अब लंदन में संभावनाएं तलाश रहे हैं अक्षय कुमार?

अक्षय कुमार अभिनीत ‘लक्ष्मी’, ‘बच्चन पांडे’ और ‘सम्राट पृथ्वीराज ’ सहित लगभग छह फिल्मों के बाक्स आफिस पर बुरी तरह से असफल हो जाने के बाद उनके कैरियर पर कई सवालिया निशान खड़े हो गए हैं. सूत्रांे पर यकीन किया जाए तो अक्षय कुमार की ‘गोरखा’ सहित पांच फिल्में बंद कर दी गयी हैं. इसलिए अब अक्षय कुमार की सारी उम्मीदंे 11 अगस्त को प्रदर्शित होने वाली आनंद एल राय निर्देशित फिल्म ‘‘रक्षाबंधन’’ पर टिकी हुई हैं. अक्षय कुमार इस फिल्म के लिए विश्व स्तर पर संभावनाएं तलाश रहे हैं.

अक्षय कुमार इन दिनों लंदन में हैं,जहां वह वासु भगनानी की नई फिल्म की शूटिंग कर रहे हैं. तो अक्षय कुमार ने फिल्म ‘‘रक्षाबंधन’’ का भी प्रमोशनल इवेंट करने का विचार कर योजना बना डाली. और अब 18 जुलाई को  लंदन के ‘सिनेवल्र्ड फेलथम’ में  शाम छह बजे फिल्म ‘‘रक्षाबंधन’’ का एक खास गाना रिलीज किया जाएगा. इसके पोस्टर लंदन में लग गए हैं. इस अवसर पर अक्षय कुमार,फिल्म की नायिका भूमि पेडणेकर और निर्देशक आनंद एल राय भी मौजूद रहेंगंें.

इस तरह लंदन में फिल्म ‘रक्षाबंधन’ का गाना रिलीज कर लंदन में रह रहे अप्रवासी भारतीयांंें को आकर्षित करना ही माना जा रहा है. वैसे भी लंदन के इस ‘सिनेवल्र्ड’ सिनेमाघर में ज्यादातर भारतीय फिल्में प्रदर्शित होती हैं. सूत्रों का दावा है कि अक्षय कुमार और आनंद एल राय अपनी फिल्म ‘रक्षाबंधन’’ को लंदन सहित विश्व के कई शहरांे में प्रदर्शित करने की योजना पर काम कर रहे हैं. वैसे भी फिल्म ‘‘रक्षाबंधन’’ की सफलता या असफलता का सबसे बड़ा असर अक्षय कुमार पर ही पड़ने वाला है. पहली बात तो इस वक्त उनका कैरियर खतरे में पड़ा हुआ है. पिछले कुछ समय में उनकी कई फिल्में असफल हुई हैं.  और उनके हाथ से कई फिल्में चली गयी हैं. दूसरी बात इस फिल्म के निर्माण से भी अक्षय कुामर जुड़े हुए हैं.

अक्षय कुमार और आनंद एल राय अब तक भारत में फिल्म ‘‘रक्षाबंधन’’ के दो प्रमोशनल इवेंट कर चुके हैं. फिल्म का ट्ेलर दिल्ली में लांच किया गया था. जबकि फिल्म का एक गाना ‘‘तेरे साथ हॅूं मैं’’ मंुबई में लांच किया गया था. मगर अभी तक इस फिल्म को लेकर चर्चाओं का दौर उतना गर्म नही हो पाया है,जितना कि होना चाहिए. शायद लंदन में गाने के लांच इवेंट से फिल्म को कुछ फायदा मिल जाए.

हर कलाकार के लिए वच्र्युअल फार्मेट में शूटिंग करना फायदेमंद है- अक्षय ओबेराय

मूलतः भारतीय मगर अमरीका में जन्में व पले बढ़े अक्षय ओबेराय को 12 वर्ष की उम्र में ही अभिनय का शौक हो गया था. उन्होने अमरीका में रहते हुए एक फिल्म ‘‘अमरीकन चाय’’ में बाल कलाकार के रूप में अभिनय भी किया था. उन्होने अमरीका में रहते हुए अभिनय का विधिवत प्रशिक्षण भी लिया. मगर अभिनय के क्षेत्र मे कैरियर बनाने के लिए वह अमरीका से मुंबई आ गए. उन्हे सबसे पहले सूरज बड़जात्या ने ‘राजश्री प्रोडक्शन’ की फिल्म ‘‘इसी लाइफ में’’ में लीड किरदार निभाने का अवसर दिया. अफसोस इस फिल्म ेने बाक्स आफिस पर पानी तक नही मांगा,जिसके चलते उनका संघर्ष लंबा ख्ंिाच गया. इसके बाद फिल्म ‘पिज्जा’ ने थोड़ी सी पहचान दिलायी. लेकिन शंकर रमण निर्देशित फिल्म ‘‘गुड़गांव’’ में नगेटिब किरदार निभाकर उन्होंने कलाकार के तौर पर बौलीवुड मेंं अपनी पहचान बनायी. उसके बाद उनका कैरियर हिचकोले लेते हुए लगातार आगे बढ़ता रहा. मगर ओटीटी प्लेटफार्म तो उनके लिए जीवन दायी साबित हुए. अब वह काफी व्यस्त हो गए हैं. इन दिनों भारत की पहली वच्र्युअल फिल्म ‘‘जुदा हो के भी ’’ को लेकर चर्चा में हैं. विक्रम भट्ट निर्देशित यह फिल्म 15 जुलाई को सिनेमाघरों में पहुॅची है.

प्रस्तुत है अक्षय ओबेराय से हुई बातचीत के अंश. . .

आपकी परवरिश अमरीका में हुई. आपने अभिनय का प्रशिक्षण भी अमरीका में ही लिया. फिर वहां पर फिल्मों में अभिनय करने की बनिस्बत आपने अभिनय को कैरियर बनाने के लिए बौलीवुड को क्यों चुना?

-देखिए,आप अच्छी तरह से जानते है कि मेरी जड़ें भारत में ही हैं. मेरे माता पिता काफी पहले अमरीका में सेटल होे गए थे और मेरा जन्म वहीं पर हुआ. मगर जब मैं बारह वर्ष का था,तभी से घर पर व स्कूल में अभिनय किया करता था. बॉलीवुड फिल्में बहुत देखता था. लेकिन मैं यह देख रहा था कि वहां की फिल्मों में स्क्रीन पर जो कलाकार नजर आ रहे थे,वह सभी गोरे लोग थे. मैं तो उनकी तरह दिखता नहीं था. मेरे घर का रहन सहन व भाषा सब कुछ पूरी तरह से भारतीय ही रहा. मेेरे माता पिता अस्सी के दशक में भारत से अमरीका गए थे,मगर वह भारतीय कल्चर को भी अपने साथ ले गए.  अमरीका में भी हमारे घर पर पूरी तरह से हिंदी भाषा और भारतीय कल्चर ही रहा.  और हिंदी फिल्में ही देखते थे. इसलिए अमरीकन की तरह सोच मेरे दिमाग में कभी आयी ही नहीं. मुझे लगा कि मेरे लिए हिंदी सिनेमा ही बेहतर रहेगा. इसलिए मैं मुंबई चला आया. बॉलीवुड में काम करते हुए मुझे दस वर्ष हो गए. मुझे लगता है कि यह मेरा सही निर्णय रहा. वहां रहकर शायद मैं उतना तो काम न कर पाता, जितना यहां कर पाया. यहां जितने विविधतापूर्ण किरदार निभाए,वह भी शायद वहां पर निभाने को न मिलते. मैने यहां पर फिल्म के अलावा ओटीटी प्लेटफार्म पर भी काफी अच्छा काम करने का अवसर पाया. शायद इस तरह का विविधतापूर्ण काम करने अवसर मुझे हालीवुड में न मिलता.

आपने 2010 में ‘राजश्री प्रोडक्शन की फिल्म ‘‘इसी लाइफ में’’ से अपने अभिनय कैरियर की शुरूआत की थी. तब से अब तक के कैरियर को आप किस तरह से देखते हैं?

-मैं हमेशा अपने आपको ‘अभिनेता’ मानता था और मानता हूं. ‘ ‘स्टार ’ शब्द से मैं कभी इत्तफाक नहीं रखता. मैने ‘स्टार’ शब्द के पीछे कभी नहीं भागा. जैसा कि आपने भी कहा मैंने अमरीका में अभिनय की विधिवत शिक्षा ली. भारत आने के बाद मैने मकरंद देशपंाडे के साथ थिएटर किया. मेरी रूचि हमेशा अभिनय में रही. मेरी अब तक की अभिनय यात्रा में काफीउतार चढ़ाव रहे. मैेने असफलताएं भी काफी देखीं. इन सारी चीजों ने मुझे एक ‘अभिनेता’ बनाया है. कोई अभिनेता के तौर पर पैदा नही होता. अभिनेता को तराशा जाता है. हमें लगातार किरदारांे ंपर काम करना पड़ता है. अपनी संवाद अदायगी पर काम करना होता है. मसलन- एक डाक्टर अपने पहले आपरेशन में कुछ कमाल नही कर पाया होगा,पर बाद में वह दिग्गज सर्जन बनता है. यही बात अभिनय के क्षेत्र में भी लागू होती है. आप जितनी मेहनत करोगे, भाषा,संवाद अदायगी, चरित्र चित्रण, इमोशंस पर जितना काम करोगे,उतना ही बेहतरीन कलाकार बनते जाओगे. तो मुझे भी काम बहुत मिला. कुछ ऐसा बॉक्स आफिस पर उम्दा धमाल नही हुआ है. लेकिन उम्मीद है कि बहुत जल्द बाक्स आफिस पर धमाल भी होगा. मगर अब तक इन सारी चीजों ने मुझे मैच खेलने के लिए तैयार किया. इतने विविधातपूर्ण किरदार निभाने और इतना काम करने के बाद मैं महसूस करता हूं कि अब मैं अगले स्तर के लिए तैयार हूं.

आप अब तक के कैरियर में टर्निंग प्वाइंट्स क्या मानते हैं?

-शुरूआती तौर पर सूरज बड़जात्या जी ने मुझे फिल्म ‘इसी लाइफ में ’ लांच किया था,मगर फिल्म सफल नही हुई थी. सही मायनों में मेरा पहला टर्निंग प्वाइंट फिल्म ‘गुड़गांव’ रही. दूसरा टर्निंग प्वाइंट ‘पिज्जा’ रहा. ‘गुड़गांव’ को लोग कल्ट फिल्म मानते हैं. इस फिल्म को पत्रकारिता के स्कूल में पढ़ाया जा रहा है. मेरी परवरिश अलग माहौल में हुई. मेरे चेहरे के नयन नक्श भी कुछ अलग प्रकार के हैं. फिर भी फिल्म ‘गुड़गांव’ के शंकर रमण ने मुझे क विलेन के तौर पर देखा. इसके लिए मुझे हरियाणवी भाषा के लहजे को सीखना व पकड़ना पड़ा था. फिल्म ‘गुड़गांव’ के प्रदर्शन के बाद अचानक लोगों को मुझसे आपेक्षाएं होने लगी. लोगांे को अहसास हुआ कि इस बंदे में दम है. क्योकि इस फिल्म में मैंने जिस तरह का किरदार निभाया है,उसके ठीक विपरीत मैं निजी जीवन में नजर आता हूं और अलग तरह से ही बात करता हूं. इस फिल्म को कई फिल्मकारों ने देखा और मेरे अभिनय की तारीफ भी की. खैर,अब तो यह फिल्म नेटफ्लिक्स पर मौजूद है और अब तो इसे काफी दर्शक मिल चुके हैं. फिर सबसे बड़ा टर्निंग प्वाइंट ओटीटी प्लेटफार्म रहा. मैने ओटीटी पर ‘ईलीगल’, ‘इनसाइड एज’ और ‘हाई ’ तक हर वेब सीरीज के लिए प्रशंसा ही पायी. ओटीटी प्लेटफार्म से ही मुझे दर्शक मिले. पहले फिल्म इंडस्ट्ी के अंदर के लोग मुझे अच्छा कलाकार बताया करते थे. मगर ओटीटी के चलते अब आम दर्शक भी मुझे अच्छा एक्टर मानने लगा हैं. तो मैं अपने कैरियर में ‘गुड़गांव’ और ओटीटी इन दो को महत्वपूर्ण टर्निंग प्वाइंट मानता हूं.

आपकी कुछ फिल्मों की असफलता की वजह भी रही कि उन्हें ठीक से प्रमोट नहीं किया गया और उन्हे ठीक से रिलीज भी नहीं किया गया?

-आपने एकदम सही कहा. आप काफी लंबे समय से फिल्म पत्रकारिता के क्षेत्र में कार्यरत हैं. आपको काफी अनुभव है. इसनिए आपका आकलन गलत तो नहीं हो सकता. सच तो यही है कि मुझे नही याद कि मेरी एक भी फिल्म ढंग से रिलीज हुई है. हर शुक्रवार को जब मेरी फिल्म रिलीज होती थी,तो पता ही नही चलता था कि मेरी फिल्म भी रिलीज हो रही है. पर जब फिल्म को अच्छे रिव्यू मिलते थे,तब कुछ चर्चा होती थी. अब तो खैर काफी प्लेटफार्म आ गए हैं. ‘गुड़गांव’,‘लाल रंग’, ‘कालाकांडी’ सहित मेरी कई अच्छी फिल्में रही हैं,जिनका न ठीक से प्रमोशन हुआ और न ही इन्हें ठीक से रिलीज किया गया. मेरी फिल्म की मार्केटिग का कभी भी बडा बजट नहीं रहा. इसे आप तकदीर भी कह सकते हो कि फिल्में ठीक ठाक रहीं.

माना कि ओटीटी पर आपको कलाकार के तौर पर अच्छी पहचान मिली,मगर वहां भी आप ठीक से प्रमोट नहीं हो पा रहे हैं?

-शायद यह मेरी भी कमजोरी है. मैं हमेशा काम,किरदार,कहानी,फिल्म पर फोकश करता हूं. रचनात्मक रूप से बहुत ज्यादा सचेत रहता हूं. काफी मेहनत करता हूं. पर अपने आपको बेचने में उतनी मेहनत नहीं करता. मैं सोशल मीडिया का भी शेर नही हूं. सोशल मीडिया का किंग नहीं हूं. मुझे सोशल मीडिया पर खुद को बनाए रखना भी नहीं आता. मैं फिल्मी पार्टियों में भी नही जाता. कुछ लोग ऐसे हैं जो कि मंदिर जाते हैं,तो वहां की सेल्फी लेकर पत्रकार को फोन करते हैं कि भाई इसे छपवा दे. मेरा दिमाग इस दिशा में जाता ही नहीं है. तो यह मेरी अपनी कमजोरी है. जबकि हर कलाकार को खुद को बेचना आना चाहिए. हम जानते हंै कि जो दिखता है,वही बिकता है. मुझे हमेशा लगता है कि मेरा काम बात करेगा और ऐसा होता है. लेकिन इसमें वक्त लगता है. मैने इस बात को अब अहसास किया कि दस वर्षों से अध्कि समय तक काम करने के बाद ओटीटी के चलते मुझे पहचान मिली. अब मैं जब सड़कों पर जाता हूं,तो लोग मुझे पहचानते हैं. अब लोग मुझसे एअरपोर्ट पर सेल्फी मांगने लगे हैं. मैने यह सब खुद को बेचकर नही खरीदा है. बल्कि मेरा काम बोल रहा है. यह मेरी अपनी मेहनत का परिणाम है. लेकिन यह समझ में आया कि मेहनत के बल पर इतना ही मिलेगा. स्टारडम के स्तर पर जाने के लिए आपको अपनी मार्केटिंग भी करनी पड़ेगी. यह मेरी कमजोरी है कि मैं सही ढंग से प्रमोट नही हो पाया,पर अब मैं इस पर भी ध्यान दॅंूगा.

वच्र्युअल फार्मेट पर पहली बार विक्रम भट्ट ने फिल्म ‘‘जुदा होके भी ’’बनायी है, जिसमें आप लीड किरदार में हैं. आपने इस फिल्म का हिस्सा बनना क्या सोचकर स्वीकार किया?

-मैने इस फिल्म से जुड़ना वच्र्युअल तकनीक के कारण स्वीकार नहीं किया. वच्र्युअल बहुत अलग तकनीक है. इससे सिनेमा में इजाफा ही होगा. मैने ‘जुदा होके भी’ को करने के लिए हामी भरी उसकी अलग वजह रही है. मैने अब तक जितनी भी फिल्में की या वेब सीरीज की,उन्हे अधिकांशतः शहरी दर्शकों ने ही देखा है. अति बुद्धिमान समझे जाने वाले दर्शको ने देखा है. ‘लाल रंग’ या ‘गुड़गांव’ जैसी फिल्में देश के कुछ हिस्से में ही चली. मसलन हरियाणा में चली. मैने अब तक हार्ट लाइन की एक भी फिल्म नही की. जब तक आप हार्टलाइन यानी कि देश के दिल की फिल्में नहीं करेंगे,तब तक लोगों के दिलों तक नहीं पहुंच सकते. और हार्ट लाइन की फिल्में बनाना भट्ट कैंप से बेहतर कोई नही जानता. भट्ट कैंप बहुत अच्छी तरह से समझते हैं कि हार्ट लाइन में किस तरह की फिल्में देखी जाती हैं. जब महेश भट्ट साहब और विक्रम भट्ट जी मेरे पास इस फिल्म का आफर लेकर आए थे,तो मैने उनसे साफ साफ कहा था कि आपको मेरे साथ जिस तरह की भी फिल्म बनानी है,बनाएं,क्योंकि मुझे उन दर्शकांे की तरफ फोकश करना है,जो वफादार है. या सिंगल थिएटर के जो दर्शक हैं  या जिन्हे आप हार्ट लाइन दर्शक कह लें.

आपके अनुसार फिल्म ‘‘जुदा हो के भी ’’ क्या है?

-यह वूंडेड यानी कि घायल लोगांे की कहानी है. उसने बहुत दर्द झेला है. इसमें मेरे किरदार अमन की कहानी है. जो बहुत बड़ा फिल्म स्टार रह चुका है. अब वह स्टार नही है. अब दिन भर दारू पीता है. उसने अपना बच्चा खोया हुआ है यानी कि जब उसका बेटा चार पांच वर्ष का था,तब उसकी मौत हो गयी थी. वह उसका दुःख लेकर जी रहा है. फिर कोई युवक उसकी बीबी को अपनी तरफ आकर्षित कर लेता है और अमन अपनी बीबी की खोज में जाता है. फिल्म की शुरूआत में अमन सब कुछ खो चुका है. फिर धीरे धीरे उसे जो कुछ पाना है,उसकी चुनौती को स्वीकार कर अंततः पा लेता है. तो इस फिल्म में अमन की कए लड़ाई है. अमन की एक यात्रा है.

आपने अमन के किरदार के साथ न्याय करने के लिए कोई होमवर्क किया?

-मैं अपनी हर फिल्म के लिए अलग अलग तरह से काफी होमवर्क करता हूं. जब हर इंसान अलग है. तो फिर हर फिल्म का किरदार भी अलग ही होता है. हर किरदार का लुक,उसके अहसास सब कुछ अलग होता है. इस फिल्म में मैने उसके भाषा के लहजे पर काम किया. वह कलाकार है,तो मैंंने पियानो बजाना सीखा.  भट्ट साहब की जो डायलाग बाजी होती है,उस पर काम किया कि मैं किस तरह भारी भरकम संवादों को बड़ी सहजता से पेश कर सकूंू.

एक कलाकार के लिए वच्र्युअल फार्मेट में शूटिंग करना कितना फायदेमंद है?

-मेरे लिए तो फायदेमंद है. देखिए,पांच करोड़ की लागत में बनी फिल्म हो या सौ करोड़ की लागत में बनी फिल्म हो,दर्शक को फिल्म देखने के लिए एक समान ही टिकट के दाम चुकाने होते हैं. ऐसे में दर्शक चाहता है कि वह बड़े बजट की फिल्में देखे. तेा वच्र्युअल फार्मेट में शूटिंग करने से कम खर्च में महंगी फिल्म बन जाती है. ऐसे में मेरे जैसे कलाकार के लिए,जिसकी बाक्स आफिस पर बड़ी पहुंच नही है,जो सौ करोड़ के बजट वाली फिल्म में लीड किरदार नही निभा सकता,उसके लिए वच्र्युअल फार्मेट वरदान ही है.  वच्र्युअल फार्मेट में शूट करके मैं दर्शकों को वही सब दे सकता हूं,जो दर्शक को सौ करोड़ की फिल्म में मिल रहा है.

किसी भी फिल्म को अनुबंधित करने के बाद अपनी तरफ से किस तरह की तैयारियां करना पसंद करते हैं?

-मुझे लगता है कि हर किसी को कलाकार बनना है. मगर वास्तव में बहुत कम लोगांे को अच्छा अभिनेता बनने का अवसर मिलता है. मैं हर दृश्य में ,चाहे वह फिल्म हो या ओटीटी हो या कोई तीस सेकंड की विज्ञापन फिल्म ही क्यांे न हो,मैं अपनी तरफ से उसमें पूरी जान डालता हूं. भट्ट साहब कहते है कि कलाकार को अपनी आत्मा सेट पर छोड़कर जाना चाहिए. वह सही कहते हैं. यदि आप किरदार में आत्मा नही छोडेंगे,तो परदे पर दर्शक को उसमें जान जीवंतता नजर ही नही आएगी. तो मेरी तरफ से यह कोशिश रहती है कि मेरे अंदर जितना भी हूनर है,वह सब उस किरदार में पिरो दूं. और मुझे अंदर से अहसास भी हो कि मैने अपनी तरफ से पूरा कामइमानदारी से किया है.

आपकी आने वाली दूसरी फिल्में कौन सी हैं?

-काफी हैं. इस वर्ष मैं बहुत काम कर रहा हूंू. एक फिल्म है ‘वर्चस्व’. जिसमें मेेरे साथ त्रिधा चैधरी व रवि किशन भी हैं. यह कोयले के खदान की नगरी की कहानी है. यह छोटे गांव के लड़के की कहानी है,जो कोयले की खदान में काम करता है,फिर वहां का स्थानीय डॉन बन जाता है. इसके अलावा एक फिल्म ‘‘गैस लाइट ’’ है. पवन कृपलानी निर्देशित इस फिल्म में सारा अली खान,चित्रांगदा सिंह व विक्रांत मैसे भी हैं.  फिल्म ‘एक कोरी प्रेम कथा’ में सोशल सटायर है. कुछ फिल्मों का ख्ुालासा अभी नही कर पा रहा हूं.

आपके शौक क्या हैं?

-बास्केट बाल देखता हूं. पढ़ता हूं. अपने बेटे के साथ वक्त बिताता हूं. मैं ऑटो बायोग्राफी व नॉन फिक्शन सहित सब कुछ पढ़ना पसंद करता हूं. मुझे लगता है कि हम जो कुछ पढ़ते हैं या देखते हैं,वह सब हमारे सब कॉशियस माइंड में अंकित रहता है और वह अनजाने ही किसी किरदार को निभाते समय मदद कर जाता है. किताबें पढ़ने से इंसान के तौर पर ग्रोथ होती है.

कोई ऐसी किताब पढ़ी हो,जिसे पढ़ते समय आपके मन में आया हो कि इस पर काम हो तो उससे आप जुड़ना चाहेंगें?

-अम्ब्रे ऐसी की एक किताब है . उनकी ऑटाबायोग्राफी है,जिसे मैने पढ़ा है और उनसे मैं बहुत प्रभावित हुआ हूं. मैं उनकी तरह सुंदर तो नहीं हूं. पर उस तरह का किरदार करने का अवसर मुझे मिल जाए,तो मजा आ जाएगा.

REVIEW: जानें कैसी है फिल्म ‘जुदा होके भी’

रेटिंगः ढाई स्टार

निर्माताः के सेरा सेरा, विक्रम भ्ज्ञट्ट प्रोडक्शन

लेखकः महेश भट्ट

निर्देशकः विक्रम भट्ट

कलाकारः अक्षय ओबेराय, एंद्रिता रे, मेहेरझान मझदा, जिया मुस्तफा,  रूशद राणा‘

अवधिः दो घंटे दो मिनट

गुलाम , राज सहित कई सफलतम फिल्मों के निर्देशक विक्रम भट्ट को सिनेमा जगत में नित नए सफल प्रयोग करने के लिए जाना जाता है. रामसे बंधुओं के बाद हॉरर फिल्मों को एक नई पहचान देने में विक्रम भट्ट का बढ़ा योगदान है. अब विक्रम भट्ट फिल्मों की शूटिंग की एक नई तकनीक ‘‘वच्र्युअल फार्मेट’’ लेकर आए हैं. इसी तकनीक वह पहली हॉरर के साथ प्रेम कहानी युक्त फिल्म ‘‘जुदा होके भी’’ लेकर आए हैं, जिसमें उन्होने वशीकरण का तड़का भी डाला है. वशीकरण एक ऐसी तांत्रिक क्रिया है, जिससे किसी भी इंसान व उसकी सोच को अपने वश में किया जा सकता है. मगर यह फिल्म कहीं से भी डराती नही है. विक्रम भट्ट का दावा है कि ‘वच्र्युअल तकनीक ही सिनेमा का भविष्य है. मगर फिल्म ‘जुदा हो के भी ’’ देखकर ऐसा नही लगता. विक्रम भट्ट के निर्देशन में बनी यह सबसे कमजोर फिल्म कही जाएगी.

कहानीः

कम उम्र में अपने बेटे राहुल की मृत्यु के बाद सफल गायक व संगीतकार अमन खन्ना (अक्षय ओबेरॉय) इस कदर टूट जाते हैं,  कि वह खुद को दिन रात शराब के नशे में डुबा कर अपना जीवन व कैरियर तहस नहस कर देते हैं. इस त्रासदी के परिणामस्वरूप मीरा (ऐंद्रिता रे) से उसकी शादी को भी नुकसान हुआ है. पिछले चार वर्षों से मीरा ही किताबें लिखकर या दूसरों की लिखी किताबांे का संपादन कर घर का खर्च चला रही है. पति अमन से मीरा की आए दिन तूतू में मैं होती रहती है. इसी बीच उत्तराखंड में बिनसार से सिद्धार्थ जयवर्धन (मेहरजान मज्दा) अपनी जीवनी लिखने के लिए मीरा को उत्तराखंड आने का निमंत्रण देते हैं. इसके एवज में वह मीरा को बीस लाख रूपए देने की बात कहते हैं. अमन नही चाहता कि मीरा उससे दूर जाए. मगर घर के आर्थिक हालात व पति के काम करने की बजाय दिन रात शराब मंे डूबे रहने के चलते मीरा कठोर मन से उत्तराखंड चली जाती है. उत्तराखंड के अति सुनसान इलाके बिनसार में पहुॅचने के बाद मीरा अपने आपको सिद्धार्थ जयवर्धन के मकड़जाल मे फंसी हुई पाती है. उधर उत्तराखंड में टैक्सी चलाने वाली रूही के अंधे पिता(रुशाद राणा),  अमन को सचेत करते है कि वह मीरा को बचा ले. अमन उत्तराखंड पहुॅचकर मीरा को अपने साथ ले जाना चाहता है. पर क्या होता है, इसके लिए फिल्म देखनी पड़ेगी.

लेखन व निर्देशनः

पिछले कुछ वर्षों से विक्रम भट्ट हॉरर फिल्में बनाते रहे हैं, जिनमें हॉरर में प्रेम कहानी हुआ करती थी. मगर इस बार उन्होने प्रेम कहानी में हॉरर को पिरोया है. इस फिल्म का निर्माण व निर्देशन विक्रम भट्ट ने महेश भट्ट के कहने पर किया है. ज्ञातब्य है कि बीस वर्ष पहले विक्रम भट्ट निर्देशित सफलतम सुपर नेच्युरल हॉरर फिल्म ‘‘राज’’ का लेखन महेश भट्ट ने किया था और अब ‘‘जुदा होके भी ’’ का लेखन महेश भट्ट ने किया है. मगर अफसोस  ‘जुदा होके भी ’’की कहानी व पटकथा काफी कमजोर ही नही बल्कि त्रुतिपूर्ण नजर आती है. फिल्म में टैक्सी चलाने वाली रूही व उसके अंधे पिता के किरदार ठीक से चित्रित ही नही किए गए. रूही के पिता अंधे होने के ेबावजूद सब कुछ कैसे देखे लेते हैं. उनके पास कौन सी शक्तियां हंै कि वह मंुबई में अमन के घर ही नहीं ट्ेन में भी अमन के पास पहुॅच जाते हैं? सब कुछ अस्पष्ट और अजीबो गरीब नजर आता है.  यह लेखक की कमजोर कड़ी है.

इस बार महेश भट्ट अपने लेखन से  प्रेम को वासना से अलग नही दिखा पाए. इसके अलावा फिल्म में जिन अलौकिक गतिविधियांे की बात की गयी है,  वह रोमांचक और डरावनी भी नहीं हैं. अजीबोगरीब फुसफुसाहट हर जगह गूंजती रहती है. मीरा कुछ भयानक चीजें जरुर देखती है,  लेकिन इससे दर्शक पर कोई असर नही पड़ता. कहानी में कोई ट्विस्ट भी नही है. कहानी एकदम सपाट धीरे धीरे चलती रहती है. यहां तक कि क्लायमेक्स में एक भयानक प्राणी के संग नायक अमन की लड़ाई भी प्रभाव पैदा करने मे विफल रहती है. दर्शक इस तरह के भयंकर प्राणी को इससे पहले विक्रम भट्ट की ही थ्री डी फिल्म ‘क्रिएचर’ मंे देख चुके हैं.

संवाद जरुर काफी भरी भरकम हैं. फिल्म वर्तमान में जीने की बात कहते हुए कहती है-‘‘जिंदगी बहुत सुंदर है, क्योंकि वह खत्म होती है. और हमें उन लोगों को छोड़ देना चाहिए, जो गुजर चुके हैं और वर्तमान पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए. ’’

जहां तक निर्देशन का सवाल है तो जब पटकथा कमजोर हो , कुछ किरदार अस्पष्ट हों, तो निर्देशन कमजोर हो ही जाता है. इसके अलावा इस बार विक्रम भट्ट ने अपनी इस फिल्म को नई वच्र्युअल तकनीक पर फिल्माया है, जो कि जमी नही. इस तकनीक से फिल्म का बजट भी नही उभरता और बहुत कुछ बनावटी लगता है. इस हिसाब से ‘वच्र्युअल फार्मेट’ की तकनीक के भविष्य पर सवाल उठते हैं?उत्तराखंड की कड़ाके की ठंड में मीरा हमेशा शिफॉन  या नेट की ही साड़ी में नजर आती है, यह भी बड़ा अजीब सा लगता है.

अभिनयः

जहां तक अभिनय का सवाल है तो अमन के किरदार में अक्षय ओबेराय ने बेहतरीन परफार्मेंस दी है. वह एक गम में डूबे इंसान की ज्वलंत भावनाओं और बेबसी को भी बहुत बेहतरीन तरीके से परदे पर उकेरा है. मीरा के किरदार में एंद्रिता रे काफी हद तक फिल्म को आगे ले जाती हैं. उनका अभिनय कई दृश्यों में काफी शानदार बन पड़ा है. सिद्धार्थ जयवर्धन के किरदार मेे महेरझान मझदा ने मेहनत काफी की है, मगर इस चरित्र को ठीक से लिखा नही गया. परिणामतः एक खूबसूरत चेहरे वाला विलेन उभरकर नही आ पाता. अंधे व्यक्ति के किरदार में रूशद राधा ने ठीक ठाक काम किया है, जबकि इस चरित्र को भी लेखक ठीक से उभार नही पाए. रूही के किरदार में जिया मुस्तफा के हिस्से करने को कुछ खास रहा ही नही.

विवादों के बारे में क्या कहते है Ram Gopal Varma, पढ़ें इंटरव्यू

निर्देशक राम गोपाल वर्मा हमेशा लीक से हटकर फिल्में बनाते है, उनकी फिल्मों में वायलेंस, रोमांस,एक्शन का भरपूर समावेश होता है. वे इसे आसपास की घटनाओं से प्रेरित फिल्में बनाते है. फिल्मों के निर्देशन के अलावा राम गोपाल स्क्रीन राइटर और प्रोड्यूसर भी है.हिंदी फिल्म शिवा, सत्या, रंगीला,भूत आदि उनकी चर्चित फिल्में है. हिंदी फिल्मों के अलावा उन्होंने तेलगू सिनेमा और टीवी में भी नाम कमाया है. सिविल इंजिनीयरिंग की पढ़ाई कर चुके राम गोपाल वर्मा को कभी लगा नहीं था कि वे एक दिन इतने बड़े निर्देशक बन जायेंगे. अच्छी फिल्में बनाने की वजह से उन्हें कई फिल्मों में पुरस्कार भी मिला है.

घबराते नहीं

राम गोपाल वर्मा हमेशा विवादों में रहते है, पर ऐसे कंट्रोवर्सी से वे घबराते नहीं और जो भी बात उन्हें सही नहीं लगती, वे तुरंत कह देते है. उन्हें कई बारट्वीट की वजह से लोगों के गुस्से का सामना करना पड़ा, लेकिन वे पीछे नहीं हटे. वे कानून को सर्वोपरि मानते है, डेमोक्रेसी में कानून जिस चीज को करने की इजाजत देती है, उसे करना पसंद करते है, बाकी को वे पर्सनल सोच बताते है. किसी प्रकार की फाइट भी कानून के साथ करे, आपस में नहीं, क्योंकि इससे आपसी मतभेद बढती है.

राम गोपाल ने अपना करियर वीडियो लाइब्रेरी से शुरू किया है, क्योंकि ये उनका सपना था और इसे उन्होंने हैदराबाद में खोला था. बाद में उन्होंने वीडियो कैफे भी खोला और वही से उन्हें दक्षिण की फिल्मों में काम करने का अवसर मिला. धीरे-धीरे वे प्रसिद्ध होते गए. अभी वे नामचीन निर्देशकों की श्रेणी में माने जाते है. फिल्म ‘सत्या’उनके जीवन की टर्निंग पॉइंट थी. राम गोपाल वर्मा का रिश्ता पहले उर्मिला मातोंडकर, अंतरा माली, निशा कोठारी, जिया खान आदि के साथ जुड़ने की वजह से भी वे सुर्खियों में रहते है.अभी उनकी फिल्म ‘लड़की- enter the girl dragon’ रिलीज हो चुकी है, अब उन्हें दर्शकों की प्रतिक्रिया देखने की बारी है.

हुए प्रसिद्ध

प्रसिद्ध निर्देशक की कल्पना उन्होंने की थी या नहीं पूछे जाने पर वे कहते है कि हमेशा से मुझे एक फिल्म बनाने की बहुत इच्छा थी,जिसे मैं देखना चाहता हूँ, उससे अधिक मैंने कुछ भी नहीं सोचा था. आज की फिल्मों में माड़-धाड़, गली गलौज बहुत अधिक होती है, इस बारें में राम गोपाल वर्मा कहते है किफिल्म इंडस्ट्री एक बुक शॉप की तरह है, जहाँ कोई फॅमिली ड्रामा, कोई एक्शन तो कोई रोमांस की किताबें ले जाना पसंद करते है, इसलिए जिसे जो पसंद हो वे उसे देख सकते है. फिल्में जल्दी बनने की वजह तकनीक का अधिकतम विकास होना है. आज फिल्मों में VFX भी बहुत होता है. तकनीक की वजह से फिल्में भी जल्दी बनती  है.

मार्शल आर्ट सीखना है जरुरी

राम गोपाल कहते है कि मैंने WWCकार्यक्रम में महिलाओं की एक शो को देखा था, जिसमे लड़कियों की body को मसल्स के साथ स्ट्रोंग भी दिखाया जाता है, मुझेबहुत अच्छा लगा था.इस शो से प्रेरित होकर कई लड़कियों ने मार्शल आर्ट की ट्रेनिंग लेने मार्शल आर्ट स्कूल में जाने लगी थी. ब्रूस ली की भी हाइट बहुत कम है, लेकिन उसकी मार्शल आर्ट इतनी अच्छी है कि बड़े-बड़े लोग भी उससे डर जाते है. इसके अलावा हर लड़की के बारें में हमारे समाज और परिवार में ये अवधारणा है कि वह कमजोर है, इसलिए लड़के उनके साथ छेड-छाड़, रेप, गन्दी आचरण आदि कुछ भी करने या कहने से डरते नहीं और बेचारी लड़की चुप रहती है. उसे कहीं जाने या अपने मन की पोशाक पहनने की आज़ादी नहीं होती,सभी उनपर आरोप लगाते रहते है, लेकिन परिवार और समाज उनके लिए कुछ नहीं करती, उन्हें सेल्फ प्रोटेक्शन की ट्रेनिंग नहीं दी जाती, लड़की है कहकर उसके लिए पाबंदियां लगा देते है,उसकी रहन-सहन, पोशाक आदि पर भी आरोप लगते है. इसलिए मैंने सोचा अगर किसी लड़की में साहस और मार्शल आर्ट को मिलाकर डाल दिया जाता है तो वास्तव में वह लड़की स्ट्रोंग होगी. मेरी फिल्म की चरित्र पूजा भालेकर भी ऐसी ही लेडी है, जिसका कोई कुछ बिगड़ नहीं सकता. आज हर लड़की को फिट रहने के साथ-साथ मार्शल आर्ट भी सिखने की जरुरत है.

मनोरंजन है जरुरी

राम गोपाल कहते है कि ऐसी फिल्मों को मनोरंजन के साथ बनाना मुश्किल होता है. फिल्म चाहे थिएटर हो या ओटीटी बजट मुख्य होता है. उसके अनुसार ही मैंने फिल्मे बनाई है, कई बड़े-बड़े प्रोडक्शन हाउसेस बड़ी बजट की फिल्में बनाते है और ओटीटी पर ही रिलीज करते है और उनकी मार्केटिंग भी महँगी होती है, ऐसे में आपने कितनी बजट की फिल्म बनाई और फिल्म ने कितनी कमाई की, इसे देखने की जरुरत है. मैं बहुत साल से इस कांसेप्ट पर काम कर रहा हूँ.

नेचुरल एक्टिंग है मुश्किल

मार्शल आर्ट की रियल एक्सपर्ट पूजा भालेकर को राम गोपाल ने इस फिल्म में लिया और उनकी ये डेब्यू फिल्म है, कितना मुश्किल था उनके साथ काम करना पूछने पर उनका कहना है कि एक्टिंग दो तरह के होते है, एक वे जो एन एस डी से ट्रेनिंग लेकर आते है और एक वे जो नेचुरल एक्टिंग करते है. हर व्यक्ति के पास मिनिमम एक्टिंग का टैलेंट होता है, क्योंकि किसी भी परिस्थिति में हम जब किसी से बात करते है, तो एक्टिंग ही बाहर आती है. कैमरे के सामने आने पर कलाकार सचेत हो जाते है. मैं कैसी दिख रही हूँ, संवाद कैसे बोल रही हूँ आदि को लेकर मन में द्वन्द चलता रहता है.मन के भाव कोचेहरे पर दिखाना भी एक कला है. पूजा ने वर्कशॉप में ही सिद्ध कर दिया था कि वह एक अच्छी एक्ट्रेस है. आँखों में मार्शल आर्ट के साथ संवाद को सही तरह से बोलने की कोशिश की है, मैंने उन्हें समझाया है कि इमोशन को एक्शन के साथ चेहरे पर लाना है, जिसे उन्होंने बहुत अच्छी तरह से किया. मुझे अधिक ट्रेनिंग नहीं देनी पड़ी.

राम गोपाल वर्मा आगे कहते है कि महिला सशक्तिकरण के ऊपर हमेशा फिल्में बनती है और इसमें एक लड़की पुरुष की तरह काम की है. हमारे देश में लड़कियों को समान अधिकार है, लेकिन लड़की को दबा कर रखने के लिए हमेशा पुरुष उसे कुछ करने से मना किया जाता है. जबकि लड़की भी अपने शरीर के हिसाब से सब कुछ कर सकती है. इसमें पहले मैं परिवार की जिम्मेदारी समझता हूँ.

फिल्मों में अंधविश्वास को लेकर क्या कहते हैं निर्देशक विक्रम भट्ट

‘जनम’, ‘मदहोश’, ‘गुलाम’, ‘राज’, ‘आवारा पागल दीवाना’,  ‘फुटपाथ’, ‘एतबार’, ‘जुर्म’, ‘हंटेड थ्री डी’ व ‘1921’सहित लगभग 36 फिल्मों का निर्देशन कर चुके विक्रम भट्ट सिनेमा जगत में अक्सर नए नए प्रयोग करते रहे हैं. अब वह एक नया प्रयोग करते हुए वच्र्युअल प्रोडक्शन तकनीक की पहली फिल्म ‘‘ जुदा हो के भी’’ लेकर आए हैं. अक्षय ओबेराय, एंद्रिता रे व मेहेरझान मझदा के अभिनय से सजी फिल्म 15 जुलाई को सिनेमाघरों में पहॅुच रही है. .

प्रस्तुत है विक्रम भट्ट से एक्सक्लूसिब बातचीत के अंश. .

अपने अब तक के कैरियर में आपने सिनेमा में कई प्रयोग किए हैं. अब आप भारत की पहली वच्र्युअल फिल्म ‘‘जुदा हो के भी ’’लेकर आ रहे हैं. इस वच्र्युअल फार्मेट का ख्याल कैसे आया?

-वच्र्युअल फार्मेट कोविड काल के लॉक डाउन की देन है. जब लॉक डाउन हुआ, तो सब कुछ बंद हो गया. फिल्मों की शूटिंग भी एकदम बंद हो गयी. जैसे ही लॉक डाउन में थोड़ी सी ढील मिली, तब भी काफी मुश्किलें थीं. क्यांेकि कई तरह की बंदिशे थीं. आप डांसर का उपयोग नही कर सकते. रात में शूटिंग नही कर सकते. . वगैरह वगैरह. . . तो यह चिंता की बात थी. सब कुछ थोड़ा सा सामान्य हुआ कि तभी कोविड की दूसरी लहर आ गयी. सब कुछ अनिश्चितता की स्थिति थी. कोई कह रहा था कि कोविड के हालात अगले तीन वर्ष तक रहेंगंे. . कोई छह साल तक रहने का दावा कर रहा था. कोई कह रहा था कि यह तो कई वर्षों तक चलेगा. तो मैं और मेरे बॉस यानी कि महेश भट्ट साहब सोचने पर मजबूर हो गए कि यदि यही हालात रहेंगे, तो हम फिल्में कैसे बनाएंगे. तभी हमें वच्र्युअल फार्मेट के बारे में पता चला. इसमें हम अपनी मर्जी से अपनी दुनिया बना सकते हैं.  इसकी दुनिया भी हमारी रोजमर्रा की दुनिया जैसी ही लगती है. लेकिन उस दुनिया में आप अपने किरदारों@ कलाकारों को रखकर फिल्म बना सकते हैं. तो मुझे यह बहुत रोचक लगा. लेकिन इसके लिए मुझे काफी सीखना पड़ा. पहले मैने बेसिक कोर्स किया. फिर मैने लाइटिंग का कोर्स किया. फिर आर्किटेक्चर का कोर्स किया. फिर हमने इस फार्मेट को थोड़ा थोड़ा वेब सीरीज में उपयोग करके देखा कि हम इस तकनीक पर फिल्म बना सकते हैं अथवा नहीं. . . . वेब सीरीज में हमें मन माफिक परिणाम मिले. तब हमने सोचा कि अब हम पूरी फिल्म को ही ‘वच्र्युअल फार्मेट’ पर बनाएंगे. उसी का परिणाम है मेरी नई फिल्म ‘‘जुदा हो के भी’’.

आपको पता होगा कि रिषि कपूर के अभिनय वाली फिल्म ‘कर्ज’ का एक गाना भी कुछ इसी तरह से फिल्माया गया था, जिसमें लोकेशन को ट्ाली के माध्यम से खींचा गया था.

-जी हॉ! आप फिल्म ‘कर्ज’ के गाने‘एक हसीना थी’ की बात कर रहे हैं. आप इसे एक उदाहरण तो कह सकते हैं. यह तो एक बैक प्रोजेक्शन है. हम वच्र्युअल फार्मेट में कुछ ऐसा ही करते हैं. लेकिन उसमें अलग अलग चीजे होती हैं. फिल्म ‘कर्ज’ में जो था, रिषि कपूर साहब स्क्रीन पर आ गए थे. मगर यदि आपको लांग शॉट लेना है, एकदम अंदर ले जाना हो तब तो आपको उनको परदे के अंदर डालना होगा. तो यह बहुत सारी चीजे हैं जो कि होती हैं. इसके लिए सीखना आवश्यक होता है. और मैं हूं ही ऐसा जो हमेशा कुछ नया सीखना चाहता है. मुझे हमेशा कुछ नया सीखने, नए नए प्रयोग करने मे मजा आता है. मैने ‘हंटेड’ नामक थ्री डी फिल्म भी बनायी. अब वच्र्युअल फार्मेट पर ‘जुदा होके भी’ बनायी. मैं तो यह कहॅंूगा कि हम लोग यह कर पाए. यह फिल्म जिस तरह से चाहते थे, उस तरह से बना पाए, उसी में हमारी बहुत बड़ी जीत है.

फिल्म ‘‘जुदा हो के भी’’ की कहानी या कॉसेप्ट का बीज कहां से मिला?

-मेरे दिमाग में इस फिल्म के बीज के आने की भी कहानी है. कुछ वर्ष पहले मेरी एक दोस्त थी, जो कि एक रिश्ते से गुजर रही थी. एक लड़का उसे परेशान कर रहा था. मेरी दोस्त को शक हुआ कि शायद यह लड़का उस पर काला जादू कर रहा है. और उसका इस्तेमाल कर रहा है. तो हम लोग एक बाबा के पास गए. बाबा ने हमें समझाया कि एक विद्या है ‘वशीकरण’. वशीकरण एक ऐसी विद्या या विधि कह लीजिए, जिसके जरिए आप किसी को भी वश में कर सकते हैं. इस विद्या के बल पर किसी की सोच को भी वश में किया जा सकता है. मेरे लिए यह मानना बहुत मुश्किल हुआ. मगर बाबा ने कहा कि ऐसा होता है. उनसे लंबी बातचीत चली. बातचीत के दौरान मैने उनसे सवाल किया कि वशीकरण को लेकर आपके पास किस तरह के केस आते हैं. उसने जो कुछ बताया उससे मेरे दिमाग की बत्ती जल गयी. उसने कहा कि नब्बे प्रतिशत केस लड़कियों, लड़कों व सेक्स के बारे में आते हैं. लोग उनके पास किसी लड़की या लड़के को वश में कराने या किसी महिला के पति  को वश में कराने के लिए जाते थे. या किसी पुरूष की पत्नी को वश में कराने. लोग किसी न किसी के साथ सोने@हमबिस्तर होने के लिए ही वशीकरण करवा रहे थे. बाबा ने बताया कि पैसे या धन दौलत के संबंध में लोग कम आते हैं, सबसे ज्यादा रूचि लोगों को इसी तरह की चीजों में रहती है.  लोग अपनी नौकरी लग जाए, इसके लिए भी उनके ेपास कम जाते थे. लोगों के दिमाग में यही सब ज्यादा था. उसी वक्त मैने सोचा कि यह तो फिल्म की रोचक कहानी है. अगर आपके प्यार को, आपके पति या पत्नी को या आपको किसी ने वश में कर लिया, और वह आपका कहाना छोड़कर उसका कहना मान रही है. तो ऐसे विलेन से आप अपने प्यार को बचाएंगे कैसे? यह अहम सवाल पैदा हुआ. मैने यही बात भट्ट साहब से कही. उन्होने मुढसे कहा कि अब सब कुछ मुझ पर छोड़ दो. कुछ दिनों बाद वह मेरे पास ‘जुदा होके भी’ की कहानी लेकर आए.

फिल्म ‘‘जुदा होके भी’’ में आपने ज्यादातर नए कलाकारों को ही चुना. कोई खास वजह?

-वास्तव में देखे तो फिल्म में अमन का किरदार निभा रहे अभिनेता अक्षय ओबेराय नए तो नही है. उन्हे फिल्म इंडस्ट्ी में काम करते हुए दस वर्ष हो चुके हैं. वह काफी फिल्में कर चुके हैं. एंद्रिता रे दक्षिण में काफी फिल्में कर चुकी हैं. वह कन्नड़ सुपर स्टार दिगंत की पत्नी है. मेहेरजान जरुर नए हैं. उन्होने बहुत ज्यादा काम नही किया है. लेकिन जब कहानी लिखी जाती है, तो एक चेहरा आपकी आॅंखांे के सामने नजर आने लगता है कि यह चेहरा मेरी कहानी के इस किरदार पर फिट बैठता है. इसे ही सही कास्टिंग कहा जाता है. अक्षय ओबेराय के साथ मैने एक वेब सीरीज ‘ईलीगल’ की थी. उसका काम देखकर मैंने उसके साथ दोबारा काम करने की बात कही थी. इसी तरह मेहेरजान के साथ भी मैने काम किया है. लेकिन एंद्रिता के साथ मैने काम नहीं किया था. पर मेरी बेटी कृष्णा ने एंद्रिता के साथ सीरियल ‘सनक’ में काम किया था. और मुझे उसका काम बहुत पसंद आया था. इसी तरह कड़ी से कड़ी जुड़ती गयी.

सुपर नेच्युरल पावर या आपने जैसे यह फिल्म ‘वशीकरण’ पर बनायी है तो लोग आरोप लगाते हैं कि आप अंधविश्वास फैला रहे हैं. इस पर क्या कहना चाहेंगें?

-बात विश्वास या अंधविश्वास की नही है. बात एकदम सरल है. यदि आप दिन में यकीन करते हैं, तो आप यह नही कह सकते कि रात नही होती. इसी तरह यदि आप ईश्वर में यकीन करते हैं तो आपको शैतान में ंभी विश्वास करना पड़ेगा. क्योंकि वही तो काउंटर प्वाइंट है. यदि आप कहते हंै कि मैं बहुत बड़ा कृष्ण भक्त हूॅं, तो कंस की मौजूदगी या दुर्याधन की मौजूदगी से कैसे इंकार कर सकते हैं. यदि कंस नही है तो फिर कृष्ण कैसे?तो इसमें अंधविश्वास क्या?यह दोनो ही बातें विश्वास की हैं. क्यांेकि मैं जानता हॅंू कि मेरा भगवान अंधेरे को मिटाएगा. वह काली शक्तियों कोमुझसे दूर रखेगा. यही तो मेरे भगवान हैं. उसी की शरण में मैं हॅूं. तो मेेरे हिसाब से यह अंधविश्वास नही है.

इसके अलावा कौन सी फिल्में कर रहे हैं?

-मैं एक फिल्म ‘खिलौने’ का निर्देशन कर रहा हॅूं. एक फिल्म ‘इंपॉसिबल है, शायद इसका नाम बदल जाए. . कई अन्य फिल्मों की भी योजना है. अपने लिए और दूसरों के लिए  वच्र्युअल प्रोडक्शन भी करना है.

सुष्मिता सेन को डेट कर रहे हैं ललित मोदी, रोमांटिक फोटोज की शेयर

बीते दिनों रोहमन शॉल संग अपने ब्रेकअप के चलते सुर्खियां बटोरने वाली एक्ट्रेस सुष्मिता सेन की डेटिंग और शादी की खबरें सोशलमीडिया पर छा गई हैं. दरअसल, हाल ही में बिजनेसमैन और क्रिकेट एडमिनिस्ट्रेटर ललित मोदी ने एक्ट्रेस संग डेटिंग की खबर पर मोहर लगाई है. वहीं एक्ट्रेस के साथ रोमांटिक फोटोज भी शेयर की हैं. आइए आपको बताते हैं पूरी खबर…

शेयर की डेटिंग की खबर

 

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बॉलीवुड एक्ट्रेस सुष्मिता सेन के साथ ललित मोदी ने सोशल मीडिया के एक पोस्ट के जरिए फैन्स को बताया है कि वह इन दिनों परिवार के साथ #मालदीव्स #सार्डिनिया घूम रहे हैं. वहीं सुष्मिता सेन को बैटर हाफ बताते हुए कहा कि वह इस जर्नी में उनके साथ हैं. हालांकि बाद में इसे बदल कर बैटर साथी लिखकर फैंस को बताया कि वह सुष्मिता सेन को डेट कर रहे हैं. हालांकि फैंस उनके इस नए सफर पर एक्ट्रेस को बधाई दे रहे हैं.

थ्रोबैक फोटोज की शेयर

 

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अपने रिश्ते का ऐलान करते हुए ललित मोदी ने सुष्मिता सेन के साथ कुछ थ्रोबैक फोटोज शेयर की, जिसमें वह सालों पुराने अपने रिश्ते को नया नाम देते दिख रहे हैं. वहीं इन फोटोज में कुछ रोमांटिक फोटोज भी शामिल हैं. इसके अलावा ललित मोदी ने अपनी प्रोफाइल फोटो में भी सुष्मिता सेन और अपनी फोटो लगाकर फैंस का दिल जीत लिया है.

बता दें कि 56 साल के आईपीएल के पहले चेयरमैन रह चुके ललित मोदी लगभग तीन साल तक आईपीएल कमिश्नर और चैंपियंस लीग टी20 के चेयरमैन पद पर रहे. इसके अलावा ललित मोदी करीब पांच साल तक BCCI के उपाध्यक्ष रहे. वहीं 46 साल की सुष्मिता सेन की लाइफ की बात करें तो उन्होंने मॉडल और एक्टर रोहमन शॉल को करीब तीन साल तक डेट किया था, जिसके बाद बीते दिनों एक्ट्रेस ने एक पोस्ट के जरिए अपने ब्रेकअप का ऐलान किया था. हालांकि ब्रेकअप के बाद भी दोनों काफी अच्छे दोस्त हैं.

अमिताभ बच्चन से लेकर शिल्पा शेट्टी तक, इतने अन्धविश्वासी हैं ये सेलेब्स

सफलता और स्वास्थ्य लाभ के लिए आम इंसान की तरह सेलेब्स भी अन्धविश्वासी होते है. अधिकतर कलाकार बॉक्सऑफिस पर सफलता पाने के लिए फिल्मों के रिलीज से पहलेकिसी टोटके या पूजा-अर्चना का सहारा लेते है और इस गुड लक के लिए उन्हें जो भी करने पड़े, वे करते रहते है.इसके अलावा फिल्मों में किसी खास रंग या सीन को भी जानबूझकर डाला जाता है. इन सबमें एकता कपूर सबसे आगे है,उसके बाद अमिताभ बच्चन, सलमान खान, शाहरुख़ खान, आमिर खान, दीपिका पादुकोण जैसे कई सितारें है, जो अन्धविश्वासी होने के साथ-साथ इसे फोलो करने मेंबहुत अधिक रिजिड है. हालाँकि इसका दर्शकों पर कोई असर नहीं पड़ता, उनके लिए सही कहानी, निर्देशन और एक्टिंग ही खास होती है,जिसके बलबूते पर फिल्म बॉक्स ऑफिस पर हिट साबित होती है.

असल में जब व्यक्ति अपने जीवन में सफलता, स्वास्थ्यऔर रिश्ते की मजबूती को अपने बलबूते पर हल खोजमें असमर्थ होते है, तो तर्क छोड़कर अन्धविश्वास का सहारा लेते है, जिसमे कई बार जान-माल की क्षति भी होने पर व्यक्ति उसमे अपनी ही कुछ गलती निकालकर खुद को संतुष्ट कर लेते है. हिंदी फिल्म इंडस्ट्री के ऐसे कई सितारें है, जो तर्क को साइड में रख अंधविश्वासी है.इसमें कुछ सेलेब्स अपनी किस्मत को चमकानेके लिए गहनों के तौर पर लकी चार्म पहनते है, तो कुछ ऐसे है, जिनके पास कुछ अजीबोगरीब अन्धविश्वास है. आइये जानते है सेलेब्स के अन्धविशवासी होने की वजह क्या है?क्या आज भी वे इसे मानते है?

अमिताभ बच्चन –

अपने अंधविश्वास को लेकर मेगास्टार अमिताभ बच्चन ने खुद एक इंटरव्यू में बताया कि वह क्रिकेट खेल के प्रेमी है लेकिन वह कभी लाइव मैच नहीं देखते है, क्योंकि उनको लगता है कि वह मैच देखेंगे, तो विकेट गिरेंगे और भारत हार जाएगा. वहीं वह एक नीलम की अंगूठी भी पहनते है, जिसको लेकर वह मानते है कि इस अंगूठी को पहनने के बाद ही उनके जीवन से बुरा वक्त खत्म हुआ था और उनकी किस्मत चमकी थी.

सलमान खान 

अभिनेता सलमान खान अपना लकी चार्म सेफायर ब्रेसलेट को मानते है, इसे उनके पिता ने गिफ्ट के रूप में दिया है. एक बार एक पार्टी में सलमान की ब्रेसलेट खो गयी, तब इसे अस्मित पटेल ने खोज कर उसे दिया. सलमान ने ऐसी एक ब्रेसलेट गोविंदा को उनके कैरियर को ठीक करने के लिए गिफ्ट के रूप में दिया है. हालाँकि गोविंदा पहले से ही ब्लू ब्रेसलेट पहनते है, पर उन्हें सलमान का दिया हुआ ब्रेसलेट भी बहुत पसंद है. सूत्रों की माने तो सलमान ने रमजान के दौरान फिल्म ‘किक’ के लिए इस गुड लॉक को पहना था और उस फिल्म में भी इसे पहना हुआ ही दिखाया गया है, हालाँकि फिल्म फ्लॉप रही.

शाहरुख़ खान

बादशाह खान का लकी नंबर उनके कार की है. वे नंबर की शक्ति को मानते है, इसलिए उनके कार का स्पेशल सीरियल नंबर 555 है.उनके गाड़ी में इस नंबर प्लेट का होना अनिवार्य है. वे इस नंबर की कार के बिना कही जाना पसंद नहीं करते. फिल्म ‘’चेन्नई एक्सप्रेस’ की पोस्टर के लिए उन्होंने जिस बाइक की सवारी की थी, उसका नंबर प्लेट पर भी 555 ही था.

कैटरिना कैफ

अभिनेत्री कैटरिना कैफ अपनी सफलता का श्रेय अजमेर शरीफ को देती है. वह बहुत ही अन्धविश्वासी है. हर फिल्म की रिलीज से पहले दरगाह जाती है और वह इसे जरुरी भी मानती है. दरगाह जाते वक्त वह ट्रेडिशनल कपडे पहनती है और चेहरे को जितना हो सके ढककर जाती है. वहां कैटरिना भीड़ से बचने के लिए अपने गार्ड्स द्वारा बनाये गए सर्किल के बीच में घूमती है. फिल्मों में छोटे ड्रेस पहनने को लेकर वह कई बार कंट्रोवर्सी की शिकार हुई, लेकिन उन्हें दरगाह जाने से कोई रोक नहीं सका.

आमिरखान

परफेक्शनिस्ट आमिरखान खुद को अन्धविश्वासी नहीं कहते, लेकिन वे किसी भी फिल्म को क्रिसमस के अवसर पर रिलीज करना पसंद करते है. साल 2007 में फिल्म ‘तारे जमीन पर’ की अपार सफलता के बाद उन्होंने फिल्म गजनी, 3 इडियट्स, धूम 3 आदि को दिसम्बर के महीने में ही रिलीज किया है. इस बारें में पूछने पर उनका कहना है कि वे अपने फैन्स को क्रिसमस पर फिल्म के ज़रिये गिफ्ट देते है.

रणवीरसिंह

अभिनेता रणवीर सिंह एक सफल कलाकार है, उनकी प्रतिभा जग जाहिर है,जिसे उन्होंने मेहनत के बल पर पाया है, लेकिन वे भी अपने पैर पर एक काला धागा बांधते है. इसे वे अपना लकी चार्म मानते है. इसे उनकी माँ ने पहनाया था, क्योंकि उन दिनों रणवीर काफी स्वास्थ्य समस्याओं का सामना कर रहे थे.

 

एकता कपूर

एकता कपूर के ‘क’अक्षर के प्रति दीवानगी किसी से छिपी नहीं है. उन्होंने कैरियर की शुरुआत‘क’ से शुरू होने वाली नामों से सीरियल बनाया, क्योंकि सास भी कभी बहू थी, कहानी घर घर की, कुंडली, कोई अपना सा आदि शोज किये,जो सफल रही. इसके अलावा एकता के हाथों में कई आध्यात्मिक धागे और अंगूठियां पहने देखा जा सकता है, जिसे वह अपने लिए शुभ मानती है. उनके इस अंधविश्वास के बारें में पूछने पर एकता इसे दुष्ट शक्ति बताती है, जिसे देखा नहीं, महसूस किया जाता है और उन सबसे खुद को दूर रखने के लिए ये सब पहनती है.

ऋत्विक रोशन

बॉलीवुड एक्टर ऋतिक रोशन अपने काम को लेकर हमेशा ही बहुत कमिटमेंट रखते हैं और  हमेशा पॉजिटिव माइंडसेट से रहते हैं. ऋतिक अपने एक्स्ट्रा अंगूठे को लकी मानते हैं और वो फिल्मों से लेकर इवेंट्स तक सभी में इसे एक बार अवश्य दिखाते हैं, क्योंकि वे इसे भाग्यशाली मानते है और इसकी सर्जरी करवाना नहीं चाहते.

रणवीर कपूर

रणबीर कपूर की बात करें तो नंबर 8 को वो अपने लिए लकी मानते है. आलिया भट्ट के शादी के कलीरे से लेकर गाड़ी के नंबर प्लेट तक 8 नंबर की बहुत ज्यादा अहमियत दिया गया है, इसे रणवीर इन्फिनिटी साइन के हिसाब से भी देखते हैं.

अक्षय कुमार

खिलाडियों के खिलाडी अक्षय कुमार वैसे तो खुद को अन्धविश्वासी नहीं कहते, लेकिन जब भी अपनी फीस तय करते है, उसका जोड़ 9 होना जरुरी है. साथ ही किसी खाली शीट पर ओम लिखकर दिन की शुरुआत करते है. इसके अलावा अक्षय कुमार को लगता है कि उनके यहाँ रहने पर बॉक्स ऑफिस कलेक्शन ठीक नहीं होगी, इसलिए रिलीज से पहले वह विदेश चले जाते है.

शिल्पा शेट्टी

फिटनेस फ्रिक सफल अभिनेत्री शिल्पा शेट्टी क्रिकेट की फैन हैं और उनके पास अपनी क्रिकेट टीम भी है.वह जब भी क्रिकेट ग्राउंड पर जाती हैं, तो अपनी कलाई पर दो घड़ियां पहनती हैं. इतना ही नहीं जब दूसरी टीम बैटिंग कर रही होती है, तो वह बैठते समय अपने पैरों को क्रॉस कर लेती हैं और जब उनकी खुद की टीम होती है, तो वो अपने पैरों को खोल लेती है.

बिपाशा बासु

हॉट और टैलेंटेड एक्ट्रेस बिपाशा बसु को बुरी नजर से बचने के लिए ईवल आई का इस्तेमाल करना बहुत पसंद है.वह हर शनिवार के दिन अपनी गाड़ी में नींबू मिर्च लगाने का रिवाज  फॉलो करती हैं.

विद्या बालन

अभिनेत्री विद्या बालन की अन्धविश्वासी एक अलग तरीके की है, एक खास ब्रांड का काजल वह आँखों पर लगाती है, उसे लगाये बिना वह घर से नहीं जाती. इसे वह लकी मानती है.

REVIEW: जानें कैसी है Thor- Love and Thunder

रेटिंगः तीन स्टार

निर्माताः मार्वल स्टूडियो

लेखकः जेनिफर केटिन रॉबिन्सन और टाइका वाइटीटी

निर्देशकः टाइका वाइटीटी

कलाकारः क्रिस हेम्सवर्थ, नताली पोर्टमैन, क्रिश्चियन बेल, टेसा थॉम्प्सन और क्रिस प्रैट

अवधिः लगभग दो घंटे

भारत में कॉमिक्स कमी नही है. सभी मानते हैं कि सिनेमा और साहित्य का अति गहरा व अटूट संबंध है. कॉमिक्स के किरदार हमेशा बच्चों से बूढों तक हर किसी को भाते रहे हैं. ‘नागराज’ से लेकर ‘दिल्ली प्रेस’ की पत्रिका ‘चंपक’ में भी कई लोकप्रिय कॉमिक्स किरदार हैं, जिन पर कई लंबी सीरीज की बेहतरीन फिल्में बन सकती हैं. मगर बौलीवुड के फिल्मकारों का ध्यान इस तरफ जाता ही नही है. जबकि ‘मार्वल स्टूडियोज’ अपनी ‘मार्वल कॉमिक्स’ पर लगातार फिल्में लेकर आता जा रहा है. मार्वल स्टूडियोज ने कॉमिक्स कहानियों के बलबूते पर ही व्यापार का एक विशाल साम्राज्य खड़ा कर लिया है. अब ‘मार्वल स्टूडियोज‘ की नई फिल्म ‘‘थॉरः लव एंड थंडर’’ आयी है, जो कि मार्वल सिनेमैटिक यूनिवर्स की कहानी की 29वीं फिल्म है. वास्तव में स्टैन ली ने कॉमिक्स के तौर पर एक काल्पनिक लोक असगार्ड के देवता थोर की कहानी सोची थी, उसे ही अब लैरी लीबर और जैक किर्बी जैसे लेखक विस्तार दे रहे हैं. यूं तो 1962 में ‘जर्नी इनटू मिस्ट्री’ नामक कॉमिक बुक से थोर नामक किरदार का जन्म हुआ था, जो कि 2011 में पहली बार ‘टीम एवेंजर्स’ का हिस्सा बनकर परदे पर अवतरित हुआ और गार्जियन्स अॉफ गैलेक्सी के साथ मिलकर कुछ अलग करने का वादा करके पिछली फिल्म में विदा लेने वाला थोर अब एक अलग रंग में ‘थौरः लव एंड थंडर’ में नजर आ रहा है. फिल्म में एक्शन के साथ हास्य भी है. मगर यह फिल्म प्यार पर सवाल उठाती है कि क्या ब्रम्हांड की सबसे बड़ी ताकत प्यार है?वहीं देवताओं के अस्तित्व पर भी सवाल उठाया गया है.

फिल्म में थोर का किरदार  निभाने वाले अभिनेता क्रिस हेम्सवर्थ ने ग्यारह वर्ष पहले पहली बार इस किरदार को निभाया था. और अब तक वह आठ बार थोर का किरदार निभा चुके हैं. मगर बतौर सोलो हीरो ‘थोरः लव एंड थंडर’ उनकी चैथी फिल्म है. शुरूआत में थोर उद्दंड और मनमौजी था, लेकिन वक्त के साथ उसमंे बदलाव आता गया.

कहानीः

प्यार में बार बार दिल तुड़वाने और अपनों को खोने के बाद थोर अपना जीवन इस गैलेक्सी की रक्षा के लिए समर्पित कर देता है और ब्रह्मांड में जहां भी उसकी मदद की जरूरत पड़ती है,  वह हमेशा ‘गार्डियंस अॉफ गैलेक्सी’ के साथ निकल पड़ता है. इसी कड़ी में उसे पता चलता है कि गोर द गॉड बुचर (क्रिश्चियन बेल) ने प्यास से अपनी बेटी के मरने के बाद देवताओं का खात्मा करने के मिशन पर है और उसने बहुत से देवताओं की निर्मम हत्या कर दी है. वास्तव में भीषण सूखे व पानी के लिए तरसते लोग मौत के मुॅह में समा जाते है. पृथ्वी पर अब केवल गोर द गॉड बुचर व उसकी छोटी बेटी ही बची है और बिना पानी के वह भी मुत्यु के कगार पर है. गोर हर देवता से अपनी बेटी को जिंदा रखने के लिए पानी की गुहार लगाता है. मगर उसकी मदद करने के लिए कोई देवता सामने नही आता. अंततः गोर की बेटी काल के मुॅह में समा जाती है, तब गोर द गॉड बुचर सभी देवताओे के विनाश के मिशन पर निकल पड़ता है.  यही नहीं,  उसका अगला निशाना थोर का ऐशगार्ड है,  जहां के बच्चों को उसने किडनैप कर लिया है. अब थोर, ज्यूस (रसल क्रो) सहित बाकी देवताओं को एकजुट करके गोर को खत्म करने का निर्णय लेता है. मगर ज्यूस उसका मजाक बनाता है. पर थोर अपनी यात्रा पर निकल पड़ता है. इस यात्रा में थोर की मुलाकात एक बार फिर अपने आठ वर्ष पुराने प्यार जेन फोस्टर होती है,  जो कैंसर के चैथे स्टेज पर है,  पर थोर के हथौड़े की ताकत से खुद माइटी थोर बना चुकी है. तो वहीं वलकैरी (टेसा थॉम्पसन) और स्टोनी क्रॉल भी उसका साथ देते हैं. अब सवाल है कि क्या थोर अपने मकसद में कामयाब होता है? इसके लिए फिल्म देखनी ही पड़ेगी.

लेखन व निर्देशनः

यूं तो निर्देशक टाइका वाइटीटी ने अपने काम को बाखूबी अंजाम दिया है. लेकिन फिल्म हिचकाले लेकर ही आगे बढ़ती है. शुरूआत में जब एक भक्त गोर अपनी निजी नुकसान के बदले देवताओं से बदला लेने के तहत देवताओं के विनाश के मिशन पर निकलता है, तो शुरूआती दृश्य सिहरा देते है. मगर फिर फिल्म पटरी से उतर जाती है. फिल्म में एक्शन,  इमोशन के साथ- साथ कॉमिडी का भरपूर तड़का है. मगर इस बार थोर की एडवैंचर व रोमांच की जो पहचान है, वह इस फिल्म में गायब है. इसे लेखक व निर्देशक की कमजोरी ही कही जाएगी. तों वही थोर व जेन की प्रेम कहानी भी बहुत ही सपाट है. आठ वर्ष बाद मुलाकात होने पर दोनों के बीच जो गर्मजोशी होनी चाहिए, उसका घोर अभाव है. एक्शन दृश्य भी कमाल के ेनही बन पाए हैं. वास्तव में लेखको ने गोर के शैतानी दिमाग व उसकी शैतानी हरकतांे को ठीक से विस्तार ही नही दिया है.

अभिनयः

थोर के किरदार में क्रिस हेम्सवर्थ ने अपने अभिनय से आकर्षण कायम रखा है. मगर नताली उनसे इक्कीस साबित हुई है. जी हॉ!माइती थोर के किरदार में नताली पोर्टमैन का अभिनय काफी सशक्त हैं. उन्होंने क्रिस हेम्सवर्थ को भी मात दे दी है. यह क्रिस हेम्सवर्थ के लिए खतरे की घंटी है और उन्हे अपने अभिनय को निखारने के लिए नए सिरे से विचार करना होगा. गोर का किरदार निभाने वाले अभिनेता क्रिश्चियन बेल अपने अभिनय की छाप छोड़ने में सफल रहे हैं, जबकि उनके किरदार को ठीक से विकसित नही किया गया. गोर का किरदार निभाने वाले अभिनेता क्रिश्चियन बेल अपने अभिनय की छाप छोड़ने में सफल रहे हैं, जबकि उनके किरदार को ठीक से विकसित नही किया गया.

मुझे खुद को मां के रूप में अंदर से तैयार करना पड़ा- शिवालिका ओबेराय

अब बौलीवुड का तरीका बदल गया है. अब हर कलाकार अपनी तरफ से पूरी तैयारी करके ही बौलीवुड में कदम रखता है. तभी तो शिवालिका ओबेराय ने अभिनय की टेनिंग लेने के बाद बतौर सहायक निर्देशक काम करते हुए फिल्म माध्यम को अच्छी तरह से समझा. उसके बाद उन्होने फिल्म ‘साली ये आशिकी’ से अभिनय के क्षेत्र में कदम रखा. यह फिल्म खास नही चली. लेकिन फिल्म‘खुदा हाफिज’से शिवालिका ओबेराय को अच्छी पहचान मिली और अब वह फिल्म ‘खुदा हाफिजः चैप्टर 2’ को लेकर एक्साइटेड हैं.

हाल ही में शिवालिका ओबेराय से लंबी बातचीत हुई. प्रस्तुत है उसका अंश. . .

आपके दादा जी फिल्म निर्माता थे. क्या इसी के चलते आपने भी फिल्मों से जुड़ने का फैसला लिया?

-पहली बात तो मैंने अपने दादाजी को देखा ही नही. सच यह है कि जब मेरे पिता जी सोलह वर्ष के थे, तभी मेरे दादा जी का देहांत हो गया था. मैने सिर्फ सुना है कि मेरे दादा जी ने एक फिल्म का निर्माण किया था. मेरे माता पिता फिल्म इंडस्ट्री से नहीं जुड़े हुए हैं. मेरी मां शिक्षक है. मेरी बहन कुछ और काम करती है. हुआ यह था कि स्कूल की पढ़ाई के दौरान ही मेरी नजर एक्टिंग स्कूल पर पड़ गयी थी, जो कि मेरे स्कूल के पास में ही था. वहां से मैने मम्मी से कहना शुरू किया था कि मुझे एक्टिंग स्कूल में जाकर देखना है कि क्या सिखाया जाता है.  फिर यह इच्छा कालेज पहुॅचते पहुॅचते बढ़ गयी. उस वक्त तक मुझे नही पता था कि मेरे दादाजी ने फिल्म बनायी थी. वैसे अलबम में मैने दादा जी निर्मित फिल्म ‘शीबा और हरक्यूलिस’ की फोटो एक बार देखी जरुर थी,  जिस पर लिखा था निर्माता महावीर ओबेराय. कालेज में पहुॅचने के बाद मैने अपनी मम्मी से कहा कि जब मेरे दादा जी फिल्म इंडस्ट्री से जुड़े हुए थे? तो फिर आप मुझे क्यों रोक रही हैं? तब मेरी मम्मी ने मुझे बैठकर समझाया था कि फिल्म इंडस्ट्री बहुत ही ज्यादा इनप्रैडिक्टेबल है. इंसान का कैरियर स्थायी होना चाहिए, जो कि फिल्म इंडस्ट्री में नहीं होता. इसलिए पहले पढ़ाई पूरी करो. उसके बाद सोचना. आम बच्चों की तरह मेरे दिमाग में भी आया कि माता पिता को सब कुछ कठिन लगता है. पर मुझे कुछ करके दिखाना है. मैने अंग्रेजी और मनोविज्ञान विषय के साथ स्नातक की पढ़ाई पूरी की. उसी दौरान मैने अनुपम खेर के एक्टिंग स्कूल से तीन माह का अभिनय में डिप्लोमा कोर्स किया. फिर मैने अनुभव लेने के लिए सहायक निर्देशक बनी. तब मुझे मम्मी की बात याद आ गयी कि फिल्म इंडस्ट्री में कैरियर बनाना कितना कठिन है. मम्मी कहती थी कि ऐसे तो सुबह दस बजे से पहले सोकर नहीं उठती,  देखती हूं कि छह बजे सेट पर कैसे पहुॅचेगी? सच कहूं तो मेरी मम्मी ने मुझे बदलते हुए देखा ओर उन्हे अहसास हुआ कि यह अपने कैरियर को लेकर गंभीर है, इसलिए कर लेगी.

आपकी मम्मी शिक्षक हैं. शिक्षक बच्चों पर अपनी बात न सिर्फ थोपने का प्रयास करता है, बल्कि वैसा ही बच्चे से करवा लेता है?

-आपने एकदम सही कहा. मेरी मम्मी के अंदर भी बच्चांे को अपनी बात समझा लेने का अद्भुत गुण है. पर मैं खुद को बदलने के लिए जो मेहनत कर रही थी, उसे मेरी मम्मी देख रही थीं. बतौर सहायक निर्देशक काम करने के दौरान मैं अपने माता पिता से एक वर्ष तक दूर रही हूं. सोलह वर्ष से मैं काम कर रही हूं, पर मम्मी ने मुझसे स्नातक तक की पढ़ाई करवायी है. तो जो वह चाहती थीं, वह भी उन्होने मुझसे करवाया.

सीधे अभिनय की बजाय सहायक निर्देशक के रूप में कैरियर शुरू करने के पीछे आपकी क्या सोच थी?

-किताबी ज्ञान की बजाय सेट पर जाकर  प्रैक्टिकल ज्ञान अर्जित करना ही मकसद था. सेट पर छोटी छोटी बरतें जब अलग होती हैं,  तो उसका क्या असर होता है, वह समझ मंे आया. कैमरा रेडी नही है. इस तरह की सौ समस्याएं होती है. कैमरे के सामने कलाकार के अभिनय करने मात्र से फिल्म नही बनती. फिल्म निर्माण में सौ से अधिक लोग होेते हैं, उतनी ही चीजे होती है. एक चीज गड़बड़ हो जाए, तो उसका किस तरह से कलाकार की अभिनय क्षमता पर असर हो सकता है, वह समझना और उससे कैसे उबरा जाए यह सब भी सीखना था. बतौर सहायक निर्देशक मैने जो कुछ सीखा, उसी के चलते‘ये साली आशिकी’ और ‘खुदा हाफिज’ फिल्मों में मैं बतौर अभिनेत्री अपना सर्वश्रेष्ठ दे पायी थी.

बतौर सहायक निर्देशक काम करते हुए आपने ऐसी कौन सी बात सीखी, जो अभिनय में सबसे ज्यादा काम आ रही है?

-पैशंस. . जिंदगी में धैर्य रखना बहुत कठिन काम है, बतौर सहायक निर्देशक काम करते हुए मैने धैर्य रखना सीखा. अब मेरे अंदर उतावलापन नही है. ‘हाउसफुल 3’ में बतौर सहायक निर्देशक काम करने के बाद मेरे पास जो दो वर्ष थे, जब तक मुझे मेरी पहली फिल्म बतौर अभिनेत्री नही मिली, तब तक बहुत कठिन समय था. हर दिन आॅडीशन देना, रिजेक्शन होना, तो यह सब सहन करती रही. इसी बीच मैने खुद को व्यस्त रखने के एड भी किए. जो हम चाहते हैं, वह मिलने तक खुद का धैर्य बनाए रखना सबसे मुश्किल चीज है.

ऑडीशन में रिजेक्शन होने पर परेशान होती होंगी?

-रिजेक्शन की वजह से परेशान होना स्वाभाविक है. पर मैं हर आॅडीशन में बेहतर होती गयी. क्योंकि मेरे अंदर एक जिद रही है कि जिसकी कमी बताई जाए, उसे दूर करने के लिए जुट जाना. तो मैं हर आॅडीशन के बाद अपनी कमी को दूर करती रही. मैं हर रिजेक्शन के बाद ठान लेती थी कि मुझे अब इससे बेहतर परफार्मेंस देनी है. मुझसे कई लोगों ने कहा कि आप फिल्म इंडस्ट्री का हिस्सा नही है, इसलिए अभिनेत्री नही बन सकती. तो मैने ठान लिया था कि मैं अभिनेत्री बनकर दिखाउंगी. मैने लोगों को गलत साबित करने के लिए अपनी पूरी ताकत लगा दी.

आपकी पहली फिल्म ‘ये साली आशिकी’ को बाक्स आफिस पर सफलता नही मिली थी. जबकि यहां सब कुछ सफलता पर निर्भर करता है?

-आपने एकदम सही कहा. फिल्म में मै और वर्धन पुरी के अलावा निर्देशक नए थे. इसलिए बाक्स आफिस पर इसने ठीक ठाक बिजनेस नहीं किया था. जबकि फिल्म क्रिटिक्स ने हमारे अभिनय की तारीफ की थी. फिल्म का ठीक से प्रचार भी नही हुआ. लोगों को फिल्म के बारे में पता ही नही चला. लेकिन मेरे कैरियर की दूसरी फिल्म ‘खुदा हाफिज’के सफल होने के बाद लोगो ने ‘ये साली आशिकी’ देखी. मुझे ‘ये साली आशिकी’ के लिए फिल्मफेअर अवार्ड के लिए नोमीनेट किया गया था, पर पुरस्कार नही मिला था. तो बुरा लगा था कि मैने इतनी मेहनत की और नतीजा शून्य रहा. लेकिन मैने ठान लिया था कि मैं अपनी पहचान अपनी खूबसूरती के बल पर नही बल्कि अभिनय क्षमता क बल पर बनाउंगी. मैं चाहती हूं कि लोग मुझे उत्कृष्ट अदाकारा के रूप में पहचानें.

तो पहली फिल्म की असफलता के बाद खुद को किस तरह बदलने की बात सोची?

-मुझे लोगों ने बताया था कि मैने अपनी तरफ से अच्छा अभिनय किया है. पर इस फिल्म की असफलता के बाद मैने निर्णय लिया कि अब मैं दूसरी फिल्म अलग तरह के जॉनर की करुंगी. वैसे भी पहली फिल्म में हल्का सा ‘ग्रे’ शेड वाला किरदार निभाते हुए कैरियर शुरू करना रिस्क था, जिसे मैने उठाया. मैने दूसरी हीरोईनों की तरह रोमांटिक फिल्म से कैरियर की शुरूआत नहीं की थी. इस फिल्म न करने की सलाह मुझे कई लोगों ने दी थी. फिर भी बिना प्रचार के कुछ लोगों ने इस फिल्म को महज अलग तरह की होने के चलते देखा. मेरा मानना है कि अगर हम हर फिल्म में एक जैसा करते रहेंगंे, तो फिर दूसरी अभिनेत्रियों और मेेरी अभिनय यात्रा में कोई अंतर नहीं रह जाएगा. ‘ये साली आशिकी’ के प्रदर्शन से पहले ही मैने फिल्म ‘खुदा हाफिज’ अनुबंधित कर ली थी। ‘ये साली आशिकी’ की शूटिंग पूरी होने के बाद से मेरे पास फिल्मों के आफर आ रहे थे. मैं आॅडीशन देने के साथ ही फिल्म की पटकथाएं भी पढ़ रही थी. पर मुझे समझ मंे नही आ रही थी. जब फिल्म ‘खुदा हाफिज’ की पटकथा मुझे मिली, तो मैने पाया कि यह एक रियालिस्टिक कहानी है. इसके साथ ही इसमें प्यार व ढेर सारा इमोशंस भी है. किरदार मेरी शख्सियत से एकदम विपरीत है. मुझे अहसास हुआ कि इसमें एक कलाकार के तौर पर मेरी अभिनय क्षमता की रेंज लोगों की समझ में आएगी. तो मैने ‘खुदा हाफिज’ की और मेरा यह निर्णय सही रहा.

‘खुदा हाफिज’ और ‘खुदा हाफिज 2’’ में कितना अंतर है?

-यह कहानी भी रियालिस्टिक ही है. पहले भाग में मेरा नरगिस का किरदार इन्नोसेंट,  संकोची, शर्मीली, शहर से बाहर ज्यादा न निकलने वाली लड़की थी. सीधी सादी, नेक्स्ट डोर गर्ल थी. लेकिन उसके साथ जो हादसा होता है, उससे उसके अंदर जो बदलाव आता है, वह बदलाव अब आपको ‘खुदा हाफिज 2’ में नरगिस के अंदर नजर आएगा. उसके साथ तो कुछ बीता, वह उसी को पता है कि उसने उससे कैसे डील किया. तो आपको ‘खुदा हाफिज 2’ में नजर आएगा कि नरगिस क्या डील कर रही है. एक लड़की को एक कमरे के अंदर क्या अहसास होता है. इसमें पहले भाग की अपेक्षा इस भाग मंे इमोश्ंास का ग्राफ भी नजर आएगा. इन्नोेसेंस भी नजर आएगा. उसके अंदर की ताकत नजर आएगी. यहां पर नरगिस  एक एडॉप्टेड बच्चे की मां है. तो मां के जो इमोशंस हैं और वह भी एडौप्टेड बच्चे के साथ, उसके लिए मुझे काफी काम करना पड़ा. मैने इस फिल्म की लखनउ में एक माह तक शूटिंग के दौरान अपनी मां से बात नहीं की थी और मेरी मां ने मुझे को फोन करके बताया था कि मेरी बहन ने जुड़वा बच्चों को जन्म दिया है. उस दिन मै यात्रा कर रही थी. मतलब मैं अपने किरदार में इस कदर इंवालब थी.

आप स्वाभाविक तौर पर जब मां बनती हैं, तो उसके इमोशंस व अहसास बहुत अलग होते हैं. पर एडॉप्टेड बच्चे की मां के अहसास व इमोशंस अलग होते हैं. इन्हे लाने के लिए आपको किस तरह की तैयारी करनी पड़ी?

-आपके एकदम सही कहा. दोनों अवस्था में अहसास अलग अलग ही होते हैं. इतनी छोटी उम्र और कैरियर की शुरूआत में ही मां का किरदार न निभाने की सलाह मुझे कई लोगों ने दी थी. जब निर्देशक फारुख सर ने मुझसे ऐसा करने के लिए कहा तो मेरी आंखों में आंसू थे. देश में बहुत कम लोगो को एडॉप्शन के बारे में पता है. ऐसे लोग एडॉप्टेड बच्चे को लेकर मां के इमोशंस को भी नही समझ सकते. देखिए, एडॉप्टेशन एक सामाजिक मुद्दा है. लोगों को लगता है कि अपना बच्चा ही अपना होता है, एडॉप्टेड बच्चा अपना नही होता. जबकि यह गलत है. तो इस तरह के कई सामाजिक मुद्दे इस फिल्म में उठाए गए हैं. मुझे तो यॅूं भी बच्चे बहुत पसंद हैं. लेकिन मुझे खुद को मां के रूप में अंदर से तैयार करना पड़ा था.

आपकी फिल्म ‘खुदा हाफिज’ ओटीटी पर स्ट्रीम हुई थी. अब ‘ये साली आशिकी’ के बाद ‘‘खुदा हाफिज 2’ भी सिनेमाघरों में प्रदर्शित होगी. आपको नही लगता कि ओटीटी पर की बजाय सिनेमाघर में फिल्म के रिलीज होने पर जो रिस्पांस मिलता है, वह एक कलाकार के लिए बहुत अलग होता है?

-देखिए, कोविड के वक्त जब लोगो के पास मनोरंजन के सारे साधन बंद थे, तब ओटीटी पर ‘खुदा हाफिज’ आयी और लोगों ने इसे काफी देखा. उस वक्त लोग आॅन लाइन ही ढेर सारा कांटेंट देख रहे थे. एक कलाकार के तौर पर मैं ओटीटी और थिएटर हर जगह प्रदर्शित होने वाली फिल्म में अभिनय करना चाहती हूं. लेकिन जब हम खुद को बड़े परदे पर देखते हैं, तो बहुत ही अलग तरह के अहसास होते हैं. लेकिन जब लोग मोबाइल पर हमारी फिल्म देख रहे होते हैं, तो यह देखकर अलग तरह का अहसास होता है. कोविड के वक्त ओटीटी पर आने वाली हमारी फिल्म ‘खुदा हाफिज’ बहुत बड़ी बन गयी थी. हर कोई इसके बारे में बात कर रहा था. मैं तो खुश हूं. लेकिन ‘खुदा हाफिज 2’ पूरी तरह से सिनेमाघरों के लिए बनी है. इसमें उसी स्तर का एक्शन है. ग्रैंजर है.

REVIEW: आर माधवन का नया आयाम है ‘रॉकेट्रीः द नाम्बी इफेक्ट’

रेटिंगः साढ़े तीन स्टार

निर्माताः सरिता माधवन, आर माधवन, वर्गीस मूलन और विजय मूलन

लेखक व निर्देशकः आर माधवन

कलाकारःआर माधवन,  सिमरन,  रजित कपूर, राजीव रवींद्रनाथन,  कार्तिक कुमार,  शाहरुख खान,  गुलशन ग्रोवर व अन्य

अवधिः दो घटे 37 मिनट

एनसीसी कैडेट के रूप में अच्छी प्रतिभा दिखाने के चलते चार वर्ष तक ब्रिटिश आर्मी से ट्रेनिंग लेकर फौजी बनकर लौटे आर माधवन को चार माह उम्र ज्यादा हो जाने के कारण भारतीय सेना का हिस्सा बनने से वंचित रह जाने के बाद आर माधन ने इंजीनियरिंरग की पढऋाई की. फिर वह स्पीकिंग स्किल व पर्सनालिटी डेवलवपेंट के प्रोफेसर बने. फिर टीवी सीरियलों में उन्हे अभिनय करने का अवसर मिला. टीवी पर 1800  एपीसोडों में अभिनय करने के बाद आर माधवन को मणि रत्नम ने तमिल फिल्म में रोमांटिक हीरो बना दिया और वह तमिल फिल्मों के सुपर स्टार बन गए. फिर कई तरह के किरदार निभाए. आनंद एल राय के निर्देशन में ‘तनु वेड्स मनु’ में अभिनय कर सिनेमा को एक नई दिशा देने का भी काम किया. फिर ‘साला खडूस’ का निर्माण किया और अब बतौर लेखक, निर्देशक व अभिनेता आर माधवन फिल्म ‘‘रॉकेट्रीः द नाम्बी इफेक्ट’’ लेकर आए हैं. आर माधवन हमेशा उन फिल्मों को हिस्सा बनने का प्रयास करते आए हैं, जो कि आम जीवन का प्रतिबिंब बने. आर माधवन की नई फिल्म ‘‘रॉकेट्रीः द नांबी इफेक्ट’ बहुत ही अलग तरह की फिल्म है. बौलीवुड के फिल्मकार इस तरह की फिल्में बनाने से दूर रहना पसंद करते हैं. यह एक विज्ञान व इसरो वैज्ञानिक फिल्म होते हुए भी भावनाओ से ओतप्रोत है.  इसकी कहानी भावपूर्ण है. दर्शक फिल्म के माध्यम से त्रिवेंद्रम निवासी इसरो वैज्ञानिक नंबी नारायण के जीवन व कृतित्व से रूबरू होते हुए उनके साथ हुए अन्याय को भी महसूस करते हैं. फिल्म ‘रॉकेट्रीः द नांबी इफेक्ट’ न जुनूनी लोगों की दास्तां है, जो अपने घर व परिवार को हाशिए पर ढकेल कर काम में ही अपनी जिंदगी लगा देते हैं. मगर उनके अपने ही उनकी पीठ पर छूरा घोंप देते हैं.

इस फिल्म की गुणवत्ता का अहसास इसी बात से लगाया जा सकता है कि इस फिल्म को देखते हुए स्वयं महान वैज्ञानिक नंबी नारायण रो रहे थे.

कहानीः

फिल्म की कहानी इसरो के मशहूर वैज्ञानिक रहे नंबी नारायण की कहानी है. लिक्विड इंजन व क्रायजनिक इंजन बनाने में उनकी अहम भूमिका रही है. वह विक्रम साराभाई के शिष्य रहे. बाद मंे अब्दुल कलाम आजाद व सतीश धवन के साथ भी काम किया. नारायणन ने नासा फैलोशिप अर्जित कर 1969 में प्रिंसटन विश्वविद्यालय में प्रवेश लिया. वहां पर अपनी प्रतिभा के बल पर महज दस माह के रिकॉर्ड समय में प्रोफेसर लुइगी क्रोको के तहत रासायनिक रॉकेट प्रणोदन में अपनी थीसिस पूरी की. उसके बाद उन्हे नासा में नौकरी करने का आफर भी मिला था. मगर वह क्रायजिनक इंजन पर भारत में ही काम करने के मकसद से नासा का आफर ठुकरा कर भारत आ गए. यहां  इसरो की नौकरी करते हुए नम्बी नारायण ने विज्ञान जगत में कई अनोखे प्रयोग किए. उन्हेाने ‘विकास’ रॉकेट का इजाद किया. यह विकास इंजन ही इसरो से भेजे जाने वाले सभी उपग्रहों को अंतरिक्ष में ले जा रहा है. 1992 में भारत ने क्रायोजेनिक ईंधन-आधारित इंजन विकसित करने के मकसद से चार इंजनों की खरीद का सौदा रूस के साथ किया था. मगर अमरीकी राष्ट्रपति जॉर्ज एच डब्लू बुश के दबाव में रूस ऐसा नही कर पा रहा था. तब नंबी नारायण के प्रयासों से  भारत ने दो मॉकअप के साथ चार क्रायोजेनिक इंजन बनाने के लिए रूस के साथ एक नए समझौते पर हस्ताक्षर किए. और अमरीकी सैनिकों की नजरों से बचाकर इन्हे भारत लाने में सफल हुए थे. मगर तभी 1994 में नंबी नारायण पर पाकिस्तान को रॉकेट साइंस तकनीक बेचने का आरोप लगा. उन्हे काफी यातनाएं दी गयीं. अंततः साल की अदालती लड़ाई के बाद उन्हे सारे आरोपों से बरी कर दिया गया. 2019 में नरेंद्र मोदी सरकार ने नंबी नारायण को पद्मभू षण से सम्मानित किया. 24 वर्षों बाद उनकी गरिमा वापस लौटी, लेकिन अगर उन्हें इसरो में यह समय काम करने को मिला होता, तो शायद भारत रॉकेट साइंस में किसी अन्य मुकाम पर होता.

मगर हमारे भारत देश में अक्सर जीनियस या यूं कहें कि अति बुद्धिमान लोगों के साथ राजनीति के तहत या अन्य वजहों से ऐसी बदसलूकी हो जाती है और ऐसे लोगों के बारे में कहीं कोई सुध नही लेता है और उन्हे लंबे वक्त तक निर्दोष होते हुए भी तमाम पीड़ाओं से गुजरना पड़ता है. फिल्म के अंत में शाहरुख खान राष्ट् की तरफ से नंबी से माफी मांगते है, मगर माफी देने से इंकार करते हुए नंबी कहतेहैं-‘अगर मैं निर्दोष था, तो कोई तो दोषी था. आखिर वह दोषी कौन था. ’’

लेखन व निर्देशनः

आर माधवन एक बेहतरीन अभिनेता होने के साथ ही अच्छे लेखक भी हैं. वह पहले भी कुछ फिल्में लिख चुके हैं. कुछ फिल्मों के संवाद लिख चुके हैं. मगर निर्देशन में उनका यह पहला कदम है. उनकी माने तो पहले कोई दूसरा निर्देशक था, मगर ऐन वक्त पर उसके छोड़ देने पर आर माधवन को खुद ही निर्देशन की बागडोर भी संभालनी पड़ी. परिणामतः कुछ निर्देशकीय कमियां भी नजर आती हैं. आर माधवन ने इस कहानी को बयां करने के लिए एक अलग तरीका अपनाया है. बौलीवुड अभिनेता शाहरुख खान नंबी नारायण का इंटरव्यू लेते हैं और तब नंबी के मंुह से शाहरुख खान उनकी कहानी सुनते हैं. पर मूल कहानी शुरू होने से पहले नंबी नारायण की गिरफ्तारी व उनके परिवार के साथ पहले दिन जो कुछ हुआ था, उसके दृश्य आते हैं, इसकी जरुरत नही थी. इसके अलावा फिल्म में कई दृश्य अंग्रेजी भाषा में हैं. आर माधवन ने ऐसा फिल्म को पूरी तरह से वास्तविक बनाए रखने के लिए किया है. मगर वह उन दृश्यों में ‘हिंदी’ में ‘सब टाइटल्स’दे सकते थे. इससे दर्शक के लिए फिल्म से जुड़ना आसान हो जाता. इसके बावजूद इस विज्ञान फिल्म को जिस तरह से आर माधवन ने परदे पर उतारा है, वह एक भावनात्मक फिल्म के रूप मंे दर्शको के दिलो तक पहुंचती है. इंटरवल से पहले के हिस्से में वैज्ञानिक शब्दों का उपयोग जरुर दर्शकों को थोड़ा परेशान करता है. मगर इंटरवल के बाद कहानी काफी इमोशनल है और दर्शक नंबी के उस इमोशन को मकसूस करता है. फिल्म को वास्तविक बनाए रखने के लिए पूरी फिल्म वास्तविक लोकेशनों पर ही फिल्मायी गयी है. फिल्म का वीएफएक्स भी कमाल का है. 1969 से लेकर अब के माहौल को जीवंत करना एक निर्देशक के तौर पर उनकी सबसे बड़ी चुनौती रही है, जिसे  सफलता पूर्वक अंजाम देने में वह सफल रहे हैं. फिल्म में कई ऐसे दृश्य है जो कि बिना संवादों के भी काफी कुछ कह जाते हें. मसलन एक दृश्य है. अदालत से जमानत पर रिहा होने के बाद जब  नंबी अपनी पत्नी मीरा संग उसे अस्पातल में दिखाकर वापस लौट रहे होते हैं, तब भीषण बारिश हो रही है और पानी में भीग रहे तिरंगे के नीचे यह दंपति बेबस खड़ा है. क्योंकि कोई भी रिक्शावाला या गाड़ी वाला उन्हे बैठाने को तैयार नही है.

पता नही क्यों वास्तविकता गढ़ते हुए भी आर माधवन ने हाल ही में गिरफ्तार किए गए पूर्व आई बी अधिकारी आर बी श्रीकुमार का नाम नहीं लिया, जो कि 1994 में केरला में ही तैनात थे.

अभिनयः

नंबी नारायण के किरदार में आर माधवन ने शानदार अभिनय किया है.  आर माधवन ने अपने अभिनय के बल पर 29 वर्ष से लेकर 70 वर्ष तक की उम्र के नंबी नारायण को परदे पर जीवंतता प्रदान की है. इसके लिए आर माधवन ने प्रोस्थेटिक मेकअप का उपयोग नहीं किया है. उन्होने नंबी नारायण की ही तरह अपने दंातों को दिखाने के निए अपना जबड़ा तक टुड़वाया. बाल भी रंगे और बालो को असली नजर आने के ेलिए 18 घ्ंाटे कुर्सी पर बैठकर रंगवाते थे. पूरी फिल्म को अपने कंधो पर उठाकर आर माधवन ने अपनी अभिनय प्रतिभा के नए आयाम पेश किए हैं. नंबी नारायण की पत्नी मीरा के किरदार में तमिल अदाकारा सिमरन ने भी बेहतरीन अभिनय किया है. उन्होने पति का घर में समय न दे पाने से लेकर देशभक्त पति के उपर झूठा इल्जाम लगने की पीड़ा को बाखूबी परदे पर दिखाया है.

नंबी नारायण से इंटरव्यू लेने वाले अभिनेता शाहरुख खान अपनी पहचान के साथ ही है. उन्होंने इंटरव्यू लेने वाले के किरदार को बहुत बेहतरीन तरीके से न सिर्फ निभाया है बल्कि अपने अभिनय से नंबी की पीड़ा का अहसास करते हुए भी नजर आते हैं. लंबे समय बाद शाहरुख खान ने छोटे किरदार में ही सही मगर बेहतरीन परफार्म किया है.

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