15 अगस्त स्पेशल: बुराई में अच्छाई- धांसू आइडिया में अच्छाई का शहद

आवश्यकता आविष्कार की जननी है. बचपन में मास्टर साहब ने यह सूत्रवाक्य रटाया था मगर इस का अर्थ अब समझ में आया है. दरअसल, लोकतंत्र में बाबू, अफसर, नेता सभी आम जनता की सेवा कर मेवा खा रहे हैं. लेकिन बेचारे फौजी अफसर क्या करें? उन की तो तैनाती ही ऐसी जगह होती है जहां न तो ‘आम रास्ता’ होता है न ‘आम जनता’ होती है. ऐसे में बेचारे कैसे करें किसी की सेवा और कैसे खाएं मेवा? मगर भला हो उस वैज्ञानिक का जिस ने ‘आवश्यकता आविष्कार की जननी है’ नामक फार्मूला बनाया था. फौजियों के बीवीबच्चे भी खुशहाल जिंदगी जी सकें, इस के लिए जांबाजों ने मलाई जीमने के नएनए फार्मूले ईजाद कर डाले. ऐसेऐसे जो  ‘न तो भूतो और न भविष्यति’ की श्रेणी में आएं.

एक बहादुर अफसर ने तो अपने ही जवानों को टमाटर का लाल कैचअप लगा कर लिटा दिया और फोटो खींचखींच कर अकेले दम दुश्मनों से मुठभेड़ का तमगा जीत लिया. वह तो बुरा हो उन विभीषणों का जिन्होंने चुगली कर दी वरना अब तक वीरता के सारे पुरस्कार अगले की जेब में होते. कुछ लोगों को इस मामले में बुराई नजर आती है. मगर मुझे तो इस में ढेरों अच्छाइयां नजर आती हैं (जाकी रही भावना जैसी प्रभु मूरत देखी तिन तैसी वाला मामला). भारतीय जवानों की वीरता, अनुशासन, वफादारी और फरमांबरदारी के किस्से तो पुराने जमाने से मशहूर हैं.

वे अपने अफसरों के हुक्म पर हंसतेहंसते प्राण निछावर कर देते हैं. कभी उफ नहीं करते. अब अफसर ने कहा, प्राण निछावर करने की जरूरत नहीं, बस, लाल कैचअप लगा कर मुरदा बन जाओ. बेचारों ने उफ तक नहीं की और झट से मुरदा बन फोटो खिंचवा ली. है किसी और सेना में अनुशासन की इतनी बड़ी मिसाल?

बालू से तेल निकालने के किस्से तो आप ने बहुत सुने होंगे लेकिन चाइना बौर्डर पर टाइमपास कर रहे कुछ अफसरों ने पानी से तेल निकाल ईमानदारी के सीने पर नए झंडे गाड़ दिए हैं. अगलों ने फौजी टैंकों के लिए पैट्रोल पहुंचाने वाले टैंकरों में शुद्ध जल सप्लाई कर दिया. बाकायदा हर चैकपोस्ट पर टैंकरों की ऐंट्री हुई ताकि कागजपत्तर पर हिसाब पक्का रहे.

उस के बाद गश्त लगाते लड़ाकू टैंक कितने किलोमीटर चले, उन का प्रति लिटर ऐवरेज क्या है और वे कितना पैट्रोल पी गए, यह या तो ऊपर वाला जानता है या जुगाड़खोर अफसर. कुछ लालची ड्राइवरों के चलते हिसाबकिताब गड़बड़ा गया वरना सबकुछ रफादफा रहता और चारों ओर शांति छाई रहती.

कुछ लोगों को इस में भी बुराई नजर आती है. लेकिन, मुझे तो इस में भी ढेरों अच्छाइयां नजर आती हैं. ऊपर वाला न करे लेकिन अगर कभी दुश्मन की सेना आप के चैकपोस्ट पर कब्जा कर ले और वहां आप के डीजलपैट्रोल से भरे टैंकर खड़े हों तो क्या होगा? आप का ही तेल भर कर वह आप के सीने पर चढ़ी चली आएगी.

लेकिन अगर टैंकरों में पानी भरा हो तो बल्लेबल्ले हो जाएगी. गलतफहमी में दुश्मन मुफ्त का तेल समझ उन टैंकरों से पानी अपने टैंकों में भर लेंगे और थोड़ी दूर चलने के बाद उन के टैंक टें बोल जाएंगे. है न बिलकुल आसान तरीका दुश्मन को चित करने का.

ये सब तो हुई पुरानी बातें. हाल ही में प्रतिभाशाली फौजियों ने जन कल्याण का ऐसा फार्मूला ईजाद किया कि दांतों तले उंगलियां दबाई जाएं या उंगलियों से दांत दाबे जाएं, तय करना मुश्किल है. किसी भले आदमी ने कानून बना दिया कि कश्मीर में गोलाबारूद, विस्फोटक का पता बताने वालों को  30 से 50 हजार रुपए का इनाम दिया जाएगा. बस, लग गई लौटरी हाथ. अगलों ने खाली डब्बों में काले रंग की बालू भर दी और तारवार जोड़ कर सुरक्षित स्थानों पर रखवा दिया. उस के बाद? अरे भैया, उस के बाद क्या पूछते हो?

जानते नहीं कि इतनी बड़ी फौज का इतना बड़ा नैटवर्क चलाने के लिए मुखबिरों की टीम बनानी बहुत जरूरी है और उस से भी ज्यादा जरूरी है मुखबिरों को खुश रखना. बेचारे जान जोखिम में डाल कर फौज के लिए सूचनाएं लाते हैं. अब नियमानुसार तो नियम से ज्यादा रकम मुखबिरों को दी नहीं जा सकती और उतने में मुखबिर काम करने को राजी नहीं होते.

इसीलिए अगलों ने अपने मुखबिरों से ही उन नकली विस्फोटकों के छिपे होने की सूचना दिलवा दी और फटाक से छापा मार उसे बरामद करवा दिया. बस, 30 से 50 हजार रुपए तक का इनाम पक्का. अब भैया, मुखबिर कोई बेईमान तो होते नहीं जो सारा माल खुद हड़प जाएं. सुना है बेचारे आधा इनाम पूरी ईमानदारी से हुक्मरानों को सौंप देते हैं ताकि उन के भी परिवार पलते रहें वरना खाली तनख्वाह में आजकल होता क्या है.

कुछ लोगों को इस में भी बुराई नजर आती है. (पता नहीं इस देश के लोग इतनी संकीर्ण मानसिकता वाले क्यों हैं?) मगर मुझे तो इस में अच्छाइयों का महासागर नजर आता है. कुछ अच्छाइयां गिनवा देता हूं. पहली बात ऐसी घटनाओं से मुखबिरों और उन के खास अफसरों के दिन बहुरे, ऊपर वाला करे ऐसे ही सब के दिन बहुरें.

दूसरी बात यह है कि इस से पाकिस्तान का असली चेहरा  सामने आ गया. वह कैसे? अरे भैया, इतना भी नहीं समझे? देखो, एक जमाने से पूरी दुनिया आरोप लगा रही है कि इंडिया में जो बमवम दग रहे हैं उस के पीछे पाकिस्तान का हाथ है, जबकि वहां के बेचारे निर्दोष हुक्मरान एक जमाने से दुहाई दे रहे हैं कि भारत में चल रहे आतंकवाद में उन का कोई हाथ नहीं है. अब इस घटना से यह साफ हो गया है कि बमवम हमारे ही फौजी रखवा रहे हैं. इस से पाकिस्तान का चेहरा बेदाग साबित हो गया. दुनिया वालों को उस पर तोहमत लगाना छोड़ देना चाहिए.

अगर थोड़ी देर के लिए मान लिया जाए कि आईएसआई वालों ने बिना अपने मासूम हुक्मरानों की जानकारी के दोचार बम अपने एजेंटों से रखवा दिए होंगे तो उन में भी आपस में सिरफुटौव्वल हो जाएगी. वह कैसे? अरे भैया, आप तो कुछ भी नहीं समझते. सीधी सी बात है, भारतीय सेना जब दनादन विस्फोटक बरामद करेगी तो आईएसआई वाले अपने एजेंटों को हड़काएंगे कि तुम लोग एक भी काम ढंग से नहीं करते. ऐसी जगह बम लगाया जो बरामद हो गया.

इस के अलावा हम ने बारूद दिया था 2 बम लगाने का और तुम लोगों ने आधाआधा लगा दिया 2 जगह. तभी एक भी ढंग से नहीं फटा. बेचारे एजेंट अपनी सफाई देते रहें लेकिन उन की सुनेगा कोई नहीं. ताव खा कर वे आपस में लड़ मरेंगे. आखिर वे भी महान तालिबानी गुरुओं के महान चेले हैं. कोई ऐरेगैरे नहीं. बताइए, अगर ऐसा हुआ तो मजा आ जाएगा या नहीं? खामखां दुश्मन आपस में लड़ मरेंगे और अपनी पौबारह हो जाएगी. इसी को कहते हैं कि हींग लगे न फिटकरी और रंग निकले चोखा.

तो भैया, देखा आप ने, फौजी जो भी करते हैं देशहित में करते हैं. देशहित में कई बार उन को अपनी असली योजना गुप्त रखनी पड़ती है. इसलिए उन के कामों को ऊपरी नजर से मत देखिए. गहराई में जा कर देखेंगे तो आप को भी उन की हर हरकत में अच्छाई नजर आएगी. जैसे, मुझे नजर आ रही है. इसलिए, अब जरा जोर से बोलिए, जयहिंद.

तीज स्पेशल: 12 साल छोटी पत्नी- भाग 2-सोच में फर्क

सुनील की पार्टी के लिए मैं ने खास तैयारी की, फिगर मेरा मस्त है ही. खूब ध्यान रखती हूं अपना. मैं ने उस दिन बहुत स्टाइलिश तरीके से साड़ी पहनी. स्लीवलेस ब्लाउज. सुंदर सी हील. शोल्डर कट बालों को बढ़िया कर्ल किया. शानदार मेकअप. मुझे ऊपर से नीचे तक देखते हुए जयराज ने अपनी बांहों में भर लिया, “ये तुम किस के लिए इतना तैयार हो गई, डार्लिंग?’’

“तैयार तो मूवी के लिए होना था, पर आप भजन, कीर्तन में ले जा रहे हो तो कम से कम मैं तैयार तो अपनी मरजी का हो ही सकती हूं.’’

सुनील की पत्नी रीना अच्छाखासा फैली हुई महिला हैं, ड्रेसिंग सेंस जीरो है. मुझे अकसर जलन के भाव से देखती हैं, मैं ठहरी औरत. दूसरी औरत के मन के भाव पढ़ने में एक्सपर्ट. पुरुष बेचारे ये सब नहीं जानते. ये गुण तो हमें ही मिला है.

सुनील स्मार्ट है, और पार्टी में तो काफी स्टाइलिश लग रहा था. मेरी ही उम्र का होगा. जयराज को सर कहता है, मेरा नाम लेता है. रीना मुझ से 2 साल छोटी होगी. भजन चल रहे थे, तो मैं अनमनी सी उठ कर स्विमिंग पूल के पास आ कर टहलने लगी. सब को अंदाजा है कि मैं भजन, कीर्तन के दौरान बहुत देर तक नहीं बैठती, बाहर टहलती रहती हूं, आज तो मजा तब आया, जब सुनील भी उठ कर मेरे पीछे आ गया. यह देख मैं चौंकी, ”अरे, आप की तो पार्टी है, आप क्यों उठ कर आ गए?’’

मुझे जयराज पर कितना भी गुस्सा आता हो, पर मैं उन्हें प्यार भी करती हूं, परपुरुष में इतनी रुचि नहीं लेती कि बात बढ़े. हां, अभी शरारत सूझी थी तो मुसकराते हुए बोल पड़ी, “आज आप बहुत अच्छे और खुश लग रहे हैं.’’

सुनील के अंदर जो फ्लर्ट पुरुष है, वह पत्नी की अनुपस्थिति में जाग उठा, बोला, “आप तो हमेशा ही स्मार्ट लगती हैं, पर आज तो गजब ढा रही हैं.’’

मैं बस ‘थैंकयू’ कहते हुए मुसकरा दी.

“चलिए, बैठते हैं,” कहते हुए मैं ओपन प्लेस में रखी एक चेयर पर बैठ गई कि तभी जयराज भी आ गए और सुनील से कहने लगे, “भाई, तुम यहां क्या कर रहे हो? कीर्तन किस के लिए रखवाया है?’’

“मैं बस यों ही आ गया था. सर, आप बैठिए. अब बस भोग का टाइम हो ही रहा है, जरा देखता हूं,” कह कर सुनील चला गया, तो जयराज ने मुझ से पूछा, “क्या कह रहा था?’’

“तारीफ कर रहा था. मैं खुश हो गई. तुम तो कंजूस हो तारीफ करने में. सुनील हमेशा मेरी तारीफ करता है.’’

“इस से थोड़ा दूर रहा करो. बेकार आदमी है.’’

जयराज यहां अब आम पति बन गए. मैं ने छेड़ा, “अरे, इस में क्या बुरा है? अच्छी बातों की तो तारीफ होनी ही चाहिए.’’

“बस, मैं ने कह दिया न कि इस से दूर रहा करो.’’

“तो मुझे यहां लाते ही क्यों हो?’’

“ठीक है, अब मत आया करना.’’

शायद रीना ने भी मुझे सुनील से बातें करते देख लिया था. मैं आज लग भी तो रही थी एकदम सैक्सी बौम्ब. रमेश, अनिल और विजय भी बहाने से मुझ से बातें करने आ रहे थे.

जयराज के माथे पर त्योरियां ही रहीं, जिन्हें देख कर मुझे आज खास मजा आया.

इस के बाद एक पार्टी और हुई, जहां मैं इस तरह तैयार हो कर गई कि पुरुष तो पुरुष, महिलाएं भी मुझे देखती रह गईं.

घर आ कर जयराज का मुंह उखड़ा ही रहा, चिढ़चिढ़ शुरू हो गई, “अपनी पत्नी सामने है तो भी दूसरे की पत्नी को घूरते रहेंगे. मुझे देखो, किसी की पत्नी की तरफ आंख भी नहीं उठाता. अब तुम क्लब कम ही जाया करो, नहीं तो मेरा सब से झगड़ा ही हो जाएगा. अपनी फ्रैंड्स के साथ ही प्रोग्राम बना कर एंजौय किया करो.’’

मैं ने भोला चेहरा बनाए हामी भर दी और उन के गले में बांहें डाल दीं. मैं ने चैन की सांस ली, जान बची लाखों पाए… अब मैं जीभर कर एंजौय कर पाऊंगी, अपनी उम्र की सहेलियों के साथ.

जयराज अपने क्लब में खुश, मैं अपनी फ्रैंड्स के साथ खुश, जिन्हें भजनकीर्तन नहीं, मूवीज, खानापीना अच्छा लगता है. उम्र के अंतर के चलते हम दोनों के स्वभाव में फर्क है, उसे रोरो कर क्या निभाना, कुछ तो करना पड़ता है न कि किसी को कोई तकलीफ भी न हो और दोनों खुश भी रह लें.

और हां, अपनी इस हरकत से मैं यह भी समझ पाई कि हर समस्या का हल निकाला जा सकता है.

जयराज के क्लब के भजनकीर्तन से पीछा छूटने पर मैं अपनेआप को शाबाशी देते नहीं थक रही थी.

और फिर एक दिन औफिस से ही जयराज ने फोन किया, ”अमोली, संडे को हमारे पत्थर वाले बाबा सुधीर के घर मिलने आ रहे हैं. उन्होंने मुझे भी फोन कर के बताया, तो मैं ने उन के दर्शन का समय मांग लिया, वाशी चलेंगे, वे वहीं ठहरे हैं.
मैं तुम्हें कहता न, पर उन्होंने विशेष रूप से तुम्हें साथ लाने के लिए कहा है.’’

“ओह्ह नो. फिर…? यार, एक बात बताओ, ये पत्थर वाले बाबा का क्या नाम हुआ?”

“कई बार बता चुका हूं, अब नहीं बताऊंगा, बहुत बिजी हूं.”

जयराज ने फोन रख दिया, पत्थर वाले बाबा. एक नंबर का धूर्त. आंखें ऐसी जैसे आंखों से ही खा जाएगा, ऊपर से नीचे तक शरीर को तौलती आंखें. ये इन पुरुषों को दिखता नहीं क्या कि इन की पत्नियों को, बेटियों को कैसे घूरा जाता है, घर की बड़ीबूढ़ी औरतें इन की भक्त कैसे हो सकती हैं. हम अपनी लाइफ की समस्याओं को खुद क्यों नहीं निबटा सकते, जो इन जैसों के सामने झुके चले जाते हैं. ये सही तरह से इनसान ही नहीं बन सके, इन्हें क्यों ईश्वर का रूप समझ लिया जाता है. किस बात का डर है आम इनसान को? ये बाबा लोग हमारे दुख दूर कर देंगे? मुझे सुधीर की बहन नीरा की बात याद आई, जो उस ने पिछली बार मिलने पर कही थी, “भाभी, सुधीर भैया को समझाइए न. इन बाबा को घर न बुलाया करें. ये जरा भी अच्छे नहीं हैं. मालती भाभी और मां भी इन के दर्शन करने के लिए बेचैन रहती हैं. बस आप ही मेरी तरह इन्हें इग्नोर करती हैं. भाभी, कुछ कर सकती हैं?” नीरा और मेरी बोंडिंग बहुत अच्छी है, सुधीर की फैमिली जब भी कहीं गई है, नीरा को पढ़ाई के लिए मेरे पास छोड़ गई है. मैं ने नीरा को फोन किया, “कपटी फिर आ रहा है, नीरा?”

बंटवारा- भाग 2: क्या थी फौजिया की कहानी

विभाजन के समय बेबे 13-14 साल की बच्ची थी और राजस्थान के एक गांव में रहती थी. उसे अपने गांव का नाम व पता तो अब याद नहीं है लेकिन इतना ज़रूर याद है कि उस के गांव में मोर  बहुत थे और उसी बात के लिए उस का गांव मशहूर था. परिवार में अम्मा, बापू के अलावा 3 भाई और 1 बहन थी. बहन व भाइयों के नाम उसे आज भी  याद हैं- बंसी, सरजू और किसना 3 भाई और बहन का नाम लाली.l  उस का बापू कालूराम गांव के ज़मींदार के खेतों में काम करता था और अम्मा भी कुंअरसा ( ज़मींदार ) के घर में पानी भरने व कपड़ेभांडी धोने का काम करती थी. अपने छोटे बहनभाइयों को लक्ष्मी (बेबे) संभालती थी. बापू ने  पास के गांव में लक्ष्मी का रिश्ता तय कर दिया था. लक्ष्मी का होने वाला बिनड़ा चौथी जमात में पढ़ता था और उस की परीक्षा के बाद दोनों के लगन होने की बात तय हुई थी.

उसी दौरान देश का विभाजन होने की खबर आई और चारों तरफ हड़कंप सा मचने लगा. उस के गांव से भी कुछ मुसलमान परिवार पाकिस्तान जाने की तैयारी करने लगे. लक्ष्मी के बापू ने उस की ससुराल वालों से हालात सुधरने के बाद लगन करवाने के लिए कहा, तो लक्ष्मी के होने वाले ससुर ने कहा कि ब्याह बाद में कर देंगे, पर सगाई अभी ही करेंगे.

सगाई वाले दिन हाथों में मेंहदी लगा व नया घाघराचोली पहन कर लक्ष्मी तैयार हुई. अम्मा ने फूलों से चोटी गूंथी तो लक्ष्मी घर के एकलौते शीशे में बारबार जा कर खुद को निहारने लगी. आंगन में ढोलक बज रही थी और आसपास की औरतें बधाइयां गा रही थीं. फिर उस की होने वाली सास ने लक्ष्मी को चांदला कर के हंसली व कड़े पहनाए और हाथों में लाललाल चूड़ियां पहना कर उस को सीने से लगा लिया. घर में गानाबजाना चल रहा था, तब मां की आंख बचा कर लक्ष्मी अपने गहने व कपड़े सहेलियों को दिखाने के लिए झट से बाहर भाग गई व दौड़ती हुई खेतों की तरफ चली गई. बहुत ढूंढा, पर उसे वहां कोई भी सहेली खेलती हुई नहीं मिली. हां, खेतों के पास से कई खड़खडों  में भर कर लोगों की भीड़ कहीं जाती हुई ज़रूर दिखाई दी.

लछमी वापस लौटने लगी, तभी किसी ने उसे पुकारा. उस ने पलट कर देखा. उस की सहेली फातिमा एक खड़खड़े में बैठी उसे आवाज़ दे रही थी. लक्ष्मी दौड़ कर उस के पास गई और उस से पूछने लगी कि वह कहां जा रही है? फातिमा ने बताया कि वह पाकिस्तान जा रही है और अब वहीं रहेगी. लक्ष्मी अपनी सहेली से बिछुड़ने के दुख से रोने लगी. तभी फातिमा के अब्बू जमाल चचा ने लक्ष्मी को झट से हाथ पकड़ कर अपने खड़खड़े में बैठा लिया और कहा कि जब तक चाहे वह अपनी सहेली से बात कर ले, फिर वह उसे नीचे उतार देंगे. खड़खड़ा चल पड़ा और दोनों सहेलियां बातें करते हुए गुट्टे खेलती रहीं. बीचबीच में जमाल बच्चियों को गुड़ के लड्डू खिलाता जा रहा था. इन्हीं सब में वक्त का पता ही न चला और घर जाने का ख़याल लक्ष्मी को तब आया जब जमाल चचा ने उसे अपने खड़खड़े से उतार कर दूसरी ऊंटगाड़ी में बैठा दिया.

उस ने चारों तरफ निगाह घुमाई, तो देखा कि वह अपने गांव से बहुत दूर रेगिस्तानी रास्ते में है और वहां ढेर सारी भीड़ गांव से उलटी दिशा में चली जा रही है. लक्ष्मी यह देख कर ऊंटगाड़ी से कूदने लगी, तो  गाड़ी में बैठे दाढ़ी वाले आदमी ने उस का हाथ कस कर पकड़ लिया और फिर एक रस्सी से उस के हाथपैर बांध कर अपनी अम्मा के पास बैठाते हुए बोला कि वह उस को अपने साथ पाकिस्तान ले जा रहा है क्योंकि उस ने जमाल को पूरे 30 रुपए दे कर लक्ष्मी को खरीदा है और अब वह उस की  बीवी है. लाचार लक्ष्मी पूरे रास्ते रोती रही. पर न उस आदमी को रहम आया, न ही उस की बूढी अम्मा को.

गफूर नामक वह आदमी भी राजस्थान के किसी गांव से ही आया था.  पकिस्तान पहुंच कर इस गांव में उस ने अपना डेरा डाल दिया और धीरेधीरे अच्छा पैसा कमाने लगा. आते ही गफूर ने यह मकान और कुछ खेत यह सोच कर  ख़रीद लिए कि उस की गिनती गांव के रईसों में होने लगेगी और लोग उस की इज्ज़त करेंगे. मगर जिसे अपना असली मुल्क समझ कर वह आया था वहां, तो उसे हमेशा परदेसी का ही दर्जा दिया गया और अपनी इस घुटन व झुंझलाहट को वह अमीरन यानी लक्ष्मी पर उतारता था.

दिनभर उस की मां अमीरन को मारतीपीटती रहती और रात को गफूर अपना तैश उस बच्ची पर निकालता. उस की सास ने पहले तो उसे डराधमका कर गोश्त पकाना सिखाया और उस से भी मन नहीं भरा, तो मांबेटे ने कई दिनों तक भूखा रख कर उसे ज़बरदस्ती  गोश्त खिलाना भी शुरू कर दिया और आखिर उस को लक्ष्मी से अमीरन बना कर ही दम लिया. जब तक अमीरन 20 वर्ष की हुई तब तक 3 बच्चे जन चुकी थी. धीरेधीरे खानदान बढ़ता गया और अमीरन  के अंदर की लक्ष्मी मरती गई.

अमीरन (लक्ष्मी) के बच्चे छोटेछोटे थे, तभी गफूर की मौत हो गई और लक्ष्मी की परेशानियां और भी बढ़ गईं क्योंकि अकेली औरत जान कर गांव वालों ने उस के खेतों पर कब्ज़ा करने की कोशिश तो शुरू कर ही दी, साथ ही, कई लोगों ने उस को अपनी हवस का शिकार भी बनाना चाहा. और जब एक दिन खेत में काम करते समय बगल के खेत वाले अब्दुल ने उस को धोखे से पकड़ कर उस के साथ ज़बरदस्ती करनी चाही  तो अमीरन के अंदर की राजस्थानी शेरनी जाग गई और उस ने घास काटने वाले हंसिए से अब्दुल की गरदन काट डाली.

गांव में उस की इस हरकत से हंगामा मच गया और उस को पंचायत में घसीट कर ले जाया गया. लेकिन लक्ष्मी डरी नहीं. उस ने साफ़साफ़ कह दिया कि जो भी उस के खेतों की तरफ या उस की तरफ बुरी नज़र डालेगा उस का वह यही हश्र करेगी. कुछ लोग उस की इस जुर्रत के लिए उसे पत्थरों से मारने की सज़ा देने की बात करने लगे और कुछ लोगों ने गांव से निकाल देने की सलाह दी. लेकिन गांव के सरपंच, जो एक बुजुर्गवार थे, ने फैसला अमीरन के हक़ में करते हुए गांव वालों को चेतावनी दी कि कोई भी इस अकेली औरत पर ज़ुल्म नहीं करेगा वरना उस आदमी को सज़ा दी जाएगी.

सरपंच की सरपरस्ती के कारण लक्ष्मी अपनी मेहनत से अपने बच्चों को पालने लगी. बड़ा बेटा अकरम जब खेतों में अम्मी की मदद करने लायक हो गया तो लक्ष्मी को थोड़ा आराम मिला. लेकिन उसे हमेशा इस बात का अफ़सोस रहा कि उस के अपने बच्चों ने भी कभी अपनी अम्मी का साथ नहीं दिया. कितनी बार उस ने अपने बेटों की खुशामद की कि एक बार उसे हिंदुस्तान ले जा कर उस के भाइयों से मिलवा दें लेकिन उन लोगों की निगाहों में तो अम्मी के नाते वाले सब काफिर थे और काफिरों से नाता रखना उन के मज़हब के खिलाफ है. इसलिए हर बार बेटों ने उस के अनदेखे परिवार वालों को दोचार गालियां देते हुए लक्ष्मी (अमीरन) को काफिरों के पास जाने की जिद छोड़ देने को कहा.

सूरजमुखी: भाग 3- राज ने ऐसा क्या किया कि छाया खुश हो गई

‘‘आप को इस तरह लैक्चर देने का मुझे कोई हक नहीं बनता. सौरी, पर ऐसी ही नादानी मैं स्वयं कर चुका हूं इसलिए अपनेआप को रोक नहीं पाया,’’ कुछ देर चुप रहने के बाद डाक्टर राज बोला.

‘‘एक शर्त पर यदि आप मुझे आला और अपने बारे में सब कुछ बताएं,’’ छाया अपने पर काबू कर बोल उठी.

‘‘बताने को कुछ खास नहीं. आला को जन्म देने के बाद उस की मां किसी हादसे में हमें छोड़ कर चली गई. मैं अपने दुख में इस कदर डूब गया कि अपने दुख के सामने इस बिन मां की नन्ही सी जान का भी ध्यान न रख पाया, भूल ही गया कि इस मासूम, निरीह ने भी तो अपनी मां को खोया है.

‘‘मेरी लापरवाही की सजा मेरी बच्ची को मिली, वह मरतेमरते तो बच गई पर पोलियो ने इस का एक पैर छीन लिया. उसी दिन से आला मेरे जीने का बहाना बन गई, उस का खोया हुआ पैर तो मैं वापस नहीं ला सकता, पर और बच्चों को जिंदगी दे सकूं, बस इसलिए अपनेआप को इन बच्चों की सेवा में समर्पित कर दिया. कई बड़े लोगों के सहयोग से एक अस्पताल बनाया है बच्चों के लिए. जो लोग अपने बच्चों का इलाज अच्छे अस्पतालों में नहीं करा सकते, उन के लिए. नन्हेनन्हे बच्चों की हंसी ने ही मेरा सुकून मुझे लौटाया है… यह मेरा अपना ऐक्सपीरियंस है… अपने दुख पर विजय पा कर दूसरों के लिए शुरू कर दें तो अपना दुख खुदबखुद कम हो जाता है.’’

सारी रात छाया सो नहीं पाई. आला के पिता के शब्द कानों में गूंजते रहे कि तुम सचमुच सूरजमुखी हो जो खिलने के लिए सूरज की किरणों की मुहताज है. अपनेआप में कुछ भी नहीं. कितना सताया है उस ने मम्मापापा को अपने इस व्यवहार से, डाक्टर तो लोगों की पीड़ा हरते हैं और वह तो अपनों को ही पीड़ा दे बैठी…

सुबह उठी तो मन शांत था. सब कुछ भुला कर जिंदगी का अब तक तयशुदा लक्ष्य पाना ही उस का मकसद था. वह जल्द से जल्द अपने घर लौट जाना चाहती थी. अब अपनी फील्ड में वह इतना काम करेगी कि उस के पिछले खोए वक्त की भरपाई हो सके. मामा भी हैरान थे छाया के इस नए रूप को देख कर. इसीलिए रोका नहीं. सुबह सारा सामान पैक कर आला से मिलने निकली तो दरवाजे पर निशीथ को देखा.

‘‘तुम यहां कैसे?’’ चकित सी छाया आगे कुछ न पूछ पाई.

‘‘2 दिन के लगातार सफर के बाद तुम तक पहुंचा हूं. क्या अंदर आने के लिए भी

न कहोगी?’’

‘‘पर निशीथ मैं यह अध्याय बहुत पहले ही हमेशा के लिए बंद कर चुकी हूं.’’

‘‘तो तुम्हें यह बात अपने घर वालों को बतानी चाहिए थी, जिन्होंने अपनी बेटी के दुखों का वास्ता दे कर मुझे यहां भेजा,’’ छाया के अनापेक्षित जवाब से निशीथ चिढ़ गया.

पिताजी को पीछे आता देख छाया उन से लिपट गई. कहनेसुनने को बहुत कुछ था, पर निशीथ को देख चुप हो गई.

पुरानी छाया को देख पिताजी हैरान थे. पर उस से भी ज्यादा छाया के निशीथ से न विवाह करने के फैसले से. उस दिन निशीथ के घर वालों से मिलने के बाद इस रिश्ते से वे कदापि खुश नहीं थे पर अपनी इकलौती लड़की की खुशियों के लिए ही उन्होंने उन लोगों की शर्तों के सामने अपने घुटने टेके थे.

मुंबई वापसी से पहले छाया ने पिताजी को आला और डा. राज से मिलवाया.

डा. राज का प्रस्ताव उसे चौंका गया, ‘‘डा. छाया, इस वक्त मेरे अस्पताल को एक गायनिक की सख्त जरूरत है. पुरानी डाक्टर

2 महीने की लीव पर है. यदि शहर, घर जाने का मोह छोड़ सको तो अस्पताल जौइन कर लो कुछ दिनों के लिए. इतनी खूबसूरत डाक्टर अपने बीच पा कर मेरे बच्चे शायद अपना दुख भूल जाएं.’’

राज का प्रस्ताव न मानने की कोई गुंजाइश नहीं थी. फिर यह शहर, यहां के लोग आला, डा. राज सब ने मिल कर न जाने क्या जादू कर दिया था छाया पर कि वह स्वयं ही उन सब से दूर जाने में डर रही थी. पिताजी की स्वीकृति और मां के भी छाया के पास आ जाने से सब कुछ जैसे बहुत खूबसूरत हो चला था.

छोटेछोटे बच्चों के बीच कब डाक्टर से बच्ची बन जाती और खुशी से चहकने लगती.

उस दिन की ही तो बात है. आला को सारे अस्पताल में ढूंढ़तेढूंढ़ते वह रेस्टरूम में चली आई, वहां का नजारा देखा तो दंग रह गई. डा. राज बहुत सारे बच्चों के बीच बैठे उन्हें कोई मजेदार किस्सा सुना रहे थे. पास जा कर देखा तो दिल दहल गया. सभी अपनेअपने आर्टीफिशियल अंगों को अलग रख अपने सामान्य रूप में थे. किसी का हाथ नहीं तो किसी का का पैर नहीं. शारीरिक रूप से बेबस उन बच्चों के चेहरों पर कोई गिलाशिकवा नहीं. सपनों से सजी आंखें, संतुष्टि से चमकते चेहरे और उन सब को संभालते राज. छाया का परिचय जैसे किसी दूसरी दुनिया से हुआ.

डा. राज से नजरें मिलीं तो बस सम्मोहित सी उन्हें देखती चली गई. राज एक समर्पित ईमानदार इंसान, नहीं एक पूर्ण पुरुष नहीं, नहीं अपने कमिटमैंट को समर्पित इंसान जिसे कोई भी लड़की अपना जीवनसाथी बना ले… जाने ऐसी ही कितनी उपमाएं, विचार छाया के मन में कई दिनों तक खलबली मचाते रहे. तो क्या उसे डा. राज से प्यार हो गया? या उस के आदर्शों, बिन मां की बच्ची आला से सहानुभूति? या स्वयं पर हावी वह गिल्टी? क्या था वह जो उसे राज के मोहपाश में बांध रहा था? पर ऐसा ही खिंचाव कभी उसे निशीथ के लिए भी महसूस किया था. तो क्या उसे अपनी जिंदगी को भावनाओं के हवाले कर राज से शादी कर यहीं सैटल हो जाना चाहिए? बहुत सोचा छाया ने, पर निशीथ ने ही उसे किसी फैसले पर पहुंचने में मदद की.

उस दिन शिमला में ही उस से मिलने आया था अपनी नवेली पत्नी के साथ हनीमून पर. राज के सामने ही उसे चिढ़ाने के लिए अपनी मां की पसंद लड़की और उस से मिली खुशियों का बढ़चढ़ कर एलान करने लगा.

एक बार तो छाया कमजोर पड़ गई. निशीथ को खोने का गम… मंजिल की ओर बढ़ते कदम लड़खड़ाने लगे और मजबूर सी उस ने अपना सिर राज के कंधे पर रख दिया.

राज कुछ देर निशब्द खड़े रहे. फिर धीमे स्वर में बोले, ‘‘जिंदगी को भावनाओं का गुलाम नहीं बनाना चाहिए छाया. मैं हर वक्त तुम्हारे साथ हूं पर मैं चाहता हूं कि मेरे प्रति अपने आकर्षण को वक्त की कसौटी पर कसना तुम्हारे लिए जरूरी है. अत: मुंबई लौट जाओ और जीवन को नए सिरे से सहेजना शुरू करो.’’

छाया अपने घर लौट गई थी. आसान नहीं था उस के लिए भी ऐसा करना पर जल्द ही जान गई थी कि प्यार, शादी को अपनी मंजिल मान कर अपने लक्ष्य से बेईमानी करने को उस का जमीर कभी इजाजत नहीं देगा. दिनरात काम उसे सुकून देने लगा था.

5 साल के छोटे से पीरियड में ही आज डा. छाया का नाम भारत के सफलतम गिनेचुने गायनिकों में शुमार है. पर डा. राज और आला ने उस के लिए जो किया उन के प्रति अपने जज्बातों को भी छाया कभी झुठला न सकी. तभी तो राज को पत्र लिख बैठी कि अपनी तमाम कमजोरियों से लड़ कर आज अपनी मंजिल मैं ने पा ली है, जाने कहां से इतनी ताकत आ गई मुझ में. तुम्हारे शब्दों का असर है कहूं या वक्त की ठोकरों का नहीं जानती, पर राज हमेशा स्ट्रौंग बन कर नहीं जी पाऊंगी, टुकड़ों में बंटी आधीअधूरी जिंदगी. किसी के प्यार की आंच, अनेक रिश्तों की गरमाहट से भी तो इंसान का अंतर खिल उठता है. बहुत सोच लिया… जान गई हूं कि आप के सिवा मैं ने प्यार किसी से किया ही नहीं. अत: राज अपने अंतस को खिलने के लिए वह गरमाहट, वह बंधन आप से जोड़ना चाहती हूं. क्या मेरे सूरज बनोगे?

जबां से शायद कभी नहीं कह पाती, इसलिए खत में लिख कर पोस्ट करने के बाद छाया शिमला जाने की तैयारी में जुट गई.

बंटवारा- भाग 1: क्या थी फौजिया की कहानी

चूल्हे पर रोटियां सेंकते सेंकते फौजिया सामने फर्श पर बैठे पोतेपोतियों को थाली में रोटी और रात का बचा सालन परोसती जा रही थी, साथ ही, बगल में रखी टोकरी में भी रोटियां रखती जा रही थी ताकि शौहर और बेटों के लिए समय से खेत पर खाना भेज सके. तभी उस की सास की आवाज़ सुनाई पड़ी, “अरी खस्मनुखानिये, आज मैनू दूधरोट्टी मिल्लेगी कि नै?”

सास की पुकार पर फौजिया ने जल्दी से पास रखे कटोरदान में से 2 बासी रोटियां निकाल कर एक कटोरे में तोड़ कर गुड़ में मींसीं और उस में थोड़ा पानी व गरम दूध डाल कर अपनी बगैर दांत वाली सास के खाने लायक लपसी बना कर पास बैठी बेटी को कटोरा थमा दिया, “जा, दे आ बुड्ढी नू.” कटोरा तो पकड़ लिया रज़िया ने, लेकिन जातेजाते अम्मी को ताना ज़रूर दे गई, “जब तू तज्ज़ी रोटी सेंक रही है हुण बेबे नू बस्सी रोटी किस वास्ते दें दी?”

फौजिया ने कोई जवाब न दे कर गुस्से से बेटी को घूरा और वहां से जाने का इशारा किया, तो रजिया बड़बड़ाती हुई चली गई.  फौजिया ने अपनी बड़ी बहू सलमा को आवाज़ दे कर खेत में खाना पंहुचाने को कहा और जल्दीजल्दी सरसों का साग व कच्ची प्याज फोड़ कर रोटियों के साथ टोकरी में रख कर टोकरी एक तरफ सरका दी.

रज़िया को अपनी दादी के प्रति अम्मी के दोगले व्यवहार से बहुत चिढ़ है. लेकिन उस का कोई वश नहीं चलता, इसीलिए हर रोज़ अपनी अम्मी से छिपा कर वह दादी के लिए कुछ न कुछ खाने का ताज़ा सामान ले जा कर चुपचाप उसे खिला देती है और दादी भीगी आंखों व भरे गले से अपनी पोती को पुचकारती रहती हैं. आज जब रज़िया नाश्ते का कटोरा ले कर बेबे के पास गई तो वह अपनी फटी कथरी पर बैठी अपने सामने एक पुरानी व मैली सी पोटली खोल कर उस में कुछ टटोल रही थी पर उस की आंखें अपनी पोती के इंतज़ार में दरवाज़े की तरफ ही गड़ी हुई थीं.

रजिया ने रोटी का कटोरा बेबे  को पकड़ा कर अपने दुपट्टे के खूंट में बंधे 3-4 खजूर निकाल कर झट से तोड़ कर कटोरे में डाले और बेबे  को जल्दी से रोटी ख़त्म करने को कहा. बेबे  की बूढ़ी आंखों में खजूर देख कर चमक आ गई और उस ने कटोरा मुंह से लगा लिया. तभी रजिया की नज़र खुली पोटली पर पड़ी जिस में किसी बच्ची की लाख की चूड़ियां, चांदी की पतली सी हसली और पैरों के कड़े एक छींटदार घाघरे व चुनरी में लिपटे रखे हुए थे. बेबे ने एक हाथ से पोटली पीछे सरकानी चाही, तो रज़िया ने पूछा, “बेबे, आ की?”

पोती के सवाल को पहले तो बेबे ने टालना चाहा  मगर रजिया के बारबार पूछने पर  लाख की लाल चूड़ियों को सहलाती हुई बोली, “ये म्हारी सचाई, म्हारो बचपण छे री छोरी.”

दादी को अलग ढंग से बात करते सुन रजिया को थोड़ी हैरानी हुई और उस ने हंस कर पूछा, “अरी बेबे, आज तू केसे गल्लां कर दी पई?” बेबे ने चेहरा उठाया, तो आंखों में आंसू डबडबा रहे थे. कुछ देर रुक कर बोली, “आज मैं तैनू सच्च दसां पुत्तर.” और फिर बेबे ने जो बताया उसे सुन कर रज़िया का कलेजा कांप उठा और वह बेबे से लिपट कर रोते हुए बोली, “बेबे, मैं तैनू जरूर त्वाडे असली टब्बर नाल मिल्वाइन. तू ना घबरा.” और अपने आंसू पोंछती हुई वह खाली कटोरा ले कर आंगन में आ गई.

रज़िया 18-19 साल की एक संजीदा और समझदार लड़की है जो अपने अनपढ़ परिवार की मरजी के खिलाफ जा कर अपनी एक सहेली की मदद से 8वीं तक की पढ़ाई कर चुकी है और अब उसी सहेली अफशां के स्मार्टफोन के ज़रिए  फेसबुक व व्हाट्सऐप जैसी आधुनिक दुनिया की बातों के बारे में भी जान गई है. यों तो रज़िया के अब्बू और तीनों भाई उस का घर से निकलना पसंद नहीं करते पर अफशां चूंकि गांव के सरपंच अजीबुर्रहमान की बेटी है, इसलिए उस के घर जाने की बंदिश रजिया पर नहीं है. अफशां लाहौर के एक कालेज में पढ़ती है और छुट्टियों में ही घर आती है. इसलिए उस से मिल कर शहरी फैशन और वहां के रहनसहन के बारे में जानने की उत्सुकता रज़िया को अफशां के घर ले जाती है.

रज़िया के अब्बा 4 भाई और 3 बहनें थीं जिन में से सब से बड़ी बहन का पिछले साल इंतकाल हो गया. बाकी 2 बहनें अपनेअपने परिवारों के साथ आसपास के गांवों में रहती हैं और चारों भाई इसी गांव में पासपास घर बना कर रहते हैं. हालांकि इन की बीवियां एकदूसरे को ज़रा भी पसंद नहीं करती हैं मगर खेतों का बंटवारा अभी तक नहीं हुआ है. इसलिए सभी भाई एकसाथ खेतों में काम करते हैं और उन की बीवियों को जगदिखाई के लिए अपनेपन का नाटक करना पड़ता है.

सभी भाइयों के बच्चे अंगूठाछाप हैं क्योंकि उन के खानदान में पढ़ाईलिखाई को बुरा माना जाता है. रज़िया ने अफशां की मदद से जो थोड़ी किताबें पढ़ लीं हैं उस की वजह है रज़िया का मंगेतर जहीर, जो चाहता था कि निकाह से पहले रजिया थोड़ा लिखनापढ़ना सीख ले. वह खुद भी 12वीं पास कर के पास ही के कसबे में नौकरी करता है और साथ ही, आगे की पढ़ाई भी कर रहा है. वह हमेशा रज़िया को आगे और पढ़ने के लिए कहता रहता है. लेकिन रजिया के अब्बू उसे किसी स्कूल में भेजने के खिलाफ हैं, इसलिए अफशां से ही जो भी सीखने को मिल जाता है उसी से रजिया तसल्ली कर लेती है.

आज बेबे की बातें सुनने के बाद रजिया ने मन ही मन तय किया कि वह हर हाल में अपनी बेबे को उस के अपनों से मिलवा कर रहेगी. इस के लिए चाहे उसे अपने खानदान से लड़ाई ही क्यों न करनी पड़े. मगर सिर्फ तय कर लेने से तो काम बनेगा नहीं, उस के लिए कोई राह भी तो निकालनी पड़ेगी. तभी रजिया को अफशां के फोन पर देखे फेसबुक के देशविदेश के लोगों का ख़याल आया और वह तुरंत अफशां के घर की तरफ लपक ली.

सुबह-सुबह रजिया को आया देख कर हैरान अफशां ने आने की वजह पूछी, तो रजिया उस के कंधे पर सिर रख कर सिसकने लगी. अफशां उसे अपने कमरे में ले गई और आराम से बैठा कर उस की परेशानी की वजह पूछी. तब रजिया ने अपनी बेबे का पूरा इतिहास उस के सामने रख दिया. “बाजी,  बेबे हिंदुस्तानी हैं.” रजिया की यह बात सुन कर अफशां ने हंस कर कहा कि पाकिस्तान में बसे आधे से ज़्यादा लोग हिंदुस्तानी ही हैं क्योंकि बंटवारे के वक्त वे लोग यहां आ कर बसे हैं. “ना बाजी, बेबे साडे मज़हब दी नहीं हैगी” और फिर रजिया ने बेबे की पूरी आपबीती अफशां को सुनाई.

तीज स्पेशल: 12 साल छोटी पत्नी- भाग 1-सोच में फर्क

”आज टाइम से आ जाना, अमोली. कोई बहाना नहीं चलेगा. कोरोना टाइम ने तो वैसे ही बोर कर के रख दिया है, अब बड़ी मुश्किल से आज गेटटुगेदर का प्रोग्राम बना है, मिस मत करना. सोमा बता रही थी कि उस ने तुझे पिछले हफ्ते भी अपने बेटे के जन्मदिन पर बुलाया था और तू गई नहीं थी. वैसे, तू गई क्यों नहीं थी?’’

मैं ने एक ठंडी सांस ली और कहा, ”तू तो जानती है जयराज के प्रोग्राम. उन्हें अपने क्लब का प्रोग्राम अटैंड करना था और मुझे भी हमेशा की तरह टांग कर ले गए. यार, जा कर बड़ी बोर हुई. वहां क्लब की औरतें जो भजनकीर्तन शुरू कर देती हैं, मन करता है कि वहां से भाग खड़ी होऊं, पर बैठी रहती हूं. और पता है, वहां औरतें क्या करती हैं, एकदूसरे के बच्चों की शादी में इतनी रुचि लेती हैं कि पूछो मत. मुझे उन लोगों की बातों पर बहुत गुस्सा आता है.’’

“तू जीजाजी को साफसाफ कह क्यों नहीं देती कि तुझे भजनमंडली में कोई रुचि नहीं है? क्यों अपना मन मारती है?’’

“कभीकभी कह भी देती हूं तो वे मुंह लटका लेते हैं, कहते कुछ नहीं. पर अपनी नाराजगी दिखा देते हैं.’’

“यार, सच में पति अगर 12 साल बड़ा हो, तो निभाना आसान नहीं है न. कितना फर्क होता है शौकों में.’’

मेरी दोस्त आशी ने फोन रख दिया, तो मैं यों ही अपने फ्लैट की बालकनी में रखी चेयर पर आ कर बैठ गई. मुझ से 12 साल बड़े हैं जयराज. बहुत अच्छे इनसान हैं, हमारा विवाह घर वालों ने वैसे ही तय किया था, जैसे कि पुराने जमाने की सोच वाले पैरेंट्स तय करते थे, मैं 5 भाईबहनों में तीसरे नंबर की थी, जयराज अच्छा कमाते हैं, अच्छा खातापीता परिवार. बस और क्या देखना था, हो गई शादी. 2 बच्चे भी हो गए, दोनों अब विदेश में पढ़ रहे हैं, जयराज को मेरा नौकरी करना पसंद नहीं था तो नहीं कर पाई. ऊपरऊपर से देखने में सब को लगता है कि मुझ से सुखी औरत दुनिया में कोई दूसरी नहीं होगी, पर ये जो जयराज और मेरी उम्र में 12 साल का अंतर है न, इस ने मेरे जीवन पर अजीब सा प्रभाव डाला है. धीरगंभीर जयराज जैसे मुसकराना भी नहीं जानते, हंसीठहाके दूर की बात है. मेरे सजनेसंवरने में उन्हें कोई रुचि नहीं. हर गलती पर ऐसे टोकते हैं, जैसे कोई टीचर हों. हर समय ज्ञान. हर बात पर ज्ञान. हमारे जीवन में कोई रोमांस, रोमांच नहीं. सपाट दौड़ता गया है जीवन. उन्हें पूजापाठ में रुचि है, बस. मैं उन से बिलकुल उलटी. मुझे हर समय मजाक, हंसी, मस्ती सूझती है, पर करूं किस से? कभी कोई जोक मारती हूं तो ऐसे देखते हैं जैसे कितनी बकवास कर दी है. कभीकभी मैं चिढ़ कर कह भी देती हूं, “यार, जोक मारा है, थोड़ा मुसकरा सकते हो?’’

तो वे कहते हैं, “क्या बचकानी बातें कर रही हो? और फिर मुझ से उम्मीद करती हो कि मैं हंसू भी?’’
क्या किया जाए, जयराज और मेरी उम्र में जो अंतर है, वो तो है ही, हमारे स्वभाव, व्यवहार में भी बहुत अंतर है. कभीकभी सोचती हूं कि कैसे 2 बिलकुल अलगअलग लोग जीवन साथ काट जाते हैं, यह आजीवन कैद जैसा जीवन नहीं होता?

उस दिन रविवार था. मैं ने सुबह ही कह दिया था कि बहुत दिन हो गए हैं, आज शाम को चाट खाने चलेंगे. हम गए भी, वहां जा कर एक कोने में खड़े हो कर बोले, “तुम्हारे साथ आ तो गया हूं, पर कुछ खाऊंगा नहीं.’’

“क्यों…?’’

“मुझे अपनी हेल्थ का ध्यान रखना है. तुम्हारा क्या है, तुम्हें तो सब हजम हो जाता है, सबकुछ खाती घूमती हो.’’

यह सुन कर मेरा मन खराब हो गया. इस से अच्छा तो मैं किसी फ्रैंड को ले कर आ जाती, ये दूर खड़े अपने फोन में व्यस्त हो गए, मैं अकेली गोलगप्पे खाने लगी. उस दिन सिर्फ तीखे पानी से मेरी आंखों से आंसू नहीं निकले थे, अजीब से क्षोभ से भरे आंसू थे वे. कभीकभी मुझे अपने पैरेंट्स पर बहुत गुस्सा आता है कि बस निबटाने के चक्कर में मेरी शादी करवा दी. कुछ भी तो नहीं मिलता हम में. कुछ भी तो एकजैसा नहीं है.

अभी कुछ सालों से तो जयराज ने क्लब ज्वाइन कर लिया है और साथ में मेरी मैंबरशिप भी ले ली है, अब यह क्लब वो क्लब नहीं हैं, जहां वीकेंड में जा कर मस्ती की जाती है, इन का ग्रुप क्लब में जा कर सत्संग, भजन करता है. ये चाहते हैं कि मैं भी आंखें बंद कर तालियां बजाते हुए भक्ति रस में डूबी रहूं, पर मुझे श्रृंगार रस और हास्य रस सूझता है, मूवी देखने का मन करता है, खिलखिलाने का मन करता है, शारीरिक रूप से सब ठीक ही चल रहा है, पर मन की भी तो एक जरूरत है, मानसिक स्तर पर भी तो संगसाथ चाहिए होता है. आजकल हम दोनों सुबह की सैर पर एकसाथ जाने लगे हैं, वहां जा कर ये उन लोगों में शामिल हो जाते हैं, जो लाफ्टर योगा के नाम पर बहुत जोरजोर से हंसते हैं, ये वही लोग हैं, जिन पर मैं अब तक मन ही मन हंसती थी कि यहां झूठेमूठे हंस रहे हो, घर जा कर कभी घर वालों से हंसीठट्ठा कर लो, तो इस की जरूरत नहीं पड़ेगी, घर में तो ऐसे सड़े मूड में रहेंगे, यहां आ कर पता नहीं क्यों होहो करना है. अब क्या, जयराज भी तो यही कर रहे हैं, इस से अच्छा तो मेरे जोक्स पर हंस सकते हैं. हुंह.

मैं अभी मन ही मन अपने खयालों में डूबी हुई थी कि जयराज का औफिस से फोन आ गया, ”क्या कर रही हो?’’

“आप के बारे में सोच रही थी.’’

“क्या? बताओ तो जरा.’’

“नहीं, कुछ खास नहीं.’’

“अच्छा, सुनो, इस वीकेंड सुनील ने क्लब में एक पार्टी रखी है. उन की मैरिज एनिवर्सरी है. पहले पूजा है, फिर डिनर.’’

“तो, मैं डिनर के टाइम ही जाऊंगी.’’

“अमोली, ऐसा नहीं कहते, पूजा में भी बैठना चाहिए.’’

“मुझे वीकेंड में मूवी देखनी है.’’

“फिर से कोरोना का नया वैरिएंट सुनने में आ रहा है, भीड़ से बचना चाहिए.’’

“क्लब में आप की भजन पार्टी में भीड़ नहीं होती क्या?’’

“अरे, वो तो धर्मकर्म की चीज है.’’

मैं कुछ नहीं बोली, फिर थोड़ा ज्ञान आया, “अमोली, मना मत किया करो, सोशल सर्किल जरूरी है.’’

मेरे शरारती मन ने अंगड़ाई सी ली, कहा, “वहां कोई मुझ पर मरमिटा तो…?’’

“फिर तुम ने फालतू बातें शुरू कर दीं?’’

थोड़ी देर मुझे समझा कर जयराज ने फोन रख दिया. पर, अब मुझे शरारत सूझ चुकी थी, मुझे नहीं जीनी है बोरिंग लाइफ. कुछ तो थ्रिल होना ही चाहिए.

सूरजमुखी- भाग 2- राज ने ऐसा क्या किया कि छाया खुश हो गई

छाया की सीनियर डाक्टर हाथ में फै्रक्चर की वजह से छुट्टी पर थीं. नेहा की प्रीमैच्योर डिलिवरी आज ही करवानी थी. उन का केस अनेक जटिलताओं से भरा था. केस की सारी जिम्मेदारी छाया पर आ पड़ी, एक तो उस दिन वह खुद को ही नहीं संभाल पा रही थी. उस पर जीवन का वह पहला पर अत्यंत जटिल केस. उस की अपनी निराशा उस के हाथों पर हावी हो गई और जिस का डर था वही हुआ. छाया ने बच्चे को तो बचा लिया पर मां के शरीर में फैलते जहर को न रोक पाई.

सुबह नेहा की मौत की खबर सारे अस्पताल में आग की तरह फैल गई. अस्पताल ने सारी जिम्मेदारी छाया पर डाल कर पल्ला झाड़ लिया. सब की नाराजगी और मीडिया में मचे हल्ले के चलते साल भर के लिए छाया के प्रैक्टिस करने पर रोक लगा दी गई. चौबीस घंटों में ही फिर से रिजैक्ट. ऐसा लगा जैसे वाकई वह एक वस्तु है.

एक के बाद एक दूसरी असफलता ने छाया के लिए जीवन के सारे माने ही बदल दिए. 1-2 बार आत्महत्या का प्रयास भी किया… जिंदगी का लक्ष्य दिशा जैसे भूल गई. मनोचिकित्सकों की भी सलाह ली, पर सब बेकार. मांपिताजी ने हार कर निशीथ के सामने घुटने टेकने का भी मन बना लिया. पर पता चला कि वह विदेश जा चुका है. अपनी बेटी की ऐसी हालत देख असहाय पिता ने एक दोस्त की सलाह पर आबोहवा बदलने के लिए छाया को शिमला भेज दिया उस के मामा के पास ताकि पुराने माहौल से निकल कर एक नए माहौल में सांस ले सके.

शिमला की सुंदर वादियां छाया के चेहरे पर फीकी ही सही मुसकराहट बिखेर गईं. पड़ोस में रह रही नन्ही सी बच्ची के क्रियाकलाप में धीरेधीरे वह डूबती चली गई. 4-5 साल की होगी वह. शिमला की चंचल हवा से भी ज्यादा चंचल और मासूम. रोज नएनए खेल खेलती थी वह. कभी पापा बनती तो कभी पापा की बौस.

एक दिन छाया अपने को रोक न पाई. पूछ ही बैठी, ‘‘हैलो, क्या नाम है तुम्हारा?’’

‘‘आला,’’ कह अपना खेल छोड़ कर वह भी भागी आई, ‘‘आप रोज यहां आती हैं और हम आप को देखते हैं… बहुत अच्छी लगती हैं हमें आप,’’ आला की बेतकल्लुफ चटरपटर सुन कर छाया मुसकरा उठी.

‘‘अच्छा, एक बात बताओ. आप खेल में कभी पापा बनती हैं तो कभी कुछ और… आप मम्मी क्यों नहीं बनतीं कभी?’’ आला से कुछ मिक्स होने के इरादे से छाया ने पूछा.

‘‘क्योंकि हम नहीं जानते मम्मी कैसी होती है? हम ने तो उन्हें कभी देखा ही नहीं. फिर कैसे बनें हम?’’ उस की मासूम आंखों में मायूसी देख छाया चुप हो गई.

आला छाया की जिंदगी में आशा की उजली किरण बन कर आई थी. बहुत जल्द ही घुलमिल गई थी. महीने भर की दोस्ती में उस ने छाया पर पूरा अधिकार जताना शुरू कर दिया था. कभी होमवर्क ले कर चली आती, तो कभी डर लग रहा है का बहाना बना कर छाया के घर ही सो जाती. आला की बातों में उस के पापा ही ज्यादातर हीरो हुआ करते थे. सुबह उस के सो कर उठने से ले कर रात बिस्तर पर जाने तक सारा दिन पापा की बातें. आला के मुंह से उस के पापा के बारे में सुनसुन कर एक समझदार और बेहद भावुक इंसान की छवि छाया के मन में बन गई थी. उन से मिलने, आला की मां के बारे में जानने के लिए उस का मन उत्सुक हो उठा.

एक दिन आला को तेज बुखार था और उस के पिता को किसी बहुत जरूरी काम से जाना पड़ा, तो उन्होंने छाया को फोन पर बड़ी विनम्रता से आला की देखभाल करने का आग्रह किया. तभी छाया का उन से परिचय हुआ था. आला की वजह से बहुत बार आमनासामना हो ही जाता था.

‘‘आप को दूसरी शादी कर लेनी चाहिए. आला अपनी मां और परिवार को बहुत मिस करती है,’’ एक दिन आला के पापा डा. राज के साथ टहलते वक्त छाया के मुंह से अचानक निकल गया.

‘‘मैं बेटी के लिए बेहद चिंतित रहता हूं. इसीलिए आज से पहले कभी इस बारे में सोचा ही नहीं, चलिए, संकोच की दीवारें गिर ही गई हैं तो मैं भी आप से पूछना चाहता हूं कि इस छोटी सी उम्र में अपनी जिंदगी के प्रति इतनी उदासीनता की क्या कोई खास वजह है? कई बार अजनबियों के साथ अपना फीलिंग शेयर करने से मन हलका हो जाता है और आत्मग्लानि के बोध से भी नहीं दबना पड़ता,’’ आला के पिता की आवाज में न जाने क्या था कि छाया रोक नहीं पाई अपनेआप को.

निशीथ का यों घाव दे कर उस की जिंदगी से अलग हो जाना, डिप्रैशन में आ कर अपने कैरियर के पहले ही पड़ाव पर असफल हो एक मासूम जिंदगी से उस की मां को छीन लेना. सब कुछ परदे पर चल रही फिल्म सा उस के सामने से गुजर रहा था और वह तो सिर्फ अपनी जबान से बयां कर रही थी. भूल गई थी कि आला के पिता उस के लिए अजनबी ही तो हैं, जिन से कुल मिला कर यह 5वीं बार ही तो मिल रही थी वह. सब कुछ बताने के बाद वह चुप हो गई. अपनी भावुकता से उबरी तो शर्मिंदगी के भाव से चेहरा छिपा लिया. गहन चुप्पी पसर गई वहां.

‘‘बुरा न मानना छाया, अपने सारे दुखों के लिए आप स्वयं दोषी हैं. दरअसल, आप अपनेआप को सूरजमुखी बना लिया है, ऐसा फूल जो खुद खिलने के लिए सूर्य की किरणों का मुहताज है. सूरज के बिना उस की अपनी कोई पहचान ही नहीं. आप ने निशीथ जैसी एक असफलता को सूरज मान न मिलने पर निराशा का गहन तानाबाना बुन लिया है अपने चारों ओर. वह तो प्रकृति के नियमों में बंधा एक फूल है पर आप तो इंसान हैं. सोचनेसमझने की शक्ति रखने वाली प्रकृति की सब से सुंदर रचना.

‘‘अरे, आप को तो यह सोचना चाहिए था कि यदि गलती से आप ने किसी की जान ली है तो सौ लोगों की जान बचा भी तो सकती हैं. आप यदि उस मां की मौत से सचमुच आहत हुई थीं तो उस के प्रायश्चित्त के लिए बदले में 10 लोगों की जान बचाने का संकल्प क्यों नहीं किया आप ने? किसी एक सोच को अपनेआप पर कैसे इतना हावी होने दिया, जिस ने आप की 5 सालों की तपस्या और मांपिता के प्यार, पैसे और सपनों को व्यर्थ कर दिया? आप तो डाक्टर हैं. चोट लगने पर मरहम लगा कर उसे ठीक करना जानती हैं. फिर इस जख्म को नासूर कैसे बनने दिया? अपनी दुनिया से बाहर झांक कर तो देखिए कितने दुखी हैं लोग.’’ और फिर राज चुप हो गया.

सूरजमुखी- भाग 1- राज ने ऐसा क्या किया कि छाया खुश हो गई

इंटर्नशिप के लिए आई छाया इस केस में डा. हितेश को असिस्ट कर रही है. बेहद जटिल केस था. रात के 8 बज गए थे. स्टाफ बस जा चुकी थी. अत: अस्पताल के कौर्नर वाले औटोस्टैंड पर खड़ी हो कर इंतजार करने के अलावा छाया के पास कोई चारा नहीं था.

तभी एक कार उस के नजदीक आ कर रुकी, ‘‘यदि आप बुरा न मानें तो मुझे आप को लिफ्ट देने में खुशी होगी.’’

‘‘लेकिन…’’

‘‘कोई बात नहीं. सच में अजनबी पर इतनी जल्दी भरोसा नहीं करना चाहिए. वैसे मैं आप को बता दूं कि आज औटो वालों की स्ट्राइक है… और कोई सवारी मिलना मुश्किल है.’’

‘‘जी, मैं मैनेज कर लूंगी…’’

‘‘देखिए आप को यहां अकेले खड़ा देख कर मेरे मन में मदद का जज्बा जागा और आप से पूछ बैठा… वरना…’’

उस की स्पष्टवादिता और अपनी मजबूरी समझ कर अब छाया मना न कर सकी. इस तरह छाया निशीथ से पहली बार मिली थी और फिर धीरेधीरे यह सिलसिला लंबा होता गया.

निशीथ छाया के अस्पताल से 4 किलोमीटर दूर जौब के साथसाथ रिसर्च सैंटर में भी काम करता था. अपनी थीसिस के सिलसिले में अकसर उस के अस्पताल आता तो छाया से उस का आमनासामना हो ही जाता. हर बार लोगों की भीड़ में मिले थे दोनों. इसी तरह

साल गुजर गया. अब छाया को लगने लगा था जैसे वह निशीथ के कदमों की आहट

हजारों की भीड़ में भी पहचानने लगी है… न जाने क्यों निशीथ के साथ घंटों बिताने की अजीब सी इच्छा उस के मन में जागने लगी थी. जब निशीथ की आंखें उस के चेहरे पर गड़ जातीं तो छाया की धड़कनें बढ़ जातीं…

वह नहीं जानती थी कि निशीथ के प्रति प्रेम का यह अंकुर कब उस के मन में फूटा. छाया के लिए प्रेम की यह अनुभूति बिलकुल अप्रत्याशित थी वरना जिंदगी में उस ने जो लक्ष्य अपने लिए तय किए थे उन्हें पाने के लिए मन का वैरागी होना आवश्यक था. बचपन से ही सोचा था कि डाक्टर बन कर लोगों की सेवा करेगी.

पिछले 6 सालों से छाया दुनिया के हर गम और खुशी से दूर अपने लक्ष्य के लिए समर्पित थी. इसीलिए निशीथ के प्रति प्रेम का यह एहसास सब्र के सारे बांध तोड़ गया.

छाया ने ही पहल की थी, ‘‘निशीथ, मैं अपनी सारी जिंदगी आप के साथ गुजारना चाहती हूं. क्या आप भी ऐसा महसूस करते हैं?’’

‘‘छाया ऐसा फैसला जल्दबाजी में करना समझदारी का काम नहीं है. थोड़ा वक्त गुजर जाने दो… एकदूसरे को समझपरख लेने दो,’’ निशीथ ने समझाया.

इस जवाब से छाया मायूस हो गई.

एक दिन निशीथ का फोन आया. बोला, ‘‘छाया तुम्हारी ओर अपने कदम बढ़ाने से पहले मैं चाहता हूं कि हम दोनों के परिवार आपस में मिल लें. अचानक बिना सोचेसमझे किए प्यार पर मेरा विश्वास नहीं है.’’

‘‘पर निशीथ…’’ छाया असमंजस में थी.

‘‘देखो छाया मैं अपने मातापिता की इकलौती संतान हूं… हमेशा से यही सीखा है कि कोई भी फैसला दिल से नहीं, दिमाग से लेना चाहिए. अत: आने वाली जिंदगी में न अपने लिए और न ही परिवार के लिए कोई परेशानी खड़ी करना चाहता हूं. अत: मेरे मातापिता का फैसला ही हमारे प्यार का भविष्य तय करेगा.’’

निशीथ के ये नपेतुले विचार छाया को अच्छे नहीं लगे, पर उस के प्रति अपने जज्बातों के सामने छाया ने घुटने टेक दिए.

उस दिन हर संभव तैयारी के साथ छाया सपरिवार निशीथ के मातापिता से मिली थी. सब कुछ ठीकठाक चल रहा था. छाया जैसी सुंदर व डाक्टर लड़की भला किसे पसंद नहीं आती. पर तभी निशीथ की मां की एक बात अच्छेखासे माहौल को टैंस कर गई.

‘‘वैसे हमारे पास किसी चीज की कोई कमी नहीं. निशीथ की हर ख्वाहिश उस के बोलने से पहले पूरी करते आए हैं हम. पर अपनी बेटी को शानदार जिंदगी देने के लिए यानी निशीथ सा दामाद पाने के लिए आप ने भी तो कुछ सोचा होगा?’’ निशीथ की मां ने कहा.

‘‘जी, मैं समझा नहीं,’’ छाया के पिता दुविधा भरे स्वर में बोले.

‘‘देखिए, निशीथ अपनी एमबीए की पढ़ाई आस्ट्रेलिया से करना चाहता है… मैं चाहती हूं कि आप सगाई के बाद निशीथ को आस्ट्रेलिया भेज दें… शादी बाद में होती रहेगी,’’ निशीथ की मां बोलीं.

‘‘लेकिन…’’

निशीथ की मां बीच में ही बोल पड़ी, ‘‘देखिए बाहर से आने के बाद इंडिया में स्टेटस और सैलरी दोनों ही दोगुनेचौगुने हो जाते हैं, फिर इस ऐशोआराम को आप की बेटी को ही तो भोगना है. अत: इतना तो आप का भी हक बनता है अपनी बेटी के भविष्य के लिए.’’

मन ही मन खर्च का हिसाब लगाने पर पिताजी के चेहरे पर आतेजाते भावों को छाया खुद देख रही थी. अपनी आर्थिक स्थिति से वह वाकिफ थी. 1 छोटे भाई और 1 बहन की जिम्मेदारी पापा के कंधों पर थी. अत: अपनेआप को वह रोक नहीं पाई. बोली, ‘‘निशीथ ये कैसी बातें हो रही हैं? क्या इसी तरह समझने और समझाने के लिए तुम ने मुझे यहां बुलाया था?’’

‘‘देखो छाया, यह दुनियादारी है… इन बातों को बड़ों को आपस में निबट लेने दो… इस में हम बच्चों का दखल ठीक नहीं.’’

निशीथ के जवाब ने छाया के तनबदन में आग लगा दी. दुनियादारी के नाम पर उस जैसे पढ़ेलिखे सभ्य इंसान से छाया ने यह आशा कभी नहीं की थी. अत: अपने पर भरसक कंट्रोल करने के बावजूद वह पापा से बोली, ‘‘उठिए पापा, हमें यह रिश्ता मंजूर नहीं.’’

‘‘हमें भी यह रिश्ता मंजूर नहीं… तुम ही मेरे बेटे के पीछे पड़ी थी,’’ निशीथ की मां ने सभ्यता का नकाब उतार फेंका.

कहासुनी के दौरान छाया ने अनेक बार निशीथ को देखा पर हर बार सिर झुकाए देख छाया को अपने प्यार पर शर्मिंदगी महसूस होने लगी. बात बिगड़ चुकी थी. आंखों में आंसू लिए वह घर की ओर चल दी.

मम्मापापा क्या कहते. सब चुप थे. स्वयं छाया का स्वाभिमान बुरी तरह आहत हुआ था. अत: घर आ कर सीधे अपने कमरे में चादर ओढ़ कर सो रही है, ऐसा मां को दिखाने की कोशिश करने लगी. अपने पहले प्यार का उसे इस तरह ठुकराना गहरे अवसाद में धकेल गया था. ‘रिजैक्ट’ जैसे वह कोई वस्तु है जिस पर निशीथ के परिवार ने रिजैक्टेड का लेवल लगा दिया. हाथ नींद की गोलियों की ओर बढ़ गए पर तभी मोबाइल की घंटी ने उस के हाथ रोक दिए, ‘‘डा. छाया तुरंत अस्पताल पहुंचो, इमरजैंसी है…’’

छाया कुछ कह पाती, उस से पहले ही फोन कट गया. उस की ऐसी मनोस्थिति में अस्पताल जाने की हिम्मत नहीं हो रही थी.

Raksha Bandhan: ज्योति- सुमित और उसके दोस्तों ने कैसे निभाया प्यारा रिश्ता

मनीष ने ज्योति की इस नसीहत का बुरा नहीं माना. वह खुद भी नेहा को इस तरह रुला कर अच्छा महसूस नहीं कर रहा था. एक लंबे अरसे से वह और नेहा एकदूसरे के करीब थे. दोनों ने एकदूसरे के साथ जीनेमरने के वादे किए थे. कितनी ही बार दोनों ने अलग होने का फैसला लिया, मगर कुछ पलों की जुदाई भी दोनों से बरदाश्त नहीं होती थी.

मनीष को ज्योति की बात में सचाई लगी. जातपांत के ढकोसलों में आ कर नेहा जैसी लड़की को खोना बहुत बड़ी बेवकूफी थी, जो उसे टूट कर चाहती थी और हर हाल में उस का साथ देने को तैयार थी.

‘‘अब चाहे कुछ भी हो जाए. नेहा ही मेरी जीवनसंगिनी बनेगी,’’ मनीष के शब्दों में सचाई की झलक थी.

ज्योति मुसकरा उठी. उस की एक कोशिश से 2 दिल टूटने से बच गए थे.

उसी दिन नेहा से माफी मांग कर मनीष ने उस से शादी का वादा किया. रही बात घरवालों की, तो उन्हें भी किसी तरह मानना होगा, और वह उन्हें राजी कर के रहेगा.

रक्षाबंधन से ठीक एक दिन पहले सुमित के लिए उस की छोटी बहन की राखी आई थी. रोहन और मनीष की कोई बहन नहीं थी. तो इस दिन उन दोनों की कलाई सूनी रह जाती थी. नहाधो कर नया कुरतापजामा पहन कर सुमित ने उल्लास से लिफाफा खोल कर राखी निकाली. ज्योति से उस ने छुटकी की भेजी राखी अपनी कलाई में बंधवा ली. एक राखी ज्योति ने भी उसे अपनी ओर से बांध दी.

रोहन मनीष के साथ बैठा मैच देख रहा था. हाथ में राखी के 2 चमकीले धागे लिए ज्योति आई.

‘‘भैया, मैं आप दोनों के लिए भी राखी लाई हूं. असल में, मेरा कोई सगा भाई नहीं है, तो आप तीनों  को ही मैं भाई मानती हूं.’’

रोहन और मनीष ने भी खुशीखुशी ज्योति से राखी बंधवाई.

उसी शाम तीनों दोस्त बैठ कर छुट्टी वाले दिन का आनंद ले रहे थे. ‘‘यार सुमित, नेहा से शादी कर के मुझे अलग फ्लैट लेना पड़ेगा, तुम लोगों के साथ बिताए ये दिन बहुत याद आएंगे,’’ मनीष ने कहा.

‘‘और हम क्या यों ही कुंआरे रहेंगे?’’ रोहन ने उस की पीठ पर धप्प से एक हाथ मारा, ‘‘क्यों, है न सुमित? तेरी और मेरी भी शादी हो जाएगी.’’

फिर सब अपनीअपनी जिंदगी में मस्त भविष्य के सपनों में तीनों कुछ देर के लिए खो गए. लेकिन सुमित कुछ और ही सोच रहा था.

शादी की बात पर उसे न जाने क्यों सुरेश का खयाल आ गया. इतने अच्छे स्वभाव वाला सुरेश अपने निजी जीवन में निपट अकेला था. ‘‘यार, मैं सोच रहा हूं किसी का घर बसाना अच्छा काम है, मेरी जानपहचान में एक सुरेश है, वही गैराज वाला,’’ सुमित ने रोहन की तरफ देखा. रोहन सुरेश को जानता था. ‘‘अगर कोई सलीकेदार महिला सुरेश की जिंदगी में आ जाए तो कितना अच्छा हो.’’

‘‘सही कहा तुम ने, बहुत भला है बेचारा,’’ रोहन समर्थन में बोला.

कुछ देर खामोशी छाई रही, शायद अपनेअपने तरीके से सब सोच रहे थे.

‘‘एक बहुत नेक औरत है मेरी नजर में,’’ तभी तपाक से रोहन बोला.

‘‘कौन?’’ मनीष और सुमित ने एकसाथ पूछा.

‘‘हमारी ज्योति दीदी, और कौन?’’

दोनों ने रोहन को अजीब सी नजरों से घूरा.

‘‘यार, ऐसे क्यों देख रहे हो. कुछ गलत थोड़े ही बोला मैं ने. एक चोरउचक्के को भी जिंदगी में दूसरा मौका मिल जाता है तो फिर एक विधवा क्यों दूसरी शादी नहीं कर सकती? औरत को भी दूसरी शादी करने का उतना ही हक है जितना मर्द को. और फिर मुन्नी के बारे में सोचो. इतनी छोटी सी उम्र में पिता का साया सिर से उठ गया, आखिर उस को भी तो एक पिता का प्यार मिलना चाहिए कि नहीं? बोलो, क्या कहते हो?’’

रोहन की बात सौ फीसदी सच थी. ज्योति कम उम्र में ही विधवा हो गई थी. उसे पूरा अधिकार था कि वह किसी के साथ एक नया जीवन शुरू कर सके, जो उस का और उस की बेटी का सहारा बन सके. उस के जैसी व्यवहारकुशल और भली औरत किसी का भी घर संवार सकती थी.

तीनों दोस्तों की नजर में सुरेश के लिए ज्योति एकदम फिट थी. ‘‘लेकिन ज्योति मानेगी क्या?’’ मनीष ने शंका जाहिर की.

‘‘मैं मनाऊंगा ज्योति दीदी को,’’ सुमित बोला.

उसी शाम जब ज्योति उन तीनों का खाना पका कर निपटी और मुन्नी भी अपनी पढ़ाई कर चुकी तो सुमित ने उसे रोक लिया.

‘‘बोलो, क्या बात करनी थी भैया,’’ ज्योति ने पूछा.

बड़े नापतोल कर शब्दों को चुन कर सुमित ने अपनी बात ज्योति के सामने रखी. वह कुछ अन्यथा न ले ले, इस बात का उस ने पूरा ध्यान रखा.

सिर झुकाए सुमित की बातों को चुपचाप सुनती रही ज्योति. आज तक उस के अपने सगे रिश्ते वालों ने उस का घर बसाने की चिंता नहीं की थी. वह अकेली ही अपने दम पर अपना और अपनी बेटी का पेट पाल रही थी. उस ने कभी किसी से सहारे की उम्मीद नहीं की थी. लेकिन खून का रिश्ता न होने पर भी उस के ये तीनों मुंहबोले भाई आज उस के भले के लिए इतने फिक्रमंद हैं, यह सोच कर ही ज्योति की आंखों से आंसू बह चले.

उसे इस तरह से रोता देख तीनों के चेहरे पर परेशानी के भाव आ गए. सुमित को लगा शायद उसे यह सब नहीं कहना चाहिए था.

‘‘देखो ज्योति, रो नहीं, हम तुम्हारी और मुन्नी की भलाई चाहते है, बस. एक बार सुरेश से मिल लो, फिर आगे जो तुम्हारी मरजी,’’ सुमित ने प्रयास किया उसे शांत कराने का.

‘‘भैया, मैं तो इसलिए रो रही हूं कि आज मुझे अपने और पराए की पहचान हो गई. जो मेरे अपने हैं, वे कभी मेरे सुखदुख में काम नहीं आए और एक आप हो, जिन से खून का रिश्ता नहीं है, फिर भी आप लोगों को मेरी और मेरी बेटी की चिंता है,’’ कुछ सयंत हो कर अपनी गीली आंखें पोंछती हुई वह बोली, ‘‘यह सच है कि एक पिता की जगह कोईर् नहीं ले सकता. मेरी बेटी पिता के प्यार से हमेशा महरूम रही है. मगर मैं ने उसे मां और बाप दोनों का प्यार दिया है. अगर आप लोगों को यकीन है कि कोई नेक इंसान मेरी बेटी को सगी बेटी की तरह प्यार देगा, तो मैं भी आप पर भरोसा करती हूं.’’

बात बनती देख तीनों के चेहरे खिल गए. 2 अधूरे लोगों को मिला कर उन के जीवन में खुशियों की बहार लाने से बढ़ कर भला और क्या नेकी हो सकती थी.

सुरेश और ज्योति की एक औपचारिक मुलाकात करवाई गई. तीनों ने पूरी तसल्ली के बाद ही ज्योति के लिए सुरेश जैसे इंसान को चुना था. सुरेश ने सहर्ष ज्योति और मुन्नी को अपना लिया, एकाकी जीवन के सूनेपन को भरने के लिए कोई तो चाहिए था.

बहुत ही सादगी के साथ सुरेश और ज्योति का विवाह संपन्न हुआ. तीनों दोस्तों ने शादी की जिम्मेदारी अपने कंधों पर ले ली थी. प्रीतिभोज पर वरवधू पक्ष के कुछेक रिश्तेदारों को भी बुलाया गया था.

सुमित ने मां और छुटकी को भी खास इस विवाह के लिए बुला रखा था. उस की मां गर्व का अनुभव कर रही थी सपूत के हाथों नेक काम होते देख कर.

विदाई के समय ज्योति सुमित, मनीष और रोहन के गले लग कर जारजार रोने लगी, तो तीनों को महसूस हुआ जैसे उन की सगी बहन विदा हो रही है.

अपने आंचल में बंधे खीलचावल को सिर के ऊपर से पीछे फेंक कर रस्म पूरी करती ज्योति विदा हो गईर् थी, साथ में देती गई ढेरों आशीर्वाद अपने तीनों भाइयों को.

Raksha Bandhan: ज्योति- सुमित और उसके दोस्तों ने कैसे निभाया प्यारा रिश्ता

दूसरी नौकरी की तलाश में सुबह का निकला रोहन देरशाम ही घर लौट पाता था. उस का दिनभर दफ्तरों के चक्कर लगाने में गुजर जाता. मगर नई नौकरी मिलना आसान नहीं था. कहीं मनमुताबिक तनख्वाह नहीं मिल रही थी तो कहीं काम उस की योग्यता के मुताबिक नहीं था. जिंदगी की कड़वी हकीकत जेब में पड़ी डिगरियों को मुंह चिढ़ा रही थी.

सुमित और मनीष ने रोहन की मदद करने के लिए अपने स्तर पर कोशिश की, मगर बात कहीं बन नहीं पा रही थी.

एक के बाद एक इंटरव्यू देदे कर रोहन का सब्र जवाब देने लगा था. अपने भविष्य की चिंता में उस का शरीर सूख कर कांटा हो चला था. पास में जो कुछ जमा पूंजी थी वह भी कब तक टिकती, 2 महीने से तो वह अपने हिस्से का किराया भी नहीं दे पा रहा था.

सुमित और मनीष उस की स्थिति समझ कर उसे कुछ कहते नहीं थे. मगर यों भी कब तक चलता.

सुबह का भूखाप्यासा रोहन एक दिन शाम को जब घर आया तो सारा बदन तप रहा था. उस के होंठ सूख रहे थे. उसे महसूस हुआ मानो शरीर में जान ही नहीं बची. ज्योति उसे कई दिनों से इस हालत में देख रही थी. इस वक्त वह शाम के खाने की तैयारी में जुटी थी. रोहन सुधबुध भुला कर मय जूते के बिस्तर पर निढाल पड़ गया.

ज्योति ने पास जा कर उस का माथा छुआ. रोहन को बहुत तेज बुखार था. वह पानी ले कर आई. उस ने रोहन को जरा सहारा दे कर उठाया और पानी का गिलास उस के मुंह से लगाया. ‘‘क्या हाल बना लिया है भैया आप ने अपना?’’

‘‘ज्योति, फ्रिज में दवाइयां रखी हैं, जरा मुझे ला कर दे दो,’’ अस्फुट स्वर में रोहन ने कहा.

दवाई खा कर रोहन फिर से लेट गया. सुबह से पेट में कुछ गया नहीं था, उसे उबकाई सी महसूस हुई. ‘‘रोहन भैया, पहले कुछ खा लो, फिर सो जाना,’’ हाथ में एक तश्तरी लिए ज्योति उस के पास आई.

रोहन को तकिए के सहारे बिठा कर ज्योति ने उसे चम्मच से खिचड़ी खिलाई बिलकुल किसी मां की तरह जैसे अपने बच्चों को खिलाती है.

रोहन को अपनी मां की याद आ गई. आज कई दिनों बाद उसी प्यार से किसी ने उसे खिलाया था. दूसरे दिन जब वह सो कर उठा तो उस की तबीयत में सुधार था. बुखार अब उतर चुका था, लेकिन कमजोरी की वजह से उसे चलनेफिरने में दिक्कत हो रही थी. सुमित और मनीष ने उसे कुछ दिन आराम करने की सलाह दी. साथ ही, हौसला भी बंधाया कि वह अकेला नहीं है.

ज्योति उस के लिए कभी दलिया तो कभी खिचड़ी पकाती और बड़े मनुहार से खिलाती. रोहन उसे अब दीदी बुलाने लगा था.

‘‘दीदी, आप को देने के लिए मेरे पास पैसे नहीं हैं फिलहाल, मगर वादा करता हूं नौकरी लगते ही आप का सारा पैसा चुका दूंगा,’’ रोहन ने ज्योति से कहा.

‘‘कैसी बातें कर रहे हो रोहन भैया. आप बस, जल्दी से ठीक हो जाओ. मैं आप से पैसे नहीं लूंगी.’’

‘‘लेकिन, मुझे इस तरह मुफ्त का खाने में शर्म आती है,’’ रोहन उदास था.

‘‘भैया, मेरी एक बेटी है 10 साल की, स्कूल जाती है. मेरा सपना है कि मेरी बेटी पढ़लिख कर कुछ बने. पर मेरे पास इतना वक्त नहीं कि उसे घर पर पढ़ा सकूं और उसे ट्यूशन भेजने की मेरी हैसियत नहीं है. घर का किराया, मुन्नी के स्कूल की फीस और राशनपानी के बाद बचता ही क्या है. अगर आप मेरी बेटी को ट्यूशन पढ़ा देंगे तो बड़ी मेहरबानी होगी. आप से मैं खाना बनाने के पैसे नहीं लूंगी, समझ लूंगी वही मेरी पगार है.’’

बात तो ठीक थी. रोहन को भला क्या परेशानी होती. रोज शाम मुन्नी अब अपनी मां के साथ आने लगी. रोहन उसे दिल लगा कर पढ़ाता.

ज्योति कई घरों में काम करती थी. उस ने अपनी जानपहचान के एक बड़े साहब को रोहन का बायोडाटा दिया. रोहन को इंटरव्यू के लिए बुलाया गया. मेहनती और योग्य तो वह था ही, इस बार समय ने भी उस का साथ दिया और उस की नौकरी पक्की हो गई.

सुमित और मनीष भी खुश थे. रोहन सब से ज्यादा एहसानमंद ज्योति का था. जिस निस्वार्थ भाव से ज्योति ने उस की मदद की थी, रोहन के दिल में ज्योति का स्थान अब किसी सगी बहन से कम नहीं था. ज्योति भी रोहन की कामयाबी से खुश थी, साथ ही, उस की बेटी की पढ़ाई को ले कर चिंता भी हट चुकी थी. घर में जिस तरह बड़ी बहन का सम्मान होता है, कुछ ऐसा ही अब ज्योति का सुमित और उस के दोस्तों के घर में था.

ज्योति की उपस्थिति में ही बहुत बार नेहा मनीष से मिलने घर आती थी. शुरूशुरू में मनीष को कुछ झिझक हुई, मगर ज्योति अपने काम से मतलब रखती. वह दूसरी कामवाली बाइयों की तरह इन बातों को चुगली का साधन नहीं बनाती थी.

मनीष और नेहा की एक दिन किसी बात पर तूतूमैंमैं हो गई. ज्योति उस वक्त रसोई में अपना काम कर रही थी. दोनों की बातें उसे साफसाफ सुनाई दे रही थीं.

मनीष के व्यवहार से आहत, रोती हुई नेहा वहां से चली गई. उस के जाने के बाद मनीष भी गुमसुम बैठ गया.

ज्योति आमतौर पर ऐसे मामले में नहीं पड़ती थी. वह अपने काम से काम रखती थी, मगर नेहा और मनीष को इस तरह लड़ते देख कर उस से रहा नहीं गया. उस ने मनीष से पूछा तो मनीष ने बताया कि कुछ महीनों से शादी की बात को ले कर नेहा के साथ उस की खटपट चल रही है.

‘‘लेकिन भैया, इस में गलत क्या है? कभी न कभी तो आप नेहा दीदी से शादी करेंगे ही.’’

‘‘यह शादी होनी बहुत मुश्किल है ज्योति. तुम नहीं समझोगी, मेरे घर वाले जातपांत पर बहुत यकीन करते हैं और नेहा हमारी जाति की नहीं है.’’

‘‘वैसे तो मुझे आप के मामले में बोलने का कोई हक नहीं है मनीष भैया, मगर एक बात कहना चाहती हूं.’’

मनीष ने प्रश्नात्मक ढंग से उस की तरफ देखा.

‘‘मेरी बात का बुरा मत मानिए मनीष भैया. नेहा दीदी को तो आप बहुत पहले से जानते हैं, मगर जातपांत का खयाल आप को अब आ रहा है. मैं भी एक औरत हूं. मैं समझ सकती हूं कि नेहा दीदी को कैसा लग रहा होगा जब आप ने उन्हें शादी के लिए मना किया होगा. इतना आसान नहीं होता किसी भी लड़की के लिए इतने लंबे अरसे बाद अचानक संबंध तोड़ लेना. यह समाज सिर्फ लड़की पर ही उंगली उठाता है. आप दोनों के रिश्ते की बात जान कर क्या भविष्य में उन की शादी में अड़चन नहीं आएगी? क्या नेहा दीदी और आप एकदूसरे को भूल पाएंगे? जरा इन बातों को सोच कर देखिए.

‘‘अब आप को जातपांत का ध्यान आ रहा है, तब क्यों नहीं आया था जब नेहा दीदी के सामने प्रेम प्रस्ताव रखा?’’ ज्योति कुछ भावुक स्वर में बोली. उसे मन में थोड़ी शंका भी हुई कि कहीं मनीष उस की बातों का बुरा न मान जाए, आखिर वह इस घर में सिर्फ एक खाना पकाने वाली ही थी.

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