‘‘मौसी की बेटी मंजू विदा हो चुकी थी. सुबह के 8 बज गए थे. सभी मेहमान सोए थे. पूरा घर अस्तव्यस्त था. लेकिन मंजू की बड़ी बहन अलका दीदी जाग गई थीं और घर में बिखरे बरतनों को इकट्ठा कर के रसोई में रख रही थीं.

अलका को काम करता देख रचना, जो उठने  की सोच रही थी ने पूछा, ‘‘अलका दीदी क्या समय हुआ है?’’

‘‘8 बज रहे हैं.’’

‘‘आप अभी से उठ गईं? थोड़ी देर और आराम कर लेतीं. बहन के ब्याह में आप पूरी रात जागी हो. 4 बजे सोए थे हम सब. आप इतनी जल्दी जाग गईं… कम से कम 2 घंटे तो और सो लेतीं.

अलका मायूस हंसी हंसते हुए बोलीं, ‘‘अरे, हमारे हिस्से में कहां नींद लिखी है. घंटे भर में देखना, एकएक कर के सब लोग उठ जाएंगे और उठते ही सब को चायनाश्ता चाहिए. यह जिम्मेदारी मेरे हिस्से में आती है. चल उठ जा, सालों बाद मिली है. 2-4 दिल की बातें कर लेंगी. बाद में तो मैं सारा दिना व्यस्त रहूंगी. अभी मैं आधा घंटा फ्री हूं.’’ रचना अलका दीदी के कहने पर झट से बिस्तर छोड़ उठ गई. यह सच था कि दोनों चचेरी बहनें बरसों बाद मिली थीं. पूरे 12 साल बाद अलका दीदी को उस ने ध्यान से देखा था. इस बीच न जाने उन पर क्याक्या बीती होगी.

उस ने तो सिर्फ सुना ही था कि दीदी ससुराल छोड़ कर मायके रहने आ गई हैं. वैसे तो 1-2 घंटे के लिए कई बार मिली थीं वे पर रचना ने कभी इस बारे में खुल कर बात नहीं की थी. गरमी की छुट्टियों में अकसर अलका दीदी दिल्ली आतीं तो हफ्ता भर साथ रहतीं. खूब बनती थी दोनों की. पर सब समय की बात थी. रचना फ्रैश हो कर आई तो देखा अलका दीदी बरामदे में कुरसी पर अकेली बैठी थीं.

‘‘आ जा यहां… अकेले में गप्पें मारेंगे…. एक बार बचपन की यादें ताजा कर लें,’’ अलका दीदी बोलीं और फिर दोनों चाय की चुसकियां लेने लगीं.

‘‘दीदी, आप के साथ ससुराल वालों ने ऐसा क्या किया कि आप उन्हें छोड़ कर हमेशा के लिए यहां आ गईं?’’

‘‘रचना, तुझ से क्या छिपाना. तू मेरी बहन भी है और सहेली भी. दरअसल, मैं ही अकड़ी हुई थी. पापा की सिर चढ़ी लाडली थी, अत: ससुराल वालों की कोई भी ऐसी बात जो मुझे भली न लगती, उस का जवाब दे देती थी. उस पर पापा हमेशा कहते थे कि वे 1 कहें तो तू 4 सुनाना. पापा को अपने पैसे का बड़ा घमंड था, जो मुझ में भी था.’’

दीदी ने चाय का घूंट लेते हुए आगे कहा, ‘‘गलती तो सब से होती है किंतु मेरी गलती पर कोई मुझे कुछ कहे मुझे सहन न था. बस मेरा तेज स्वभाव ही मेरा दुश्मन बन गया.’’

चाय खत्म हो गई थी. दीदी के दुखों की कथा अभी बाकी थी. अत: आगे बोलीं, ‘‘मेरे सासससुर समझाते कि बेटा इतनी तुनकमिजाजी से घर नहीं चलते. मेरे पति सुरेश भी मेरे इस स्वभाव से दुखी थे. किंतु मुझे किसी की परवाह न थी. 1 वर्ष बाद आलोक का जन्म हुआ तो मैं ने कहा कि 40 दिन बाद मैं मम्मीपापा के घर जाऊंगी. यहां घर ठंडा है, बच्चे को सर्दी लग जाएगी.’’ मैं दीदी का चेहरा देख रही थी. वहां खुद के संवेगों के अलावा कुछ न था.

‘‘मैं जिद कर के मायके आ गई तो फिर नहीं गई. 6 महीने, 1 वर्ष… 2 वर्ष… जाने कितने बरस बीत गए. मुझे लगा, एक न एक दिन वे जरूर आएंगे, मुझे लेने. किंतु कोई न आया. कुछ वर्ष बाद पता लगा सुरेश ने दूसरा विवाह कर लिया है,’’ और फिर अचानक फफकफफक कर रोने लगीं. मैं 20 वर्ष पूर्व की उन दीदी को याद कर रही थी जिन पर रूपसौंदर्य की बरसात थी. हर लड़का उन से दोस्ती करने को लालायित रहता था. किंतु आज 35 वर्ष की उम्र में 45 की लगती हैं. इसी उम्र में चेहरा झुर्रियों से भर गया था.

मुझे अपलक उन्हें देखते काफी देर हो गई, तो वे बोलीं, ‘‘मेरे इस बूढ़े शरीर को देख रही हो… लेकिन इस घर में मेरी इज्जत कोई नहीं करता. देखती नहीं मेरे भाइयों और भाभियों को? वे मेरे बेटे आलोक और मुझे नौकरों से भी बदतर समझते हैं. पहले सब ठीक था. पापा के जाते ही सब बदल गए. भाभियों की घिसी साडि़यां मेरे हिस्से आती हैं तो भतीजों की पुरानी पैंटकमीजें मेरे बेटे को मिलती हैं. इन के बच्चे पब्लिक स्कूलों में पढ़ते हैं और मेरा बेटा सरकारी स्कूल में. 15 वर्ष का है आलोक 7वीं में ही बैठा है. 3 बार 7वीं में फेल हो चुका है. अब क्या कहूं,’’ और दीदी ने साड़ी के किनारे से आंखें पोंछ कर धीरे से आगे कहा, ‘‘भाई अपने बेटों के नाम पर जमीन पर जमीन खरीदते जा रहे हैं, पर मेरे बेटे के लिए क्या है? कुछ नहीं. घर के सारे लोग गरमी की छुट्टियों में घूमने जाते हैं और हम यहां बीमार मम्मी की सेवा और घर की रखवाली करते हैं.

‘‘तू तो अपनी है, तुझ से क्या छिपाऊं… जवान जोड़ों को हाथ में हाथ डाल कर घूमते देखती हूं तो मनमसोस कर रह जाती हूं.’’

मैं दीदी को अवाक देख रही थी, किंतु वे थकी आवाज में कह रही थीं, ‘‘रचना, आज मैं बंद कमरे का वह पक्षी हूं जिस ने अपने पंखों को स्वयं कमरे की दीवारों से टक्कर मार कर तोड़ा है. आज मैं एक खाली बरतन हूं, जिसे जो चाहे पैर से मार कर इधर से उधर घुमा रहा है…’’  आज मैं अकेलेपन का पर्याय बन कर रह गई हूं.’’

दीदी का रोना देखा न जाता था, किंतु आज मैं उन्हें रोकना नहीं चाहती थी. उन के मन में जो था, उसे बह जाने देना चाहती थी. थोड़ी देर चुप रहने के बाद अलका दीदी आगे बोलीं, ‘‘सच तो यह है कि मेरी गलती की सजा मेरा बेटा भी भुगत रहा है… मैं उसे वह सब न दे पाई जिस का वह हकदार था… न पिता का प्यार न सुखसुविधाओं वाला जीवन… कुछ भी तो न मिला. सोचती हूं आखिर मैं ने यह क्या कर डाला? अपने साथ उसे भी बंद गली में ले आई… क्यों मैं ने उस की खुशियों की खिड़की बंद कर दी,’’ और फिर दीदी की रुलाई फूट पड़ी. उन का रोना सुन कर 2-3 रिश्तेदार भी आ गए. पर अच्छा हुआ जो तभी बूआ ने किचन से आवाज लगा दी, ‘‘अरी अलका, आ जल्दी… आलू उबल गए हैं.’’

दीदी साड़ी के पल्लू से अपनी आंखें पोंछते हुए उठ खड़ी हुईं. फिर बोली, ‘‘देख मुझे पता है कि तू भी अपनी मां के पास आ गई है, पति को छोड़ कर. पर सुन इज्जत की जिंदगी जीनी है तो अपना घर न छोड़ वरना मेरी तरह पछताएगी.’’ अलका दीदी की बात सुन कर रचना किंकर्तव्यविमूढ़ हो गई. यह एक भयानक सच था. उसे लगा कि राजेश और उस के बीच जरा सी तकरार ही तो हुई है. राजेश ने किसी छोटी से गलती पर उसे चांटा मार दिया था, पर बाद में माफी भी मांग ली थी. फिर रचना की मां ने भी उसे समझाया था कि ऐसे घर नहीं छोड़ते. उस ने तुझ से माफी भी मांग ली है. वापस चली जा. रचना सोच रही थी कि अगर कल को उस के भैयाभाभी भी आलोक की तरह उस के बेटे के साथ दुर्व्यवहार करेंगे तो क्या पता मेरे साथ भी दीदी जैसा ही कुछ होगा… फिर नहीं… नहीं… कह कर रचना ने घबरा कर आंखें बंद कर लीं और थोड़ी देर बाद हीपैकिंग करने लगी. अपने घर… यानी राजेश के घर जाने के लिए. उसे बंद खिड़की को खोलना था, जिसे उस ने दंभवश बंद कर दिया था. बारबार उन के कानों में अलका दीदी की यह बात गूंज रही थी कि रचना इज्जत से रहना चाहती हो तो घर अपना घर कभी न छोड़ना.

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