही शब्द सुन रही थी. केतकी को क्या समझूं एक दिन के लिए भी मैं इसे अपना न कह सकी. दीदी सहारा न देतीं तो इस उपेक्षित बाला का भविष्य क्या होता? कितनी खुश है यहां. यह तो उन्हें ही वास्तविक मातापिता समझती है.

एम.बी.बी.एस. की परीक्षा केतकी ने स्वर्णपदक के साथ उत्तीर्ण की. हर बात की टोह रखने वाली कमला अगले ही दिन पटना पहुंच गई. केतकी हैरान रह गई.

‘‘ममा, यह आप ने क्या किया? कल रिजल्ट आया और आज आप ने मौसी को बुला भी लिया.’’

‘‘तुम्हारी पीठ ठोकने चली आई. उसे कैसे रोकती मैं.’’

कमला ने केतकी को हृदय से लगा लिया. मौसी की आंखों में अपने लिए आंसू देख कर वह चकित थी.

‘‘यह क्या? आप रो रही हैं?’’

‘‘पगली, खुशी के भी आंसू होते हैं. होते हैं न?’’ गाल को उंगली से छू कर कहा कमला ने, ‘‘मैं तुम्हें ताज में पार्टी दूंगी बिटिया. तुम अपने दोस्तों को भी खबर कर दो. मैं उन सब से मिलना चाहती हूं.’’

‘‘सच मौसी, आप को अच्छा लगेगा?’’

‘‘क्यों नहीं? मेरी लाडली अब डाक्टर है, अबोध बच्ची नहीं.’’

कमला बहुत खुश थी. पार्टी चल रही थी. बहुत से जोडे़ हंस रहे थे. आपस में बतिया रहे थे. उसी दिन कमला ने देखा केतकी और कुणाल के हावभाव में झलकता निच्छल अनुराग.’’

‘‘कमला, केतकी और कुणाल के संबंधों की बात मैं खुद ही तुम्हें बताना चाहती थी पर कह न पाई,’’ रोहिणी बोली, अब तुम ने सब देख लिया है. अच्छा हो इस बार यह संबंध तय कर के जाओ.

‘‘जीजी, यह अधिकार आप का है.’’

‘‘तुम्हारी स्वीकृति आवश्यक है.’’

‘‘दीदी, कुणाल को मैं जानती हूं. मेरी क्लासमेट अनुराधा का बेटा है वह, बहुत भला और संस्कारी परिवार है. आप कहें तो कल अनु को बुला लूं.’’

‘‘क्यों नहीं, मैं तुम्हारे चेहरे पर खुशी की रेखा देखना चाहती हूं.’’

कमला ने कालिज से एक माह का अवकाश ले लिया था. विवाह खूब धूमधाम से संपन्न हुआ. कमला लखनऊ लौट गई. अपने कमरे के एकांत में वर्षों बाद उस ने मुकेश का नाम लिया था पर लगा जैसे चारों ओर कड़वाहट फैल गई हो. चाहत में डुबो कर तुम ने मुझे छला मुकेश और तुम्हारे राज को मैं ने 24 वर्ष तक हृदय की कंदरा में छिपाए रखा. मैं केतकी को तुम्हारी बेटी कभी नहीं कहूंगी. तुम इस योग्य हो भी नहीं. पता नहीं रिसर्च और सर्विस का झांसा दे कर तुम ने मेरे जैसी कितनी अबोध युवतियों के साथ यह खेल खेला होगा. बेटी के सुखी भविष्य के लिए मैं उसे तुम्हारा नाम नहीं बताऊंगी.

‘‘ममा, मौसी का फोन है.’’

‘‘दीदी, मैं कल ही कालिज का ट्रिप ले कर कुल्लूमनाली जा रही हूं. 10 दिन का टूर है. हां, केतकी कैसी है?’’

‘‘दोनों बहुत खुश हैं. तुम अपना ध्यान रखना.’’

‘‘ठीक है, जीजी,’’ कह कर कमला फोन पर खिलखिला कर हंसी थी. रोहिणी को लगा कि बेटी का घर बस जाने की खुशी थी यह.

नियत तिथि पर टूर समाप्त हुआ. केतकी के लिए ढेरों उपहार देख रोहिणी चकित थी कि हर समय इस के दिल में केतकी बसी रहती है.

अवकाश समाप्त होने में अभी 10 दिन शेष थे. कमला दीदी और केतकी के साथ घर पर रहने के मूड में थी. पर आने के 2 दिन बाद ही कमला को ज्वर हो आया. डा. केतकी ने दिनरात परिचर्या की. कोई सुधार होता न देख कर दूसरे डाक्टर साथियों से भी सहायता ली उस ने.

‘‘जीजी, लगता है अब यह ज्वर नहीं जाएगा. मेरा अंत आ पहुंचा है.’’

‘‘ऐसा मत कहो, कमला. अभी तुम्हें केतकी के लिए बहुत कुछ करना है.’’

‘‘समय क्या किसी के रोके रुका है, जो मैं उसे रोक लूंगी. दीदी, केतकी को बुला दीजिए.’’

‘‘वह तो यहीं बैठी है तुम्हारे पास.’’

‘‘बेटी, यह जरूरी कागज हैं तुम्हारे और कुणाल के लिए. इन्हें संभाल कर रख लेना.’’

‘‘यह क्या हो रहा है ममा? मेरी तो कुछ भी समझ में नहीं आ रहा.’’

‘‘कमला, केतकी कुछ जानना चाहती है.’’

‘‘जीजी, आप सब जानती हैं, जितना ठीक समझो बता देना. मेरे पास अब समय नहीं है.’’

कमला ने अंतिम सांस ली. तड़प उठी केतकी. पहली बार रोई थी वह उस अभागी मां के लिए, जो जीवन रहते बेटी को बेटी कह कर छाती से न लगा सकी.

कल हमेशा रहेगा: भाग 4- वेदश्री ने किसे चुना

आस्था का कहना था कि ‘जिस घर में इतनी प्यारी भाभी बसती हों उस घर को छोड़ कर मैं तो कभी नहीं जाने वाली,’ फिर भाभी के गले में बांहें डाल कर झूल जाती.

वेदश्री के खुशहाल परिवार को एक ही ग्रहण वर्षों से खाए जा रहा था कि विश्वा भाभी की गोद अब तक खाली थी. वैसे भैयाभाभी दोनों शारीरिक रूप से पूर्णतया स्वस्थ थे पर भाभी के गर्भाशय में एक गांठ थी जो बारबार की शल्यक्रिया के बाद भी पनपती रहती थी. भाभी को गर्भ जरूर ठहरता, पर गर्भ के पनपने के साथ ही साथ वह गांठ भी पनपने लगती जिस की वजह से गर्भपात हो जाता था.

बारबार ऐसा होने से भाभी के स्वास्थ्य पर गहरा असर पड़ता जा रहा था. इसी बात का गम उन्हें मन ही मन खाए जा रहा था. श्री हमेशा भाभी से कहती, ‘भाभी, मैं आप से उम्र में बहुत छोटी हूं और उम्र एवं रिश्ते के लिहाज से बड़ी भाभी, मां समान होती हैं. आप मुझे अपनी देवरानी समझें या बेटी, हर लिहाज से मैं आप को यही कहूंगी कि आप इस बात को कभी मन पर न लें कि आप की अपनी कोई संतान नहीं है मैं अपने तीनों बच्चे आप की गोद में डालने को तैयार हूं. आप को मुझ पर भरोसा न हो तो मैं कानूनी तौर पर यह कदम उठाने को तैयार हूं. बच्चे मेरे पास रहें या आप के पास, रहेंगे तो इसी वंश से जुडे़ हुए न.’’

सुन कर भाभी की आंखों में तैरने वाला पानी उसे भीतर तक विचलित कर देता. मांबाबूजी श्री के इन्हीं गुणों पर मोहित थे. उन्हें खुशी थी कि घरपरिवार में शांति एवं खुशी का माहौल बनाए रखने में छोटीबहू का योगदान सब से ज्यादा था. बड़ी बहू भी उस की आत्मीयता में सराबोर हो कर अपना गम भुलाती जा रही थी. तीनों बच्चों को वह बेहद प्यार करती. श्री घर के कार्य संभालती और भाभी बच्चों को. घर की चिंताओं से मुक्त पुरुष वर्ग व्यापार के कार्यों में दिनरोज विकास की ओर बढ़ता जा रहा था.

‘‘श्री,’’ विश्वा भाभी ने उसे आवाज दी.

‘‘जी, भाभी,’’ ऋचा के बाल संवारते हुए श्री बोली और फिर हाथ में कंघी लिए ही वह ड्राइंगरूम में आ गई, जहां विश्वा भाभी, मांजी एवं दादीमां बैठी थीं.

‘‘आज हमें एक खास जगह, किसी खास काम के लिए जाना है. तुम तैयार हो न?’’ भाभी ने पूछा.

‘‘जी, आप कहें तो अभी चलने को तैयार हूं लेकिन हमें जाना कहां होगा?’’

‘‘जाना कहां है यह भी पता चल जाएगा पर पहले तुम यह तसवीर देखो,’’ यह कहते हुए भाभी ने एक तसवीर उस की ओर बढ़ा दी. तसवीर में कैद युवक को देखते ही वह चौंक उठी. अरे, यह तो सार्थक है, अभि का दूसरा भांजा…प्रदीप का छोटा भाई.

‘‘हमारी लाडली बिटिया की पसंद है….हमारे घर का होने वाला दामाद,’’ भाभी ने खुशी से खुलासा किया.

‘‘सच?’’ उसे अपने कानों पर विश्वास नहीं हो रहा था. फिर तो जरूर अभि से भी मिलने का मौका मिलेगा.

घर के सभी लोगों ने आस्था की पसंद पर अपनी सहमति की मोहर लगा दी. सार्थक एक साधारण परिवार से जरूर था लेकिन एक बहुत ही सलीकेदार, सुंदर, पढ़ालिखा और साहसी लड़का है. अनिकेत के साथ ही एम.बी.ए. कर के अब बहुराष्ट्रीय कंपनी में उच्च पद पर कार्यरत है.

उन की सगाई के मौके पर एक विशाल पार्टी का आयोजन होटल में किया गया. साकेत व वेदश्री मुख्यद्वार पर खड़े हो कर सभी आने वाले मेहमानों का स्वागत कर रहे थे. जब सार्थक के साथ अभि, उस की बहन और बहनोई ने हाल में प्रवेश किया तो श्री व साकेत ने बड़ी गर्मजोशी से उन का स्वागत किया.

अभि ने वर्षों बाद श्री को देखा तो बस, अपलक देखता ही रह गया. एक बड़े घराने की बहू जैसी शान उस के अंगअंग से फूट रही थी. साकेत के साथ उस की जोड़ी इतनी सुंदर लग रही थी कि अभि यह सोचने पर मजबूर हो गया कि उस ने वर्षों पहले जो फैसला श्री की खुशी के लिए लिया था, वह उस की जिंदगी का सर्वोत्तम फैसला था.

अभि ने अपनी पत्नी भव्यता से श्री का परिचय करवाया. भव्यता से मिल कर श्री बेहद खुश हुई. वह खुश थी कि अभि की जिंदगी की रिक्तता को भरने के लिए भव्यता जैसी सुंदर और शालीन लड़की ने अपना हाथ आगे बढ़ाया था. उन की भी एक 2 साल की प्यारी सी बेटी शर्वरी थी.

श्री ने बारीबारी से सार्थक के मम्मीपापा तथा अभि की मां के पैर छुए और उन का स्वागत किया. वे सभी इस बात से बेहद खुश थे कि उन का रिश्ता श्री के परिवार में होने जा रहा है. अभि की मम्मी बेहद खुश थीं, उन्होंने श्री को गले लगा लिया.

साकेत को अपनी ओर देखते हुए पा कर श्री ने कहा, ‘‘साकेत, आप अभिजीत हैं. सार्थक के मामा.’’

‘‘अभिजीत साहब, आप से दोबारा मिल कर मुझे बेहद प्रसन्नता हुई है,’’ कह कर साकेत ने बेहद गर्मजोशी से हाथ मिलाया.

‘‘दोबारा से आप का क्या तात्पर्य है, साकेत’’ श्री पूछे बिना न रह सकी.

‘‘श्री, तुम शायद नहीं जानती कि हमारा मानव इन्हीं की बदौलत दोनों आंखों से इस संसार को देखने योग्य बना है.’’

‘‘अभि, तुम ने मुझ से यह राज क्यों छिपाए रखा?’’ यह कहतेकहते श्री की आंखें छलक आईं. वह अपनेआप को कोसने लगी कि क्यों इतनी छोटी सी बात उस के दिमाग में नहीं आई….मानव की आंखें और प्रदीप की आंखों में कितना साम्य था? उन की आंखों का रंग सामान्य व्यक्ति की आंखों के रंग से कितना अलग था. तभी तो मानव की सर्जरी में इतना अरसा लग गया था. क्या प्रदीप की आंख न मिली होती तो उस का भाई…इस के आगे वह सोच ही नहीं पाई.

‘‘श्री, आज के इस खुशी के माहौल में आंसू बहा कर अपना मन छोटा न करो. यह कोई इतनी बड़ी बात तो थी नहीं. हमें खुशी इस बात की है कि मानव की आंखों में हमें प्रदीप की छवि नजर आती है…वह आज भी जिंदा है, हमारी नजरों के सामने है…उसे हम देख सकते हैं, छू सकते हैं, वरना प्रदीप तो हम सब के लिए एक एहसास ही बन कर रह गया होता.’’

श्री ने मानव को गले लगा लिया. उस की भूरी आंखों में उसे सच में ही प्रदीप की परछाईं नजर आई. उस ने प्यार से भाई की दोनों आखोंं पर चुंबनों की झड़ी सी लगा दी, जैसे प्रदीप को धन्यवाद दे रही हो.

साकेत, अभि की ओर मुखातिब हुआ, ‘‘अभिजीत साहब, हम आप से तहेदिल से माफी मांगना चाहते हैं, उस खूबसूरत गुनाह के लिए जो हम से अनजाने में हुआ,’’ उस ने सचमुच ही अभि के सामने हाथ जोड़ दिए.

‘‘किस बात की माफी, साकेतजी?’’ अभि कुछ समझ नहीं पाया.

‘‘हम ने आप की चाहत को आप से हमेशाहमेशा के लिए जो छीन लिया…यकीन मानिए, यदि मैं पहले से जानता तो आप दोनों के सच्चे प्यार के बीच कभी न आता.’’

आप अपना मन छोटा न करें, साकेतजी. आप हम दोनों के प्यार के बीच आज भी नहीं हैं. मैं आज भी वेदश्री से उतना ही प्यार करता हूं जितना किसी जमाने में किया करता था. सिर्फ हमारे प्यार का स्वरूप ही बदला है.

‘‘वह कैसे?’’ साकेत ने हंसते हुए पूछा. उस के दिल का बोझ कुछ हलका हुआ.

‘‘देखिए, पहले हम दोनों प्रेमी बन कर मिले, फिर मित्र बन कर जुदा हुए और आज समधी बन कर फिर मिले हैं…यह हमारे प्रेम के अलगअलग स्वरूप हैं और हर स्वरूप में हमारा प्यार आज भी हमारे बीच मौजूद है.’’

‘‘श्री, याद है, मैं ने तुम से कहा था, कल फिर आएगा और हमेशा आता रहेगा?’’

श्री ने सहमति में अपना सिर हिलाया. वह कुछ भी बोलने की स्थिति में कहां थी.

सार्थक एवं आस्था ने जब एकदूसरे की उंगली में सगाई की अंगूठी पहनाई तो दोनों की आंखों में एक विशेष चमक लहरा रही थी, जैसे कह रही हों…

‘आज हम ने अपने प्यार की डोर से 2 परिवारों को एक कभी न टूटने वाले रिश्ते में हमेशा के लिए बांध दिया है…कल हमेशा आता रहेगा और इस रिश्ते को और भी मजबूत बनाता रहेगा, क्योंकि कल हमेशा रहेगा और उस के साथ ही साथ सब के दिलों में, एकदूसरे के प्रति प्यार भी.

सबकुछ है पर कुछ नहीं: राधिका को किस चीज की कमी थी

‘‘दीदी,जीजाजी कहा हैं? फोन भी औफ कर रखा है.’’

‘‘बिजी होंगे किसी मीटिंग में, तुम बैठो तो सही, क्या लोगे?’’

‘‘जीजाजी के साथ ही बैठूंगा अब दीदी. मां ने जीजाजी के लिए ये कुछ चीजें भेजी हैं. अच्छा मैं आता हूं अभी,’’ कह कर दिनेश अपनी बड़ी बहन राधिका, जो एक बड़े मंत्री की पत्नी थी, को बैग पकड़ा कर विशालकाय कोठी से बाहर निकल गया.

राधिका ने उत्साह से बैग खोल कर मां की भेजी हुई चीजों पर नजर डाली. सब चीजें उस के पति अमित की पसंद की थीं, उस की खुद की पसंद की एक भी चीज नहीं थी. मां ने सबकुछ अपने मंत्री दामाद के लिए भेजा था, अपनी बेटी के लिए कुछ भी नहीं.

अजीब सा मन हुआ राधिका का. ठंडी सांस लेते हुए बैग एक किनारे रख वहीं सोफे पर बैठ कर अमित के पीए को फोन मिलाया तो उस ने अमित को बता दिया.

‘‘हां बोलो, राधिका, क्या हुआ?’’ अमित

ने पूछा.

‘‘बस, यही याद दिलाना था कि कल सुजाता के स्कूल जाना है, कोई प्रोग्राम मत रखना और हां, दिनेश भी आया है.’’

‘‘हांहां, चलेंगे कल. अभी बिजी हूं बाद में बात करता हूं,’’ कह कर अमित ने फोन रख दिया.

बेटी सुजाता के स्कूल का वार्षिकोत्सव है कल. अमित को याद दिला दिया. वे चलेंगे यह बड़ी बात है नहीं तो अमित इतने व्यस्त रहते हैं कि राधिका ने उन से कोई उम्मीद रखनी छोड़ ही चुकी है… पता नहीं कल कैसे समय निकाल पाएंगे. हो सकता है सुजाता की लगातार जिद का असर हो… वैसे तो उसे आजकल यही लगता है कि कहने के लिए उस के पास सबकुछ है पर हकीकत में नहीं है.

राधिका के सारे रिश्तेदार, दोस्त, परिचित, पड़ोसी सब के लिए वह बस राज्य सरकार के एक मंत्री की पत्नी है. वह तरसती रहती है कि काश, किसी के दिल में उस के लिए, राधिका के लिए, कोई स्थान हो. वह हर तरफ  से अमित से काम निकलवाने वाले लोगों से घिरी रहती है. उस के अपने मायके वाले बस अमित की की ही जीवनशैली, पद, अधिकार में रुचि रखते हैं, उस की तथाकथित दोस्त, परिचित सिर्फ अमित की ही बात करना पसंद करते हैं.

उस के युवा बच्चे सुजाता और सुयश भी पिता के पद के अहंकार में डूबे मां की ममता को व्यर्थ की चीज समझते हैं. वह जब भी अपने बच्चों से उन के स्कूल, दोस्तों की बातें करना चाहती है तो बच्चों के अहं और दर्दभरे स्वर से उसे लगता ही नहीं कि वह अपने बच्चों से बात कर रही है. लगता है किसी मंत्री के घमंडी बच्चों से बात कर रही है. आजकल वह ज्यादातर चुप ही रहती है. किस से बात करें और क्या बात करे. सब की तो उस के मंत्री पति में ही रुचि है, उस का अपना तो कहीं कोई है ही नहीं… वह अपने विचारों में गुम थी. अमित और दिनेश अंदर आते दिखे. दिनेश ने आते हुए कहा, ‘‘देखो दीदी, जीजाजी को जबरदस्ती पकड़ कर ले आया हूं, अब साथ में लंच करेंगे,’’

आकर्षक व्यक्तित्व के स्वामी अमित मुसकराते हुए बोले, ‘‘देख लो राधिका, तुम्हारा भाई मुझे औफिस से जबरदस्ती उठा लाया है. बोला आप से मिलने ही तो आया हूं.’’

‘‘हां जीजाजी, मैं आप से ही मिलने आया था. दीदी का क्या है, उन से तो कभी भी मिल सकते हैं. दीदी, अब लंच लगवा दो.’’

अमित जब तक  फ्रैश हो कर आए खाना लग चुका था. तीनों खाने बैठे तो दिनेश ने कहा, ‘‘जीजाजी, मैं आज ही वापस चला जाऊंगा. बस आप याद रखना आप को मेरे दोस्त का काम करवाना ही पड़ेगा.’’

राधिका ने पूछा, ‘‘कौन सा काम दिनेश?’’

‘‘आप रहने दो दीदी, यह जीजाजी के बस का ही है, मैं ने उन्हें रास्ते में समझा दिया है सब.’’

अमित मुसकराते हुए खाना खाते रहे. थोड़ी देर में बच्चे भी आ गए, वे भी खाना खा कर सब के साथ बैठ गए.

सुजाता अगले दिन होने वाले स्कूल के प्रोग्राम के बारे में उत्साह से बताने लगी, ‘‘कल मेरे दोस्त भी तो देखें मेरे डैड क्या चीज हैं. एक मंत्री के जलवे मेरी टीचर्स भी तो देखें.’’

सुजाता खिलखिला रही थी, सुयश भी दिनेश से बातों में व्यस्त था. राधिका चुपचाप सब की बातें सुन रही थी.

दिनेश ने कहा, ‘‘जीजाजी, आप के लिए मां ने कुछ चीजें भेजी हैं, जरूर खाना.’’

अभी कुछ दिन पहले तक ऊंची जातियों के जो साथी बच्चों से कन्नी सी काटते थे, अमित के मंत्री बनते ही उन से दोस्ती बढ़ाने लगे थे.

‘‘अच्छा? उन्हें मेरा धन्यवाद कहना.’’

अमित की आकर्षक हंसी को निहारती रह गई राधिका कि अमित का संपूर्ण व्यक्तित्व कितना आकर्षक व प्रभावशाली है. हालांकि उन में थोड़ा सा गांव का टच आता है पर फिर भी कीमतों कपड़ों में वह छिप जाता है. कितनी मेहनत से पहुंचे हैं यहां तक और अब जब

जीवन में हर सुखसुविधा है तो उसे क्यों लगता

है उस के पास कुछ नहीं है. उस से अच्छी तो वह तब थी जब छोटे से घर में रहती थी और अमित उस के चारों और मंडराता थे. उस ने अपनी सोच को झटक दिया. अमित उठ खड़े हुए थे, ‘‘राधिका, आने में देर होगी, डिनर शायद घर न करूं.’’

उन के उठते ही दिनेश भी जाने के लिए खड़ा हो गया, तो राधिका बोल पड़ी, ‘‘दिनेश, तुम तो रुको… तुम तो बैठे ही नहीं मेरे पास.’’

‘‘नहीं दीदी, मैं भी निकलता हूं,’’ कह वह अमित के साथ ही निकल गया. बच्चे अपनेअपने रूम में चल गए, वह अकेली खड़ी रह गई, फिर वह भी अपने बैडरूम में चली गई.

अगले दिन सुजाता अमित और राधिका के साथ उस के स्कूल पहुंची. स्कूल के

गेट पर ही अमित का भव्य स्वागत हुआ. राधिका भी मुसकरा कर सब के अभिवादन का जवाब देती रही. ऐसे में उसे हमेशा महसूस होता था जैसे

वह कोई मशीन है या कठपुतली है अथवा

रोबोट, मन में कोई उमंग नहीं. बस, सब अमित को घेरने की कोशिश करते रहते थे और वह सजीधजी अपनी नकली मुसकराहट बिखरेती,

उन के साथ खड़े रहने की कोशिश करती रह जाती थी.

स्कूल में पता नहीं कितने बच्चों ने, कितनी टीचर्स ने अमित के साथ फोटो खिंचवाए. वहां सब उन के आसपास पहुंचने की कोशिश करते रहे. अमित का सुरक्षा घेरा आज अमित के कहने पर कुछ दूरी पर ही रहा. समारोह में आने के लिए उन्हें विशेष रूप से धन्यवाद कहा गया.

प्रोग्राम खत्म होने पर राधिका रोबोट की तरह उन के साथ चलती घर आ गई. घर आ कर देखा अमित की 2 चचेरी बहनें आई हुई थीं. राधिका उन की आवभगत में व्यस्त हो गई.

बड़े मंत्री की पत्नी बनना भी कांटों का ताज पहनना है यह वह भलीभांति समझ गई थी पर कुशल पत्नी की भांति वह बिना मीनमेख निकाले जानबूझ कर भी मक्खी निगल लेती थी. दिनरात के मेहमानों ने उस की नाक में दम कर रखा था. पहले भी लोग आते थे पर कम और उन के अपने स्तर के. अब तरहतरह के लोग आतेजाते थे.

कभी कोई आत्मीय इंटरव्यू के लिए चला आ रहा है तो कभी कोई अपना

ट्रांसफर रुकवाने. कभीकभी उस के जी में आता सब को निकाल बाहर करे पर भारतीय नारी और वह भी जिस के पुरखों ने कभी ऐश नहीं देखी हो, कभी ऐसा दुस्साहस कर सकती है खूब हंसहंस कर वह मेहमानों की आवभगत करती रहती है.

दोनों बहनें रेखा और मंजू अपनी सुसराल के किसी रिश्तेदार की फैक्टरी लगाने में आई अड़चनें दूर करवाने की बात कर रही थीं. अमित ने उन की बात सुन कर मदद करने का आश्वासन दिया.

रेखा और मंजू बहुत दिनों बाद आईर् थीं. राधिका ने सोचा आज कुछ देर बैठ कर उन से बातें करेगी पर अमित के उठते ही वे दोनों भी जल्दीजल्दी चाय समाप्त कर अमित के साथ ही निकलने के लिए उठ खड़ी हुईं. उन्हें भी सिर्फ अमित से ही मतलब था. राधिका का दिल फिर डूब गया. उसे लगने लगा उस के पास कोई बात करने वाला नहीं है जो कुछ उस की सुने, कुछ अपनी कहे. किसी आम औरत की तरह वह पासपड़ोस में बैठ कर गप्पें नहीं मार सकती थी.

एक बार किट्टी पार्टी जौइन की तो वहां भी हर सदस्य किसी न किसी काम की सिफारिश करता रहा तो राधिका ने वहां जाना भी बंद कर दिया. किसी समाजसेवा संस्था से जुड़ना चाहा तो वहां भी अमित की पुकार होती रहती. अब राधिका ने धीरेधीरे सब जगह जाना छोड़ दिया था.

मंत्री की पत्नी होने के सुखदुख पर वह मन ही मन गौर करती और किसी से शेयर न कर पाने की स्थिति में मन ही  मन अकेलेपन से घिरी रहती. कभी दिनबदिन व्यस्त होते अमित से मिले कभीकभार कुछ अंतगरंग पल उस की झोली में आ गिरते तो वह कई दिनों तक उन्हें सहेजे रहती.

एक दिन जब उस के बचपन की प्रिय सखी का फोन आया कि  वह किसी काम से लखनऊ आ रही है तो राधिका खिल उठी.

कामिनी ने छेड़ा, ‘‘मंत्री की पत्नी बन कर मिलेगी या सहेली बन कर?’’

हंस पड़ी राधिका, ‘‘तू आ कर खुद ही

देख लेना.’’

कामिनी आई तो राधिका के ठाटबाट देख कर हैरान रह गई. राधिका के गले लगते हुए बोली, ‘‘वाह, कभी सोचा था ऐसा वैभव देखेगी? चल, पूरा घर दिखा पहले.’’

घर था तो सरकारी बंगला. अमित के

कहने पर कई ठेकेदारों ने मुफ्त में उस का काया पलट कर दिया था. वह देखती रह गई कि कैसे

2 महीनों में रातदिन लगा कर खंडहर को महल बना दिया गया. बाहर काले ग्रेमइट पर खुदा था

-अमित कुमार मंत्री, राज्य सरकार.

राधिका ने उसे पूरा घर दिखाया. कामिनी ने खुले दिल से कोठी की भव्यता की प्रशंसा की. कामिनी किसी विवाह में शामिल होने आई थी और सीधी राधिका के पास ही आ गई थी. कामिनी और राधिका का बचपन रुड़की में एक ही गली में आमनेसामने के घरों में बीता था. दोनों के पिताओं के पास पैसा न था. छोटीछोटी नौकरियां ही तो करते थे. कामिनी फ्रैश होने चली गई तो राधिका को बीते समय की बहुत सी बातें याद आने लगी.

राधिका और कामिनी की कालेज की पढ़ाई भी साथ हुई थी, उसी कालेज में अमित उसे पसंद आ गया था. उस के पिता भी साधारण थे पर पिता और पुत्र दोनों राजनीति में सक्रिय थे.

राधिका और दोनों का साधारण सा विवाह हो गया था. स्टूडैंट राजनीति से शुरू कर मेन राजनीति में अपनी पकड़ बनाते चले गए थे अमित. पिछड़े वर्ग का होने के कारण हर पार्टीको उनकी जरूरत थी. वे मेधावी भी थे. एक मंत्री की पत्नी बन कर वह कभी गर्व से इतराती तो कभी अकेलेपन में अकुलाती, पति की व्यस्त दिनचर्या, नपीतुली बातचीत और संतुलित व्यवहार के साथ खुद को परिवेश में डालने की कोशिश में जीवन बीतता चला गया था.

कामिनी राधिका के ऐशोआराम पर मुग्ध थी. कामिनी का पति एक ऊंची

जाति का था. एमबीए में कामिनी से मिला था. राधिका जो बहुत कुछ बांटना चाहती थी अपनी बालसखी से, कुछ भी नहीं कह पाई. कामिनी खूब उत्साह से उस की घरगृहस्थी की तारीफ करने में ही व्यस्त रही.

खाने की टेबल पर शानदार लंच देख कर, नौकरों को इधर से उधर काम करते देख कामिनी ने चहकते हुए खाना शुरू किया, बोली, ‘‘राधिका, इतना वैभव, ऐशोआराम का हर साधन, योग्य पति, बच्चे, वाह, सबकुछ है न आज तेरे पास?’’ राधिका ने फीकी सी हंसी हंसते हुए मन ही मन कहा कि हां, सबकुछ है पर कुछ नहीं.’’

कामिनी ने उस के हाथ पर हाथ रखते हुए कहा, ‘‘राधिका मैं समझ सकती हूं कि तुम पर क्या बीत रही होगी. साधारण घरों में बड़े हुए हम लोगों को प्यार चाहिए. यह वैभव, पैसा कचोटता है. मयंक के पास पैसा भी है और ऊंची जाति होने का गरूर भी. मैं भी कमाती हूं पर वह खुशी नहीं मिलती. मयंक ने कितनी बार कहा कि तुम से कह कर कोई काम करा दूं पैसा भी मिल जाएगा. पर मैं जानती हूं कि तुझे प्यारी सहेली चाहिए, पैसा नहीं. इतने साल में इसीलिए आने से कतराती रही कि न जाने तू कहीं बदल नहीं गई हो पर उस दिन स्कूल में हुए कार्यक्रम की रिपोर्ट टीवी में देखी तो तेरे चेहरे की बनावटी मुसकान के पीछे का दर्द में देख सकती थी. अब तो तू भंवरजाल में फस चुकी है… खुश रह.’’

राधिका ने कहा, ‘‘तू सही कहती है, कामिनी. इसी कुछ नहीं के साथ जीना पडे़गा वरना न वे बच्चे साथ रहेंगे, न भाई, न मांबाप.’’

प्यार असफल है तुम नहीं: क्या ब्रेकअप के डिप्रेशन से निकल पाया रक्षित

उस ने रक्षित का दरवाजा खटखटाया. वह उस का बचपन का दोस्त था. बाद में दोनों कालेज अलगअलग होने के कारण बहुत ही मुश्किल से मिलते थे. काव्य इंजीनियरिंग कर रहा था और रक्षित डाक्टरी की पढ़ाई. आज काव्य अपने मामा के यहां शादी में अहमदाबाद आया हुआ था, तो सोचा कि अपने खास दोस्त रक्षित से मिल लूं, क्योंकि शादी का फंक्शन शाम को होना था. अभी दोपहर के 3-4 घंटे दोस्त के साथ गुजार लूं. जीभर कर मस्ती करेंगे और ढेर सारी बातें करेंगे. वह रक्षित को सरप्राइज देना चाहता था.

उस के पास रक्षित का पता था क्योंकि अभी उस ने पिछले महीने ही इसी पते पर रक्षित के बर्थडे पर गिफ्ट भेजा था. दरवाजा दो मिनट बाद खुला, उसे आश्चर्य हुआ पर उस से ज्यादा आश्चर्य रक्षित को देख कर हुआ. रक्षित की दाढ़ी बेतरतीब व बढ़ी हुई थी. आंखें धंसी हुई थीं जैसे काफी दिनों से सोया न हो. कपड़े जैसे 2-3 दिन से बदले न हों. मतलब, वह नहाया भी नहीं था. उस के शरीर से हलकीहलकी बदबू आ रही थी, फिर भी काव्य दोस्त से मिलने की खुशी में उस से लिपट गया. पर सामने से कोई खास उत्साह नहीं आया.

‘क्या बात है भाई, तबीयत तो ठीक है न,’ उसे आश्चर्य हुआ रक्षित के व्यवहार से, क्योंकि रक्षित हमेशा काव्य को देखते ही चिपक जाता था.

‘अरे काव्य, तुम यहां, चलो अंदर आओ,’ उस ने जैसे अनमने भाव से कहा. स्टूडैंट रूम की हालत वैसे ही हमेशा खराब ही होती है पर रक्षित के रूम की हालत देख कर लगता था जैसे एक साल से कमरा बंद हो. सफाई हुए महीनों हो गए हों. पूरे कमरे में जगहजगह जाले थे. किताबों पर मिट्टी जमा थी. किताबें अस्तव्यस्त यहांवहां बिखरी हुई थीं. काव्य ने पुराना कपड़ा ले कर कुरसी साफ की और बैठा. उस से पहले ही रक्षित पलंग पर बैठ चुका था जैसे थक गया हो.

काव्य अब आश्चर्य से ज्यादा दुखी व स्तब्ध था. उसे चिंता हुई कि दोस्त को क्या हो गया है? ‘‘तबीयत ठीक है न? यह क्या हालत बना रखी है खुद की व कमरे की? 2-3 बार पूछने पर उस ने जवाब नहीं दिया, तो काव्य ने कंधों को पकड़ कर ?झिंझड़ कर पूछा तो रक्षित की आंखों से आंसू बहने लगे. कुछ कहने की जगह वह काव्य से चिपक गया, तकलीफ में जैसे बच्चा अपनी मां से चिपकता है. वह फफकफफक कर रोने लगा. काव्य को कुछ भी समझ न आया. कुछ देर तक रोने के बाद वह इतना ही बोला, ‘भाई, मैं उस के बिना जी नहीं सकता,’ उस ने सुबकते हुए कहा.

‘किस के बिना जी नहीं सकता? तू किस की बात कर रहा है?’ दोनों हाथ पकड़ कर काव्य ने प्यार से पूछा.

‘आम्या की बात कर रहा हूं.’

‘ओह तो प्यार का मामला है. मतलब गंभीर. यह उम्र ही ऐसी है. जब काव्य कालेज जा रहा था तब उस के गंभीर पापा ने उसे एकांत में पहली बार अपने पास बिठा कर इस बारे में विस्तार से बात की. अपने पापा को इस विषय पर बात करते हुए देख कर काव्य को घोर आश्चर्य हुआ था. पर जब पापा ने पूरी बात समझई व बताई, तब उसे अपने पापा पर नाज हुआ कि उन्होंने उसे कुएं में गिरने से पहले ही बचा लिया.

‘ओह,’ काव्य ने अफसोसजनक स्वर में कहा.

‘रक्षित, तू एक काम कर. पहले नहाधो और शेविंग कर के फ्रैश हो जा. तब तक मैं पूरे कमरे की सफाई करता हूं. फिर मैं तेरी पूरी बात सुनता हूं और समझता हूं,’ काव्य ने अपने दोस्त को अपनेपन से कहा. काव्य सफाईपसंद व अनुशासित विद्यार्थी की तरह था. रो लेने के कारण उस का मन हलका हो गया था.

‘अरे काव्य, सफाई मैं खुद ही कर दूंगा. तू तो मेहमान है.’ काव्य को ऐसा बोलते हुए रक्षित हड़बड़ा गया.

‘अरे भाई, पहले मैं तेरा दोस्त हूं. प्लीज, दोस्त की बात मान ले.’ अब दोस्त इतना प्यार और अपनेपन से कहे तो कौन दोस्त की बात न माने. काव्य ने समझ कर उसे अटैच्ड बाथरूम में भेज दिया, क्योंकि ऐसे माहौल में न तो वह ढंग से बता सकता है और न वह सुन सकता है. पहले वह फ्रैश हो जाए तो ढंग से कहेगा.

काव्य ने किताब और किताबों की शैल्फ से शुरुआत की और आधे घंटे में एक महीने का कचरा साफ कर लिया. काव्य होस्टल में सब से साफ और व्यवस्थित कमरा रखने के लिए प्रसिद्ध था.

आधे घंटे बाद जब रक्षित बाथरुम से निकला तो दोनों ही आश्चर्य में थे. रक्षित एकदम साफ और व्यवस्थित कक्ष देख कर और काव्य, रक्षित को क्लीन शेव्ड व वैलड्रैस्ड देख कर.

‘वाऊ, तुम ने इतनी देर में कमरे को होस्टल के कमरे की जगह होटल का कमरा बना दिया भाई. तेरी सफाई की आदत होस्टल में जाने के बाद भी नहीं बदली,’ रक्षित सफाई से बहुत प्रभावित हो कर बोला.

‘और तेरी क्लीन शेव्ड चेहरे में चांद जैसे दिखने की,’ चेहरे पर हाथ फेरते हुए काव्य बोला. अब रक्षित काफी रिलैक्स था.

‘भैया चाय…’ दरवाजे पर चाय वाला चाय के साथ था.

‘अरे वाह, क्या कमरा साफ किया है आप ने,’ कमरे की चारों तरफ नजर घुमाते हुए छोटू बोला तो रक्षित झेंप गया. वह रोज सुबहसुबह चाय ले कर आता है, इसलिए उसे कमरे की हालत पता थी.

‘अरे, यह मेरे दोस्त का कमाल है,’ काव्य के कार्य की तारीफ करते हुए रक्षित मुसकराते हुए बोला, ‘अरे, तुम्हें चाय लाने को किस ने बोला?’

‘मैं ने बोला. दीवार पर चाय वाले का फोन नंबर था.’

‘थैंक्यू काव्य. चाय पीने की बहुत इच्छा थी,’ रक्षित ने चाय का एक गिलास काव्य को देते हुए कहा. दोनों चुपचाप गरमागरम चाय पी रहे थे.

चाय खत्म होने के बाद काव्य बोला, ‘अब बता, क्या बात है, कौन है आम्या और पूरा माजरा क्या है?’ आम्या की बात सुन कर रक्षित फिर से मायूस हो गया, फिर से उस के चेहरे पर मायूसी आ गई. हाथ कुरसी के हत्थे से भिंच गए.

‘मैं आम्या से लगभग एक साल पहले मिला था. वह मेरी क्लासमेट लावण्या की मित्र थी. लावण्या की बर्थडे पार्टी में हम पहली बार मिले थे. हमारी मुलाकात जल्दी ही प्रेम में बदल गई. वह एमबीए कर रही थी और बहुत ही खूबसूरत थी. मैं सोच भी नहीं सकता कि कालेज में मेरी इतनी सारी लड़कियों से दोस्ती थी पर क्यों मुझे आम्या ही पसंद आई. मुझे उस से प्यार हो गया. शायद वह समय का खेल था. हम लगभग रोज ही मिलते थे. मेरी फाइनल एमबीबीएस की परीक्षा के दौरान भी मुझ में उस की दीवानगी छाई हुई थी. वह भी मेरे प्यार में डूबी हुई थी.

‘मैं अभी तक प्यारमोहब्बत को फिल्मों व कहानियों में गढ़ी गई फंतासी समझता था. जिसे काल्पनिकता दे कर लेखक बढ़ाचढ़ा कर पेश करते हैं. पर अब मेरी हालत भी वैसे ही हो गई, रांझ व मजनूं जैसी. मैं ने तो अपना पूरा जीवन उस के साथ बिताने का मन ही मन फैसला कर लिया था और आम्या की ओर से भी यही समझता था. मुझ में भी कुछ कमी नहीं थी, मुझ में एक परफैक्ट शादी के लिए पसंद करने के लिए सारे गुण थे.’

‘तो फिर क्या हुआ दोस्त?’ काव्य ने उत्सुकता से पूछा.

‘मेरी एमबीबीएस की पढ़ाई पूरी हो गई थी और मैं हृदयरोग विशेषज्ञ बनने के लिए आगे की तैयारी के लिए पढ़ाई कर रहा था. एक दिन उस ने मुझ से कहा, ‘सुनो, पापा तुम से मिलना चाहते हैं.’ वह खुश और उत्साहित थी.

‘क्यों?’ मुझे जिज्ञासा हुई.

‘हम दोनों की शादी के सिलसिले में,’ उस ने जैसे रहस्य खोलते हुए कहा.

‘शादी? वह भी इतनी जल्दी’ मैं ने हैरानगी से कहा.

‘मैं आम्या को चाहता था पर अभी शादी के लिए विचार भी नहीं किया था.

‘हां, मेरे दादाजी की जिद है कि मेरी व मेरी छोटी बहन की शादी जल्दी से करें,’ आम्या ने शादी की जल्दबाजी का कारण बताया और जैसी शांति से बता रही थी उस से तो ऐसा लगा कि उसे भी जल्द शादी होने में आपत्ति नहीं है.

‘अभी इतनी जल्दी यह संभव नहीं है. मेरा सपना हृदयरोग विशेषज्ञ बनने का है और मैं अपना सारा ध्यान अभी पढ़ाई में ही लगाना चाहता हूं,’ मैं ने उसे अपने सपने के बारे में और अभी शादी नहीं कर सकता हूं, यह समझया. ‘उस के लिए 2-3 साल और रुक जाओ. फिर हम दोनों जिंदगीभर एकदूसरे के हो जांएगे,’ मैं ने उसे समझते हुए कहा.

‘नहीं रक्षित, यह संभव नहीं है. मेरे पिता इतने साल तक रुक नहीं सकते. मेरे पीछे मेरी बहन का भी भविष्य है,’ जैसे

उस ने जल्दी शादी करने का फैसला ले लिया हो.

‘मैं ने उसे बहुत समझया. पर उस ने अपने पिता के पसंद किए हुए एनआरआई अमेरिकी से शादी कर ली और पिछले महीने अमेरिका चली गई और पीछे छोड़ गई अपनी यादें और मेरा अकेलापन. मैं सोच नहीं सकता कि आम्या मुझे छोड़ देगी. मैं दुखी हूं कि मेरा प्यार छिन गया. मैं ने उसे मरने की हद तक चाहा. काव्य, मेरा प्यार असफल हो गया. मझ में कुछ भी कमी नहीं थी. फिर भी क्यों मेरे साथ समय ने ऐसा खेल खेला.’

रक्षित फिर से रोने लगा और रोते हुए बोला, ‘बस, तभी से मुझे न भूख लगती है न प्यास. एक महीने से मैं ने एक अक्षर की भी पढ़ाई नहीं की है. मेरा अभी विशेषज्ञ प्रवेश परीक्षा का अगले महीने ही एग्जाम है. यों समझ कि मैं देवदास बन गया हूं.’ वह फिर से काव्य के कंधे पर सिर रख कर बच्चों जैसा रोने लगा.

‘देखो रक्षित, इस उम्र में प्यार करना गलत नहीं है. पर प्यार में टूट जाना गलत है. तुम्हारा जिंदगी का मकसद हमेशा ही एक अच्छा डाक्टर बनना था न कि प्रेमी. देखो, तुम ने कितना इंतजार किया. बचपन में तुम्हारे दोस्त खेलते थे, तुम खेले नहीं. तुम्हारे दोस्त फिल्म देखने जाते, तो तुम फिल्म नहीं देखते थे. तुम्हारा भी मन करता था अपने दोस्तों के साथ गपशप करने का और यहां तक कि रक्षित, तुम अपनी बहन की शादी में भी बरातियों की तरह शाम को पहुंच पाए थे, क्योंकि तुम्हारी पीएमटी परीक्षा थी. वे सारी बातें अपने प्यार में  भूल गए.

‘आम्या तो चली गई और फिर कभी वापस भी नहीं आएगी तुम्हारी जिंदगी में. और यदि आज तुम्हें आम्या ऐसी हालत में देखेगी तो तुम पर उसे प्यार नहीं आएगा, बल्कि नफरत करेगी और सोचेगी कि अच्छा हुआ कि मैं इस व्यक्ति से बच गई जो एक असफलता के कारण, जिंदगी से निराश, हताश और उदास हो गया और अपना जिंदगी का सपना ही भूल गया. क्या वह ऐसे व्यक्ति से शादी करती?

‘सोचो रक्षित, एक पल के लिए भी. एक दिल टूटने के कारण क्या तुम भविष्य में लाखों दिलों को टूटने दोगे,  इलाज करने के लिए वंचित रखोगे. इस मैडिकल कालेज में आने, इस अनजाने शहर में आने, अपना घर छोड़ने का मकसद एक लड़की का प्यार पाना था या फिर बहुत सफल व प्रसिद्ध हृदयरोग विशेषज्ञ बनने का था? तुम्हें वह सपना पूरा करना है जो यहां आने से पहले तुम ने देखा था.

‘रक्षित बता दो दुनिया को और अपनेआप को भी कि तुम्हारा प्यार असफल हुआ है, पर तुम नहीं और न ही तुम्हारा सपना असफल हुआ है. और यह बात तुम्हें खुद ही साबित करनी होगी,’ काव्य ने उसे समझया.

‘तुम सही कहते हो काव्य, मेरा लक्ष्य, मेरा सपना, सफल प्रेमी बनने का नहीं, एक अच्छा डाक्टर बनने का है. थैंक्यू तुम्हें दोस्त, यह सब मुझे सही समय पर याद दिलाने के लिए,’ काव्य के गले लग कर, दृढ़ता व विश्वास से रक्षित बोला.

‘‘कार्ड हाथ में ले कर कब से कहां खो गए हो?’’ मानसी ने अपने पति काव्य को ?झिंझोड़ कर पूछा, ‘‘अरे, कब तक सोचते रहोगे. कुछ तैयारी भी करोगे? कल ही रक्षित भैया के हार्ट केयर हौस्पिटल के उद्घाटन में जोधपुर जाना है,’’ मानसी ने उस से कहा तो वह मुसकरा दिया.

मिलन: भाग 2- जयति के सच छिपाने की क्या थी मंशा

लेखक- माधव जोशी

मैं ने मांजी से यह भी मालूम कर लिया कि पिताजी की मुंबई में ही प्लास्टिक के डब्बे बनाने की फैक्टरी है. अब मैं ने उन से मिलने की ठानी. इस के लिए मैं ने टैलीफोन डायरैक्ट्री में जितने भी उमाकांत नाम से फोन नंबर थे, सभी लिख लिए. अपनी एक सहेली के घर से सभी नंबर मिलामिला कर देखने लगी. आखिरकार मुझे पिताजी का पता मालूम हो ही गया. दूसरे रोज मैं उन से मिलने उन के बंगले पर गई. मुझे उन से मिल कर बहुत अच्छा लगा. लेकिन यह देख कर दुख भी हुआ कि इतने ऐशोआराम के साधन होते हुए भी वे नितांत अकेले हैं. उस के बाद मैं जबतब पिताजी से मिलने चली जाती, घंटों उन से बातें करती. मुझ से बात कर के वे खुद को हलका महसूस करते क्योंकि मैं उन के एकाकी जीवन की नीरसता को कुछ पलों के लिए दूर कर देती. पिताजी मुझे बहुत भोले व भले लगते. उन के चेहरे पर मासूमियत व दर्द था तो आंखों में सूनापन व चिरप्रतीक्षा. वे मां व जयंत के बारे में छोटी से छोटी बात जानना चाहते थे. मैं मानती थी कि पिताजी ने बहुत बड़ी भूल की है और उस भूल की सजा निर्दोष मां व जयंत भुगत रहे हैं. पर अब मुझे लगने लगा था कि उन्हें प्रायश्चित्त का मौका न दे कर जयंत पिताजी, मां व खुद पर अत्याचार कर रहे हैं.

शीघ्र ही मैं ने एक कदम और उठाया. शाम को मैं मां के साथ पार्क में घूमने जाती थी. पार्क के सामने ही एक दुकान थी. एक दिन मैं कुछ जरूरी सामान लेने के बहाने वहां चली गई और मां वहीं बैंच पर बैठी रहीं.

‘‘विजया, विजया, तुम? तुम यहां कैसे?’’ तभी किसी ने मां को पुकारा. अपना नाम सुन कर मांजी एकदम चौंक उठीं. नजरें उठा कर देखा तो सामने पति खड़े थे. कुछ पल तो शायद उन्हें विश्वास नहीं हुआ, लेकिन फिर घबरा कर उठ खड़ी हुईं.

‘‘जयंत की पत्नी जयति के साथ आई हूं. वह सामने कुछ सामान लेने गई है,’’ वे बड़ी कठिनाई से इतना ही कह पाईं.

‘‘कब से यहां हो? तुम खड़ी क्यों हो गईं?’’ उन को जैसे कुछ याद आया, फिर अपनी ही धुन में कहने लगे, ‘‘इस लायक तो नहीं कि तुम मुझ से कुछ पल भी बात करो. मैं ने तुम पर क्याक्या जुल्म नहीं किए. कौन सा ऐसा दर्द है जो मैं ने तुम्हें नहीं दिया. प्रकृति ने तो मुझे नायाब हीरा दिया था, पर मैं ने ही उसे कांच का टुकड़ा जान कर ठुकरा दिया.’’ क्षणभर रुक कर आगे कहने लगे, ‘‘आज मेरे पास सबकुछ होते हुए भी कुछ नहीं है. नितांत एकाकी हूं. लेकिन यह जाल तो खुद मैं ने ही अपने लिए बुना है.’’ पुराने घाव फिर ताजा हो गए थे. आंखों में दर्द का सागर हिलोरें ले रहा था. दोनों एक ही मंजिल के मुसाफिर थे. तभी मां ने सामने से मुझे आता देख कर उन्हें भेज दिया. उस दिन के बाद मैं किसी न किसी बहाने से पार्क जाना टाल जाती. लेकिन मां को स्वास्थ्य का वास्ता दे कर जरूर भेज देती.

इसी तरह दिन निकलने लगे. मांजी रोज छिपछिप कर पति से मिलतीं. पिताजी ने कभी यह जाहिर नहीं किया कि वे मुझे जानते हैं. लेकिन मुझे अब आगे का रास्ता नहीं सूझ रहा था. समझ में नहीं आ रहा था कि क्या किया जाए? जब काफी सोचने पर भी उपाय न सूझा तो मैं ने सबकुछ वक्त पर छोड़ने का निश्चय कर डाला. लेकिन एक दिन पड़ोसिन नेहा ने टोका, ‘‘क्या बात है जयति, तुम आजकल पार्क नहीं आतीं. तुम्हारी सास भी किसी अजनबी के साथ अकसर बैठी रहती हैं.’’

‘‘बस नेहा, आजकल कालेज का काम कुछ ज्यादा है, इसलिए मांजी चाचाजी के साथ चली जाती हैं,’’ मैं ने जल्दी से बात संभाली. लेकिन नेहा की बात मुझे अंदर तक हिला गई. अब इसे टालना संभव नहीं था. इस तरह तो कभी न कभी जयंत के सामने बात आती ही और वे तूफान मचा देते. मैं ने निश्चय किया कि यह खेल मैं ने ही शुरू किया है, इसलिए मुझे ही खत्म भी करना होगा. लेकिन कैसे? यह मुझे समझ नहीं आ रहा था. उस रात मैं ठीक से सो न सकी. सुबह अनमनी सी कालेज चल दी. रास्ते में जयंत ने मेरी सुस्ती का कारण जानना चाहा तो मैं ने ‘कुछ खास नहीं’ कह कर टाल दिया. लेकिन मैं अंदर से विचलित थी. कालेज में पढ़ाने में मन न लगा तो अपने औफिस में चली आई. फिर न जाने मुझे क्या सूझा. मैं ने कागज, कलम उठाया और लिखने लगी…

‘‘प्रिय जय,

‘‘मेरा इस तरह अचानक पत्र लिखना शायद तुम्हें असमंजस में डाल रहा होगा याद है, एक बार पहले भी मैं ने तुम्हें प्रेमपत्र लिखा था, जिस में पहली बार अपने प्यार का इजहार किया था. उस दिन मैं असमंजस में थी कि तुम्हें मेरा प्यार कुबूल होगा या नहीं. ‘‘आज फिर मैं असमंजस में हूं कि तुम मेरे जज्बातों से इंसाफ कर पाओगे या नहीं. ‘‘जय, मैं तुम से बहुत प्यार करती हूं लेकिन मैं मांजी से भी बहुत प्यार करने लगी हूं. यदि उन से न मिली होती तो शायद मेरे जीवन में कुछ अधूरापन रह जाता. ‘‘मांजी की उदासी मुझ से देखी नहीं गई, इसलिए पिताजी की खोजबीन करनी शुरू कर दी. अपने इस प्रयास में मैं सफल भी रही. मैं पार्क में उन की मुलाकातें करवाने लगी. लेकिन मां को मेरी भूमिका का जरा भी भान नहीं था.

‘‘अब वे दोनों बहुत खुश हैं. मांजी बेसब्री से शाम होने की प्रतीक्षा करती हैं. वे तो शायद उन मुलाकातों के सहारे जिंदगी भी काट देंगी. लेकिन तुम्हें याद है, जब 2 महीने पहले मैं सेमिनार में भाग लेने बेंगलुरु गई थी तब एक सप्ताह बाद लौटने पर तुम ने कितनी बेताबी से कहा था, ‘जयति, मैं तुम्हारे बिना नहीं रह सकता, तुम मुझे फिर कभी इस तरह छोड़ कर मत जाना. तुम्हारी उपस्थिति मेरा संबल है.’ ‘‘तब मैं ने मजाक में कहा था, ‘मांजी तो यहां ही थीं. वे तुम्हारा मुझ से ज्यादा खयाल रखती हैं.’ ‘‘‘वह तो ठीक है जयति, मांजी मेरे लिए पूजनीय हैं, लेकिन तुम मेरी पूजा हो,’ तुम भावुकता से कहते गए थे. ‘‘याद है न सब? फिर तुम यह क्यों भूल जाते हो किमांजी की जिंदगी में हम दोनों में से कोई भी पिताजी की जगह नहीं ले सकता. क्या पिताजी उन की पूजा नहीं, उन की धड़कन नहीं? ‘‘जब मांजी को उन से कोई शिकवा नहीं तो फिर तुम उन्हें माफ करने वाले या न करने वाले कौन होते हो? यह तो किसी समस्या का हल नहीं कि यदि आप के घाव न भरें तो आप दूसरों के घावों को भी हरा रखने की कोशिश करें. ‘‘जय, तुम यदि पिताजी से प्यार नहीं कर सकते तो कम से कम इतना तो कर सकते हो कि उन से नफरत न करो. मांजी तो सदैव तुम्हारे लिए जीती रहीं, हंसती रहीं, रोती रहीं. तुम सिर्फ एक बार, सिर्फ एक बार अपनी जयति की खातिर उन के साथ हंस लो. फिर देखना, जिंदगी कितनी सरल और हसीन हो जाएगी. ‘‘मेरे दिल की कोई बात तुम से छिपी नहीं. जिंदगी में पहली बार तुम से कुछ छिपाने की गुस्ताखी की. इस के लिए माफी चाहती हूं.

‘‘तुम जो भी फैसला करोगे, जो भी सजा दोगे, मुझे मंजूर होगी.

‘‘तुम्हारी हमदम,

जयति.’’

पत्र को दोबारा पढ़ा और फिर चपरासी के हाथों जयंत के दफ्तर भिजवा दिया. उस दिन मैं कालेज से सीधी अपनी सहेली के घर चली गई. शायद सचाई का सामना करने की हिम्मत मुझ में नहीं थी. रात को घर पहुंचतेपहुंचते 10 बज गए. घर पहुंच कर मैं दंग रह गई, क्योंकि वहां अंधकार छाया हुआ था. मेरा दिल बैठने लगा. मैं समझ गई कि भीतर जाते ही विस्फोट होगा, जो मुझे जला कर खाक कर देगा. मैं ने डरतेडरते भीतर कदम रखा ही था कि सभी बत्तियां एकसाथ जल उठीं. इस से पहले कि मैं कुछ समझ पाती, सामने सोफे पर जयंत को मातापिता के साथ बैठा देख कर चौंक गई. मुझे अपनी निगाहों पर विश्वास नहीं हो रहा था. मैं कुछ कहती, इस से पहले ही जयंत बोल उठे, ‘‘तो श्रीमती जयतिजी, आप ने हमें व मांजी को अब तक अंधेरे में रखा…इसलिए दंड भुगतने को तैयार हो जाओ.’’

‘‘क्या?’’

‘‘तुम पैकिंग शुरू करो.’’

‘‘क्यों?’’

‘‘भई, जाना है.’’

‘‘कहां?’’

‘‘हमारे साथ मसूरी,’’ जयंत ने नाटकीय अंदाज से कहा तो सभी हंस पड़े.

‘‘यदि आप हम दोनों को खुश देखना चाहती हैं तो आप को चलना ही होगा,’’ मैं ने उन की आंखों में झांकते हुए दृढ़ता से कहा. उस दिन मेरी जिद के आगे मांजी को झुकना ही पड़ा. वे हमारे साथ मुंबई आ गईं. यहां आते ही सारे घर की जिम्मेदारी उन्होंने अपने ऊपर ले ली. वे हमारी छोटी से छोटी जरूरत का भी ध्यान रखतीं. जयंत और मैं सुबह साथसाथ ही निकलते. मेरा कालेज रास्ते में पड़ता था, सो जयंत मुझे कालेज छोड़ कर अपने दफ्तर चले जाते. मेरी कक्षाएं 3 बजे तक चलती थीं. साढ़े 3 बजे तक मैं घर लौट आती. जयंत को आतेआते 8 बज जाते. अब मेरा अधिकांश समय मांजी के साथ ही गुजरता. हमें एकदूसरे का साथ बहुत भाता. मैं ने महसूस किया कि हालांकि मांजी मेरी हर बात में दिलचस्पी लेती हैं, लेकिन वे उदास रहतीं. बातें करतेकरते न जाने कहां खो जातीं. उन की उदासी मुझे बहुत खलती. उन्हें खुश रखने का मैं भरसक प्रयत्न करती और वे भी ऊपर से खुश ही लगतीं लेकिन मैं समझती थी कि उन का खुश दिखना सिर्फ दिखावा है.

आगे पढ़ें- मैं ने मांजी से यह भी मालूम कर लिया कि…

जीवन लीला: भाग 2- क्या हुआ था अनिता के साथ

लेखकसंतोष सचदेव

पोते का ध्यान आते ही उन की आंखों में एक चमक सी आ जाती, पर वह मेरी तरह पत्थर के दिल वाली नहीं थीं. कुछ ही दिनों में चल बसीं. मेरे ससुर ने भी चारपाई पकड़ ली.

6-7 महीने बीते होंगे कि एक दिन उन्होंने पास बैठा कर कहा, ‘‘बेटा, तुम से एक खास बात करनी है. मैं ने अपने छोटे बेटे अरुण से बात कर ली है. मैं तुम्हारे नाम मकान की वसीयत करना चाहता था. उसे इस में कोई ऐतराज नहीं है. लेकिन उस का कहना है कि वसीयत में कभीकभी परेशानियां खड़ी हो जाती हैं, खास कर ऐसे मामलों में, जब दूसरे वारिस कहीं दूर दूसरे देश में रह रहे हों. उस की राय है कि वसीयत के बजाय यह संपत्ति अभी तुम्हारे नाम कर दूं.’

अरुण मेरे पति का छोटा भाई था, जो जर्मनी में रहता था. उस का कहना था कि यह संपत्ति मेरे नाम हो जाएगी तो मेरे मन में एक आर्थिक सुरक्षा की भावना बनी रहेगी. ससुर ने कोठी मेरे नाम पर कर दी. कुछ दिनों बाद ससुर भी अपने मन का बोझ कुछ हल्का कर के स्वर्ग सिधार गए. इस के बाद मैं अकेली रह गई. कहने को नौकर राजू था, लेकिन वह इतना छोटा था कि उस की सिर्फ गिनती ही की जा सकती थी.

जब वह 5 साल का था, तब उस की मां उसे साथ ले कर हमारे यहां काम करने आई थी. उस की मां की मौत हो गई तो राजू मेरे यहां ही रहने लगा था. कुछ दिनों तक वह स्कूल भी गया था, लेकिन पढ़ाई में उस का मन नहीं लगा तो उस ने स्कूल जाना बंद कर दिया. इस के बाद मैं ने ही उसे हिंदी पढ़नालिखना सिखा दिया था.

जिंदगी का एकएक दिन बीतने लगा. लेकिन अकेलेपन से डर जरूर लगता था. ससुरजी की मौत पर देवर अरुण जर्मनी से आया था. मेरे अकेले हो जाने की चिंता उसे भी थी. इसी वजह से कुछ दिनों बाद उस ने फोन कर के कहा था कि उस के एक मित्र के पिता सरदार नानक सिंह अपनी पत्नी के साथ दिल्ली रहने आ रहे हैं. अगर मुझे आपत्ति न हो तो मकान का निचला हिस्सा उन्हें किराए पर दे दूं. वह सज्जन पुरुष हैं. उन के रहने से हमें सुरक्षा भी मिलती रहेगी और कुछ आमदनी भी हो जाएगी.

मुझे क्या आपत्ति होती. मैं मकान के ऊपर वाले हिस्से में रहती थी, नीचे का हिस्सा खाली पड़ा था, इसलिए मैं ने नीचे वाला हिस्सा किराए पर दे दिया. सचमुच वह बहुत सज्जन पुरुष थे. अब मैं नानक सिंह की छत्रछाया में रहने लगी.

जितना स्नेह और अपनापन मुझे नानक सिंहजी से मिला, शायद इतना पिताजी से भी नहीं मिला था. पतिपत्नी अपने लंबे जीवनकाल के अनुभवों से मेरा परिचय कराते रहते थे. मैं मंत्रमुग्ध उन्हें निहारती रहती और अपनी टीस भरी स्मृतियों को उन के स्नेहभरे आवरण के नीचे ढांप कर रख लेती.

समय बीतता रहा. हमेशा की तरह उस रविवार की छुट्टी को भी वे मेरे पास आ बैठे. इधरउधर की थोड़ी बातें करने के बाद नानक सिंहजी ने कहा, ‘‘आज तुम से एक खास बात करना चाहता हूं. मेरा बेटा जर्मनी से यहां आ कर रहने के लिए कह रहा है. वैसे भी अब हम पके आम हैं, पता नहीं कब टपक जाएं. बस एक ही बात दिमाग में घूमती रहती है. तुम्हें बेटी माना है, इसलिए अब तुम्हें अकेली नहीं छोड़ सकता, इतने बड़े मकान में अकेली और वह भी यहां की लचर कानूनव्यवस्था के बीच. इसी उधेड़बुन में मैं कई दिनों से जूझ रहा हूं.

पलभर रुक कर वह आगे बोले, ‘‘अपने काम से मैं अकसर स्टेट बैंक जाया करता हूं. वहां के मैनेजर प्रेम कुमार से मेरी गहरी दोस्ती हो गई है. एक दिन बातोंबातों में पता चला कि उन की पत्नी का स्वर्गवास हो गया है. उस के बाद से उन्हें अकेलापन बहुत खल रहा है. कहने को उन के 3 बच्चे हैं, लेकिन सब अपनेअपने में मस्त हैं. बड़ी बेटी अपने पति के साथ जापान में रहती है. बेटा बैंक में नौकरी करता है. उस की शादी हो चुकी है. तीसरी बेटी संध्या थोड़ाबहुत खयाल रखती थी, लेकिन उस की भी शादी हो गई है. उस के जाने के बाद से वह अकेले पड़ गए हैं. एक दिन मैं ने कहा कि वह शादी क्यों नहीं कर लेते? लेकिन 3 जवान हो चुके बच्चों के बाप प्रेम कुमार को मेरा यह प्रस्ताव हास्यास्पद लगा.

मैं सुनती रही, नानक सिंहजी कहते रहे, ‘‘मैं विदेशों में रहा हूं. मेरे लिए यह कोई हैरानी की बात नहीं थी. पर भारतीय संस्कारों में पलेबढ़े प्रेमकुमार को मेरा यह प्रस्ताव अजीब लगा. मैं ने मन टटोला तो लगा कि अगर कोई हमउम्र मिल जाए तो शेष जीवन के लिए वह उसे संगिनी बनाने को तैयार हो जाएंगे. मैं ने उन से यह सब बातें तुम्हें ध्यान में रख कर कही थीं. क्योंकि मेरा सोचना था कि तुम बाकी का जीवन उन के साथ उन की पत्नी के रूप में गुजार लोगी. क्योंकि औरत का अकेली रह कर जीवन काटना कष्टकर तो है ही, डराने वाला भी है.’’

इस के बाद एक दिन नानक सिंहजी प्रेम कुमार को मुझ से मिलवाने के लिए घर ले आए. बातचीत में वह मुझे अच्छे आदमी लगे, इसलिए 2 बार मैं उन के साथ बाहर भी गई. काफी सोचने और देवर से सलाह कर के मैं ने नानक सिंहजी के प्रस्ताव को मौन स्वीकृति दे दी.

इस के बाद प्रेमकुमारजी ने अपने विवाह की बात बच्चों को बताई तो एकबारगी सभी सन्न रह गए. बड़ी बेटी रचना विदेशी सभ्यता संस्कृति से प्रभावित थी, इसलिए उसे कोई आपत्ति नहीं थी. संध्या अपने पिता की मन:स्थिति और घर के माहौल से परिचित थी, इसलिए उस ने भी सहमति दे दी. पर बेटा नवीन और बहू शालिनी बौखला उठे. लेकिन उन के विरोध के बावजूद हमारी शादी हो गई.

शादी के 3-4 दिनों बाद नवीन अपना सामान ले कर शालिनी के साथ किराए के मकान में रहने चला गया. मुझे यह अच्छा नहीं लगा. मैं सोच में पड़ गई, अपने अकेलेपन से छुटकारा पाने के लिए मैं ने एक बेटे को उस के पिता से अलग कर दिया. मुझे अपराधबोध सा सताने लगा. लगता, बहुत बड़ी गलती हो गई. इस बारे में मैं ने पहले क्यों नहीं सोचा? अपने स्वार्थ में दूसरे का अहित करने की बात सोच कर मैं मन मसोस कर रह जाती. भीतर एक टीस सी बनी रहती.

पर मैं ने आशा का दामन कभी नहीं छोड़ा था, फिर अब क्यों चैन से बैठ जाती. मैं ने एक नियम सा बना लिया. स्कूल से छुट्टी होने के बाद मैं शालिनी से मिलने उस के घर जाती. एक गाना है ना ‘हम यूं ही अगर रोज मिलते रहे तो देखिए एक दिन प्यार हो जाएगा…’ शालिनी एक सहज और समझदार लड़की थी. कुछ ही दिनों में उस ने मुझे अपनी सास के रूप में स्वीकार कर लिया.

मुझे ले कर उन पत्नी पति के बीच संवाद चलता रहा, नतीजतन धीरेधीरे नवीन ने भी मुझे अपनी मां का दर्जा दे दिया. एक भरेपूरे परिवार का मेरा सपना साकार हो गया. मेरी खुशी का कोई ठिकाना नहीं रहा. प्रेमकुमारजी के रिश्तेदारों की कानाफूसी से मुझे पता चला कि इतना अपनापन तो प्रेमकुमारजी की पहली पत्नी भी नहीं निभा पाई, जितना मैं ने निभाया है. मैं आत्मविभोर हो उठती.

अपनी हृदय चेतना से निकली आकांक्षाओं को मूर्तरूप में देख कर भला कौन आनंदित नहीं होता. जो कभी परिवार में नहीं रहे, वे इस पारिवारिक सुख आह्लाद की कल्पना भी नहीं कर सकते. हर दिन खुशियों की सतरंगी चुनरी ओढ़े मैं पूरे आकाश का चक्कर लगा लेती. दिनों को जैसे पंख लग गए, 3 साल कैसे बीत गए पता ही नहीं चला.

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जस को तस: दीनानाथ की कैसे खुली पोल

 

‘‘धन्य हो पंडितजी, आप के समधीजी भी हमारे जजमान हैं. उन के पूरे कुल खानदान के बारे में हम जानते हैं,’’ चुलबुल नाई की बात सुन पंडित दीनानाथ शुक्ल ठगे से रह गए. कहावत है कि ‘एक दिन घूरे के भी दिन फिरते हैं’, फिर भला पंडित दीनानाथ शुक्ल के दिन क्यों न फिरते. आखिर एक दिन उन की मनोकामना का सूरज अनायास ही चमक उठा. लेकिन चुलबुल नाई ने राज की जो परतें उखाड़ीं उस से दीनानाथ शुक्ल की सारी खुशी काफूर हो गई.

कोयला उद्योग की इस नगरी में कोयला की दलाली में हाथ काले नहीं होते, बल्कि सुनहले हो जाते हैं. यह यथार्थ यत्रतत्रसर्वत्र दृष्टिगोचर होता हैं. ऐसे ही सुनहले हाथों वाले पंडित दीनानाथ शुक्ल के चंद वर्षों में ही समृद्ध बन जाने का इतिहास जहां जनचर्चाओं का विषय रहता है वहीं दीनानाथ से पंडित दीनानाथ शुक्ल बनने की उन की कहानी भी कहींकहीं कुछ बुजुर्गों द्वारा आपस में कहीसुनी जाती है और वह भी दबी जबान व दबे कान से. दरअसल, पंडित दीनानाथ शुक्ल सिर्फ समृद्ध ही नहीं हैं, बल्कि प्रभावशाली भी हैं. क्षेत्र एवं प्रदेश की बड़ी से बड़ी राजनीतिक हस्तियों तक उन की पहुंच है. ऐसी स्थिति में भला किस की मजाल कि उन से पंगा ले कर अपनी खाट खड़ी करवाए.

इन सब के बावजूद, क्षेत्र का कट्टर ब्राह्मण समाज उन से सामाजिक संबंध बनाने में एक दूरी रख कर ही चलता है. कट्टर बुजुर्ग ब्राह्मण परस्पर चर्चा करते हुए कभीकभी बड़बड़ा कर कह ही उठते हैं, ‘ससुर कहीं के, न कुलगोत्र का पता न रिश्तेदारी का, न जाने कइसे ये दीनानथवा बन बइठा पंडित दीनानाथ शुकुल.’ जबकि पंडित दीनानाथ शुक्ल बराबर इस प्रयास में रहते कि वे और उन का परिवार इस क्षेत्र के अधिक से अधिक प्रतिष्ठित ब्राह्मण परिवारों एवं ब्राह्मण समाज में घुलमिल जाए.

पंडित दीनानाथ शुक्ल इस क्षेत्र के हैं नहीं. काफी अरसे पहले जब इस क्षेत्र में कोयला उद्योग ने अपना पैर जमाना शुरू किया था तभी पंडित दीनानाथ शुक्ल इस क्षेत्र से काफी दूर के किसी गांव से आ कर कोयला लोडिंग में प्रयुक्त होने वाली झिब्बी यानी बांस की बनी बड़ी टोकरी की सप्लाई किया करते थे. समय के साथ तेजी से चलते हुए कोयला उद्योग में प्रयुक्त होने वाली ऐसी सभी सामग्रियों, जिन की खरीद कोल उद्योग द्वारा टैंडर के माध्यम से की जाती थी, की वे सप्लाई करने लग गए.

उच्च अधिकारियों को हर तरह से खुश करने की कला उन्हें खूब आती थी जिस के फलस्वरुप वे कोयला उद्योग में बतौर प्रतिष्ठित गवर्मैंट सप्लायर छा गए. फिर कुछ समय बाद जब उन्हें कोल ट्रांसपोर्ट के व्यवसाय के माध्यम से कोयले की दलाली का राज पता चला तो बस फिर क्या था, कोयले की दलाली करतेकरते उन के दिन सुनहले और रातें रुपहली हो गईं. धनसंपत्ति, समृद्धि, आनबानशान सबकुछ उन्होंने येनकेनप्रकारेण अर्जित कर ली. अब, उन का एकमात्र अरमान यह था कि किसी तरह उन के इकलौते पुत्र का विवाह उच्चकुल के ब्राह्मण परिवार की कन्या से हो जाए. उन का पुत्र उच्चशिक्षा प्राप्त कर उन के राजनीतिक प्रभाव के फलस्वरूप अच्छी सरकारी नौकरी कर रहा था. उन्हें अपनी इस अभिलाषा की शीघ्र पूर्ति की आशा भी थी. लेकिन जब भी उन के पुत्र के किसी उच्चकुल के ब्राह्मण परिवार में रिश्ते की बात चलती तो उच्चकुल के कट्टर ब्राह्मण परिवार से बातचीत के दौरान वे अपने कुलगोत्र, अपनी ब्राह्मण परिवारों की रिश्तेदारी के बाबत संतोषप्रद जवाब न दे पाते और बात बनतेबनते रह जाती.

दरअसल, काफी अरसे पहले इस कोयला उद्योग क्षेत्र से काफी दूर एक छोटे से गांव में उन के पिता रामसुजान रहते थे तथा उन का पुश्तैनी व्यवसाय बांस से बनने वाली सामग्रियों के कुटीर उद्योग से जुड़ा हुआ था. उसी बांस के कर्मगत उद्योग से ही उन का जातिनाम भी उस ग्राम में संबोधित किया जाता था. उसी जातिनाम को वे कई पुश्तों से स्वीकार भी रहे थे. लेकिन उन के पुत्र दीनानाथ ने अपने इस पुश्तैनी व्यवसाय के स्वरूप में जहां बदलाव किया वहीं वे अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा को भी संवारने में लग गए. अध्ययन के दौरान ही उन्होंने अपने संबोधित किए जाने वाले जातिनाम को ‘वंश फोर शुक्ला’ रख लिया था तथा अपने इस जातिनाम के इतिहास की एक कथा भी गढ़ ली कि उन के ब्राह्मण पूर्वज, बांस फोड़ कर पैदा हुए थे. सो, उन के वंशज ‘वंश फोर शुक्ला’ संबोधित किए जाते हैं. स्कूल एवं कालेज में भी उन्होंने अपना यही जातिनाम लिखवाया था. जब वे अपने पुश्तैनी ग्राम से निकल कर इस कोयला उद्योग क्षेत्र में आए तो ‘वंश फोर शुक्ला’ जातिनाम से ही कुछ समय तक व्यवसाय करते रहे. लेकिन कुछ समय बाद उन्हें अपने जातिनाम में ‘वंश फोर’ शब्द उन के प्रतिष्ठित ब्राह्मण साबित होने में बाधक प्रतीत हुआ तो उन्होंने अपने जातिनाम से ‘वंश फोर’ शब्द हटा कर अपना जातिनाम सिर्फ ‘शुक्ला’ कर लिया तथा अपने नाम के आगे पंडित जोड़ लिया. अब, उन का यही अरमान था कि किसी भांति उन के पुत्र का विवाह किसी खानदानी उच्चकुल के ब्राह्मण परिवार में हो जाए और उन का वंश वृक्ष, वर्ण व्यवस्था के मस्तक समझे जाने वाले ‘ब्राह्मण वर्ण’ की भूमि पर स्थापित हो जाए. इसी प्रयास में वे निरंतर लगे रहते और अपने परिचितों से अपने पुत्र के लिए उच्चकुल के ब्राह्मण परिवार के रिश्ते की बाबत बात करते रहते.

कहावत है कि ‘एक दिन घूरे के भी दिन फिरते हैं,’ फिर भला पंडित दीनानाथ शुक्ल के दिन क्यों न फिरते. आखिर एक दिन उन की मनोकामना का सूरज अनायास ही उस समय चमक उठा जब उन के ही कोयला उद्योग क्षेत्र के ब्राह्मण समाज में अत्यंत प्रतिष्ठित माने जाने वाले पंडित चंद्रकिशोर चतुर्वेदी ने उन के पुत्र हेतु अपनी पुत्री के रिश्ते की बात उन से की. अंधा क्या चाहे, दो आंखें. पंडित दीनानाथ शुक्ल तो अच्छे प्रतिष्ठित ब्राह्मण परिवार में पुत्र का विवाह करना ही चाहते थे. ऐसी स्थिति में पंडित चंद्रकिशोर चतुर्वेदी, जोकि अन्य किसी जिले से आ कर इस कोयला उद्योग क्षेत्र में बतौर ‘सिविल कौंट्रैक्टर’ का कार्य कर रहे थे तथा हर मामले में उन से बीस थे, का यह रिश्ते का प्रस्ताव उन्हें अनमोल खजाना अनायास मिल जाने जैसा सुखद लगा. सब से बड़ी बात तो यह थी कि पंडित चंद्रकिशोर चतुर्वेदी क्षेत्र के ब्राह्मण समाज में अत्यंत प्रतिष्ठित स्थान पर थे.

पंडित दीनानाथ शुक्ल ने पलभर की भी देर न की और पंडित चंद्रकिशोर चतुर्वेदी के इस प्रस्ताव पर अपनी स्वीकृति की मुहर लगा दी. बस, फिर क्या था. पंडित दीनानाथ शुक्ल के पुत्र का विवाह ऐसे ठाटबाट से हुआ कि क्षेत्र के ब्राह्मण समाज ने दांतों तले उंगली दबा ली. कल तक उन के कुलगोत्र, नातेरिश्तेदारी को शक की निगाहों से देखने वाले कट्टर ब्राह्मण समाज ने भी सब शंका दूर कर उन्हें बेहिचक श्रेष्ठ ब्राह्मण स्वीकार लिया. इस रिश्ते के बाद से ही ब्राह्मण समाज में वे शान से सिर उठा कर चलने लगे. लेकिन कभीकभी उन्हें यह विचित्र बात लगती कि पंडित चंद्रकिशोर चतुर्वेदी की पुत्री की शादी में उन का कोई भी रिश्तेदार न आया था. पंडित चंद्रकिशोर चतुर्वेदी ने इस का कारण यह बतलाया था कि उन के सब रिश्तेदार अन्य प्रांत के ग्रामीण अंचलों में इस उद्योग क्षेत्र से इतनी दूर रहते हैं कि उन का आना संभव न था.

समय की गति के साथ अतीत धुंधलाता चला गया. वर्तमान में पंडित दीनानाथ शुक्ल एवं पंडित चंद्रकिशोर चतुर्वेदी दोनों ही क्षेत्र के ब्राह्मण समाज के गौरव हैं. पूरे ब्राह्मण समाज में उन का नाम सम्मान से लिया जाता है क्योंकि हर सामाजिक कार्य में वे तनमनधन से सहयोग करते हैं. उन के धन के सहयोग का प्रतिशत सर्वाधिक रहता है.

सबकुछ बढि़या चल रहा था लेकिन अचानक एक दिन न जाने कहां से पूछतेपाछते पंडित दीनानाथ शुक्ल के पुश्तैनी ग्राम में रहने वाला  चुलबुल नाई उन के पास आ पहुंचा. ग्रामों में शादी के रिश्ते नाई एवं ब्राह्मण ही तलाशा एवं तय किया करते हैं, सो समाज में उन का महत्त्वपूर्ण स्थान रहता है. चुलबुल नाई के सिर्फ उन के ग्राम ही नहीं, बल्कि आसपास के 2-3 जिलों में भी जजमान थे. चुलबुल अपने नाम के अनुरूप काफी चुलबुला तो था ही, साथ ही उसे बातों की अपच की बीमारी भी थी. कोई भी बात उस के कानों में पहुंचती तो जब तक वह उस बात को दोचार लोगों को बतला न देता, उस के पेट में मरोड़ उठती रहतीं.

पंडित दीनानाथ का माथा उसे देख कर ठनका, कुछ अनहोनी न हो जाए, मानसम्मान, प्रतिष्ठा में कोई आंच न आ जाए की शंका से उन का दिल लरजा. वे स्थिति को संभालते हुए कुछ बोलना ही चाह रहे थे कि चुलबुल नाई चुलबुलाते हुए बोला, ‘‘वाह दीनानाथजी, वाह…आप के तो यहां बड़े ठाट हैं. आप तो एकदम से यहां ब्राह्मण बन गए, शुकुलजी. वाह, क्या चोला बदला है.’’ दीनानाथ शुक्ल ने जेब से 100-100 रुपए के 2 करारे नोट निकाल कर उस की जेब में रखते हुए बोले, ‘‘अरे, चुप कर, चुप कर. खबरदार, जो यह बात किसी से कही. रख यह इनाम और जब भी मेरे लायक कोई काम हो, तो बतलाना.’’

चुलबुल हाथ जोड़ कर चापलूसी से बोला, ‘‘अरे नहीं पंडितजी, हम काहे किसी से कुछ कहेंगे. आप तो हमारे मालिक हैं. आप का सब राज हमारे सीने में दफन.’’ फिर 100-100 रुपए के नोट उन्हें दिखाते हुए बोला, ‘‘लेकिन मालिक, ये तो 2 ही हैं, 3 और दीजिए तब तो बात बने. अरे, आप ने बेटवा का काज भी तो किसी बड़े ब्राह्मण खानदान में किया है, उस का भी तो नजराना बनता है न, मालिक.’’ दीनानाथ ने मनमसोस कर 300 रुपए और चुलबुल को यह कहते हुए दिए कि खबरदार, जो यह बात किसी से कही, वरना खाल में भूसा भरवा कर टांग दूंगा. जवाब में खीसें निपोरते हुए चुलबुल बोला, ‘‘आप निश्ंिचत रहिए, यह चुलबुल का वचन है. लेकिन यह तो बतलाइए कि बेटे को आप ने किस ब्राह्मण परिवार में ब्याहा है?’’ जवाब में जब दीनानाथ ने पंडित चंद्रकिशोर चतुर्वेदी का नाम बतलाया तो चुलबुल कुछ सोचते हुए बोला, ‘‘अरे, पंडितजी, आप के समधी पंडित चंद्रकिशोर चतुर्वेदी फलां जिले के फलां गांव वाले हैं क्या?’’ दीनानाथ शुक्ल के सहमति व्यक्त करने पर वह कुछ व्यंग्यात्मक स्वर में बोला, ‘‘धन्य हो पंडितजी, धन्य हो. आप के समधीजी भी हमारे जजमान हैं. उन के पूरे कुल खानदान के बारे में हम जानते हैं. बस, यह समझ लीजिए कि जइसे आप वंश फोर शुक्ला हैं न, बस वइसे ही पंडित चंद्रकिशोर चतुर्वेदी भी चर्मफाड़ चतुर्वेदी हैं. समझे न?’’  चुलबुल तो उन्हें प्रणाम कर वहां से चला गया लेकिन पंडित दीनानाथ यह जान कर हतप्रभ रह गए.

दूसरे दिन दीनानाथ रोष से कांपते हुए पंडित चंद्रकिशोर चतुर्वेदी के बंगले के अंदर प्रवेश कर रहे थे, तभी उन्हें पंडित चंद्रकिशोर चतुर्वेदी चुलबुल के कंधे पर हाथ रख कर बाहर निकलते हुए दिखाई पड़े. चुलबुल अत्यंत प्रसन्न मुद्रा में था, शायद यहां से उसे और भी तगड़ा इनामनजराना मिला था. एकाएक दोनों पंडितों को आमनेसामने देख कर चुलबुल मुसकराते हुए लगभग दंडवत कर दोनों ही पंडितों को पायलागी कह कर प्रस्थान कर गया. जबकि दोनों ही तथाकथित पंडित ‘भई गति सांपछछूंदर केरी ना उगलत बने ना लीलत’ वाली हालत में एकदूसरे के सामने एक पल को खड़े रह गए. फिर दूसरे ही पल पंडित दीनानाथ शुक्ल व्यंग्य से पंडित चंद्रकिशोर चतुर्वेदी से बोले, ‘‘चर्मफाड़ चतुर्वेदीजी, प्रणाम.’’

जवाब में पंडित चंद्रकिशोर चतुर्वेदी उपहास से हंसते हुए बोले, ‘‘प्रणाम, वंश फोर शुकुलजी, प्रणाम.’’ फिर दोनों ही एकदूसरे से विमुख हो कर अपनेअपने घर की ओर बढ़ गए. किसी की भी इज्जत की चादर उघाड़ने से दूसरे को भी तो नंगा होना ही पड़ता, इसलिए दोनों को ही एकदूसरे को ढके रहने में ही समझदारी दिख रही थी.

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