Famous Hindi Stories : रेलवेस्टेशन के गर्भ से नाल की तरह निकल कर पतली सी कमर सा नेताजी सुभाष मार्ग दुलकी चाल से चलता शहर के बीचोंबीच से गुजरने वाले जीटी रोड को जिस स्थान पर लंबवत क्रौस करता आगे बढ़ जाता है, वह शहर के व्यस्ततम चौराहे में तबदील हो गया है-प्रेमचंद चौक. चौक के ऐन केंद्र में कलात्मकता से तराशा, फूलपौधों की क्यारियों से सजा छोटा सा वृत्ताकार उपवन है. उपवन के मध्य में छहफुटिया वेदी के ऊपर ब्लैकस्टोन पर उकेरी मुंशी प्रेमचंद की स्कंध प्रतिमा. स्टेशन से जीटी रोड तक के पतले, ऊबड़खाबड़ नेताजी सुभाष मार्ग के सहारेसहारे दोनों ओर ग्रामीण कसबाई परिवेश से कदमताल मिलाते सब्जियों, फल, जूस, सस्ते रैडिमेड वस्त्र, पुरानी पत्रिकाओं, सैक्स साहित्य और मर्दानगी की जड़ीबूड़ी बेचते फुटकर विक्रेताओं की छोटीछोटी गुमटियां व ठेलों की कतारें सजी हुई थीं. स्टेशन वाले इसी मार्ग के कसबाई कुरुक्षेत्र में झुमकी भी किसी दुर्दांत योद्धा की तरह भीख की तलवार भांजती सारे दिन एक छोर से दूसरे छोर तक मंडराती रहती. 9 साल की कच्ची उम्र. दुबलीपतली, मरगिल्ली काया. मटमैला रंग. दयनीयता औैर निरीहता का रोगन पुता मासूम चेहरा.
झुमकी ने स्टेशन के कंगूरे पर टंगी घड़ी की ओर तिरछी निगाहों से देखा, ढाई बज रहे थे. अयं, ढाई बज गए? इतनी जल्दी? वाह, झुमकी मन ही मन मुसकराई. ढाई बज गए और अभी तक भूख का एहसास ही नहीं हुआ. कभीकभी ऐसा हो जाता है, ड्यूटी में वह इस कदर मगन हो जाती है कि उसे भूख की सुध ही नहीं रहती.
खैर, अब घर लौटने का समय हो गया है. वहां जो भी रूखासूखा मां ने बना कर रखा होगा, जल्दीजल्दी उसे पेट के अंदर पहुंचाएगी. उस ने लौटने के लिए कदम आगे बढ़ा दिए. 4 बजे वापस फिर ड्यूटी पर लौटना भी तो है. दोपहर के वक्त बाजार में आवाजाही कम हो जाती है. अधिकांश ठेले और गुमटियां खालीखाली थीं. चलते हुए उस ने फ्रौक की जेब में हाथ डाल कर सिक्कों को टटोला. चेहरे पर आश्वस्ति की चमक बिखर गई. उड़ती नजरों से बाबा प्रेमचंद का धन्यवाद अदा किया- सब आप ही का प्रताप है, महाराज.
तभी, पांडेजी के ठेले पर एक ग्राहक दिख गया. उस की आंखों में फुरती ठुंस गई. आम का खरीदार, संभ्रांत वेशभूषा. झुमकी तेजतेज चल कर ठेले के पास तक आ गई और एक दूरी बना कर उस पल का इंतजार करने लगी जब ग्राहक आम ले चुकने के बाद भुगतान करने के लिए जेब से पर्स निकालेगा. इंतजार के उन्हीं कुछ बेचैन क्षणों के दौरान नजरें ठेले के एक कोने में रखे कुछेक आमों पर जा पड़ीं जो लगभग खराब हो चुके थे. इन का रंग काला पड़ गया था. त्वचा पिलपिली हो चुकी थी. ये भद्र लोगों के खाने लायक नहीं रह गए थे. पांडेजी इन आमों को संभवतया इस उम्मीद में रखे हुए थे कि कोई निम्नवर्ग का कोलियरी मजदूर या श्रमिक ग्राहक ऐसा मिल ही जाएगा जो इन्हें खरीद ले. इस तरह तो भरपाई हो सकेगी क्षति की. झुमकी की नजरें इन पिलपिले आमों पर चिपक गईं. पहले ऐसा हो चुका है कि काफी इंतजार के बाद भी जब ऐसे बेकार से आमों के ग्राहक नहीं मिल पाते तो पांडेजी खुद ही इन्हें झुमकी को दे देते. देते हुए उन के अंदाज में शाही ठुनक घुली होती, ‘तू भी क्या याद करेगी कि कोई दिलदार पांडे मिले थे.’
झुमकी ने इन आमों का खूब करीबी से मुआयना किया. अब कोई नहीं खरीदने वाला इन्हें. न हो तो ग्राहक के विदा हो जाने के बाद वह खुद ही पांडेजी से इन आमों को मांग लेगी. आम पा जाने की क्षणिक सी उम्मीद जगते ही आंखों में एकमुश्त जुगनुओं की चमक भर गई. इन की पिलपिली, काली त्वचा को और भीतर से रिस कर आती कसैली बू को अनदेखा कर दिया जाए तो ये आम ‘पके और गोरे’ लंगड़ा आमों जैसी ही तृप्ति देते हैं. उस के कंठ से तृप्ति की किलकारी निकलतेनिकलते बची.
ग्राहक को आम तोले जा चुके थे. उस ने जेब से पर्स निकाला और पांडेजी को पैसे देने लगा. उसी क्षण झुमकी लपक कर ग्राहक के पास जा पहुंची और छोटी सी हथेली को उस के आगे फैला दिया. ‘‘क्या है रे?’’ ग्राहक ने उस को ऊपर से नीचे तक निहारा. निहारने में दुत्कार नहीं, सहानुभूति का पुट घुला था, ‘‘भीख चाहिए?’’
झुमकी ने हां में सिर हिला दिया. हथेली फैला देने का मतलब नहीं समझ में आ रहा है हुजूर को. ‘‘ठीक है,’’ ग्राहक भी संभवतया फुरसत में था. उस से चुहल करने में मजा लेने लगा, ‘‘बोल, भीख में पैसे चाहिए या आम?’’
आम की बात सुन कर झुमकी के मन में लालसा फुफकार उठी. दिल जोरजोर से धड़कने लगा. कल्पना में आम का रसीला स्वाद उतर आया. उस ने डरते हुए तर्जनी उठा कर ठेले के कोने में पड़े परित्यक्त आमों की ओर संकेत कर दिया. ‘मुंह से बोल न रे, छोरी.’ ग्राहक हंसा, ‘क्या गूंगी की तरह इशारे में बतिया रही है.’’
झुमकी चुप रही. ‘‘अरे बोल न, क्या लेगी-आम या पैसे?’’
झुमकी ने फिर भी मौन साधे रखा और डरती हुई पहले की तरह ही उन आमों की ओर संकेत कर दिया. ‘‘जब तक मुंह से नहीं बोलेगी, कुछ नहीं देंगे,’’ ग्राहक झुंझला उठा. झुमकी सहम गई. ऐसे क्षणों में जबान तालू से चिपक जाती है तो वह क्या करे भला? चाह कर भी बोल नहीं फूट रहे थे. सो, फिर से मौनी बाबा की तरह वही संकेत.
‘‘धत तेरे की,’’ ग्राहक फनफनाते हुए दमक पड़ा, ‘‘सरकार ससुर दलितों, गरीबों और अन्त्यजों की पूजाआरती उतारने में बावली हुई जा रही है. उन्हें हक और जमीर के लिए लड़ने को उकसा रही है. पकड़पकड़ कर जबरदस्ती सरकारी कुरसियों पर बैठा रही है. इ छोरी है कि सरकार बहादुर की नाक कटवाने पर तुली हुई है, हुंह. अरे, अब तो अपना रवैया बदल तू लोग. रिरियाना छोड़ कर हक से मांगना सीख.’’ ‘‘हां रे झुमकी, साहब ठीक ही तो कह रहे हैं. मुंह से बोल दे न, आम चाहिए या पैसा,’’ पांडेजी उसे प्रोत्साहित करते हुए हिनहिना दिए. ग्राहक की बेतरतीब टिप्पणियों से झुमकी का दिमाग झनझना उठा. क्षणभर में संन्यासी मोड़ वाले स्कूल के पास का ‘सर्व शिक्षा अभियान’ का बोर्ड और बोर्ड में चित्रित खिलखिलाते बच्चे आंखों के आगे आ गए. ग्राहक या तो सनकी है या अत्यधिक वाचाल. क्या इस को पता नहीं कि सरकार बहादुर की गरीबोंदलितों के पक्ष में की जा रही सारी पूजाआरती सिर्फ कागजकलम पर हवाहवाई हो कर रह जाती है.
‘‘हम तो चले पांडेजी,’’ ग्राहक खीझता हुआ आम वाले लिफाफे को उठा कर चलने को मुड़ गया. झुमकी धक से रह गई. सिर पर चिरकाल से पड़ी कुंठा और लाचारगी की भारीभरकम शिला को पूरा जोर लगा कर थोड़ा सा खिसकाया तो कंठ की फांक से एक महीन किंकियाहट गुगली की तरह उछल कर बाहर आई, ‘आम…’ अधमरी बेजान सी आवाज. ग्राहक वापस दुकान पर आ गया. उस के होंठों पर विजयी मुसकान चस्पा हो गई, ‘‘यह हुई न बात.’’ ‘‘दोष इन लोगों का भी नहीं न है साहेब,’’ पांडेजी मुसकराए, ‘‘सदियों से चली आ रही स्थिति को बदलने में वक्त तो लगेगा ही.’’
ग्राहक ने अपने लिफाफे से एक आम निकाल कर उस की ओर बढ़ा दिया, ‘‘ले, खा ले.’’ ग्राहक के बढ़े हाथ को देख कर झुमकी स्तब्ध रह गई. ताजा और साबुत लंगड़ा आम दे रहा है ग्राहक बाबू. मजाक तो नहीं कर रहा? एक पल के लिए मौन रखने के बाद इनकार में सिर हिलाते हुए उस ने तर्जनी से उन परित्यक्त आमों की ओर संकेत कर दिया. ‘‘छी…’’ ग्राहक खिलखिला कर हंस पड़ा, अरे, ‘‘पूरे समकालीन साहित्य के दलित स्त्री विमर्श की नायिका है तू. बदबूदार आम तुझे शोभा देंगे? न, न, ये ले ले.’’
ग्राहक की व्यंग्योक्ति में चुटकीभर हंसी पांडेजी भी मिलाए बिना नहीं रह सके. झुमकी ने फिर भी इनकार में सिर हिला दिया. तर्जनी उन्हीं आमों की तरफ उठी रही, मुंह से बोल न फूटे.
‘‘अजीब खब्ती लड़की है रे तू,’’ ग्राहक झुंझला उठा. झुमकी का रिरियाना और ऐसी शैली में बतियाना ग्राहक की खीझ को बढ़ा रहा था. उसे उम्मीद थी कि अच्छा आम पा कर लड़की एकदम से खिल उठेगी. पर यहां तो वही मुरगे की डेढ़ टांग. झिड़की में पुचकार का छौंक डालते हुए फनफनाया, ‘‘अरे हम अपनी मरजी से न दे रहे हैं यह आम. इतनीइतनी सरकारी योजनाएं, इतनेइतने फंड, इतनेइतने अनुदान…सारी कवायदें तुम लोगों को ऊपर उठाने के लिए ही न हो रही हैं? इन सरकारी कवायदों में एक छोटा सा सहयोग हमारा भी, बस.’’
झुमकी कभी आम को और कभी ग्राहक के चेहरे को टुकुरटुकुर ताकती रही. आंखों में भय सिमटा हुआ था. भीतर के बिखरेदरके साहस को केंद्रीभूत करती आखिरकार मिमियायी, ‘‘नहीं सर, इ आम नहीं, ऊ वाला आम दे दो.’’ ‘‘क्यों? जब हम खुद दे रहे हैं तो लेने में क्या हर्ज है रे, अयं?’’
‘‘हम भिखारी हैं, सर. अच्छा आम हमारे तकदीर में नहीं लिखा. ऊहे आम ठीक लगता है.’’ पूरे एपिसोड में पहली बार लड़की के मुंह से इतना लंबा वाक्य फूटा था. ‘‘देखा पांडेजी?’’
‘‘एक बात है, सर,’’ हथेली पर खैनी मसलते हुए पांडेजी ने कहा, ‘दलितों के लिए सरकारी सारे अनुदान, योजना वगैरावगैरा राजधानी से ऐसे कार्टून में भर कर लादान किया जाता है जिस के तल में बड़ा सा छेद बना होता. सारा कुछ ससुर रस्ते में ही रिस जाता है और कार्टून जब इन लोगन के दरवाजे आ कर लगता है तो पूरा का पूरा छूछा. हा, हा, हा.’’ ‘‘कुछ हद तक ठीक है आप की बात, पांडेजी,’’ ग्राहक भी हंसे बिना नहीं रह सका, ‘‘पर इस में सारा दोष सरकार को देना भी ठीक नहीं. कुछ दोष इन लोग का भी है. इन लोगों को भी तो अपना हक बूझना होगा, उस को पाने के लिए हाथपांव चलाना होगा. मतलब, पहल तो इन लोगों को ही न करना है. एक बार तन कर देखें तो. सारे हक मिलते चले जाते हैं कि नहीं? सब से पहले तो रिरियाना छोड़ना होगा.’’
‘‘हां साहब, ठीक कह रहे हैं आप. माओवादी लड़ाई कुछकुछ हक के प्रति सचेत हो जाने का परिणाम ही तो है,’’ पांडे ने कहा और फिर झुमकी की ओर मुखाबित होते हुए बोले, ‘लेले रे, लेले. साहब और तेरे बीच कोई बिचौलिया नहीं है न. साहब के हाथ से सीधे तेरे हाथ में आ रहा है इ अनुदान.’’
ग्राहक आगे बढ़ा और आम को झुमकी की हथेली में ठूंसते हुए हिनहिनाया, ‘‘तकदीर, मुकद्दर और भाग्य, सब बेकार बातें हैं, रे. जरूरी है हक बचाने के लिए लड़ाई की पहल. देख, इस आम की मालकिन अब तू हुई. यह पूरी तरह तेरा है. अब इस पर तेरा हक है. तकदीर तेरी मुट्ठी में कैद हो गई कि नहीं?’’ आम थामे झुमकी की हथेली थरथरा रही थी. आम की साफ पुखराजी रंगत और खरगोश सा मुलायम स्पर्श रोमांचित कर रहा था. पर आंखों में अविश्वास और डर अभी भी दुबका हुआ था.
‘‘बाबू, इ आम हम नहीं ले सकते. हम को उहे आम दिला दें,’’ फिर से लिजलिजी गिड़गिड़ाहट. ‘‘भाग सुसरी,’’ ग्राहक इस बात से उखड़ गया, ‘‘भाग, नहीं तो दू थप्पड़ लगा देंगे.’’
झुमकी चुपचाप पांडेजी की गुमटी से उतर आई और धीरेधीरे घर को जाने वाली राह पर आगे बढ़ने लगी. उसे अभी भी आंखों पर विश्वास नहीं हो रहा था कि हथेली में ताजा गोराचिट्टा लंगड़ा आम दुबका हुआ है. चलतेचलते अचानक रुकी और एक ओर खड़ी हो कर आम को भरपूर नजरों से निहारने लगी. उस निहार में एकसाथ आश्वस्ति, प्यार और तृप्ति के कईकई रंग घुले हुए थे. इतने करीब से इस तरह के साबुत आम को पहली बार देख रही है. आज तक जितने भी ग्राहक मिले, भीख में या तो एकाध सिक्का दिया या फिर परित्यक्त आमों में से एकाध दिला दिया. ताजा व पक्का आम पहली बार झोली में आया है. लग रहा था जैसे दलितों के लिए घोषित असंख्य सरकारी अनुदानों में से एक अनुदान एकदम मूर्त हो कर उस की झोंपड़ी के भीतर आ टपका हो. वह मन ही मन आम के रसीले स्वाद की कल्पना में खोने लगी. कदम तेजी से बस्ती की ओर बढ़ चले. स्टेशन लांघ कर कदम कब लाइन पार आ गए और देखतेदेखते संन्यासी मोड़ भी कब आ पहुंचा, झुमकी को पता ही नहीं चला. तंद्रा टूटी तो सामने स्कूल का गेट दिखा. गेट बंद था. पीछे का ग्राउंड सूना. कक्षाएं समाप्त हो चुकी थीं न. झुमकी के पांव एक पल को गेट के पास थम गए. नजरें पखेरु सी उड़ती हुई पेड़ पर टंगे ‘सर्व शिक्षा अभियान’ के बोर्ड पर जा बैठीं. बोर्ड में चित्रित निश्ंिचत मुसकराहटों को देख कर मन कचोट से भर गया. वह आगे बढ़ने को उद्यत हुई ही थी कि सामने वाली पतली गली से निकल कर हवलदार निमाई बाबू प्रकट हो गए. खाकी वरदी, हाथ में रूल, आंखों में लोमड़ सी चमक. खाकी वरदी देख कर न जाने क्यों झुमकी की जान सूखने लगती है. मन में एक किस्म का डर रेंग जाता है. इस बार भी वही हुआ. भीतर ही भीतर कलेजा धकधक करने लगा. आसपास निपट सन्नाटा. दूरदूर तक कोई भी नहीं. एहतियात बरतते हुए आम वाली हथेली को पीछे ले जा कर फ्रौक के भीतर कर लिया.
‘का रे झुमकी?’ निमाई बाबू ने खींसें निपोर दिए, ‘धंधा से लौट रही?’ ‘हां सर, एही वक्त तो लौटते हैं रोज,’ झुमकी मन ही मन फनफना उठी. हमरे काम को धंधा कहते हैं. खुद बाजार की दुकानों से और बस्ती वालों से वसूली करते हैं, वह धंधा नहीं है?
निमाई बाबू भी पोस्टमौर्टमी नजरें न जाने किस चीज की तलाश में उस के बदन का नखशिख मुआयना करने लगीं. निस्तेज चेहरा, सपाट छाती और किसी पुतले की सी पतलीपतली जांघें.
‘‘तोर काछे किच्छू नेई रे? (तेरे पास कुछ भी नहीं है रे?)’’ होंठों पर लिजलिजी हंसी उभर आई और आगे बढ़ कर रूल को उस की बांह पर 2-3 बार ठकठका दिया. रूल का स्पर्श होना था कि बांह थरथरा गई और हथेली से फिसल कर आम जमीन पर आ गिरा. ‘‘अयं…?’’ निमाई बाबू की आंखें विस्मय से फैल गईं, झुक कर आम को झट से उठा लिया, ‘‘इ आम कहां से मिला रे?’’
‘‘एगो साहब भीख में दिया, सर,’’ सफाई देती हुई झुमकी की जबान अनायास ही लड़खड़ा गई. निमाई बाबू की आंखों में अविश्वास सिमट आया. एक पल को झुमकी की आंखों के भीतर ताकते रहे, निर्निमेष, फिर हाहा कर के हंस पड़े, ‘‘एतना सुंदर आम भीख में? असंभव. सचसच बता, भीख में मिला या किसी दुकान से पार किया?’’ ‘‘नहीं सर,’’ झुमकी की सांसें रुकनेरुकने को हो रही थीं, ‘‘पांडेजी की दुकान पर मिला. एक ग्राहक ने दिया. उन से पूछ लें.’’
हवलदार निमाई ने आम का एकदम करीब से अवलोकन किया. नाक के पास ले जा कर भरपूर सांस खींची तो नथुनों के भीतर महक अलौकिक सी महसूस हुई. ऐसा लगा जैसे इस महक में लंगड़ा आम की महक के अलावा भी एक अन्य सनसना देने वाली महक शामिल है. स्मृति में खलबली मच गई. ऊफ, याद क्यों नहीं आ रहा कि यह दूसरी महक कौन सी है? एकदम आत्मीय और जानीपहचानी. उत्तेजना के ये कुछेक पल बड़ी मुश्किल से ही कटे कि तभी आंखों में जुगनुओं की एकमुश्त चमक भर गई. अरे, यह महक शतप्रतिशत वही महक तो है जो दलितों के लिए घोषित मलाईदार सरकारी योजनाओं और अनुदानों से निकला करती है. खूब, ऐसी महक का स्वाद तो उन के जबान में गहराई से रचाबसा है. तभी तो… ‘‘ए,’’ निर्णय लेने में एक पल ही लगा, ‘‘ऐसा सुंदर और पका आम तुम लोग कैसे खा सकता है, रे? फिर सभ्य समाज का क्या होगा? यह आम तुझे नहीं मिल सकता.’’
‘‘हम को भीख में मिला, सर,’’ झुमकी किंकिया ही तो उठी. ‘‘हर चोर पकड़े जाने पर ऐसी ही सफाई देता. यह भीख का नहीं, चोरी का माल है,’’ निमाई बाबू के लहजे से हिकारत चू रही थी. ठीठ हिकारत.
‘‘हम सफाई नहीं दे रहे, सर. सच बोल रहे हैं. आप पांडेजी से पूछ लें.’’ ‘‘पूछने की कोईर् जरूरत नहीं. यह चोरी का ही माल है. थाना में जमा होगा,’’ निमाई बाबू की आंखों में लोलुप चमक चिलक रही थी.
‘‘हम चोरी नहीं किए,’’ झुमकी के हौसले पस्त होते जा रहे थे. ‘‘चोप्प, जबान लड़ा रही? जब हम कह रहे हैं कि चोरी का माल है तो, बस, है.’’
‘‘हमारा यकीन करें, सर.’’ ‘‘बोला न, चोप्प. एक शब्द भी बोला तो लौकअप में ले जा कर बंद कर देगा, समझी? प्रमाण लाना होगा. प्रमाण ले कर आओ, तब मिलेगा.’’
झुमकी स्तब्ध खड़ी रही. प्रमाण? हंह, भीख का प्रमाण मांग रहे? बाजार की दुकानों से और बस्ती से दैनिक वसूली करते हैं, उस का प्रमाण मांगा जाए तो…? तो दे सकेंगे? ग्राहक बाबू से कितना बोली थी कि ऐसे सुंदर आम उस जैसों के लिए नहीं होते. उन्होंने नहीं माना. बहादुरी में सरकारी योजनाओं और अनुदानों के बड़ेबड़े हवाले दे डाले. अरे, कोई भी सरकारी योजना या अनुदान सहीसलामत उन तक पहुंचता भी है? हंह, सब फुस हो गया न. उस के चेहरे पर स्याह मायूसी पुत गई. उसे महसूस हुआ जैसे हमेशा की तरह आज भी, कोई अनुदान मुट्ठी में आ जाने के बाद भी रेत की तरह फिसल कर अदृश्य हो गया है.
तभी उस की आंखें धुआंने लगीं. क्या वाकई सबकुछ इतनी आसानी से फुस हो जाने दे? ग्राहक बाबू ने कहा था न कि हक को पाने और बचाने के लिए चौकन्ना रहने के साथसाथ हाथपांव चलाते हुए संघर्ष की पहल करनी भी जरूरी है. पहल..? इस मौजूदा स्थिति में पहले के क्या विकल्प हैं, भला? वह नन्हीं जान, लंबेतगड़े निमाई बाबू से हाथापाई कर के जीत सकती है? आम छीन कर दौड़ भी पड़े तो निमाई बाबू लपक कर पकड़ लेंगे. आम तो जाएगा ही, भरपूर पिटाई भी खूब होगी. तब?
उस का छोटा सा दिमाग तेजी से कईकई विकल्पों का जायजा ले रहा था. कोईर् तो पहल करनी ही होगी हक बचाने के लिए. एकदम आसानी से सबकुछ फुस नहीं होने देगी वह. अचानक भीतर एक कौंध हुई. आंखें चमत्कृत रह गईं. कलेजा धकधक करने लगा. निमाई बाबू आम पा जाने की खुशी में चूर होते तनिक असावधान तो थे ही, झुमकी ने चीते की तरह लपक कर उन के हाथों से आम को कब्जे में लिया और पूरी ताकत से उस आम पर दांत गड़ा दिए.