ढाई आखर प्रेम का: भाग 1- क्या अनुज्ञा की सास की सोच बदल पाई

‘‘मांजी, देखिए तो कौन आया है,’’ अनुज्ञा ने अपनी सासूमां के कमरे में प्रवेश करते हुए कहा.

‘‘कौन आया है, बहू…’’ उन्होंने उठ कर चश्मा लगाते हुए प्रतिप्रश्न किया.

‘‘पहचानिए तो,’’ अनुज्ञा ने एक युवक को उन के सामने खड़े करते हुए कहा.

‘‘दादीजी, प्रणाम,’’ वे कुछ कह पातीं इस से पूर्व ही उस युवक ने उन के चरणों में झुकते हुए कहा.

‘‘तू चंदू है?’’

‘‘हां दादीजी, मैं चंद्रशेखर.’’

‘‘अरे, वही तो, बहुत दिन बाद आया है. कैसी चल रही है तेरी पढ़ाई?’’ उसे अपने पास बिठाते हुए मांजी ने कहा.

‘‘दादीमां, पढ़ाई अच्छी चल रही है, आप के आशीर्वाद से नौकरी भी मिल गई है, पढ़ाई समाप्त होते ही मैं नौकरी जौइन कर लूंगा. सैमेस्टर समाप्त होने पर हफ्तेभर की छुट्टी मिली थी, इसलिए आप सब से मिलने चला आया.’’

‘‘यह तो बहुत खुशी की बात है. सुना बहू, इसे नौकरी मिल गई है. इस का मुंह तो मीठा करा. और हां, चाय भी बना लाना.’’

मांजी के निर्देशानुसार अनुज्ञा रसोई में गई. चाय बनाने के लिए गैस पर पानी रखा पर मस्तिष्क में अनायास ही वर्षों पूर्व की वह घटना मंडराने लगी जिस के कारण उस की जिंदगी में एक सुखद परिवर्तन आ गया था.

दिसंबर की हाड़कंपाती ठंड वाला दिन था. अमित टूर पर गए थे, शीतल और शैलजा को स्कूल भेजने के बाद वह रसोई में सुबह का काम निबटा रही थी कि गिरने की आवाज के साथ ही कराहने की आवाज सुन कर वह गैस बंद कर अंदर भागी तो देखा उस की सासूमां नीचे गिरी पड़ी हैं. अलमारी से अपने कपड़े निकालने के क्रम में शायद उन का संतुलन बिगड़ गया था और उन का सिर लोहे की अलमारी में चूड़ी रखने के लिए बने भाग से टकरा गया था, उस का नुकीला सिरा माथे से कनपटी तक चीरता चला गया जिस के कारण खून की धार बह निकली थी. वे बुरी तरह तड़प रही थीं.

उस ने तुरंत एक कपड़ा उन के माथे से बांध दिया, हाथ से कस कर दबाने के बाद भी खून रुकने का नाम नहीं ले रहा था तथा मांजी धीरेधीरे अचेत होती जा रही थीं. उसे समझ में नहीं आ रहा था कि वह क्या करे.

आसपास ऐसा कोई नहीं था जिस से वह सहायता ले पाती, अमित के स्थानांतरण के कारण वे 2 महीने पूर्व ही इस कसबे में आए थे, घर को व्यवस्थित करने तथा बच्चों के ऐडमिशन के कारण वह इतनी व्यस्त रही कि किसी से जानपहचान ही नहीं हो पाई. घर भी बस्ती से दूर ही मिला था, घर अच्छा लगा, इसलिए ले लिया था.

15 वर्ष बड़े शहर में नौकरी के बाद इस छोटे से कसबे कासिमपुर में पोस्टिंग से अमित बच्चों की पढ़ाई को ले कर परेशान थे. उन का कहना था कि तुम बच्चों को ले कर यहीं रहो पर अनुज्ञा का मानना था कि वहां भी तो स्कूल होंगे ही. अभी बच्चे छोटे हैं, सब मैनेज हो जाएगा. दरअसल, वह मांजी के उग्र स्वभाव के कारण छोटे बच्चों को ले कर अलग नहीं रहना चाहती थी. उन की चिंता का शीघ्र ही निवारण हो गया जब उन्हें पता चला कि यहां डीएवी स्कूल की एक ब्रांच है तथा उस का रिजल्ट भी अच्छा रहता है.

मांजी के कराहने की आवाज उसे बेचैन कर रही थी, सारी बातों से ध्यान हटा कर उस ने सोचा, टैलीफोन कर के एंबुलेंस को बुलवाए. टैलीफोन उठाया तो वह डैड था. उस समय मोबाइल तो क्या हर घर में टैलीफोन भी नहीं हुआ करते थे. अगर थे भी तो वे लाइन में गड़बड़ी के कारण अकसर बंद ही रहते थे. अगर चलते भी थे तो आवाज ठीक से सुनाई नहीं देती थी. एसटीडी करने के लिए कौल बुक करनी पड़ती थी. अर्जेंट कौल भी कभीकभी 1 से 2 घंटे का समय ले लिया करती थी.

मांजी की हालत देख कर उस दिन जिस तरह से वह स्वयं को लाचार व बेबस महसूस कर रही थी, वैसा उस ने कभी महसूस नहीं किया था. आत्मनिर्भरता उस में कूटकूट कर भरी थी. वह एक कंपनी में सोशल वैलफेयर औफिसर थी. विवाह के पूर्व तथा पश्चात भी उस ने कार्य जारी रखा था.

अभी सोच ही रही थी कि क्या करे, तभी डोरबैल बजी, मांजी को वहीं लिटा कर उस ने जल्दी से दरवाजा खोला तो सामने रामू को देख कर संतोष की सांस लेते हुए, उस से कहा, ‘तू जरा मांजी के पास बैठ कर उन के माथे को दबा कर रख. मैं तब तक गाड़ी निकालती हूं.’

‘क्या हुआ मांजी को?’ चिंतित स्वर में रामू ने पूछा.

‘वे गिर गई हैं, उन के माथे से खून बह रहा है जो रुकने का नाम ही नहीं ले रहा. प्लीज, मेरी मदद कर.’

‘लेकिन मैं?’ वह उस का प्रस्ताव सुन कर हड़बड़ा गया था.

‘मैं तेरी हिचकिचाहट समझ सकती हूं पर इस समय इस के अतिरिक्त और कोई उपाय भी तो नहीं है, प्लीज मदद कर,’ अनुज्ञा की आवाज में दयनीयता आ गई थी.

वह मांजी की छुआछूत के बारे में जानती थी पर इस समय रामू की सहायता लेने के अतिरिक्त और कोई उपाय भी तो नहीं था, यह तो गनीमत थी कि उसे कार चलानी आती थी.

अब वह अकेली नहीं थी. रामू भी साथ में था. उस ने रामू की सहायता से मांजी को गाड़ी में लिटाया तथा ताला बंद कर बच्चों के नाम एक स्लिप छोड़ कर ड्राइव करने ही वाली थी कि रामू ने स्वयं ही कहा, ‘मेमसाहब, हम भी चलें क्या?’

‘तुझे तो चलना ही होगा. यहां जो भी अच्छा अस्पताल हो, वहां ले कर चल. और हां, मांजी को पकड़ कर बैठना.’

हड़बड़ी में वह उसे बैठने के लिए कहना भूल गई थी. वैसे भी एक से भले दो, न जाने कब क्या जरूरत आ जाए. नई जगह भागदौड़ के लिए एक आदमी साथ रहेगा तो अच्छा है.

अत्यधिक खून बहने के कारण मांजी अचेत हो गई थीं, घबराहट में वह भूल ही गई थी कि यदि कहीं से खून निकल रहा हो तो उस स्थान पर बर्फ रख देने से खून के बहाव को रोका जा सकता है. मांजी अचेत थीं, ब्लडप्रैशर के साथ डायबिटीज की भी उन्हें शिकायत थी. शायद इसीलिए उस के पट्टी बांधने के बावजूद खून का बहना नहीं रुक पा रहा था.

अस्पताल ज्यादा दूर नहीं था, पहुंचते ही उन्हें ऐडमिट कर लिया गया. घाव में टांके लगाने के लिए उन्हें औपरेशन थिएटर में ले जाया जाने लगा तब उस की घबराहट देख कर रामू उसे दिलासा देता हुआ बोला, ‘मेमसाहब, धीरज रखिए, सब ठीक हो जाएगा.’

उस की बात सुन कर भी वह सहज नहीं हो पा रही थी, उस के चेहरे पर उदासी साफ झलक रही थी. तभी सिस्टर ने आ कर कहा, ‘चोट लगने से मरीज के माथे के पास की एक नस कट गई है जिस के कारण ब्लीडिंग काफी हो गई है. ब्लड देने की आवश्यकता पड़ेगी, यहां तो कोई ब्लडबैंक नहीं है, इस के लिए शहर जाना पड़ेगा पर इस में शायद देर हो जाए.’

‘सिस्टर, आप कुछ भी कीजिए पर मांजी को बचा लीजिए,’ अनुज्ञा की स्वर में विवशता आ गई थी. अमित की बहुत याद आ रही थी. काश, उन की बात मान कर यहां न आती तो शायद यह सब न झेलना पड़ता

‘आप डाक्टर साहब से बात कर लीजिए.’

डाक्टर साहब से बात की तो उन्होंने कहा, ‘स्थिति गंभीर है. अगर आप की स्वीकृति हो तो हम फ्रैश खून चढ़ा

देंगे वरना…’

‘आप मेरा खून चैक कर लीजिए डाक्टर साहब पर मांजी को बचा लीजिए.’

‘मेरा भी, डाक्टर साहब,’ रामू ने कहा.

आखिर रामू का खून मांजी के खून से मैच हो गया. अनुज्ञा से स्वीकृतिपत्र पर हस्ताक्षर करने के लिए कहा गया. भरे मन से उस ने उस पर हस्ताक्षर कर दिए क्योंकि इस के अलावा कोई चारा न था.

मांजी को जब रामू का खून चढ़ाया जा रहा था तब वह सोच रही थी, जिस आदमी को मांजी सदा हीन और अछूत समझ कर उस का तिरस्कार करती रही थीं वही आज उन के प्राणों का रक्षक बन गया है.

शेष जीवन: भाग 3- विनोद के खत में क्या लिखा था

लौट कर आए तो तबीयत ठीक नहीं लग रही थी. दूसरे दिन कचहरी नहीं जाना चाहते थे, मगर गए. न जाने का मतलब अपना नुकसान. एक दिन सुमन से कहने लगे, ‘मेरा मन कचहरी जाने का नहीं करता. लोग कहते हैं कि वकील कभी रिटायर नहीं होता, क्यों नहीं होता. वह क्या हाड़मांस का नहीं बना होता? शरीर उस का भी कमजोर होता है. यह क्यों नहीं कहते कि वकील रोज कचहरी नहीं जाएगा तो खाएगा क्या?’ सुमन को विनोद व खुद पर तरस आया. सरकारी नौकरी में लोग बड़े आराम से अच्छी तनख्वाह लेते हैं. उस के बाद आजन्म पैंशन का लुत्फ उठा कर जिंदगी का सुख भोगते हैं. यहां तो न जवानी का सुख लिया, न ही बुढ़ापे का. मरते दम तक कोल्हू के बैल की तरह जुतो. काले कोट की लाज ढांपने में ही जीवन अभाव में गुजर जाता है. एक रात विनोद के सीने में दर्द उभरा. सुमन घबरा गई. पासपड़ोस के लोगों को बुलाया, मगर कोई नहीं आया. भाई को फोन लगाया. वह भागाभागा आया. उन्हें पास के निजी अस्पताल में ले जाया गया. वहां डाक्टरों ने कुछ दवाएं दीं. विनोद की हालत सुधर गई. अगले दिन डाक्टर ने सुमन से कहा कि वे इन्हें तत्काल दिल्ली ले जाएं. सुमन के माथे पर चिंता की लकीरें खिंच गईं. डाक्टर बोले, ‘‘इन के तीनों वौल्व जाम हो चुके हैं. अतिशीघ्र बाईपास सर्जरी न की गई तो जान जा सकती है.’’

सुमन की आंखों के सामने अंधेरा छाने लगा. बाईपास सर्जरी का मतलब 3-4 लाख रुपए का खर्चा. एकाएक इतना रुपया आएगा कहां से. लेदे कर एकडेढ़ लाख रुपया होगा. इतने गहने भी नहीं बचे थे कि उन्हें बेच कर विनोद की जान बचाई जा सके. मकान बेचने का खयाल आया जो तत्काल संभव नहीं था. ऐसे समय सुमन अपनेआप को नितांत अकेला महसूस करने लगी. उस के मन में बुरेबुरे खयाल आने लगे. अगर विनोद को कुछ हो गया तब? वह भय से सिहर गई. अकेली जिंदगी किस के भरोसे काटेगी? क्या बेटी के पास जा कर रहेगी? लोग क्या कहेंगे? सुमन जितना सोचती, दिल उतना ही बैठता. उस की आंखों में आंसू आ गए. भाई राकेश की नजर पड़ी तो वह उस के करीब आया, ‘‘घबराओ मत, सब ठीक हो जाएगा. 1 लाख रुपए की मदद मैं कर दूंगा.’’ सुमन को थोड़ी राहत मिली. तभी रेखा का फोन आया, ‘‘मम्मी, रुपयों की चिंता मत करना. मैं तुरंत बनारस पहुंच रही हूं.’’

सुमन की जान में जान आई. अपने आंसू पोंछे. वह सोचने लगी कि अभी किसी तरह विनोद की जान बचनी चाहिए, बाद में जब वे ठीक हो जाएंगे तब मकान बेच कर सब का कर्ज चुका देंगे. विनोद को प्लेन से दिल्ली ले जाया गया. मगर इलाज से पूर्व ही विनोद की सांसें थम गईं. सुमन दहाड़ मारमार कर रोने लगी. वह बारबार यही रट लगाए हुए थी कि अब मैं किस के सहारे जिऊंगी. रेखा ने किसी तरह उन्हें संभाला. तेरहवीं खत्म होने के एक महीने तक रेखा सुमन के पास ही रही. राकेश उसे अपने पास ले जाना चाहता था जबकि रेखा चाहती थी कि मां उस के पास शेष जीवन गुजारे. सब से बड़ी समस्या थी जीविकोपार्जन की. विनोद के जाने के बाद आमदनी का स्रोत खत्म हो गया था. कचहरी से 50 हजार रुपए मिले थे. 50 हजार के आसपास बीमा के. कुछ वकीलों ने सहयोग किया. सुमन ने काफी सोचविचार कर दोनों से कहा, ‘‘मैं यहीं रह कर कोई छोटीमोटी दुकान कर लूंगी. अकेली जान, दालरोटी चल जाएगी. मैं तुम लोगों पर बोझ नहीं बनना चाहती.’’ ‘‘कैसी बात कर रही हो मम्मी,’’ रेखा नाराज हो गई, ‘‘तुम्हारे बेटा नहीं है तो क्या, बेटी तो है. मैं तुम्हारा खयाल रखूंगी. यहां रातबिरात आप की तबीयत बिगड़ेगी तो कौन संभालेगा?’’ ‘‘मैं मर भी गई तो क्या फर्क पड़ेगा. मेरी जिम्मेदारी तुम थीं जिसे मैं ने निभा दिया. जब तक अकेले रह पाना संभव होगा, रहूंगी. उस के बाद तुम लोग तो हो ही,’’ सुमन के इनकार से दोनों को निराशा हुई.

‘‘जैसी तुम्हारी मरजी. मैं तुम्हारी रोजाना खबर लेता रहूंगा. तुम भी निसंकोच फोन करती रहना. मोबाइल के रिचार्ज की चिंता मत करना, मैं समयसमय पर पैसे डलवाता रहूंगा,’’ राकेश बोला. सब चले गए. घर अकेला हो गया. विनोद थे तो इंतजार था. अब तो जैसी सुबह वैसी रात. 3 कमरों में सुमन टहलती रहती. एक रोज अलमारी की सफाई करते हुए उसे एक खत मिला. खत को गौर से देखा तो लिखावट विनोद की थी. वह पढ़ने लगी :

‘‘प्रिय सुमन,

अब मुझ से काम नहीं होता. 70 साल की अवस्था हो गई है. रोजाना 10-12 किलोमीटर साइकिल चला कर कचहरी जाना संभव नहीं. सोचता हूं कि घर बैठ जाऊं पर घरखर्च कैसे चलेगा. इस सवाल से मेरी रूह कांप जाती. ब्लडप्रैशर और शुगर ने जीना मुहाल कर दिया है, सो अलग. कभीकभी सोचता हूं खुदकुशी कर लूं. फिर तुम्हारा खयाल आता है कि तुम अकेली कैसे रहोगी? क्यों न हम दोनों एकसाथ खुदकुशी कर लें. हो सकता है कि यह सब तुम्हें बचकाना लगे. जरा सोचो, कौन है जो हमारी देखभाल करेगा? एक बेटा भी तो नहीं है. क्या बेटीदामाद से सेवा करवाना उचित होगा? बेटी का तो चल जाएगा मगर दामादजी, वे भला हमें क्यों रखना चाहेंगे? मैं तुम्हें कोई राय नहीं देना चाहूंगा क्योंकि हर आदमी को अपनी जिंदगी पर अधिकार है. हां, अगर मेरे करीब मौत आएगी तो मैं बचाव का प्रयास नहीं करूंगा. इस के लिए मुझे क्षमा करना. मैं ने मकान तुम्हारे नाम कर दिया है. मकान बेच कर तुम इतनी रकम पा सकती हो कि शेष जिंदगी तुम बेटीदामाद के यहां आसानी से काट सको.

तुम्हारा विनोद.’’

खत पढ़ कर सुमन की आंखें भीग गईं. तो क्या उन्हें अपनी मौत का भान था? यह सवाल सुमन के मस्तिष्क में कौंधा. सुमन ने अलमारी ठीक से खंगाली. उस में उसे एक जांच रिपोर्ट मिली. निश्चय ही रिपोर्ट में उन के हार्ट के संबंध में जानकारी होगी? रिपोर्ट 6 माह पुरानी थी. इस का मतलब विनोद को अपनी बीमारी की गंभीरता का पहले से ही पता था? उन्होंने जानबूझ कर इलाज नहीं करवाया. इलाज का मतलब लंबा खर्चा. कहां से इतना रुपया आएगा? यही सब सोच कर विनोद ने रिपोर्ट को छिपा दिया था. सुमन गहरी वेदना में डूब गई.

शेष जीवन: भाग 2- विनोद के खत में क्या लिखा था

‘‘तुम्हें तो बहाना चाहिए मुझे ताना मारने का.’’

‘‘क्यों न मारूं ताना? एक बाली तक खरीद कर ला न सके. जो हैं वही बेटी के काम आ रहे हैं. मुझे पहनने का मौका कब मिला?’’ ‘‘बूढ़ी घोड़ी लाल लगाम,’’ विनोद ने हंसी की, ‘‘अब कौन सा सजसंवर कर बरात की शोभा बढ़ानी है तुम्हें.’’

‘‘जब थी तब ही कौन सा गहनों से लाद दिया था.’’

‘‘स्त्री का सब से बड़ा गहना उस का पति होता है.’’

‘‘रहने दीजिए, रहने दीजिए. खाली बातों से हम औरतों का दिल नहीं भरता. मैं मर्दों के चोंचले अच्छी तरह से जानती हूं. हजारों सालों से यही जुमले कह कर आप लोगों ने हम औरतों को बहलाया है.’’

‘‘तुम्हें कौन बहला सकता है.’’

‘‘बहकी हूं तभी तो 30 साल तुम्हारे साथ गुजार दिए.’’

‘‘नहीं तो क्या किसी के साथ भाग जातीं?’’

‘‘भाग ही जाती अगर कोई मालदार मिलता,’’ सुमन ने भी हंसी की. ‘‘भागना क्या आसान है? मुझ जैसा वफादार पति चिराग ले कर भी ढूंढ़तीं तो भी नहीं मिलता.’’ ‘‘वफादारी की चाशनी से पेट नहीं भरता. अंटी में रुपया भी चाहिए. वह तो आप से ताउम्र नहीं हुआ. थोड़े से गहने बचे हैं, उन्हें बेटी को दे कर खाली हो जाऊंगी,’’ सुमन जज्बाती हो गई, ‘‘औरतों की सब से बड़ी पूंजी यही होती है. बुरे वक्त में उन्हें इसी का सहारा होता है.’’ ‘‘कल कुछ बुरा हो गया तो दवादारू के लिए कुछ भी नहीं बचेगा.’’ सुमन के साथ विनोद भी गहरी चिंता में डूब गए, जब उबरे तो उसांस ले कर बोले, ‘‘यह मकान बेच देंगे.’’

‘‘बेच देंगे तो रहेंगे कहां?’’

‘‘किराए पर रह लेंगे.’’ ‘‘कितने दिन? वह भी पूंजी खत्म हो जाएगी तब क्या भीख मांगेंगे?’’ ‘‘तब की तब देखी जाएगी. अभी रेखा की शादी निबटाओ,’’ विनोद यथार्थ की तरफ लौटा. गहने लगभग 3 लाख रुपए के थे. एकाध सुमन अपने पास रखना चाहती थी. एकदम से खाली गले व कान से रहेगी तो समाज क्या कहेगा? खुद को भी अच्छा नहीं लगेगा. यही सोच कर सुमन ने तगड़ी और कान के टौप्स अपने पास रख लिए. वैसे भी 2 लाख रुपए के गहने ही देने का तय था. जैसेजैसे शादी के दिन नजदीक आ रहे थे वैसेवैसे चिंता के कारण सुमन का ब्लडप्रैशर बढ़ता जा रहा था. एकाध बार वह चक्कर खा कर गिर भी चुकी थी. विनोद ने जबरदस्ती ला कर दवा दी. खाने से आराम मिला मगर बीमारी तो बीमारी थी. अगर जरा सी लापरवाही करेगी तो कुछ भी हो सकता है. विनोद को शुगर और ब्लडप्रैशर दोनों था. तमाम परेशानियों के बाद भी वे आराम महसूस नहीं कर पाते. वकालत का पेशा ऐसा था कि कोई मुवक्किल बाजार का बना समोसा या मिठाई ला कर देता तो ना नहीं कर पाते. सुमन का हाल था कि वह अपने को देखे कि विनोद को. आखिर शादी का दिन आ ही गया, जिस को ले कर दोनों परेशान थे. रेखा सजने के लिए ब्यूटीपार्लर गई. विनोद की त्योरियां चढ़ गईं, ‘‘अब यह खर्चा कहां से दें? 5 हजार रुपए कम होते हैं. एकएक पैसा बचा रहा हूं जबकि मांबेटी बरबाद करने पर तुली हुई हैं.’’ ‘‘बेटी पैदा की है तो सहन करना भी सीखिए. इस का पेमैंट रेखा खुद करेगी. अब खुश.’’

यह सुन कर विनोद ने राहत की सास ली और चैन से बैठ गया. फुटकर सौ तरह के खर्च थे. शादी के चंद दिनों पहले वर के पिता बोले कि सिर्फ डीजे लाएंगे. अगर बैंड पार्टी करनी हो तो अपने खर्च पर करें. विनोद को तो कोई फर्क नहीं पड़ा, सुमन ने मुंह बना लिया, ‘‘कैसा लगेगा बिना बैंड पार्टी के?’’ ‘‘जैसा भी लगे, हमें क्या. हमें शादी से मतलब है. रेखा सात फेरे ले ले तो मैं गंगा नहाऊं.’’ विनोद के कथन पर सुमन चिढ़ गई, ‘‘चाहे तो अभी नहा लीजिए. लोकलाज भी कुछ चीज है. सादीसादी बरात आएगी तो कैसा लगेगा?’’ ‘‘जैसा भी लगे. मैं फूटी कौड़ी भी खर्च करने वाला नहीं,’’ थोड़ा रुक कर, ‘‘जब उन्हें कोई एतराज नहीं तो हम क्यों बिलावजह टांग अड़ाएं?’’

‘‘मुझे एतराज है,’’ सुमन बोली.

‘‘तो लगाओ अपनी जेब से रुपए,’’ विनोद खीझे.

‘‘मेरे पास रुपए होते तो मैं क्या आप का मुंह जोहती,’’ सुमन रोंआसी हो गई. तभी राकेश आया. दोनों का वार्त्तालाप उस के कानों में पड़ा. ‘‘दीदी, तुम बिलावजह परेशान होती हो. बाजे का मैं इंतजाम कर देता हूं.’’ सुमन ने जहां आंसू पोंछे वहीं विनोद के रुख पर वह लज्जित हुई. विनोद को अब भी आशंका थी कि लड़के वाले ऐन मौके पर कुछ और डिमांड न कर बैठें. सजधज कर रेखा बहुत ही सुंदर दिख रही थी. विनोद और सुमन की आंखें भर आईं. भला किस पिता को अपनी बेटी से लगाव नहीं रहेगा. विनोद को आज इस बात की कसक थी कि काश, उस की अच्छी कमाई होती तो निश्चय ही रेखा की बेहतर परवरिश करता. रातभर शादी का कार्यक्रम चलता रहा. भोर होते ही रेखा की विदाई होने लगी तो सभी की आंखें नम थीं. रेखा का रोरो कर बुरा हाल था. सिसकियों के बीच बोली, ‘‘मम्मी, पापा, मैं चली जाऊंगी तो आप लोगों का खयाल कौन करेगा?’’

‘‘उस की चिंता मत करो, बेटी,’’ सुमन नाक पोंछते हुए बोली. अपनी बड़ी मौसी की तरफ मुखातिब हो कर रेखा भर्राए कंठ से  बोली, ‘‘मौसी, इन का खयाल रखना. इन का मेरे सिवा है ही कौन?’’

‘‘ऐसा नहीं कहते, हम लोग भरसक इन की देखभाल करेंगे,’’ मौसी रेखा के सिर पर हाथ फेरते हुए बोलीं. ‘‘मम्मी को अकसर गरमी में डिहाइड्रेशन हो जाता है. आप खयाल कर के दवा का इंतजाम कर दीजिएगा ताकि रातबिरात मां की हालत बिगड़े तो संभाला जा सके.’’

‘‘तू उस की फिक्र मत कर. मैं अकसर आतीजाती रहूंगी.’’ सुमन इस कदर रोई कि उस की हालत बिगड़ गई. एक हफ्ता बिस्तर पर थी. विनोद का भी मन नहीं लग रहा था. ऐसा लग रहा था मानो उन के शरीर का कोई हिस्सा उन से अलग हो गया हो. हालांकि रेखा 2 साल से बाहर नौकरी कर रही थी लेकिन तब तक एहसास था कि वह विनोद के परिवार का हिस्सा थी. अब तो हमेशा के लिए दूसरे परिवार का हिस्सा बन गई. उन्हीं के तौरतरीके से जीना होगा उसे. सुमन की तबीयत संभली तो रेखा को फोन किया.

‘‘हैलो, बेटा…’’

‘‘कैसी हो, मम्मी,’’ रेखा का गला भर आया.

‘‘ठीक हूं.’’

‘‘अपना खयाल रखना.’’

‘‘अब रखने का क्या औचित्य? बेटाबहू होते तो जीने का बहाना होता,’’ सुमन का कंठ भीग गया.

‘‘मम्मी,’’ रेखा ने डांटा, ‘‘आइंदा इस तरह की बातें कीं तो मैं आप से बात नहीं करूंगी,’’ उस ने बातचीत का विषय बदला, ‘‘जयपुर जा रही हूं,’’ रेखा के स्वर से खुशी स्पष्ट थी. ‘‘यह तुम लोगों ने अच्छा सोचा. यही उम्र है घूमनेफिरने की. बाद में कहां मौका मिलता है, घरगृहस्थी में रम जाओगी.’’ रेखा ने फोन रख दिया. विनोद ने सुना तो खुश हो गए. यहां भी सुमन ताना मारने से बाज न आई, ‘‘एक हमारी शादी हुई. बहुत हुआ तो आप ने रिकशे पर बिठा कर किसी हाटबाजार के दर्शन करा दिए. हो गया हनीमून…’’

‘‘बुढ़ापे में तुम्हें हनीमून सूझ रहा है.’’

‘‘मैं जवानी की बात कर रही हूं. शादी के पहले दिन आप रुपयों का रोना ले कर बैठ गए. आज 30 साल बाद भी रोना गया नहीं. कम से कम रेखा का पति इतना तो समझदार है कि अपनी बीवी को जयपुर घुमाने ले जा रहा है.’’ ‘‘सारी दुनिया बनारस घूमने आती है और तुम्हें जयपुर की पड़ी है,’’ विनोद ने अपनी खीझ मिटाई. ‘‘आप से तो बहस करना ही बेकार है. नईनई शादी की कुछ ख्वाहिशें होती हैं. उन्हें क्या बुढ़ापे में पूरी करेंगे?’’ ‘‘अब ऊपर जा कर पूरी करना,’’ कह कर विनोद अपने काम में लग गए. 3 साल गुजर गए. इस बीच रेखा 1 बेटे की मां बनी. ससुराल वाले ननिहाल का मुख देखने लगे. सुमन ने अपने हाथों की एक जोड़ी चूड़ी बेच कर अपने नाती के लिए सोने की पतली सी चेन, कपड़े और फल व मिठाइयों का प्रबंध किया. विनोद की हालत ऐसी नहीं थी कि वे इस सामान को ले जा सकें. वजह, उन्हें माइनर हार्ट का दौरा पड़ा था. चूंकि घर में और कोई नहीं था सो वे ही किसी तरह इलाहाबाद गए.

गलती की सजा: कौनसी गलती कर बैठा था विजय

जब विजय ने किसी की बात नहीं मानी, तो दोस्त रमेश को उसे सम झाने की जिम्मेदारी दी गई. रमेश ने उसे बहुत सम झाया, पर वह टस से मस न हुआ.

दरअसल, विजय ने राज्य लोक सेवा आयोग की प्रारंभिक परीक्षा दी थी. उस का नतीजा अभी एक दिन पहले आया था. इस परीक्षा में वह कामयाब रहा था. इस के बाद मुख्य परीक्षा थी.

विजय का मानना था कि उसे परीक्षा के लिए जीजान से तैयारी करनी होगी. अगर वह उस में कामयाब रहा, तो इंटरव्यू में उसे कामयाबी पाने का पूरा यकीन था.

इस तरह विजय डिप्टी कलक्टर बन सकता था. इतने बड़े पद पर पहुंचने का यह मौका वह खोना नहीं चाहता था.

दोस्त रमेश ने सम झाया कि शादी के बाद भी मुख्य परीक्षा की तैयारी आसानी से की जा सकती है. उस की पत्नी के होने से तैयारी में मदद मिलेगी, नुकसान नहीं होगा. पर विजय ने कहा, ‘‘शादी के बाद न चाहते हुए भी मेरा ध्यान बंट जाएगा. हां, मैं तुम्हारी बात मानते हुए इतना कर सकता हूं कि परीक्षा के बाद तक के लिए इस शादी को टाल देता हूं. 3 महीने बाद परीक्षा होगी. परीक्षा के बाद मैं शादी कर लूंगा. तब तक के लिए लड़की वालों को रुकने के लिए कहो.’’

वैसे, उन की जाति में लड़केलड़कियों की शादी जल्दी ही हो जाती थी. विजय और जो लड़की पसंद की गई थी, दोनों की जाति के मुखिया देर होने पर खुसुरफुसुर करने लगे थे.

आखिरकार थक कर लड़की वालों को यह संदेश भिजवाया गया कि शादी को कुछ दिनों के लिए टाल दिया जाए.

लड़की वालों को यह बात बहुत बुरी लगी. उन्होंने शादी की पूरी तैयारी कर ली थी. अब तक बहुत सारे रुपए खर्च हो चुके थे.

लड़की के पिता ने कहा, ‘‘ठीक है, पर जो नुकसान हुआ है, उस की भरपाई लड़के वालों को करनी होगी.’’

लड़की ने जब यह सुना, तो उस ने कहा, ‘‘मु झे ऐसे लोगों से रिश्ता नहीं जोड़ना है, इसलिए लड़के वालों से नुकसान की भरपाई कराइए और मु झे भी कुछ दिनों के लिए यों ही छोड़ दीजिए.’’

विजय के परिवार वालों को लड़की वालों के खर्च में हुए नुकसान की भरपाई करनी पड़ी.

इस शादी से छुटकारा पा कर विजय ने जीजान से परीक्षा की तैयारी की, पर उसे कामयाबी नहीं मिली.

उसी समय प्राथमिक विद्यालय के शिक्षकों की भरती शुरू हुई. हालांकि यह नियमित नौकरी नहीं थी और तनख्वाह बहुत ही कम थी, पर खर्च चलाने के लिए विजय ने इस नौकरी के लिए आवेदन दिया. उस का चयन पास के ही प्रखंड के एक प्राथमिक विद्यालय में हो गया.

विजय को विद्यालय की वह नौकरी करते हुए तकरीबन डेढ़ साल बीत गए. इस बीच उस ने फिर से राज्य लोक सेवा आयोग की परीक्षा का इश्तिहार देखा. ओबीसी का आरक्षण भी था. उस ने भी इस के लिए आवेदन कर दिया.

पिछली बार विजय परीक्षा में नाकाम रहा था, इसलिए इस बार वह अच्छी तरह तैयारी करना चाहता था.

तभी विजय को उस के साथी शिक्षकों ने बताया कि उसी प्रखंड की बीडीओ यानी प्रखंड विकास पदाधिकारी, जो एक औरत हैं, का चयन पिछली बार के राज्य लोक सेवा आयोग की परीक्षा में हुआ था. अगर वह चाहे तो उन से परीक्षा से संबंधित टिप्स ले सकता है. वे ऐसी पदाधिकारी हैं, जो सब की मदद करती हैं. वे परीक्षा की तैयारी से संबंधित उचित सलाह भी देती हैं.

राज्य लोक सेवा आयोग के नियमों के मुताबिक विजय इस बार की परीक्षा के बाद कभी बैठ नहीं सकता था, क्योंकि अगली बार से उस की उम्र इस परीक्षा के लिए ज्यादा हो जाएगी, इसलिए वह परीक्षा की तैयारी में कोई कसर नहीं छोड़ना चाहता था. अपने साथी शिक्षकों की सलाह मान कर वह बीडीओ से मिलने पहुंचा.

बीडीओ के चैंबर के बाहर नेमप्लेट को देख कर उसे विश्वास नहीं हुआ, ‘विनिता कुमारी’.

‘कहीं यह वही तो नहीं, जिस से मेरी शादी होने वाली थी? यह भी राज्य लोक सेवा आयोग की परीक्षा में बैठने वाली थी. इस के रिजल्ट के बारे में तो मु झे पता भी नहीं चला था. हो सकता है कि यह कोई और हो,’ इसी तरह सोचते हुए वह चैंबर में दाखिल होने लगा और बोला, ‘‘क्या मैं अंदर आ सकता हूं मैडम?’’

‘‘हां, आइए,’’ अंदर से आवाज आई.

विजय ने देखा, वह विनिता ही थी. दोनों एकदूसरे को देख कर थोड़ी देर के लिए ठिठके, फिर विनिता ने ही हालात को संभालते हुए पूछा, ‘‘बैठिए, यहां कैसे आना हुआ?’’

विनिता को यहां देख कर विजय की हालत काटो तो खून नहीं जैसी हो गई थी. उसे कुछ बोलते नहीं बन रहा था.

उस ने हड़बड़ाते हुए कहा, ‘‘मैं प्रखंड शिक्षा पदाधिकारी से मिलने आया था, तो सोचा कि नए प्रखंड विकास पदाधिकारी से भी मिल लूं. यहां पर देखा कि आप हैं…’’

‘‘क्या मु झे देख कर आप को अच्छा नहीं लगा?’’ विनिता ने जानबू झ कर पूछा.

‘‘नहीं, ऐसा नहीं है,’’ विजय ने जवाब दिया.

‘‘वैसे, आप का शुक्रिया. अगर आप ने शादी के लिए मना नहीं किया होता, तो मैं भी शायद अपनी शादीशुदा जिंदगी में रम जाती और इस मुकाम को हासिल नहीं कर पाती.

‘‘आप के मना करने के बाद मैं ने अपना ध्यान और समय लोक सेवा आयोग की मुख्य परीक्षा में लगाया और मु झे उस में कामयाबी मिली. इस कामयाबी के बाद मेरा आत्मविश्वास बढ़ा और इंटरव्यू में भी कामयाबी के बाद मेरा चयन इस पद के लिए हो गया,’’ विनिता ने कहा.

‘‘मु झ से गलती हो गई थी,’’ विजय ने शर्मिंदा होते हुए कहा.

‘‘आप भी मुख्य परीक्षा की तैयारी कर रहे थे. क्या हुआ आप का?’’ विनिता ने पूछा.

‘‘मु झे कामयाबी नहीं मिली. उस के बाद मैं ने प्राथमिक शिक्षक भरती के लिए आवेदन किया, जिस में मेरा चयन हो गया और अब मैं इसी प्रखंड के प्राथमिक विद्यालय में शिक्षक हूं,’’ विजय ने कहा.

‘‘अच्छी बात है. कोई भी पद या काम छोटा या बड़ा नहीं होता. वैसे, मेरे लायक कोई सेवा हो तो बताइएगा. हाल ही में फिर से लोक सेवा आयोग की सिविल सेवा परीक्षा के लिए इश्तिहार निकला था. क्या आप ने फार्म भरा है?’’?विनिता ने बात को आगे बढ़ाते हुए कहा.

‘‘हां, पर शिक्षक के रूप में नियमित रूप से काम करते हुए इस की तैयारी करना बड़ा मुश्किल होगा. अगले महीने प्रारंभिक परीक्षा है. इस परीक्षा में तो आसानी से कामयाबी मिल जाएगी, पर उस के तकरीबन 2 महीने बाद मुख्य परीक्षा होगी.

‘‘उस के लिए कम से कम 2 महीने की छुट्टी चाहिए. इस के लिए मैं ने आवेदन भी दे दिया है, पर इतनी छुट्टी मिल पाएंगी, इस की उम्मीद कम ही है.’’

‘‘मुझे आप की मदद कर के बहुत खुशी मिलेगी. मैं आप की छुट्टी के लिए प्रखंड शिक्षा पदाधिकारी से अनुरोध करूंगी. मु झे पूरा भरोसा है कि वे मेरी बात मान लेंगे और आप को 2 महीने की छुट्टी मिल जाएगी,’’ विनिता ने कहा.

विजय को कुछ बोलते नहीं बन रहा था, इसलिए उस ने कहा, ‘‘अगर तैयारी के लिए 2 महीने की छुट्टी मिल गई, तो आप की बड़ी मेहरबानी होगी.’’

‘‘क्यों नहीं, मैं आप के लिए इतना तो कर ही सकती हूं. वैसे भी बहुत एहसान है आप का मु झ पर. मेरा भी तो फर्ज बनता है कि मैं आप के लिए कुछ करूं,’’ विनिता ने कहा.

विजय पहले से ही शर्मिंदगी महसूस कर रहा था. विनिता की इस बात पर उस ने चुप रहना ही बेहतर सम झा. थोड़ी देर चुप रहने के बाद उस ने जाने की इजाजत मांगी.

घर लौटते हुए विजय बहुत पछता रहा था. वह मन ही मन सोच रहा था, ‘काश, मैं ने इस से शादी की होती तो हो सकता है कि मु झे भी कामयाबी मिल जाती. इस लड़की से तो मु झे परीक्षा की तैयारी में मदद ही मिलती. नुकसान तो होता नहीं?’

अब विजय को पिछली कोशिश में कामयाबी न मिलने का उतना अफसोस नहीं था, जितना कि विनिता से शादी नहीं करने के उस के गलत फैसले का था. पर, अब बहुत देर हो चुकी थी. अब आखिरी कोशिश में उसे किसी भी कीमत पर कामयाबी हासिल करनी है.

विनिता ने तैयारी के लिए 2 महीने की छुट्टी दिलाने की सिफारिश करने का भरोसा दिलाया ही है, इसलिए अब उसे पूरे मन से तैयारी में जुट जाना चाहिए.

अगले दिन विद्यालय पहुंचाने पर प्रिंसिपल ने बताया कि बीडीओ साहिबा की सिफारिश पर उस की छुट्टी मंजूर कर ली गई है.

प्रिंसिपल ने फिर कहा, ‘‘सुना है कि आप ने बीडीओ साहिबा पर कभी बहुत एहसान किया था, इसलिए उन्होंने आप की मदद की है. आखिर क्या एहसान किया था आप ने, जरा हमें भी बताइए?’’

विजय ने  झेंपते हुए कहा, ‘‘मु झे खुद नहीं पता कि मैं ने कब उन के लिए क्या किया था. अच्छे अफसर ऐसे ही लोगों की मदद किया करते हैं. वैसे, सच पूछा जाए तो एहसान तो उन्होंने मु झ पर अब किया है, जिस का कर्ज चुकाना भी मेरे लिए आसान नहीं होगा.’’

उसी समय बीडीओ साहिबा का काफिला स्कूल में आया. प्रखंड शिक्षा पदाधिकारी के साथ स्कूल के निरीक्षण के लिए विनिता वहां पहुंची थीं.

कार से उतरते ही उन्होंने विजय से कहा, ‘‘विजय बाबू, पिछली बार पता नहीं आप ने कैसी कोशिश की थी, पर इस बार आप की कोशिश में कमी नहीं होनी चाहिए. मेरी शुभकामना है कि इस बार आप को कामयाबी जरूर मिले.’’

अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए विनिता बोली, ‘‘जिसे खुद पर भरोसा नहीं होता, वही दूसरों पर भरोसा नहीं कर पाता. जिसे खुद पर भरोसा होता है, उसे अपने साथियों पर भी भरोसा होता है. ऐसे लोग नए साथियों को पा कर जोश से भर जाते हैं. उन के लिए कामयाबी की राह और आसान हो जाती है, इसलिए सब से पहले खुद पर भरोसा करना ज्यादा जरूरी है. इस से कोई भी राह आसान हो जाती है.

‘‘पिछली बार शायद आप को अपनेआप पर भरोसा नहीं था, इसलिए आप को कामयाबी नहीं मिली. अगर आप को कामयाबी मिल जाएगी, तो आप ने जो मुझ पर एहसान किया है, उस का भी कर्ज चुक जाएगा, इसलिए मैं ने आप पर भरोसा कर के आप को छुट्टी दिलवाने में मदद की है. इस बार यह भरोसा मत तोड़ दीजिएगा.’’

विजय ने कहा, ‘‘सम झदार लोग एक बार गलती करते हैं, बारबार नहीं.’’

विजय ने अगले 2 महीने की छुट्टी का फायदा उठा कर खूब तैयारी की. इस तैयारी का उसे फल भी मिला. उस ने मुख्य परीक्षा व इंटरव्यू में भी कामयाबी हासिल की और उस का चयन प्रशासनिक सेवा के लिए हो गया.

विजय इस खबर को सुनाने के लिए सब से पहले विनिता के पास पहुंचा. उस के चैंबर में पहुंच कर विजय ने कहा, ‘‘मेरा चयन प्रशासनिक सेवा के लिए हो गया है. इस में आप की मदद का भी अच्छा योगदान है. अगर आप ने छुट्टी दिलाने में मदद नहीं की होती तो मु झे यह कामयाबी नहीं मिलती.’’

‘‘बहुतबहुत बधाई. वैसे, मैं ने आप की कोई मदद नहीं की. मैं ने पहले भी आप से कहा है कि आप के एहसान का कर्ज चुकाया है.

‘‘जरा सोचिए, अगर आप ने शादी के लिए मना नहीं किया होता और मेरी शादी आप के साथ हो गई होती, तो क्या होता. शादीशुदा लड़की के लिए अभी भी किसी प्रतियोगिता परीक्षा की तैयारी करना बड़ा मुश्किल होता है. परिवार की जिम्मेदारियों के बाद उस के पास खुद के लिए भी समय नहीं बचता है.

‘‘लेकिन, ऐसा मर्दों के साथ नहीं होता. वे सारी जिम्मेदारियों से मुक्त हो कर केवल परीक्षा पर अपना ध्यान दे कर तैयारी कर सकते हैं. घर में किसी ने खाना खाया है या नहीं, घर की सफाई हुई है या नहीं, इन सब बातों से उन्हें कोई लेनादेना नहीं होता.

‘‘इस तरह की जिम्मेदारियां औरतों को उठानी पड़ती हैं और मेरी शादी हो गई होती, तो शायद मु झे भी तैयारी के लिए कम समय मिलता. और मैं आज इस पद पर नहीं पहुंच पाती, इसलिए मु झे लगा था कि जो हुआ अच्छा ही हुआ और आप के द्वारा शादी के लिए मना करने को मैं ने आप का मु झ पर एक एहसान ही माना. अब आप को कामयाबी मिल चुकी है. अब मु झे भी सुकून मिला.’’

विजय ने कहा, ‘‘इस तरह मत कहिए. मैं ने जो गलती की थी, उसे अब मैं सुधारना चाहता हूं. अगर आप को बुरा न लगे तो मु झ से शादी कर मेरी पिछली गलती को सुधारने का मौका देने की कृपा करें.’’

‘‘नहीं, कभी नहीं…’’ विनिता ने रूखे लहजे में जवाब दिया, ‘‘आप ने कैसे सोच लिया कि मैं आप से शादी करने के लिए तैयार हो जाऊंगी.

‘‘आप को याद होगा कि सगाई के बाद आप ने शादी के लिए मना किया था. एक बार जिस ने मना किया था, उसी से शादी कर के मैं अपने स्वाभिमान के साथ खिलवाड़ नहीं कर सकती. आप के एहसान का कर्ज चुका दिया. अब आप जा सकते हैं.’’

विजय चुपचाप नजरें  झुकाए विनिता के चैंबर से बाहर निकल गया. उसे यह उम्मीद नहीं थी कि कामयाबी हासिल करने के बाद भी इस तरह से उसे दुत्कार दिया जाएगा. उस के लिए यह किसी सजा से कम नहीं थी. पर उसे यह भी एहसास हो गया कि उस ने जो गलती की थी, उस के बदले यह सजा कम ही थी.

शेष जीवन: भाग 1- विनोद के खत में क्या लिखा था

‘‘ननदोईजी ठीक कहते हैं कि आप नाम के वकील हैं,’’ सुमन चिढ़ कर बोली.

‘‘खोज लेतीं कोई नाम वाला वकील. 6 बेटियों को पैदा करते हुए तुम्हारे बाप ने यह नहीं सोचा कि मेरे जैसे वकील से ही शादी होगी,’’ सुमन के पति विनोद ने उसी लहजे में जवाब दिया.

‘‘सोचा होता तो 6 बेटियां पैदा ही क्यों करते?’’

‘‘तो चुप रहो. मेरी ओर देखने से पहले अपने बारे में सोचो. तुम्हारे ननदोई को मैं अच्छी तरह से जानता हूं. वह एक नंबर का लंपट है. सारी जिंदगी नौकरी छोड़ कर भागता रहा. एकमात्र बेटी की शादी ढंग से न कर सका. चला है हम पर उंगली उठाने. मैं तो कम से कम अपनी जातिबिरादरी में बेटी की शादी कर रहा हूं. उस से तो वह भी नहीं करते बना.’’ जब से दोनों की इकलौती बेटी रेखा की शादी सुमन के भाई राकेश ने तय कराई तब से आएदिन दोनों में तूतू मैंमैं होती. इस की वजह दहेज में दी जाने वाली रकम थी. विनोद सारी जिंदगी वकालत कर के उम्र के 65वें बरस में सिर्फ 10-12 लाख रुपए ही जुटा पाए. इस में से 10 लाख रुपए खर्च हो गए तो भविष्य के लिए क्या बचेगा? यही सोचसोच कर दोनों दुबले हुए जा रहे थे. विनोद को यह आशंका सता रही थी कि अब वे कितने दिन वकालत कर पाएंगे? 2-4 साल तक और खींचतान कर कचहरी जा सकेंगे. उस के बाद? पुत्र कोई है नहीं जो बुढ़ापे में दोनों का सहारा बने. रहीसही इकलौती संतान बेटी थी जो एक प्राइवेट संस्थान में नौकरी करती थी. कल वह भी विदा हो कर चली जाएगी तब क्या होगा? उन की देखभाल कौन करेगा? घरखर्च कैसे चलेगा?

दहेज में दिया जाने वाला एकएक पैसा विनोद पर भारी पड़ रहा था. जबजब बैंक से रुपया निकालने जाते तबतब उन्हें लगता अपने खून का एक अंश बेच कर आ रहे हैं. मन झल्लाता तो कहते, रेखा भी प्रेमविवाह कर लेती तो ठीक होता. कम से कम दहेज से तो बच जाते. जातिबिरादरी का यह हाल है कि कमाऊ लड़की भी चाहिए, दहेज भी. इन को इतनी भी तमीज नहीं कि जब लड़की कमा रही है तो दहेज कहां से बीच में आ गया? विनोद की रातों की नींद गायब थी. वे अचानक उठ कर टहलने लगते. जितना सोचते, दिल उतना ही बैठने लगता. भविष्य में क्या होगा अगर मैं बीमार पड़ गया तो? अभी तक तो वकालत कर ली. घर से रोजाना 10 किलोमीटर कचहरी जाना क्या आसान है? 65 का हो चला हूं. रेखा 28वीं में चल रही थी. जहां भी शादी की बात चलाते 10 लाख से नीचे कोई बात ही नहीं करता. 23 साल की उम्र में रेखा ने सरकारी पौलिटैक्निक संस्थान से डिप्लोमा किया था. नौकरी लगी तो सब ने सोचा कि चलो, लड़की अपने पैरों पर खड़ी है तो लड़के वाले दहेज नहीं मांगेंगे. इस के बावजूद दहेजलोभियों का लोभ कम नहीं हुआ. विनोद झुंझलाते, कोई पुत्र होता तो वे भी दहेज ले कर हिसाब पूरा कर लेते.

सुमन रोजाना कुछ न कुछ खरीदने के लिए बाजार जाती. अभी से थोड़ीथोड़ी चीजें जुटाएगी तभी तो शादी कर पाएगी. आसपास कोई इतना करीबी भी नहीं था जिसे साथ ले कर बाजार निकल जाए. ले दे कर भाभी थीं जो उस के घर से 5 किलोमीटर दूर रहती थीं. अंगूठी एक से एक थीं, मगर सब महंगी. बड़ी मुश्किल से एक अंगूठी पसंद आई. विनोद को लगा सुमन ने कुछ ज्यादा महंगी अंगूठी खरीद ली. इसी बात पर वह उलझ गया, ‘‘क्या जरूरत थी महंगी अंगूठी खरीदने की?’’ ‘‘सोने का भाव कहां जा रहा है, आप को कुछ पता है. सब से सस्ती ली है.’’ ‘‘सब ढकोसला है. क्या हमारे समय में इतना भव्य इंगेजमैंट होता था? अधिक से अधिक दोचार लोग लड़की की तरफ से, चार लोग लड़के वालों की तरफ से 5 किलो लड्डू दिए, कुछ मेवे और फलफूल. हो गई रस्म. मगर नहीं, आज सौ लोगों को खिलाओपिलाओ, उस के बाद नेग भी दो. वह भी लड़की वालों के बलबूते पर,’’ विनोद की त्यौरियां चढ़ गईं.

‘‘करना ही होगा वरना चार लोग थूकेंगे. अपनी बेटी को भी अच्छा नहीं लगेगा. वह भी दस जगह गई है. उस के भी कुछ अरमान होंगे. उस का सादासादा इंगेजमैंट होगा तो उस के दिल पर क्या गुजरेगी.’’ ‘‘क्या वह हमारे हालात से वाकिफ नहीं है?’’ ‘‘बच्चों को इस से क्या मतलब? उन की भी कुछ ख्वाहिशें होती हैं. उन्हें चाहे जैसे भी हों, पूरी करनी ही पड़ेंगी,’’ सुमन ने दोटूक कहा. वह आगे बोली, ‘‘हम ने रेखा को दिया ही क्या है. अब तक वह बेचारी अभावों में ही पलीबढ़ी. लोगों के बच्चे महंगे अंगरेजी स्कूलों में पढ़े जबकि हम ने उसे सरकारी स्कूल में पढ़ाया. न ढंग से कपड़ा दिया, न ही खाना. सिर्फ बचाते ही रहे ताकि उस की शादी अच्छे से कर सकें,’’ वह भावुक हो गई. विनोद का भी जी भर आया. एकाएक उन के सोचने की दिशा बदल गई. रेखा ही उन के घर रौनक थी. जब वह विदा हो कर चली जाएगी तब वे दोनों अकेले घर में क्या करेंगे? कैसे समय कटेगा? सोच कर उन की आंखें पनीली हो गईं. सुमन की नजरों से उन के जज्बात छिप न सके. वह बोली, ‘‘क्या आप भी वही सोच रहे हैं जो मैं?’’

अपने मन में उमड़ते भावों के ज्वार को छिपाते हुए वे बोले, ‘‘मैं समझा नहीं?’’ ‘‘बनते क्यों हैं? आप की यही आदत मुझे पसंद नहीं.’’

‘‘तुम्हें तो मैं हमेशा नापसंद रहा.’’

‘‘गलत क्या है? आप से शादी कर के मुझे कौन सा सुख मिला? आधाअधूरा आप के पिता का बनवाया यह मकान उस पर आप के पेशे की थोड़ी सी कमाई.’’

‘‘भूखों तो नहीं मरने दिया.’’

‘‘मन का भोजन न मिले तो समझो भूखे ही रहे. राशन की दुकान सभी ने छोड़ दी. कौन जाए पूरा दिन खराब करने? एक मैं ही थी जो आज तक 10 किलो गेहूं खरीदने के लिए दिनभर राशन की दुकान की लाइन में लगती रही. शर्म आती है मुझे एक वकील की बीवी कहते हुए.’’ ‘‘देखो, मेरा दिमाग मत खराब करो. बेटी की शादी कर लेने दो.’’

‘‘उस के बाद क्या कुबेर का खजाना मिलेगा?’’

‘‘मौत तो मिलेगी. कम से कम तुम्हारे उलाहने से मुक्ति तो मिलेगी,’’ विनोद का स्वर तल्ख था. तभी किसी के आने की आहट हुई. सुमन का भाई राकेश था. दोनों ने चुप्पी साध ली. सुमन को एक तरफ ले जा कर उस ने कुछ रुपए दिए. ‘‘ये 10 हजार रुपए हैं, रख लो. आगे भी जो बन पड़ेगा, देता रहूंगा. इस बार गांव में गेहूं की फसल अच्छी हुई है. आटे की चिंता मत करना.’’ सुमन की आंखें भर आईं. जैसे ही वह गया, सुमन फिर विनोद से उलझ पड़ी, ‘‘एक आप के परिवार के लोग हैं. मदद तो दूर झांकने भी नहीं आते.’’

‘‘झांकने लायक तुम ने किसी को छोड़ा है?’’

‘‘तुम्हीं लायक बन जाते उन के लिए.’’ ‘‘लायक होता तो तुम्हारी लताड़ सुनता. आजकल सब रुपयों के भूखे हैं. न मेरे पास रुपए थे, न ही परिवार वालों ने हमें तवज्जुह दी.’’

‘‘अब समझ में आया.’’

‘‘समझ तो मैं पहले ही गया था. तभी तो अपने बेटे की बीमारी में बड़ी बहन रुपए मांगती रही, मगर मैं ने फूटी कौड़ी भी नहीं दी. जबकि खेत बेचने के बाद उस समय मेरे पास रकम थी.’’ ‘‘अच्छा किया, दे देते तो आज भीख मांगते नजर आते.’’ इंगेजमैंट में सुमन ने सिर्फ अपने भाईबहनों को न बुला कर यही संदेश दिया कि उस की कूवत नहीं है बहुत ज्यादा लोगों को खिलानेपिलाने की. इस में दोराय नहीं, ऐसा ही था. मगर थोड़े से रपए बचा कर बिलावजह रिश्तेदारों को नाराज करना कहां की समझदारी थी. सुमन के पास अपनी सास के चढ़ाए कुछ गहने थे, जो उस ने सहेज कर रखे थे. शादीब्याह में भी पहन कर नहीं जाती थी कि कहीं गिर गए तो? विनोद की इतनी कमाई नहीं थी कि वे उसे एक तगड़ी भी खरीद कर दे सकें. ताउम्र उस की साध ही रह गई कि पति की कमाई से एक तगड़ी और चूड़ी अपनी पसंद की खरीदें, यह कसक आज भी ज्यों की त्यों थी. सुमन संदूक खोल कर उन गहनों को देख रही थी. विनोद भी पास थे. ‘‘काफी वजनी गहने हैं मेरी मां के,’’ विनोद की आंखें चमक उठीं. ‘‘मां के ही न,’’ सुमन के चेहरे पर व्यंग्य की रेखा तिर गई.

अपनी शर्तों पर: जब खूनी खेल में बदली नव्या-परख की कहानी

नव्यालाइब्रेरी में बैठी नोट्स लिख रही थी तभी कब परख उस के पास आ कर बैठ गया उसे पता ही नहीं चला. ‘‘मुझ से इतनी बेरुखी क्यों नव्या, मैं सह नहीं पाऊंगा. वैसे कान खोल कर सुन लो, तुम मेरी नहीं हो सकीं तो और किसी की नहीं होने दूंगा. कितने दिनों से मैं तुम से मिलने का प्रयत्न कर रहा हूं पर तुम कन्नी काट कर निकल जाती हो,’’ वह बोला.

‘‘मेरा पीछा छोड़ दो परख, हमारी राहें और लक्ष्य अलग हैं,’’ नव्या ने उत्तर दिया. दोनों को बातें करता देख कर लाइब्रेरियन ने उन्हें बाहर जाने का इशारा करते हुए द्वार पर लगी चुप रहने का इशारा करने वाली तसवीर दिखाई.

‘‘देखो नव्या, मैं आज तुम्हें अंतिम चेतावनी देता हूं. तुम मुझे दूसरों की तरह समझने की भूल मत करना, नहीं तो बहुत पछताओगी. उपभोग करो और फेंक दो की नीति मेरे साथ नहीं चलेगी. पिछले 2 वर्षों में मैं ने तुम्हारे लिए क्या नहीं किया? पानी की तरह पैसा बहाया मैं ने और इस चक्कर में मेरी पढ़ाई चौपट हो गई सो अलग,’’ परख ने धमकी ही दे डाली.

‘‘क्यों किया यह सब? मैं ने तो कभी नहीं कहा था कि अपनी पढ़ाई पर ध्यान मत दो. घूमनेफिरने का शौक तुम्हें भी कम नहीं है. मैं तो बस मित्रता के नाते तुम्हारा साथ दे रही थी.’’ ‘‘किस मित्रता की बात कर रही हो तुम? एक युवक और युवती के बीच मित्रता नहीं केवल प्यार होता है,’’ परख की आंखों से चिनगारियां निकल रही थीं. लाइब्रेरी से बाहर निकल कर दोनों कुछ देर वादविवाद करते हुए साथ चले. फिर नव्या ने परख से आगे निकलने का प्रयत्न करते हुए तेजी से कदम बढ़ाए. वह सचमुच डर गई थी. तभी परख ने जेब से छोटा सा चाकू निकाला और दीवानों की तरह नव्या पर वार करने लगा. नव्या बदहवास सी चीख रही थी. चीखपुकार सुन कर वहां भीड़ जमा हो गई. कुछ विद्यार्थियों ने कठिनाई से परख को नियंत्रित किया. फिर वे आननफानन नव्या को अस्पताल ले गए. कालेज में यह समाचार आग की तरह फैल गया. सब अपने ढंग से इस घटना की विवेचना कर रहे थे.

नव्या मित्रोंसंबंधियों से घिरी इस सदमे से निकलने का प्रयत्न कर रही थी. हालांकि उस के जख्म अधिक गहरे नहीं थे, पर उसे अस्पताल में भरती कर लिया गया था. नव्या की फ्रैंड निधि ने उस के स्थानीय अभिभावक मौसी और मौसा को फोन कर के सारी घटना की जानकारी दे दी, तो नव्या की मौसी नीला और उस के पति अरुण तुरंत आ पहुंचे. नव्या नीला के गले लग कर फूटफूट कर रोई व आंसुओं के बीच बारबार यह कहती रही, ‘‘मौसी, मुझे यहां से ले चलो. यह खूंख्वार लोगों की बस्ती है. परख मुझे जान से मार डालेगा.’’ नीला नव्या को सांत्वना दे कर धीरज बंधाती रही. पर नव्या हिचकियां ले कर रो रही थी. उसे सपने में भी आशा नहीं थी कि परख उस से ऐसा व्यवहार करेगा. अगले दिन ही नीला उसे अपने घर ले गई. सूचना मिलते ही नव्या के मातापिता आ पहुंचे. सारा घटनाक्रम सुन कर वे स्तब्ध रह गए.

‘‘नव्या, हम ने तो बड़े विश्वास से तुम को यहां पढ़ने के लिए भेजा था. पर तुम्हारे तो यहां पहुंचते ही पंख निकल आए. और नीला, तुम ने ही कहा था न कि छात्रावास में, वह भी देश की राजधानी में रह कर इस की प्रतिभा निखर आएगी पर हुआ इस का उलटा ही. पूरे परिवार की कितनी बदनामी हुई है यह सब जान कर. अब कौन इस से विवाह करेगा?’’ नव्या के पिता गिरिजा बाबू का दर्द उन की आंखों में छलक आया.

‘‘अब तो हम नव्या को अपने साथ ले जाएंगे. कोई और रास्ता तो बचा ही नहीं है,’’ नव्या की मां लीला ने अपना मत प्रकट किया.

‘‘दीदी, जीजाजी, सच कहूं तो जैसे ही मुझे परख से संबंध के बारे में पता चला मैं ने नव्या को घर बुला कर समझाया था. इस ने वादा भी किया था कि यह अपनी पढ़ाई पर ध्यान देगी. पर इसी बीच यह घटना घट गई,’’ नीला ने स्पष्ट किया. ‘‘मैं ने तो उस दिन भी कहा था कि सारी सूचना आप लोगों को दे दें पर नव्या अपनी सहेली निधि को साथ ले कर आई और अपनी मौसी को समझा ही लिया कि वह आप दोनों को सूचित न करे,’’ तभी अरुण ने पूरे प्रकरण पर अपनी चुप्पी तोड़ी.

‘‘मैं ने भी कहां सोचा था कि बात इतनी बढ़ जाएगी. मैं ने तो नव्या को कई बार चेताया भी था कि इस तरह किसी के साथ अकेले घूमनाफिरना ठीक नहीं है पर नव्या ने अनसुना कर दिया,’’ निधि ने अपना बचाव किया. ‘‘ठीक है, मैं ही बुरी हूं और सब तो दूध के धुले हैं,’’ नव्या निधि की बात सुन कर चिहुंक उठी. ‘‘आप लोग व्यर्थ ही चिंतित हो जाओगी इसीलिए आप लोगों को सूचित नहीं किया था. मुझे लगा कि हम इस स्थिति को संभाल लेंगे. निधि ने भी नव्या की ओर से आश्वस्त किया था. पर कौन जानता था कि ऐसा हादसा हो जाएगा,’’ नीला समझाते हुए रोंआसी हो उठी.

अभी यह विचारविमर्श चल ही रहा था कि अरुण ने परख के मातापिता के आने की सूचना दी. ‘‘अब क्या लेने आए हैं? हमारी बेटी की तो जान पर बन आई. इन का यहां आने का साहस कैसे हुआ?’’ लीला बहुत क्रोध में थीं. अरुण और नीला ने उन्हें शांत करने का प्रयत्न किया. ‘‘हम तो उस अप्रिय घटना के प्रति अपना खेद प्रकट करने आए हैं. परख भी बहुत शर्मिंदा है. आप लोगों से माफी मांगनी चाहता है,’’ परख के पिता धीरज आते ही बोले.

‘‘क्या कहने आप के बेटे की शर्मिंदगी के. यहां तो जीवन का संकट उत्पन्न हो गया. बदनामी हुई सो अलग.’’ ‘‘मैं यही विनती ले कर आया हूं कि यदि हम मिलबैठ कर समझौता कर लें तो कोर्टकचहरी तक जाने की नौबत नहीं आएगी,’’ धीरज ने किसी प्रकार अपनी बात पूरी की.

‘‘चाहते क्या हैं आप?’’ अरुण ने प्रश्न किया.

‘‘यही कि नव्या परख के पक्ष में अपना बयान बदल दे. हम तो इलाज का पूरा खर्च उठाने को तैयार हैं,’’ धीरज ने एकएक शब्द पर जोर दे कर कहा.

‘‘ऐसा हो ही नहीं सकता. यह हमारी बेटी के सम्मान का प्रश्न है,’’ गिरिजा बाबू बहुत क्रोध में थे.

‘‘आप की बेटी हमारी भी बेटी जैसी है. मानता हूं इस में हमारा स्वार्थ है पर यह बात उछलेगी तो दोनों परिवारों की बदनामी होगी, बल्कि मेरे पास तो एक और सुझाव भी है. गलत मत समझिए. मैं तो मात्र सुझाव दे रहा हूं. मानना न मानना आप के हाथ में है,’’ परख के पिता शांत और संयत स्वर में बोले.

‘‘क्या सुझाव है आप का?’’

‘‘हम दोनों का विवाह तय कर देते हैं. सब के मुंह अपनेआप बंद हो जाएंगे.’’ ‘‘यह दबाव डालने का नया तरीका है क्या? बेटा हमला करता है और उस का पिता विवाह का प्रस्ताव ले कर आ जाता है. कान खोल कर सुन लीजिए, जान दे दूंगी पर इस दबाव में नहीं आऊंगी,’’ घायल अवस्था में भी नव्या उठ कर चली आई और पूरी शक्ति से चीख कर फूटफूट कर रोने लगी. नव्या को इस तरह बिलखता देख कर सभी स्तब्ध रह गए. किसी को कुछ नहीं सूझा तो बगलें झांकने लगे और परख के पिता हड़बड़ा कर उठ खड़े हुए.

‘‘आप लोग बच्ची को संभालिए हम फिर मिलेंगे,’’ परख के पिता अपनी पत्नी के साथ तेजी से बाहर निकल गए. ‘‘देखा आप ने? अभी भी ये लोग मेरा पीछा नहीं छोड़ रहे. मेरा दोष क्या है? यही न कि लड़की होते हुए भी मैं ने घर से दूर आ कर पढ़ने का साहस किया. पर ये होते कौन हैं मेरे लिए ऐसी बातें कहने वाले?’’ नव्या का प्रलाप जारी था. गिरिजा बाबू अभी भी क्रोध में थे. जो कुछ हुआ उस के लिए वे नव्या को ही दोषी मान रहे थे और कोई कड़वी सी बात कहनी चाहते थे पर नव्या की दशा देख कर चुप रह गए. परख और उस के मातापिता अगले दिन फिर आ धमके. परख भी उन के साथ था. उस के लिए उन्होंने जमानत का प्रबंध कर लिया था.

‘‘ये लोग तो बड़े बेशर्म हैं. फिर चले आए,’’ गिरिजा बाबू उन्हें देखते ही भड़क उठे.

‘‘जीजाजी, यह समय क्रोध में आने का नहीं है. बातचीत करने में कोई हानि नहीं है.हमें तो केवल यह देखना है कि इस मुसीबत से बाहर कैसे निकला जाए,’’ नीला ने उन्हें शांत करना चाहा. ‘‘इतना निरीह तो मैं ने स्वयं को कभी अनुभव नहीं किया. सब नव्या के कारण. सोचा था परिवार का नाम ऊंचा करेगी पर इस ने तो हमें कहीं मुंह दिखाने लायक भी नहीं रखा,’’ गिरिजा बाबू परेशान हो उठे. ‘‘ऐसा नहीं कहते. वह बेचारी तो स्वयं संकट में है. चलिए बैठक में चलिए. वे लोग प्रतीक्षा कर रहे हैं. इस मसले को बातचीत से ही सुलझाने का यत्न करिए,’’ नीला और लीला समवेत स्वर में बोलीं.

अरुण गिरिजा बाबू को ले कर बैठक में आ बैठे. परख ने दोनों का अभिवादन किया.

‘‘यही है परख,’’ अरुण ने गिरिजा बाबू से परिचय कराया.

‘‘ओह तो यही है सारी मुसीबत की जड़,’’ गिरिजा बाबू का स्वर बहुत तीखा था. ‘‘देखिए, ऐसी बातें आप को शोभा नहीं देतीं. इस तरह तो आप कड़वाहट को और बढ़ा रहे हैं. हम तो संयम से काम ले रहे हैं पर आप उसे हमारी कमजोरी समझने की भूल कदापि मत करिए,’’ धीरज ने भी उतने ही तीखे स्वर में उत्तर दिया. ‘‘अच्छा, नहीं तो क्या करेंगे आप? हमें भी चाकू से मारेंगे? सच तो यह है कि आप की जगह यहां नहीं जेल में है.’’

‘‘कोई चाकूवाकू नहीं मारा. छोटा सा पैंसिल छीलने का ब्लेड था जिस से जरा सी खरोंच लगी है. आप लोगों ने बात का बतंगड़ बना दिया,’’ परख बड़े ठसके से बोला मानो उस ने नव्या पर कोई बड़ा उपकार किया हो.

‘‘देखा तुम ने अरुण? कितना बेशर्म है यह व्यक्ति. इसे अपनी करनी पर तनिक भी पश्चाताप नहीं है. ऊपर से हमें ही रोब दिखा रहा है,’’ गिरिजा बाबू आगबबूला हो उठे.

‘‘लो भला, मैं क्यों पश्चाताप करूं? मैं कहता हूं बुलाइए न अपनी बेटी को. अभी दूध का दूध और पानी का पानी हो जाएगा,’’ परख बोला.

‘‘लो आ गई मैं. कहो क्या कहना है? मुझे कितनी चोट लगी है इस का हिसाबकिताब हो चुका है. उस के लिए तुम्हारे प्रमाणपत्र की आवश्यकता नहीं है. बात निकली है तो अब दूर तलक जाएगी. अब जब कोर्टकचहरी के चक्कर लगाओगे तो सारी चतुराई धरी की धरी रह जाएगी.’’ ‘‘मैं ने तो कभी अपनी चतुराई का दावा नहीं किया. चतुर तो तुम हो. मुझे कितनी होशियारी से 2 साल मूर्ख बनाती रहीं. बड़े होटलों, रिजोर्ट में खानापीना, सिनेमा देखना और कपड़े धुलवाने से ले कर प्रोजैक्ट बनवाने तक का काम बड़ी होशियारी से करवाया.’’

‘‘तो क्या हुआ? तुम तो मेरे सच्चे मित्र होने का दावा करते थे. अब बिल चुकाने का रोना रोने लगे. भारतीय संस्कृति में ऐसा ही होता है. बिल सदा युवक ही चुकाते हैं, युवतियां नहीं.’’ ‘‘तुम्हारे मुंह से भारतीय संस्कृति की दुहाई सुन कर हंसी आती है. हमारी संस्कृति में तो लड़कियों को युवकों के साथ सैरसपाटा करनेकी अनुमति ही नहीं है. पर तुम तो भारतीय संस्कृति का उपयोग अपनी सुविधा के लिएकरने में विश्वास करती हो. युवक भी अपनापैसा उन्हीं पर खर्च करते हैं जिन से उन की मित्रता हो, हर ऐरेगैरे पर नहीं. वैसे भी तुम्हारे जैसी लड़की क्या जाने प्रेम, मित्रता जैसे शब्दों के अर्थ. तुम तो न जाने मेरे जैसे कितने युवकों को मूर्ख बना रही थीं. पर मैं उन लोगों में से नहीं हूं कि इस अपमान को चुप रह कर सह लूं,’’ परख भी क्रोध से बोला.

‘‘इसीलिए मुझे जान से मारने का इरादा था तुम्हारा? तो ठीक है अब ये सब बातें तुम अदालत में कहना,’’ नव्या ने धमकी दी.

‘‘देख लिया न आप ने? यह है आज की पीढ़ी. इन्हें हम ने यहां पढ़ने के लिए भेजा था. ये दोनों यहां मस्ती कर रहे थे. बड़ों के सामने भी कितनी बेशर्मी से बातें कर रहे हैं,’’ अब परख की मां रीता ने अपना मत प्रकट किया. ‘‘आप को बुरा लगा हो तो क्षमा कीजिए आंटी. पर मैं भी इक्कीसवीं सदी की लड़की हूं. अपने साथ हुए अत्याचार का बदला लेना मुझे भी आता है.’’ ‘‘अत्याचार तो मुझ पर हुआ है, मुझे कौन न्याय दिलाएगा? 2 वर्षों तक अपना पैसा और समय मैं ने इस लड़की पर लुटाया. अब यह कहती है कि हमारी राहें अलग हैं. इस के चक्कर में मेरी तो पढ़ाई भी चौपट हो गई,’’ परख के मन का दर्द उस के शब्दों में छलक आया.

‘‘अब समझ में आया कि एक युवक और युवती के बीच सच्ची मित्रता हो ही नहीं सकती. मैं जिसे अपना सच्चा मित्र समझती थी वह तो कुछ और ही समझ बैठा था,’’ नव्या अपनी ही बात पर अड़ी थी. ‘‘जब बड़े विचारविमर्श कर रहे हों तो छोटों का बीच में बोलना शोभा नहीं देता. अब केवल हम बोलेंगे और तुम दोनों केवल सुनोगे. दोष तुम दोनों का ही है. तुम्हारा इसलिए परख कि तुम अपनी पढ़ाईलिखाई छोड़ कर प्रेम की पींगें बढ़ाने लगे और नव्या तुम्हें नईनई आजादी क्या मिली तुम तो सैरसपाटे में उलझ गईं. या तो तुम परख के इरादे को भांप नहीं पाईं या फिर जान कर भी अनजान बनने का नाटक करती रहीं. तुम तो सारी बातें अपनी मौसी से भी तब तक छिपाती रहीं जब तक तुम्हारी मौसी ने बलात सब कुछ उगलवा नहीं लिया,’’ अरुण के स्वर की कड़वाहट स्पष्ट थी.

‘‘इन सब बातों का अब कोई अर्थ नहीं है. परख की ओर से मैं आप को नव्या बेटी की सुरक्षा का विश्वास दिलाता हूं और चाहता हूं कि आप इस अध्याय को यहीं समाप्त कर दें,’’ धीरज ने आग्रह किया. ‘‘परख ने जो किया वह क्षमा के योग्य नहीं है. अत: इस बात को समाप्त करने का तो प्रश्न ही नहीं उठता. हम अपनी बेटी के सम्मान की रक्षा के लिए किसी भी सीमा तक जा सकते हैं,’’ गिरिजा बाबू क्रोधित स्वर में बोले. धीरज गिरिजा बाबू और अरुण को कक्ष के एक कोने में ले गए. वहां कुछ देर के वादप्रतिवाद के बाद वे सहमत हो गए कि इस बात को समाप्त करने में ही दोनों परिवारों की भलाई है. नव्या ने सुना तो भड़क उठी, ‘‘कोई और परिवार होता तो परख को जीवन भर चक्की पिसवाता पर हमारे परिवार में मेरी औकात ही क्या है, लड़की हूं न,’’ नव्या ने रोने का उपक्रम किया.

‘‘अब रहने भी दो मुंह मत खुलवाओ. कोई दूसरा परिवार तुम से कैसा व्यवहार करता इस बारे में हम कुछ न कहें इसी में सब की भलाई है,’’ नीला ने अपनी नाराजगी दिखाई.

‘‘ठीक है, यदि सभी अपनी जिद परअड़े हैं तो मेरी भी सुन लें. मैं कहीं नहीं जारही. यहीं रह कर पढ़ाई करूंगी,’’ नव्या बड़ीशान से बोली. ‘‘अवश्य, तुम यहां रह कर पढ़ोगी अवश्य, पर अकेले नहीं. अपनी मां के साथ रहोगी उन की छत्रछाया में. अपनी मां के नियंत्रण में रहोगी हमारी शर्तों पर,’’ गिरिजा बाबू तीखे स्वर में बोलते हुए बाहर निकल गए, जिस से थोड़ी सी ताजा हवा में सांस ले सकें. बगीचे में पड़ी बैंच पर बैठ कर व दोनों हाथों में मुंह छिपा कर देर तक सिसकते रहे. 4 महीने के बाद उन्होंने सुना कि परख और नव्या फिर दोस्तों के बीच मिल रहे हैं. उन के दोस्तों ने उन के बीच सुलह करा दी. 6 महीने बाद दोनों ने फिर अपने मातापिता को बुलाया और इस बार दोनों ने शर्माते हुए कहा, ‘‘हम शादी करना चाहते हैं.’’ गिरिजा बाबू और अरुण दोनों एकदूसरे का मुंह ताक रहे थे और यह समझ में नहीं आ रहा था उन्हें कि क्या कहें, क्या न कहें.

बिना शर्त: मिन्नी के बारे में क्या जान गई थी आभा

social story in hindi

बंद खिड़की: मंजू का क्या था फैसला

‘‘मौसी की बेटी मंजू विदा हो चुकी थी. सुबह के 8 बज गए थे. सभी मेहमान सोए थे. पूरा घर अस्तव्यस्त था. लेकिन मंजू की बड़ी बहन अलका दीदी जाग गई थीं और घर में बिखरे बरतनों को इकट्ठा कर के रसोई में रख रही थीं.

अलका को काम करता देख रचना, जो उठने  की सोच रही थी ने पूछा, ‘‘अलका दीदी क्या समय हुआ है?’’

‘‘8 बज रहे हैं.’’

‘‘आप अभी से उठ गईं? थोड़ी देर और आराम कर लेतीं. बहन के ब्याह में आप पूरी रात जागी हो. 4 बजे सोए थे हम सब. आप इतनी जल्दी जाग गईं… कम से कम 2 घंटे तो और सो लेतीं.

अलका मायूस हंसी हंसते हुए बोलीं, ‘‘अरे, हमारे हिस्से में कहां नींद लिखी है. घंटे भर में देखना, एकएक कर के सब लोग उठ जाएंगे और उठते ही सब को चायनाश्ता चाहिए. यह जिम्मेदारी मेरे हिस्से में आती है. चल उठ जा, सालों बाद मिली है. 2-4 दिल की बातें कर लेंगी. बाद में तो मैं सारा दिना व्यस्त रहूंगी. अभी मैं आधा घंटा फ्री हूं.’’ रचना अलका दीदी के कहने पर झट से बिस्तर छोड़ उठ गई. यह सच था कि दोनों चचेरी बहनें बरसों बाद मिली थीं. पूरे 12 साल बाद अलका दीदी को उस ने ध्यान से देखा था. इस बीच न जाने उन पर क्याक्या बीती होगी.

उस ने तो सिर्फ सुना ही था कि दीदी ससुराल छोड़ कर मायके रहने आ गई हैं. वैसे तो 1-2 घंटे के लिए कई बार मिली थीं वे पर रचना ने कभी इस बारे में खुल कर बात नहीं की थी. गरमी की छुट्टियों में अकसर अलका दीदी दिल्ली आतीं तो हफ्ता भर साथ रहतीं. खूब बनती थी दोनों की. पर सब समय की बात थी. रचना फ्रैश हो कर आई तो देखा अलका दीदी बरामदे में कुरसी पर अकेली बैठी थीं.

‘‘आ जा यहां… अकेले में गप्पें मारेंगे…. एक बार बचपन की यादें ताजा कर लें,’’ अलका दीदी बोलीं और फिर दोनों चाय की चुसकियां लेने लगीं.

‘‘दीदी, आप के साथ ससुराल वालों ने ऐसा क्या किया कि आप उन्हें छोड़ कर हमेशा के लिए यहां आ गईं?’’

‘‘रचना, तुझ से क्या छिपाना. तू मेरी बहन भी है और सहेली भी. दरअसल, मैं ही अकड़ी हुई थी. पापा की सिर चढ़ी लाडली थी, अत: ससुराल वालों की कोई भी ऐसी बात जो मुझे भली न लगती, उस का जवाब दे देती थी. उस पर पापा हमेशा कहते थे कि वे 1 कहें तो तू 4 सुनाना. पापा को अपने पैसे का बड़ा घमंड था, जो मुझ में भी था.’’

दीदी ने चाय का घूंट लेते हुए आगे कहा, ‘‘गलती तो सब से होती है किंतु मेरी गलती पर कोई मुझे कुछ कहे मुझे सहन न था. बस मेरा तेज स्वभाव ही मेरा दुश्मन बन गया.’’

चाय खत्म हो गई थी. दीदी के दुखों की कथा अभी बाकी थी. अत: आगे बोलीं, ‘‘मेरे सासससुर समझाते कि बेटा इतनी तुनकमिजाजी से घर नहीं चलते. मेरे पति सुरेश भी मेरे इस स्वभाव से दुखी थे. किंतु मुझे किसी की परवाह न थी. 1 वर्ष बाद आलोक का जन्म हुआ तो मैं ने कहा कि 40 दिन बाद मैं मम्मीपापा के घर जाऊंगी. यहां घर ठंडा है, बच्चे को सर्दी लग जाएगी.’’ मैं दीदी का चेहरा देख रही थी. वहां खुद के संवेगों के अलावा कुछ न था.

‘‘मैं जिद कर के मायके आ गई तो फिर नहीं गई. 6 महीने, 1 वर्ष… 2 वर्ष… जाने कितने बरस बीत गए. मुझे लगा, एक न एक दिन वे जरूर आएंगे, मुझे लेने. किंतु कोई न आया. कुछ वर्ष बाद पता लगा सुरेश ने दूसरा विवाह कर लिया है,’’ और फिर अचानक फफकफफक कर रोने लगीं. मैं 20 वर्ष पूर्व की उन दीदी को याद कर रही थी जिन पर रूपसौंदर्य की बरसात थी. हर लड़का उन से दोस्ती करने को लालायित रहता था. किंतु आज 35 वर्ष की उम्र में 45 की लगती हैं. इसी उम्र में चेहरा झुर्रियों से भर गया था.

मुझे अपलक उन्हें देखते काफी देर हो गई, तो वे बोलीं, ‘‘मेरे इस बूढ़े शरीर को देख रही हो… लेकिन इस घर में मेरी इज्जत कोई नहीं करता. देखती नहीं मेरे भाइयों और भाभियों को? वे मेरे बेटे आलोक और मुझे नौकरों से भी बदतर समझते हैं. पहले सब ठीक था. पापा के जाते ही सब बदल गए. भाभियों की घिसी साडि़यां मेरे हिस्से आती हैं तो भतीजों की पुरानी पैंटकमीजें मेरे बेटे को मिलती हैं. इन के बच्चे पब्लिक स्कूलों में पढ़ते हैं और मेरा बेटा सरकारी स्कूल में. 15 वर्ष का है आलोक 7वीं में ही बैठा है. 3 बार 7वीं में फेल हो चुका है. अब क्या कहूं,’’ और दीदी ने साड़ी के किनारे से आंखें पोंछ कर धीरे से आगे कहा, ‘‘भाई अपने बेटों के नाम पर जमीन पर जमीन खरीदते जा रहे हैं, पर मेरे बेटे के लिए क्या है? कुछ नहीं. घर के सारे लोग गरमी की छुट्टियों में घूमने जाते हैं और हम यहां बीमार मम्मी की सेवा और घर की रखवाली करते हैं.

‘‘तू तो अपनी है, तुझ से क्या छिपाऊं… जवान जोड़ों को हाथ में हाथ डाल कर घूमते देखती हूं तो मनमसोस कर रह जाती हूं.’’

मैं दीदी को अवाक देख रही थी, किंतु वे थकी आवाज में कह रही थीं, ‘‘रचना, आज मैं बंद कमरे का वह पक्षी हूं जिस ने अपने पंखों को स्वयं कमरे की दीवारों से टक्कर मार कर तोड़ा है. आज मैं एक खाली बरतन हूं, जिसे जो चाहे पैर से मार कर इधर से उधर घुमा रहा है…’’  आज मैं अकेलेपन का पर्याय बन कर रह गई हूं.’’

दीदी का रोना देखा न जाता था, किंतु आज मैं उन्हें रोकना नहीं चाहती थी. उन के मन में जो था, उसे बह जाने देना चाहती थी. थोड़ी देर चुप रहने के बाद अलका दीदी आगे बोलीं, ‘‘सच तो यह है कि मेरी गलती की सजा मेरा बेटा भी भुगत रहा है… मैं उसे वह सब न दे पाई जिस का वह हकदार था… न पिता का प्यार न सुखसुविधाओं वाला जीवन… कुछ भी तो न मिला. सोचती हूं आखिर मैं ने यह क्या कर डाला? अपने साथ उसे भी बंद गली में ले आई… क्यों मैं ने उस की खुशियों की खिड़की बंद कर दी,’’ और फिर दीदी की रुलाई फूट पड़ी. उन का रोना सुन कर 2-3 रिश्तेदार भी आ गए. पर अच्छा हुआ जो तभी बूआ ने किचन से आवाज लगा दी, ‘‘अरी अलका, आ जल्दी… आलू उबल गए हैं.’’

दीदी साड़ी के पल्लू से अपनी आंखें पोंछते हुए उठ खड़ी हुईं. फिर बोली, ‘‘देख मुझे पता है कि तू भी अपनी मां के पास आ गई है, पति को छोड़ कर. पर सुन इज्जत की जिंदगी जीनी है तो अपना घर न छोड़ वरना मेरी तरह पछताएगी.’’ अलका दीदी की बात सुन कर रचना किंकर्तव्यविमूढ़ हो गई. यह एक भयानक सच था. उसे लगा कि राजेश और उस के बीच जरा सी तकरार ही तो हुई है. राजेश ने किसी छोटी से गलती पर उसे चांटा मार दिया था, पर बाद में माफी भी मांग ली थी. फिर रचना की मां ने भी उसे समझाया था कि ऐसे घर नहीं छोड़ते. उस ने तुझ से माफी भी मांग ली है. वापस चली जा. रचना सोच रही थी कि अगर कल को उस के भैयाभाभी भी आलोक की तरह उस के बेटे के साथ दुर्व्यवहार करेंगे तो क्या पता मेरे साथ भी दीदी जैसा ही कुछ होगा… फिर नहीं… नहीं… कह कर रचना ने घबरा कर आंखें बंद कर लीं और थोड़ी देर बाद हीपैकिंग करने लगी. अपने घर… यानी राजेश के घर जाने के लिए. उसे बंद खिड़की को खोलना था, जिसे उस ने दंभवश बंद कर दिया था. बारबार उन के कानों में अलका दीदी की यह बात गूंज रही थी कि रचना इज्जत से रहना चाहती हो तो घर अपना घर कभी न छोड़ना.

जिंदगी जीने का हक : केशव के मन में उठी थी कैसी ललक

प्रणव तो प्रिया को पसंद था ही लेकिन उस से भी ज्यादा उसे अपनी ससुराल पसंद आई थी. हालांकि संयुक्त परिवार था पर परिवार के नाम पर एक विधुर ससुर और 2 हमउम्र जेठानियां थीं. बड़ी जेठानी जूही तो उस की ममेरी बहन थी और उसी की शादी में प्रणव के साथ उस की नोकझोक हुई थी. प्रणव ने चलते हुए कहा था, ‘‘2-3 साल सब्र से इंतजार करना.’’

‘‘किस का? आप का?’’

‘‘जी नहीं, जूही भाभी का. घर की बड़ी तो वही हैं, सो वही शादी का प्रस्ताव ले कर आएंगी,’’ प्रणव मुसकराया, ‘‘अगर उन्होंने ठीक समझा तो.’’

‘‘यह बात तो है,’’ प्रिया ने गंभीरता से कहा, ‘‘जूही दीदी, मुझे बहुत प्यार करती हैं और मेरे लिए तो सबकुछ ही ठीक चाहेंगी.’’

प्रणव ने कहना तो चाहा कि प्यार तो वह अब हम से भी बहुत करेंगी और हमारे लिए किसे ठीक समझती हैं यह तो वक्त ही बताएगा लेकिन चुप रहा. क्या मालूम बचपन से बगैर औरत के घर में रहने की आदत है, भाभी के साथ तालमेल बैठेगा भी या नहीं.

अभिनव के लिए लड़की देखने से पहले ही केशव ने कहा था, ‘‘इतने बरस तक यह मकान एक रैन बसेरा था लेकिन अभिनव की शादी के बाद यह घर बनेगा और इस में हम सब को सलीके से रहना होगा, ढंग के कपड़े पहन कर. मैं भी लुंगीबनियान में नहीं घूमूंगा और अभिनव, प्रभव, प्रणव, तुम सब भी चड्डी के बजाय स्लीपिंग सूट या कुरतेपाजामे खरीदो.’’

‘‘जी, पापा,’’ सब ने कह तो दिया था लेकिन मन ही मन डर भी रहे थे कि पापा का एक भरेपूरे घर का सपना वह पूरा कर सकेंगे कि नहीं.

केशव मात्र 30 वर्ष के थे जब उन की पत्नी क्रमश: 6 से 2 वर्ष की आयु के 3 बेटों को छोड़ कर चल बसी थी. सब के बहुत कहने के बावजूद उन्होंने दूसरी शादी के लिए दृढ़ता से मना कर दिया था.

वह चार्टर्ड अकाउंटेंट थे. उन्होंने घर में ही आफिस खोल लिया ताकि हरदम बच्चों के साथ रहें और नौकरों पर नजर रख सकें. बच्चों को कभी उन्होंने अकेलापन महसूस नहीं होने दिया. आवश्यक काम वह उन के सोने के बाद देर रात को निबटाया करते थे. उन की मेहनत और तपस्या रंग लाई. बच्चे भी बड़े सुशील और मेधावी निकले और उन की प्रैक्टिस भी बढ़ती रही. सब से अच्छा यह हुआ कि तीनों बच्चों ने पापा की तरह सीए बनने का फैसला किया. अभिनव के फाइनल परीक्षा पास करते ही केशव ने ‘केशव नारायण एंड संस’ के नाम से शहर के व्यावसायिक क्षेत्र में आफिस खोल लिया. अभिनव के लिए रिश्ते आने लगे थे. केशव की एक ही शर्त थी कि उन्हें नौकरीपेशा नहीं पढ़ीलिखी मगर घर संभालने वाली बहू चाहिए और वह भी संयुक्त परिवार की लड़की, जिसे देवरों और ससुर से घबराहट न हो.

जूही के आते ही मानो घर में बहार आ गई. सभी बहुत खुश और संतुष्ट नजर आते थे लेकिन केशव अब प्रभव की शादी के लिए बहुत जल्दी मचा रहे थे. प्रभव ने कहा भी कि उसे इत्मीनान से परीक्षा दे लेने दें और वैसे भी जल्दी क्या है, घर में भाभी तो आ ही गई हैं.

‘‘तभी तो जल्दी है, जूही सारा दिन घर में अकेली रहती है. लड़की हमें तलाश करनी है और तैयारी भी हमें ही करनी है. तुम इत्मीनान से अपनी परीक्षा की तैयारी करते रहो. शादी परीक्षा के बाद करेंगे. पास तो तुम हो ही जाओगे.’’

अपने पास होने में तो प्रभव को कोई शक था ही नहीं सो वह बगैर हीलहुज्जत किए सपना से शादी के लिए तैयार हो गया. लेकिन हनीमून से लौटते ही यह सुन कर वह सकते में आ गया कि पापा प्रणव की शादी की बात कर रहे हैं.

‘‘अभी इसे फाइनल की पढ़ाई इत्मीनान से करने दीजिए, पापा. शादीब्याह की चर्चा से इस का ध्यान मत बटाइए,’’ प्रभव ने कहा, ‘‘भाभी की कंपनी के लिए सपना आ ही गई है तो इस की शादी की क्या जल्दी है?’’

‘‘यही तो जल्दी है कि अब इस की कोई कंपनी नहीं रही घर में,’’ केशव ने कहा.

‘‘क्या बात कर रहे हैं पापा?’’ प्रभव हंसा, ‘‘जब देखिए तब मैरी के लिटिल लैंब की तरह भाभी से चिपका रहता है और अब तो सपना भी आ गई है बैंड वैगन में शामिल होने को.’’

सपना हंसने लगी.

‘‘लेकिन देवरजी, भाभी के पीछे क्यों लगे रहते हैं यह तो पूछिए उन से.’’

‘‘जूही मुझे बता चुकी है सपना, प्रणव को इस की ममेरी बहन प्रिया पसंद है, सो मैं ने इस से कह दिया है कि अपने ननिहाल जा कर बात करे,’’ कह कर केशव चले गए.

‘‘जब बापबेटा राजी तो तुम क्या करोगे प्रभव पाजी?’’ अभिनव हंसा, ‘‘काम तो इस ने पापा के साथ ही करना है. पहली बार में पास न भी हुआ तो चलेगा लेकिन जूही, तुम्हारे मामाजी तैयार हो जाएंगे अधकचरी पढ़ाई वाले लड़के को लड़की देने को?’’

‘‘आप ने स्वयं तो कहा है कि देवरजी को काम तो पापा के साथ ही करना है सो यही बात मामाजी को समझा देंगे. प्रिया का दिल पढ़ाई में तो लगता नहीं है सो करनी तो उस की शादी ही है इसलिए जितनी जल्दी हो जाए उतना ही अच्छा है मामाजी के लिए.’’

जल्दी ही प्रिया और प्रणव की शादी भी हो गई. कुछ लोगों ने कहा कि केशव जिम्मेदारियों से मुक्त हो गए और कुछ लोगों की यह शंका जाहिर करने पर कि बच्चों के तो अपनेअपने घरसंसार बस गए, केशव के लिए अब किस के पास समय होगा और वह अकेले पड़ जाएंगे, अभिनव बोला, ‘‘ऐसा हम कभी होने नहीं देंगे और होने का सवाल भी नहीं उठता क्योंकि रोज सुबह नाश्ता कर के सब इकट्ठे ही आफिस के लिए निकलते हैं और रात को इकट्ठे आ कर खाना खाते हैं, उस के बाद पापा तो टहलने जाते हैं और हम लोग टीवी देखते हैं, कभीकभी पापा भी हमारे साथ बैठ जाते हैं. रविवार को सब देर से सो कर उठते हैं, इकट्ठे नाश्ता करते हैं…’’

‘‘फिर सब का अलगअलग कार्यक्रम रहता है,’’ केशव ने अभिनव की बात काटी, ‘‘यह सिलसिला कई साल से चल रहा है और अब भी चलेगा, फर्क सिर्फ इतना होगा कि अब मैं भी छुट्टी का दिन अपनी मर्जी से गुजारा करूंगा. पहले यह सोच कर खाने के समय पर घर पर रहता था कि तुम में से जो बाहर नहीं गया है वह क्या खाएगा लेकिन अब यह देखने को सब की बीवियां हैं, सो मैं भी अब छुट्टी के रोज अपनी उमर वालों के साथ मौजमस्ती और लंचडिनर बाहर किया करूंगा.’’

‘‘बिलकुल, पापा, बहुत जी लिए… आप हमारे लिए. अब अपनी पसंद की जिंदगी जीने का आप को पूरा हक है,’’ प्रणव बोला.

‘‘लेकिन इस का यह मतलब नहीं है कि पापा बाहर लंचडिनर कर के अपनी सेहत खराब करें,’’ प्रभव ने कहा, ‘‘हम में से कोई तो घर पर रहा करेगा ताकि पापा जब घर आएं तो उन्हें घर खाली न मिले.’’

‘‘हम इस बात का खयाल रखेंगे,’’ जूही बोली, ‘‘वैसे भी हर सप्ताह सारा दिन बाहर कौन रहेगा?’’

‘‘और कोई रहे न रहे मैं तो रहा करूंगा भई,’’ केशव हंसे.

‘‘यह तो बताएंगे न पापा कि जाएंगे कहां?’’ प्रणव ने पूछा.

‘‘कहीं भी जाऊं, मोबाइल ले कर जाऊंगा, तुझे अगर मेरी उंगली की जरूरत पड़े तो फोन कर लेना,’’ केशव प्रिया की ओर मुड़े, ‘‘प्रिया बेटी, इसे अब अपना पल्लू थमा ताकि मेरी उंगली छोड़े.’’

लेकिन कुछ रोज बाद प्रिया ने खुद ही उन की उंगली थाम ली. एक रोज जब रात के खाने के बाद वह घूमने जा रहे थे तो प्रिया भागती हुई आई बोली, ‘‘पापाजी, मैं भी आप के साथ घूमने चलूंगी.’’

‘‘क्यों?’’

‘‘क्योंकि आप सड़क पर अकेले घूमते हैं और मैं छत पर तो क्यों न हम दोनों साथ ही टहलें?’’ प्रिया ने उन के साथ चलते हुए कहा.

‘‘मगर तुम छत पर अकेली क्यों घूमती हो?’’

‘‘और क्या करूं पापाजी? प्रणव को तो 2-3 घंटे पढ़ाई करनी होती है और मुझे रोशनी में नींद नहीं आती, सो जब तक टहलतेटहलते थक नहीं जाती तब तक छत पर घूमती रहती हूं.’’

‘‘टीवी क्यों नहीं देखतीं?’’

‘‘अकेले क्या देखूं, पापाजी? सब लोग 1-2 सीरियल देखने तक रुकते हैं फिर अपनेअपने कमरों में चले जाते हैं.’’

‘‘अब तो बस कुछ ही महीने रह गए हैं प्रणव की परीक्षा में,’’ केशव ने दिलासे के स्वर में कहा, ‘‘तुम चाहो तो इस दौरान मायके हो आओ.’’

‘‘नहीं, पापाजी, उस की जरूरत नहीं है. बस, रात को यह थोड़ा सा वक्त अकेले गुजारना मुश्किल हो जाता है लेकिन अब इस समय आप के साथ घूमा करूंगी, गपें मारते हुए.’’

‘‘मैं बहुत तेज चलता हूं. थक जाओगी.’’

‘‘चलिए, देखते हैं.’’

कुछ दूर जाने के बाद, एक कौटेज में से एक प्रौढ़ महिला निकलती हुई दिखाई दीं. प्रिया पहचान गई. मालिनी नामबियार थीं, जो उस की शादी की दावत में आई थीं तब पापाजी ने बताया था कि ये सब भाई आज जो कुछ भी हैं मालिनीजी की कृपा से हैं. यह इन की गणित की अध्यापिका और स्कूल की प्राचार्या हैं, बहुत मेहनत की है इन्होंने इन सब पर.

मगर पापाजी ने जिस कृतज्ञता से आभार प्रकट किया था, किसी भी भाई ने मालिनीजी की खातिर में उतनी रुचि नहीं दिखाई थी.

उन्हें देख कर मालिनीजी रुक गईं. पापाजी ने उस का परिचय करवाया. मालिनीजी भी उन के साथ टहलते हुए प्रिया से बातें करने लगीं. कुछ देर के बाद केशव को टांगें घसीटते देख कर बोलीं, ‘‘थक गए? चलिए, कौफी पी जाए.’’

‘‘मगर कौफी यहां कहां मिलेगी?’’ प्रिया ने पूछा.

‘‘मेरे घर पर.’’

प्रिया ने केशव की ओर देखा, वह बगैर कुछ कहे मालिनी के पीछे उस के घर में चले गए. जब मालिनीजी कौफी लाने अंदर गईं तो प्रिया ने पूछा, ‘‘आप पहले भी यहां आ चुके हैं, पापा?’’

केशव सकपकाए.

‘‘बच्चों की पढ़ाई के सिलसिले में आना पड़ता था. इसी तरह जानपहचान हो गई तो आनाजाना बना हुआ है.’’

‘‘आंटी ने शादी नहीं की?’’

‘‘अभी तक तो नहीं.’’

प्रिया ने कहना चाहा कि अब इस उम्र में क्या करेंगी लेकिन तब तक मालिनीजी कौफी की ट्रौली धकेलती हुई आ गईं. जितनी जल्दी वह कौफी लाई थीं उस से लगता था कि तैयारी पहले से थी. प्रिया को कच्चे केले के चिप्स बहुत पसंद आए.

‘‘किसी छुट्टी के दिन आ जाना, बनाना सिखा दूंगी,’’ मालिनी ने कहा.

‘‘तरीका बता देने से भी चलेगा, आंटी. अब तो रोज घूमते हुए आप से मुलाकात हुआ करेगी सो किसी रोज पूछ लूंगी,’’ प्रिया ने चिप्स खाते हुए कहा.

मालिनी ने चौंक कर उस की ओर देखा.

‘‘तुम रोज सैर करने आया करोगी?’’

‘‘हां, आंटी?’’

‘‘अरे, नहीं, 2 रोज में ऊब जाएगी,’’ केशव हंसे.

‘‘नहीं, पापाजी. ऊबी तो अकेले छत पर टहलते हुए हूं.’’

‘‘तुम छत पर अकेली क्यों टहलती हो?’’ मालिनी ने भौंहें चढ़ा कर पूछा.

जवाब केशव ने दिया कि प्रणव परीक्षा की तैयारी के लिए रात को देर तक पढ़ता है और तब तक समय गुजारने को यह टहलती रहती है. टीवी कब तक देखे और उपन्यास पढ़ने का इसे शौक नहीं है.

‘‘मगर प्रणव रात को क्यों पढ़ता है?’’

‘‘सुबह जल्दी उठ कर पढ़ने की उसे आदत नहीं है और दिन में आफिस जाता है,’’ केशव ने बताया.

‘‘आफिस में 5 बजे के बाद आप सब मुवक्किल से मिल कर उन की समस्याएं सुनते हो न?’’ मालिनीजी ने पूछा, ‘‘अगर चंद महीने प्रणव वह समस्याएं न सुने तो कुछ फर्क पड़ेगा क्या? काम तो उसे वही करना है जो आप बताओगे. सो कल से उसे 5 बजे से पढ़ने की छुट्टी दे दो ताकि रात को मियांबीवी समय से सो सकें.’’

‘‘यह तो है…’’

‘‘तो फिर कल से ही प्रणव को स्टडी लीव दो ताकि किसी का भी रुटीन खराब न हो,’’ मालिनीजी का स्वर आदेशात्मक था, होता भी क्यों न, प्राचार्य थीं.

प्रिया ने सिटपिटाए से केशव को देख कर मुश्किल से हंसी रोकी.

‘‘हां, यही ठीक रहेगा. लाइबे्ररी तो आफिस में ही है. वहीं से किताबें ला कर घर पर पढ़ता है, कल कह दूंगा कि दिन भर लाइबे्ररी में बैठ कर पढ़ता रहे, कुछ जरूरी काम होगा तो बुला लूंगा,’’ केशव बोले.

लौटते हुए केशव ने प्रिया से कहा कि वह प्रणव को न बताए कि मालिनीजी ने उस की स्टडी लीव की सिफारिश की है, नहीं तो चिढ़ जाएगा.

‘‘टीचर से सभी बच्चे चिढ़ते हैं और स्कूल छोड़ने के बाद तो उन की हर बात हस्तक्षेप लगती है.’’

‘‘यह बात तो है, पापाजी. वैसे यह बताने की भी जरूरत नहीं है कि हम मालिनीजी से मिले थे,’’ प्रिया ने केशव को आश्वस्त किया.

अगले रोज से प्रणव ने रात को पढ़ना छोड़ दिया. प्रिया ने मन ही मन मालिनीजी को धन्यवाद दिया. जिस रोज प्रणव की परीक्षा खत्म हुई, रात के खाने के बाद केशव ने उस से पूछा, ‘‘अब क्या इरादा है, कहीं घूमने जाओगे?’’

‘‘जाना तो है पापा, लेकिन रिजल्ट निकलने के बाद.’’

‘‘तो फिर कल मुझ से पूरा काम समझ लो, वैसे तो तुम सब संभाल ही लोगे फिर भी कुछ समस्या हो तो इन दोनों से पूछ लेना,’’ केशव ने अभिनव और प्रभव की ओर देखा, ‘‘तुम लोगों के पास वैसे तो अपना बहुत काम है लेकिन इसे कुछ परेशानी हो तो वक्त निकाल कर देख लेना, कुछ ही दिनों की बात है. मैं जल्दी आने की कोशिश करूंगा.’’

‘‘आप कहीं जा रहे हैं, पापा?’’ सभी ने एकसाथ चौंक कर पूछा.

‘‘हां, कोच्चि,’’ केशव मुसकराए, ‘‘शादी करने और फिर हनीमून…’’

‘‘शादी और आप… और वह भी अब?’’ अभिनव ने बात काटी, ‘‘जब करने की उम्र थी तब तो करी नहीं.’’

‘‘क्योंकि तब तुम सब को संभालना था. अब तुम्हें संभालने वालियां आ गई हैं तो मैं भी खुद को संभालने वाली ला सकता हूं. कोच्चि के नाम पर समझ ही गए होंगे कि मैं मालिनी की बात कर रहा हूं,’’ कह कर केशव रोज की तरह घूमने चले गए.

‘‘अगर पापा कोच्चि का नाम न लेते तो भी मैं समझ जाता कि किस की बात कर रहे हैं,’’ प्रभव ने दांत पीसते हुए कहा, ‘‘वह औरत हमेशा से ही हमारी मां बनने की कोशिश में थी. मैं ने आप को बताया भी था भैया और आप ने कहा था कि आप इस घर में उस की घुसपैठ कभी नहीं होने देंगे.’’

‘‘तो होने दी क्या?’’ अभिनव ने चिढ़े स्वर में पूछा, ‘‘वह हमारे घर न आए इसलिए कभी अपनी या तुम्हारे जन्मदिन की दावत नहीं होने दी. हालांकि त्योहार के दिन किसी रिश्तेदार के घर जाना मुझे बिलकुल पसंद नहीं था लेकिन उस औरत से बचने के लिए मैं बारबार बूआ या मौसी के घर जाने की जलालत भी झेल लेता था. अगर पता होता कि हमारी शादी के बाद वह हमारी मां की जगह ले लेगी तो मैं न अपनी शादी करता न तुम्हें करने देता.’’

‘‘लेकिन अब तो हम सब की शादी हो गई है और पापा अपनी करने जा रहे हैं,’’ प्रणव बोला.

‘‘हम जाने देंगे तब न? हम अपनी मां की जगह उस औरत को कभी नहीं लेने देंगे,’’ प्रभव बोला.

‘‘सवाल ही नहीं उठता,’’ अभिनव ने जोड़ा.

‘‘मगर करोगे क्या? अपनी शादियां खारिज?’’ प्रणव ने पूछा.

‘‘उस से कुछ फर्क नहीं पड़ेगा,’’ जूही बोली, ‘‘क्योंकि पापाजी की जिम्मेदारी आप लोगों को सुव्यवस्थित करने तक थी, जो उन्होंने बखूबी पूरी कर दी. अब अगर आप उस में कुछ फेरबदल करना चाहते हो तो वह आप की अपनी समस्या है. उस से पापाजी को कुछ लेनादेना नहीं है.’’

‘‘उस सुव्यवस्था में फेरबदल हम नहीं पापा कर रहे हैं और वह हम करने नहीं देंगे,’’ अभिनव ने कहा.

‘‘मगर कैसे?’’ प्रणव ने पूछा.

‘‘कैसे भी, सवाल मत कर यार, सोचने दे,’’ प्रभव झुंझला कर बोला. फिर सोचने और सुझावों की प्रक्रिया बहस में बदल गई और बहस झगड़े में बदलती तब तक केशव आ गए, वह बहुत खुश लग रहे थे.

‘‘अच्छा हुआ तुम सब यहीं मिल गए. मैं और मालिनी परसों कोच्चि जा रहे हैं, शादी तो बहुत सादगी से करेंगे मगर यहां रिसेप्शन में तो तुम लोग सादगी चलने नहीं दोगे,’’ केशव हंसे, ‘‘खैर, मैं तुम लोगों को अपनी मां के स्वागत की तैयारी के लिए काफी समय दे दूंगा.’’

‘‘मगर पापा…’’

‘‘अभी मगरवगर कुछ नहीं, अभिनव. मैं अब सोने या यह कहो सपने देखने जा रहा हूं,’’ यह कहते हुए केशव अपने कमरे में चले गए.

‘‘पापाजी बहुत खुश हैं,’’ जूही ने कहा, ‘‘मुझे नहीं लगता वह आप के कहने से अपना इरादा बदलेंगे.’’

‘‘आप ठीक कहती हैं सो बदलने को कह कर हमें उन की खुशी में खलल नहीं डालना चाहिए,’’ सपना बोली.

‘‘और चुपचाप उन्हें अपनी मां की जगह उस औरत को देते हुए देखते रहना चाहिए?’’ अभिनव ने तिक्त स्वर में पूछा.

‘‘उन मां की जगह जिन की शक्ल भी आप को या तो धुंधली सी याद होगी या जिन्हें आप तसवीर के सहारे पहचानते हैं? उन की खातिर आप उन पापाजी की खुशी छीन रहे हैं जो अपनी भावनाओं और खुशियों का गला घोंट कर हर पल आप की आंखों के सामने रहे ताकि आप को आप की मां की कमी महसूस न हो?’’ अब तक चुप बैठी प्रिया ने पूछा, ‘‘महज इसलिए न कि मालिनीजी आप की टीचर थीं और उन्हें या उन के अनुशासन को ले कर आप सब पूर्वाग्रह से ग्रस्त हैं?’’

कोई कुछ नहीं बोला.

‘‘जूही दीदी, सपना भाभी, सास के आने से सब से ज्यादा समस्या हमें ही आएगी न?’’ प्रिया ने पूछा, ‘‘क्या पापाजी की खुशी की खातिर हम वह बरदाश्त नहीं कर सकतीं?’’

‘‘पापाजी को अपनी जिंदगी अपने तरीके से जीने का पूरा हक है और हम उन के लिए कुछ भी सह सकती हैं,’’ सपना बोली.

‘‘सहना तब जब कोई समस्या आएगी,’’ जूही ने उठते हुए कहा, ‘‘फिलहाल तो चल कर इन सब का मूड ठीक करो ताकि कल से यह भी पापाजी की खुशी में शामिल हो सकें.’’

तीनों भाइयों ने मुसकरा कर एकदूसरे को देखा, कहने को अब कुछ बचा ही नहीं था.

अनोखा रिश्ता: कौन थी मिसेज दास

family story in hindi

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें