झूठ कहा था उस ने

अनीता नाम बताया था उस ने. उम्र करीब 40 वर्ष, सिंपल साड़ी, लंबी चोटी, चेहरे पर कोई मेकअप नहीं. आंखों में एक अजीब सा कुतुहल जो उसे खास बनाता था 2-4 दिनों से देख रहा हूं उसे. हमारी यूनिवर्सिटी में मनोविज्ञान की प्रोफैसर बन कर आई है और मैं अर्थशास्त्र पढ़ाता हूं. साहित्य में रुचि होने की वजह से मैं अकसर लाइब्रेरी में 1-2 घंटे बिताता हूं. वह भी अकसर वहीं बैठी दिख जाती.  एक दिन मैं ने पूछ ही लिया, ‘‘क्या आप भी साहित्य में रुचि रखती हैं?’’

‘‘जी हां, बड़ेबड़े कवियों की कविताएं और शायरी पढ़ना खासतौर पर पसंद है. मैं भी छोटीमोटी कविताएं लिख लेती हूं.’’

‘‘वाह तब तो खूब जमेगी हमारी,’’ मैं उत्साहित हो कर बोला.

उस की आंखों में भी चमक उभर आई थी. हमारी बनने लगी. अकसर हम लोग लाइब्रेरी में पुरानी किताबें निकालते और फिर घंटों चर्चा करते. व्याख्याओं के लिए लाइब्रेरी में 2 कमरे अलग थे, जिन में शीशे के दरवाजे थे, ताकि बातचीत से दूसरे डिस्टर्ब न हों.

एक दिन मैं ने सवाल दागा, ‘‘मैं ने अकसर देखा है आप घंटों यहां रुक जाती हैं. घर में पति वगैरह इतंजार…’’ मैं ने जानबूझ कर वाक्य अधूरा छोड़ दिया.

वह हंस पड़ी, ‘‘नहीं, मेरे घर में पति नाम का जीव नहीं जो चाबुक ले कर मेरा इंतजार कर रहा हो.’’

‘‘चाबुक ले कर?’’ मैं हंसा.

‘‘जी हां, पति चाबुक ले कर इंतजार करे या फूल ले कर, मेरे साथ ऐसा कुछ नहीं, क्योंकि मैं कुंआरी हूं.’’

‘‘कुंआरी?’’ मैं चौंका और फिर कुरसी उस के करीब खिसका ली, ‘‘यानी आप ने अब तक शादी नहीं की. मगर क्यों?’’

‘‘कभी पढ़ने का जनून रहा तो कभी पढ़ाने का… शायद एक वजह यह भी है कि आप जैसा कायदे का शख्स मुझे मिला ही नहीं.’’

‘‘तो क्या मैं आप को मिलता और प्रपोज करता तो आप मुझ से शादी कर लेतीं?’’ मैं ने शरारती लहजे में कहा.

‘‘सोचती तो जरूर,’’ उस ने भी आंखें नचाते हुए कहा.

‘‘वैसे आप को बता दूं घर में मेरा भी कोई इंतजार करने वाली नहीं.’’

‘‘क्या आप भी कुंआरे हैं.’’

‘‘कुंआरा तो नहीं पर अकेला जरूर हूं. बीवी शादी के 2 साल बाद ही एक दुर्घटना में…’’

‘‘उफ, सौरी… तो आप ने दूसरी शादी क्यों नहीं की? कोई बच्चा है?’’

‘‘हां, बेटा है. बैंगलुरु में पढ़ रहा है.

अभी तक बीवी को नहीं भूल पाया हूं,’’ कहते हुए मैं उठ खड़ा हुआ, ‘‘मेरी क्लास का समय हो रहा है. चलता हूं,’’ कह मैं चला आया.

उस पल अपनी बीवी का खयाल मुझे उद्वेलित कर गया था. मैं स्वयं को संभाल नहीं पाया था, इसलिए चला आया. मेरी संवेदनशीलता को उस ने भी महसूस किया था.

अगले दिन वह स्वयं ही मुझ से बात करने आ गई.  बोली, ‘‘आई एम सौरी…  आप वाइफ की बात करते हुए काफी इमोशनल हो गए थे.’’

‘‘हां, दरअसल मैं उस से बहुत प्यार करता था… उस के बाद बेटे को मैं ने ही संभाला. आज वह भी मुझ से दूर है तो थोड़ा दिल भर आया था.

‘‘मैं समझ सकती हूं. वैसे मुझे लग रहा है कि आप संवेदनशील होने के साथसाथ बहुत

प्यारे इनसान भी हैं. मुझे इस तरह के लोग बहुत पसंद हैं.’’

‘‘ओके तो… आप मुझे लाइक करने लगी हैं,’’ उस की बात का रुख अपनी फेवर में करने का प्रयास करते हुए मैं हंस पड़ा. वह कुछ बोली नहीं. बस नजरों से स्वीकृति देती हुई मुसकरा दी.

माहौल में रोमानियत सी छा गई. मैं ने धीरे से उस का हाथ अपने हाथों में ले लिया और फिर दोनों बहुत देर तक बातें करते रहे.

समान रुचि और एकजैसे हालात होने के साथसाथ एकदूसरे को पसंद करने की वजह से हम अब अकसर खाली समय साथ ही बिताने लगे थे. मैं अकसर उस के खयालों में गुम रहने लगा. न चाहते हुए भी लाइब्रेरी के चक्कर लगाता.  44 साल की उम्र में आशिकों जैसी अपनी हालत और हरकतें देख कर मुझे हंसी भी आती और मन में एक महका सा एहसास भी जगता.  कई महीने इसी तरह बीत गए. वक्त के साथ हम एकदूसरे के काफी करीब आ गए थे. वह मुझे अच्छी तरह समझने लगी थी. पर मैं अकसर सोचता कि क्या मैं भी उसे समझ पाया हूं? जब मैं उस के पास नहीं होता तो अकसर उसे गुमसुम बैठा देखता जबकि मैं उसे सदा मुसकराता देखना चाहता था. एक दिन मैं ने उस से कह ही दिया, ‘‘अनीता, क्या तुम्हें नहीं लगता कि अब हमें शादी कर लेनी चाहिए? तुम कहो तो तुम्हारे मातापिता से मिलने आ जाऊं?’’

सुन कर वह एकटक मुझे देखने लगी. उस के चेहरे पर एक पल को उदासीनता सी फैल गई. मुझे डर लगा कि कहीं वह मेरा प्रस्ताव अस्वीकार न कर दे. पर अगले ही पल वह मुसकराती हुई बोली, ‘‘दरअसल, मेरे पापा तो बिजनैस के सिलसिले में विदेश गए हुए हैं. मम्मी अकेली मिल कर क्या करेंगी? ऐसा करते हैं कुछ दिन रुक जाते हैं. फिर तुम मेरे घर आ जाना.’’

मुझे क्या ऐतराज हो सकता था? अत: सहज स्वीकृति दे दी. उस दिन वह काफी देर तक मुझे अपने घर वालों के बारे में बताती रही. मैं आंखों में आंखें डाले उस की बातें सुनता रहा.

वह अपने पापा के काफी करीब थी. कहने लगी, ‘‘मेरे पापा मुझ पर जान छिड़कते हैं. यदि मेरी आंखों में नमी भी नजर आ जाए तो वे अपने सारे काम छोड़ कर मुझे मनाने और खुश करने में लग जाते हैं… जब तक मैं हंस न दूं उन्हें चैन नहीं मिलता.’’

‘‘अच्छा तो तुम्हारे पापा क्या बिजनैस  करते हैं?’’

‘‘ऐक्सपोर्टइंपोर्ट का बिजनैस है.’’

‘‘ओके और मम्मी?’’

‘‘मम्मी हाउसवाइफ हैं. घर को इतने करीने से सजा कर रखती हैं कि तुम देख कर दंग रह जाओगे. कोई भी चीज इधर से उधर हो जाए तो समझ जाना कि उन के गुस्से से बच नहीं सकोगे.’’

‘‘अच्छा तो मुझे इस बात का खयाल  रखना होगा,’’ मैं ने मुसकराते हुए कहा तो वह मेरे सीने से लग गई. मैं ने देखा उस की आंखें  भर आई थीं.

‘‘क्या हुआ,’’ मैं ने पूछा, पर वह कुछ  नहीं बोली.

‘‘बहुत प्यार करती हो अपने पेरैंट्स से… तभी शादी का इरादा नहीं,’’ मैं ने कहा.

मेरी बात सुन कर वह हंस पड़ी, ‘‘हां  शायद मैं अपने पेरैंट्स को छोड़ कर कहीं जाना ही नहीं चाहती.’’

‘‘चिंता न करो, तुम कहोगी तो हम उन्हें भी साथ ले चलेंगे… वे हमारे साथ रहेंगे. ठीक है न?’’

वह कुछ नहीं बोली. बस प्यार भरी नजरों से मुझे देखती रही. मुझे लगा जैसे उसे मेरी बात पर यकीन नहीं हो रहा. पर मैं ने भी अपने मन में दृढ़ फैसला कर लिया कि अनीता के मातापिता को अपने साथ रखूंगा. आखिर उस के पेरैंट्स मेरे भी तो पेरैंट्स हुए न.

पेरैंट्स के अलावा अनीता अकसर अपने भाई और भाभी का जिक्र भी करती  थी. उस ने एक दिन विस्तार से सारी बात बताई कि उस का एक ही भाई है, जो उसे बेहद प्यार करता है. मगर भाभी का स्वभाव कुछ ठीक नहीं. भाभी ने शादी के बाद से भाई को अपने नियंत्रण में रखा हुआ है.

‘‘चलो, आज मैं तुम्हारे घर वालों से मिल लेता हूं,’’ एक दिन फिर मैं ने अनीता से कहा तो वह थोड़ी खामोश हो गई. फिर बोली, ‘‘कुछ महीनों के लिए पापा के साथ मम्मी भी गई हैं… वैसे मैं ने उन से तुम्हारी सारी बातें शेयर की हैं… उन्हें इस शादी से कोई ऐतराज नहीं. मैं ने उन्हें आप का फोटो भी दिखाया है… ऐसा करते हैं नितिन, मैं तुम्हारे घर वालों से मिल लेती हूं.’’

‘‘मेरा बेटा भी फिलहाल घर पर नहीं है,’’ मैं ने कहा.

‘‘यह तो बड़ी मुश्किल है. पर देखो, मियांबीवी राजी तो क्या करेगा काजी…’’

‘‘मतलब?’’

‘‘मतलब तुम शादी की तारीख तय करो. तब तक मम्मीपापा भी आ जाएंगे.’’

‘‘हां, यह ठीक रहेगा. मगर तुम एक बार फिर सोच लो. शादी के लिए पूरी तरह तैयार  हो न?’’

‘‘बिलकुल… मैं तनमनधन से आप की बनने को तैयार हूं,’’ अनीता ने हंसते हुए कहा तो मेरा दिल बल्लियों उछलने लगा.

उस रात मैं बड़ी देर तक जागता रहा. अनीता ही मेरे खयालों में छाई रही. रहरह कर उस का चेहरा मेरी आंखों के सामने आ जाता. दिल में एक भय भी था कि कहीं उस के मातापिता तैयार नहीं हुए तो? भाईभाभी ने किसी बात पर ऐतराज किया तो? मगर अनीता की संशयरहित हां ने मेरी हिम्मत बढ़ाई थी. मैं ने ठीक 12 बजे अनीता को फोन किया.

‘‘अगले महीने की पहली तारीख को हम सदा के लिए एक हो जाएंगे. कैसा रहेगा?’’

‘‘बहुत अच्छा… तुम यह डेट फाइनल कर लो.’’

‘‘मगर तुम्हारे मम्मीपापा और भाई? वे लोग पहुंच तो जाएंगे न?’’

‘‘मैं उन्हें अभी बता देती हूं,’’ खुशी से चहकती हुई अनीता ने कहा तो मेरी सारी शंकाएं दूर हो गईं.

अगले ही दिन मैं ने अपने खास लोगों को शादी की सूचना दे दी. बेटे से तो यह बात बहुत पहले ही शेयर कर ली थी. वह बहुत खुश था. हम ने तय किया कि कोर्ट मैरिज कर के रिश्तेदारों को पार्टी दे देंगे. धीरेधीरे समय गुजरता गया. शादी का दिन करीब आ गया. यूनिवर्सिटी में भी सब को इस की सूचना मिल चुकी थी. हमारे रिश्ते से सब खुश थे. शादी से 1 सप्ताह पहले जब मैं ने अनीता से उस के घर वालों के बारे में पूछा तो वह बोली कि सब आ जाएंगे…

मैं ने अपनी सहमति दे दी. शादी का दिन भी आ गया. मेरा बेटा 4 दिन पहले आ चुका था. हम घर से सीधे कोर्ट जाने वाले थे. इसी पार्टी में मेरे और अनीता के सभी परिचितों और रिश्तेदारों को मिलना था. वैसे मेरे बहुत ज्यादा रिश्तेदार शहर में नहीं थे और शहर से बाहर के रिश्तेदारों को मैं ने बुलाया नहीं था. अनीता ने अपने रिश्तेदारों के बारे में कुछ ज्यादा नहीं बताया था. ठीक 11 बजे हमें कोर्ट पहुंचना था. मैं 10 बजे ही पहुंच गया. 11 बज गए पर अनीता नहीं आई. फोन किया तो फोन व्यस्त मिला. मैं बेचैनी से उस का इंतजार करने लगा. करीब 12 बजे अनीता अपनी 2-3 महिला मित्रों के साथ आई. एक वृद्ध आंटी और उन का बेटा भी था. मैं अनीता को अलग ले जा कर उस के घर वालों के बारे में पूछने लगा. वह थोड़ी घबराई हुई सी थी. बोली, ‘‘मम्मीपापा और भाई सब एकसाथ आ रहे हैं… ट्रेन लेट हो गई है. अब वे टैक्सी कर के आएंगे.’’

‘‘चलो फिर हम उन का इंतजार कर लेते हैं. मैं ने कहा तो वह खामोशी से बैठ गई. करीब 1 घंटा और गुजर गया. इस बीच अनीता ने 2-3 बार अपने घर वालों से बात की. वे रास्ते में ही थे. ‘‘नितिन अभी मम्मीपापा को आने मे 2-3 घंटे और लग जाएंगे.’’

मैं ने स्थिति की गंभीरता समझते हुए उस की बात सहर्ष स्वीकार कर ली. हम ने कागजी काररवाई पूरी कर ली. एकदूसरे को वरमाला पहना कर पतिपत्नी बन गए. पर मन में कसक रह गई कि अनीता के घर वाले नहीं पहुंच पाए. अनीता भी बेचैन सी थी. 2 घंटे बीत गए. मैं ने अनीता की तरफ प्रश्नवाचक नजरों से देखा तो वह फिर फोन मिलाने लगी.

अचानक मैं ने देखा कि बात करतेकरते वह रोंआसी सी हो गई.

मैं दौड़ कर उस के पास गया, ‘‘क्या हुआ अनीता? सब ठीक तो है?’’

‘‘नहीं, कुछ भी ठीक नहीं,’’ वह परेशान स्वर में बोली, ‘‘मेरे मम्मीपापा का ऐक्सीडैंट हो गया है. वे जिस टैक्सी से आ रहे थे वह किसी गाड़ी से टकरा गई. भाई है उन के पास. वह  उन्हें अस्पताल ले गया है. मैं अस्पताल हो कर आती हूं.’’

‘‘नहीं रुको, मैं भी चल रहा हूं,’’ मैं ने कहा तो वह एकदम असहज होती हुई बोली, ‘‘अरे नहीं नितिन, आप मेहमानोें को संभालो. मैं अकेली चली जाऊंगी. सब कुछ अकेले हैंडल करने की आदत है मुझे.’’

‘‘आदत है तो अच्छी बात है अनीता. पर अब मैं चलूंगा तुम्हारे साथ. मेहमानों को विजय देखा लेगा. बेटा जरा गाड़ी निकालना. हम अभी आते हैं,’’ मैं ने कहा और बेटे को सारी जिम्मेदारी सौंप अनीता के साथ निकल पड़ा.  रास्ते में अनीता बहुत गुमसुम और परेशान थी. मैं उस की स्थिति समझ रहा था.

‘‘अनीता, ऐक्सीडैंट नोएडा में हुआ है. अब बताओ कि उन्हें किस अस्पताल में दाखिल कराया गया है? हम नोएडा पहुंचने वाले हैं,’’ गाड़ी चलाते हुए मैं ने पूछा तो वह कुछ देर खामोश सी मुझे देखती रही. फिर धीरे से बोली, ‘‘सिटी अस्पताल.’’

मैं ने तेजी से गाड़ी सिटी अस्पताल की तरफ मोड़ दी. ‘‘अनीता, फोन कर के पूछो कि अब उन की तबीयत कैसी है? चोट कहांकहां लगी है? कोई सीरियस बात तो नहीं… और हां, यह भी पूछो कि उन्हें किस वार्ड में रखा गया है?’’

मेरी बात सुन कर भी वह खामोश रही. उसे परेशान देख मुझे भी बहुत दुख हो रहा था. अत: मैं भी खामोश हो गया.  गाड़ी अस्पताल तक पहुंच गई तो मैं ने फिर वही बात दोहराई, ‘‘अनीता प्लीज,  अपने भाई से पूछा कि वे किस वार्ड में हैं?’’

वह खामोश रही तो मैं घबरा गया. उसे झंझोड़ता हुआ बोला, ‘‘अनीता तुम मेरी बात का जवाब क्यों नहीं दे रही? बताओ अनीता क्या हुआ तुम्हें? तुम्हारे मम्मीपापा कहां हैं?’’

अचानक अनीता फूटफूट कर रो पड़ी, ‘‘कहीं नहीं हैं मेरे मम्मीपापा… कहीं नहीं हैं… मैं अकेली हूं इस दुनिया में बिलकुल अकेली. कोई नहीं है मेरा.’’

उसे रोता देख मैं घबरा गया. बोला, ‘‘यह क्या कह रही हो तुम? मम्मीपापा ठीक हो जाएंगे… चिंता न करो अनीता. मैं चल रहा हूं न तुम्हारे साथ… तुम बस बताओ, उन्हें किस वार्ड में रखा है.’’

अनीता मेरी तरफ देखती रही. फिर भीगी पलकें पोंछती हुई बोली, ‘‘मैं ने तुम से झूठ कहा था नितिन. मेरे मम्मीपापा बचपन में ही मर गए थे… कोई भाईबहन नहीं हैं. एक बूआ थीं, जिन्होंने मुझे पालापोसा. फिर वे भी इस दुनिया से चली गईं… सालों से बिलकुल अकेली जिंदगी जी रही हूं. मैं ने तुम से झूठ कहा था कि मेरा एक परिवार है… मुझे माफ कर दो प्लीज.’’

मैं हैरान सा उसे देखता रहा. फिर पूछा, ‘‘पर ऐसा करने की वजह?’’

‘‘क्योंकि मैं तुम्हें बहुत चाहती हूं नितिन. मुझे लगता था कि यदि मैं ने सच बता दिया तो तुम मुझे छोड़ कर चले जाओगे… प्लीज मुझ से नाराज न होना नितिन… आई लव यू.’’

मुझे अनीता पर कतई गुस्सा नहीं आ रहा था. उलटा उस के लिए सहानुभूति महसूस हो  रही थी. अत: मैं ने कहा, ‘‘झूठी कहानियां गढ़ने की कोई जरूरत नहीं थी अनीता… मैं तो खुद अकेला हूं… तुम्हारी तकलीफ कैसे नहीं समझूंगा? और हां, मैं वादा करता हूं आज  के बाद तुम्हें परिवार की कभी कमी महसूस नहीं होने दूंगा… मैं हूं न तुम्हारा परिवार… हम दोनों अकेले हैं… मिल जाएंगे तो खुद परिवार  बन जाएगा.’’

अनीता के चेहरे पर विश्वास की लकीरें खिंच आई थीं. उस ने सुकून के साथ अपना सिर मेरे सीने पर टिका दिया. मैं ने गाड़ी डा. संदीप के क्लीनिक की तरफ मोड़ ली. वे मेरे सहपाठी और जानेमाने मनोचिकित्सक हैं. यदि जरूरत महसूस हुई तो वे अनीता की काउंसलिंग कर उसे नई जिंदगी की बेहतर शुरुआत के लिए पूरी तरह तैयार कर देंगे.

लिस्ट : क्या सच में रिया का कोई पुरुष मित्र था?

संडे के दिन लंच के बाद मैं सारे काम निबटा कर डायरी उठा कर बैठ गई. मेहमानों की लिस्ट भी तो बनानी थी. 20 दिन बाद हमारे विवाह की 25वीं सालगिरह थी. एक बढि़या पार्टी की तैयारी थी.

आलोक भी पास आ कर बैठ गए. बोले, ‘‘रिया, बच्चों को भी बुला लो. एकसाथ बैठ कर देख लेते हैं किसकिस को बुलाना है.’’

मैं ने अपने युवा बच्चों सिद्धि और शुभम को आवाज दी, ‘‘आ जाओ बच्चो, गैस्ट लिस्ट बनानी है.’’

दोनों फौरन आ गए. कोई और काम होता तो इतनी फुरती देखने को न मिलती. दोनों कुछ ज्यादा ही उत्साहित थे. अपने दोस्तों को जो बुलाना था. डीजे होगा, डांस करना है सब को. एक अच्छे होटल में डिनर का प्लान था.

मैं ने पैन उठाते हुए कहा, ‘‘आलोक, चलो आप से शुरू करते हैं.’’

‘‘ठीक है, लिखो. औफिस का बता देता हूं. सोसायटी के हमारे दोस्त तो कौमन ही हैं,’’ उन्होंने बोलना शुरू किया, ‘‘रमेश, नवीन, अनिल, विकास, कार्तिक, अंजलि, देविका, रंजना.’’

आखिर के नाम पर मैं ने आलोक को देखा तो उन्होंने बड़े स्टाइल से कहा, ‘‘अरे, ये भी तो हैं औफिस में…’’

‘‘मैं ने कुछ कहा?’’ मैं ने कहा.

‘‘देखा तो घूर कर.’’

‘‘यह रंजना मुझे कभी पसंद नहीं आई.’’

‘‘क्यों?’’

‘‘तुम जानते हो, उस का इतना मटकमटक कर बा करना, हर पार्टी में तुम सब कुलीग्स के गले में हाथ डालडाल कर बातें करना बहुत बुरा लगता है. ऐसी उच्छृंखल महिलाएं मुझे कभी अच्छी नहीं लग सकतीं.’’

‘‘रिया, ऐसी छोटीछोटी बातें मत सोचा करो. आजकल जमाना बदल गया है. स्त्रीपुरुष की दोस्ती में ऐसी छोटीछोटी बातों पर कोई ध्यान नहीं देता… अपनी सोच का दायरा बढ़ाओ.’’

मैं चुप रही. क्या कहती. आलोक के प्रवचन सुन कर कुछ कटु शब्द कह कर फैमिली टाइम खराब नहीं करना चाहती थी. अत: चुप ही रही.  फिर मैं ने शुभम से कहा, ‘‘अब तुम लिखवाओ अपने दोस्तों के नाम.’’

शुभम शुरू हो गया, ‘‘रचना, शिवानी, नव्या, अंजलि, टीना, विवेक, रजत, सौरभ…’’

मैं बीच में ही हंस पड़ी, ‘‘लड़कियां कुछ ज्यादा नहीं हैं लिस्ट में?’’

‘‘हां मौम, खूब दोस्त हैं मेरी,’’ कह वह और भी नाम बताता रहा और मैं लिखती रही.

‘‘यह हमारी शादी की सालगिरह है या तुम लोगों का गैट टु गैदर,’’ मैं ने कहा.

‘‘अरे मौम, सब वेट कर रहे हैं पार्टी का… नव्या और रचना तो डांस की प्रैक्टिस भी करने लगी हैं… दोनों सोलो परफौर्मैंस देंगी.’’

सिद्धि ने कहा, ‘‘चलो मौम, अब मेरे दोस्तों के नाम लिखो- आशु, अभिजीत, उत्तरा, भारती, शिखर, पार्थ, टोनी, राधिका.’’

उस ने भी कई नाम लिखवाए और मैं लिखती रही. शुभम ने उसे छेड़ा, ‘‘देखो मौम, इस की लिस्ट में भी कई लड़के हैं न?’’

सिद्धि ने कहा, ‘‘चुप रहो, आजकल सब दोस्त होते हैं. हम लोग पार्टी का टाइम पूरी तरह ऐंजौय करने वाले हैं… आप देखना मौम आशु कितना अच्छा डांसर है.’’ इसी बीच आलोक को औफिस की 2 और लड़कियों के नाम याद आ गए. मैं ने वे भी लिख लिए.

‘‘हमारे दोस्तों की लिस्ट तो बन गई मौम. लाओ, मुझे डायरी और पैन दो मैं आप की फ्रैंड्स के नाम लिखूंगी,’’ सिद्धि बोली.

‘‘अरे, तुम्हारी मम्मी की लिस्ट तो मैं ही बता देता हूं,’’ मैं कुछ कहती उस से पहले ही आलोक बोल उठे तो मैं मुसकरा दी.

आलोक बताने लगे, ‘‘नीरा, मंजू, नीलम, विनीता, सुमन, नेहा… कुछ और भी होंगी किट्टी पार्टी की सदस्याएं… हैं न?’’  तब मैं ने 4-5 नाम और बताए. फिर अचानक कहा, ‘‘बस एक नाम और लिख लो, शरद.’’

‘‘यह कौन है?’’ तीनों चौंक उठे.

‘‘मेरा दोस्त है.’’

‘‘क्या? कभी नाम नहीं सुना… कौन है? इसी सोसायटी में रहता है?’’

तीनों के चेहरों के भाव देखने लायक थे.

आलोक ने कहा, ‘‘कभी तुम ने बताया नहीं. मुझे समझ नहीं आ रहा कौन है?’’

‘‘बताने को तो कुछ खास नहीं है. ऐसे ही कुछ दोस्ती है… मेरा मन कर रहा है कि मैं उसे भी सपरिवार इस पार्टी में बुला लूं. इसी सोसायटी में रहता है. 1 छोटी सी बेटी है. कई बार उसे सपरिवार घर बुलाने की सोची पर बुला नहीं पाई. अब पार्टी है तो मौका भी है… तुम लोगों को अच्छा लगेगा उस से मिल कर. अच्छा लड़का है.’’  तीनों को तो जैसे सांप सूंघ गया. माहौल एकदम  बदल गया. एकदम हैरत भरा, गंभीर माहौल.

आलोक के मुंह से फिर यही निकला, ‘‘तुम ने कभी बताया नहीं.’’

‘‘क्या बताना था… इतनी बड़ी बात नहीं थी.’’

‘‘कहां मिला तुम्हें यह?’’

‘‘लाइब्रेरी में मिल जाता है कभीकभी. मेरी तरह ही पढ़नेलिखने का शौकीन है… वहीं थोड़ी जानपहचान हो गई.’’

‘‘उस की पत्नी से मिली हो?’’

‘‘बस उसे देखा ही है. बात तो कभी नहीं हुई. अब सपरिवार बुलाऊंगी तो मिलना हो जाएगा.’’

शुभम ने कहा, ‘‘मौम, कुछ अजीब सा लग रहा है सुन कर.’’

‘‘क्यों?’’

‘‘पता नहीं मौम, आप के मुंह से किसी मेल फ्रैंड की बात अजीब सी लग रही है.’’

सिद्धि ने भी कहा, ‘‘मौम, मुझे भी आप से यह उम्मीद तो कभी नहीं रही.’’

‘‘कैसी उम्मीद?’’

‘‘यही कि आप किसी लड़के से दोस्ती करेंगी.’’

‘‘क्यों, इस में इतनी नई क्या बात है? जमाना बदल गया है न. स्त्रीपुरुष की मित्रता तो सामान्य सी बात है न. मैं तो थोड़ी देर पहले आप लोगों के विचार सुन कर खुश हो रही थी कि मेरा परिवार इतनी आधुनिक सोच रखता है, तो मेरे भी दोस्त से मिल कर खुश होगा.’’

अभी तक तीनों के चेहरे देखने लायक थे. तीनों को जैसे कोई झटका लगा था.  आलोक ने अचानक कहा, ‘‘अभी थोड़ा लेटने का मन हो रहा है. बच्चो, तुम लोग भी अपना काम कर लो. बाकी तैयारी की बातें बाद में करते हैं.’’  बच्चे मुंह लटकाए हुए चुपचाप अपने  रूम में चले गए. आलोक ने लेट कर आंखों पर हाथ रख लिया. मैं वहीं बैठेबैठे शरद के बारे में सोचने लगी…  साल भर पहले लाइब्रेरी में मिला था. वहीं थोड़ीबहुत कुछ पुस्तकों पर, पत्रिकाओं पर बात होतेहोते कुछ जानपहचान हो गई थी. वह एक स्कूल में हिंदी का टीचर है. उस की पत्नी भी टीचर है और बेटी तो अभी तीसरी क्लास में  ही है. उस का सीधासरल स्वभाव देख कर ही उस से बात करने की इच्छा होती है मेरी. कहीं कोई अमर्यादित आचरण नहीं. बस, वहीं खड़ेखड़े कुछ साहित्यिक बातें, कुछ लेखकों का जिक्र, बस यों ही आतेजाते थोड़ीबहुत बातें… मुझे तो उस का घर का पता या फोन नंबर भी नहीं पता… उसे बुलाने के लिए मुझे लाइब्रेरी के ही चक्कर काटने पड़ेंगे.

खैर, वह तो बाद की बात है. अभी तो मैं अपने परिवार की स्त्रीपुरुष मित्रता पर आधुनिक सोच के डबल स्टैंडर्ड पर हैरान हूं. शरद का नाम सुन कर ही घर का माहौल बदल गया. मैं कुछ हैरान थी. मैं तो कितनी सहजता से तीनों के दोस्तों की लिस्ट बना रही थी. मेरी लिस्ट में एक लड़के का नाम आते ही सब का मूड खराब हो गया. पहले तो मुझे थोड़ी देर तक बहुत गुस्सा आता रहा, फिर अचानक मेरा दिल कुछ और सोचने लगा.

इन तीनों को मेरे मुंह से एक पुरुष मित्र का नाम सुन कर अच्छा नहीं लगा… ऐसा क्यों हुआ? वह इसलिए ही न कि तीनों मुझे ले कर पजैसिव हैं तीनों बेहद प्यार करते हैं मुझ से, जैसेजैसे मैं इस दिशा में सोचती गई मेरा मन हलका होता गया. कुछ ही पलों में डबल स्टैंडर्ड के साथसाथ मुझे इस बात में भी बहुत सा स्नेह, प्यार, सुरक्षा, अधिकार की भावना महसूस होने लगी. फिर मुझे किसी से कोई शिकायत नहीं रही. मुझे कुछ हुत अच्छा लगा.  अचानक फिर तीनों के साथ बैठने का मन हुआ तो मैं ने जोर से  आवाज दी, ‘‘अरे, आ जाओ सब. मैं तो मजाक कर रही थी. मैं तो तुम लोगों को चिढ़ा रही थी.’’

आलोक ने फौरन अपनी आंखों से हाथ हटाया, ‘‘सच? झूठ क्यों बोला?’’

बच्चे फौरन हाजिर हो गए, ‘‘मौम, झूठ  क्यों बोला?’’

‘‘अरे, तुम लोग इतनी मस्ती, मजाक करते रहते हो, तो क्या मैं नहीं तुम्हें चिढ़ा सकती?’’

सिद्धि ने फरमाया, ‘‘फिर भी मौम, ऐसे मजाक भी न किया करें… बहुत अजीब लगा था.’’

शुभम ने भी हां में हां मिलाई, ‘‘हां मौम, मुझे भी बुरा लगा था.’’

आलोक मुसकराते हुए उठ कर बैठ चुके थे, ‘‘तुम ने तो परेशान कर दिया था सब को.’’

अब फिर वही पार्टी की बातें थीं और  मैं मन ही मन अपने सच्चेझूठे मजाक पर मुसकराते हुए बाकी तैयारी की लिस्ट में व्यस्त हो गई. लेकिन मन के एक कोने में शरद की याद और ज्यादा पुख्ता हो गई. उसे तो किसी दिन बुलाना ही होगा. मैरिज ऐनिवर्सरी पर नहीं तो किसी और दिन.

तेरी देहरी : अनुभव पर क्यों डोरे डाल रही थी अनुभा

लेखक- आनंद बिल्थरे

क्लासरूम से बाहर निकलते ही अनुभा ने अनुभव से कहा, ‘‘अरे अनुभव, कैमिस्ट्री मेरी समझ में नहीं आ रही है. क्या तुम मेरे कमरे पर आ कर मुझे समझा सकते हो?’’

‘‘हां, लेकिन छुट्टी के दिन ही आ पाऊंगा.’’

‘‘ठीक है. तुम मेरा मोबाइल नंबर ले लो और अपना नंबर दे दो. मैं इस रविवार को तुम्हारा इंतजार करूंगी. मेरा कमरा नीलम टौकीज के पास ही है. वहां पहुंच कर मुझे फोन कर देना. मैं तुम्हें ले लूंगी.’’

रविवार को अनुभव अनुभा के घर में पहुंचा. अनुभा ने बताया कि उस के साथ एक लड़की और रहती है. वह कंप्यूटर का कोर्स कर रही है. अभी वह अपने गांव गई है.

अनुभव ने अनुभा से कहा कि वह कैमिस्ट्री की किताब निकाले और जो समझ में न आया है वह

पूछ ले. अनुभा ने किताब निकाली और बहुत देर तक दोनों सूत्र हल करते रहे.

अचानक अनुभा उठी और बोली, ‘‘मैं चाय बना कर लाती हूं.’’

अनुभव मना करना चाह रहा था लेकिन तब तक वह किचन में पहुंच गई थी. थोड़ी देर में वह एक बडे़ से मग में चाय ले कर आ गई. अनुभव ने मग लेने के लिए हाथ बढ़ाया, तभी मग की चाय उस की शर्टपैंट पर गिर गई.

‘‘सौरी अनुभव, गलती मेरी थी. मैं दूसरी चाय बना कर लाती हूं. तुम्हारी शर्टपैंट दोनों खराब हो गई हैं. ऐसा करो, कुछ देर के लिए तौलिया लपेट लो. मैं इन्हें धो कर लाती हूं. पंखे की हवा में जल्दी सूख जाएंगे. तब मैं प्रैस कर दूंगी.’’

अनुभव न… न… करता रहा, लेकिन अनुभा उस की ओर तौलिया उछाल कर भीतर चली गई.

अनुभव ने शर्टपैंट उतार कर तौलिया लपेट लिया. तब तक अनुभा दूसरे मग में चाय ले कर आ गई थी. वह शर्टपैंट ले कर धोने चली गई.

अनुभव ने चाय खत्म की ही थी कि अनुभा कपड़े फैला कर वापस आ गई. उस ने ढीलाढाला गाउन पहन रखा था. अनुभव ने सोचा शायद कपड़े धोने के लिए उस ने ड्रैस बदली हो.

अचानक अनुभा असहज महसूस करने लगी मानो गाउन के भीतर कोई कीड़ा घुस गया हो. अनुभा ने तुरंत अपना गाउन उतार फेंका और उसे उलटपलट कर देखने लगी.

अनुभव ने देखा कि अनुभा गाउन के भीतर ब्रा और पैंटी में थी. वह जोश और संकोच से भर उठा. एकाएक हाथ बढ़ा कर अनुभा ने उस का तौलिया खींच लिया.

अनुभव अंडरवियर में सामने खड़ा था. अनुभा उस से लिपट गई. अनुभव भी अपनेआप को संभाल नहीं सका. दोनों वासना के दलदल में रपट गए.

अगले रविवार को अनुभा ने फोन कर अनुभव को आने का न्योता दिया. अनुभव ने आने में आनाकानी की, पर अनुभा के यह कहने पर कि पिछले रविवार की कहानी वह सब को बता देगी, वह आने को तैयार हो गया.

अनुभव के आते ही अनुभा उसे पकड़ कर चूमने लगी और गाउन की चेन खींच कर तकरीबन बिना कपड़ों के बाहर आ गई. अनुभव भी जोश में था. पिछली बार की कहानी एक बार फिर दोहराई गई. जब ज्वार शांत हो गया, अनुभा उसे ले कर गोद में बैठ गई और उस के नाजुक अंगों से खेलने लगी.

अनुभा ने पहले से रखा हुआ दूध का गिलास उसे पीने को दिया. अनुभव ने एक ही घूंट में गिलास खाली कर दिया.

अभी वे बातें कर ही रहे थे कि भीतर के कमरे से उस की सहेली रमा निकल कर बाहर आ गई.

रमा को देख कर अनुभव चौंक उठा. अनुभा ने कहा कि घबराने की कोई बात नहीं है. वह उस की सहेली है और उसी के साथ रहती है.

रमा दोनों के बीच आ कर बैठ गई. अचानक अनुभा उठ कर भीतर चली गई.

रमा ने अनुभव को बांहों में भींच लिया. न चाहते हुए भी अनुभव को रमा के साथ वही सब करना पड़ा. जब अनुभव घर जाने के लिए उठा तो बहुत कमजोरी महसूस कर रहा था. दोनों ने चुंबन ले कर उसे विदा किया.

इस के बाद से अनुभव उन से मिलने में कतराने लगा. उन के फोन आते ही वह काट देता.

एक दिन अनुभा ने स्कूल में उसे मोबाइल फोन पर उतारी वीडियो क्लिपिंग दिखाई और कहा कि अगर वह आने से इनकार करेगा तो वह इसे सब को दिखा देगी.

अनुभव डर गया और गाहेबगाहे उन के कमरे पर जाने लगा.

एक दिन अनुभव के दोस्त सुरेश ने उस से कहा कि वह थकाथका सा क्यों लगता है? इम्तिहान में भी उसे कम नंबर मिले थे.

अनुभव रोने लगा. उस ने सुरेश को सारी बात बता दी.

सुरेश के पिता पुलिस इंस्पैक्टर थे. सुरेश ने अनुभव को अपने पिता से मिलवाया. सारी बात सुनने के बाद वे बोले, ‘‘तुम्हारी उम्र कितनी है?’’

‘‘18 साल.’’

‘‘और उन की?’’

‘‘इसी के लगभग.’’

‘‘क्या तुम उन का मोबाइल फोन उठा कर ला सकते हो?’’

‘‘मुझे फिर वहां जाना होगा?’’

‘‘हां, एक बार.’’

अब की बार जब अनुभा का फोन आया तो अनुभव काफी नानुकर के बाद हूबहू उसी के जैसा मोबाइल ले कर उन के कमरे में पहुंचा.

2 घंटे समय बिताने के बाद जब वह लौटा तो उस के पास अनुभा का मोबाइल फोन था.

मोबाइल क्लिपिंग देख कर इंस्पैक्टर चकित रह गए. यह उन की जिंदगी में अजीब तरह का केस था. उन्होंने अनुभव से एक शिकायत लिखवा कर दोनों लड़कियों को थाने बुला लिया.

पूछताछ के दौरान लड़कियां बिफर गईं और उलटे पुलिस पर चरित्र हनन का इलजाम लगाने लगीं. उन्होंने कहा कि अनुभव सहपाठी के नाते आया जरूर था, पर उस के साथ ऐसीवैसी कोई गंदी हरकत नहीं की गई.

अब इंस्पैक्टर ने मोबाइल क्लिपिंग दिखाई. दोनों के सिर शर्म से झुक गए. इंस्पैक्टर ने कहा कि वे उन के मातापिता और प्रिंसिपल को उन की इस हरकत के बारे में बताएंगे.

लड़कियां इंस्पैक्टर के पैर पकड़ कर रोने लगीं. इंस्पैक्टर ने कहा कि इस जुर्म में उन्हें सजा हो सकती है. समाज में बदनामी होगी और स्कूल से निकाली जाएंगी सो अलग. उन के द्वारा बारबार माफी मांगने के बाद इंस्पैक्टर ने अनुभव की शिकायत पर लिखवा लिया कि वे आगे से ऐसी कोई हरकत नहीं करेंगी.

अनुभव ने वह स्कूल छोड़ कर दूसरे स्कूल में दाखिला ले लिया. साथ ही उस ने अपने मोबाइल की सिम बदल दी.

इस घटना को 7 साल गुजर गए.

अनुभव पढ़लिख कर कंप्यूटर इंजीनियर बन गया. इसी बीच उस के पिता नहीं रहे. मां की जिद थी कि वह शादी कर ले.

अनुभव ने मां से कहा कि वे अपनी पसंद की जिस लड़की को चुनेंगी, वह उसी से शादी कर लेगा.

अनुभव को अपनी कंपनी से बहुत कम छुट्टी मिलती थी. ऐन फेरों के दिन वह घर आ पाया. शादी खूब धूमधाम से हो गई.

सुहागरात के दिन अनुभव ने जैसे ही दुलहन का घूंघट उठाया, वह चौंक पड़ा. पलंग पर लाजवंती सी घुटनों में सिर दबाए अनुभा बैठी थी.

‘‘तुम…?’’ अनुभव ने चौंकते हुए कहा.

‘‘हां, मैं. अपनी गलती का प्रायश्चित्त करने के लिए अब जिंदगीभर के लिए फिर तुम्हारी देहरी पर मैं आ गई हूं. हो सके तो मुझे माफ कर देना,’’ इतना कह कर अनुभा ने अनुभव को गले लगा लिया.

गलत फैसला: क्या हुआ था प्रशांत के साथ

जयश्री को गुजरे एक महीना भी नहीं हुआ था कि उस के मम्मीपापा उस के ससुराल आ धमके. लगभग धमकीभरे लहजे में अपने दामाद प्रशांत से बोले, ‘‘राजन मेरे पास रहेगा.’’

‘‘क्यों आप के पास रहेगा? उस का बाप जिंदा है,’’ प्रशांत ने भी उसी लहजे में जवाब दिया.

‘‘उस की परवरिश करना तुम्हारे वश में नहीं,’’ वे बोले.

‘‘बड़े होने के नाते मैं आप की इज्जत करता हूं लेकिन यह हमारा निजी मामला है.’’

‘‘निजी कैसे हो गया? राजन मेरी बेटी का पुत्र है. उस की उम्र अभी मात्र 6 महीने है. तुम नौकरी करोगे कि बेटा पालोगे,’’ प्रशांत के ससुर रामानंद बोले.

‘‘आशा दीदी के हाथों वह सुरक्षित है,’’ प्रशांत ने सफाई दी.

‘‘तो भी यह बच्चा तुम्हें मुझे देना ही होगा,’’ रामानंद ‘देना’ शब्द पर जोर दे कर बोले.

‘‘रवि, तू अंदर जा कर बच्चा ले आ,’’ रवि उन का इकलौता बेटा था. भले ही उम्र के 40वें पायदान पर था तथापि स्वभाव से उद्दंडता गई न थी. आशा दौड़ कर कमरे में गई और राजन को सीने से लगा कर शोर मचाने लगी. प्रशांत ने भरसक प्रतिरोध किया लेकिन रवि ने उसे झटक दिया. रवि की उद्दंडता से नाराज प्रशांत, रवि को थप्पड़ मारने ही जा रहा था कि रामानंद बीच में आ गए. तब तक आसपड़ोस की भीड़ इकट्ठी हो गई. भीड़ के भय से रामानंद ने अपने पांव पीछे खींच लिए. उस रोज वे खाली हाथ लौट गए जिस का उन्हें मलाल था. प्रसंगवश, यह बता देना आवश्यक है कि प्रशांत और जयश्री का अतीत क्या था.

प्रशांत की जयश्री से शादी हुए 16 साल हो चुके थे. इन सालों में जब जयश्री गर्भवती नहीं हुई तो उन दोनों ने टैस्टट्यूब बेबी का सहारा लिया. इस तरह जयश्री की गोद भर गई. जब तक जयश्री मां न बन सकी थी तब तक प्रशांत ने उसे सरकारी नौकरी में जाने की पूरी छूट दे रखी थी. इसी का परिणाम था कि वह एक सरकारी स्कूल में अध्यापिका बन गई. नौकरी मिलते ही जयश्री के मांबाप, भाईबहन सब उस के इर्दगिर्द मंडराने लगे. जयश्री का मायका मोह अब भी नहीं छूटा था. कहने के लिए वह प्रशांत की बीवी थी पर रायमशवरा वह मायके से ही लेती. एक दिन रामानंद जयश्री से बोले, ‘बेटी, तुम्हारे पास रुपयों की कोई कमी न रही. तुम दोनों सरकारी नौकरी में हो.’ जयश्री चुपचाप उन की बात सुनती रही.

वे आगे बोले, ‘तुम्हारी छोटी बहन लता जमीन खरीदना चाहती है. हो सके तो तुम उस की मदद कर दो.’

रामानंद व उन की बीवी दोनों बड़े चापलूस और मक्कार किस्म के थे. उन का बेटा रवि भी उन्हीं के नक्शेकदम पर चलता. शादी के बाद भी वे लोग जयश्री पर छाए रहे. जयश्री कभी भी पूर्णतया ससुराल की हो कर न रह पाई थी. छोटीछोटी समस्याओं के लिए अपने मम्मीपापा और भाई रवि पर निर्भर रहती. उन की राय के बिना एक कदम न बढ़ाती. यहां तक कि लता को 2 लाख रुपए उस ने चोरी से लोन ले कर दे दिए. यह बात प्रशांत तक को पता न थी. लोन के पैसे वेतन से कटते. जयश्री ने अपने सारे गहने मायके में रख छोड़े थे. प्रशांत ने आपत्ति की तो उस ने यह कह कर उन्हें शांत कर दिया कि वहां लौकर में सुरक्षित हैं. मांबाप कहीं बेटी का हक थोड़े ही मारते हैं. इस के पीछे उसे डर अपनी बड़ी ननद आशा को ले कर था. वे अकसर आती रहतीं. प्रशांत उन से कुछ ज्यादा घुलामिला था. आशा की जयश्री से कभी नहीं पटी.

आशा सोचती कि प्रशांत के मांबाप नहीं रहे, इसलिए उसी ने उस की शादी का जिम्मा लिया तो प्रशांत की तरह जयश्री भी उस से दब कर रहे. जयश्री सोचती, आशा प्रशांत की बहन है, वे चाहे उस से जैसे भी पेश आएं, मैं क्यों उन के तलवे चाटूं. इन्हीं सब बातों को ले कर दोनों में तनातनी रहती. जयश्री को अपने मायके से जुड़ाव का एक बहुत बड़ा कारण यह भी था. जयश्री की इसी कमजोरी का फायदा उस के मांबाप, भाईबहनों ने उठाया. वे कोई न कोई बहाना बना कर उस से रुपए ऐंठते रहते. उस दोपहर अचानक जयश्री की तबीयत बिगड़ी. प्रशांत ने नजदीक के एक प्राइवेट अस्पताल में उसे भरती कराया. 2 दिन इलाज चला. तीसरे दिन अचानक उसे बेचैनी महसूस हुई. डाक्टरों ने भरसक कोशिश की परंतु उसे बचा न सके.

जयश्री की मृत्यु की खबर सुन कर उस के मायके के लोग भागेभागे आए. आते ही प्रशांत को कोसने लगे, ‘तुम ने मेरी बेटी का ठीक से इलाज नहीं करवाया.’ गनीमत थी कि वह प्राइवेट अस्पताल में मरी. अगर घर में मरती तो निश्चय ही वे कोई न कोई आरोप लगा कर प्रशांत को जेल भिजवा देते.

‘ये आप क्या कह रहे हैं, बाबूजी. वह मेरी पत्नी थी. मैं भला उस के इलाज में कोताही क्यों बरतूंगा,’ प्रशांत बोला.

‘बरतोगे,’ व्यंग्य के भाव उन के चेहरे पर तिर गए, ‘16 साल के वैवाहिक जीवन में वह एक दिन भी खुश नहीं रही.’

‘यह आप कैसे कह सकते हैं?’

‘क्यों नहीं कहूंगा? तुम्हें फिट आते थे. क्या तुम ने शादी के पहले इस का जिक्र किया था?’

‘गड़े मुर्दे उखाड़ने से क्या फायदा?’ प्रशांत बात टालने की नीयत से बोला.

‘इसीलिए कह रहा हूं, अगर फायदा होता तो नहीं उखाड़ता.’

‘दोष तो आप की बेटी में भी था.’

‘दोष? तुम्हारा दिमाग तो नहीं खराब हो गया है.’

‘16 साल इलाज किया, लाखों रुपए खर्च हुए, तब भी वह मां न बन सकी. जानते हैं क्यों? क्योंकि उस के बच्चेदानी में टीबी थी, जो शादी के पहले से थी. अगर समय रहते आप लोगों ने उस की समुचित चिकित्सा की होती तो यह दिन न देखना पड़ता.’ ‘बेकार की बातें मत करो,’ रामानंद का स्वर किंचित तेज था, ‘जो भी खामी आई वह सब तुम्हारे माहौल का दोष है. मेरे यहां तो वह भलीचंगी थी.’

‘झूठ मत बोलिए, आप 5 बेटियों के पिता हैं. आप भला क्यों इलाज कराएंगे. आप तो चाहेंगे कि वह मरमरा जाए तो अच्छा है.’ प्रशांत की बात उन्हें कड़वी लगी, तथापि संयत रहे.

‘जबान को लगाम दीजिए, जीजाजी,’ रवि उखड़ा.

‘सत्य बात हमेशा कड़वी लगती है.’

‘तब आप ने उस सच को उजागर क्यों नहीं किया?’

‘कौन सा सच?’

‘आप के फिट आने का,’ रवि बोला.

‘फिट कोई लाइलाज बीमारी नहीं. मुख्य बात यह है कि मुझे बीमारी से कोई शिकायत नहीं. मैं अपने पैरों पर खड़ा हूं. बिना मदद के अपने औफिस जाता हूं. अच्छीखासी तनख्वाह पाता हूं. अपने परिवार का भरणपोषण करने में सक्षम हूं और क्या चाहिए एक पुरुष से?’

‘मेरी बहन हमेशा आप की बीमारी को ले कर चिंतित रहती थी. इसी ने उस की जान ली,’ रवि बोला.

‘और शादी के 16 साल बाप न बनने की जो चिंता मुझे हुई, क्या उस चिंता ने मुझे चैन से जीने दिया? आप के पिता ने एक पुत्र के लिए 5 बेटियां जनीं. मुझे तो सिर्फ 1 पुत्री की आस थी. वह भी जयश्री के बीमारी के चलते पूरी न हो सकी. हार कर मुझे टैस्टट्यूब बेबी का सहारा लेना पड़ा,’ प्रशांत भावुक हो उठा.

‘जैसे भी हो, आप बाप बन गए न,’ रवि बोला.

‘‘इस बच्चे के बारे में क्या सोचा है?’’ रामानंद का स्वर सुन कर प्रशांत अपनी सोच से बाहर आ गया, ‘‘सोचना क्या है, बच्चा मेरे पास रहेगा.’’

कुछ सोच कर रामानंद बोले, ‘ठीक है. तुम्हारे पास ही रहेगा लेकिन इस शर्त पर कि बीचबीच में मैं इसे देखने आता रहूंगा. फोन से भी इस की खबर लेता रहूंगा. अगर इस की परवरिश में लापरवाही हुई तो बच्चा तुम्हें देना पड़ेगा,’ वे अपनी बात पर थोड़ा जोर दे कर बोले. प्रशांत को यह नागवार लगा. उस रोज सब चले गए. तेरहवीं के रोज जब आए तो वही बात दोहराई, ‘‘बच्चा मुझे दे दो. तुम्हारे वश में संभालना संभव नहीं,’’ प्रशांत की सास बोलीं.

‘‘मम्मीजी, आप बारबार बच्चा लेने की बात क्यों करती हैं. बच्चा मेरा है, मैं उस की बेहतर परवरिश कर सकता हूं.’’

‘‘किस के भरोसे?’’

‘‘अभी तो आशा दीदी हैं, बाद का बाद में देखा जाएगा.’’

‘‘आशा दीदी क्या पालेंगी? बांझ को बच्चा पालने का क्या अनुभव?’’ प्रशांत की सास मुंह बना कर बोलीं.

प्रशांत चाहता तो उन्हें धक्के मार कर निकाल सकता था पर चुप रहा. अब हर दूसरे दिन कभी रवि तो कभी रामानंद का फोन बच्चे के हालचाल के लिए आता. फोन पर अकसर वे बच्चे की आड़ में अनापशनाप बकते. मसलन, ‘कहां थी अब तक, कब से फोन लगा रहा हूं. बच्चा नहीं संभलता तो हमें दे दीजिए,’ रवि तीखे स्वर में आशा से कहता. आशा लाख कहती कि उस ने फोन उठाने में देरी नहीं की, फिर भी रवि उसे अनापशनाप बोलता रहता. उस की हरकतों से आजिज आ कर प्रशांत ने वकील से सलाह ली.

‘‘देखिए, जब तक आप की शादी नहीं हो जाती तब तक बच्चे पर हक नानानानी का ही बनता है. आप के मांबाप हैं नहीं,’’ वकील ने कानूनी पक्ष सामने रखा.

‘‘तो क्या किया जाए?’’

‘‘अतिशीघ्र शादी. तब तक उन से कोई बैर मोल मत लीजिए. जितनी सहूलियत से बोलबतिया सकते हैं बतियाइए वरना…’’

‘‘वरना क्या?’’

‘‘कानूनन वे कुछ भी कर सकते हैं. यहां तक कि बच्चा भी ले सकते हैं. जब तक कि आप शादी नहीं कर लेते हैं.’’

प्रशांत को सारा माजरा अब समझ में आया कि वे लोग क्यों इतने ताव से बातें करते हैं. जयश्री के मरने के 1 महीने के अंदर ही जब उन सब ने बच्चा उठाने की नीयत से उस के घर पर धावा बोला था तब भी इसी कानून का सुरक्षा कवच उन के पास था. वह तो महल्ले वालों के भय से वे अपने मिशन में कामयाब न हो सके वरना…

उस रोज के एक हफ्ते बाद सबकुछ शांत था. प्रशांत के लिए जोरशोर से लड़की देखी जाने लगी. विवाह की बात थी. हड़बड़ी दिखाना, वह भी 6 महीने के 1 बच्चे की परवरिश के लिए किसी को भी ब्याह कर के लाना उचित न था. प्रशांत खूब सोचसमझ कर किसी लड़की से शादी करना चाहता था ताकि बच्चे को ले कर कोई टकराव की स्थिति न बने. इधर, रामानंद ने जो सोचा था वह न हो पाने के कारण बेचैन वे थे. वे चाहते थे कि किसी तरह बच्चा उन के पास आ जाए ताकि प्रशांत को वे उंगलियों पर नचा सकें. उंगलियों पर नचाने का भी उन का अपना मकसद था. जब तक जयश्री जिंदा थी, अपनी कमाई का ज्यादातर हिस्सा मायके पर खर्च करती थी. अब एकाएक वह चली गई तो वह स्रोत बंद हो गया. लालची किस्म के रामानंद को यह बात सीने पर नश्तर की तरह चुभती. वे बच्चे के बहाने प्रशांत से और भी कुछ ऐंठना चाहते थे, जैसे पीएफ व बीमे के रुपए जिन्हें वे अपनी बेटी का मानते थे.

प्रशांत उन की बदनीयती से कुछकुछ वाकिफ हो चुका था. जयश्री के मरने के बाद जब प्रशांत उस के औफिस बकाया पीएफ व बीमे के लिए गया तो पता चला कि 2 लाख रुपए का उस पर कर्जा है जो उस के वेतन से कटता है. अब सरकार तो छोड़ेगी नहीं, जो भी फंड जयश्री के नाम होगा उसी से भरपाई करेगी. उसी समय प्रशांत को भान हो गया था कि जयश्री के मांबाप किस प्रवृत्ति के हैं व उस से क्या चाहते हैं. बच्चे से प्रेम महज बहाना था. जिसे अपनी बेटी से प्रेम नहीं वह भला अपनी बेटी के पुत्र से स्नेह क्यों रखने लगा?

एक रोज रवि सपत्नी आया, ‘‘पापा ने राजन को देखने के लिए लखनऊ बुलाया है.’’

‘‘इतने छोटे से बच्चे को कौन ले जाएगा? वे खुद नहीं आ सकते?’’ प्रशांत बोला.

‘‘वे बीमार हैं,’’ रवि का जवाब था.

‘‘ठीक हो जाएं तब आ कर देख जाएं.’’

‘‘नहीं, उन्होंने अभी देखने की इच्छा जाहिर की है.’’

‘‘यह कैसे संभव है?’’ प्रशांत लाचार स्वर में बोला.

‘‘मैं ले जाऊंगा,’’ रवि का यह कथन प्रशांत को अच्छा न लगा.

‘‘यह असंभव है.’’

‘‘कुछ भी असंभव नहीं. आप राजन को मुझे दे दीजिए. मैं सकुशल उसे पापा से मिलवा कर आप के पास पहुंचा दूंगा.’’

प्रशांत कुछ देर शांत था. फिर एकाएक उबल पड़ा, ‘‘आप लोग झूठ बोल रहे हैं. किसी को राजन से प्रेम नहीं है. साफसाफ बताइए, आप लोग चाहते क्या हैं?’’

रवि के चेहरे पर एक कुटिल मुसकान तैर गई. वह धीरे से बोला, ‘‘दीदी के पीएफ और बीमे के रुपए.’’

‘‘क्यों?’’

‘‘क्योंकि वे मेरी बहन की कमाई के थे.’’

‘‘वह मेरी कुछ नहीं थी?’’

‘‘तो ठीक है, राजन को हमें दे दीजिए.’’

प्रशांत की आंखें भर आईं. ‘‘क्या रुपयापैसा खून के रिश्ते से ज्यादा अहमियत रखने लगे हैं? क्या रिश्तेनाते, संस्कार गौण हो गए हैं?’’ किसी तरह उस ने अपने जज्बातों पर नियंत्रण रखा. 5 लाख रुपए बीमे की रकम व 3 लाख रुपए का पीएफ. यही कुल जमापूंजी जयश्री की थी. गनीमत थी कि रामानंद ने नवनिर्मित मकान में हिस्सेदारी का सवाल नहीं खड़ा किया.

‘‘2 लाख रुपए उस ने लोन लिए थे,’’ प्रशांत ने कहा.

‘‘लोन?’’ रवि चिहुंका.

‘‘चिहुंकने की कोई जरूरत नहीं. आप अच्छी तरह जानते हैं कि वे लोन के रुपए किस के काम आए,’’ प्रशांत के कथन पर वह बगलें झांकने लगा, फिर बोला, ‘‘गहने?’’

‘‘वे सब आप के पास हैं.’’

‘‘फिर भी कुछ तो होंगे ही?’’

प्रशांत ने जयश्री के कान के टौप्स, चूड़ी, एक सिकड़ी ला कर दे दी जो जयश्री के बदन पर मरते समय थे. 8 लाख रुपए का चैक काट कर प्रशांत ने अपने बेटे का सौदा कर लिया. उस रोज के बाद रामानंद ने भूले से भी कभी अपने नाती राजन का हाल नहीं लिया.

नौकरानी नहीं रानी हूं मैं

ओ मैडमजी, आप की हिम्मत कैसे हुई मुझे कामवाली बाई, नौकरानी, महरी जैसे नामों से पुकारने की? बुलाना हो तो मुझे प्यार से मेरे नाम से पुकारें या मेड सर्वेंट अथवा मेड ही कहें. कान खोल कर सुन लो बीवीजी, मैं नौकरानी नहीं हूं. मैं जिस घर में भी जाती हूं रानी बन कर रहती हूं. नौकरानी तो मुझे कोई कह ही नहीं सकता. नौकरी को तो मैं अपनी जूती की नोक पर रखती हूं. जब मन चाहे ऐसी दोटकिया नौकरी को ठोकर मार कर चल देती हूं. गरज तो आप को है मेरी. मुझे नौकरी के लाले नहीं पड़े हैं. बहुतेरी नौकरियां मेरी राह में बिछी हैं. एक घर छोड़ू तो 10 घर मुझे हाथोंहाथ झेल लेंगे. रखना हो तो रखो, नहीं तो मैं तो चली…

एक बात अच्छी तरह समझ लो बीवीजी, काम तो मैं अपनी शर्तों पर करती हूं. अगर आप को मुझे काम पर रखना है, तो टाइम की पाबंदी का कोई नाटक नहीं चलेगा. मैं आप की या आप के साहब की तरह औफिस में काम नहीं करती हूं जहां समय पर पहुंचना जरूरी होता है. मैं तो आराम से अपने घर के काम निबटा कर, सजधज कर काम पर पहुंचती हूं, इसलिए टाइम को ले कर मुझ से झिकझिक करने का नहीं, समझीं आप?

एक और जरूरी बात. मेरे पास अपना मोबाइल है. मैं अपने मोबाइल से किसी से भी, कितनी भी देर, कभी भी, कैसी भी बातें करूं, आप को कोई ऐतराज करने का हक नहीं कि काम पड़ा है और न जाने इतनी देर से किस से बतिया रही है? यह भी जान लो मुझे जब भी, जितनी भी बार चाय की तलब लगे मुझे कड़क, मीठी, स्पैशल चाय चाहिए. उस के बगैर तो मेरे हाथपैर ही नहीं चलते. चाय के लिए आप मुझे रोकेंगीटोकेंगी नहीं.

और हां मेम साहब, यह तो बताना मैं भूल ही गई हूं कि दोपहर को मुझे टीवी पर अपने पसंदीदा सीरियल भी देखने होते हैं. यदि मैं फुलस्पीड पर पंखा चला कर सीरियल या मूवी देखूं तो यह आप की आंखों में खटकना नहीं चाहिए. यह भी तो सोचिए टीवी पर आने वाले विज्ञापनों ने मेरी जनरल नौलेज में कितनी वृद्धि की है. मैं ने उन्हीं से जाना है कि किस बरतन साफ करने वाले पाउडर में सौ नीबुओं की शक्ति है और किस डिटर्जैंट में 10 हाथों की धुलाई का दम है. ये सारे विज्ञापन हम जैसी मेड सर्वेंट के लिए ही तो बने हैं ताकि हमें मेहनत कम करनी पड़े और हाथ मुलायम बने रहें. मैं कहूं उस के पहले ही आप को ये सब चीजें बाजार से ला कर रखनी होंगी.

मैडमजी, पहले ही बता देना आप के सासससुर तो आप के साथ आ कर नहीं रहते हैं? मैं ऐसे घरों में काम नहीं लेती हूं जहां बूढ़े सासससुर भी साथ रहते हों. जितनी देर काम करो उतनी देर खूसट बुढि़या डंडा लिए सिर पर ही सवार रहती है कि यह कर, वह कर, यह क्यों नहीं किया, वह क्यों नहीं किया. असल बात तो यह है कि बहू पर तो उन की चलती नहीं, इसलिए सारी कसर वे हम जैसे लोगों पर ही निकालती हैं.

और हां बीवीजी, अगर आप के घर में छोटे बच्चे हैं और मैं कभी प्यार से उन्हें एकाध चपत लगा दूं तो सीधे थाने में रिपोर्ट करने मत चली जाना, समझीं आप? मेरे खुद के भी तो बालबच्चे हैं कि नहीं? वे परेशान करते हैं तो मैं उन्हें भी तो कूटपीट देती हूं. आप के बच्चों को भी मैं अपने बच्चों की ही तरह पालूंगी. कभी एकाध बार जरा सा हाथ उठा दिया तो उस के लिए हायतोबा मचाने की जरूरत नहीं. घर में सीसीटीवी कैमरे लगे होने की धमकी तो देना ही मत. सीसीटीवी कैमरे की आंखों में और आप की आंखों में भी धूल झोंकना हमें खूब आता है. एक बात और जान लो मेमसाहब, मेरे अपने भी कुछ रूल्स ऐंड रैग्यूलेशंस हैं. मेरा उसूल है कि नौकरी जौइन करने से पहले ही मैं इस मुद्दे पर डिस्कस कर लेना ठीक समझती हूं कि महीने में 4 छुट्टियां (हफ्ते में 1 छुट्टी) तो मुझे चाहिए ही चाहिए. आप की और साहब की नौकरी में ‘फाइव डेज वीक’ का प्रावधान है तो फिर मैं तो ‘सिक्स डेज वीक’ पर काम करने को तैयार हूं. पर सिर्फ इतनी छुट्टियां मेरे लिए काफी नहीं होंगी. गाहेबगाहे तीजत्योहार की छुट्टियां भी तो मुझे मिलेंगी कि नहीं?

इस के अलावा कभी मैं खुद बीमार पड़ी तब तो कभी अपने पति, बच्चों को बीमार बता कर छुट्टी करूंगी. कभी रिश्तेदारी में शादी, तो कभी मौत का बहाना बना कर छुट्टी करूंगी. इस के अलावा जब आप के घर में मेहमान आने वाले हों तब तो मेरा छुट्टी करना बनता ही है. बहानों की कोई कमी नहीं है मेरे पास. आप कहो तो छुट्टी करने के 101 बहानों पर किताब लिख दूं. पर क्या करूं बीवीजी, आप की तरह पढ़ीलिखी तो हूं नहीं. पर पढ़ेलिखों के भी कान कतरती हूं. बीवीजी, अब ऐडवांस लेने के बारे में भी बात कर लें तो अच्छा रहेगा. ऐडवांस लेने के भी 101 बहाने हैं मेरे पास. गरज तो आप को है मेरी. थोड़ी नानुकर के बाद ऐडवांस तो आप को देना ही पड़ेगा, क्योंकि कोई दूसरा चारा ही नहीं है आप के पास. क्व4-5 हजार का ऐडवांस तो ऊंट के मुंह में जीरा है मेरे लिए. इस ऐडवांस की रकम मैं हर महीने वेतन में से सिर्फ सौ 2 सौ ही कटवा कर चुकाऊंगी और किसी दिन सिर घूम गया तो आप को छोड़ कर ऐडवांस ले कर रफूचक्कर हो जाऊंगी.

हाथ की सच्ची हूं, यह तो मैं डंके की चोट पर कहती हूं. जहां भी मैं ने काम किया है, उन से पूछ कर देख लो. आज तक उन की एक सूई भी गायब नहीं हुई. सूई मैं क्यों गायब करूंगी, हाथ की सच्ची हूं न. सूई तो नहीं, पर बाकी चीजें तो इतनी सफाई से गायब होती हैं कि कोई मुझ पर तो शंका कर ही नहीं सकता. क्योंकि मैं खुद तो कुछ नहीं करती हूं पर दूसरों को खबर तो कर सकती हूं न? घर के सारे लोगों की दिनचर्या मुझ से ज्यादा किसे मालूम हो सकती है? घर में कौन कब आता है, कौन कब जाता है, अलमारी की चाबी कहां रहती है, कीमती चीजें कहां रखी रहती हैं, कब छुट्टियां मनाने शहर से बाहर जाने का प्रोग्राम है, इस सब की मुझे खबर रहती है. मैं कुछ नहीं करती, मुझ से भेद ले कर हाथ की सफाई तो कोई और ही दिखाता है. मुझे रंगे हाथों पकड़ना आप के बस की बात नहीं है.

मैडमजी, अब थोड़ी पर्सनल बात भी हो जाए. थोड़ी रोमांटिक बात है यह. वह क्या है कि आप के साहब या जवान हो रहे साहबजादे को रिझाने के भी 101 तरीके हैं मेरे पास. अब झाड़ूपोंछा करते समय मेरी साड़ी पिंडलियों से ऊपर हो जाए (और वह तो होगी ही) या आप के दिए ‘लोकट’ ब्लाउज के अंदर उन की निगाहें फिसलफिसल जाएं और उन्हें कुछकुछ होने लग जाए तो आप मुझे कोई दोष न देना. यह ‘लोकट’ ब्लाउज तो आप ने ही दिया था न मुझे? फिर उस के बाद साहब मौका देख कर किसी न किसी बहाने से या आप के नौजवान साहबजादे कालेज के पीरियड गोल कर वक्तबेवक्त घर आने लग जाएं तो इस में मेरी क्या गलती? साहब या साहबजादे आप से छिपा कर थोड़ीबहुत बख्शीश मुझे दे दें तो आप को ऐतराज नहीं होना चाहिए, वैसे ऐसी बातों की मैं आप को कानोंकान खबर होने दूं तब न?

बीवीजी, एक मजेदार बात तो आप को मालूम ही नहीं. आप तो सपने में भी सोच नहीं सकतीं कि आप लोगों के घरों में काम करने वाली हमारी जैसी मेड सर्वेंट जब आपस में मिलती हैं तो कैसीकैसी बातें करती हैं. आप सुनेंगी तो हंसेंगी या फिर गुस्सा करेंगी कि हमारी बातचीत का मेन टौपिक, हमारा टारगेट तो बस आप लोग ही रहती हैं  सब ने अपनीअपनी मालकिन के उन के रंगरूप और स्वभाव के अनुसार कई मजेदार निकनेम रख रखे हैं. किसी की मालकिन उस की नजर में काली मोटी भैंस है, तो कोई अजगर की तरह सारा दिन बिस्तर पर अलसाई पड़ी रहती है. किसी की मालकिन बिल्ली की तरह चटोरी है, तो कोई फैशन कर दिन भर मेढकी की तरह फुदकती रहती है. कोई बूढ़ी घोड़ी लाल लगाम है, तो कोई जासूस करमचंद की तरह जासूसी करती है. अरे बीवीजी, हम ने तो आप लोगों के ऐसेऐसे नाम रखे हैं, आप की ऐसीऐसी मिमिक्री करती हैं, ऐसीऐसी नकल उतारती हैं कि आप सुन लें तो चुल्लू भर पानी में डूब मरें. किसी दिन हम छुट्टी कर दें तो घर के काम करने में कैसे आप को नानी याद आती है, इस की ऐक्टिंग कर के तो हम लोटपोट हो जाती हैं.

हमारे मन का गुबार या पेट का अफारा कई तरह से निकलता है. कालोनी में किस के घर क्या चल रहा है, किस का किस के साथ चक्कर है, कौन किस के साथ रंगे हाथों पकड़ी गई, किस के घर में तीसरी औरत या तीसरे मर्द को ले कर पतिपत्नी में कुत्तों की तरह लड़ाई छिड़ी रहती है, इन झूठीसच्ची खबरों को तिल का ताड़ बना कर, अपनी तरफ से ढेरों नमकमिर्च लगा कर हम अपना तो मनोरंजन करती ही हैं, फिर ये ही खबरें हमारे मुखारविंद से घरघर जा कर मालकिन के सामने भी ब्रौडकास्ट होती हैं (सिवा उन के खुद के घर की खबरों के). हमारा यह न्यूज चैनल बहुत लोकप्रिय है. अपनी मालकिन को ब्लैकमेल करना भी मुझे बहुत आता है. त्योहारों पर इनाम और दीवाली पर तो 1 महीने का वेतन बोनस मैं धरा ही लेती हूं, हर नए साल पर वेतन बढ़वा लेना भी मुझे खूब आता है. इस के अलावा उन की किसी पड़ोसिन ने अपनी मेड सर्वेंट को क्या दिया है, इस की खबर भी बढ़ाचढ़ा कर सुना कर अपनी मालकिन को ब्लैकमेल करने में पीछे नहीं रहती हूं ताकि वे उस से भी बढ़चढ़ कर मुझ पर कपड़े, बरतन, खानेपीने का सामान लुटाने में पीछे न रह जाएं. अंत में मैं स्पष्ट कर दूं (चाहे तो इसे धमकी भी समझ सकती हैं) कि हम घरेलू कामवाली मेड सर्वेंट ने अपनी यूनियन भी बना रखी है जिस की मैं अध्यक्ष हूं. हम सब की मंथली मीटिंग होती है, जिस में हम अपने वेतन, छुट्टियों, काम के घंटों आदि पर कंट्रोल रखती हैं. मांगें पूरी न होने पर हड़ताल करना हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है. शिकायत ले कर थाना, कचहरी जाने में भी हमें कोई डर नहीं है, क्योंकि अंतत: जीत तो हमारी ही होनी है. कानून तो हमेशा (चाहे कोई भी दोषी हो) ससुराल विरुद्ध बहू के केस में बहू का, मकानमालिक विरुद्ध किराएदार में किराएदार का पक्ष लेता है, इसलिए मालकिन विरुद्ध नौकरानी में नौकरानी का ही पक्ष लेगा, इस का हमें पूर्ण विश्वास है. हम सर्वव्यापी हैं, सर्वशक्तिमान हैं. आप को काम पर रखना हो तो रखो, नहीं तो, मैं तो चली…

निर्णय आपका : सास से परेशान बेचारे दामाद की कहानी

संसार में शायद मुझ से अधिक कोई बदनसीब नहीं होगा. विवाह में सब को दहेज में गाड़ी, सोफा, फ्रिज मिलता है, सुंदर पत्नी घर आती है, लेकिन हमारे साथ ऐसा नहीं हुआ. हमारा विवाह हुआ, पत्नी भी आई और दहेज में सास मिल गई.

हम ने सोचा 1-2 दिन की परेशानी होगी सो भोग लो, किंतु हमारी सोच एकदम गलत साबित हुई. हमें पत्नीजी ने बताया कि आप की सास को यहां का हवापानी काफी जम गया है सो वह अब यहीं रहेंगी. यहां की जलवायु से उन का ब्लड प्रेशर भी सामान्य हो गया है.

हम ने सुना तो हमारा ब्लड प्रेशर बढ़ गया, लेकिन यदि विरोध करते तो तलाक की नौबत आ जाती. हो सकता है ससुराल पक्ष के व्यक्ति दहेज लेने का, प्रताड़ना का मुकदमा ठोंक देते. इसलिए मन मार कर हम ने यह सोच कर कि आज का दौर एक पर एक फ्री का है, सास को भी स्वीकार कर लिया.

2-3 माह तक दिल पर पत्थर रख कर हम अपनी सास को सहन करते रहे, लेकिन सोचा कि आखिर यह छाती पर पत्थर रख कर हम कब तक जीवित रह पाएंगे? सो हम ने पत्नीजी से सास की पसंद एवं नापसंद वस्तुओं को जान लिया. हमारी सास को कुत्ते, बिल्ली से सख्त नफरत थी. बचपन में उन की मां का स्वर्गवास कुतिया के काटने से हुआ था. पिताजी का नरकवास बिल्ली के पंजा मारने से हुआ था. हम ने भी मन ही मन ठान लिया कि कुत्ता, बिल्ली जल्दी से लाएंगे ताकि सासूजी प्रस्थान कर जाएं और हम अपनी जिंदगी को सुचारु रूप से चला सकें.

हम ने अपने अभिन्न मित्र मटरू से अपनी समस्या बताई और वह महल्ले से एक खजिया कुत्ते का पिल्ला और एक मरियल बिल्ली को ले आए. हम उन्हें खुशीखुशी झोले में डाल कर अपने घर ले आए. हमारी पत्नी ने देखा तो दहाड़ मार कर पीछे हट गई. सासूमां ने बेटी की दहाड़ सुनी तो दौड़ती आईं. हमारे झोले से खजिया कुत्ता एवं बिल्ली को देखा. हम खुश हो गए कि अब तो हमारी सास आधे घंटे बाद घर छोड़ कर प्रस्थान कर जाएंगी लेकिन मनुष्य जो सोचता है वह कब पूरा होता है?

सास ने उन 2 निरीह प्राणियों को देखा तो चच्चच् कर के वहीं जमीन पर बैठ गईं और हमारी ओर बड़ी दया की नजरों से देख कर कहा, ‘‘सच में दामाद हो तो तुम जैसा.’’

‘‘क्यों, ऐसा हम ने क्या कर दिया सासूमां?’’ हम ने प्रसन्नता को मन में छिपाते हुए पूछा.

‘‘अरे, दामादजी, तुम इन निरीह प्राणियों को ऐसी स्थिति में उठा लाए, ये काम बिरले व्यक्ति ही कर सकते हैं. मैं पहले जानवरों से बहुत नफरत करती थी, लेकिन जब से जानवरों की रक्षा करने वाली संस्था की सदस्य बनी हूं तब से  मेरा दृष्टिकोण ही बदल गया. तुम खड़े क्यों हो…आटोरिकशा लाओ?’’ सासूजी ने आदेश दिया.

‘‘आटोरिकशा किसलिए?’’

‘‘अस्पताल चलना है.’’

‘‘क्यों? यह (पत्नीजी उठ बैठी थीं) तो ठीकठाक हैं?’’ हम ने भोलेपन से कहा.

‘‘दामादजी, इन कुत्तेबिल्ली के बच्चों को ले कर चलना है, जल्दी करो,’’ सासूमां ने आर्डर दिया. हम दिल पर पत्थर रख कर चले गए. आगे की घटना बड़ी छोटी है.

आटोरिकशा आया, उस के रुपए हम ने दिए. वेटनरी डाक्टर को दिखाया उस के रुपए हम ने दिए. जानवरों के लिए 1 हजार रुपए की दवा खरीदी वह रुपए देतेदेते हमें चक्कर आने लगे थे. कुल जमा 1,500 रुपयों पर हमें हमारे दोस्त मटरू ने उतार दिया था. घर ला कर उन जानवरों के लिए दूध, ब्रेड की व्यवस्था भी की, और जब ओवर बजट होने लगा तो एक रात चुपके से हम ने दोनों को थैली में बंद कर के मटरू के?घर में छोड़ दिया.

हमारी सास जब सुबह उठीं तो बड़ी दुखी थीं कि पालतू जानवर कहां चले गए? हमारा दुर्भाग्य देखो कि मटरू स्कूटर से सुबह ही आ धमका, ‘‘अरे, गोपाल, ये दोनों मेरे घर आ गए थे. मैं इन्हें ले आया हूं,’’ कह कर उस ने मुझे शादी के तोहफे की तरह कुत्ते का पिल्ला और बिल्ली दी. सासूमां खुशी से झूम उठीं. हम मन ही मन कुढ़ कर रह गए. आखिर किस से अपने मन की व्यथा कहते?

कुत्ते का पिल्ला ठीक हो गया था. उस की खुराक भी हमारी सास की खुराक की तरह बढ़ रही थी. हम खून के आंसू रो रहे थे. सास को जमे 6 माह हो चुके थे. पत्नी थीं कि उन्हें घर भेजने का नाम ही नहीं ले रही थीं.

हम अपने दोस्त मटरू के पास गए. उस के सामने खूब रोएधोए. उसे हमारी दशा पर दया आ गई. उस ने मुझे एक प्लान बताया जिसे सुन कर हम खुश हो गए. उस प्लान में एक ही गड़बड़ी थी कि श्रीमती को ले कर मुझे बाहर जाना था, लेकिन वह सास के बिना माफ करना, अपनी मां के बिना जाने को तैयार ही नहीं होती थीं.

हम ने अपने मित्र मटरू को वचन दिया कि उस की दी गई तारीख को केवल सास ही घर में रहेंगी. मैं और पत्नी सिनेमा देखने जाएंगे. इन 3-4 घंटों में वह काम निबटा कर सब ठीक कर लेगा.

हम ने मौका देख कर पत्नी की प्रशंसा की, उस के साथ कुछ पल तन्हातन्हा गुजारने की मनोकामना प्रकट की. वह थोड़ा लजाई, थोड़ा घबराई, मां की याद भी आई, लेकिन हमारे प्यार ने जोर मारा और वह तैयार हो गई कि मैं और वह शाम को फिल्म देखने चलेंगे.

हालांकि सासूमां को अकेला छोड़ कर जाने पर उन्होंने आपत्ति प्रकट की लेकिन पत्नी ने उन्हें समझाया कि टिक्कू कुत्ता, दीयापक बिल्ली?है इसलिए अकेलापन खलेगा नहीं. बुझे मन से उन्होंने भी जाने की इजाजत दे दी.

हम ने खट से मटरू को मोबाइल से यह खबर दे दी कि हम शाम को निकल रहे हैं, देर से लौटेंगे. रात 10 से 1 के बीच सासूमां का काम निबटा ले. मटरू भी तैयार हो गया?था. हम भी खुश थे कि चलो, बला टलेगी, लेकिन पति हमेशा से ही बदकिस्मत पैदा होता है.

प्लान यह था कि मटरू रात में साढ़े 10 बजे के बीच घर में प्रवेश करेगा और मुंह पर कपड़ा बांध कर सासूमां को डरा कर चोरी कर लेगा. सासूमां डर के मारे या तो भाग जाएंगी या हमारे घर से हमेशा के लिए बायबाय कर लेंगी.

हम पत्नी को 4 घंटे की एक फिल्म दिखलाने शहर से बाहर ले गए. रात 10 बजे फिल्म छूटी. हम ने भोजन किया. फोन से मटरू को खबर भी कर दी कि जल्दी से अपने आपरेशन को अंजाम दे. हमारी पत्नी अपनी मां को ले कर काफी चिंतित थी. हम ने आटोरिकशा वाले को पटा कर 50 रुपए अधिक दिए ताकि वह घर पर लंबे रास्ते से धीमी गति से पहुंचे.

रात साढ़े 12 बजे जब हम अपने घर पहुंचे तो घर के बाहर भीड़ जमा थी. पुलिस की एक वैन खड़ी थी. चंद पुलिस वाले भी थे. हमारा माथा ठनका कि मटरू ने कहीं जल्दबाजी में सासूमां का मर्डर तो नहीं कर दिया?

हम जब आटोरिकशा से उतरे तो महल्ले के निवासी काफी घबराए थे. पत्नी अपनी मां की याद में रोने  लगी तभी अंदर से सासूमां पुलिस इंस्पेक्टर के साथ बाहर हंसतीखिलखिलाती निकलीं. उन्हें हंसते देख हमारा माथा ठनका कि भैया आज मटरू पकड़ा गया और हमारा प्लान ओपन हुआ. बस, तलाक के साथसाथ पूरा महल्ला थूथू करेगा सो अलग. सब कहेंगे, ‘‘ऐसे टुच्चे दोस्त हैं जो ऐसी सलाह देते हैं.’’

हम शर्म से जमीन में गड़ गए. मन ही मन विचार किया, कभी ऐसा गंदा प्लान नहीं बनाएंगे. अचानक हमारे कान में मटरू की आवाज सुनाई पड़ी. देखा कि वह तो भीड़ में खड़ा तमाशा देख रहा है. अब हमारी बारी चक्कर खा कर गिरने की आ गई थी.

हम हिम्मत कर के आगे बढ़े तो देखते हैं कि पुलिस एक चोर को पकड़ कर बाहर आ रही थी. हमें देख कर सासूमां ने कहा, ‘‘लो दामादजी, इसे पकड़ ही लिया, पूरा शहर इस की चोरियों से परेशान था.’’

पुलिस इंस्पेक्टर ने हमें बधाई दी और कहा, ‘‘आप की सास वाकई बड़ी हिम्मती हैं. इन्होंने एक शातिर चोर को पकड़वाया है. इन्हें सरकार से इनाम तो मिलेगा ही लेकिन हमें आज आप के भाग्य पर ईर्ष्या हो रही है कि ऐसी सास हमारे भाग्य में क्यों नहीं थी?’’ हम ने सुना तो गद्गद हो गए. हमारी पत्नी ने लपक कर अपनी मां को गले से लगा लिया.

किस्सा यों हुआ कि हमारे मटरू दोस्त को आने में देर हो गई थी. उस की जगह उस रात अचानक असली चोर घुस आया. सासूमां ने पुराना घी खाया था, सो बिना घबराए अपने कुत्ते के साथ उसे धोबी पछाड़ दे दी. महल्ले वालों को आवाज दे कर बुलाया, पुलिस आ गई. इस तरह सासूमां ने एक शातिर चोर को पकड़ लिया. अगले दिन समाचारपत्रों में फोटो सहित सासूमां का समाचार छपा हुआ था.

अब आप ही विचार करें, ऐसी प्रसिद्ध सासूमां को कौन घर से जाने को कहेगा? आप ही निर्णय करें कि हम भाग्यशाली हैं या दुर्भाग्यशाली? आप जो भी निर्णय लें लेकिन हमारी सासूमां जरूर सौभाग्यशाली हैं जिन्हें ऐसा दामाद मिला…

चिंता की कोई बात नहीं: क्या सुकांता लौटेगी ससुराल

लेखिका प्रतिमा डिके

आज अगर कोई मुझ से पूछे कि दुनिया का सब से सुखी व्यक्ति कौन है? तो सीना तान कर मेरा जवाब होगा, मैं. और यह बात सच है कि मैं सुखी हूं. बहुत सुखी हूं, औसत से कुछ अधिक ही रूप, औसत से कुछ अधिक ही गुण, शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य, अच्छी शिक्षा, अच्छी नौकरी, अच्छा पैसा, मनपसंद पत्नी, समझदार, स्वस्थ और प्यारे बच्चे, शहर में अपना मकान.

अब बताइए, जिसे सुख कहते हैं वह इस से अधिक या इस से अच्छा क्याक्या हो सकता है? यानी मेरी सुख की या सुखी जीवन की अपेक्षाएं इस से अधिक कभी थीं ही नहीं. लेकिन 6 माह पूर्व मेरे घर का सुखचैन मानो छिन गया.

सुकांता यानी मेरी पत्नी, अपने मायके में क्या पत्र लिखती, मुझे नहीं पता. लेकिन उस के मायके से जो पत्र आने लगे थे उन में उस की बेचारगी पर बारबार चिंता व्यक्त की जाने लगी थी. जैसे :

‘‘घर का काम बेचारी अकेली औरत  करे तो कैसे और कहां तक?’’

‘‘बेचारी सुकांता को इतना तक लिखने की फुरसत नहीं मिल रही है कि राजीखुशी हूं.’’

‘‘इन दिनों क्या तबीयत ठीक नहीं है? चेहरे पर रौनक ही नहीं रही…’’ आदि.

शुरूशुरू में मैं ने उस ओर कोई खास ध्यान नहीं दिया. मायके वाले अपनी बेटी की चिंता करते हैं, एक स्वाभाविक बात है. यह मान कर मैं चुप रहा. लेकिन जब देखो तब सुकांता भी ताने देने लगी, ‘‘प्रवीणजी को देखो, घर की सारी खरीदफरोख्त अकेले ही कर लेते हैं. उन की पत्नी को तो कुछ भी नहीं देखना पड़ता…शशिकांतजी की पसंद कितनी अच्छी है. क्या गजब की चीजें लाते हैं. माल सस्ता भी होता है और अच्छा भी.’’

कई बार तो वह वाक्य पूरा भी नहीं करती. बस, उस के गरदन झटकने के अंदाज से ही सारी बातें स्पष्ट हो जातीं.

सच तो यह है कि उस की इसी अदा पर मैं शुरू में मरता था. नईनई शादी  हुई थी. तब वह कभी पड़ोसिन से कहती, ‘‘क्या बताऊं, बहन, इन्हें तो घर के काम में जरा भी रुचि नहीं है. एक तिनका तक उठा कर नहीं रखते इधर से उधर.’’ तो मैं खुश हो जाता. यह मान कर कि वह मेरी प्रशंसा कर रही है.

लेकिन जब धीरेधीरे यह चित्र बदलता गया. बातबात पर घर में चखचख होने लगी. सुकांता मुझे समझने और मेरी बात मानने को तैयार ही नहीं थी. फिर तो नौबत यहां तक आ गई कि मेरा मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य भी गड़बड़ाने लगा.

अब आप ही बताइए, जो काम मेरे बस का ही नहीं है उसे मैं क्यों और कैसे करूं? हमारे घर के आसपास खुली जगह है. वहां बगीचा बना है. बगीचे की देखभाल के लिए बाकायदा माली रखा हुआ है. वह उस की देखभाल अच्छी तरह से करता है. मौसम में उगने वाली सागभाजी और फूल जबतब बगीचे से आते रहते हैं.

लेकिन मैं बालटी में पानी भर कर पौधे नहीं सींचता, यही सुकांता की शिकायत है, वह चाहे बगीचे में काम न करे. लेकिन हमारे पड़ोसी सुधाकरजी बगीचे में पूरे समय खुरपी ले कर काम करते हैं. इसलिए सुकांता चाहती है कि मैं भी बगीचे में काम करूं.

मुझे तो शक है कि सुधाकरजी के दादा और परदादा तक खेतिहर मजदूर रहे होंगे. एक बात और है, सुधाकरजी लगातार कई सिगरेट पीने के आदी हैं. खुरपी के साथसाथ उन के हाथ में सिगरेट भी होती है. मैं तंबाकू तो क्या सुपारी तक नहीं खाता. लेकिन सुकांता इन बातों को अनदेखा कर देती है.

शशिकांत की पसंद अच्छी है, मैं भी मानता हूं. लेकिन उन की और भी कई पसंद हैं, जैसे पत्नी के अलावा उन के और भी कई स्त्रियों से संबंध हैं. यह बात भी तो लोग कहते ही हैं.

लेदे कर सुकांता को बस, यही शिकायत है, ‘‘यह तो बस, घर के काम में जरा भी ध्यान नहीं देते, जब देखो, बैठ जाएंगे पुस्तक ले कर.’’

कई बार मैं ने उसे समझाने की कोशिश की, लेकिन वह समझने को तैयार ही नहीं. मैं मुक्त मन से घर में पसर कर बैठूं तो उसे अच्छा नहीं लगता. दिन भर दफ्तर में कुरसी पर बैठेबैठे अकड़ जाता हूं. अपने घर में आ कर क्या सुस्ता भी नहीं सकता? मेरे द्वारा पुस्तक पढ़ने पर, मेरे द्वारा शास्त्रीय संगीत सुनने पर उसे आपत्ति है. इन्हीं बातों से घर में तनाव रहने लगा है.

ऐसे ही एक दिन शाम को सुकांता किसी सहेली के घर गई थी. मैं दफ्तर से लौट कर अपनी कमीज के बटन टांक रहा था. 10 बार मैं ने उस से कहा था लेकिन उस ने नहीं किया तो बस, नहीं किया. मैं बटन टांक रहा था कि सुकांता की खास सहेली अपने पति के साथ हमारे घर आई.

पर शायद आप पूछें कि यह खास सखी कौन होती है? सच बताऊं, यह बात अभी तक मेरी समझ में भी नहीं आई है. हर स्त्री की खास सखी कैसे हो जाती है? और अगर वह खास सखी होती है तो अपनी सखी की बुराई ढूंढ़ने में, और उस की बुराई करने में ही उसे क्यों आनंद आता है? खैर, जो भी हो, इस खास सखी के पति का नाम भी सुकांता की आदर्श पतियों की सूची में बहुत ऊंचे स्थान पर है. वह पत्नी के हर काम में मदद करते हैं. ऐसा सुकांता कहती है.

मुझे बटन टांकते देख कर खास सखी ऊंची आवाज में बोली, ‘‘हाय राम, आप खुद अपने कपड़ों की मरम्मत करते हैं? हमें तो अपने साहब को रोज पहनने के कपड़े तक हाथ में देने पड़ते हैं. वरना यह तो अलमारी के सभी कपड़े फैला देते हैं कि बस.’’

सराहना मिश्रित स्वर में खास सखी का उलाहना था. मतलब यह कि मेरे काम की सराहना और अपने पति को उलाहना था. और बस, यही वह क्षण था जब मुझे अलीबाबा का गुफा खोलने वाला मंत्र, ‘खुल जा सिमसिम’ मिल गया.

मैं ने बड़े ही चाव और आदर से खास सखी और उस के पति को बैठाया. और फिर जैसे हमेशा ही मैं वस्त्र में बटन टांकने का काम करता आया हूं, इस अंदाज से हाथ का काम पूरा किया. कमीज को बाकायदा तह कर रखा और झट से चाय बना लाया.

सच तो यह है कि चाय मैं ने नौकर से बनवाई थी और उसे पिछले दरवाजे से बाहर भेज दिया था. खास सखी और उस के पति ‘अरे, अरे, आप क्यों तकलीफ करते हैं?’ आदि कहते ही रह गए.

चाय बहुत बढि़या बनी थी, केतली पर टिकोजी विराजमान थी. प्लेट में मीठे बिस्कुट और नमकीन थी. इस सारे तामझाम का नतीजा भी तुरंत सामने आया. खास सखी के चेहरे पर मेरे लिए अदा से श्रद्धा के भाव उमड़ते साफ देखे जा सकते थे. खास सखी के पति का चेहरा बुझ गया.

मैं मन ही मन खुश था. इन्हीं साहब की तारीफ सुकांता ने कई बार मेरे सामने की थी. तब मैं जलभुन गया था, आज मुझे बदला लेने का पूरापूरा सुख मिला.

कुछ दिन बाद ही सुकांता महिलाओं की किसी पार्टी से लौटी तो बेहद गुस्से में थी. आते ही बिफर कर बोली, ‘‘क्यों जी? उस दिन मेरी सहेली के सामने तुम्हें अपने कपड़ों की मरम्मत करने की क्या जरूरत थी? मैं करती नहीं हूं तुम्हारे काम?’’

‘‘कौन कहता है, प्रिये? तुम ही तो मेरे सारे काम करती हो. उस दिन तो मैं यों ही जरा बटन टांक रहा था कि तुम्हारी खास सहेली आ धमकी मेरे सामने. मैं ने थोड़े ही उस के सामने…’’

‘‘बस, बस. मुझे कुछ नहीं सुनना…’’

गुस्से में पैर पटकती हुई वह अपने कमरे में चली गई. बाद में पता चला कि भरी पार्टी में खास सखी ने सुकांता से कहा था कि उसे कितना अच्छा पति मिला है. ढेर सारे कपड़ों की मरम्मत करता है. बढि़या चाय बनाता है. बातचीत में भी कितना शालीन और शिष्ट है. कहां तो सात जनम तक व्रत रख कर भी ऐसे पति नहीं मिलते, और एक सुकांता है कि पूरे समय पति को कोसती रहती है.

अब देखिए, मैं ने तो सिर्फ एक ही कमीज में 2 बटन टांके थे, लेकिन खास सखी ने ढे…र सारे कपड़े कर दिए तो मैं क्या कर सकता हूं? समझाने गया तो सुकांता और भी भड़क गई. चुप रहा तो और बिफर गई. समझ नहीं पाया कि क्या करूं.

सुकांता का गुस्सा सातवें आसमान पर था. वह बच्चों को ले कर सीधी मायके चली गई. मैं ने सोचा कि 15 दिन में तो आ ही जाएगी. चलो, उस का गुस्सा भी ठंडा हो जाएगा. घर में जो तनाव बढ़ रहा था वह भी खत्म हो जाएगा. लेकिन 1 महीना पूरा हो गया. 10 दिन और बीत गए, तब पत्नी की और बच्चों की बहुत याद आने लगी.

सच कहता हूं, मेरी पत्नी बहुत अच्छी है. इतने दिनों तक हमारी गृहस्थी की गाड़ी कितने सुचारु रूप से चल रही थी, लेकिन न जाने यह नया भूत कैसे सुकांता पर सवार हुआ कि बस, एक ही रट लगाए बैठी है कि यह घर में बिलकुल काम नहीं करते. बैठ जाते हैं पुस्तक ले कर, बैठ जाते हैं रेडियो खोल कर.

अब आप ही बताइए, हफ्ते में एक बार सब्जी लाना क्या काफी नहीं है? काफी सब्जी तो बगीचे से ही मिल जाती है. जो घर पर नहीं है वह बाजार से आ जाती है. और रोजरोज अगर सब्जी मंडी में धक्के खाने हों तो घर में फ्रिज किसलिए रखा है?

लेकिन नहीं, वरुणजी झोला ले कर मंडी जाते हैं, तो मैं भी जाऊं. अब वरुणजी का घर 2 कमरों का है. आसपास एक गमला तक रखने की जगह नहीं है. घर में फ्रिज नहीं है, इसलिए मजबूरी में जाते हैं. लेकिन मेरी तुलना वरुणजी से करने की क्या तुक है?

बच्चे हमारे समझदार हैं. पढ़ने में भी अच्छे हैं, लेकिन सुकांता को शिकायत है कि मैं बच्चों को पढ़ाता ही नहीं. सुकांता की जिद पर बच्चों को हम ने कानवेंट स्कूल में डाला. सुकांता खुद अंगरेजी के 4 वाक्य भी नहीं बोल पाती. बच्चों की अंगरेजी तोप के आगे उस की बोलती बंद हो जाती है.

यदाकदा कोई कठिनाई हो तो बच्चे मुझ से पूछ भी लेते हैं. फिर बच्चों को पढ़ाना आसान काम नहीं है. नहीं तो मैं अफसर बनने के बजाय अध्यापक ही बन जाता. अपना अज्ञान बच्चों पर प्रकट न हो इसीलिए मैं उन की पढ़ाई से दूर ही रहता हूं. शायद इसीलिए उन के मन में मेरे लिए आदर भी है. लेकिन शकीलजी अपने बच्चों को पढ़ाते हैं. रोज पढ़ाते हैं तो बस, सुकांता का कहना है मैं भी बच्चों को पढ़ाऊं.

पूरे डेढ़ महीने बाद सुकांता का पत्र आया. फलां दिन, फलां गाड़ी से आ रही हूं. साथ में छोटी बहन और उस के पति भी 7-8 दिन के लिए आ रहे हैं.

मैं तो जैसे मौका ही देख रहा था. फटाफट मैं ने घर का सारा सामान देखा. किराने की सूची बनाई. सामान लाया. महरी से रसोईघर की सफाई करवाई. डब्बे धुलवाए. सामान बिनवा कर, चुनवा कर डब्बों में भर दिया.

2 दिन का अवकाश ले कर माली और महरी की मदद से घर और बगीचे की, कोनेकोने तक की सफाई करवाई. दीवान की चादरें बदलीं. परदे धुलवा दिए. पलंग पर बिछाने वाली चादरें और तकिए के गिलाफ धुलवा लिए. हाथ पोंछने के छोटे तौलिए तक साफ धुले लगे थे. फ्रिज में इतनी सब्जियां ला कर रख दीं जो 10 दिन तक चलतीं. 2-3 तरह का नाश्ता बाजार से मंगवा कर रखा, दूध जालीदार अलमारी में गरम किया हुआ रखा था. फूलों के गुलदस्ते बैठक में और खाने की मेज पर महक रहे थे.

इतनी तैयारी के बाद मैं समय से स्टेशन पहुंचा. गाड़ी भी समय पर आई. बच्चों का, पत्नी का, साली का, उस के पति का बड़ी गर्मजोशी से स्वागत किया. रास्ते में सुकांता ने पूछा, (स्वर में अभी भी कोई परिवर्तन नहीं था) ‘‘क्यों जी, महरी तो आ रही थी न, काम करने?’’

मैं ने संक्षिप्त में सिर्फ ‘हां’ कहा.

बहन की तरफ देख कर (उसी रूखे स्वर में) वह फिर बोली, ‘‘डेढ़ महीने से मैं घर पर नहीं थी. पता नहीं इतने दिनों में क्या हालत हुई होगी घर की? ठीकठाक करने में ही पूरे 3-4 दिन लग जाएंगे.’’

मैं बिलकुल चुप रहा. रास्ते भर सुकांता वही पुराना राग अलापती रही, ‘‘इन को तो काम आता ही नहीं. फलाने को देखो, ढिकाने को देखो’’ आदि.

लेकिन घर की व्यवस्था देख कर सुकांता की बोलती ही बंद हो गई. आगे के 7-8 दिन मैं अभ्यस्त मुद्रा में काम करता रहा जैसे सुकांता कभी इस घर में रहती ही नहीं थी. छोटी साली और उस के पति इस कदर प्रभावित थे कि जातेजाते सालीजी ने दीदी से कह दिया, ‘‘दीदी, तुम तो बिना वजह जीजाजी को कोसती रहती हो. कितना तो बेचारे काम करते हैं.’’

सालीजी की विदाई के बाद सुकांता चुप तो हो गई थी. लेकिन फिर भी भुनभुनाने के लहजे में उस के कुछ वाक्यांश कानों में आ ही जाते. इसी समय मेरी बूआजी का पत्र आया. वह तीर्थयात्रा पर निकली हैं और रास्ते में मेरे पास 4 दिन रुकेंगी.

मेरी बूआजी देखने और सुनने लायक चीज हैं. उम्र 75 वर्ष. कदकाठी अभी भी मजबूत. मुंह के सारे के सारे दांत अभी भी हैं. आंखों पर ऐनक नहीं लगातीं और कान भी बहुत तीखे हैं. पुराने आचारव्यवहार और विचारों से बेहद प्रेम रखने वाली महिला हैं. मन की तो ममतामयी, लेकिन जबान की बड़ी तेज. क्या छोटा, क्या बड़ा, किसी का मुलाहिजा तो उन्होंने कभी रखा ही नहीं. मेरे पिताजी आज तक उन से डरते हैं.

मेरी शादी इन्हीं बूआजी ने तय की थी. गोरीचिट्टी सुकांता उन्हें बहुत अच्छी लगी थी. इतने बरसों से उन्हें मेरी गृहस्थी देखने का मौका नहीं मिला. आज वह आ रही थीं. सुकांता उन की आवभगत की तैयारी में जुट गई थी.

बूआजी को मैं घर लिवा लाया. बच्चों ने और सुकांता ने उन के पैर छुए. मैं ने अपने उसी मंत्र को दोहराना शुरू किया. यों तो घर में बिस्तर बिछाने का, समेटने का, झाड़ ू  लगाने का काम महरी ही करती है, लेकिन मैं जल्दी उठ कर बूआजी की चाकरी में भिड़ जाता. उन का कमरा और पूजा का सामान साफ कर देता, बगीचे से फूल, दूब, तुलसी ला कर रख देता. चंदन को घिस देता. अपने हाथ से चाय बना कर बूआजी को देता.

और तो और, रोज दफ्तर जातेजाते सुकांता से पूछता, ‘‘बाजार से कुछ मंगाना तो नहीं है?’’ आते समय फल और मिठाई ले आता. दफ्तर जाने से पहले सुकांता को सब्जी आदि साफ करने या काटने में मदद करता. बूआजी को घर के कामों में मर्दों की यह दखल देने की आदत बिलकुल पसंद नहीं थी.

सुकांता बेचारी संकोच से सिमट जाती. बारबार मुझे काम करने को रोकती. बूआजी आसपास नहीं हैं, यह देख कर दबी आवाज में मुझे झिड़की भी देती. और मैं उस के गुस्से को नजरअंदाज करते हुए, बूआजी आसपास हैं, यह देख कर उस से कहता, ‘‘तुम इतना काम मत करो, सुकांता, थक जाओगी, बीमार हो जाओगी…’’

बूआजी खूब नाराज होतीं. अपनी बुलंद आवाज में बहू को खूब फटकारतीं, ताने देतीं, ‘‘आजकल की लड़कियों को कामकाज की आदत ही नहीं है. एक हम थे. चूल्हा जलाने से ले कर घर लीपने तक के काम अकेले करते थे. यहां गैस जलाओ तो थकान होती है और यह छोकरा तो देखो, क्या आगेपीछे मंडराता है बीवी के? उस के इशारे पर नाचता रहता है. बहू, यह सब मुझे पसंद नहीं है, कहे देती हूं…’’

सुकांता गुस्से से जल कर राख हो जाती, लेकिन कुछ कह नहीं सकती थी.

ऐसे ही एक दिन जब महरी नहीं आई तो मैं ने कपड़ों के साथ सुकांता की साड़ी भी निचोड़ डाली. बूआजी देख रही हैं, इस का फायदा उठाते हुए ऊंची आवाज में कहा, ‘‘कपड़े मैं ने धो डाले हैं. तुम फैला देना, सुकांता…मुझे दफ्तर को देर हो रही है.’’

‘‘जोरू का गुलाम, मर्द है या हिजड़ा?’’ बूआजी की गाली दनदनाते हुए सीधे सुकांता के कानों में…

मैं अपना बैग उठा कर सीधे दफ्तर को चला.

बूआजी अपनी काशी यात्रा पूरी कर के वापस अपने घर पहुंच गई हैं. मैं शाम को दफ्तर से घर लौटा हूं. मजे से कुरसी पर पसर कर पुस्तक पढ़ रहा हूं. सुकांता बाजार गई है. बच्चे खेलने गए हैं. चाय का खाली कप लुढ़का पड़ा है. पास में रखे ट्रांजिस्टर से शास्त्रीय संगीत की स्वरलहरी फैल रही है.

अब चिंता की कोई बात नहीं है. सुख जिसे कहते हैं, वह इस के अलावा और क्या होता है? और जिसे सुखी इनसान कहते हैं, वह मुझ से बढ़ कर और दूसरा कौन होगा?

लौटते हुए: क्या हुआ सुप्रिया को गलती का एहसास

धनंजयजी का मन जाने का नहीं था, लेकिन सुप्रिया ने आग्रह के साथ कहा कि सुधांशु का नया मकान बना है और उस ने बहुत अनुरोध के साथ गृहप्रवेश के मौके पर हमें बुलाया है तो जाना चाहिए न. आखिर लड़के ने मेहनत कर के यह खुशी हासिल की है, अगर हम नहीं पहुंचे तो दीदी व जीजाजी को भी बुरा लगेगा…

‘‘पर तुम्हें तो पता ही है कि आजकल मेरी कमर में दर्द है, उस पर गरमी का मौसम है, ऐसे में घर से बाहर जाने का मन नहीं करता है.’’

‘‘हम ए.सी. डब्बे में चलेंगे…टिकट मंगवा लेते हैं,’’ सुप्रिया बोली.

‘‘ए.सी. में सफर करने से मेरी कमर का दर्द और बढ़ जाएगा.’’

‘‘तो तुम सेकंड स्लीपर में चलो, …मैं अपने लिए ए.सी. का टिकट मंगवा लेती हूं,’’ सुप्रिया हंसते हुए बोली.

सुप्रिया की बहन का लड़का सुधांशु पहले सरकारी नौकरी में था, पर बहुत महत्त्वाकांक्षी होने के चलते वहां उस का मन नहीं लगा. जब सुधांशु ने नौकरी छोड़ी तो सब को बुरा लगा. उस के पिता तो इतने नाराज हुए कि उन्होंने बोलना ही बंद कर दिया. तब वह अपने मौसामौसी के पास आ कर बोला था, ‘मौसाजी, पापा को आप ही समझाएं…आज जमाना तेजी से आगे बढ़ रहा है, ठीक है मैं उद्योग विभाग में हूं…पर हूं तो निरीक्षक ही, रिटायर होने तक अधिक से अधिक मैं अफसर हो जाऊंगा…पर मैं यह जानता हूं कि जिन की लोन फाइल बना रहा हूं वे तो मुझ से अधिक काबिल नहीं हैं. यहां तक कि उन्हें यह भी नहीं पता होता कि क्या काम करना है और उन की बैंक की तमाम औपचारिकताएं भी मैं ही जा कर पूरी करवाता हूं. जब मैं उन के लिए इतना काम करता हूं, तब मुझे क्या मिलता है, कुछ रुपए, क्या यही मेरा मेहनताना है, दुनिया इसे ऊपरी कमाई मानती है. मेरा इस से जी भर गया है, मैं अपने लिए क्या नहीं कर सकता?’

‘हां, क्यों नहीं, पर तुम पूंजी कहां से लाओगे?’ उस के मौसाजी ने पूछा था.

‘कुछ रुपए मेरे पास हैं, कुछ बाजार से लूंगा. लोगों का मुझ में विश्वास है, बाकी बैंक से ऋण लूंगा.’

‘पर बेटा, बैंक तो अमानत के लिए संपत्ति मांगेगा.’

‘हां, मेरे जो दोस्त साथ काम करना चाहते हैं वे मेरी जमानत देंगे,’ सुधांशु बोला था, ‘पर मौसीजी, मैं पापा से कुछ नहीं लूंगा. हां, अभी मैं जो पैसे घर में दे रहा था, वह नहीं दे पाऊंगा.’

धनंजयजी ने उस के चेहरे पर आई दृढ़ता को देखा था. उस का इरादा मजबूत था. वह दिनभर उन के पास रहा, फिर भोपाल चला गया था. रात को उन्होंने उस के पिता से बात की थी. वह आश्वस्त नहीं थे. वह भी सरकारी नौकरी में रह चुके थे, कहा था, ‘व्यवसाय या उद्योग में सुरक्षा नहीं है या तो बहुत मिल जाएगा या डूब जाएगा.’

खैर, समय कब ठहरा है…सुधांशु ने अपना व्यवसाय शुरू किया तो उस में उस की तरक्की होती ही गई. उस के उद्योग विभाग के संबंध सब जगह उस के काम आए थे. 2-3 साल में ही उस का व्यवसाय जम गया था. पहले वह धागे के काम में लगा था. फैक्टरियों से धागा खरीदता था और उसे कपड़ा बनाने वाली फैक्टरियों को भेजता था. इस में उसे अच्छा मुनाफा मिला. फिर उस ने रेडीमेड गारमेंट में हाथ डाल लिया. यहां भी उस का बाजार का अनुभव उस के काम आया. अब उस ने एक बड़ा सा मकान भोपाल के टी.टी. नगर में बनवा लिया है और उस का गृहप्रवेश का कार्यक्रम था… बारबार सुधांशु का फोन आ रहा था कि मौसीजी, आप को आना ही होगा और धनंजयजी ना नहीं कर पा रहे थे.

‘‘सुनो, भोपाल जा रहे हैं तो इंदौर भी हो आते हैं,’’ सुप्रिया बोली.

‘‘क्यों?’’

‘‘अपनी बेटी रंजना के लिए वहां से भी तो एक प्रस्ताव आया हुआ है. शारदा की मां बता रही थीं…लड़का नगर निगम में सिविल इंजीनियर है, देख भी आएंगे.’’

‘‘रंजना से पूछ तो लिया है न?’’ धनंजय ने पूछा.

‘‘उस से क्या पूछना, हमारी जिम्मेदारी है, बेटी हमारी है. हम जानबूझ कर उसे गड्ढे में नहीं धकेल सकते.’’

‘‘इस में बेटी को गड्ढे में धकेलने की बात कहां से आ गई,’’ धनंजयजी बोले.

‘‘तुम बात को भूल जाते हो…याद है, हम विमल के घर गए थे तो क्या हुआ था. सब के लिए चाय आई. विमल के चाय के प्याले में चम्मच रखी हुई थी. मैं चौंक गई और पूछा, ‘चम्मच क्यों?’ तो विमल बोला, ‘आंटी, मैं शुगर फ्री की चाय लेता हूं…मुझे शुगर तो नहीं है, पर पापा को और बाबा को यह बीमारी थी इसलिए एहतियात के तौर पर…शुगर फ्री लेता हूं, व्यायाम भी करता हूं, आप को रंजना ने नहीं बताया,’ ऐसा उस ने कहा था.’’

‘‘लड़की को बीमार लड़के को दे दो. अरे, अभी तो जवानी है, बाद में क्या होगा? यह बीमारी तो मौत के साथ ही जाती है. मैं ने रंजना को कह दिया था…भले ही विमल बहुत अच्छा है,    तेरे साथ पढ़ालिखा है पर मैं जानबूझ कर यह जिंदा मक्खी नहीं निगल सकती.’’

पत्नी की बात को ‘हूं’ के साथ खत्म कर के धनंजयजी सोचने लगे, तभी यह भोपाल जाने को उत्सुक है, ताकि वहां से इंदौर जा कर रिश्ता पक्का कर सके. अचानक उन्हें अपनी बेटी रंजना के कहे शब्द याद आए, ‘पापा, चलो यह तो विमल ने पहले ही बता दिया…वह ईमानदार है, और वास्तव में उसे कोई बीमारी भी नहीं है, पर मान लें, आप ने कहीं और मेरी शादी कर दी और उस का एक्सीडेंट हो गया, उस का हाथ कट गया…तो आप मुझे तलाक दिलवाएंगे?’

तब वह बेटी का चेहरा देखते ही रह गए थे. उन्हें लगा सवाल वही है, जिस से सब बचना चाहते हैं. हम आने वाले समय को सदा ही रमणीय व अच्छाअच्छा ही देखना चाहते हैं, पर क्या सदा समय ऐसा ही होता है.

‘पापा…फिर तो जो मोर्चे पर जाते हैं, उन का तो विवाह ही नहीं होना चाहिए…उन के जीवन में तो सुरक्षा है ही नहीं,’ उस ने पूछा था.

‘पापा, मान लें, अभी तो कोई बीमारी नहीं है, लेकिन शादी के बाद पता लगता है कि कोई गंभीर बीमारी हो गई है, तो फिर आप क्या करेंगे?’

धनंजयजी ने तब बेटी के सवालों को बड़ी मुश्किल से रोका था. अंतिम सवाल बंदूक की गोली की तरह छूता उन के मन और मस्तिष्क को झकझोर गया था.

पर, सुप्रिया के पास तो एक ही उत्तर था. उसे नहीं करनी, नहीं करनी…वह अपनी जिद पर अडिग थी.

रंजना ने भोपाल जाने में कोई उत्सुकता नहीं दिखाई. वह जानती थी, मां वहां से इंदौर जाएंगी…वहां शारदा की मां का कोई दूर का भतीजा है, उस से बात चल रही है.

स्टेशन पर ही सुधांशु उन्हें लेने आ गया था.

‘‘अरे, बेटा तुम, हम तो टैक्सी में ही आ जाते,’’ धनंजयजी ने कहा.

‘‘नहीं, मौसाजी, मेरे होते आप टैक्सी से क्यों आएंगे और यह सबकुछ आप का ही है…आप नहीं आते तो कार्यक्रम का सारा मजा किरकिरा हो जाता,’’ सुधांशु बोला.

‘‘और मेहमान सब आ गए?’’ सुप्रिया ने पूछा.

‘‘हां, मौसी, मामा भी कल रात को आ गए. उदयपुर से ताऊजी, ताईजी भी आ गए हैं. घर में बहुत रौनक है.’’

‘‘हांहां, क्यों नहीं, तुम सभी के लाड़ले हो और इतना बड़ा काम तुम ने शुरू किया है, सभी को तुम्हारी कामयाबी पर खुशी है, इसीलिए सभी आए हैं,’’ सुप्रिया ने चहकते हुए कहा.

‘‘हां, मौसी, बस आप का ही इंतजार था, आप भी आ गईं.’’

सुधांशु का मकान बहुत बड़ा था. उस ने 4 बेडरूम का बड़ा मकान बनवाया था. उस की पत्नी माधवी सजीधजी सब की खातिर कर रही थी. चारों ओर नौकर लगे हुए थे. बाहर जाने के लिए गाडि़यां थीं. शाम को उस की फैक्टरी पर जाने का कार्यक्रम था.

गृहप्रवेश का कार्यक्रम पूरा हुआ, मकान के लौन में तरहतरह की मिठाइयां, नमकीन, शीतल पेय सामने मेज पर रखे हुए थे पर सुधांशु के हाथ में बस, पानी का गिलास था.

‘‘अरे, सुधांशु, मुंह तो मीठा करो,’’ सुप्रिया बर्फी का एक टुकड़ा लेते हुए उस की तरफ बढ़ी.

‘‘नहीं, मौसी नहीं,’’ उस की पत्नी माधवी पीछे से बोली, ‘‘इन की शुगर फ्री की मिठाई मैं ला रही हूं.’’

‘‘क्या इसे भी…’’

‘‘हां,’’ सुधांशु बोला, ‘‘मौसी रातदिन की भागदौड़ में पता ही नहीं लगा कब बीमारी आ गई. एक दिन कुछ थकान सी लगी. तब जांच करवाई तो पता लगा शुगर की शुरुआत है, तभी से परहेज कर लिया है…दवा भी चलती है, पर मौसी, काम नहीं रुकता, जैसे मशीन चलती है, उस में टूटफूट होती रहती है, तेल, पानी देना पड़ता है, कभी पार्ट्स भी बदलते हैं, वही शरीर का हाल है, पर काम करते रहो तो बीमारी की याद भी नहीं आती है.’’

इतना कह कर सुधांशु खिलखिला कर हंस रहा था और तो और माधवी भी उस के साथ हंस रही थी. उस ने खाना खातेखाते पल्लवी से पूछा, ‘‘जीजी, सुधांशु को डायबिटीज हो गई, आप ने बताया ही नहीं.’’

‘‘सुप्रिया, इस को क्या बताना, क्या छिपाना…बच्चे दिनरात काम करते हैं. शरीर का ध्यान नहीं रखते…बीमारी हो जाती है. हां, दवा लो, परहेज करो. सब यथावत चलता रहता है. तुम तो मिठाई खाओ…खाना तो अच्छा बना है?’’

‘‘हां, जीजी.’’

‘‘हलवाई सुधांशु ने ही बुलवाया है. रतलाम से आया है. बहुत काम करता है. सुप्रिया, हम धनंजयजी के आभारी हैं. सुना है कि उन्होंने ही सुधांशु की सहायता की थी. आज इस ने पूरे घर को इज्जत दिलाई है. पचासों आदमी इस के यहां काम करते हैं…सरकारी नौकरी में तो यह एक साधारण इंस्पेक्टर रह जाता.’’

‘‘नहीं जीजी,…हमारा सुधांशु तो बहुत मेहनती है,’’ सुप्रिया ने टोका.

‘‘हां, पर…हिम्मत बढ़ाने वाला भी साथ होना चाहिए. तुम्हारे जीजा तो इस के नौकरी छोड़ने के पूरे विरोध में थे,’’ पल्लवी बोली.

‘‘अब…’’ सुप्रिया ने मुसकरा कर पूछा.

‘‘वह सामने देखो, कैसे सेठ की तरह सजेधजे बैठे हैं. सुबह होते ही तैयार हो कर सब से पहले फैक्टरी चले जाते हैं. सुधांशु तो यही कहता है कि अब काम करने से पापा की उम्र भी 10 साल कम हो गई है. दिन में 3 चक्कर लगाते हैं, वरना पहले कमरे से भी बाहर नहीं जाते थे.’’

रात का भोजन भी फैक्टरी के मैदान में बहुत जोरशोर से हुआ था. पूरी फैक्टरी को सजाया गया था. बहुत तेज रोशनी थी. शहर से म्यूजिक पार्टी भी आई थी.

धनंजयजी को बारबार अपनी बेटी रंजना की याद आ जाती कि वह भी साथ आ जाती तो कितना अच्छा रहता, पर सुप्रिया की जिद ने उसे भीतर से तोड़ दिया था.

सुबह इंदौर जाने का कार्यक्रम पूर्व में ही निर्धारित हुआ था. पर सुबह होते ही, धनंजयजी ने देखा कि सुप्रिया में इंदौर जाने की कोई उत्सुकता ही नहीं है, वह तो बस, अधिक से अधिक सुधांशु और माधवी के साथ रहना चाह रही थी.

आखिर जब उन से रहा नहीं गया तो शाम को पूछ ही लिया, ‘‘क्यों, इंदौर नहीं चलना क्या? वहां से फोन आया था और कार्यक्रम पूछ रहे थे.’’

सुप्रिया ने उन की बातों पर कोई ध्यान नहीं दिया, वह यथावत अपने रिश्तेदारों से बातचीत में लगी रही.

सुबह ही सुप्रिया ने कहा था, ‘‘इंदौर फोन कर के उन्हें बता दो कि हम अभी नहीं आ पाएंगे.’’

‘‘क्यों?’’ धनंजयजी ने पूछा.

सुप्रिया ने सवाल को टालते हुए कहा, ‘‘शाम को सुधांशु की कार जबलपुर जा रही है. वहां से उस की फैक्टरी में जो नई मशीनें आई हैं, उस के इंजीनियर आएंगे. वह कह रहा था, आप उस से निकल जाएं, मौसाजी को आराम मिल जाएगा. पर कार में ए.सी. है.’’

‘‘तो?’’

‘‘तो तुम्हारी कमर में दर्द हो जाएगा,’’ उस ने हंसते हुए कहा.

धनंजयजी, पत्नी के इस बदले हुए मिजाज को समझ नहीं पा रहे थे.

रास्ते में उन्होंने पूछा, ‘‘इंदौर वालों को क्या कहना है, फिर फोन आया था.’’

‘‘सुनो, सुधांशु को पहले तो डायबिटीज नहीं थी.’’

‘‘हां.’’

‘‘अब देखो, शादी के बाद हो गई है, पर माधवी बिलकुल निश्चिंत है. उसे तो इस की तनिक भी चिंता नहीं है. बस, सुधांशु के खाने और दवा का ध्यान दिन भर रखती है और रहती भी कितनी खुश है…उस ने सभी का इतना ध्यान रखा कि हम सोच भी नहीं सकते थे.’’

धनंजयजी मूकदर्शक की तरह पत्नी का चेहरा देखते रहे, तो वह फिर बोली, ‘‘सुनो, अपना विमल कौन सा बुरा है?’’

‘‘अपना विमल?’’ धनंजयजी ने टोका.

‘‘हां, रंजना ने जिस को शादी के लिए देखा है, गलती हमारी है जो हमारे सामने ईमानदारी से अपने परिवार का परिचय दे रहा है, बीमारी के खतरे से सचेत है, पूरा ध्यान रख रहा है. अरे, बीमारी बाद में हो जाती तो हम क्या कर पाते, वह तो…’’

‘‘यह तुम कह रही हो,’’ धनंजयजी ने बात काटते हुए कहा.

‘‘हां, गलती सब से होती है, मुझ से भी हुई है. यहां आ कर मुझे लगा, बच्चे हम से अधिक सही सोचते हैं,’’…पत्नी की इस सही सोच पर खुशी से उन्होंने पत्नी का हाथ अपने हाथ में ले कर धीरे से दबा दिया.

प्यार का विसर्जन : क्यों दीपक से रिश्ता तोड़ना चाहती थी स्वाति

अलसाई आंखों से मोबाइल चैक किया तो देखा 17 मिस्ड कौल्स हैं. सुबह की लाली आंगन में छाई हुई थी. सूरज नारंगी बला पहने खिड़की के अधखुले परदे के बीच से झंक रहा था. मैं ने जल्दी से खिड़कियों के परदे हटा दिए. मेरे पूरे कमरे में नारंगी छटा बिखर गई थी. सामने शीशे पर सूरज की किरण पड़ने से मेरी आंखें चौंधिया सी गई थीं. मिचमिचाई आंखों से मोबाइल दोबारा चैक किया. फिर व्हाट्सऐप मैसेज देखे पर अनरीड ही छोड़ कर बाथरूम में चली गई. फिर फै्रश हो कर किचन में जा कर गरमागरम अदरक वाली चाय बनाई और मोबाइल ले कर चाय पीने बैठ गई.

ओह, ये 17 मिस्ड कौल्स. किस की हैं? कौंटैक्ट लिस्ट में मेरे पास इस का नाम भी नहीं. सोचा कि कोई जानने वाला होगा वरना थोड़े ही इतनी बार फोन करता. मैं ने उस नंबर पर कौलबैक किया और उत्सुकतावश सोचने लगी कि शायद मेरी किसी फ्रैंड का होगा.

तभी वहां से बड़ी तेज डांटने की आवाज आई, ‘‘क्या लगा रखा है साक्षी, सारी रात मैं ने तुम को कितना फोन किया, तुम ने फोन क्यों नहीं उठाया? हम सब कितना परेशान थे. मम्मीपापा तुम्हारी चिंता में रातभर सोए भी नहीं. तुम इतनी बेपरवाह कैसे हो सकती हो?’’

‘‘हैलो, हैलो, आप कौन, मैं साक्षी नहीं, स्वाति हूं. शायद रौंग नंबर है,’’ कह कर मैं ने फोन काट दिया और कालेज जाने के लिए तैयार होने चली गई.

आज कालेज जल्दी जाना था. कुछ प्रोजैक्ट भी सब्मिट करने थे, सो, मैं ने फोन का ज्यादा सिरदर्द लेना ठीक नहीं समझ. बहरहाल, उस दिन से अजीब सी बातें होने लगीं. उस नंबर की मिस्ड कौल अकसर मेरे मोबाइल पर आ जाती. शायद लास्ट डिजिट में एकदो नंबर चेंज होने से यह फोन मुझे लग जाता था. कभीकभी गुस्सा भी आता, मगर दूसरी तरफ जो भी था, बड़ी शिष्टता से बात करता, तो मैं नौर्मल हो जाती. अब हम लोगों के बीच हाय और हैलो भी शुरू हो गई. कभीकभी हम लोग उत्सुकतावश एकदूसरे के बारे में जानकारी भी बटोरने लगते.

एक दिन मैं क्लास से बाहर आ रही थी. तभी वही मिस्ड कौल वाले का फोन आया. साथ में मेरी फ्रैंड थी, तो मैं ने फोन उठाना उचित न समझ. जल्दी से गार्डन में जा कर बैठ कर फोन देखने लगी कि कहीं फिर दोबारा कौल न आ जाए. मगर अनायास उंगलियां कीबोर्ड पर नंबर डायल करने लगीं. जैसे ही रिंग गई, दिल को अजीब सा सुकून मिला. पता नहीं क्यों हम दोनों के बीच एक रिश्ता सा कायम होता जा रहा था. शायद वह भी इसलिए बारबार यह गलती दोहरा रहा था. तभी गार्डन में सामने बैठे एक लड़के का भी मोबाइल बजने लगा.

जैसे मैं ने हैलो कहा तो उस ने भी हैलो कहा. मैं ने उस से कहा, ‘‘क्या कर रहे हो?’’ तो उस ने जवाब दिया, ‘‘गार्डन में खड़ा हूं और तुम से बात कर रहा हूं और मेरे सामने एक लड़की भी किसी से बात कर रही है.’’ दोनों एकसाथ खुशी से चीख पड़े, ‘‘स्वाति, तुम?’’ ‘‘दीपक, तुम?’’

‘‘अरे, हम दोनों एक ही कालेज में पढ़ते हैं. क्या बात है, हमारा मिलना एकदम फिल्मी स्टाइल में हुआ. मैं ने तुम को बहुत बार देखा है.’’

‘‘पर मैं ने तो तुम्हें फर्स्ट टाइम देखा है. क्या रोज कालेज नहीं आती हो?’’

‘‘अरे, ऐसा नहीं. मैं तो रोज कालेज आती हूं. मैं बीए फर्स्ट ईयर की स्टूडैंट हूं.’’

‘‘और मैं यहां फाइन आर्ट्स में एमए फाइनल ईयर का स्टूडैंट हूं.’’

‘‘ओह, तब तो मुझे आप को सर कहना होगा,’’ और दोनों हंसने लगे.

‘‘अरे यार, सर नहीं, दीपक ही बोलो.’’

‘‘तो आप को पेंटिंग का शौक है.’’

‘‘हां, एक दिन तुम मेरे घर आना, मैं तुम्हें अपनी सारी पेंटिंग्स दिखाऊंगा. कई बार मेरी पेंटिंग्स की प्रदर्शनी भी लग चुकी है.’’

‘‘कोई पेंटिंग बिकी या लोग देख कर ही भाग गए.’’

‘‘अभी बताता हूं.’’ और दीपक मेरी तरफ बढ़ा तो मैं उधर से भाग गई.

कुछ ही दिनों में हम दोनों अच्छे दोस्त बन गए. कभीकभी दीपक मुझे पेंटिंग दिखाने घर भी ले जाया करता. मेरे मांबाप तो गांव में थे और मेरा दीपक से यों दोस्ती करना अच्छा भी न लगता. कभी हम दोनों साथ फिल्म देखने जाते तो कभी गार्डन में पेड़ों के झरमुट के बीच बैठ कर घंटों बतियाते रहते और जब अंधेरा घिरने लगता तो अपनेअपने घोंसलों में लौट जाते.

एक जमाना था कि प्रेम की अभिव्यक्ति बहुत मुश्किल हुआ करती थी. ज्यादातर बातें इशारों या मौन संवादों से ही समझ जाती थीं. तब प्रेम में लज्जा और शालीनता एक मूल्य माना जाता था. बदलते वक्त के साथ प्रेम की परिभाषा मुखर हुई. और अब तो रिश्तों में भी कई रंग निखरने लगे हैं. अब तो प्रेम व्यक्त करना सरल, सहज और सुगम भी हो गया है. यहां तक कि फरवरी का महीना प्रेम के नाम हो गया है.

इस मौसम में प्रकृति भी सौंदर्य बिखेरने लगती है. आम की मजरिया, अशोक के फल, लाल कमल, नव मल्लिका और नीलकमल खिल उठते हैं. प्रेम का उत्सव चरम पर होता है. कुछ ही दिनों में वैलेंटाइन डे आने वाला था और मैं ने सोच लिया था कि दीपक को इस दिन सब से अच्छा तोहफा दूंगी. इस दोस्ती को प्यार में बदलने के लिए इस से अच्छा कोई और दिन नहीं हो सकता.

आखिर वह दिन भी आ गया जब प्रकृति की फिजाओं के रोमरोम से प्यार बरस रहा था और हम दोनों ने भी प्यार का इजहार कर दिया. उस दिन दीपक ने मुझसे कहा कि आज ही के दिन मैं तुम से सगाई भी करना चाहता था. मेरे प्यार को इतनी जल्दी यह मुकाम भी मिल जाएगा, सोचा न था.

दीपक ने मेरे मांबाप को भी राजी कर लिया. न जैसा कहने को कुछ भी न था. दीपक एक अमीर, सुंदर और नौजवान था जो दिनरात तरक्की कर रहा था. आखिर अगले ही महीने हम दोनों की शादी भी हो गई. अपनी शादीशुदा जिंदगी से मैं बहुत खुश थी.

तभी 4 वर्षों के लिए आर्ट में पीएचडी के लिए लंदन से दीपक को स्कौलरशिप मिल गई. परिवार में सभी इस का विरोध कर रहे थे, मगर मैं ने किसी तरह सब को राजी कर लिया. दिल में एक डर भी था कि कहीं दीपक अपनी शोहरत और पैसे में मुझे भूल न जाए. पर वहां जाने में दीपक का भला था.

पूरे इंडिया में केवल 4 लड़के ही सलैक्ट हुए थे. सो, अपने दिल पर पत्थर रख कर दीपक  को भी राजी कर लिया. बेचारा बहुत दुखी था. मुझे छोड़ कर जाने का उस का बिलकुल ही मन नहीं था. पर ऐसा मौका भी तो बहुत कम लोगों को मिलता है. भीगी आंखों से उसे एयरपोर्ट तक छोड़ने गई. दीपक की आंखों में भी आंसू दिख रहे थे, वह बारबार कहता, ‘स्वाति, प्लीज एक बार मना कर दो, मैं खुशीखुशी मान जाऊंगा. पता नहीं तुम्हारे बिना कैसे कटेंगे ये 4 साल. मैं ने अगले वैलेंटाइन डे पर कितना कुछ सोच रखा था. अब तो फरवरी में आ भी नहीं सकूंगा.’मैं उसे बारबार समझती कि पता नहीं हम लोग कितने वैलेंटाइन डे साथसाथ मनाएंगे. अगर एक बार नहीं मिल सके तो क्या हुआ. खैर, जब तक दीपक आंखों से ओझल नहीं हो गया, मैं वहीं खड़ी रही.

अब असली परीक्षा की घड़ी थी. दीपक के बिना न रात कटती न दिन. दिन में उस से 4-5 बार फोन पर बात हो जाती. पर जैसे महीने बीतते गए, फोन में कमी आने लगी. जब भी फोन करो, हमेशा बिजी ही मिलता. अब तो बात करने तक की फुरसत नहीं थी उस के पास.

कभी भूलेभटके फोन आ भी जाता तो कहता कि तुम लोग क्यों परेशान करते हो. यहां बहुत काम है. सिर उठाने तक की फुरसत नहीं है. घर में सभी समझते कि उस के पास काम का बोझ ज्यादा है. पर मेरा दिल कहीं न कहीं आशंकाओं से घिर जाता.

बहरहाल, महीने बीतते गए. अगले महीने वैलेंटाइन डे था. मैं ने सोचा, लंदन पहुंच कर दीपक को सरप्राइज दूं. पापा ने मेरे जाने का इंतजाम भी कर दिया. मैं ने पापा से कहा कि कोईर् भी दीपक को कुछ न बताए. जब मैं लंदन पहुंची तो दीपक को इस बारे में कुछ भी पता नहीं था. मैं पापा (ससुर) के दोस्त के घर पर रुकी थी. वहां मु?ो कोई परेशानी न हो, इसलिए अंकलआंटी मेरा बहुत ही ध्यान रखते थे.

वैसे भी उन की कोई संतान नहीं थी. शायद इसलिए भी उन्हें मेरा रुकना अच्छा लगा. उन का मकान लंदन में एक सामान्य इलाके में था. ऊपर एक कमरे में बैठी मैं सोच रही थी कि अभी मैं दीपक को दूर से ही देख कर आ जाऊंगी और वैलेंटाइन डे पर सजधज कर उस के सामने अचानक खड़ी हो जाऊंगी. उस समय दीपक कैसे रिऐक्ट करेगा, यह सोच कर शर्म से गाल गुलाबी हो गए और सामने लगे शीशे में अपना चेहरा देख कर मैं मन ही मन मुसकरा दी.

किसी तरह रात काटी और सुबहसुबह तैयार हो कर दीपक को देखने पहुंची. दीपक का घर यहां से पास में ही था. सो, मुझे ज्यादा परेशानी नहीं उठानी पड़ी.

सामने से दीपक को मैं ने देखा कि वह बड़ी सी बिल्ंडिंग से बाहर निकला और अपनी छोटी सी गाड़ी में बैठ कर चला गया. उस समय मेरा मन कितना व्याकुल था, एक बार तो जी में आया कि दौड़ कर गले लग जाऊं और पूछूं कि दीपक, तुम इतना क्यों बदल गए. आते समय किए बड़ेबड़े वादे चंद महीनों में भुला दिए. पर बड़ी मुश्किल से अपने को रोका.

तब से मुझ पर मानो नशा सा छा गया. पूरा दिन बेचैनी से कटा. शाम को मैं फिर दीपक के लौटने के समय, उसी जगह पहुंच गई. मेरी आंखें हर रुकने वाली गाड़ी में दीपक को ढूं़ढ़तीं. सहसा दीपक की कार पार्किंग में आ कर रुकी तो मैं भौचक्की सी दीपक को देखने लगी. तभी दूसरी तरफ से एक लड़की उतरी. वे दोनों एकदूसरे का हाथ पकड़े मंदमंद मुसकराते, एकदूसरे से बातें करते चले जा रहे थे. मैं तेजी से दीपक की तरफ भागी कि आखिर यह लड़की कौन है. देखने में तो इंडियन ही है. पांव इतनी तेजी से उठ रहे थे कि लगा मैं दौड़ रही हूं. मगर जब तक वहां पहुंची, वे दोनों आंखों से ओल हो गए थे.

मैं पागलों सी सड़क पर जा पहुंची. चारों तरफ जगमगाते ढेर सारे मौल्स और दुकानें थीं. आते समय ये सब कितने अच्छे लग रहे थे, लेकिन अब लग रहा था कि ये सब जहरीले सांपबिच्छू बन कर काटने को दौड़ रहे हों. पागलों की तरह भागती हुई घर वापस आ गई और दरवाजा बंद कर के बहुत देर तक रोती रही. तो यह था फोन न आने का कारण.

मेरे प्यार में ऐसी कौन सी कमी रह गई कि दीपक ने इतना बड़ा धोखा दिया. मैं भी एक होनहार स्टूडैंट थी. मगर दीपक के लिए अपना कैरियर अधूरा ही छोड़ दिया. मैं ने अपनेआप को संभाला. दूसरे दिन दीपक के जाने के बाद मैं ने उस बिल्ंिडग और कालेज में खोजबीन शुरू की. इतना तो मैं तुरंत समझ गई कि ये दोनों साथ में रहते हैं. इन की शादी हो गई या रिलेशनशिप में हैं, यह पता लगाना था. कालेज में जा कर पता चला कि यह लड़की दीपक की पेंटिंग्स में काफी हैल्प करती है और इसी की वजह से दीपक की पेंटिंग्स इंटरनैशनल लैवल में सलैक्ट हुई हैं. दीपक की प्रदर्शनी अगले महीने फ्रांस में है. उस के पहले ये दोनों शादी कर लेंगे क्योंकि बिना शादी के यह लड़की उस के साथ फ्रांस नहीं जा सकती.

तभी एक प्यारी सी आवाज आई, लगा जैसे हजारों सितार एकसाथ बज उठे हों. मेरी तंद्रा भंग हुई तो देखा, एक लड़की सामने खड़ी थी.

‘‘आप को कई दिनों से यहां भटकते हुए देख रही हूं. क्या मैं आप की कुछ मदद कर सकती हूं.’’  मैं ने सिर उठा कर देखा तो उस की मीठी आवाज के सामने मेरी सुंदरता फीकी थी. मैं ने देखा सांवली, मोटी और सामान्य सी दिखने वाली लड़की थी. पता नहीं दीपक को इस में क्या अच्छा लगा. जरूर दीपक इस से अपना काम ही निकलवा रहा होगा.

‘‘नो थैंक्स,’’ मैं ने बड़ी शालीनता से कहा.

मगर वह तो पीछे ही पड़ गई, ‘‘चलो, चाय पीते हैं. सामने ही कैंटीन है.’’ उस ने प्यार से कहा तो मुझ से रहा नहीं गया. मैं चुपचाप उस के पीछेपीछे चल दी. उस ने अपना नाम नीलम बताया. मु?ो बड़ी भली लगी. इस थोड़ी देर की मुलाकात में उस ने अपने बारे में सबकुछ बता दिया और अपने होने वाले पति का फोटो भी दिखाया. पर उस समय मेरे दिल का क्या हाल था, कोई नहीं समझ सकता था. मानो जिस्म में खून की एक बूंद भी न बची हो. पासपास घर होने की वजह से हम अकसर मिल जाते. वह पता नहीं क्यों मुझ से दोस्ती करने पर तुली हुई थी. शायद, यहां विदेश में मुझ जैसे इंडियंस में अपनापन पा कर वह सारी खुशियां समेटना चाहती थी.

एक दिन मैं दोपहर को अपने कमरे में आराम कर रही थी. तभी दरवाजे की घंटी बजी. मैं ने ही दरवाजा खोला. सामने वह लड़की दीपक के साथ खड़ी थी. ‘‘स्वाति, मैं अपने होने वाले पति से आप को मिलाने लाई हूं. मैं ने आप की इतनी बातें और तारीफ की तो इन्होंने कहा कि अब तो मु?ो तुम्हारी इस फ्रैंड से मिलना ही पड़ेगा. हम दोनों वैलेंटाइन डे के दिन शादी करने जा रहे हैं. आप को इनवाइट करने भी आए हैं. आप को हमारी शादी में जरूर आना है.’’

दीपक ने जैसे ही मुझे देखा, छिटक कर पीछे हट गया. मानो पांव जल से गए हों. मगर मैं वैसे ही शांत और निश्च्छल खड़ी रही. फिर हाथ का इशारा कर बोली, ‘‘अच्छा, ये मिस्टर दीपक हैं.’’ जैसे वह मेरे लिए अपरिचित हो. मैं ने दीपक को इतनी इंटैलिजैंट और सुंदर बीवी पाने की बधाई दी.

दीपक के मुंह पर हवाइयां उड़ रही थीं. लज्जा और ग्लानि से उस के चेहरे पर कईर् रंग आजा रहे थे. यह बात वह जानता था कि एक दिन सारी बातें स्वाति को बतानी पड़ेंगी. मगर वह इस तरह अचानक मिल जाएगी, उस का उसे सपने में भी गुमान न था. उस ने सब सोच रखा था कि स्वाति से कैसेकैसे बात करनी है. आरोपों का उत्तर भी सोच रखा था. पर सारी तैयारी धरी की धरी रह गईर्.

नीलम ने बड़ी शालीनता से मेरा परिचय दीपक से कराया, बोली, ‘‘दीपक, ये हैं स्वाति. इन का पति इन्हें छोड़ कर कहीं चला गया है. बेचारी उसी को ढूंढ़ती हुई यहां आ पहुंची. दीपक, मैं तुम्हें इसलिए भी यहां लाई हूं ताकि तुम इन की कुछ मदद कर सको.’’ दीपक तो वहां ज्यादा देर रुक न पाया और वापस घर चला गया. मगर नींद तो उस से कोसों दूर थी. उधर, नीलम कपड़े चेंज कर के सोने चली गई. दीपक को बहुत बेचैनी हो रही थी. उसे लगा था कि स्वाति अपने प्यार की दुहाई देगी, उसे मनाएगी, अपने बिगड़ते हुए रिश्ते को बनाने की कोशिश करेगी. मगर उस ने ऐसा कुछ नहीं किया. मगर क्यों…?

स्वाति इतनी समझदार कब से हो गई. उसे बारबार उस का शांत चेहरा याद आ रहा था. जैसे कुछ हुआ ही नहीं था. आज उसे स्वाति पर बहुत प्यार आ रहा था. और अपने किए पर पछता रहा था. उस ने पास सो रही नीलम को देखा, फिर सोचने लगा कि क्यों मैं बेकार प्यारमोहब्बत के जज्बातों में बह रहा हूं. जिस मुकाम पर मु?ो नीलम पहुंचा सकती है वहां स्वाति कहां. फिर तेजी से उठा और एक चादर ले कर ड्राइंगरूम में जा कर लेट गया.

दिन में 12 बजे के आसपास नीलम ने उसे जगाया. ‘‘क्या बात है दीपक, तबीयत तो ठीक है? तुम कभी इतनी देर तक सोते नहीं हो.’’ दीपक ने उठते ही घड़ी की तरफ देखा. घड़ी 12 बजा रही थी. वह तुरंत उठा और जूते पहन कर बाहर निकल पड़ा. नीलम बोली, ‘‘अरे, कहां जा रहे हो?’’

‘‘प्रोफैसर साहब का रात में फोन आया था. उन्हीं से मिलने जा रहा हूं.’’

दीपक सारे दिन बेचैन रहा. स्वाति उस की आंखों के आगे घूमती रही. उस की बातें कानों में गूंजती रहीं. उसी के प्यार में वह यहां आई थी. स्वाति ने यहां पर कितनी तकलीफें ?ोली होंगी. मु?ो कोई परेशानी न हो, इसलिए उस ने अपने आने तक का मैसेज भी नहीं दिया. क्या वह मु?ो कभी माफ कर पाएगी.

मन में उठते सवालों के साथ दीपक स्वाति के घर पहुंचा. मगर दरवाजा आंटी ने खोला. दीपक ने डरते हुए पूछा, ‘‘स्वाति कहां है?’’

आंटी बोलीं, ‘‘वह तो कल रात 8 बजे की फ्लाइट से इंडिया वापस चली गई. तुम कौन हो?’’

‘‘मैं दीपक हूं, नीलम का होने वाला पति.’’

‘‘स्वाति नीलम के लिए एक पैकेट छोड़ गई है. कह रही थी कि जब भी नीलम आए, उसे दे देना.’’

दीपक ने कहा, ‘‘वह पैकेट मुझे दे दीजिए, मैं नीलम को जरूर दे दूंगा.’’

दीपक ने वह पैकेट लिया और सामने बने पार्क में बैठ कर कांपते हाथों से पैकेट खोला. उस में उस के और स्वाति के प्यार की निशानियां थीं. उन दोनों की शादी की तसवीरें. वह फोन जिस ने उन दोनों को मिलाया था. सिंदूर की डब्बी और एक पीली साड़ी थी. उस में एक छोटा सा पत्र भी था, जिस में लिखा था कि 2 दिनों बाद वैलेंटाइन डे है. ये मेरे प्यार की निशानियां हैं जिन के अब मेरे लिए कोई माने नहीं हैं. तुम दोनों वैलेंटाइन डे के दिन ही थेम्स नदी में जा कर मेरे प्यार का विसर्जन कर देना…स्वाति.

मेरा घर: बेटे आरव को लेकर रंगोली क्यों भटक रही थी

रंगोली अपने दफ़्तर से जब घर पहुंची तो आरव ने रोरो कर पूरा घर सिर पर उठा रखा था. रंगोली को देखते ही उस की मम्मी ने राहत की सांस ली और आरव को उस की गोदी में पकड़ाते हुए बोली, “नाक में दम कर रखा है इस लड़के ने, पलक एक मिनट के लिए भी चैन से पढ़ नहीं पाई है.”

रंगोली बिना कुछ बोले आरव को गोद मे लिए लिए वाशरूम चली गई. बाहर आ कर रंगोली ने चाय का पानी चढ़ाया और खड़ेखड़े सब्जी भी काट दी.

चाय की चुस्कियों के साथ रंगोली आरव को सुलाने की कोशिश करने लगी. आरव के नींद में आते ही रंगोली की भी आंखें झपकने लगी थीं कि तभी मम्मी कमरे में तूफान की तरह घुसी, बोली, “रंगोली, थोड़ीबहुत मेरी भी मदद कर दिया करो, मेरे जीवन में तो सुख है ही नहीं. पहले बच्चों की ज़िम्मेदारी उठाओ, फिर उन के बच्चों की.”

रंगोली झेंपती सी बोली, “मम्मी, आरव को सुलातेसुलाते नींद लग गई थी.”

आरव को सुला कर रंगोली बाल लपेट कर रसोई में घुस गई थी. पापा व मम्मी के लिए परहेजी खाना, पलक के लिए हाई प्रोटीन डाइट और खुद के लिए, बस, जो भी दोनों में से बच जाए.

जब रंगोली रात की रसोई समेट रही थी तब तक आरव उठ गया था. रंगोली की रोज़ की यह ही दिनचर्या बन गई थी. मुश्किल से 4 घंटे की नींद पूरी हो पाती है.

रंगोली ने आरव लिए दूध तैयार किया और फिर धीरे से अपने कमरे का दरवाजा बंद कर लिया था. अगर आरव की जरा भी आवाज़ बाहर आती थी तो सुबह मम्मी के सिर में दर्द आरंभ हो जाता था.

रंगोली की ज़िंदगी कुछ समय पहले तक बिलकुल अलग थी. रंगोली थी एकदम बिंदास और अलमस्त, दुनिया से एकदम बेपरवाह. लंबा कद, गेंहू जैसा रंग, आम के फांक जैसी आंख, मदमस्त मुसकान और घुंघराले बाल. हर कोई कालेज और दफ़्तर में रंगोली का दीवना था. पर रंगोली थी दीवानी अभय की. अभय उस के साथ ही इंजीनियरिंग कालेज में था. दोनों की मित्रता गहरी होतेहोते प्यार में परिवर्तित हो गई थी.

रंगोली के मम्मीपापा अभय के घर गए थे और अभय के मम्मीपापा के तेवर देख कर उन्होंने रंगोली को आगाह कर दिया था, ‘बेटा, ऐसा प्यार बहुत दिनों तक नहीं टिकता है. हमारे यहां प्यार 2 लोगो के बीच नहीं, बल्कि 2 परिवारों के बीच होता है. हमारा और उन का परिवार काफी भिन्न हैं.’

पर उस समय तो रंगोली को कुछ समझ नहीं आ रहा था. लड़झगड़ कर और मिन्नतें करकर के आखिरकार रंगोली ने अपने परिवार को मना ही लिया था.

अभय का परिवार भी बड़ी बेदिली से तैयार हो गया था.

जब रंगोली और अभय हनीमून पर गए तो रंगोली को अभय का व्यवहार अजीब सा लगा. रंगोली पुरुषस्त्री के रिश्तों से अब तक अनभिज्ञ ही थी. अभय न जाने क्यों प्रेमक्रीड़ा के दौरान हिंसक हो उठता था. रंगोली पूरी तरह संतुष्ट भी नहीं हो पाती थी पर अभय मुंह फेर कर सो जाता था.

हनीमून से वापस आ कर भी अभय के व्यवहार में कोई परिवर्तन नहीं आया था. रंगोली को समझ नहीं आ रहा था कि वह क्या करे और किस से बात करे.

अभय का परिवार जबतब रंगोली को नीचा दिखाता रहता था और अभय चुपचाप सब सुनता रहता था.

अगर रंगोली अभय से बात करने की कोशिश करती तो अभय कहता, ‘मम्मीपापा ने हमारे फैसले का सम्मान किया है. अब एक बहू के रूप में तुम्हारी ज़िम्मेदारी है कि तुम उन का दिल जीत लो.’

रंगोली एक चक्रव्यूह में फंस कर रह गई थी. दफ़्तर के 8 घंटे होते थे जब वह खुल कर सांस ले पाती थी.

रात में अभय रंगोली के शरीर को रौंदता और तड़पता हुआ छोड़ देता और दिन में अभय का परिवार रंगोली के स्वमान को रौंदता था.

रंगोली को एक बात तो समझ आ गई थी कि चाहे लव मैरिज हो या अरेंज्ड, समझौता हमेशा लड़की को ही करना होता है. इस बीच, रंगोली गर्भवती हो गई थी. रंगोली को लगा, शायद अब उस के विवाह की जड़ें मजबूत हो जाएंगी.

लेकिन आरव के जन्म के बाद भी समस्या ज्यों की त्यों ही बनी रही थी. अब रंगोली की ज़िम्मेदारी और अधिक बढ़ गई थी. रात में आरव और घर की ज़िम्मेदारी और दिन में दफ़्तर. देखते ही देखते रंगोली एक कंकाल जैसी हो गई थी.

विवाह के डेढ़ वर्ष में ही अभय रंगोली के लिए एक पहेली बन कर रह गया था. धीरेधीरे रंगोली को समझ आ गया था कि अपनी मर्दाना कमज़ोरी को छिपाने के लिए अभय उस पर हर समय हावी रहता है. रंगोली भरसक प्रयास करती थी कि उस की किसी बात से अभय की मर्दानगी को ठेस न पहुंचे पर जब एक दिन अति हो गई थी तो रंगोली अपना सामान और आरव को गोद में ले कर अपने घर आ गई थी.

रंगोली के मम्मीपापा हक्केबक्के रह गए थे. पापा तो गुस्से में बोले, ‘पहले अपनी मरजी से विवाह किया और अब यहां आ गई हो. तुम्हारी इन हरकतों का पलक पर क्या प्रभाव पड़ेगा?’

मम्मी नरमी से बोली, ‘थोड़े दिन रहने दो न. देखो न, कितनी कमजोर हो गई है.’

पर जब मम्मीपापा के घर में रहते हुए रंगोली को 2 माह हो गए तो रिश्तेदारों और पड़ोसियों के कान खड़े हो उठे थे. दिन में पासपड़ोसी मम्मीपापा को कोंचते और रात में मम्मीपापा रंगोली को, ‘कब तक इस घर में पड़ी रहोगी, अपने घर जाओ न.’

रंगोली सबकुछ सुन कर भी अनसुना कर देती थी. उस का घर कहां हैं? कई बार रंगोली को लगता, उस की स्थिति अभी भी जस की तस ही बनी हुई है. बस, मम्मीपापा के घर में कोई रंगोली के शरीर को रौंदता नहीं था. पर मानसिक शांति तो यहां भी एक पल के लिए न थी.

रंगोली अपने वेतन का 75 प्रतिशत भाग मम्मी को दे देती थी. मम्मी बड़ी बेदिली से ले कर कहती थी, ‘आजकल महंगाई इतनी है, दूध और सब्जी के भाव आसमान छू रहे हैं. पूरा एक लिटर दूध तो आरव ही पी जाता है.’ मम्मी के मुंह से यह बात सुन कर रंगोली का मन खट्टा हो जाता था.

पापा जबतब सुनाया करते, ‘यहां पर रह रही हो, इस कारण तुम्हारा निर्वाह हो भी रहा है. 50 हज़ार रुपए में तो आजकल कुछ नहीं होता.’

रंगोली यह बात सुन कर मम्मीपापा के एहसान तले दबी जाती थी.

कभी मम्मी कहती, ‘रंगोली, पलक के बारे में सोच कर मुझे रातरातभर नींद नहीं आती है. जिस की बड़ी बहन घर छोड़ कर बैठी हो, उस लड़की से कौन रिश्ता करेगा?

रंगोली को ऐसा लगने लगा था मानो उस ने मम्मीपापा के घर आ कर उन के साथ बहुत ज़्यादती कर दी है.

पलक बिना बात ही रंगोली से खिंचीखिंची रहती थी. पलक के दिमाग में यह बात बैठ गई थी कि जब तक रंगोली उन के साथ रहेगी तब तक उस का रिश्ता नहीं हो पाएगा.

आज भी पलक को लड़के वाले देखने आ रहे थे. रंगोली जब दफ़्तर जाने के लिए तैयार हो रही थी तो मम्मी बोली, ‘आज जल्दी आ जाना, घर के काम में थोड़ी मेरी मदद कर देना.’

रंगोली झिझकते हुए बोली, ‘मम्मी, आज तो दफ़्तर में औडिट है.’

मम्मी गुस्से में बोली, ‘मैं क्याक्या करूंगी अकेले? आरव को संभालू या मेहमानों को.’

रंगोली बोली, ‘मम्मी, मैं आरव को किसी सहेली के घर पर छोड़ दूंगी.’

पापा तुनकते हुए बोले, ‘आरव के लिए किसी क्रेच का इंतज़ाम कर देना, मेरी और तुम्हारी मम्मी की उम्र नहीं है छोटे बच्चे की ज़िम्मेदारी उठाने की.’

पलक बोली, ‘रंगोली दीदी, आप अच्छाखासा कमाती हो, कम से कम आरव के लिए एक मेड तो रख सकती हो.’

दफ़्तर जा कर रंगोली ने जल्दीजल्दी काम निबटाया और फिर हाफडे लेने के लिए जब बौस के पास गई तो बौस बोले, ‘रंगोली, यह तुम्हारा इस माह तीसरा हाफडे है.’

घर आ कर रंगोली ने फ़टाफ़ट पकौड़े तले, हलवा भुना और फिर जल्दी से आरव को ले कर अपने कमरे में बंद हो गई थी. रंगोली मेहमानों के सामने पड़ना नहीं चाहती थी. इस बार पलक की बात बन गई थी. जैसे ही मम्मी यह बात बताने रंगोली के कमरे में गई तो आरव एकदम से कमरे से बाहर आ गया.

मजबूरी में मम्मीपापा को रंगोली का परिचय मेहमानों से करवाना पड़ गया था. मेहमानों ने जब रंगोली से उस के घर और पति के बारे में पूछताछ की तो पापा बात संभालते हुए बोले, ‘अरे, रंगोली तो अभी आ पके आने से पहले ही आई है. हमें आरव से बहुत प्यार है, इसलिए आतीजाती रहती है.’

लड़के वालों की तरफ से लगभग बात फाइनल थी. पूरा परिवार बेहद खुश नजर आ रहा था. मम्मी रंगोली से बोली, ‘अब तुम अपने घर जाने के बारे में सोचो, रंगोली तुम्हारी गलतियों की सजा पलक को नहीं मिलनी चाहिए.’

रंगोली सोच रही थी कि उस के मम्मीपापा इतने पत्थरदिल कैसे हो सकते हैं? सबकुछ तो बता चुकी है वह उन्हें.

रंगोली रोज़ सोचती कि वह कहां जाए. उसे अपने ऊपर विश्वास नहीं था कि वह अकेली रह पाएगी.

रंगोली ने यह तय कर लिया था कि वह वापस अभय के घर चली जाएगी.

वह सुखी नहीं तो न सही, कम से कम उस के कारण पलक की जिंदगी में कोई समस्या नहीं होनी चाहिए.

ऐसे ही एक दिन जब रंगोली दफ़्तर में मायूस सी बैठी हुई थी तो उस की सहकर्मी अतिका उस के पास आ कर बैठ गई और बोली, ‘रंगोली, आज पार्टी करने चलोगी क्या?’

रंगोली की अतिका से कोई दोस्ती न थी, पर न जाने क्यों रंगोली फफकफफक कर रो उठी और अपनी पूरी कहानी सुना दी.

अतिका बोली, ‘अरे, तो तुम क्यों एक बैल की तरह इधरउधर सहारे की तलाश में घूम रही हो?

तुम एक स्वतंत्र महिला हो, अपना और अपने बेटे का ख़याल खुद से रख सकती हो.’

रंगोली बोली, ‘अतिका, मेरे पास अपना घर कहां है? वह घर मेरे पति का था और यह मेरे मम्मीपापा का. मैं कैसे आरव को ले कर अकेली रह सकती हूं? गलती मेरी है, तो फिर सज़ा भी तो मुझे ही भुगतनी होगी.’

अतिका हंसते हुए बोली, ‘बेवकूफ लड़की, अपनी मरजी से विवाह करना एक गलत फ़ैसला हो सकता है पर यह कोई ऐसी गलती नहीं कि तुम्हें इस की सजा मिले. इन सामाजिक बेड़ियों से बाहर निकालो अपनेआप को और अपना घर खुद बनाओ.’

अतिका दफ़्तर में एक चालू महिला के रूप में जानी जाती थी क्योंकि वह अपनी जिंदगी को अपने हिसाब से जीती थी. लेकिन जिंदगी के इस मुश्किल दौर में अतिका ही थी जो रंगोली को समझती थी और उस की ढाल बन कर खड़ी रही थी. रंगोली को अतिका से दोस्ती करने के बाद यह बात समझ आ गई थी कि हर स्वतंत्र महिला को समाज में चालू की संज्ञा दी जाती है.

अतिका की हिम्मत देने पर ही रंगोली अपने बेटे को ले कर मम्मीपापा का घर छोड़ने का फैसला कर लिया था.

अतिका ने ही आगे बढ़ कर रंगोली को एक वक़ील से मिलवाया और रंगोली ने अभय से लीगली अलग होने का भी फ़ैसला कर लिया था. आतिका ने जब रंगोली को उस के किराए के फ्लैट की चाबी पकड़ाई, तो रंगोली की आंखों में आंसू आ गए थे.

अतिका मुसकराते हुए बोली, ‘रंगोली, फ़्लैट भले ही किराए का है पर इसे अपना घर बनाना अब तुम्हारी ज़िम्मेदारी है. अपने नाम के अनुकूल ही अपनी ज़िंदगी में रंग भर लो.’

जब रंगोली ने अपना और आरव का सामान बांध लिया तो मम्मी खुशी से बोली, ‘शुक्र है तुम ने अपने घर जाने का फ़ैसला कर लिया है.’

रंगोली मम्मी की बात सुन कर मुसकराते हुए बोली, ‘मम्मी, आप सच कह रही हैं, मैं ने अपने घर जाने का फ़ैसला ले लिया है. कब तक मैं आप के या किसी और के सहारे अपनी ज़िंदगी गुज़ारूंगी. अब आप लोगों को मेरे कारण कोई मुश्किल नहीं होगी. आरव मेरी ज़िम्मेदारी है, इस ज़िम्मेदारी को खुद पूरा करूंगी.’

पापा गुस्से में बोले, ‘क्या मतलब?’

रंगोली बोली, ‘मतलब यह है कि पापा, आज से मैं अपनी ज़िंदगी की बागड़ोर खुद अपने हाथों में लेती हूं. जो भी अच्छाबुरा होगा, सब मेरी ज़िम्मेदारी होगी. आप को मैं आरव और अपनी ज़िम्मेदारी से मुक्त कर रही हूं.’

मम्मी बोली, ‘पलक की ससुराल वालों से क्या कहेंगे तुम्हारे बारे में?’

रंगोली बोली, ‘बोल देना कि वह खुद की जिंदगी जी रही है.’

उस के बाद रंगोली अपने नए घर का पता लिख कर पापा के हाथ में थमा गई.

रंगोली का घर छोटा ही सही, पर अपना था जहां उस के वजूद की जड़ें मजबूती से जमी हुई थीं.

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