एक नई दिशा: क्या वसुंधरा अपने फैसले पर अडिग रह सकी?

पोस्टमैन के जाते ही वसुंधरा ने जैसे ही लिफाफा खोला वह खुशी से उछल पड़ी और जोर से आवाज लगा कर मां को बुलाने लगी.

मां गायत्री ने कमरे में प्रवेश करते हुए घबरा कर पूछा, ‘‘क्यों, क्या

हो गया?’’

‘‘मां, आप की बेटी बैंक में अफसर बन गई. यह देखो, मेरा नियुक्तिपत्र आया है,’’ और इसी के साथ वसुंधरा मां से लिपट गई.

‘‘क्या…’’ कहने के साथ गायत्री का मुंह विस्मय से खुला का खुला रह गया.

‘‘मां, मैं न कहती थी कि मैं एक दिन अपने पैरों पर खड़े हो कर दिखाऊंगी. बस, आप मुझे सहयोग दो. देखो, मां, आज वह दिन आ गया,’’ वसुंधरा भावुक हो कर बोली.

मां की आंखों से खुशी के छलकते आंसू पोंछते हुए उस ने गले में चुन्नी डाली और बैग उठाते हुए बोली, ‘‘मां, मैं ममता मैडम के घर जा रही हूं, उन्हें अपना नियुक्तिपत्र दिखाने. मैडम कालिज से अब वापस आ चुकी होंगी.’’

वसुंधरा का बस चलता तो वह उड़ कर ममता मैडम के पास चली जाती, जो बी.एससी. में पहले साल से ले कर तीसरे साल तक उस को फिजिक्स पढ़ाती रहीं और उस का मार्गदर्शन भी करती रहीं. आज खुशी का यह दिन उन के मार्गदर्शन का ही नतीजा है.

वसुंधरा को याद हैं अतीत के वे दिन जब प्राइमरी स्कूल के अध्यापक और 4 बेटियों के पिता दीनानाथ को अपनी बेटी वसुंधरा का सदैव अपनी कक्षा में प्रथम आना भी कोई तसल्ली नहीं दे पा रहा था. उन्होंने हड़बड़ाहट में उस का विवाह वहां तय कर दिया जहां के बारे में वसुंधरा कभी सोच भी नहीं सकती थी. वह भी उस समय जब वह बी.एससी. द्वितीय वर्ष में थी.

राजू उस की सहेली मंजू की मौसी का लड़का था. मंजू ने उस के बारे में सबकुछ बता दिया था. अपार संपत्ति ने राजू को गैरजिम्मेदार ही नहीं विवेकहीन भी बना दिया था. कोई ऐसा व्यसन न था जिस का वह आदी न हो. बड़ों का सम्मान करना तो वह जानता ही न था.

वसुंधरा को यह जान कर घोर आश्चर्य और दुख हुआ कि राजू के बारे में सबकुछ जानने के बाद भी उस के पिता वहां उस के रिश्ते की बात चला रहे हैं.

‘पिताजी, मैं अभी शादी नहीं करना चाहती और उस लड़के से तो हरगिज नहीं जिस से आप मेरा रिश्ता करना चाहते हैं,’ वसुंधरा ने पिता से स्पष्ट शब्दों में अपने विचार रखते हुए कहा.

‘तुम कौन होती हो यह फैसला लेने वाली? मैं पिता हूं और यह मेरा अधिकार व जिम्मेदारी है कि मैं तुम्हारा विवाह समय से कर दूं,’ दीनानाथ गरजते हुए बोले.

‘पिताजी, मैं अभी पढ़ना चाहती हूं, जिंदगी में कुछ बनना चाहती हूं,’ वसुंधरा गिड़गिड़ाते हुए बोली.

‘तुम्हारी 3 बहनें और भी हैं. मुझे उन के बारे में भी सोचना है.’

‘वसु, तू तो हमारी स्थिति जानती है बेटी, वह एक संपन्न और प्रतिष्ठित परिवार है, फिर उन्होंने खुद ही तेरा हाथ मांगा है. तू खुद सोच, हम कैसे मना कर दें,’ मां ने वसुंधरा को प्यार से समझाते हुए कहा.

‘अरे, जवानी में थोड़ी नासमझी तो सभी दिखाते हैं लेकिन परिवार की जिम्मेदारी पड़ते ही सब ठीक हो जाते हैं,’ दीनानाथ ने लड़के का बचाव करते हुए कहा.

‘पिताजी, वह  खुद अपनी जिम्मे- दारी उठाने के काबिल तो है नहीं, फिर परिवार की जिम्मेदारी क्या उठाएगा?’ वसुंधरा ने आवेश में आ कर कहा.

‘खामोश…अपने पिता से बात करने की तमीज भी भूल गई. मैं ने फैसला ले लिया है, तुम्हारा विवाह वहीं होगा,’ दीनानाथ चिल्लाते हुए बोले.

वसुंधरा समझ गई कि उस के विरोध का कोई फायदा नहीं है. वह सोचने लगी कि वादविवाद प्रतियोगिताओं में निर्णायकगण और अपार जन समूह को अपने प्रभावशाली वक्तव्यों से प्रभावित करने वाली लड़की आज अपने विचारों से अपने ही मातापिता को सहमत नहीं करा पा रही है.

घर पर उस के पिताजी ने सगाई की सभी तैयारियां शुरू कर दी थीं. वसुंधरा का मन बहुत बेचैन रहने लगा. किसी भी काम में उस का मन नहीं लग रहा था.

‘वसुंधरा, तुम्हारी फाइल पूरी हो गई?’ ममता मैडम ने ऊंची आवाज में पूछा.

‘मैडम, बस थोड़ा सा काम रह गया है,’ वसुंधरा ने झेंपते हुए कहा.

‘क्या हो गया है तुम्हें आजकल? प्रैक्टिकल की डेट आने वाली है और अभी तक तुम्हारी फाइल पूरी नहीं हुई. अभी फाइल पूरी कर के स्टाफ रूम में ले आना,’ मैडम ने जातेजाते आदेश दिया.

वसुंधरा ने जल्दीजल्दी फाइल पूरी की और सीधे स्टाफरूम की ओर भागी. संयोग से ममता मैडम उस समय वहां पर अकेली बैठी फाइलें चेक कर रही थीं. जैसे ही वसुंधरा ने अपनी फाइल मैडम को दी उन्होंने उस की परेशानी को भांपते हुए कहा, ‘क्या बात है, वसुंधरा, आजकल तुम कुछ परेशान लग रही हो. टेस्ट में भी तुम्हारे नंबर अच्छे नहीं आए. तुम तो बहुत होशियार लड़की हो और हमें तुम से बहुत उम्मीदें हैं.’

मैडम की बातें सुन कर वसुंधरा, जो इतने दिनों से घुट रही थी, फफक कर रो पड़ी. उसे रोते देख कर मैडम ने घबरा कर कहा, ‘क्यों, क्या हुआ? घर पर सब ठीक तो है?’

वसुंधरा ने रोतेरोते सारी बात मैडम को बता दी. उस की बातें सुन कर मैडम स्तब्ध रह गईं. इनसान की मजबूरी उसे कैसेकैसे कदम उठाने पर मजबूर कर देती है. काफी देर तक वह विचार करती रहीं. सहसा उन का मन उस के पिता से मिलने को करने लगा. हालांकि उस के पिता से मिलना उन्हें खुद बड़ा अटपटा लग रहा था लेकिन वसुंधरा को बरबादी से बचाने के लिए उन का मन बेचैन हो उठा.

‘तुम चिंता मत करो. मैं तुम्हारे पिताजी से इस विषय में बात करूंगी. कल रविवार है, उन से कहना कि मैं उन से मिलना चाहती हूं. बस, तुम अपनी पढ़ाई पर ध्यान दो,’ मैडम ने वसुंधरा की पीठ थपथपाते हुए कहा.

वसुंधरा खुश हो कर सहमति से सिर हिलाते हुए चली गई.

दीनानाथ रविवार के दिन ममता मैडम के घर मिलने आ गए. उन के पति नीरज भी वहां पर मौजूद थे. चाय के बाद उन्होंने वसुंधरा के लिए आए रिश्ते के बारे में बातचीत शुरू की, ‘यह तो हमारा अहोभाग्य है कि ऐसा बड़ा घर हमें अपनी लड़की के लिए मिल रहा है.’

मैडम ने तमक कर कहा, ‘घर तो आप की बेटी के लिए अवश्य अच्छा मिल रहा है लेकिन आप ने वर के बारे में कुछ सोचा कि वह क्या करता है? कितना पढ़ा लिखा है? उस की आदतें कैसी हैं?’

तब वह अति दयनीय स्वर में बोले, ‘मैडम, आप तो हमारे समाज के चलन को जानती हैं. अच्छेअच्छे घरों के रिश्ते भी दहेज के कारण नहीं हो पाते. फिर मैं अभागा 4 बेटियों का बाप कैसे यह दायित्व निभा पाऊंगा? वह परिवार मुझ से कुछ दहेज भी नहीं मांग रहा है. बस, लड़का थोड़ा बिगड़ा हुआ है. पर मुझे भरोसा है कि वसुंधरा उसे संभाल लेगी.’

‘उसे जब उस के मातापिता नहीं संभाल पाए तो एक 20 साल की लड़की कैसे संभाल लेगी?’ अचानक मैडम कड़क आवाज में बोलीं, ‘आप वसुंधरा की शादी हरगिज वहां नहीं करेंगे. वह उसे दुख के सिवा और कुछ नहीं दे सकता. आप उस परिवार की ऊपरी चमकदमक पर मत जाएं.’

वह लाचारी से खामोश बैठे रहे. मैडम अपने स्वर को संयत करते हुए उन्हें समझाने लगीं, ‘वसुंधरा एक मेधावी छात्रा है. उम्र भी कम है. शादी एक आवश्यकता है मगर मंजिल तो नहीं. उसे पढ़ने दीजिए. प्रतियोगिताओं में बैठने का अवसर दीजिए. एक अच्छी नौकरी लगते ही रिश्तों की कोई कमी उस के जैसी सुंदर लड़की के लिए न रह जाएगी. नौकरी न केवल उसे आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बनाएगी वरन उस के आत्मविश्वास और आत्मसम्मान को भी बढ़ाएगी.’

मैडम की बातों से सहमत हुए बगैर वसुंधरा के पिता एकाएक उठ गए और रुखाई से बोले, ‘चलता हूं, मैडमजी, देर हो रही है. वसुंधरा की सगाई की तैयारी करनी है.’

वसुंधरा बेताबी से पिता के लौटने का इंतजार कर रही थी. उसे पूरा विश्वास था कि मैडम ने जरूर पिताजी को सही फैसला लेने के लिए मना लिया होगा. जैसे ही दीनानाथ ने घर में प्रवेश किया वसुंधरा चौकन्नी हो गई.

‘सुनती हो, तुम्हारी बेटी घर की बातें अपनी मैडमों को बताने लगी है,’ पिताजी ने गरजते हुए घर में प्रवेश किया.

‘क्या हुआ? क्यों गुस्सा हो रहे हो?’ मां रसोईघर से निकलते हुए बोलीं.

‘अपनी बेटी से पूछो. साथ ही यह भी पूछना कि क्या उस की मैडम आएगी यहां इन चारों का विवाह करने?’ पिता पूरी ताकत से चिल्लाते हुए बोले.

वसुंधरा सहम कर पढ़ाई करने लगी. तीनों बहनें भी पिताजी का गुस्सा देख कर घबरा गईं.

वसुंधरा को यह साफ दिखाई  देने लगा था कि पिताजी को समझा पाना बेहद मुश्किल है. उसे खुद ही कोई कदम उठाना पड़ेगा. उस ने फैसला ले लिया कि वह किसी भी कीमत पर राजू से विवाह नहीं करेगी. भले ही इस के लिए उसे मातापिता के कितने भी खिलाफ क्यों न जाना पड़े.

मैडम की बातों से वसुंधरा उस समय एक नए जोश से भर गई जब दूसरे दिन कालिज में उन्होंने कहा, ‘यह लड़ाई तुम्हें स्वयं लड़नी होगी, वसुंधरा. बिना किसी दबाव में आए शादी करने के लिए एकदम मना कर दो. तुम्हारी योग्यता, तुम्हारी मंजिल के हर रास्ते को खोलेगी. मैं तुम्हें वचन देती हूं कि मैं तुम्हारा मार्गदर्शन करूंगी.’

उस ने सारी बातों को एक तरफ झटक कर अपनेआप को पूरी तरह अपनी आने वाली परीक्षा की तैयारी में डुबा दिया.

‘बेटी, आज कालिज मत जाना. लड़के वाले आने वाले हैं. पसंद तू सब को है, बस, वह सब तुम से मिलना चाहते हैं. साथ ही अंगूठी का नाप भी लेना चाहते हैं,’ मां ने अनुरोध करते हुए कहा.

‘मां, मैं पहले भी कह चुकी हूं कि मैं यह विवाह नहीं करूंगी,’ वसुंधरा ने किताबें समेटते हुए कहा.

‘क्या कह रही है? हम जबान दे चुके हैं और सगाई की तैयारी भी कर चुके हैं. अब तो मना करने का प्रश्न ही नहीं उठता,’ मां ने वसुंधरा को समझाने की कोशिश करते हए कहा, ‘फिर मुझे पूरा विश्वास है कि तू उसे अवश्य अपने अनुसार ढाल लेगी.’

‘मां, मैं अपनी जिंदगी और शक्ति एक बिगड़े लड़के को सुधारने में बरबाद नहीं करूंगी,’ वसुंधरा ने दृढ़ता से कहा. फिर मां की ओर मुड़ते हुए बोली, ‘आप के सामने तो घर में ही एक उदाहरण हैं चाचीजी, क्या चाचाजी को सुधार पाईं? चाचाजी रोज रात को नशे में धुत हो कर घर लौटते हैं और चाचीजी अपनी तकदीर को कोसती हुई रोती रहती हैं. उन के तीनों बच्चे सहमे से एक कोने में दुबक जाते हैं.

‘मैं न तो अपने भाग्य को कोसना चाहती हूं न उस पर रोना चाहती हूं. मैं उस का निर्माण करना चाहती हूं,’ वसुंधरा ने एकएक शब्द पर जोर देते हुए कहा, ‘फिर मां, मैं आज वैसे भी नहीं रुक सकती. आज मेरा प्रवेशपत्र मिलने वाला है.’

‘2 बजे तक आ जाना. लड़के वाले 3 बजे तक आ जाएंगे.’

मां की बात को अनसुना कर वसुंधरा घर से निकल गई.

अपने देवर के बारे में सोच गायत्री भी विचलित हो गईं और अपनी बेटी का एक संपन्न परिवार में रिश्ता कराने का उन का नशा धीरेधीरे उतरने लगा.

‘कहीं हम कुछ गलत तो नहीं कर रहे हैं अपनी वसु के साथ,’ गायत्री देवी ने शंका जाहिर करते हुए पति से कहा.

‘मैं उसका पिता हूं, कोई दुश्मन नहीं. मुझे पता है, क्या सही और क्या गलत है. तुम बेकार की बातें छोड़ो और उन के स्वागत की तैयारी करो,’ दीनानाथ ने आदेश देते हुए कहा.

वसुंधरा ने कालिज से अपना प्रवेशपत्र लिया और उसे बैग में डाल कर सोचने लगी, कहां जाए. घर जाने का तो प्रश्न ही नहीं उठता था. सहसा उस के कदम मैडम के घर की ओर मुड़ गए.

‘अरे, तुम,’ वसुंधरा को देख मैडम चौंकते हुए बोलीं, ‘आओआओ, इस समय घर पर मेरे सिवा कोई नहीं है,’ वसुंधरा को संकोच करते देख मैडम ने कहा.

लक्ष्मी को पानी लाने का आदेश दे वह सोफे पर बैठते हुए बोलीं, ‘कहो, कैसी चल रही है, पढ़ाई?’

‘मैडम, आज लड़के वाले आ रहे हैं,’ वसुंधरा ने बिना मैडम की बात सुने खोएखोए से स्वर में कहा.

मैडम ने ध्यान से वसुंधरा को देखा. बिखरे बाल, सूखे होंठ, सुंदर सा चेहरा मुरझाया हुआ था. उसे देख कर उन्हें एकाएक बहुत दया आई. जहां आजकल मातापिता अपने बच्चों के कैरियर को ले कर इतने सजग हैं वहां इतनी प्रतिभावान लड़की किस प्रकार की उलझनों में फंसी हुई है.

‘तुम ने कुछ खाया भी है?’ सहसा मैडम ने पूछा और तुरंत लक्ष्मी को खाना लगाने को कहा.

खाना खाने के बाद वसुंधरा थोड़ा सामान्य हुई.

‘तुम्हारी कोई  समस्या हो तो पूछ सकती हो,’ मैडम ने उस का ध्यान बंटाने के लिए कहा.

‘जी, मैडम, है.’

वसुंधरा के ऐसा कहते ही मैडम उस के प्रश्नों के हल बताने लगीं और फिर उन्हें समय का पता ही न चला. अचानक घड़ी पर नजर पड़ी तो पौने 6 बज रहे थे. हड़बड़ाते हुए वसुंधरा ने अपना बैग उठाया और बोली, ‘मैडम, चलती हूं.’

‘घबराना मत, सब ठीक हो जाएगा,’ मैडम ने आश्वासन देते हुए कहा.

दीनानाथ चिंता से चहलकदमी कर रहे थे. वसुंधरा को देख गुस्से में पांव पटकते हुए अंदर चले गए. आज वसुंधरा को न कोई डर था और न ही कोई अफसोस था अपने मातापिता की आज्ञा की अवहेलना करने का.

कहते हैं दृढ़ निश्चय हो, बुलंद इरादे हों और सच्ची लगन हो तो मंजिल के रास्ते खुद ब खुद खुलते चलते जाते हैं. ऐसा ही वसुंधरा के साथ हुआ. मैडम की सहेली के पति एक कोचिंग इंस्टीट्यूट चला रहे थे. वहां पर मैडम ने वसुंधरा को बैंक की प्रतियोगिता परीक्षा की तैयारी के लिए निशुल्क प्रवेश दिलवाया. मैडम ने उन से कहा कि भले ही उन्हें वसुंधरा से फीस न मिले लेकिन वह उन के कोचिंग सेंटर का नाम जरूर रोशन करेगी. यह बात वसुंधरा के उत्कृष्ट एकेडमिक रिकार्ड से स्पष्ट थी.

समय अपनी रफ्तार से बीत रहा था. बी.एससी. में वसुंधरा ने कालिज में सर्वाधिक अंक प्राप्त किए और आगे की पढ़ाई के लिए गणित में एम.एससी. में एडमिशन ले लिया. कोचिंग लगातार जारी रही. मैडम पगपग पर उस के साथ थीं. वसुंधरा को इतनी मेहनत करते देख दीनानाथ, जिन की नाराजगी पूरी तरह से गई नहीं थी, पिघलने लगे. 2 साल की कड़ी मेहनत के बाद जब वसुंधरा स्टेट बैंक की प्रतियोगी परीक्षा में बैठी तो पहले लिखित परीक्षा फिर साक्षात्कार आदि प्रत्येक चरण को निर्बाध रूप से पार करती चली गई.

वसुंधरा श्रद्धा से मैडम के सामने नतमस्तक हो गई. बैग से नियुक्तिपत्र निकाल कर मैडम के हाथों में दे दिया. नियुक्तिपत्र देख कर मैडम मारे खुशी के धम से सोफे पर बैठ गईं.

‘‘तू ने मेरे शब्दों को सार्थक किया,’’ बोलतेबोलते वह भावविह्वल हो गईं. उन्हें लगा मानो उन्होंने स्वयं कोई मंजिल पा ली है.

‘‘मैडम, यह सब आप की ही वजह से संभव हो पाया है. अगर आप मेरा मार्गदर्शन नहीं करतीं तो मैं इस मुकाम पर न पहुंच पाती,’’ कहतेकहते उस की सुंदर आंखों से आंसू ढुलक पड़े.

‘‘अरे, यह तो तेरी प्रतिभा व मेहनत का नतीजा है. मैं ने तो बस, एक दिशा दी,’’ मैडम ने खुशी से ओतप्रोत हो उसे थपथपाते हुए कहा.

वसुंधरा फिर उत्साहित होते हुए मैडम को बताने लगी कि उस की पहले मुंबई में टे्रेनिंग चलेगी उस के बाद 2 साल का प्रोबेशन पीरियड फिर स्थायी रूप से आफिसर के रूप में बैंक की किसी शाखा में नियुक्ति होगी. मैडम प्यार से उस के खुशी से दमकते चेहरे को देखती रह गईं.

उस शाम मैडम को तब बेहद खुशी हुई जब दीनानाथ मिठाई का डब्बा ले कर अपनी खुशी बांटने उन के पास आए. उन्होंने और उन के पति ने आदर के साथ उन्हें ड्राइंग रूम में बैठाया.

दीनानाथ गर्व से बोले, ‘‘मेरी बेटी बैंक में आफिसर बन गई,’’ फिर भावुक हो कर कहने लगे, ‘‘यह सब आप की वजह से हुआ है. मैं तो बेटी होने का अर्थ सिर्फ विवाह व दहेज ही समझता था. आप ने मेरा दृष्टिकोण ही बदल डाला. मैं व मेरा परिवार हमेशा आप का आभारी रहेगा.’’

ममता विनम्र स्वर में दीनानाथ से बोलीं, ‘‘मैं ने तो मात्र मार्गदर्शन किया है. यह तो आप की बेटी की प्रतिभा और मेहनत का नतीजा है.’’

‘‘जिस प्रतिभा को मैं दायित्वों के बोझ तले एक पिता हो कर न पहचान पाया, न उस का मोल समझ पाया, उसी प्रतिभा का सही मूल्यांकन आप ने किया,’’ बोलतेबोलते दीनानाथ का गला रुंध गया.

‘‘यह जरूरी नहीं कि सिर्फ पढ़ाई में होशियार बच्चा ही जीवन में सफल हो सकता है. प्रत्येक बच्चे में कोई न कोई प्रतिभा अवश्य होती है. हमें उसी प्रतिभा का सम्मान करते हुए उसे उसी ओर बढ़ने के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए.’’

दीनानाथ उत्साहित होते हुए बोले, ‘‘मेरी दूसरी बेटी आर्मी में जाना चाहती है. मैं अपनी सभी बेटियों को पढ़ाऊंगा, आत्मनिर्भर बनाऊंगा, तब जा कर उन के विवाह के बारे में सोचूंगा. मैं तो भाग्यशाली हूं जो मुझे ऐसी प्रतिभावान बेटियां मिली है.

परी हूं मैं: भाग 3- आखिर क्या किया था तरुण ने

तरुण फुरती से दौड़ा उस के पीछे, तब तक तो खबर फैल चुकी थी. मैं कुछ देर तो चौके में बैठी रह गई. जब छत पर पहुंची तो औरतों की नजरों में स्पष्ट हिकारत भाव देखा और तो और, उस रोज से नानी की नजरें बदली सी लगीं. मैं सावधान हो गई. ज्योंज्यों शादी की तिथि नजदीक आ रही थी, मेरा जी धकधक कर रहा था. तरुण का सहज उत्साहित होना मुझे अखर रहा था. इसीलिए तरुण को मेहंदी लगाती बहनों के पास जा बैठी. मगर तरुण अपने में ही मगन बहन से बात कर रहा था, ‘पुष्पा, पंजे और चेहरे के जले दागों पर भी हलके से हाथ फेर दे मेहंदी का, छिप जाएंगे.’  सुन कर मैं रोक न पाई खुद को, ‘‘तरुण, ये दाग न छिपेंगे, न इन पर कोई दूसरा रंग चढ़ेगा. आग के दाग हैं ये.’’ सन्नाटा छा गया हौल में. मुझे राजीव आज बेहद याद आए. कैसी निरापदता होती है उन के साथ, तरुण को देखो…तो वह दूर बड़ी दूर नजर आता है और राजीव, हर पल उस के संग. आज मैं सचमुच उन्हें याद करने लगी.

आखिरकार बरात प्रस्थान का दिन आ गया, मेरे लिए कयामत की घड़ी थी. जैसे ही तरुण के सेहरा बंधा, वह अपने नातेरिश्तेदारों से घिर गया. उसे छूना तो दूर, उस के करीब तक मैं नहीं पहुंच पाई. मुझे अपनी औकात समझ में आने लगी. असल औकात अन्य औरतों ने बरात के वापस आते ही समझा दी. उन बहन-बुआ के एकएक शब्द में व्यंग्य छिपा था-‘‘भाभीजी, आज से आप को हम लोगों के साथ हौल में ही सोना पड़ेगा. तरुण के कमरे का सारा पुराना सामान हटा कर विराज के साथ आया नया पलंग सजाना होगा, ताजे फूलों से.’’ छुरियां सी चलीं दिल पर. लेकिन दिखावे के लिए बड़ी हिम्मत दिखाई मैं ने भी. बराबरी से हंसीठिठोली करते हुए तरुण और विराज का कमरा सजवाया. लेकिन आधीरात के बाद जब कमरे का दरवाजा खट से बंद हुआ. मेरी जान निकल गई, लगा, मेरा पूरा शरीर कान बन गया है. कैसे देखती रहूं मैं अपनी सब से कीमती चीज की चोरी होते हुए. चीख पड़ी, ‘चोर, चोर,चोर.’ गुल हुई सारी बत्तियां जल पड़ीं. रंग में भंग डालने का मेरा उपक्रम पूर्ण हुआ. शादी वाला घर, दानदहेज के संग घर की हर औरत आभूषणों से लदी हुई. ऐसे मालदार घरों में ही तो चोरलुटेरे घात लगाए बैठे रहते हैं.

नींद से उठे, डरे बच्चों के रोने का शोर, आदमियों का टौर्च ले कर भागदौड़ का कोलाहल…ऐसे में तरुण के कमरे का दरवाजा खुलना ही था. उस के पीछेपीछे सजीसजाई विराज भी चली आई हौल में. चैन की सांस ली मैं ने. बाकी सभी भयभीत थे लुट जाने के भय से. सब की आंखों से नींद गायब थी. इस बीच, मसजिद से सुबह की आजान की आवाज आते ही मैं मन ही मन बुदबुदाई, ‘हो गई सुहागरात.’ लेकिन कब तक? वह तो सावित्री थी जिस ने सूर्य को अस्त नहीं होने दिया था. सुबह से ही मेहमानों की विदाई शुरू हो गई थी. छुट्टियां किस के पास थीं? मुझे भी लौटना था तरुण के साथ. मगर मेरे गले में बड़े प्यार से विराज को भी टांग दिया गया. जाने किस घड़ी में बेटियों से कहा था कि चाची ले कर आऊंगी. विराज को देख कर मुझे अपना सिर पीट लेने का मन होता. मगर उस ने रिद्धि व सिद्धि का तो जाते ही मन जीत लिया. 10 दिनों बाद विराज का भाई उसे लेने आ गया और मैं फिर तरुण की परी बन गई. गिनगिन कर बदले लिए मैं ने तरुण से. अब मुझे उस से सबकुछ वैसा ही चाहिए था जैसे वह विराज के लिए करता था…प्यार, व्यवहार, संभाल, परवा सब.

चूक यहीं हुई कि मैं अपनी तुलना विराज से करते हुए सोच ही नहीं पाई कि तरुण भी मेरी तुलना विराज से कर रहा होगा. वक्त भाग रहा था. मैं मुठ्ठी में पकड़ नहीं पा रही थी. ऐसा लगा जैसे हर कोई मेरे ही खिलाफ षड्यंत्र रच रहा है. तरुण ने भी बताया ही नहीं कि विराज ट्रांसफर के लिए ऐप्लीकेशन दे चुकी है. इधर राजीव का एग्रीमैंट पूरा हो चुका था. उन्होंने आते ही तरुण को व्यस्त तो कर ही दिया, साथ ही शहर की पौश कालोनी में फ्लैट का इंतजाम कर दिया यह कहते हुए, ‘‘शादीशुदा है अब, यहां बहू के साथ जमेगा नहीं.’’ मैं चुप रह गई मगर तरुण ने अब भी मुंह मारना छोड़ा नहीं था. तरुण मेरी मुट्ठी में है, यह एहसास विराज को कराने का कोई मौका मैं छोड़ती नहीं थी. जब भी विराज से मिलना होता, वह मुझे पहले से ज्यादा भद्दी, मोटी और सांवली नजर आती. संतुष्ट हो कर मैं घर लौट कर अपने बनावशृंगार पर और ज्यादा ध्यान देती. फिर मैं ने नोट किया, तरुण का रुख उस के बजाय मेरे प्रति ज्यादा नरम और प्यारभरा होता, फिर भी विराज सहजभाव से नौकरी, ट्यूशन के साथसाथ तरुण की सुविधा का पूरा खयाल रखती. न तरुण से कोई शिकायत, न मांगी कोई सुविधा या भेंट.

‘परी थोड़ी है जो छू लो तो पिघल जाए,’ तरुण ने भावों में बह कर एक बार कहा था तो मैं सचमुच अपने को परी ही समझ बैठी थी. तब तक तरुण की थीसिस पूरी हो चुकी थी मगर अभी डिसकशन बाकी था. और फिर वह दिन आ ही गया. तरुण को डौक्टरेट की डिगरी के ही साथ आटोनौमस कालेज में असिस्टैंट प्रोफैसर पद पर नियुक्ति भी मिल गई. धीरेधीरे उस का मेरे पास आना कम हो रहा था, फिर भी मैं कभी अकेली, कभी बेटियों के साथ उस के घर जा ही धमकती. विराज अकसर शाम को भी सूती साड़ी में बगैर मेकअप के मिडिल स्कूल के बच्चों को पढ़ाती मिलती. ऐसे में हमारी आवभगत तरुण को ही करनी पड़ती. वह एकएक चीज का वर्णन चाव से करता…विराज ने गैलरी में ही बोनसाई पौधों के संग गुलाब के गमले सजाए हैं, साथ ही गमले में हरीमिर्च, हरा धनिया भी उगाया है. विराज…विराज… विराज…विराज…विराज ने मेरा ये स्वेटर क्रोशिए से बनाया है. विराज ने घर को घर बना दिया है. विराज के हाथ की मखाने की खीर, विराज के गाए गीत… विराज के हाथ, पैर, चेहरा, आंखे…

मैं गौर से देखने लगती तरुण को, मगर वह सकपकाने की जगह ढिठाई से मुसकराता रहता और मैं अपमान की ज्वाला में जल उठती. मेरे मन में बदले की आग सुलगने लगी. मैं विराज से अकेले में मिलने का प्रयास करती और अकसर बड़े सहजसरल भाव से तरुण का जिक्र ही करती. तरुण ने मेरा कितना ध्यान रखा, तरुण ने यह कहा वह किया, तरुण की पसंदनापसंद. तरुण की आदतों और मजाकों का वर्णन करने के साथसाथ कभीकभी कोई ऐसा जिक्र भी कर देती थी कि विराज का मुंह रोने जैसा हो जाता और मैं भोलेपन से कहती, ‘देवर है वह मेरा, हिंदी की मास्टरनी हो तुम, देवर का मतलब नहीं समझतीं?’  विराज सब समझ कर भी पूर्ण समर्पण भाव से तरुण और अपनी शादी को संभाल रही थी. मेरे सीने पर सांप लोट गया जब मालूम पड़ा कि विराज उम्मीद से है, और सब से चुभने वाली बात यह कि यह खबर मुझे राजीव ने दी.

‘‘आप को कैसे मालूम?’’ मैं भड़क गई.

‘‘तरुण ने बताया.’’

‘‘मुझे नहीं बता सकता था? मैं इतनी दुश्मन हो गई?’’

विराज, राजीव से सगे जेठ का रिश्ता निभाती है. राजीव की मौजूदगी में कभी अपने सिर से पल्लू नीचे नहीं गिरने देती है, जोर से बोलना हंसना तो दूर, चलती ही इतने कायदे से है…धीमेधीमे, मुझे नहीं लगता कि राजीव से इस बारे में उस की कभी कोई बात भी हुई होगी. लेकिन आज राजीव ने जिस ढंग से विराज के बारे में बात की , स्पष्टतया उन के अंदाज में विराज के लिए स्नेह के साथसाथ सम्मान भी था. चर्चा की केंद्रबिंदु अब विराज थी. तरुण ने विराज को डिलीवरी के लिए घर भेजने के बजाय अपनी मां एवं नानी को ही बुला लिया था. वे लोग विराज को हथेलियों पर रख रही थीं. मेरी हालत सचमुच विचित्र हो गई थी. राजीव अब भी किताबों में ही आंखें गड़ाए रहते हैं. और विराज ने बेटे को जन्म दिया. तरुण पिता बन गया. विराज मां बन गई पर मैं बड़ी मां नहीं बन पाई. तरुण की मां ने बच्चे को मेरी गोद में देते हुए एकएक शब्द पर जोर दिया था, ‘लल्ला, ये आ गईं तुम्हारी ताईजी, आशीष देने.’

बच्चे के नामकरण की रस्म में भी मुझे जाना पड़ा. तरुण की बहनें, बूआओं सहित काफी मेहमानों को निमंत्रित किया गया. कार्यक्रम काफी बड़े पैमाने पर आयोजित किया गया था. इस पीढ़ी का पहला बेटा जो पैदा हुआ है. राजीव अपने पुराने नातेरिश्ते से बंधे फंक्शन में बराबरी से दिलचस्पी ले रहे थे. तरुण विराज और बच्चे के साथ बैठ चुका तो औरतों में नाम रखने की होड़ मच गई. बहनें अपने चुने नाम रखवाने पर अड़ी थीं तो बूआएं अपने नामों पर. बड़ा खुशनुमा माहौल था. तभी मेरी निगाहें विराज से मिलीं. उन आंखों में जीत की ताब थी. सह न सकी मैं. बोल पड़ी, ‘‘नाम रखने का पहला हक उसी का होता है जिस का बच्चा हो. देखो, लल्ला की शक्ल हूबहू राजीव से मिल रही है. वे ही रखेंगे नाम.’’ सन्नाटा छा गया. औरतों की उंगलियां होंठों पर आ गईं. विराज की प्रतिक्रिया जान न सकी मैं. वह तो सलमासितारे जड़ी सिंदूरी साड़ी का लंबा घूंघट लिए गोद में शिशु संभाले सिर झुकाए बैठी थी.

मैं ने चारोें ओर दृष्टि दौड़ाई, शायद राजीव यूनिवर्सिटी के लिए निकल चुके थे. मेरा वार खाली गया. तरुण ने तुरंत बड़ी सादगी से मेरी बात को नकार दिया, ‘‘भाभी, आप इस फैक्ट से वाकिफ नहीं हैं शायद. बच्चे की शक्ल तय करने में मां के विचार, सोच का 90 प्रतिशत हाथ होता है और मैं जानता हूं कि विराज जब से शादी हो कर आई, सिर्फ आप के ही सान्निध्य में रही है, 24 घंटे आप ही तो रहीं उस के दिलोदिमाग में. इस लिहाज से बच्चे की शक्ल तो आप से मिलनी चाहिए थी. परिवार के अलावा किसी और पर या राजीव सर पर शक्लसूरत जाने का तो सवाल ही नहीं उठता. यह तो आप भी जानती हैं कि विराज ने आज तक किसी दूसरे की ओर देखा तक नहीं है. वह ठहरी एक सीधीसादी घरेलू औरत.’’

औरत…लगा तरुण ने मेरे पंख ही काट दिए और मैं धड़ाम से जमीन पर गिर गई हूं. मुझे बातबात पर परी का दरजा देने वाले ने मुझे अपनी औकात दिखा दी. मुझे अपने कंधों में पहली बार भयंकर दर्द महसूस होने लगा, जिन्हें तरुण ने सीढ़ी बनाया था, उन कंधों पर आज न तरुण की बांहें थीं और न ही पंख.

असमंजस: भाग 3- क्यों अचानक आस्था ने शादी का लिया फैसला

आस्था एक दिन ऐसे ही विचारों में गुम थी कि काफी अरसे बाद एक बार फिर रंजना मैडम का खत आया. यह खत पिछले सारे खतों से अलग था. अब तक जितनी गर्द उन आंधियों ने आस्था के मन पर बिछाई थी, जो पिछले खतों के साथ आई थी, सारी की सारी इस खत के साथ आई तूफानी सुनामी ने धो दी.

आस्था बारबार उस खत को पढ़ रही थी :

‘प्रिय बेटी आस्था,

‘मुझे क्षमा करो, बेटी. मैं समझ नहीं पा रही हूं कि किस हक से मैं तुम्हें यह खत लिख रही हूं. आज तक मैं ने तुम्हें जो भी शिक्षा दी, जाने क्या असर हुआ होगा तुम पर, जाने कितनी खुशियों को तुम से छीन लिया है मैं ने. लेकिन सच मानो, आज तक मैं ने तुम्हें जो भी कहा, वह मेरे जीवन का यथार्थ था. मैं ने वही कहा जो मैं ने अनुभव किया था, जिया था. मुझे सच में, स्त्री की स्वतंत्रता ही उस के जीवन की सब से महत्त्वपूर्ण उपलब्धि लगती थी, जिसे मैं ने विवाह न कर के, परिवार न बसा कर पाया था. लेकिन पिछले 4 सालों में मैं ने स्वयं को जिस तरह अकेला, तनहा, टूटा हुआ महसूस किया है उसे मैं बयां नहीं कर सकती.

‘रिटायरमैंट से पहले तक समय की व्यस्तता के कारण मुझे एकाकी जीवन रास आता था लेकिन बाद में जब भी अपनी उम्र की महिलाओं को अपने नातीपोतों के साथ देखती तो मन में टीस सी उठती. यदि मैं ने सही समय पर अपना परिवार बसाया होता तो आज मैं भी इस तरह अकेली, नीरस जिंदगी नहीं जी रही होती. यही कारण है कि पिछले कुछ सालों से तुम्हारे खतों का जवाब देने की हिम्मत ही नहीं जुटा पाती थी.

‘आखिर क्या कहती तुम्हें कि जिस रंजना मैडम को तुम अपना आदर्श मानती हो आज उस के लिए दिन के 24 घंटे काटना भी मुश्किल हो गया है. पिछले कुछ सालों ने मुझे एहसास दिला दिया है कि एक इंसान की जिंदगी में परिवार की क्या अहमियत होती है. आज जिंदगी के बयाबान में मैं नितांत अकेली भटक रही हूं, पर ऐसा कोई नहीं है जिस के साथ मैं अपना सुखदुख बांट सकूं. यह बहुत ही भयंकर और डरावनी स्थिति है, आस्था. मैं नहीं चाहती कि जीवन की संध्या में तुम भी मेरी तरह ही तनहा और निराश अनुभव करो. हो सके तो अब भी अपनी राह बदल दो.

‘जिस अस्तित्व को कायम रखने के लिए मैं ने यह राह चुनी थी अब वह अस्तित्व ही अर्थहीन लगता है. जिस समाज की भलाई और उन्नति के लिए हम ने यह एकाकीपन स्वीकार किया है उस समाज की सब से बड़ी भलाई इसी में है कि अनंतकाल से चली आ रही परिवार नाम की संस्था बरकरार रहे, सभी बेटी, बहन, पत्नी, मां, नानीदादी के सभी रूपों को जीएं. तुम यदि चाहो तो अब भी अपने शेष जीवन को इस अंधेरे गर्त में भटकने से रोक सकती हो.

‘जाने क्यों ऐसा लग रहा है कि स्त्री स्वतंत्रता के मेरे विचारों ने अब तक तुम्हारा अच्छा नहीं, बुरा चाहा था लेकिन आज मैं पहली बार तुम्हारा अच्छा चाहती हूं. चाहती हूं कि तुम अपने व्यक्तित्व के हर पहलू को जीओ. आशा है तुम निहितार्थ समझ गई होगी.

‘एक हताश, निराश, एकाकी, वृद्ध महिला जिस का कोई नहीं है.’

बारबार उस खत को पढ़ कर उस के सामने अतीत की सारी गलतियां उभर कर आ गईं. कैसे उस ने विवान का प्रस्ताव कड़े शब्दों में मना कर दिया था, किस प्रकार उस ने मांबाप को कई बार रूखे शब्दों में लताड़ दिया था, किस प्रकार उस ने अपनी बीमार, मृत्युशैया पर लेटी दादी की अंतिम इच्छा का भी सम्मान नहीं किया था. आज क्या है उस के पास, चापलूसों की टोली जो शायद पीठ पीछे उस के बारे में उलटीसीधी बातें करती होगी.

क्या वह जानती नहीं कि किस समाज का हिस्सा है वह. क्या वह जानती नहीं कि अकेली औरत के बारे में किस तरह की

बातें करते होंगे लोग. उस को जन्म देने वाले मांबाप ने अपनी विषम आर्थिक परिस्थितियों के बावजूद बेटी की पढ़ाई- लिखाई पर कोई आंच नहीं आने दी, कभी भी किसी बात के लिए दबाव नहीं डाला, सलाह दी लेकिन निर्णय नहीं सुनाया. यदि उस के मांबाप इतनी उदार सोच रख सकते हैं तो क्या उस का हमवय पुरुष मित्र उस की स्वतंत्रता का सम्मान नहीं करता.

आस्था ने निर्णय किया कि वह अपनी गलतियां सुधारेगी. उस ने मां को फोन मिलाया, ‘हैलो मां, कैसी हो?’

‘ठीक हूं. तू कैसी है, आशु. आज वक्त कैसे मिल गया?’ हताश मां ने कहा.

‘मां शर्मिंदा मत करो. मैं घर आ रही हूं. मुझे मेरी सारी गलतियों के लिए माफ कर दो. क्या हाथ पीले नहीं करोगी अपनी बेटी के?’

मां को अपने कानों पर यकीन ही नहीं हुआ, ‘तू सच कह रही है न, आशु. मजाक तो नहीं कर रही है. तुझे नहीं पता तेरे पापा यह सुन कर कितने खुश होंगे. हर समय तेरी ही चिंता लगी रहती है.’

‘हां मां. मैं सच कह रही हूं. मैं ने देर जरूर की है लेकिन अंधेरा घिरने से पहले सही राह पर पहुंच गई हूं. अब तुम शादी की तैयारियां करो.’

कुछ ही महीनों में आस्था के लिए एक कालेज प्रोफैसर का रिश्ता आया जिस के लिए उस ने हां कह दी. आज बरसों बाद ही सही, आस्था के मांपापा की इच्छा पूरी होने जा रही थी.

‘‘बेटी आस्था.’’ किसी ने आस्था को पीछे से पुकारा और वह अपने वर्तमान में लौटी. वह पलटी, पीछे रंजना मैडम खड़ी थीं. उन के चेहरे पर खुशी की चमक थी, जिसे देख कर आस्था एक अजीब से भय में जकड़ गई क्योंकि मैडम ने तो खत में कुछ और ही लिखा था, लेकिन तभी भय की वह लहर शांत हो गई जब उस ने उन की मांग में सिंदूर, गले में मंगलसूत्र, हाथों में लाल चूडि़यां देखीं.

‘‘बेटी आस्था, इन से मिलो, ये हैं ब्रिगेडियर राजेश. कुछ दिनों पहले ही मैं ने एक मैट्रिमोनियल एजेंट से अपना जीवनसाथी ढूंढ़ने की बात की थी और फिर क्या था, उस ने मेरी मुलाकात राजेश से करवा दी जोकि आर्मी से रिटायर्ड विधुर थे और अपनी जिंदगी में एकाकी थे. हम ने साथ चलने का फैसला किया और पिछले हफ्ते ही

कोर्ट में रजिस्टर्ड शादी कर ली. इन सब में इतनी व्यस्त थी कि तुम्हें बता भी नहीं पाई.’’

मैडम को ब्रिगेडियर के हाथों में हाथ थामे इतना खुश देख कर आस्था की खुशी का ठिकाना नहीं था. वह खुश थी क्योंकि शादी करने का निर्णय ले कर आखिरकार उस के सारे असमंजस खत्म हो चुके थे.

असमंजस: भाग 2- क्यों अचानक आस्था ने शादी का लिया फैसला

‘यदि मेरी बात एक हितैषी मित्र के रूप में मानती हो तो अपनी राह स्वयं तैयार करो. हिमालय की भांति ऊंचा लक्ष्य रखो. समंदर की तरह गहरे आदर्श. आशा करती हूं कि तुम अपनी जिंदगी के लिए वह राह चुनोगी जो तुम्हारे जैसी अन्य कई लड़कियों की जिंदगी में बदलाव ला सके. उन्हें यह एहसास करा सके कि एक औरत की जिंदगी में शादी ही सबकुछ नहीं है. सच तो यह है कि शादी के मोहपाश से बच कर ही एक औरत सफल, संतुष्ट जिंदगी जी सकती है.

‘एक बार फिर जन्मदिन मुबारक हो.

‘तुम्हारी शुभाकांक्षी,

रंजना.’

रंजना मैडम का हर खत आस्था के इस निश्चय को और भी दृढ़ कर देता कि उसे विवाह नहीं करना है. विवान और आस्था दोनों इसी उद्देश्य को ले कर बड़े हुए थे कि दोनों को अपनेअपने पिता की तरह सिविल सेवक बनना है. लेकिन विवान जहां परिवार और उस की अहमियत का पूरा सम्मान करता था वहीं आस्था की परिवार नाम की संस्था में कोई आस्था बाकी नहीं थी. उसे घर के मंदिर में पूजा करती दादी या रसोई में काम करती मां सब औरत जाति पर सदियों से हो रहे अत्याचार का प्रतीक दिखाई देतीं.

अपने पहले ही प्रयास में दोनों ने सिविल सेवा परीक्षा उत्तीर्ण कर ली थी. आस्था का चयन भारतीय प्रशासनिक सेवा में हुआ था तो विवान का भारतीय राजस्व सेवा में. बस, अब क्या था, दोनों के परिवार वाले उन की शादी के सपने संजोने लगे. विवान के परिजनों के पूछने पर उस ने शादी के लिए हां कह दी किंतु वह आस्था की राय जानना चाहता था. विवान ने जब आस्था के सामने शादी की बात रखी तो एकबारगी आस्था के दिमाग में रंजना मैडम की दी हुई सीख जैसे गायब ही हो गई. बचपन के दोस्त विवान को वह बहुत अच्छे तरीके से जानती थी. उस से ज्यादा नेक, सज्जन, सौम्य स्वभाव वाले किसी पुरुष को वह नहीं जानती थी. और फिर उस की एक आजाद, आत्मनिर्भर जीवन जीने की चाहत से भी वह अवगत थी. लेकिन इस से पहले कि वह हां कहती, उस ने विवान से सोचने के लिए कुछ समय देने को कहा जिस के लिए उस ने खुशीखुशी हां कह दी.

वह विवान के बारे में सोच ही रही थी कि रंजना मैडम का एक खत उस के नाम आया. अपने सिलैक्शन के बाद वह उन के खत की आस भी लगाए थी. मैडम जाने क्यों मोबाइल और इंटरनैट के जमाने में भी खत लिखने को प्राथमिकता देती थीं, शायद इसलिए कि कलम और कागज के मेल से जो विचार व्यक्त होते हैं वे तकनीकी जंजाल में उलझ कर खो जाते हैं. उन्होंने लिखा था :

‘प्रिय मित्र,

‘तुम्हारी आईएएस में चयन की खबर पढ़ी. बहुत खुशी हुई. आखिर तुम उस मुकाम पर पहुंच ही गईं जिस की तुम ने चाहत की थी लेकिन मंजिल पर पहुंचना ही काफी नहीं है. इस कामयाबी को संभालना और इसे बहुत सारी लड़कियों और औरतों की कामयाबी में बदलना तुम्हारा लक्ष्य होना चाहिए. और फिर मंजिल एक ही नहीं होती. हर मंजिल हमारी सफलता के सफर में एक पड़ाव बन जाती है एक नई मंजिल तक पहुंचने का. कामयाबी का कोई अंतिम चरण नहीं होता, इस का सफर अनंत है और उस पर चलते रहने की चाह ही तुम्हें औरों से अलग एक पहचान दिला पाएगी.

‘निसंदेह अब तुम्हारे विवाह की चर्चाएं चरम पर होंगी. तुम भी असमंजस में होगी कि किसे चुनूं, किस के साथ जीवन की नैया खेऊं, वगैरहवगैरह. तुम्हें भी शायद लगता होगा कि अब तो मंजिल मिल गई है, वैवाहिक जीवन का आनंद लेने में संशय कैसा? किंतु आस्था, मैं एक बार फिर तुम्हें याद दिलाना चाहती हूं कि जो तुम ने पाया है वह मंजिल नहीं है बल्कि किसी और मंजिल का पड़ाव मात्र है. इस पड़ाव पर तुम ने शादी जैसे मार्ग को चुन लिया तो आगे की सारी मंजिलें तुम से रूठ जाएंगी क्योंकि पति और बच्चों की झिकझिक में सारी उम्र निकल जाएगी.

‘यह मैं इसलिए कहती हूं कि मैं ने इसे अपनी जिंदगी में अनुभव किया है. तुम्हें यह जान कर हर्ष होगा कि मुझे राष्ट्रपति द्वारा प्रतिवर्ष शिक्षकदिवस पर दिए जाने वाले शिक्षक सम्मान के लिए चुना गया है. क्या तुम्हें लगता है कि घरगृहस्थी के पचड़ों में फंसी तुम्हारी अन्य कोई भी शिक्षिका यह मुकाम हासिल कर सकती थी?

‘शेष तुम्हें तय करना है.

‘हमेशा तुम्हारी शुभाकांक्षी,

रंजना.’

इस खत को पढ़ने के बाद आस्था के दिमाग से विवान से शादी की बात को ले कर जो भी असमंजस था, काफूर हो गया. उस ने सभी को कभी भी शादी न करने का अपना निर्णय सुना दिया. मांपापा और दादी पर तो जैसे पहाड़ टूट गया. उस के जन्म से ले कर उस की शादी के सपने संजोए थे मां ने. होलीदीवाली थोड़ेबहुत गहने बनवा लेती थीं ताकि शादी तक अपनी बेटी के लिए काफी गहने जुटा सकें लेकिन आज आस्था ने उन से बेटी के ब्याह की सब से बड़ी ख्वाहिश छीन ली थी. उन्हें अफसोस होने लगा कि आखिर क्यों उन्होंने एक निम्नमध्य परिवार के होने के बावजूद अपनी बेटी को आसमान के सपने देखने दिए. आज जब वह अर्श पर पहुंच गई है तो मांबाप की मुरादें, इच्छाओं की उसे परवा तक नहीं.

विवान ने भी कुछ वर्षों तक आस्था का इंतजार किया लेकिन हर इंतजार की हद होती है. उस ने शादी कर ली और अपनी जिंदगी में व्यस्त हो गया. दूसरी ओर आस्था अपनी स्वतंत्र, स्वैच्छिक जिंदगी का आनंद ले रही थी. सुबहशाम उठतेबैठते सिर्फ काम में व्यस्त रहती थी. दादी तो कुछ ही सालों में गुजर गईं और मांपापा से वह इसलिए बात कम करने लगी क्योंकि वे जब भी बात करते तो उस से शादी की बात छेड़ देते. साल दर साल उस का मांपापा से संबंध भी कमजोर होता गया.

वह घरेलू स्त्रियों की जिंदगी के बारे में सोच कर प्रफुल्लित हो जाती कि उस ने अपनी जिंदगी के लिए सही निर्णय लिया है. वह कितनी स्वतंत्र, आत्मनिर्भर है. उस का अपना व्यक्तित्व है, अपनी पहचान है. बतौर आईएएस, उस के काम की सारे देश में चर्चा हो रही है. उस के द्वारा शुरू किए गए प्रोजैक्ट हमेशा सफल हुए हैं. हों भी क्यों न, वह अपने काम में जीजान से जो जुटी हुई थी.

परी हूं मैं: भाग 2- आखिर क्या किया था तरुण ने

बस, एक चिनगारी से भक् से आग भड़क गई. सोच कर ही डर लगता है. भभक उठी आग. हम दोनों एकसाथ चीखे थे. तरुण ने मेरी साड़ी खींची. मुझ पर मोटे तौलिए लपेटे हालांकि इस प्रयास में उस के भी हाथ, चेहरा और बाल जल गए थे. मुझे अस्पताल में भरती करना पड़ा और तरुण के हाथों पर भी पट्टियां बंध चुकी थीं तो रिद्धि व सिद्धि को किस के आसरे छोड़ते. अम्माजी को बुलाना ही पड़ा. आते ही अम्माजी अस्पताल पहुंचीं. ‘देख, तेरी वजह से तरुण भी जल गया. कहते हैं न, आग किसी को नहीं छोड़ती. बचाने वाला भी जलता जरूर है.’ जाने क्यों अम्मा का आना व बड़बड़ाना मुझे अच्छा नहीं लगा. आंखें मूंद ली मैं ने. अस्पताल में तरुण नर्स के बजाय खुद मेरी देखभाल करता. मैं रोती तो छाती से चिपका लेता. वह मुझे होंठों से चुप करा देता. बिलकुल ताजा एहसास.

अस्पताल से डिस्चार्ज हो कर घर आई तो घर का कोनाकोना एकदम नया सा लगा. फूलपत्तियां सब निखर गईं जैसे. जख्म भी ठीक हो गए पर दाग छोड़ गए, दोनों के अंगों पर, जलने के निशान. तरुण और मैं, दोनों ही तो जले थे एक ही आग में. राजीव को भी दुर्घटना की खबर दी गई थी. उन्होंने तरुण को मेरी आग बुझाने के लिए धन्यवाद के साथ अम्मा को बुला लेने के लिए शाबाशी भी दी. तरुण को महीनों बीत चले थे भोपाल गए हुए. लेकिन वहां उस की शादी की बात पक्की की जा चुकी थी. सुनते ही मैं आंसू बहाने लगी, ‘‘मेरा क्या होगा?’’ ‘परी का जादू कभी खत्म नहीं होता.’ तरुण ने पूरी तरह मुझे अपने वश में कर लिया था, मगर पिता के फैसले का विरोध करने की न उस में हिम्मत थी न कूवत. स्कौलरशिप से क्या होना जाना था, हर माह उसे घर से पैसे मांगने ही पड़ते थे. तो इस शादी से इनकार कैसे करता? लड़की सरकारी स्कूल में टीचर है और साथ में एमफिल कर रही है तो शायद शादी भी जल्दी नहीं होगी और न ही ट्रांसफर. तरुण ने मुझे आश्वस्त कर दिया. मैं न सिर्फ आश्वस्त हो गई बल्कि तरुण के संग उस की सगाई में भी शामिल होने चली आई. सामान्य सी टीचरछाप सांवली सी लड़की, शक्ल व कदकाठी हूबहू मीनाकुमारी जैसी.

एक उम्र की बात छोड़ दी जाए तो वह मेरे सामने कहीं नहीं टिक रही थी. संभवतया इसलिए भी कि पूरे प्रोग्राम में मैं घर की बड़ी बहू की तरह हर काम दौड़दौड़ कर करती रही. बड़ों से परदा भी किया. छोटों को दुलराया भी. तरुण ने भी भाभीभाभी कर के पूरे वक्त साथ रखा लेकिन रिंग सेरेमनी के वक्त स्टेज पर लड़की के रिश्तेदारों से परिचय कराया तो भाभी के रिश्ते से नहीं बल्कि, ‘ये मेरे बौस, मेरे गाइड राजीव सर की वाइफ हैं.’ कांटे से चुभे उस के शब्द, ‘सर की वाइफ’, यानी उस की कोई नहीं, कोई रिश्ता नहीं. तरुण को वापस तो मेरे ही साथ मेरे ही घर आना था. ट्रेन छूटते ही शिकायतों की पोटली खोल ली मैं ने. मैं तैश में थी, हालांकि तरुण गाड़ी चलते ही मेरा पुराना तरुण हो गया था. मेरा मुझ पर ही जोर न चल पाया, न उस पर. मौसम बदल रहे थे. अपनी ही चाल में, शांत भाव से. मगर तीसरे वर्ष के मौसमों में कुछ ज्यादा ही सन्नाटा महसूस हो रहा था, भयावह चुप्पियां. आंखों में, दिलों में और घर में भी.

तूफान तो आएंगे ही, एक नहीं, कईकई तूफान. वक्त को पंख लग चुके थे और हमारी स्थिति पंखकटे प्राणियों की तरह होती लग रही थी. मुझे लग रहा था समय को किस विध बांध लूं? तरुण की शादी की तारीख आ गई. सुनते ही मैं तरुण को झंझोड़ने लगी, ‘‘मेरा क्या होगा?’’ ‘परी का जादू कभी खत्म नहीं होगा,’ इस बार तरुण ने मुझे भविष्य की तसल्ली दी. मैं पूरा दिन पगलाई सी घर में घूमती रही मगर अम्माजी के मुख पर राहत स्पष्ट नजर आ रही थी. बातों ही बातों में बोलीं भी, ‘अच्छा है, रमेश भाईसाहब ने सही पग उठाया. छुट्टा सांड इधरउधर मुंह मारे, फसाद ही खत्म…खूंटे से बांध दो.’ मुझे टोका भी, कि ‘कौन घर की शादी है जो तुम भी चलीं लदफंद के उस के संग. व्यवहार भेज दो, साड़ीगहना भेज दो और अपना घरद्वार देखो. बेटियों की छमाही परीक्षा है, उस पर बर्फ जमा देने वाली ठंड पड़ रही है.’ अम्माजी को कैसे समझाती कि अब तो तरुण ही मेरी दुलाईरजाई है, मेरा अलाव है. बेटियों को बहला आई, ‘चाची ले कर आऊंगी.’ बड़े भारी मन से भोपाल स्टेशन पर उतरी मैं. भोपाल के जिस तालाब को देख मैं पुलक उठती थी, आज मुंह फेर लिया, मानो मोतीताल के सारे मोती मेरी आंखों से बूंदें बन झरने लगे हों. तरुण ने बांहों में समेट मुझे पुचकारा. आटो के साइड वाले शीशे पर नजर पड़ी, ड्राइवर हमें घूर रहा था. मैं ने आंसू पोंछ बाहर देखना शुरू कर दिया. झीलों का शहर, हरियाली का शहर, टेकरीटीलों पर बने आलीशन बंगलों का शहर और मेरे तरुण का शहर.

आटो का इंतजार ही कर रहे थे सब. अभी तो शादी को हफ्ताभर है और इतने सारे मेहमान? तरुण ने बताया, मेहमान नहीं, रिश्तेदार एवं बहनें हैं. सब सपरिवार पधारे हैं, आखिर इकलौते भाई की शादी है. सुन कर मैं ने मुंह बनाया और बहनों ने मुझे देख कर मुंह बनाया. रात होते ही बिस्तरों की खींचतान. गरमी होती तो लंबीचौड़ी छत थी ही. सब अपनीअपनी जुगाड़ में थे. मुझे अपना कमरा, अपना पलंग याद आ रहा था. तरुण ने ही हल ढूंढ़ा, ‘भाभी जमीन पर नहीं सो पाएंगी. मेरे कमरे के पलंग पर भाभी की व्यवस्था कर दो, मेरा बिस्तरा दीवान पर लगा दो.’ मुझे समझते देर नहीं लगी कि तरुण की बहनों की कोई इज्जत नहीं है और मां ठहरी गऊ, तो घर की बागडोर मैं ने संभाल ली. घर के बड़ेबूढ़ों और दामादों को इतना ज्यादा मानसम्मान दिया, उन की हर जरूरतसुविधा का ऐसा ध्यान रखा कि सब मेरे गुण गाने लगे. मैं फिरकनी सी घूम रही थी. हर बात में दुलहन, बड़ी बहू या भाभीजी की राय ली जाती और वह मैं थी. सब को खाना खिलाने के बाद ही मैं खाना खाने बैठती. तरुण भी किसी न किसी बहाने से पुरुषों की पंगत से बच निकलता. स्त्रियां सभी भरपेट खा कर छत पर धूप सेंकनेलोटने पहुंच जातीं. तरुण की नानी, जो सीढि़यां नहीं चढ़ पाती थीं, भी नीम की सींक से दांत खोदते पिछवाड़े धूप में जा बैठतीं. तब मैं और तरुण चौके में अंगारभरे चूल्हे के पास अपने पाटले बिछाते और थाली परोसते. आदत जो पड़ गई है एक ही थाली में खाने की, नहीं छोड़ पाए. जितने अंगार चूल्हे में भरे पड़े थे उस से ज्यादा मेरे सीने में धधक रहे थे. आंसू से बुझें तो कैसे? तरुण मनाते हुए अपने हाथ से मुझे कौर खिला रहे थे कि उस की भांजी अचानक आ गई चौके में गुड़ लेने…लिए बगैर ही भागी ताली बजाते हुए, ‘तरुण मामा को तो देखो, बड़ी मामीजी को अपने हाथ से रोटी खिला रहे हैं. मामीजी जैसे बच्ची हों. बच्ची हैं क्या?’

असमंजस: भाग 1- क्यों अचानक आस्था ने शादी का लिया फैसला

शहनाई की सुमधुर ध्वनियां, बैंडबाजों की आवाजें, चारों तरफ खुशनुमा माहौल. आज आस्था की शादी थी. आशा और निमित की इकलौती बेटी थी वह. आईएएस बन चुकी आस्था अपने नए जीवन में कदम रखने जा रही थी. सजतेसंवरते उसे कई बातें याद आ रही थीं.

वह यादों की किताब के पन्ने पलटती जा रही थी.

उस का 21वां जन्मदिन था.

‘बस भी करो पापा…और मां, तुम भी मिल गईं पापा के साथ मजाक में. अब यदि ज्यादा मजाक किया तो मैं घर छोड़ कर चली जाऊंगी,’ आस्था नाराज हो कर बोली.

‘अरे आशु, हम तो मजाक कर रहे थे बेटा. वैसे भी अब 3-4 साल बाद तेरे हाथ पीले होते ही घर तो छोड़ना ही है तुझे.’

‘मुझे अभी आईएएस की परीक्षा देनी है. अपने पांवों पर खड़ा होना है, सपने पूरे करने हैं. और आप हैं कि जबतब मुझे याद दिला देते हैं कि मुझे शादी करनी है. इस तरह कैसे तैयारी कर पाऊंगी.’

आस्था रोंआसी हो गई और मुंह को दोनों हाथों से ढक कर सोफे पर बैठ गई. मां और पापा उसे रुलाना नहीं चाहते थे. इसलिए चुप हो गए और उस के जन्मदिन की तैयारियों में लग गए. एक बार तो माहौल एकदम खामोश हो गया कि तभी दादी पूजा की घंटी बजाते हुए आईं और आस्था से कहा, ‘आशु, जन्मदिन मुबारक हो. जाओ, मंदिर में दीया जला लो.’

‘मां, दादी को समझाओ न. मैं मूर्तिपूजा नहीं करती तो फिर क्यों हर जन्मदिन पर ये दीया जलाने की जिद करती हैं.’

‘आस्था, तू आंख की अंधी और नाम नयनसुख जैसी है, नाम आस्था और किसी भी चीज में आस्था नहीं. न ईश्वर में, न रिश्तों में, न परंपराओं…’

दादी की बात को बीच में ही काट कर उस ने अपनी चिरपरिचित बात कह दी, ‘मुझे पहले अपनी पढ़ाई और कैरियर पर ध्यान देने दो. मेरे लिए यही सबकुछ है. आप के रीतिरिवाज सब बेमानी हैं.’

‘लेकिन आशु, सिर्फ कैरियर तो सबकुछ नहीं होता. न जाने भगवान तेरी नास्तिकता कब खत्म होगी.’

तभी दरवाजे पर घंटी बजी. आस्था खुशी में उछलते हुए गई, ‘जरूर रंजना मैडम का खत आया होगा,’ उस ने उत्साह से दरवाजा खोला. आने वाला विवान था, ‘ओफ, तुम हो,’ हताशा के स्वर में उस ने कहा. वह यह भी नहीं देख पाई कि उस के हाथों में उस के पसंदीदा जूही के फूलों का एक बुके था.

‘आस्था, हैप्पी बर्थडे टू यू,’ विवान ने कहा.

‘ओह, थैंक्स, विवान,’ बुके लेते हुए उस ने कहा, ‘तुम्हें दुख तो होगा लेकिन मैं अपनी सब से फेवरेट टीचर के खत का इंतजार कर रही थी लेकिन तुम आ गए. खैर, थैंक्स फौर कमिंग.’

आस्था को ज्यादा दोस्त पसंद नहीं थे. एक विवान ही था जिस से बचपन से उस की दोस्ती थी. उस का कारण भी शायद विवान का सौम्य, मृदु स्वभाव था. विवान के परिजनों के भी आस्था के परिवार से मधुर संबंध थे. दोनों की दोस्ती के कारण कई बार परिवार वाले उन को रिश्ते में बांधने के बारे में सोच चुके थे किंतु आस्था शादी के नाम तक से चिढ़ती थी. उस के लिए शादी औरतों की जिंदगी की सब से बड़ी बेड़ी थी जिस में वह कभी नहीं बंधना चाहती थी.

इस सोच को उस की रंजना मैडम के विचारों ने और हवा दी थी. वे उस की हाईस्कूल की प्रधानाध्यापिका होने के अलावा नामी समाजसेविका भी थीं. जब आस्था हाईस्कूल में गई तो रंजना मैडम से पहली ही नजर में प्रभावित हो गई थी. 45 की उम्र में वे 30 की प्रतीत होती थीं. चुस्त, सचेत और बेहद सक्रिय. हर कार्य को करने की उन की शैली किसी को भी प्रभावित कर देती.

आस्था हमेशा से ऐसी ही महिला के रूप में स्वयं को देखती थी. उसे तो जैसे अपने जीवन के लिए दिशानिर्देशक मिल गया था. रंजना मैडम को भी आस्था विशेष प्रिय थी क्योंकि वह अपनी कक्षा में अव्वल तो थी ही, एक अच्छी वक्ता और चित्रकार भी थी. रंजना मैडम की भी रुचि वक्तव्य देने और चित्रकला में थी.

आस्था रंजना मैडम में अपना भविष्य तो रंजना मैडम आस्था में अपना अतीत देखती थीं. जबतब आस्था रंजना मैडम से भावी कैरियर के संबंध में राय लेती, तो उन का सदैव एक ही जवाब होता, ‘यदि कैरियर बनाना है तो शादीब्याह जैसे विचार अपने मस्तिष्क के आसपास भी न आने देना. तुम जिस समाज में हो वहां एक लड़की की जिंदगी का अंतिम सत्य विवाह और बच्चों की परवरिश को माना जाता है. इसलिए घरपरिवार, रिश्तेनातेदार, अड़ोसीपड़ोसी किसी लड़की या औरत से उस के कैरियर के बारे में कम और शादी के बारे में ज्यादा बात करते हैं. कोई नहीं पूछता कि वह खुश है या नहीं, वह अपने सपने पूरे कर रही है या नहीं, वह जी रही है या नहीं. पूछते हैं तो बस इतना कि उस ने समय पर शादी की, बच्चे पैदा किए, फिर बच्चों की शादी की, फिर उन के बच्चों को पाला वगैरहवगैरह. यदि अपना कैरियर बनाना है तो शादीब्याह के जंजाल में मत फंसना. चाहे दुनिया कुछ भी कहे, अपने अस्तित्व को, अपने व्यक्तित्व को किसी भी रिश्ते की बलि न चढ़ने देना.’

आस्था को भी लगता कि रंजना मैडम जो कहती हैं, सही कहती हैं. आखिर क्या जिंदगी है उस की अपनी मां, दादी, नानी, बूआ या मौसी की. हर कोई तो अपने पति के नाम से पहचानी जाती है. उस का यकीन रंजना मैडम की बातों में गहराता गया. उसे लगता कि शादी किसी भी औरत के आत्मिक विकास का अंतिम चरण है क्योंकि शादी के बाद विकास के सारे द्वार बंद हो जाते हैं.

रंजना मैडम ने भी शादी नहीं की थी और बेहद उम्दा तरीके से उन्होंने  अपना कैरियर संभाला था. वे शहर के सब से अच्छे स्कूल की प्राचार्या होने के साथसाथ जानीमानी समाजसेविका और चित्रकार भी थीं. उन के चित्रों की प्रदर्शनी बड़ेबड़े शहरों में होती थी.

आस्था को मैडम की सक्रिय जिंदगी सदैव प्रेरित करती थी. यही कारण था कि रंजना मैडम के दिल्ली में शिफ्ट हो जाने के बाद भी आस्था ने उन से संपर्क बनाए रखा. कालेज में दाखिला लेने के बाद भी आस्था पर रंजना का प्रभाव कम नहीं हुआ, बल्कि बढ़ा ही.

हमेशा की तरह आज भी उन का खत आया और आस्था खुशी से झूम उठी. आस्था ने खत खोला, वही शब्द थे जो होने थे :

‘प्रिय मित्र, (रंजना मैडम ने हमेशा अपने विद्यार्थियों को अपना समवयस्क माना था. बेटा, बेटी कह कर संबोधित करना उन की आदत में नहीं था.)

‘जन्मदिन मुबारक हो.

‘आज तुम्हारा 21वां जन्मदिन है जो तुम अपने परिवार के साथ मना रही हो और 5वां ऐसा जन्मदिन जब मैं तुम्हें बधाई दे रही हूं. इस साल तुम ने अपना ग्रेजुएशन भी कर लिया है. निश्चित ही, तुम्हारे मातापिता तुम्हारी शादी के बारे में चिंतित होंगे और शायद साल, दो साल में तुम्हारे लिए लड़का ढूंढ़ने की प्रक्रिया भी शुरू कर देंगे. यदि एक मूक भेड़ की भांति तुम उन के नक्शेकदम पर चलो तो.

परी हूं मैं: भाग 1- आखिर क्या किया था तरुण ने

जिस रोज वह पहली बार राजीव के साथ बंगले पर आया था, शाम को धुंधलका हो चुका था. मैं लौन में डले झूले पर अनमनी सी अकेली बैठी थी. राजीव ने परिचय कराया, ‘‘ये तरुण, मेरा नया स्टूडैंट. भोपाल में परी बाजार का जो अपना पुराना घर था न, उसी के पड़ोस में रमेश अंकल रहते थे, उन्हीं का बेटा है.’’ सहजता से देखा मैं ने उसे. अकसर ही तो आते रहते हैं इन के निर्देशन में शोध करने वाले छात्र. अगर आंखें नीलीकंजी होतीं तो यह हूबहू अभिनेता प्राण जैसा दिखता. वह मुझे घूर रहा था, मैं हड़बड़ा गई. ‘‘परी बाजार में काफी अरसे से नहीं हुआ है हम लोगों का जाना. भोपाल का वह इलाका पुराने भोपाल की याद दिलाता है,’’ मैं बोली.

‘‘हां, पुराने घर…पुराने मेहराब टूटेफूटे रह गए हैं, परियां तो सब उड़ चुकी हैं वहां से’’, कह कर तरुण ने ठहाका लगाया. तब तक राजीव अंदर जा चुके थे.

‘‘उन्हीं में से एक परी मेरे सामने खड़ी है,’’ लगभग फुसफुसाया वह…और मेरे होश उड़ गए. शाम गहराते ही आकाश में पूनम का गोल चांद टंग चुका था, मुझे लगा वह भी तरुण के ठहाके के साथ खिलखिला पड़ा है. पेड़पौधे लहलहा उठे. उस की बात सुन कर धड़क गया था मेरा दिल, बहुत तेजी से, शायद पहली बार. उस पूरी रात जागती रही मैं. पहली बार मिलते ही ऐसी बात कोई कैसे कह सकता है? पिद्दा सा लड़का और आशिकों वाले जुमले, हिम्मत तो देखो. मुझे गुस्सा ज्यादा आ रहा था या खुशी हो रही थी, क्या पता. मगर सुबह का उजाला होते मैं ने आंखों से देखा. उस की नजरों में मैं एक परी हूं. यह एक बात उस ने कई बार कही और एक ही बात अगर बारबार दोहराई जाए तो वह सच लगने लगती है. मुझे भी तरुण की बात सच लगने लगी.

और वाकई, मैं खुद को परी समझने लगी थी. इस एक शब्द ने मेरी दुनिया बदल कर रख दी. इस एक शब्द के जादू ने मुझे अपने सौंदर्य का आभास करा दिया और इसी एक शब्द ने मुझे पति व प्रेमी का फर्क समझा दिया. 2 किशोरियों की मां हूं अब तो. शादी हो कर आई थी तब 23 की भी नहीं थी, तब भी इन्होंने इतनी शिद्दत से मेरे  रंगरूप की तारीफ नहीं की थी. परी की उपमा से नवाजना तो बहुत दूर की बात. इन्हें मेरा रूप ही नजर नहीं आया तो मेरे शृंगार, आभूषण या साडि़यों की प्रशंसा का तो प्रश्न ही नहीं था. तरुण से मैं 1-2 वर्ष नहीं, पूरे 13 वर्ष बड़ी हूं लेकिन उस की यानी तरुण की तो बात ही अलहदा है. एक रोज कहने लगा, ‘मुझे तो फूल क्या, कांटों में भी आप की सूरत नजर आती है. कांटों से भी तीखी हैं आप की आंखें, एक चुभन ही काफी है जान लेने के लिए. पता नहीं, सर, किस धातु के बने हैं जो दिनरात किताबों में आंखें गड़ाए रहते हैं.’

‘बोरिंग डायलौग मत मारो, तरुण,’ कह कर मैं ने उस के कमैंट को भूलना चाहा पर उस के बाद नहाते ही सब से पहले मैं आंखों में गहरा काजल लगाने लगी, अब तक सब से पहले सिंदूर भरती थी मांग में. तरुण के आने से जाने अनजाने ही शुरुआत हो गई थी मेरे तुलनात्मक अध्ययन की. इन की किसी भी बात पर कार्य, व्यवहार, पहनावे पर मैं स्वयं से ही प्रश्नोत्तर कर बैठती. तरुण होता तो ऐसे करता, तरुण यों कहता, पहनता, बोलता, हंसताहंसाता. बात शायद बोलनेबतियाने या हंसतेहंसाने तक ही सीमित रहती अगर राजीव को अपने शोधपत्रों के पठनपाठन हेतु अमेरिका न जाना पड़ता. इन का विदेश दौरा अचानक तय नहीं हुआ था. पिछले सालडेढ़साल से इस सैमिनार की चर्चा थी यूनिवर्सिटी में और तरुण को भी पीएचडी के लिए आए इतना ही वक्त हो चला है. हालांकि इन के निर्देशन में अब तक दसियों स्टूडैंट्स रिसर्च कंपलीट कर चुके हैं मगर वे सभी यूनिवर्सिटी से घर के ड्राइंगरूम और स्टडीहौल तक ही सीमित रहे किंतु तरुण के गाइड होने के साथसाथ ये उस के बड़े भाई समान भी थे क्योंकि तरुण इन के गृहनगर भोपाल का होने के संग ही रमेश अंकल का बेटा जो ठहरा. इस संयोग ने गुरुशिष्य को भाई के नाते की डोर से भी बांध दिया था.

औपचारिक तौर पर तरुण अब भी भाभीजी ही कहता है. शुरूशुरू में तो उस ने तीजत्योहार पर राजीव के और मेरे पैर भी छुए. देख कर राजीव की खुशी छलक पड़ती थी. अपने घरगांव का आदमी परदेस में मिल जाए, तो एक सहारा सा हो जाता है. मानो एकल परिवार भरापूरा परिवार हो जाता है. तरुण भी घर के एक सदस्य सा हो गया था, बड़ी जल्दी उस ने मेरी रसोई तक एंट्री पा ली थी. मेरी बेटियों का तो प्यारा चाचू बन गया था. नन्हीमुन्नी बेटियों के लिए उन के डैडी के पास वक्त ही कहां रहा कभी. यों तो तरुण कालेज कैंपस के ही होस्टल में टिका है पर वहां सिर्फ सामान ही पड़ा है. सारा दिन तो लेबोरेट्री, यूनिवर्सिटी या फिर हमारे घर पर बीतता है. रात को सोने जाता है तो मुंह देखने लायक होता है. 3 सप्ताहों का दौरा समाप्त कर तमाम प्रशंसापत्र, प्रशस्तिपत्र के साथ ही नियुक्ति अनुबंध के साथ राजीव लौटे थे. हमेशा की तरह यह निर्णय भी उन्होंने अकेले ही ले लिया था. मुझ से पूछने की जरूरत ही नहीं समझी कि ‘तुम 3 वर्ष अकेली रह लोगी?’

मैं ने ही उन की टाई की नौट संवारते पूछा था, ‘‘3 साल…? कैसे संभालूंगी सब? और रिद्धि व सिद्धि…ये रह लेंगी आप के बगैर?’’ ‘‘तरुण रहेगा न, वह सब मैनेज कर लेगा. उसे अपना कैरियर बनाना है. गाइड हूं उस का, जो कहूंगा वह जरूर करेगा. समझदार है वह. मेरे लौटते ही उसे डिगरी भी तो लेनी है.’’ मैं पल्लू थामे खड़ी रह गई. पक्के सौदागर की तरह राजीव मुसकराए और मेरा गाल थपथपाते यूनिवर्सिटी चले गए, मगर लगा ऐसा जैसे आज ही चले गए. घर एकदम सुनसान, बगीचा सुनसान, सड़कें तक सुनसान सी लगीं. वैसे तो ये घर में कोई शोर नहीं करते मगर घर के आदमी से ही तो घर में बस्ती होती है. इन के जाने की कार्यवाही में डेढ़ माह लग गए. किंतु तरुण से इन्होंने अपने सामने ही होस्टलरूम खाली करवा कर हमारा गैस्टरूम उस के हवाले कर दिया. अब तरुण गैर कहां रह गया था? तरुण के व्यवहार, सेवाभाव से निश्ंिचत हो कर राजीव रवाना हो गए.

वैसे वे चाहते थे घर से अम्माजी को भी बुला लिया जाए मगर सास से मेरी कभी बनी ही नहीं, इसलिए विकल्प के तौर पर तरुण को चुन लिया था. फिर घर में सौ औरतें हों मगर एक आदमी की उपस्थिति की बात ही अलग होती है. तरुण ने भी सद्गृहस्थ की तरह घर की सारी जिम्मेदारी उठा ली थी. हंसीमजाक हम दोनों के बीच जारी था लेकिन फिर भी हमारे मध्य एक लक्ष्मणरेखा तो खिंची ही रही. इतिहास गवाह है ऐसी लक्ष्मणरेखाएं कभी भी सामान्य दशा में जानबूझ कर नहीं लांघी गईं बल्कि परिस्थिति विशेष कुछ यों विवश कर देती हैं कि व्यक्ति का स्वविवेक व संयम शेष बचता ही नहीं है. परिस्थितियां ही कुछ बनती गईं कि उस आग ने मेरा, मुझ में कुछ छोड़ा ही नहीं. सब भस्म हो गया, आज तक मैं ढूंढ़ रही हूं अपनेआप को. आग…सचमुच की आग से ही जली थी. शिफौन की लहरिया साड़ी पहनने के बावजूद भी किचन में पसीने से तरबतर व्यस्त थी कि दहलीज पर तरुण आ खड़ा हुआ और जाने कब टेबलफैन का रुख मेरी ओर कर रैगुलेटर फुल पर कर दिया. हवा के झोंके से पल्ला उड़ा और गैस को टच कर गया.

तबादला: उसे कौनसा दंश सहना पड़ा

‘‘इन से मिलिए, यह मेरे विभाग के वरिष्ठ अफसर राजकुमारजी हैं. जब से यह आए हैं स्वास्थ्य विभाग का कामकाज बहुत तेजी से हो रहा है. किसी भी फाइल को 24 घंटे के अंदर निबटा देते हैं,’’ स्वास्थ्य मंत्री मोहनलाल ने राजकुमार का परिचय अपनी पार्टी के एक अन्य वरिष्ठ मंत्री रामचंद्रजी से कराया.

रामचंद्र ने एक उड़ती नजर राजकुमार पर डाली और बोले, ‘‘आप के विभाग में मेरे इलाके के कई डाक्टर हैं जिन के बारे में मुझे आप से बात करनी है. मैं अपने सचिव को बता दूंगा. वह आप से मिल लेगा. आप जरा उन पर ध्यान दीजिएगा.’’

राजकुमार का अधिकारी वर्ग में अच्छा नाम था. वह केवल कार्यकुशल ही नहीं थे बल्कि फैसले भी समझदारी के साथ लेते थे. फाइलों को दबा कर रखना उन के उसूल के खिलाफ था. फैसला किस के हक में हो रहा है, इस बात पर वह ज्यादा माथापच्ची नहीं करते थे. हां, किसी के साथ पक्षपात नहीं करते थे चूंकि दबंग व्यक्तित्व के थे. इसलिए राजनीतिक दखल को सहन नहीं करते थे. आम व्यक्ति उन की कार्य प्रणाली से संतुष्ट था.

मोहनलाल पहली बार मंत्री बने थे. उन्हें राजकुमार की कार्यशैली का अनुभव नहीं था. उन्होंने जो फाइलों में देखा या दूसरे अधिकारियों व आम लोगों से सुना, उसी के आधार पर मंत्रीजी राजकुमार से बेहद प्रभावित थे. यह और बात है कि मंत्री आमतौर पर जो चाहते हैं वही करवाने की अपने अधिकारियों से उम्मीद करते हैं, चाहे वह नियम के खिलाफ ही क्यों न हो.

मंत्री रामचंद्र के सचिव मुरली मनोहर ने राजकुमार से फोन पर संपर्क किया और बोले, ‘‘कहो भाई, कैसा चल रहा है तुम्हारे विभाग का काम? मेरे विभाग के मंत्री रामचंद्र तुम्हारी बड़ी तारीफ कर रहे थे. उन के इलाके के कुछ डाक्टर 4-5 साल पहले दुबई नौकरी करने चले गए थे. लगता है जाने से पहले उन्होंने सरकार से कोई मंजूरी नहीं ली थी और वहां नौकरी कर ली थी. अब वे पैसा कमा कर भारत लौट आए हैं. वह इस गैरहाजिरी के समय को छुट्टी मनवा कर वापस नौकरी पर आना चाहते हैं. उन सब की फाइलें तुम्हारे पास हैं, क्या विचार है? मैं मंत्रीजी से क्या कहूं?’’

राजकुमार ने शांति से मगर दृढ़तापूर्वक कहा, ‘‘ऐसे डाक्टरों की तादाद बहुत ज्यादा है और इस बात को उन्होंने मौखिक रूप से स्वीकार भी किया है, लेकिन अपने लिखित पत्र में मातापिता की लंबी बीमारी या उन के देहांत का बहाना बना कर छुट्टी मंजूर करने की प्रार्थना की है. समस्या यह है कि उन की गैरहाजिरी के दौरान स्वास्थ्य विभाग ने दूसरे डाक्टरों की नियुक्ति कर दी थी. अब उन्हें हटा कर इन्हें वापस लेने का कोई औचित्य नहीं है. ऐसे डाक्टरों पर विभागीय जांच भी चल रही है. ऐसे में इन्हें वापस नौकरी पर लेना मुमकिन नहीं है. मेरी स्वास्थ्य मंत्री से इस बारे में बात हुई है. आप अपने मंत्री को हमारी इस बातचीत से अवगत करा सकते हैं.’’

स्वास्थ्य मंत्री मोहनलाल को जब इस बात का पता चला तो वह तिलमिला उठे. फौरन राजकुमार को बुला कर कहने लगे, ‘‘आप मंत्री रामचंद्रजी के बारे में कुछ जानते भी हैं. वह मेरे आराध्य हैं. उन्हीं की मदद से मैं मंत्री बन पाया हूं. यदि उन का यह छोटा सा काम नहीं हुआ तो वह मुझ से नाराज हो जाएंगे. हो सकता है कि वह मुख्यमंत्री तक इस विषय को ले जाएं और मुझे मंत्री पद से भी हाथ धोना पड़ जाए. आप इतनी सख्ती न करें तो अच्छा होगा.’’

राजकुमार गंभीर हो कर बोले, ‘‘आप इस विभाग के मंत्री हैं. हालात की गंभीरता को समझने की कोशिश करें. हमारे दिमाग को कुछ डाक्टर समझते हैं कि वह कैसा भी अनैतिक कार्य क्यों न करें, उन पर कोई काररवाई नहीं हो सकती क्योंकि उन्हें राजनीतिक समर्थन प्राप्त है.

‘‘अंधेरगर्दी मची हुई है. कई डाक्टर अस्पताल से गायब रह कर अपनी निजी प्रैक्टिस करते हैं तो कुछ बिना अनुमति लिए विदेशों में नौकरी करते हैं. और फिर अचानक वापस आ कर अपनी बहाली की बात धड़ल्ले से करते हैं. मैं इस विषय पर एक नोट तैयार कर देता हूं. आप उसे कैबिनेट में चर्चा के लिए रख दीजिए. मुख्यमंत्रीजी जो फैसला करेंगे उसे हम लागू कर देंगे. मेरे विचार में यही इस समस्या का सही हल होगा.’’

इस के बाद मंत्रीजी चुप्पी साध गए.

कुछ ही दिनों में मुख्यमंत्री का फैसला फाइल पर आ गया. वह राजकुमार के तर्क से सहमत थे. स्वास्थ्य मंत्री ने भी इस समस्या को आगे न खींचने में ही अपनी भलाई समझी.

विभाग में डाक्टरों के 1 हजार खाली पड़े पदों को भरने का सरकारी आदेश आया. मंत्रीजी का पी.ए. बड़ा घाघ था. उस ने उन्हें समझाया, ‘‘सर, अपने आराध्य रामचंद्रजी तथा दूसरे मंत्रिगण को खुश करने का यह बड़ा अच्छा मौका है. आप एक कमेटी का निर्माण कर के सचिव राजकुमार को उस का चेयरमैन बना दीजिए तथा सभी मंत्रिगण की सिफारिश पर डाक्टरों की भरती कीजिए. ऐसा पहले भी किया जा चुका है.’’

पी.ए. के सुझाव पर मंत्रीजी बेहद खुश हुए. उन्होंने फौरन राजकुमार से बातचीत करते हुए कहा, ‘‘आप ने डाक्टरों की भरती के लिए आया सरकारी आदेश जरूर देखा होगा. मैं चाहता हूं कि एक कमेटी बना कर आप को उस का चेयरमैन बनाया जाए. मैं ने सभी कैबिनेट स्तर के मंत्रियों के लिए 30-30 डाक्टरों का कोटा तय किया है. आप उन की सिफारिश पर उन्हें बतौर दैनिक वेतन पर नियुक्त करें तो सभी मंत्री संतुष्ट हो जाएंगे. कुछ भरतियां विरोधी पक्ष के नेताओं की सिफारिश पर भी की जा सकती हैं ताकि वे सदन में हंगामा खड़ा न करें. आशा है कि इस बार आप मेरे इस सुझाव के अनुसार ही कार्य करेंगे.’’

राजकुमार थोड़ी देर सोचते रहे. फिर बोले, ‘‘मान्यवर, आप का सुझाव सरकारी नियमों के खिलाफ है. कमेटी की रचना तथा मुझे चेयरमैन बनाने का कानून में कोई प्रावधान नहीं है. सरकार के लिखित आदेश मौजूद हैं जिस के तहत डाक्टरों की दैनिक वेतन पर भरती नहीं की जा सकती. डाक्टरों की भरती का अधिकार केवल लोकसेवा आयोग को है. मेरे पास सरकारी आदेश उपलब्ध हैं. मैं आप को फाइल भेज दूंगा. आप कृपया पढ़ लीजिएगा.’’

मंत्रीजी बहुत निराश हुए. उन्होंने सभी बड़े मंत्रियों को उन के सुझाए डाक्टरों की नियुक्ति का वादा कर दिया था. अब क्या होगा? यह सवाल उन के सामने खड़ा था और इसी के साथ जुड़ा था उन की इज्जत का सवाल.

पी.ए. ने एक बार फिर उन्हें बहकाया और कहा, ‘‘सर, आप की आज्ञा सरकारी आदेशों के ऊपर है. आप सार्वजनिक हित में कोई भी आदेश दे सकते हैं. सचिव को उस का पालन करना ही पड़ेगा. आप इतना निराश न हों. आप फाइल पर आदेश दे दीजिए. मैं एक नोट तैयार कर देता हूं.’’

मंत्रीजी ने वैसा ही किया. राजकुमार ने अपने सेवाकाल में ऐसे कई आदेश देखे थे. वह पी.ए. की शरारत को समझ गए और मंत्रीजी से मिल कर उन्हें सुझाया, ‘‘सर, इस फाइल को मैं अपनी टिप्पणी सहित कानून विभाग को भेज देता हूं. उन की सलाह पर ही आगे की काररवाई करना उचित होगा.’’

यह पहली बार था कि राजकुमार चाहते हुए भी फाइल का निबटारा जल्दी नहीं कर पा रहे थे. कुछ अरसे बाद कानून विभाग के सचिव की टिप्पणी सहित फाइल वापस आ गई. राजकुमार के तर्क से उन्होंने सहमति जाहिर की थी. एक बार फिर वह अपने मंत्री से मिले. उन्हें फाइल दिखाई और सुझाव दिया, ‘‘कानून विभाग के सचिव ने अपनी टिप्पणी फाइल पर लिखित रूप में दी है. इस के खिलाफ कार्य करने पर विधानसभा में हंगामा खड़ा हो सकता है. विरोधी पक्ष वाले इस तरह के नियम के विरुद्ध काररवाई की भनक पड़ते ही आप के लिए बहुत बड़ी परेशानी खड़ी कर सकते हैं. मेरा सुझाव है कि नियमों के दायरे में ही डाक्टरों की भरती करें तो अच्छा होगा.’’

मंत्रीजी नाराज थे, वह बोले, ‘‘आप इस फाइल को कुछ दिनों के लिए रोक लें. मैं मुख्यमंत्री से बात कर के आप को बताऊंगा कि क्या करना है.’’

एक माह से ज्यादा समय बीत गया पर मंत्रीजी ने न तो मुख्यमंत्री से कोई बात की और न ही अपने सचिव को कोई आदेश दिया. राजकुमार के याद दिलाने पर कि भरती का सूचनापत्र सरकारी आदेश के अनुसार अगले एक माह के अंदर निकलना चाहिए वरना समय बढ़ाने के लिए फिर सरकार को भेजना पड़ेगा. विरोधी पक्ष इस तरह की अनियमितताओं की खोजखबर रखता है. अच्छा होगा कि हम अगली काररवाई समयावली के मुताबिक कर लें. मंत्रीजी कुछ नहीं बोले.

राजकुमार मुख्य सचिव से मिलने गए. पूरी बात सुनने पर वह बोले, ‘‘कानून विभाग के सचिव की टिप्पणी फाइल पर है. आप के पास भरती करने के पूरे अधिकार हैं. मंत्रीजी के आदेश की कोई जरूरत नहीं है. यह सरकार का आदेश है और इस पर आप के मंत्री की भी परोक्ष रूप से सहमति कैबिनेट में ली जा चुकी है. वह इसे लटका नहीं सकते. आप आगे की काररवाई कीजिए.’’

लोकसेवा आयोग का डाक्टरों की भरती के लिए सूचनापत्र गजट में छप गया. पी.ए. ने मंत्रीजी को अवगत कराया, ‘‘सर, आप की मंजूरी के बिना सचिव ने लोकसेवा आयोग को भरती का निर्देश जारी कर दिया है. यह आप के सम्मान का सवाल है.’’

मंत्रीजी गुस्से से लालपीले हो गए. अपने पी.ए. को फाइल लाने को कहा. राजकुमार ने मंत्रीजी से फोन पर पूछा, ‘‘क्या मैं आ कर आप को पूरी स्थिति से अवगत कराऊं?’’

मंत्री मोहनलाल तो गुस्से से फड़फड़ा रहे थे. वह रूखे स्वर में बोले, ‘‘कोई जरूरत नहीं है. मैं स्वयं देख लूंगा…’’ उन्होंने अपने वरिष्ठ मंत्रियों से सलाह ली. मालूम नहीं उन्होंने क्या सुझाव दिया पर 2 दिन के बाद फाइल वापस राजकुमार की मेज पर थी. उस पर मंत्रीजी ने अपनी सहमतिस्वरूप हस्ताक्षर कर दिए थे.

मंत्री मोहनलाल मुख्यमंत्री से जा कर मिले. अगले ही दिन राजकुमार अपने पद का कार्यभार एक दूसरे अफसर को दे रहे थे. यह उन की 30 साल के सेवाकाल का 27वां तबादला था.

नया प्रयोग: विजया ने कौनसी हदें पार की थी

‘‘इतना कुछ कह दिया बूआ ने, आप एक बार बात तो करतीं.’’

‘‘मधुमक्खी का छत्ता है यह औरत, अपनी औकात दिखाई है इस ने, अब इस कीचड़ में कौन हाथ डाले, रहने दे स्नेहा, जाने दे इसे.’’

मीना ने कस कर बांह पकड़ ली स्नेहा की. उस के पीछे जाने ही नहीं दिया. अवाक् थी स्नेहा. कितना सचझूठ, कह दिया बूआ ने. इतना सब कि वह हैरान है सुन कर.

‘‘आप इतना डरती क्यों हैं, चाची? जवाब तो देतीं.’’

‘‘डरती नहीं हूं मैं, स्नेहा. बहुत लंबी जबान है मेरे पास भी. मगर मुझे और भी बहुत काम हैं करने को. यह तो आग लगाने ही आई थी, आग लगा कर चली गई. कम से कम मुझे इस आग को और हवा नहीं देनी. अभी यहां झगड़ा शुरू हो जाता. शादी वाला घर है, कितने काम हैं जो मुझे देखने हैं.’’

अपनी चाची के शब्दों पर भी हैरान रह गई स्नेहा. कमाल की सहनशीलता. इतना सब बूआ ने कह दिया और चाची बस चुपचाप सुनती रहीं. उस का हाथ थपक कर अंदर चली गईं और वह वहीं खड़ी की खड़ी रह गई. यही सोच रही है अगर उस की चाची की जगह वह होती तो अब तक वास्तव में लड़ाई शुरू हो ही चुकी होती.

चाची घर के कामों में व्यस्त हो गईं और स्नेहा बड़ी गहराई से उन के चेहरे पर आतेजाते भाव पढ़ती रही. कहीं न कहीं उसे वे सारे के सारे भाव वैसे ही लग रहे थे जैसे उस की अपनी मां के चेहरे पर होते थे, जब वे जिंदा थीं. जब कभी भी बूआ आ कर जाती थी, पापा कईकई दिन घर में क्लेश करते थे. चाचा और पापा बहुत प्यार करते हैं अपनी बहन से और यह प्यार इतना तंग, इतना दमघोंटू है कि उस में किसी और की जगह है ही नहीं.

‘विजया कह रही थी, तुम ने उसे समय से खाना नहीं दिया. नाश्ता भी देर से देती थी और दोपहर का खाना भी.’

‘दीदी खुद ही कहती थीं कि वह नहा कर खाएगी. अब जब नहा लेगी तभी तो दूंगी.’

‘तो क्या 11 बजे तक वह भूखी ही रहती थी?’

‘तब तक 4 कप चाय और बिस्कुट आदि खाती रहती थी. कभी सेब, कभी पपीता और केला आदि. क्यों? क्या कहा उस ने? इस बार रुपए खो जाने की बात नहीं की क्या?’

चिढ़ जाती थीं मां. घर की शांति पूरी तरह ध्वस्त हो जाती. हम भी घबरा जाते थे जब बूआ आती थी. पापा बिना बात हम पर भड़कते रहते मानो बूआ को जताते रहते, देखो, मैं आज भी तुम से अपने बच्चों से ज्यादा प्यार करता हूं. खीजा करते थे हम कि पता नहीं इस बार घर में कैसा तांडव होगा और उस का असर कितने दिन चलेगा. बूआ का आना किसी बड़ी सूनामी जैसा लगता और उस के जाने  के बाद वैसा जैसे सूनामी के बाद की बरबादी. हफ्तों लग जाते थे हमें अपना घर संभालने में. मां का मुंह फूला रहता और पापा उठतेबैठते यही शिकायतें दोहराते रहते कि उन की बहन की इज्जत नहीं की गई, उसे समय पर खानापीना नहीं मिला, उस के सोने के बाद मां बाजार चली गईं, वह बोर हो गई क्योंकि उस से किसी ने बात नहीं की, खाने में नमक ज्यादा था. और खासतौर पर इस बात की नाराजगी कि जितनी बार बूआ ने चाय पी, मां ने उन के साथ चाय नहीं पी.

‘मैं बारबार चाय नहीं पी सकती, पता है न आप को. क्या बचपना है स्नेहा यह. तुम समझाती क्यों नहीं अपने पापा को. विजया आ कर चली तो जाती है, पीछे तूफान मचा जाती है. दिमाग उस का खराब है और भोगना हमें पड़ता है.’

यह बूआ सदा मुसीबत थी स्नेहा के परिवार के लिए. और अब यहां भी वही मुसीबत. स्नेहा के परिवार में तो साल में एक बार आती थी क्योंकि पापा की नौकरी दूसरे शहर में थी मगर यहां चाचा के घर तो वह स्थानीय रिश्तेदार है. वह भी ऐसी रिश्तेदार जो चाहती है भाई के घर में छींक भी मारी जाए तो बहन से पूछ कर.

5 साल पहले इसी तरह के तनाव में स्नेहा की मां की तबीयत अचानक बिगड़ गई थी और सहसा कहानी समाप्त. मां की मौत पर सब सदमे में थे और बूआ की वही राम कहानीस्नेहा और उस का भाई तब होस्टल से घर आए थे. मां की जगह घर में गहरा शून्य था और उस की जगह पर थे पापा और बूआ के चोंचले. चाची रसोई संभाले थीं और पापा अपनी लाड़ली बहन को.

‘पापा, क्या आप को हमारी मां से प्यार था? कैसे इंसान हैं आप. हमारी मां की चिता अभी ठंडी नहीं हुई और बूआ के नखरे शुरू हो भी गए. ऐसा क्या खास प्यार है आप भाईबहन का. क्या अनोखे भाई हैं आप जिसे अपने परिवार का दुख बहन के चोंचलों के सामने नजर ही नहीं आता.’

‘क्या बक रहा है तू?’

‘बक नहीं रहा, समझा रहा हूं. रिश्तों में तालमेल रखना सीखिए आप. बहन की सच्चीझूठी बातों से अपना घर जला कर भी समझ में नहीं आ रहा आप को. हमारी मां मर गई है पापा और आप अभी भी बूआ का ही चेहरा देख रहे हैं.’

ऐसी दूरी आ गई तब पिता और बच्चों के बीच कि मां के जाते ही मानो वे पितृविहीन भी हो गए. स्नेहा की शादी हो गई और भाई बेंगलुरु चला गया अपनी नौकरी पर. पापा अकेले हैं दिल्ली में. टिफिन वाला सुबहशाम डब्बा पकड़ा जाता है और नाश्ते में वे डबलरोटी या फलदूध ले लेते हैं.

‘बूआ से कहिए न, अब आ कर आप का घर संभाले. मां आप दोनों भाईबहन की सेवा करती रहती थीं. तब आप को हर चीज में कमी नजर आती थी. अब क्यों नहीं बूआ आ कर आप का खानापीना देखती. अब तो आप की बहन की आंख की किरकिरी भी निकल चुकी है.’

पापा अपने पुत्र के ताने सुनते रहते हैं जिस पर उन्हें गुस्सा भी आता है और पीड़ा भी होती है. अफसोस होता है स्नेहा को अपने पापा की हालत पर. बहन से इतना प्रेम करते हैं कि उसे ऊंचनीच समझा ही नहीं पाते. कभी बूआ से यह नहीं कह पाए कि देखो विजया, तुम यहां पर सही नहीं हो. तुम्हारी अधिकार सीमा इस घर तक नहीं है.

चाची के घर आई है स्नेहा, भाई की शादी पर. इकलौता बच्चा है चाची का जिस की शादी चाची अपने तरीके से करना चाहती हैं. मगर यहां भी बूआ का पूरापूरा दखल जिस का असर उसे चाची के चेहरे पर साफ दिखाई दे रहा है. समझ सकती है स्नेहा चाची के भीतर उठता तनाव. डर लग रहा है उसे कहीं अति तनाव में चाची का हाल भी मां जैसा ही न हो. चाची के साथ काम में हाथ बंटाती रही स्नेहा और साथसाथ चाची का चेहरा भी पढ़ती रही.

दोपहर में जब वह दरजी के यहां से, आने वाली भाभी के कुछ कपड़े ला कर चाची को दिखाने लगी तब चाचा का फोन आया. स्नेहा ने ही उठा लिया, ‘‘जी चाचाजी, कहिए, चाची थोड़ी देर के लिए लेटी हैं, आप मुझे बताइए, क्या काम है?’’

‘‘विजया दीदी से कोई बात हुई है क्या?’’

‘‘क्यों? क्या हुआ?’’

‘‘उन का फोन आया था, नाराज थीं, कह रही थीं, वह घर गई थी, उस की बड़ी बेइज्जती हुई?’’

‘‘बेइज्जती हुई, बेइज्जती, क्या मतलब?’’

अवाक् रह गई स्नेहा. आगेपीछे देखा उस ने, कहीं चाची सुन तो नहीं रहीं. झट से उठ कर दूसरे कमरे में चली गई और दरवाजा भीतर के बंद कर लिया.

‘‘हां चाचा, बताइए, क्या हुआ, क्या कहा चाची के बारे में बूआ ने? बेइज्जती कैसे हुई, बात क्या हुई?’’

‘‘यह तो उस ने बताया नहीं. बस, इतना ही कहा.’’

‘‘वाह चाचा, आप भी कमाल के हैं. बूआ ने चाबी भरी और आप का बोलना शुरू हो गया पापा की तरह. चाबी के खिलौने हैं क्या आप? 60 साल की उम्र हो गई और अभी तक आप को चाची के स्वभाव का पता ही नहीं चला. बहन से प्रेम कीजिए, मायके में बेटी का सम्मान भी कीजिए मगर अंधे बन कर नहीं. बहन जो दिखाए उसी पर अमल मत करते रहिए,’’ स्नेहा के भीतर का आक्रोश ज्वालामुखी सा फूटा, गला भी रुंध गया, ‘‘हमारी मां भी सारी उम्र पापा को सफाई ही देती रही कि उस ने बूआ की सेवा में कोई कमी नहीं की. मगर पापा कभी खुश नहीं हुए. आज हमारी मां नहीं हैं और पापा अकेले हैं. इस उम्र में आप भी क्या पापा की तरह ही अकेले बुढ़ापा काटना चाहते हैं? आई थी आप की बहन और बहुत अनापशनाप…झूठसच सुना कर गई है. चाची ने जबान तक नहीं खोली. कोई जवाब नहीं दिया कि बात न बढ़ जाए, शादी वाला घर है. उस पर भी नाराजगी और शिकायतें? आखिर बूआ चाहती क्या है? क्या आप का घर भी उजाड़ना चाहती है? आप अपनी बहन की जबान पर लगाम नहीं लगा सकते तो न सही, हम पर तो सवाल मत उठाइए.’’

उस तरफ चुप थे चाचा. कान के साथ लगा था फोन मगर जबान मानो तालू से जा चिपकी थी.

‘‘बूआ से कहिए अपनी इज्जत अपने हाथ में रखे. जगहजगह उसे सवाल बना कर उछालती फिरेगी तो जल्दी ही पैरों में आ गिरेगी. कल को आप की बहू आएगी. यह तो उसे भी टिकने नहीं देगी. चाची और मां में सहनशक्ति थी जो कल भी चुप रहीं और आज भी. हमारी पीढ़ी में तनाव पीने की इतनी क्षमता नहीं है जो सदियोंसदियों बढ़ती ही जाए. बूआ का कभी किसी ने अपमान नहीं किया और अगर हमारा सांस लेना भी उसे पसंद नहीं है तो ठीक है, आप उसे समझा दीजिए, हमारे घर न आए क्योंकि

हम चैन की सांस लेना चाहते हैं.’’

फोन काट दिया स्नेहा ने और धम से पलंग पर बैठ गई. इतना कुछ कह देगी, उस ने कभी सोचा भी नहीं था. तभी चाची दरवाजा खोल अंदर चली आईं.

‘‘क्या हुआ स्नेहा, किस का फोन था? तेरे ससुराल से किसी का फोन था? वहां सब राजीखुशी है न बेटी? क्या दामादजी का फोन था? नाराज हो रहे हैं क्या?’’

उस का तमतमाया चेहरा देख डर रही थी मीना. शादी से 10-12 दिन पहले ही चली आई थी न स्नेहा चाची की मदद करने को. हो सकता है ससुराल में उन्हें कोई असुविधा हो रही हो. मन डर रहा था मीना का.

‘‘मैं ने कहा था न, मैं अकेली जैसेतैसे सब संभाल लूंगी. तुम इतने दिन पहले आ गईं, उन्हें बुरा लग रहा होगा.’’

‘‘नहीं न, चाची. आप के दामाद ने मुझे खुद भेजा है यहां आप की मदद करने को. आप ही तो हैं हमारी मां की जगह. उन का फोन नहीं था, चाचा का फोन था. बूआ ने शिकायत लगाई है कि तुम ने उस की बेइज्जती की है.’’

‘‘और तुम ने अपने चाचा को भाषण दे दिया क्या? यह जो ऊंचाऊंचा कुछ बोल रही थी, क्या उन्हें ही सुना रही थी?’’

‘‘मैं भी तो घर की बेटी हूं न. क्या सारी उम्र बूआ की ही जबान चलेगी. घर की विरासत मुझे ही तो संभालनी है अब. कल वह बोलती थी, आज मैं भी तो बोलूंगी.’’

अवाक् थी मीना, चाहती है हर काम सुखचैन से बीत जाए मगर लगता नहीं कि ऐसा होगा. विजया सदा अड़चन डालती आई है और सदा उस की ही चली है. इस बार भी वह अपनी जायजनाजायज हर जिद मनवाना चाहती है. वह जराजरा सी बात को खींच कर कहानी बना रही है.

‘‘डर लग रहा है मझे स्नेहा, पहले ही मेरी तबीयत ठीक नहीं है, इस औरत ने और तंग किया तो पता नहीं क्या होगा.’’

चाची का हाथ कांपने लगा था आवेग में. उच्चरक्तचाप की मरीज हैं चाची. स्नेहा के हाथपैर फूलने लगे चाची का कांपता हाथ देख कर. उस की मां का भी यही हाल हुआ था. अगर यहां भी वही कहानी दोहराई गई तो क्या होगा, इसी घबराहट में स्नेहा ने चाचा को डाक्टर के साथ घर आने के लिए फोन कर दिया. नजर चाची पर थी जो बारबार बाथरूम जा रही थीं.

डाक्टर साहब आए, पूरी जांच की और वही ढाक के तीन पात.

डाक्टर ने कहा, ‘‘तनाव मत लीजिए. काम का बोझ है तो खुशीखुशी कीजिए न, शादी वाला घर है. बेचैनी कैसी है. बेटी की शादी थोड़े है जो समधन का डर है, बेटे की शादी है.’’

चाचा बोले, ‘‘बेटे की शादी है, इसी बात की तो चिंता है. सभी रूठेरूठे घूम रहे हैं. सब की मनमानी पूरी करतेकरते ही समय जा रहा है फिर भी नाराजगी किसी की भी कम नहीं हुई.’’

‘‘आप का दिमाग खराब हो गया है क्या, जो दुनिया को खुश करने चले हैं. बाल सफेद हो गए और अनुभव अभी तक नहीं हुआ. 60 साल की उम्र तक भी अगर आप नहीं समझे तो कब समझेंगे,’’ मजाक भी था पारिवारिक डाक्टर के शब्दों में और सत्य की कचोट भी. चाचा के शब्दों पर तनिक गंभीरता से बात की डाक्टर साहब ने, ‘‘अपनी सामर्थ्य और हिम्मत से ज्यादा कुछ मत कीजिए आप. गिलेशिकवे अगर कोई करता भी है तो उस का भी चरित्र देखिए न आप. जिसे कभी खुश नहीं कर पाए उसे उसी के हाल पर छोड़ दीजिए. पहले अपना घर देखिए. अपने परिवार की प्राथमिकता देखिए. जो न जीता है, न ही जीने देता है उसे जरा सा दूर रखिए. कहीं न कहीं तो एक रेखा खींचिए न.’’

स्नेहा चुपचाप सब देखतीसुनती रही और चाचा के चेहरे के हावभाव भी पढ़ती रही. डाक्टर साहब दवाएं लिख कर दे गए और चाची बुदबुदाई, ‘मुझे कोई दवा नहीं खानी. बस, यह औरत मेरे घर से दूर रहे.’

‘‘मेरी बहन है वह.’’

‘‘तो बहन की जबान पर लगाम लगाइए, चाचा. आप के ही अनुचित लाड़प्यार की वजह से, यह दिन आ गया कि चाची बूआ को ‘यह औरत’ कहने लगी है. पापा की तरह आप भी बस वही भाषा बोल रहे हैं. ‘स्याह करे, सफेद करे, मैं कुछ नहीं कहूंगा क्योंकि वह मेरी बहन है.’ यह घर तभी तक घर रहेगा जब तक चाची जिंदा हैं और कोई बूआ को चायपानी पूछता है वह भी तब तक है जब तक चाची हैं. आप को भी अपनी बहन के जायजनाजायज तानेशिकवे तभी तक अच्छे लगेंगे जब तक उन को सहने वाली आप की पत्नी जिंदा है. जिस दिन चाची न रहेंगी, देखना, आप की यही बहन कभी देखने भी नहीं आएगी कि आप भूखे सो गए या कुछ खाया भी था,’’ रो पड़ी थी स्नेहा, ‘‘हमारे पापा का हाल देख रहे हैं न आप. अब बूआ वहां क्यों नहीं जाती, जाए न, रहे उस घर में जहां साल में 6 महीने इसी बूआ की वजह से दिनरात मनहूसियत छाई रहती थी.’’

अच्छाखासा तनाव हो गया. उस शाम चाची की तबीयत से परेशान स्नेहा खो चुकी अपनी मां को याद करकर के खूब परेशान रही. ऐसा भी क्या अंधा प्रेम जिसे रिश्ते में तालमेल भी रखना न आए. भावी दूल्हा यानी चाचा का बेटा भी बहन की हालत पर दुखी हो गया उस रात.

‘‘स्नेहा, थोड़ा तो खा ले न,’’ उस ने मनुहार की.

‘‘देख लेना बूआ का दखल एक दिन यहां भी सब तबाह कर देगा. कैसी औरत है यह जो भाई का सुख नहीं देख सकती.’’

‘‘तुम तो मेरा सुख देखो न, स्नेहा. मुझे भूख लगी है. आज कितना काम था औफिस में, क्या भूखा ही सुलाना चाहती हो?’’

हलकी सी चपत लगाई भाई ने उस के गाल पर. चाची भी भूखी बैठी थीं. वे बिना कुछ खाए दवा कैसे खा लेतीं. चाचा विचित्र चुप्पी में डूबे थे. स्नेहा मुखातिब हुई चाचा से, बोली, ‘‘इतने साल उस बेटी की चली, मैं भी ससुराल से आई हूं न, मेरा भी हक है इस घर पर. आप बूआ से कह दीजिए हमारे घर में हमारी मरजी चलने दीजिए. बस, मैं इतना ही चाहती हूं, चाचा. मेरी इतनी सी बात मान लीजिए, चाचा. चाचा, आप सुन रहे हैं न?

‘‘चाचा, मुझे इस घर में सुखचैन चाहिए जहां मेरी आने वाली भाभी खुल कर सांस ले सके. मेरी भाभी सुखी होगी तभी तो मेरा मायका खुशहाल होगा. वरना मुझे पानी के लिए भी कौन पूछेगा, जरा सोचिए.

‘‘मेरा घर, मेरा ससुराल है जहां मेरी मरजी चलती है. यह घर चाची का है, यहां चाची को जीने दीजिए और बूआ अपने घर में खुश रहे. बस, और तो कुछ नहीं मांग रही मैं.’’

गरदन हिला दी चाचा ने. पता नहीं सच में या झूठमूठ. सब ने मिल कर खाना खा लिया. तभी पता चला सुबह 6 बजे वाली गाड़ी से स्नेहा के पिता आ रहे हैं. स्नेहा का भाई बोला, ‘‘मैं शाम को ही बताने वाला था मगर घर में उठा तूफान देख मैं यह बताना भूल गया. ताऊजी का फोन आया था. पूरे 6 बजे मैं स्टेशन पहुंच जाऊं उन्हें लेने. कह रहे थे-घुटने का दर्द बढ़ गया है, इसलिए वे सामान के साथ प्लेटफौर्म नहीं बदल पाएंगे.’’ स्नेहा की चाची बोलीं, ‘‘मैं ने तो कहा भी है, भैया यहीं हमारे पास ही क्यों नहीं आ जाते. वहां अकेले रहते हैं. कौन है वहां देखने वाला.’’

‘‘भैया तो मान जाएं मगर विजया नहीं चाहती,’’ सहसा चाचा के होंठों से निकल गया. सब का मुंह खुला का खुला रह गया. हैरान रह गए सब. चाचा का रंग वास्तव में बदला सा लगा स्नेहा को. शायद अभीअभी उन का मोह भंग हुआ है अपनी पत्नी की हालत देख कर और भाई का उजड़ा घर देख कर.

‘‘भैया अगर मेरे साथ रहें तो विजया को समस्या क्या है? वही बेकार का अधिकार. हर जगह अपनी टांग फसाना शौक है इस का,’’ यह भी निकल गया चाचा के मुंह से.

सब उन का मुंह ही ताकते रह गए. चाचा ने स्नेहा का माथा सहला दिया, ‘‘कल से विजया का दखल समाप्त. अब भैया यहीं रहेंगे मेरे पास. तुम्हारी चाची और तुम्हारी आने वाली भाभी की चलेगी इस घर में. जैसा तुम चाहोगी वैसा ही होगा.’’चाचा का स्वर भीगाभीगा सा था. पता नहीं नाराज थे उस से या खुश थे मगर उन का चेहरा एक नई ही आशा से जरा सा चमक रहा था. शायद वे एक और बेटी की जिद मान एक नया प्रयोग करने को तैयार हो गए थे.

कन्यादान: ससुराल जाने से रिया ने क्यों मना कर दिया

“रिया की माँ आज दिल्ली से राम नाथ जी का phone आया था .उन्होंने रिया के लिए बहुत ही अच्छा लड़का बताया है ,” दयाशंकर जी ने चहकते हुए कहा.

सरिता जी रसोई से बहार निकलकर आई और उत्सुकता से पूछा ,”क्या करता है लड़का..?कैसा है देखने में….?नाम क्या है….?

“सारे सवाल एक ही बार में पूछ लोगी ,अरे सांस तो ले लो जरा …….,”,दयाशंकर जी ने हँसते हुए कहा .
लड़का तो इंजिनियर है और नाम है ‘अविनाश ‘.बस मुझे एक चीज़ की चिंता है की हम इतना दहेज़ कैसे दे पाएंगे?उन्होंने 15 लाख रूपए कैश बोले है .

सरिता जी ने कहा कि पहले लड़का देख लें ,कुंडली मिला लें ,फिर देखते हैं .आखिर हमारी गुडिया(रिया) से बढ़कर कुछ है क्या ?कहीं न कहीं से इंतज़ाम कर लेंगे.वैसे भी मेरे पास थोड़े जेवर पड़े है ,मैं इस बुढ़ापे में अब क्या करूंगी उनका. और जो आपने FD करा रखी थी हम दोनों के नाम से उसे भी तुडवा देंगे.बस हमारी गुडिया खुश रहे हमें और क्या चाहिए?

जब रिया शाम को कॉलेज से लौट कर आई तब उसके छोटे भाई ने उसे सारी बात बताई .रिया अपने पापा के पास गयी और गुस्साते हुए बोली की मुझे नहीं करनी ये शादी. मै अभी आपको छोड़कर कहीं नहीं जाउंगी.क्या मैं आप लोगों को बोझ लगती हूँ?जो आप मुझे पराये घर भेज रहे हो.

दयाशंकर जी ने उसके सर पर हाँथ फेरते हुए कहा,”नहीं मेरी गुडिया …ऐसा सोचना भी मत !बेटी तो पराई होकर भी परायी नहीं होती.एक बेटी ही तो है जिसकी याद माँ बाप के मरते दम तक उनके साथ रहती है.बेटे तो भाग्य से होते हैं पर बेटियां तो सौभाग्य से होती है.

रिया अपने पापा के गले लग गयी और बोली बस अब रहने दीजिये ,मुझे रुलएंगे क्या.?

इसी तरह कुछ महीने बीत गए .रिया का B.TECH भी कम्पलीट हो गया.अविनाश अपने घरवालों के साथ रिया को देखने उसके घर गया.सभी को रिया बहुत पसंद आई.रिया और रिया के माता-पिता को भी अविनाश अच्छा और सुलझा हुआ लगा.शादी की बात पक्की हो गयी.शादी की डेट 6 महीने बाद की निकली.

रिया के माता-पिता और भाई दिन रात शादी की योजना बनाते रहते.जैसे तैसे करके दहेज़ की रकम भी जुटा ली गयी थी.पर ये तो रिया ही जानती थी की इस रकम को जुटाने के पीछे उसके घर वालों ने अपने कितने सपने कुर्बान किये है.

रिया इस शादी से खुश तो थी पर कहीं न कहीं दहेज़ वाली बात उसके मन में चुभ रही थी.वो अनमने मन से अपने पापा के पास गयी और बोली,”पापा ये दहेज़ क्यूँ मांगते है लोग ?क्या बेटी होना कोई अभिशाप है ?एक तरफ तो लड़की अपने सारे रिश्ते नाते ,अपनी सारी यादों को दिल में समेट कर अपने पिता के घर को छोड़ कर किसी अनजान घर में अनजान लोगों के बीच जाती है ,उसपर भी ऊपर से ये दहेज़ !

पापा मुझे समाज के इस प्रथा से तो शिकायत है ही मुझे आप से भी एक शिकायत है.

दयाशंकर जी थोड़ा ठहरे फिर बोले,”क्या हुआ गुडिया ?मुझसे क्या शिकायत है.”?

रिया ने कहा ,”जब मैं छोटी थी और खेल- खेल में कहीं छिप जाती थी तब तो आप जमीन आसमान एक कर देते थे और आज आप मुझे किसी अनजान के हाथों में सौप रहे है……………

पापा आपको याद है जब मैं एक बार आँगन में आपके साथ खेल रही थी तब मैंने आँगन में लगे हुए एक पेड़ को देखकर कहा था की पापा इसे यहाँ से हटाकर अपने बागीचे में लगा लेते है तब आपने कहा था की बेटी ये 4 साल पुराना पेड़ है ,इसका नयी जगह,नयी मिटटी में ढल पाना मुश्किल होगा .आज मैं आपसे पूछती हूँ एक पौधा और भी तो है आपके आँगन का जो 22 साल पुराना है ,क्या वो नयी जगह ढल पायेगा?
दयाशंकर जी की आँखों में आंसू आ गए ,उनका गला रुंध गया .उन्होंने भरे हुए गले से कहा ,”बेटी जब तुमने मुझसे एक चिड़िया को देखकर कहा था की पापा मुझे भी पंख चाहिए ,मैं भी उड़ना चाहती हूँ.तब मैंने तुमसे कहा था न की तुम तो बिना पंखों के एक दिन उड़ कर परदेश चली जाओगी .बेटी यही जीवन का सत्य है .माँ बाप चाह कर भी अपनी बेटी को हमेशा के लिए अपने पास नहीं रख सकते और बेटी यह शक्ति सिर्फ एक औरत में ही होती ,जो खुद को नए माहौल में ढाल सकती हैं ,अनजाने लोगों को भी अपना बना सकती है.ताउम्र उनके लिए जीती है .एक माँ एक बहन और एक पत्नी बनकर.वो बेटियाँ ही तो होती है जिनके हाथों में अपने दोनों घरों की लाज होती है.

यह कहते हुए दयाशंकर जी रो पड़े और उन्होंने रिया को अपने गले से लगा लिया.

शादी का दिन आ चुका था.दरवाज़े पर बारात खड़ी थी .सब बारातियों की आवभगत में लगे हुए थे.रिया शादी के लाल जोड़े में तैयार अपने कमरे में बैठी थी .वो अपने बचपन के खिलौने को देख रही थी तभी रिया के पापा ने आकर उससे कहा चलो गुडिया जयमाल का समय हो गया है ,मै तुम्हे लेके चलूँगा .पर रिया के हाथों में उसके बचपन की गुडिया देखकर वो थोड़ा मुस्कुराये और बोले ,”गुडिया तुम्हे पता है ,मुझमे और तुममे एक चीज़ कॉमन है.रिया ने कहा ,”कौन सी ?

उसके पापा ने कहा की तुम्हे अपनी गुडिया से बहुत प्यार है और मुझे अपनी गुडिया से……..
रिया अपने पापा के गले लग गयी.तभी दयाशंकर जी ने कहा चलो गुडिया देर हो रही है.फिर वो दोनों नीचे आ गए.

धीरे-धीरे करके सारी रश्मे पूरी हो गयी .अब रश्मों का सबसे कठोर समय आया …. कन्यादान का समय.जिससे हर माता-पिता को डर लगता है.

जब पंडित ने उन्हें कन्यादान के लिए बुलाया तो उन्हें ऐसा लगा जैसे कोई उनके जिस्म से उनकी जान मांग रहा हो.वो अन्दर ही अन्दर सोच रहे थे की जिस नन्ही सी गुडिया हो अपने हाथों में खिलाया,जिसकी उंगली पकड़ कर चलना सिखाया ,आज कन्यादान करते समय उसी गुडिया से अपना हाथ छुडाना पड़ेगा.
पर रस्मे तो निभानी ही पड़ती हैं न …ये सोचकर वो आगे बढे .

रिया के माता पिता जब कन्यादान के लिए आये तब रिया अपने माता-पिता को देख कर सोचने लगी की की इन्हें अपने आंसुओ से कितना लड़ना पड़ा होगा.

जब कन्या दान पूरा होने के बाद माता पिता अपना हाथ हटाने लगे तब रिया बहुत रोने लगी और बोली ,”पापा क्या आज से आपने सचमुच मुझको छोड़ दिया………………
रिया की बाते सुनकर दयाशंकर जी से रहा नहीं गया और वो बदहवास रोने लगे .उस समय तो क्या लड़के वाले और क्या लड़की वाले,सभी की आँखों में ही आंसू थे.

सरिता जी ने दयाशंकर जी को संभाला और उन्हें वहां से ले गयी.
सारी रश्में पूरी हो चुकी थी.अब आया सबसे कठिन पल …विदाई का ….

रिया सब से लिपट कर बहुत रो रही थी आखिरकार उसके बचपन की यादों का घरौंदा जो छूट रहा था.रिया ने अपने भाई की तरफ देखा वो कोने में खड़ा सुबक-सुबक कर रो रहा था.उसे चुप करने वाला भी कोई नहीं था.

रिया अपने भाई के पास जाकर उसे च्गुप करने लगी और बोली तुम कहते थे न की मै जब चली जाउंगी तब तुम मुझे याद भी नहीं करोगे.लो अब मैं जा रही हूँ.
उसका भाई रिया से चिपककर बोला …………नहीं दीदी मत जाओ मैं कैसे रहूँगा तुम्हारे बिना.दोनों भाई बहन काफी देर तक एक दूसरे को दिलासा देते रहे.

सबसे मिलने के बाद रिया अपने पिता के पास गई .उसके पिता यहां वहां मुंह घुमा रहे थे .वो खुद को कमजोर नहीं दिखाना चाहते थे,रिया उनसे चिपट कर बहुत रोइ सहसा उनको भी रुलाई छूट गई और वह भी मेरी गुड़िया…….. मेरी गुड़िया………. कहकर बहुत रोए .उसके बाद वो रिया को गाडी में बैठने के लिए ले जा रहे थे.रिया सजाई गई गाड़ी के नजदीक आ गई.

वहीं पास में उसका पति अविनाश अपने दोस्तों से बातें कर रहा था. उसके दोस्त ने कहा ,”अविनाश यार सबसे पहले घर पहुंचते ही होटल चलकर बढ़िया सा खाना खाएंगे, यहां तेरी ससुराल में खाने का मजा नहीं आया.

तभी पास में खड़ा अविनाश का छोटा भाई राकेश बोला,” हां भैया पनीर कुछ ठीक नहीं था और रसमलाई में तो रस ही नहीं था ,यह कहकर वो खूब ठहाके लगाकर हंसने लगा.
रिया ये सब सुन रही थी .पर उसे विश्वास था की अविनाश इन सबको समझाएगा.लेकिन…………………………

लेकिन अचानक उसके कानो में अविनाश की आवाज़ पड़ी.वो कह रहा था ,” अरे हम लोग रास्ते मे जब रुकेंगे तब तुम लोगों को जो खाना है खा लेना, मुझे भी यहां खाने में मजा नहीं आया ,रोटियां तक गर्म नहीं थी “.

अब तक तो रिया सब बर्दास्त कर रही थी लेकिन जब उसने अपने होने वाले पति के मुंह से यह शब्द सुना तो जो रिया गाड़ी में बैठने जा रही थी ,वो वापस मुड़ी ………….. गाड़ी के दरवाजे को जोर से बंद किया और घूंघट हटा कर अपने पापा के पास पहुंची .

उसने अपने पापा का हाथ अपने हाथ में लिया और बोली पापा ,”मैं इनके साथ पूरी जिंदगी नहीं बिता सकती . मैं ससुराल नहीं जा रही हूं. मुझे यह शादी मंजूर नहीं है. यह शब्द उसने इतनी जोर से कहे कि सब लोग हक्के बक्के रह गए .सब उसके नजदीक आ गए. रिया के ससुराल वालों पर तो जैसे पहाड़ टूट पड़ा. मामला क्या था किसी को समझ में नहीं आ रहा था?

तभी रिया के ससुर राधेश्याम जी ने आगे बढ़कर रिया से पूछा,” लेकिन बात क्या है बहू? शादी हो गई है विदाई का समय है अचानक क्या हुआ क्यों तुम शादी को नामंजूर कर रही हो ?
अविनाश भी हक्का-बक्का रह गया उसने रिया के पास आकर कहा कि अब तक तो सही था अब तुम ऐसे क्यों कह रही हो , आखिरी वक्त पर ऐसा क्या हुआ कि तुम ससुराल जाने को मना कर रही हूं?
रिया ने अपने पिता का हाथ पकड़ रखा था. रिया ने अपने ससुर से कहा ,” पिताजी मेरे पापा ने अपने सपनों को मारकर हम दोनों भाई –बहन को पढ़ाया लिखाया व काबिल बनाया है. आप जानते हैं कि एक पिता के लिए एक बेटी क्या मायने रखती है.हो सकता आप ये ण समझ सके क्योंकि आपकी कोई बेटी नहीं है.

रिया रोती हुई बोली जा रही थी……………

आप जानते हैं कि मेरी शादी के लिए और शादी में बारातियों की आवभगत में कोई कमी ना रह जाए इसलिए मेरे पापा पिछले 6 महीने से रात को 2:00 से 3:00 तक शादी की तैयारियों की योजना बनाते रहते थे. खाने में क्या बनेगा ?रसोईया कौन होगा ? पूरी शादी भर वो सबके सामने हाथ जोड़ जोड़ कर खड़े थे जैसे एक बेटी को जन्म देकर कोई पाप कर दिया हो.

बाबु जी जरा सोचिये की वो चीज़ जो आपको पसंद है ,अगर आपसे कोई मांग ले तो आप हिचकिचाने लग जायेंगे,पर एक पिता का जिगर तो देखिये ,जो अपने जिगर का टुकड़ा सौंप देते हैं.
जिस दहेज़ को मांगने में लोगों को कुछ मिनट ही लगते है उसी रकम को जुटाने के लिए एक पिता दिन रात मेहनत करता है.मेरे पति को रोटी ठंड लगी……………उनके दोस्तों को पनीर में गड़बड़ लगी……………..

मेरे देवर को रसमलाई में रस ही नहीं मिला. पर क्या इनको पता है की यह सिर्फ खाना नहीं है ,ये किसी पिता के अरमान व जीवन का सपना होता है .मेरे माता-पिता ने कितने सपनों को मारा होगा..बेटी की शादी में बनने वाले पकवान में स्वाद कई सपनों के कुचलने के बाद आता है. उन्हें पकने में सालों लगते हैं .
पर इनका खिलखिला कर हंसना मेरे पिता के सम्मान को ठेस पहुंचाने की समान है.रिया हाफ रही थी .

रिया के पिता ने रोते हुए कहा ,”लेकिन बेटी इतनी छोटी सी बात!”

रिया ने उनकी बात बीच में काटी और बोली ये छोटी सी बात नहीं है पिताजी ..

मेरे पति को मेरे पिता की इज्जत नहीं है . आपने तो दिल खोलकर अपनी हैसियत से बढ़कर खर्च किया है. आप अपने दिल का टुकड़ा अपनी गुड़िया रानी को विदा कर रहे हैं .आप कितनी रात रोएंगे क्या मुझे पता नहीं .
वो लगातार रोती जा रही थी.
तभी रिया के ससुर ने आगे आकर रिया के आसू पोछे और कहा,”वाकई में किसी ने सच ही कहा है की हर बेटी के भाग्य में तो पिता होता है ,पर हर पिता के भाग्य में तुम्हारे जैसी बेटी नहीं होती’.बेटा तो तब तक अपना होता है जब तक उसे पत्नी नहीं मिलती,लेकिन बेटियां तो मरते दम तक साथ निभाती है…..अब मैंने जाना की भगवन ने मुझे बेटी क्यों नहीं दी.क्यूंकि मेरे नसीब में तो तेरे जैसी बेटी थी.”

रिया के ससुर ने रिया का हाथ पकड़ कर बोला ,”बेटी मेरे बच्चो को माफ़ कर दे.और मुझे मेरी बेटी लौटा दे.तुझे लिए बगैर मैं यहां से खाली हाथ नहीं जाऊंगा.”ये कहकर उनकी आँखों में आंसू आ गए.
रिया अपने ससुर को रोते देख कर उनके गले लग गयी और बोली नहीं पिताजी आप मत रोइए.
रिया के ससुर ने कहा ,”पिताजी नहीं बेटी ,’……………………..पापा’

अविनाश ने भी आकर दयाशंकर जी से माफ़ी मांगी .दयाशंकर जी ने उसे गले लगा लिया.
दयाशंकर जी ऐसी बेटी पाकर गौरव की अनुभूति कर रहे थे.रिया अब राजी खुशी अपने ससुराल रवाना हो गई थी और छोड़ गई थी आंसुओं से भीगी अपने मां पिताजी की आंखें. अपने पिता का वो आंगन जिसमें कल तक वो चहकती रहती थी.आज इस आंगन की चिड़िया उड़ गई थी .अब वो किसी दूसरी देश में और किसी पेड़ पर अपना घरौंदा बनाएगी.

विदाई के समय एक लड़की इसलिए नहीं रोती कि वो अपने माँ बाप से दूर जा रही है बल्कि वो इसलिए रोती है की उसके माँ बाप उसके बिना अकेले रह जायेंगे

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