अलग धरातल : घर छोड़ने के बाद वह मां को क्यों इतना याद कर रही थी

Writer- Vimla Rastogi

सुबह  व दोपहर के बाद शाम भी होने जा रही थी. समय के हर पल के साथ मेरी बेचैनी भी बढ़ती जा रही थी. हर आहट पर मैं चौंक उठती. दुविधा, आशंकाएं मेरे सब्र पर हावी होती जा रही थीं. खिड़की पर जा कर देखती, कुसुम का कहीं पता न था. क्यों नहीं आई अब तक? शायद बस न मिली हो. देरी का कोई भी कारण हो सकता है. मैं अपने मन को सम झाने का असफल प्रयास करती रही. तभी मैं ने संतोष की सांस ली. सामने बैग लिए कुसुम खड़ी थी. इस से पहले कि मैं अपनी बेचैनी जाहिर करती, उस के पैरों की शिथिलता ने मु झे भी शिथिल बना दिया. वह रेंगते कदमों से सोफे पर धंस गई.

‘‘बात नहीं बनी?’’ मैं ने स्वयं को संयत कर पूछा.

‘‘हां, तरू. अशोक किसी भी कीमत पर सम झौता करने को तैयार नहीं है.’’

‘‘तू ने मेरी तरफ से…’’

‘‘हां, मैं ने हर तरीके से सम झा दिया. वह यही कहता रहा कि अब हम दोनों के धरातल अलगअलग हैं. एक ही मकान अलगअलग नींवों पर खड़ा नहीं हो सकता.’’

‘‘सच है उस का कहना. अपनी बरबादी का कारण मैं स्वयं हूं. मु झे अपने किए का फल मिलना ही चाहिए ताकि दूसरी लड़कियां मु झ से कुछ सीख सकें. मेरे जैसी गलतियां दोहराई न जाएं.’’

‘‘सच तरू तू ने अकारण ही अपना बसाबसाया घर उजाड़ डाला.’’

‘‘हां कुसुम मेरे  झूठे अहं ने मु झे कहीं का न छोड़ा. तू तो मेरे बारे में बहुत कुछ जानती है. पर जिंदगी के कुछ खास अध्याय मैं तु झे विस्तार से बताना चाहती हूं. पश्चात्ताप की जलन ने मु झे मेरी भूलों का एहसास करा दिया है. उस दिन भी मंगलवार ही था. मैं दफ्तर से आई थी तो उठी तो 7 बज चुके थे. खुद को ठीक किया. कमरा सुबह से अस्तव्यस्त पड़ा था. तभी अशोक आ गए.

‘‘बुक करा लिया टिकट?’’ प्रश्न बंदूक की गोली सा उन पर दाग दिया गया.

‘‘बताता हूं. पहले एक कप चाय हो जाए.’’

‘‘चाय पीने में देर हो जाएगी, वहीं कैफे में पी लेंगे,’’ मैं ने कहा.

‘‘हम तो तुम्हारे हाथ की बनी चाय ही पीएंगे,’’ अशोक बोले.

‘‘देखो, बातों में मत फुसलाओ. साफसाफ बताओ कि टिकट बुक किया या नहीं?’’

‘‘दरअसल…’’

‘‘हांहां, सोच लो कोई बहाना,’’ मैं ने कहा.

‘‘बहाना नहीं, सच कह रहा हूं. आज

दफ्तर में बहुत काम था. बीच में 1-2 बार ट्राई किया पर साइट विजी थी इसलिए हो न सका.’’

‘‘यह काठ का रैक बुक करने की फुरसत तुम्हें मिल गई, म्यूजिक कंसर्ट के टिकट के

लिए नहीं.’’

‘‘अरे बाबा, यह तो सुबह और्डर कर दिया था. सख्त जरूरत थी इस की. डब्बे इस रैक में लग जाने से कमरा खाली दिखाई देगा.’’

‘‘जब देखो कमरे की सफाई, सामान को ठीक ढंग से लगाने पर जोर, इस तरह के कभीकभार होने वाले लाइव व म्यूजिक को

जाने को मन ही कब करता है तुम्हारा? तुम तो खुश होगे कि 3-4 हजार रुपए भी बच गए.’’

‘‘तरू, तुम हर बात कितनी आसानी से कह जाती हो.’’

‘‘क्या गलत कहा है? तुम हर समय पैसे का खयाल करते हो.’’

‘‘कहीं भी कुछ भी शुरू करने से पहले अपनी जेब तो देखनी ही पड़ती है.’’

‘‘जेब को इतना ही देखना था तो फिर शादी क्यों की?’’ मेरा क्रोध अग्नि बनता जा रहा था और उन का धैर्य पानी.

‘‘‘तरू, नाहक परेशान न हो. यह स्टार तो आतेजाते रहते हैं. अगली बार चल चलेंगे.’’

इस सिंगर को लाइव देखने का कितना मन था. स्टेडियम का मैदान पूरा भरा होगा. जो थ्रिल होगी उस की कल्पना नहीं कर सकते. फिर कब होगा किसे पता? हो सकता है तुम्हारा कोई दोस्त, पुरानी गर्लफ्रैंड, रिश्तेदार ही आ धमके.

‘‘तरू, बात कहने से पहले सोच तो लिया करो.’’

‘‘तुम ने शादी से पहले कुछ सोचा था? लोगबाग अपनी बीवियों के लिए क्या कुछ नहीं करते? एक तुम हो कि एक कमरे के मकान में ला कर डाल दिया कि लो बना लो अपने रहनसहन का स्तर. एक दिन भी खुशी प्राप्त नहीं हुई. मेरी नौकरी न होती तो इस का किराया भी न दे पाते.’’

‘‘खुशी मन की होती है. तुम कभी किसी बात से संतुष्ट ही नहीं होतीं. मेरी तो बराबर तुम्हें खुश रखने की कोशिश रहती है.’’

‘‘बातें खूब कर लेते हो.’’

‘‘क्यों? तुम्हारे कहने पर ही तो मैं ने

यहां शहर में बदली कराई है वरना मौमडैड

के साथ रहते. खर्चा भी कम होता, तुम्हें आराम भी मिलता.’’

‘‘मेरे बस का नहीं था उस छोटी सी

जगह घर में घुसते ही सिर ढकेढके काम करना, दब कर रहना. मौम की किट्टी सहेलियों की

सेवा करना.’’

‘‘पर अफसोस तो यह है कि तुम यहां आ कर भी खुश नहीं हो.’’

‘‘यहां कितना घुमाफिरा रहे हो तुम मु झे?’’

‘‘केवल घूमना ही सुख नहीं है. शादी से पहले क्या घूमती ही रहती थी? हम लोग डेटिंग करते समय 5 सालों में कब कहां जा पाए थे?’’

‘‘तब सोचते थे शादी के बाद घूमेंगे, हम ने शादी से पहले भी मनचाहा खाया, पहना, क्या पता था कि…’’ मेरी हिचकियां तेज हो गई थीं.

वे फिर भी मेरे आंसुओं की लडि़यां संजोते हुए बोले, ‘‘बचपना छोड़ दो, तरू. अब तुम अकेली नहीं हो, कोई और भी है जो तुम्हारे प्यार पर बिछबिछ जाता है. तुम्हारा अपना घर है, अपनी जिम्मेदारियां हैं और जहां जिम्मेदारियां होती हैं, वहां कुछ परेशानियां भी होती हैं. कुछ पाने के लिए खोना भी पड़ता है.’’

‘‘साफसाफ सुन लो अशोक, मैं परेशानियां ढोने वाला कोई वाहन नहीं हूं. मेरी सब सहेलियां कितने ठाट से रहती हैं, एक मैं ही…’’

‘‘तो किसी करोड़पति वाले से शादी की होती. सुबह देर से उठती हो, सारा दिन दफ्तर पर रहती हो, संडे को इधरउधर चल देती हो. घर कभी व्यवस्थित नहीं रहता. मैं कुछ नहीं कहता, जो मु झ से बन पड़ता है करता हूं. फिर भी…’’

‘‘अशोक, मैं तुम्हारी नौकरानी बनने नहीं आई हूं.’’

‘‘तरू, बहुत हो चुका. अब चुप हो जाओ वरना…’’

‘‘वरना क्या कर लोगे मेरा? मारोगे? घर से निकालोगे? ब्रेकअप करोगे जो कसर बाकी हो, वह भी पूरी कर लो,’’ दोनों तरफ से तड़ातड़ वाक्यबाण चलते रहे.

‘‘तरू, मेहरबानी कर के चुप हो जाओ. क्यों घर बरबाद करने पर तुली हो?’’

‘‘यह घर आबाद ही कब हुआ था?’’

‘‘बात में बात निकाल कर बढ़ाती जा रही हो. चुप नहीं रह सकतीं क्या?’’

‘‘मैं ने कभी अपने मांबाप की नहीं सुनी… तभी तो तुम जैसे अपनी से नीची जाति वाले से शादी कर ली.’’

‘‘तो वहीं जा कर रहो.’’

‘‘हांहां, वहीं चली जाऊंगी. खुली हवा में सांस तो ले सकूंगी. एक कमरे का कोई घर होता है? न बैठक, न खाने का कमरा. न फर्नीचर, न क्रौकरी. क्या सजाऊं, क्या संवारूं?’’

‘‘एक कमरे को सजानेसंवारने की ज्यादा आवश्यकता होती है, एक बार याद रखो, आलीशान इमारतें और फर्नीचर से होटल बनते हैं, घर नहीं. घर बनता है प्यार से, अपनेपन से.’’

‘‘रहने दो अपने उपदेश. अब मुझे यहां नहीं रहना.’’

‘‘तरू, जल्दबाजी में उठे कदम हमेशा पतन और पश्चात्ताप की ओर जाते हैं.’’

‘‘तुम्हारी बला से मैं मरूं या जीऊं. तुम खर्च से बचोगे.’’

‘‘तरू, क्या हम दोनों अलग रहने के लिए एक हुए थे?’’

‘‘अब मु झे कुछ नहीं सुनना, मैं जा रही हूं,’’ गुस्सा मेरे विवेक पर हावी हो चुका था. मैं ने बैग में कपड़े डालने शुरू कर दिए.

‘‘पागल हुई हो? मैं रात में तुम्हें अकेले नहीं जाने दूंगा,’’ कह कर अशोक ने मेरे हाथ से बैग छीन लिया.

‘‘जीभर कर परेशान कर लो पर मैं ने भी सोच लिया है मु झे यहां नहीं रहना… नहीं रहना…’’ और मैं औंधे मुंह पलंग पर गिर कर सिसकती रही.

बिन बुलाए मेहमान सी साधिकार रात आ चुकी थी. हम दोनों की आंखें नींद से कोरी थीं. कुलबुलाते पेट, बेचैन दिल और करवटें बदलते हम. रात पंख लगा कर उड़ती रही, पर मेरा क्रोध कम न हुआ. अशोक का आत्मसम्मान भी जाग चुका था. वे भी कुछ नहीं बोले. भोर होते ही मैं ने 2 कप चाय बनाई, जो प्यालों की खनखनाहटट के बीच पी ली गई. मैं ने बैग उठाया, 2 मिनट रुकी. मैं जानती थी अशोक कुछ न कुछ जरूर कहेंगे. ऐसा ही हुआ. वे बोले, ‘‘तरू, गुस्सा कम होते ही मैसेज कर देना, मैं आ जाऊंगा. चाहो तो स्वयं चली आना.’’

मैं बिना जवाब दिए ही आगे बढ़ गई. रास्तेभर मेरे दिमाग में अनेकानेक विचार आतेजाते रहे.

मु झे अचानक और अकारण आया देख कर घर में सब लोग आश्चर्यचकित रह गए. सब की हमदर्दी से मु झे रुलाई आ गई.

‘‘और तू ने खूब बढ़ाचढ़ा कर अपने घरवालों से कह दिया कि अशोक ने तु झे मारा, घर से निकाला और घर के लिए रुपए लाने को कहा है?

‘‘हां कुसुम, मैं पूरी तरह अपना विवेक खो चुकी थी. मु झ पर अशोक को नीचा दिखाने का जनून सवार था. मेरी बातें सुन कर मेरा भाई राकेश भड़क उठा. बोला, ‘‘उस नीच जाति के अशोक की इतनी हिम्मत कि मेरी बहन पर हाथ उठाए? लालची कहीं का… रुपए मांगता है. ऐसा सबक  सिखाऊंगा कि जिंदगीभर याद रखेगा. देख लेना यहीं आ कर तु झ से माफी मांगेगा. मैं कल ही अपने दोस्त विनोद के साथ उस के पास जाऊंगा,’’ कह कर राकेश चला गया.

और अगले दिन अशोक के घर पहुंच कर विनोद और राकेश ने उसे खूब खरीखोटी सुनाई.

 

वे दोनों जाते ही अशोक पर बस पड़े. विनोद ने कहा,

‘‘बनो मत, अशोक. हम आप जैसे लालची युवकों की नसनस से वाकिफ हैं. शर्म नहीं आती आप को. आप जैसों के अच्छी तरह सम झते हैं हम और इसीलिए 2 साल शादी नहीं होने दी. खुद तो कभी सलीके से नहीं रहे, हमारी बहन को भी उसी तरह रखना चाहते हो.’’

‘‘विनोद, आप को गलतफहमी हुई है. तरूणा को मारना तो दूर, मैं ने उस से कटु शब्द भी नहीं कहे. आप का धन, आप की जाति आप को मुबारक हो.’’

‘‘भोले मत बनो अशोक, हम से टकराना महंगा पड़ेगा. हम दब्बू लड़की वाले नहीं हैं.’’

‘‘मेरे घर में मेरा अपमान करने का आप को कोई हक नहीं है.’’

‘‘खैरियत इसी में है अशोक आप 2 दिन के अंदर ही हमारे घर आ कर तरूणा से माफी मांगें अन्यथा अंजाम अच्छा न होगा, पछताओगे.’’

‘‘कुसुम, ये लोग आंधी की तरह गए और तूफान की तरह आ गए. इन लोगों ने लौट कर मु झे केवल इतना ही बताया कि 1-2 दिन में अशोक यहां आएंगे,’’ मैं ने कुसुम से कहा.

‘‘तरू, अशाक ने तुम से शदी की थी, अपना स्वाभिमान नहीं बेचा था. तुम्हारे घर आ कर तुम से माफी मांग कर वह अपने अपमान पर मुहर नहीं लगाना चाहता था.’’

‘‘हां, इसीलिए वह नहीं आया और 4 दिन बाद ही तुम्हारे भाई ने किराए के आदमियों से उसे पिटवा दिया. कितना नीच काम किया.’’

‘‘मैं ने ऐसा नहीं कहा था. मु झे यह बात काफी दिन बाद पता चली.’’

‘‘अपने भाई को तुम पहले ही काफी भड़का चुकी थीं. बस जवानी के जोश में राकेश ने भलाबुरा कुछ भी न सोचा. उस ने बारबार पढ़ रख था कि वे लोग ताड़न के अधिकारी हैं. उस का जाति अहम जाग चुका था. तुम्हें मालूम है न आज का माहौल कैसा है?’’

‘‘कुसुम, अपने घर को मैं ने खुद ही आग लगाई है. फिर किस से दोष दूं?’’

‘‘जिंदगी की हकीकतों से घबरा कर तुम जैसी पलायनवादी लड़कियां अपने साथ अपनी जिंदगी को भी ले डूबती हैं. सभी लड़कियों को दहेज के कारण नहीं मारा जाता. उन में से आधी धैर्य व साहस के अभाव में या बदले की भावना से आत्महत्या कर बैठती हैं या तलाक ले कर जीवनभर नए की तलाश करती रहती हैं.’’

‘‘तुम ठीक कहती हो. मैं भी अशोक को नीचा दिखा कर ऊंची बनना चाहती थी. शायद मेरा पुश्तैनी  झूठा अहं भी इस से संतुष्ट होता.’’

‘‘तरू, तू ने अपने साथ अशोक को भी कहीं का न छोड़ा. बेचारे ने मारे शर्म के उस शहर में नौकरी छोड़ दी. अपने मांबाप के पास भी उस का मन नहीं लगा क्योंकि घर वालों की सहानुभूति और बाहर वालों के व्यंग्य दोनों ही उस से बरदाश्त नहीं हुए. वह फिर नौकरी की तलाश में भटकता रहा. जैसेतैसे उसे एक नौकरी मिल गई. उस की जिंदगी में न कोई चाह है, न कोई उमंग, बढ़ी दाढ़ी, आंखों के नीचे काले गड्ढे, दुबला शरीर, असमय ही बूढ़ा हो गया है वह.’’

‘‘मेरी जिंदगी भी कम वीरान नहीं. अब न सुबह होने की खुशी होती है, न रात होने का अवसाद. न सुबह को किसी की विदाई, न शाम को किसी का इंतजार. नौकरी पर जाती हूं पर कोई उत्साह नहीं. मशीन की तरह काम करती हूं. सबकुछ गड्डमड्ड हो गया. मैं ने जीती हुई बाजी हार दी है. क्या मु झे हारी हुई बाजी ले कर ही बैठे रहना होगा? कुसुम मु झे कोई तो रास्ता बता?’’ मैं ने कहा.

मैं ने अशोक को बहुत सम झाया. यह भी कहा कि तरूणा अपने किए पर बेहद शर्मिंदा है उसे माफ कर दो पर वह यही कहता रहा कि  झूठे लांछनों से प्रताडि़त मैं तरूणा को कभी माफ नहीं कर सकता. हम दोनों कभी एक नहीं हो सकते. तरूणा ने मु झ से किस जन्म का बदला लिया है, मैं आज तक सम झ नहीं पाया. तुम्हारे भाई ने न जाने उस की जाति को ले कर क्याक्या कह दिया कि अब वह बदलने को तैयार की.’’

‘‘हां, कुसुम, वे मु झे बहुत चाहते थे. मैं ही सपनों के रंगमहल में खोई रहती. सचाई के धरातल पर पैर ही न रखना चाहती थी. मैं मांबाप की बहुत मुंहचढ़ी थी. मैं ने कभी किसी की एक भी बात बरदातश्त नहीं की थी. जब मैं गुस्से में घर छोड़ कर चली आई, उस दिन काश, मेरी मां मु झे बजाय आंचल में छिपाने के फटकार कर अशोक के पास भेज देतीं तो कुछ और होता. मौमडैड ने तो यही कहा कि इन छोटी जातियों वालों में तो यही होता है. अब तलाक दिला कर तेरी शादी कुलीन घर में कराएंगे.’’

‘‘पीहर वालों की शह भी लड़की की जिंदगी में सुलगती लकडि़यों सा काम करती है, तरू.’’

‘‘अब सब अपनीअपनी दुनिया में मगन हैं. राकेश से कुछ कहो तो वह भी मेरी गलती बताता है. मां भी मेरे  झूठे बोलने को दोष देती हैं. मैं अकेली वीरान जिंदगी लिए समाज की व्यंग्योेक्तियां, दोषारोपण कैसे सह पाऊंगी? वकील ने कह दिया कि अगर सहमति से तलाक न हुआ तो केस 4-5 साल चलेगा और 5 लाख रुपए तो लग जाएंगे. अब इतने पैसे न भाई खर्च करने को तैयार न मौमडैड. मेरी सैलरी भी उन्हें मिल रही है तो वे क्यों चिंता करें.

‘‘हर इंसान अपने किए को भोगता है, तरू. रो कर सहो या चुप रह कर, तुम्हें सहना ही होगा. अशोक तुम से इतनी दूर जा चुका है कि तुम्हारा रुदन, तड़प कुछ भी उस तक नहीं पहुंच सकता.’’

‘‘एक भूल की इतनी बड़ी सजा?’’

‘‘दियासलाई की एक तीली ही सारा घर फूंकने की सामर्थ्य रखती है.’’

‘‘कुसुम, तुम भी मु झे ही…’’

‘‘मैं क्या करूं, तरू? अलगअलग धरातलों पर खड़े तुम दोनों किसकिस को दोष दोगे? अब मैं चलूंगी, तरू, देर हो रही है.’’

‘‘जाओ कुसुम, कहीं लौटने में बहुत देर न हो जाए. घर पर कोई तुम्हारा इंतजार कर रहा होगा,’’ मैं ने हार कर कहा.

कुसुम चली गई. मैं निर्विकार भाव से उसे जाती हुई देखती रही. रह गया केवल सन्नाटा, जिस के साए में ही मुझे दिन गुजारने हैं.

Raksha Bandhan 2024 : ये दिलचस्प कहानियां जो बताती हैं, ‘भाईबहन के रिश्ते के क्या है मायने’

Raksha Bandhan Stories in Hindi: भाईबहन का रिश्ता कितना प्यारा होता है न.. इस रिश्ते में मीठी तकरार से लेकर लड़ाईझगड़े और प्यार सबकुछ होता है. इस रिश्ते को लेकर फनी, इमोशनल हर तरह की किस्से कहानियां लिखी गई हैं. ऐसे में हम आपके लिए लेकर आए हैं  गृहशोभा की 10 Raksha Bandhan Stories in Hindi 2024. इस आर्टिकल में भाईबहन के प्यार और रिश्तों से जुड़ी  दिलचस्प कहानियां हैं जो आपके दिल को छू लेगी और इस रिश्ते से जुड़े कई नई चीजें आप जान सकते हैं.

अगर आपको भी कहानियां पढ़ने का शौक हैं, तो गृहशोभा पर भाईबहन के इन दिलचस्प कहानियों को पढ़कर इस राखी को यादगार बनाएं. 

1. अंतत- क्या भाई के जुल्मों का जवाब दे पाई माधवी

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बैठक में तनावभरी खामोशी छा गई थी. हम सब की नजरें पिताजी के चेहरे पर कुछ टटोल रही थीं, लेकिन उन का चेहरा सपाट और भावहीन था. तपन उन के सामने चेहरा झुकाए बैठा था. शायद वह समझ नहीं पा रहा था कि अब क्या कहे. पिताजी के दृढ़ इनकार ने उस की हर अनुनयविनय को ठुकरा दिया था.

सहसा वह भर्राए स्वर में बोला, ‘‘मैं जानता हूं, मामाजी, आप हम से बहुत नाराज हैं. इस के लिए मुझे जो चाहे सजा दे लें, किंतु मेरे साथ चलने से इनकार न करें. आप नहीं चलेंगे तो दीदी का कन्यादान कौन करेगा?’’

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2. कन्यादान- भाई और भाभी का क्या था फैसला

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अनिरुद्ध घर के अंदर घुसते हुए मंजुला से बोले, ‘‘मैडम, आप के भाईसाहब ने श्रेयसी के कन्यादान की तैयारी कर ली है.’’ ‘‘क्या?’’ ‘‘उन्होंने उस की शादी का कार्ड भेजा है.’’ ‘‘क्या कह रहे हैं, आप?’’ चौंकती हुई मंजुला बोली, ‘‘क्या श्रेयसी की शादी तय हो गई है?’’ ‘‘जी मैडम, निमंत्रणकार्ड तो यही कह रहा है.’’ मंजुला ने तेजी से कार्ड खोल कर पढ़ा और उसे खिड़की पर एक किनारे रख दिया. फिर बुदबुदाई, ‘भाईसाहब कभी नहीं बदलेंगे.’ उस के चेहरे पर उदासी और खिन्नता का भाव था

‘‘क्या हुआ? तुम श्रेयसी की प्रस्तावित शादी की खबर सुन कर खुश नहीं हुई?’’ ‘‘आप तो बस.’’ तभी बहू छवि चाय ले कर ड्राइंगरूम में आई, ‘‘पापाजी, किस की शादी का कार्ड है?’’

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3. चमत्कार- क्या बड़ा भाई रतन करवा पाया मोहिनी की शादी?

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‘‘मोहिनी दीदी पधार रही हैं,’’ रतन, जो दूसरी मंजिल की बालकनी में मोहिनी के लिए पलकपांवडे़ बिछाए बैठा था, एकाएक नाटकीय स्वर में चीखा और एकसाथ 3-3 सीढि़यां कूदता हुआ सीधा सड़क पर आ गया.

उस के ऐलान के साथ ही सुबह से इंतजार कर रहे घर और आसपड़ोस के लोग रमन के यहां जमा होने लगे. ‘‘एक बार अपनी आंखों से बिटिया को देख लें तो चैन आ जाए,’’ श्यामा दादी ने सिर का पल्ला संवारा और इधरउधर देखते हुए अपनी बहू सपना को पुकारा.

‘‘क्या है, अम्मां?’’ मोहिनी की मां सपना लपक कर आई थीं. ‘‘होना क्या है आंटी, दादी को सिर के पल्ले की चिंता है. क्या मजाल जो अपने स्थान से जरा सा भी खिसक जाए,’’ आपस में बतियाती खिलखिलाती मोहिनी की सहेलियों, ऋचा और रीमा ने व्यंग्य किया था.

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4. समय चक्र- अकेलेपन की पीड़ा क्यों झेल रहे थे बिल्लू भैया?

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शिमला अब केवल 5 किलोमीटर दूर था…य-पि पहाड़ी घुमाव- दार रास्ते की चढ़ाई पर बस की गति बेहद धीमी हो गई थी…फिर भी मेरा मन कल्पनाओं की उड़ान भरता जाने कितना आगे उड़ा जा रहा था. कैसे लगते होंगे बिल्लू भैया? जो घर हमेशा रिश्तेदारों से भरा रहता था…उस में अब केवल 2 लोग रहते हैं…अब वह कितना सूना व वीरान लगता होगा, इस की कल्पना करना भी मेरे लिए बेहद पीड़ादायक था. अब लग रहा था कि क्यों यहां आई और जब घर को देखूंगी तो कैसे सह पाऊंगी? जैसे इतने वर्ष कटे, कुछ और कट जाते.

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5. इंसाफ- नंदिता ने कैसे निभाया बहन का फर्ज

नंदिता ने सपने में भी नहीं सोचा था कि जिस छोटे भाई को पढ़ा- लिखा कर उस ने अफसर की कुरसी तक पहुंचाया है, एक अच्छे परिवार में शादी करवा कर जिस की गृहस्थी बसाई है वही भाई उस के साथ ऐसा बरताव करेगा. उस ने नया फ्लैट खरीदने के लिए डेढ़ लाख रुपए देने से इनकार ही तो किया था. उस ने तब उस को समझाया भी था कि हमारा यह पुश्तैनी मकान है. अच्छे इलाके में है. 2 परिवार आराम से रह सकें, इतनी जगह इस में है. तब नवीन ने बड़ी बहन के प्रति आदरभाव को तारतार करते हुए कह डाला, ‘दीदी, मां और बाबूजी के साथ ही इस पुराने मकान की रौनक भी चली गई है. अब यह पलस्तर उखड़ा मकान हमें काटने को दौड़ता है. मोनिका तो यहां एक दिन भी रहना नहीं चाहती. मायके में वह शानदार मकान में रहती थी. कहती है कि इस खंडहर में रहना पड़ेगा, उस को यह शादी के पहले मालूम होता तो वह मुझ से शादी भी नहीं करती. वह सोतेजागते नया फ्लैट खरीदने की रट लगाए रहती है. आखिर, मैं उस के तकाजे को कब तक अनसुना करूं.’

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6. क्या खोया क्या पाया : क्या वापस पा सकी संध्या

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इस बार जब मैं मायके गई तब अजीब सा सुखद एहसास हुआ मुझे. मेरे बीमार पिता के पास मेरी इकलौती मौसी बैठी थीं. वह मुझे देख कर खुश हुईं और मैं उन्हें देख कर हैरान. यह मेरे लिए एक सुखद एहसास था क्योंकि पिछले 18 साल से हमारा उन से अबोला चल रहा था. किन्हीं कारणों से कुछ अहं खड़े कर लिए थे हमारे परिवार वालों ने और चुप होतेहोते बस चुप ही हो गए थे.

जीवन में ऐसे सुखद पल जो अनमोल होते हैं, हम ने अकेले रह कर भोगे थे. उन के बेटों की शादियों में हम नहीं गए थे और मेरे भाइयों की शादी में वे नहीं आए थे. मौसा की मौत का समाचार मिला तो मैं आई थी. पराए लोगों की तरह बैठी रही थी, सांत्वना के दो शब्द मेरे मुंह से भी नहीं निकले थे और मौसी ने भी मेरे साथ कोई बात नहीं की थी.

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7. भाई का  बदला: क्या हुआ था रीता के साथ

रोशनलाल का बंगला रंगबिरंगी रोशनी से जगमगा रहा था. उन के घर में उन के जुड़वे बच्चों का जन्मोत्सव था. बंगले की बाउंड्री वाल के अंदर शामियाना लगा था जिस के मध्य में उन की पत्नी जानकी देवी सजीधजी दोनों बेटों को गोद में लिए बैठी थीं. उन की चारों तरफ गेस्ट्स कुरसियों पर बैठे थे. कुछ औरतें गीत गा रही थीं. गेट के बाहर हिजड़ों का झुंड था, मानो पटना शहर के सारे हिजड़े वहीँ जुट गए थे. उन में कुछ ढोल बजा रहे थे और कुछ तालियां. सभी मिल कर सोहर गा रहे थे- “ यशोदा के घर आज कन्हैया आ गए…”

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8. सांझा दुख- क्यों थी भाई-बहन के रिश्ते में कड़वाहट

नंदिता ने सपने में भी नहीं सोचा था कि जिस छोटे भाई को पढ़ा- लिखा कर उस ने अफसर की कुरसी तक पहुंचाया है, एक अच्छे परिवार में शादी करवा कर जिस की गृहस्थी बसाई है वही भाई उस के साथ ऐसा बरताव करेगा. उस ने नया फ्लैट खरीदने के लिए डेढ़ लाख रुपए देने से इनकार ही तो किया था. उस ने तब उस को समझाया भी था कि हमारा यह पुश्तैनी मकान है. अच्छे इलाके में है. 2 परिवार आराम से रह सकें, इतनी जगह इस में है.

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9. मुझे जवाब दो- क्या शोभा अपने भाई को समझा पाई

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‘‘प्रिय अग्रज, ‘‘माफ करना, ‘भाई’ संबोधन का मन नहीं किया. खून का रिश्ता तो जरूर है हम दोनों में, जो समाज के नियमों के तहत निभाना भी पड़ेगा. लेकिन प्यार का रिश्ता तो उस दिन ही टूट गया था जिस दिन तुम ने और तुम्हारे परिवार ने बीमार, लाचार पिता और अपनी मां को मत्तैर यानी सौतेला कह, बांह पकड़ कर घर से बाहर निकाल दिया था. पैसे का इतना अहंकार कि सगे मातापिता को ठीकरा पकड़ा कर तुम भिखारी बना रहे थे.

‘‘लेकिन तुम सबकुछ नहीं. अगर तुम ने घर से बाहर निकाला तो उन की बांहें पकड़ सहारा देने वाली तुम्हारी बहन के हाथ मौजूद थे. जिन से नाता रखने वाले तुम्हारे मातापिता ने तुम्हारी नजर में अक्षम्य अपराध किया था और यह उसी का दंड तुम ने न्यायाधीश बन दिया था.

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10. सीमा रेखा: जब भाई के लिए धीरेन भूल गया पति का फर्ज

‘‘सोमू, उठ जाओ बाबू…’’ धीरेन दा लगातार आवाज दिए जा रहे थे जिस से रूपल की नींद में बाधा पड़ने लगी तो वह कसमसाती हुई सोमेन के आगोश से न चाहते हुए भी अलग हो गई और पति सोमेन को लगभग धकियाती हुई बोली, ‘‘अब जाओ, उठो भी, नहीं तो तुम्हारे दादा सुबहसुबह पूरे घर को सिर पर उठा लेंगे. छुट्टी वाले दिन भी आराम नहीं करने देते.’’

सोमेन अंगड़ाई लेता हुआ उठ बैठा और ‘आया दादा’ कहता हुआ बाथरूम की ओर लपका. जब फे्रश हो कर जोगिंग करने के लिए टै्रकसूट और जूते पहन कर कमरे से बाहर निकला तो दादा रोज की तरह गरम चाय लिए उस का इंतजार करते मिले.

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Raksha Bandhan 2024 : अंतत- क्या भाई के जुल्मों का जवाब दे पाई माधवी

बैठक में तनावभरी खामोशी छा गई थी. हम सब की नजरें पिताजी के चेहरे पर कुछ टटोल रही थीं, लेकिन उन का चेहरा सपाट और भावहीन था. तपन उन के सामने चेहरा झुकाए बैठा था. शायद वह समझ नहीं पा रहा था कि अब क्या कहे. पिताजी के दृढ़ इनकार ने उस की हर अनुनयविनय को ठुकरा दिया था.

सहसा वह भर्राए स्वर में बोला, ‘‘मैं जानता हूं, मामाजी, आप हम से बहुत नाराज हैं. इस के लिए मुझे जो चाहे सजा दे लें, किंतु मेरे साथ चलने से इनकार न करें. आप नहीं चलेंगे तो दीदी का कन्यादान कौन करेगा?’’

पिताजी दूसरी तरफ देखते हुए बोले, ‘‘देखो, यहां यह सब नाटक करने की जरूरत नहीं है. मेरा फैसला तुम ने सुन लिया है, जा कर अपनी मां से कह देना कि मेरा उन से हर रिश्ता बहुत पहले ही खत्म हो गया था. टूटे हुए रिश्ते की डोर को जोड़ने का प्रयास व्यर्थ है. रही बात कन्यादान की, यह काम कोई पड़ोसी भी कर सकता है.’’

‘‘रघुवीर, तुझे क्या हो गया है,’’ दादी ने सहसा पिताजी को डपट दिया.

मां और भैया के साथ मैं भी वहां उपस्थित थी. लेकिन पिताजी का मिजाज देख कर उन्हें टोकने या कुछ कहने का साहस हम लोगों में नहीं था. उन के गुस्से से सभी डरते थे, यहां तक कि उन्हें जन्म देने वाली दादी भी.

मगर इस समय उन के लिए चुप रहना कठिन हो गया था. आखिर तपन भी तो उन का नाती था. उसे दुत्कारा जाना वे बरदाश्त न कर सकीं और बोलीं, ‘‘तपन जब इतना कह रहा है तो तू मान क्यों नहीं जाता. आखिर तान्या तेरी भांजी है.’’

‘‘मां, तुम चुप रहो,’’ दादी के हस्तक्षेप से पिताजी बौखला उठे, ‘‘तुम्हें जाना हो तो जाओ, मैं ने तुम्हें तो कभी वहां जाने से मना नहीं किया. लेकिन मैं नहीं जाऊंगा. मेरी कोई बहन नहीं, कोई भांजी नहीं.’’

‘‘अब चुप भी कर,’’ दादी ने झिड़क कर कहा, ‘‘खून के रिश्ते इस तरह तोड़ने से टूट नहीं जाते और फिर मैं अभी जिंदा हूं, तुझे और माधवी को मैं ने अपनी कोख से जना है. तुम दोनों मेरे लिए एकसमान हो. तुझे भांजी का कन्यादान करने जाना होगा.’’

‘‘मैं नहीं जाऊंगा,’’ पिताजी बोले, ‘‘मेरी समझ में नहीं आता कि सबकुछ जानने के बाद भी तुम ऐसा क्यों कह रही हो.’’

‘‘मैं तो सिर्फ इतना जानती हूं कि माधवी मेरी बेटी है और तेरी बहन और तुझे उस ने अपनी बेटी का कन्यादान करने के लिए बुलाया है,’’ दादी के स्वर में आवेश और खिन्नता थी, ‘‘तू कैसा भाई है. क्या तेरे सीने में दिल नहीं. एक जरा सी बात को बरसों से सीने से लगाए बैठा है.’’

‘‘जरा सी बात?’’ पिताजी चिढ़ गए थे, ‘‘जाने दो, मां, क्यों मेरा मुंह खुलवाना चाहती हो. तुम्हें जो करना है करो, पर मुझे मजबूर मत करो,’’ कह कर वे झटके से बाहर चले गए.

दादी एक ठंडी सांस भर कर मौन हो गईं. तपन का चेहरा यों हो गया जैसे वह अभी रो देगा. दादी उसे दिलासा देने लगीं तो वह सचमुच ही उन के कंधे पर सिर रख कर फूट पड़ा, ‘‘नानीजी, ऐसा क्यों हो रहा है. क्या मामाजी हमें कभी माफ नहीं करेंगे. अब लौट कर मां को क्या मुंह दिखाऊंगा. उन्होंने तो पहले ही शंका व्यक्त की थी, पर मैं ने कहा कि मामाजी को ले कर ही लौटूंगा.’’

‘‘धैर्य रख, बेटा, मैं तेरे मन की व्यथा समझती हूं. क्या कहूं, इस रघुवीर को. इस की अक्ल पर तो पत्थर पड़ गए हैं. अपनी ही बहन को अपना दुश्मन समझ बैठा है,’’ दादी ने तपन के सिर पर हाथ फेरा, ‘‘खैर, तू चिंता मत कर, अपनी मां से कहना वह निश्चिंत हो कर विवाह की तैयारी करे, सब ठीक हो जाएगा.’’

मैं धीरे से तपन के पास जा बैठी और बोली, ‘‘बूआ से कहना, दीदी की शादी में मैं और समीर भैया भी दादी के साथ आएंगे.’’

तपन हौले से मुसकरा दिया. उसे इस बात से खुशी हुई थी. वह उसी समय वापस जाने की तैयारी करने लगा. हम सब ने उसे एक दिन रुक जाने के लिए कहा, आखिर वह हमारे यहां पहली बार आया था. पर तपन ने यह कह इनकार कर दिया कि वहां बहुत से काम पड़े हैं. आखिर उसे ही तो मां के साथ विवाह की सारी तैयारियां पूरी करनी हैं.

तपन का कहना सही था. फिर उस से रुकने का आग्रह किसी ने नहीं किया और वह चला गया.

तपन के अचानक आगमन से घर में एक अव्यक्त तनाव सा छा गया था. उस के जाने के बाद सबकुछ फिर सहज हो गया. पर मैं तपन के विषय में ही सोचती रही. वह मुझ से 2 वर्ष छोटा था, मगर परिस्थितियों ने उसे उम्र से बहुत बड़ा बना दिया था. कितनी उम्मीदें ले कर वह यहां आया था और किस तरह नाउम्मीद हो कर गया. दादी ने उसे एक आस तो बंधा दी पर क्या वे पिताजी के इनकार को इकरार में बदल पाएंगी?

मुझे यह सवाल भीतर तक मथ रहा था. पिताजी के हठी स्वभाव से सभी भलीभांति परिचित थे. मैं खुल कर उन से कुछ कहने का साहस तो नहीं जुटा सकी, लेकिन उन के फैसले के सख्त खिलाफ थी.

दादी ने ठीक ही तो कहा था कि खून के रिश्ते तोड़ने से टूट नहीं जाते. क्या पिताजी इस बात को नहीं समझते. वे खूब समझते हैं. तब क्या यह उन के भीतर का अहंकार है या अब तक वर्षों पूर्व हुए हादसे से उबर नहीं सके हैं? शायद दोनों ही बातें थीं. पिताजी के साथ जो कुछ भी हुआ, उसे भूल पाना इतना सहज भी तो नहीं था. हां, वे हृदय की विशालता का परिचय दे कर सबकुछ बिसरा तो सकते थे, किंतु यह न हो सका.

मैं नहीं जानती कि वास्तव में हुआ क्या था और दोष किस का था. यह घटना मेरे जन्म से भी पहले की है. मैं 20 की होने को आई हूं. मैं ने तो जो कुछ जानासुना, दादी के मुंह से ही सुना. एक बार नहीं, बल्कि कईकई बार दादी ने मुझे वह कहानी सुनाई. कहानी नहीं, बल्कि यथार्थ, दादी, पिताजी, बूआ और फूफा का भोगा हुआ यथार्थ.

दादी कहतीं कि फूफा बेकुसूर थे. लेकिन पिताजी कहते, सारा दोष उन्हीं का था. उन्होंने ही फर्म से गबन किया था. मैं अब तक समझ नहीं पाई, किसे सच मानूं? हां, इतना अवश्य जानती हूं, दोष चाहे किसी का भी रहा हो, सजा दोनों ने ही पाई. इधर पिताजी ने बहन और जीजा का साथ खोया तो उधर बूआ ने भाई का साथ छोड़ा और पति को हमेशा के लिए खो दिया. निर्दोष बूआ दोनों ही तरफ से छली गईं.

मेरा मन उस अतीत की ओर लौटने लगा, जो अपने भीतर दुख के अनेक प्रसंग समेटे हुए था. दादी के कुल 3 बच्चे थे, सब से बड़े ताऊजी, फिर बूआ और उस के बाद पिताजी. तीनों पढ़ेपलेबढ़े, शादियां हुईं.

उन दिनों ताऊजी और पिताजी ने मिल कर एक फर्म खोली थी. लेकिन अर्थाभाव के कारण अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा था. उसी समय फूफाजी ने अपना कुछ पैसा फर्म में लगाने की इच्छा व्यक्त की. ताऊजी और पिताजी को और क्या चाहिए था, उन्होंने फूफाजी को हाथोंहाथ लिया. इस तरह साझे में शुरू हुआ व्यवसाय कुछ ही समय में चमक उठा और फलनेफूलने लगा. काम फैल जाने से तीनों साझेदारों की व्यस्तता काफी बढ़ गई थी.

औफिस का अधिकतर काम फूफाजी संभालते थे. पिताजी और ताऊजी बाहर का काम देखते थे. कुल मिला कर सबकुछ बहुत ठीकठाक चल रहा था. मगर अचानक ऐसा हुआ कि सब गड़बड़ा गया. ऐसी किसी घटना की, किसी ने कल्पना भी नहीं की थी.

अचानक ही फर्म में लाखों की हेराफेरी का मामला प्रकाश में आया, जिस ने न केवल तीनों साझेदारों के होश उड़ा दिए बल्कि फर्म की बुनियाद तक हिल गई. तात्कालिक छानबीन से एक बात स्पष्ट हो गई कि गबन किसी साझेदार ने किया है, और वह जो भी है, बड़ी सफाई से सब की आंखों में धूल झोंकता रहा है.

तमाम हेराफेरी औफिस की फाइलों में हुई थी और वे सब फाइलें यानी कि सभी दस्तावेज फूफाजी के अधिकार में थे. आखिरकार शक की पहली उंगली उन पर ही उठी. हालांकि फूफाजी ने इस बात से अनभिज्ञता प्रकट की थी और अपनेआप को निर्दोष ठहराया था. पर चूंकि फाइलें उन्हीं की निगरानी में थीं, तो बिना उन की अनुमति या जानकारी के कोई उन दस्तावेजों में हेराफेरी नहीं कर सकता था.

लेकिन जाली दस्तावेजों और फर्जी बिलों ने फूफाजी को पूरी तरह संदेह के घेरे में ला खड़ा किया था. सवाल यह था कि यदि उन्होंने हेराफेरी नहीं की तो किस ने की? जहां तक पिताजी और ताऊजी का सवाल था, वे इस मामले से कहीं भी जुड़े हुए नहीं थे और न ही उन के खिलाफ कोई प्रमाण था. प्रमाण तो कोई फूफाजी के खिलाफ भी नहीं मिला था, लेकिन वे यह बताने की स्थिति में नहीं थे कि अगर फर्म का रुपया उन्होंने नहीं लिया तो फिर कहां गया? ऐसी ही दलीलों ने फूफाजी को परास्त कर दिया था. फिर भी वे सब को यही विश्वास दिलाने की कोशिश करते रहे कि वे निर्दोष हैं और जो कुछ भी हुआ, कब हुआ, कैसे हुआ नहीं जानते.

इन घटनाओं ने जहां एक ओर पिताजी को स्तब्ध और गुमसुम बना दिया था, वहीं ताऊजी उत्तेजित थे और फूफाजी से बेहद चिढ़े थे. जबतब वे भड़क उठते, ‘यह धीरेंद्र तो हमें ही बदनाम करने पर तुला हुआ है. अगर इस पर विश्वास न होता तो हम सबकुछ इसे कैसे सौंप देते. अब जब सचाई सामने आ गई है तो दुहाई देता फिर रहा है कि निर्दोष है. क्या हम दोषी हैं? क्या यह हेराफेरी हम ने किया है?

‘मुझे तो इस आदमी पर शुरू से ही शक था, इस ने सबकुछ पहले ही सोचा हुआ था. हम इस की मीठीमीठी बातों में आ गए. इस ने अपने पैसे लगा कर हमें एहसान के नीचे दबा देना चाहा. सोचा होगा कि पकड़ा भी गया तो बहन का लिहाज कर के हम चुप कर जाएंगे. मगर उस की सोची सारी बातें उलटी हो गईं, इसलिए अब अनापशनाप बकता फिर रहा है.’

एक बार तो ताऊजी ने यहां तक कह दिया था, ‘हमें इस आदमी को पुलिस के हवाले कर देना चाहिए.’

लेकिन दादी ने कड़ा विरोध किया था. पिताजी को भी यह बात पसंद नहीं आई कि यदि मामला पुलिस में चला गया तो पूरे परिवार की बदनामी होगी.

बात घर से बाहर न जाने पाई, लेकिन इस घटना ने चारदीवारी के भीतर भारी उथलपुथल मचा दी थी. घर का हरेक प्राणी त्रस्त व पीडि़त था. पिताजी के मन को ऐसा आघात लगा कि वे हर ओर से विरक्त हो गए. उन्हें फर्म के नुकसान और बदनामी की उतनी चिंता नहीं थी, जितना कि विश्वास के टूट जाने का दुख था. रुपया तो फिर से कमाया जा सकता था. मगर विश्वास? उन्होंने फूफाजी पर बड़े भाई से भी अधिक विश्वास किया था. बड़ा भाई ऐसा करता तो शायद उन्हें इतनी पीड़ा न होती, मगर फूफाजी ऐसा करेंगे, यह तो उन्होंने ख्वाब में भी न सोचा था.

उधर फूफाजी भी कम निराश नहीं थे. वे किसी को भी अपनी नेकनीयती का विश्वास नहीं दिला पाए थे. दुखी हो कर उन्होंने यह जगह, यह शहर ही छोड़ देने का फैसला कर लिया. यहां बदनामी के सिवा अब धरा ही क्या था. अपने, पराए सभी तो उन के विरुद्ध हो गए थे. वे बूआ को लेकर अपने एक मित्र के पास अहमदाबाद चले गए.

दादी बतातीं कि जाने से पूर्व फूफाजी उन के पास आए थे और रोरो कहा था, ‘सब लोग मुझे चोर समझते हैं, लेकिन मैं ने गबन नहीं किया. परिस्थितियों ने मेरे विरुद्ध षड्यंत्र रचा है. मैं चाह कर भी इस कलंक को धो नहीं पाया. मैं भी तो आप का बेटा ही हूं. मैं ने उन्हें हमेशा अपना भाई ही समझा है. क्या मैं भाइयों के साथ ऐसा कर सकता हूं. क्या आप भी मुझ पर विश्वास नहीं करतीं?’

‘मुझे विश्वास है, बेटा, मुझे विश्वास है कि तुम वैसे नहीं हो, जैसा सब समझते हैं. पर मैं भी तुम्हारी ही तरह असहाय हूं. मगर इतना जानती हूं, झूठ के पैर नहीं होते. सचाई एक न एक दिन जरूर सामने आएगी. और तब ये ही लोग पछताएंगे,’ दादी ने विश्वासपूर्ण ढंग से घोषणा की थी.

व्यवसाय से पिताजी का मन उचट गया था, उन्होंने फर्म बेच देने का प्रस्ताव रखा. ताऊजी भी इस के लिए राजी हो गए. गबन और बदनामी के कारण फर्म की जो आधीपौनी कीमत मिली, उसे ही स्वीकार कर लेना पड़ा.

पिताजी ने एक प्राइवेट कंपनी में नौकरी कर ली, जबकि ताऊजी का मन अभी तक व्यवसाय में ही रमा हुआ था. वे पिताजी के साथ कोई नया काम शुरू करना चाहते थे. किंतु उन के इनकार के बाद उन्होंने अकेले ही काम शुरू करने का निश्चय कर लिया.

फर्म के बिकने के बाद जो पैसा मिला, उस का एक हिस्सा पिताजी ने फूफाजी को भिजवा दिया. हालांकि यह बात ताऊजी को पसंद नहीं आई, मगर पिताजी का कहना था, ‘उस ने हमारे साथ जो कुछ किया, उस का हिस्सा ले कर वही कुछ हम उस के साथ करेंगे तो हम में और उस में अंतर कहां रहा. नहीं, ये पैसे मेरे लिए हराम हैं.’

किंतु लौटती डाक से वह ड्राफ्ट वापस आ गया था और साथ में थी, फूफाजी द्वारा लिखी एक छोटी सी चिट…

‘पैसे मैं वापस भेज रहा हूं इस आशा से कि आप इसे स्वीकार कर लेंगे. अब इस पैसे पर मेरा कोई अधिकार नहीं है. फर्म में जो कुछ भी हुआ, उस की नैतिक जिम्मेदारी से मैं मुक्त नहीं हो सकता. यदि इन पैसों से उस नुकसान की थोड़ी सी भी भरपाई हो जाए तो मुझे बेहद खुशी होगी. वक्त ने साथ दिया तो मैं पाईपाई चुका दूंगा, क्योंकि जो नुकसान हुआ है, वह आप का ही नहीं, मेरा, हम सब का हुआ है.’

पत्र पढ़ कर ताऊजी वितृष्णा से हंस पड़े थे और व्यंग्यात्मक स्वर में कहा था, ‘देखा रघुवीर, सुन लो मां, तुम्हारे दामाद ने कैसा आदर्श बघारा है. चोर कहीं का. आखिर उस ने सचाई स्वीकार कर ही ली. लेकिन अब भी अपनेआप को हरिश्चंद्र साबित करने से बाज नहीं आया.’

पिताजी इस घटना से और भी भड़क उठे थे. उन्होंने उसी दिन आंगन में सब के सामने कसम खाई थी कि ऐसे जीजा का वे जीवनभर मुंह नहीं देखेंगे. न ही ऐसे किसी व्यक्ति से कोई संबंध रखेंगे, जो उस शख्स से जुड़ा हुआ हो, फिर चाहे वह उन की बहन ही क्यों न हो.

बूआ न केवल फूफाजी से जुड़ी हुई थीं बल्कि वे उन का एकमात्र संबल थीं. उस के बाद वास्तव में ही पिताजी फूफाजी का मुंह न देख सके. वे यह भी भूल गए कि उन की कोई बहन भी है. उन्होंने कभी यह जानने की कोशिश नहीं की कि वे लोग कहां हैं, किस हालत में हैं.

इधर ताऊजी ने बिलकुल ही नए क्षेत्र में हाथ डाला और अपना एक पिं्रटिंग प्रैस खोल लिया. शुरू में एक साप्ताहिक पत्रिका का प्रकाशन आरंभ हुआ. बहुत समय तक ऐसे ही चला, किंतु धीरेधीरे पत्रिका का प्रचारप्रसार बढ़ने लगा. कुछ ही वर्षों में उन के प्रैस से 1 दैनिक, 2 मासिक और 1 साप्ताहिक पत्रिका का प्रकाशन होने लगा. ताऊजी की गिनती सफल प्रकाशकों में होने लगी. किंतु जैसेजैसे संपन्नता बढ़ी, वे खुद और उन का परिवार भौतिकवादी होता चला गया. जब उन्हें यह घर तंग और पुराना नजर आने लगा तो उन्होंने शहर में ही एक कोठी ले ली और सपरिवार वहां चले गए.

इस बीच बहुतकुछ बदल गया था. मैं और भैया जवान हो गए थे. मां, पिताजी ने बुढ़ापे की ओर एक कदम और बढ़ा दिया. दादी तो और वृद्ध हो गई थीं. सभी अपनीअपनी जिंदगी में इस तरह मसरूफ हो गए कि गुजरे सालों में किसी को बूआ की याद भी नहीं आई.

पिताजी ने बूआ से संबंध तोड़ लिया था, लेकिन दादी ने नहीं, इस वजह से पिताजी, दादी से नाराज रहते थे और शायद इसीलिए दादी भी बेटी के प्रति अपनी भावनाओं का खुल कर इजहार न कर सकती थीं. उन्हें हमेशा बेटे की नाराजगी का डर रहा. बावजूद इस के, उन्होंने बूआ से पत्रव्यवहार जारी रखा और बराबर उन की खोजखबर लेती रहीं. बूआ के पत्रों से ही दादी को समयसमय पर सारी बातों का पता चलता रहा.

फूफाजी ने अहमदाबाद जाने के बाद अपने मित्र के सहयोग से नया व्यापार शुरू कर दिया था. लेकिन काम ठीक से जम नहीं पाया. वे अकसर तनावग्रस्त और खोएखोए से रहते थे. बूआ ने एक बार लिखा था, ‘बदनामी का गम उन्हें भीतर ही भीतर खोखला किए जा रहा है. वे किसी भी तरह इस सदमे से उबर नहीं पा रहे. अकेले में बैठ कर जाने क्याक्या बड़बड़ाते रहते हैं. समझाने की बहुत कोशिश करती हूं, पर सब व्यर्थ.’

कुछ समय बाद बूआ ने लिखा था, ‘उन की हालत देख कर डर लगने लगा है. उन का किसी काम में मन नहीं लगता. व्यापार क्या ऐसे होता है. पर वे तो जैसे कुछ समझते ही नहीं. मुझ से और बच्चोें से भी अब बहुत कम बोलते हैं.’

बूआ को भाइयों से एक ही शिकायत थी कि उन्होंने मामले की गहराई में गए बिना बहुत जल्दी निष्कर्ष निकाल लिया था. यदि ईमानदारी से सचाई जानने की कोशिश की गई होती तो ऐसा न होता और न वे (फूफाजी) इस तरह टूटते.

बूआ के दर्दभरे पत्र दादी के मर्म पर कहीं भीतर तक चोट कर जाते थे. मन की घनीभूत पीड़ा जबतब आंसू बन कर बहने लगती थी. कई बार मैं ने स्वयं दादी के आंसू पोंछे. मैं समझ नहीं पाती कि वे इस तरह क्यों घुटती रहती हैं, क्यों नहीं बूआ के लिए कुछ करतीं? यदि फूफाजी निर्दोष हैं तो उन्हें किसी से भी डरने की क्या आवश्यकता है?

लेकिन मेरी अल्पबुद्धि इन प्रश्नों का उत्तर नहीं ढूंढ़ पाती थी. बूआ के पत्र बदस्तूर आते रहते. उन्हीं के पत्रों से पता चला कि फूफाजी का स्वास्थ ठीक नहीं चल रहा. वे अकसर बीमार रहे और एक दिन उसी हालत में चल बसे.

फूफाजी क्या गए, बूआ की तो दुनिया ही उजड़ गई. दादी अपने को रोक नहीं पाईं और उन दुखद क्षणों में बेटी के आंसू पोंछने उन के पास जा पहुंचीं. जाने से पूर्व उन्होंने पिताजी से पहली बार कहा था, ‘जिसे तू अपना बैरी समझता था वह तो चला गया. अब तू क्यों अड़ा बैठा है. चल कर बहन को सांत्वना दे.’

मगर पिताजी जैसे एकदम कठोर और हृदयहीन हो गए थे. उन पर दादी की बातों का कोई प्रभाव न पड़ा. दादी क्रोधित हो उठीं. और उस दिन पहली बार पिताजी को खूब धिक्कारा था. इस के बाद दादी को ताऊजी से कुछ कहने का साहस ही नहीं हुआ था.

बूआ ने भाइयों के न आने पर कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की. उन्होंने सारे दुख को पी कर स्वयं को कठोर बना लिया था. पति की मौत पर न वे रोईं, न चिल्लाईं, बल्कि वृद्ध ससुर और बच्चों को धीरज बंधाती रहीं और उन्हीं के सहयोग से सारे काम निबटाए. बूआ का यह अदम्य धैर्य देख कर दादी भी चकित रह गई थीं, साथ ही खुश भी हुईं. फूफाजी की भांति यदि बूआ भी टूट जातीं तो वृद्ध ससुर और मासूम बच्चों का क्या होता?

फूफाजी के न रहने के बाद अकेली बूआ के लिए इतने बड़े शहर में रहना और बचेखुचे काम को संभालना संभव न था. सो, उन्होंने व्यवसाय को पति के मित्र के हवाले किया और स्वयं बच्चों को ले कर ससुर के साथ गांव चली गईं, जहां अपना पैतृक मकान था और थोड़ी खेतीबाड़ी भी.

बूआ को पहली बार मैं ने तब देखा था जब वे 3 वर्ष पूर्व ताऊजी के निधन का समाचार पा कर आई थीं, हालांकि उन्हें बुलाया किसी ने नहीं था. ताऊजी एक सड़क दुर्घटना में अचानक चल बसे थे. विदेश में पढ़ रहे उन के बड़े बेटे ने भारत आ कर सारा कामकाज संभाल लिया था.

दूसरी बार बूआ तब आईं जब पिछले साल समीर भैया की शादी हुई थी. पहली बार तो मौका गमी का था, लेकिन इस बार खुशी के मौके पर भी किसी को बूआ को बुलाना याद नहीं रहा, लेकिन वे फिर भी आईं. पिताजी को बूआ का आना अच्छा नहीं लगा था. दादी सारा समय इस बात को ले कर डरती रहीं कि बूआ की घोर उपेक्षा तो हो ही रही है, कहीं पिताजी उन का अपमान न कर दें. लेकिन जाने क्या सोच कर वे मौन ही रहे.

पिताजी का रवैया मुझे बेहद खला था. बूआ कितनी स्नेहशील और उदार थीं. भाई द्वारा इतनी अपमानित, तिरस्कृत हो कर क्या कोई बहन दोबारा उस के पास आती, वह भी बिन बुलाए. यह तो बूआ की महानता थी कि इतना सब सहने के बाद भी उन्होंने भाई के लिए दिल में कुछ नहीं रखा था.

चलो, मान लिया कि फूफाजी ने पिताजी के साथ विश्वासघात किया था और उन्हें गहरी चोट पहुंची थी, लेकिन उस के बाद स्वयं फूफाजी ने जो तकलीफें उठाईं और उन के बाद बूआ और बच्चों को जो कष्ट झेलने पड़े, वे क्या किसी भयंकर सजा से कम थे. यह पिताजी की महानता होती यदि वे उन्हें माफ कर के अपना लेते.

अब जबकि बूआ ने बेटी की शादी पर कितनी उम्मीदों से बुलाया है, तो पिताजी का मन अब भी नहीं पसीज रहा. क्या नफरत की आग इंसान की तमाम संवेदनाओं को जला देती है?

दादी ने उस के बाद पिताजी को बहुतेरा समझाने व मनाने की कोशिशें कीं. मगर नतीजा वही ढाक के तीन पात. विवाह का दिन जैसेजैसे करीब आता जा रहा था, दादी की चिंता और मेरी बेचैनी बढ़ती जा रही थी.

ऐसे में ही दादी के नाम बूआ का एक पत्र आ गया. उन्होंने भावपूर्ण शब्दों में लिखा था, ‘अगले हफ्ते तान्या की शादी है. लेकिन भैया नहीं आए, न ही उन्होंने या तुम ने ऐसा कोई संकेत दिया है, जिस से मैं निश्चिंत हो जाऊं. मैं जानती हूं कि तुम ने भैया को मनाने में कोई कसर नहीं रख छोड़ी होगी, मगर शायद इस बार भी हमेशा की तरह मेरी झोली में भैया की नफरत ही आई है.

‘मां, मैं भैया के स्वभाव से खूब परिचित हूं. जानती हूं कि कोई उन के फैसले को नहीं बदल सकता. पर मां, मैं भी उन की ही बहन हूं. अपने फैसले पर दृढ़ रहना मुझे भी आता है. मैं ने फैसला किया है कि तान्या का कन्यादान भैया के हाथों से होगा. बात केवल परंपरा के निर्वाह की नहीं है बल्कि एक बहन के प्यार और भांजी के अधिकार की है. मैं अपना फैसला बदल नहीं सकती. यदि भैया नहीं आए तो तान्या की शादी रुक जाएगी, टूट भी जाए तो कोई बात नहीं.’

पत्र पढ़ कर दादी एकदम खामोश हो गईं. मेरा तो दिमाग ही घूम गया. यह बूआ ने कैसा फैसला कर डाला? क्या उन्हें तान्या दीदी के भविष्य की कोई चिंता नहीं? मेरा मन तरहतरह की आशंकाओं से घिरने लगा.

आखिर में दादी से पूछ ही बैठी, ‘‘अब क्या होगा, बूआ को ऐसा करने की क्या जरूरत थी.’’

‘‘तू नहीं समझेगी, यह एक बहन के हृदय से निकली करुण पुकार है,’’ दादी द्रवित हो उठीं, ‘‘माधवी आज तक चुपचाप भाइयों की नफरत सहती रही, उन के खिलाफ मुंह से एक शब्द भी नहीं निकाला. आज पहली बार उस ने भाई से कुछ मांगा है. जाने कितने वर्षों बाद उस के जीवन में वह क्षण आया है, जब वह सब की तरह मुसकराना चाहती है. मगर तेरा बाप उस के होंठों की यह मुसकान भी छीन लेना चाहता है. पर ऐसा नहीं होगा, कभी नहीं,’’ उन का स्वर कठोर होता चला गया.

दादी की बातों ने मुझे अचंभे में डाल दिया. मुझे लगा उन्होंने कोई फैसला कर लिया है. किंतु उन की गंभीर मुखमुद्रा देख कर मैं कुछ पूछने का साहस न कर सकी. पर ऐसा लग रहा था कि अब कुछ ऐसा घटित होने वाला है, जिस की किसी को कल्पना तक नहीं.

शाम को पिताजी घर आए तो दादी ने बूआ का पत्र ला कर उन के सामने रख दिया. पिताजी ने एक निगाह डाल कर मुंह फेर लिया तो दादी ने डांट कर कहा, ‘‘पूरा पत्र पढ़, रघुवीर.’’

पिताजी चौंक से गए. मैं कमरे के दरवाजे से सटी भीतर झांक रही थी कि पता नहीं क्या होने वाला है.

पिताजी ने सरसरी तौर पर पत्र पढ़ा और बोले, ‘‘तो मैं क्या करूं?’’

‘‘तुम्हें क्या करना चाहिए, इतना भी नहीं जानते,’’ दादी के स्वर ने सब को चौंका दिया था. मां रसोई का काम छोड़ कर कमरे में चली आईं.

‘‘मां, मैं तुम से पहले भी कह चुका हूं.’’

‘‘कि तू वहां नहीं जाएगा,’’ दादी ने व्यंग्यभरे, कटु स्वर में कहा, ‘‘चाहे तान्या की शादी हो, न हो…वाह बेटे.’’

क्षणिक मौन के बाद वे फिर बोलीं, ‘‘लेकिन मैं ऐसा नहीं होने दूंगी. मैं आज तक तेरी हठधर्मिता को चुपचाप सहती रही. तुम दोनों भाइयों के कारण माधवी का तो जीवन बरबाद हो ही गया, पर मैं तान्या का जीवन नष्ट नहीं होने दूंगी.’’

दादी का स्वर भर्रा गया, ‘‘तेरी जिद ने आज मुझे वह सब कहने पर मजबूर कर दिया है, जिसे मैं नहीं कहना चाहती थी. मैं ने कभी सोचा भी नहीं था कि जिस बेटे के जीतेजी उस के अपराध पर परदा डाले रही, आज उस के न रहने के बाद उस के बारे में यह सब कहना पड़ेगा. पर मैं और चुप नहीं रहूंगी. मेरी चुप्पी ने हर बार मुझे छला है.

‘‘सुन रहा है रघुवीर, फर्म में गबन धीरेंद्र ने नहीं बल्कि तेरे सगे भाई ने किया था.’’

मैं सकते में आ गई. पिताजी फटीफटी आंखों से दादी की तरफ देख रहे थे, ‘‘नहीं, नहीं, मां, यह नहीं हो सकता.’’

दादी गंभीर स्वर में बोलीं, ‘‘लेकिन सच यही है, बेटा. क्या मैं तुझ से झूठ बोलूंगी? क्या कोई मां अपने मृत बेटे पर इस तरह का झूठा लांछन लगा सकती है? बोल, जवाब दे?’’

‘‘नहीं मां, नहीं,’’ पिताजी का समूचा शरीर थरथरा उठा. उन की मुट्ठियां कस गईं, जबड़े भिंच गए और होंठों से एक गुर्राहट सी खारिज हुई, ‘‘इतना बड़ा विश्वासघात…’’

फिर सहसा उन्होंने चौंक कर दादी से पूछा, ‘‘यह सब तुम्हें कैसे पता चला, मां?’’

‘‘शायद मैं भी तुम्हारी तरह अंधेरे में रहती और झूठ को सच मान बैठती. लेकिन मुझे शुरू से ही सचाई का पता चल गया था. हुआ यों कि एक दिन मैं ने सुधीर और बड़ी बहू की कुछ ऐसी बातें सुन लीं, जिन से मुझे शक हुआ. बाद में एकांत में मैं ने सुधीर को धमकाते हुए पूछा तो उस ने सब सचसच बता दिया.’’

‘‘तो तुम ने मुझे यह बात पहले क्यों नहीं बताई?’’ पिताजी ने तड़प कर पूछा.

‘‘कैसे बताती, बेटा, मैं जानती थी कि सचाई सामने आने के बाद तुम दोनों भाई एकदूसरे के दुश्मन बन जाओगे. मैं अपने जीतेजी इस बात को कैसे बरदाश्त कर सकती थी. मगर दूसरी तरफ मैं यह भी नहीं चाहती थी कि बेकुसूर दामाद को अपराधी कहा जाए और तुम सभी उस से नफरत करो. किंतु दोनों ही बातें नहीं हो सकती थीं. मुझे एक का परित्याग करना ही था.

‘‘मैं ने बहुत बार कोशिश की कि सचाई कह दूं. पर हर बार मेरी जबान लड़खड़ा गई, मैं कुछ नहीं कह पाई और तभी से अपने सीने पर एक भारी बोझ लिए जी रही हूं. बेटी की बरबादी की असली जिम्मेदार मैं ही हूं,’’ कहतेकहते दादी की आंखों से झरझर आंसू बहने लगे.

‘‘मां, यह तुम ने अच्छा नहीं किया. तुम्हारी खामोशी ने बहुत बड़ा अनर्थ कर दिया,’’ पिताजी दोनों हाथों से सिर थाम कर धड़ाम से बिस्तर पर गिर गए. मां और मैं घबरा कर उन की ओर लपकीं.

पिताजी रो पड़े, ‘‘अब तक मैं क्या करता रहा. अपनी बहन के साथ कैसा अन्याय करता रहा. मैं गुनाहगार हूं, हत्यारा हूं. मैं ने अपनी बहन का सुहाग उजाड़ दिया, उसे घर से बेघर कर डाला. मैं अपनेआप को कभी क्षमा नहीं कर पाऊंगा.’’

पिताजी का आर्तनाद सुन कर मां और मेरे लिए आंसुओं को रोक पाना कठिन हो गया. हम तीनों ही रो पड़े.

दादी ही हमें समझाती रहीं, सांत्वना देती रहीं, विशेषकर पिताजी को. कुछ देर बाद जब आंसुओं का सैलाब थमा तो दादी ने पिताजी को समझाते हुए कहा, ‘‘नहीं, बेटा, इस तरह अपनेआप को दोषी मान कर सजा मत दे. दोष किसी एक का नहीं, हम सब का है. वह वक्त ही कुछ ऐसा था, हम सब परिस्थितियों के शिकार हो गए. लेकिन अब समय अपनी गलतियों पर रोने का नहीं बल्कि उन्हें सुधारने का है. बेटा, अभी भी बहुतकुछ ऐसा है, जो तू संवार सकता है.’’

दादी की बातों ने पिताजी के संतप्त मन को ऐसा संबल प्रदान किया कि वे उठ खड़े हुए और एकदम से पूछा, ‘‘समीर कहां है?’’

समीर भैया उसी समय बाहर से लौटे थे, ‘‘जी, पिताजी.’’

‘‘तुम जाओ और इसी समय कानपुर जाने वाली ट्रेन के टिकट ले कर आओ, पर सुनो, ट्रेन को छोड़ो… मालूम नहीं, कब छूटती होगी. तुम एक टैक्सी बुक करा लो और ज्योत्सना, माया तुम दोनों जल्दी से सामान बांध लो. मां, हम लोग इसी समय दीदी के पास चल रहे हैं,’’ पिताजी ने एक ही सांस में हस सब को आदेश दे डाला.

फिर वे शिथिल से हो गए और कातर नजरों से दादी की तरफ देखा, ‘‘मां, दीदी मुझे माफ कर देंगी?’’ स्वर में जाने कैसा भय छिपा हुआ था.

‘‘हां, बेटा, उस का मन बहुत बड़ा है. वह न केवल तुम्हें माफ कर देगी, बल्कि तुम्हारी वही नन्हीमुन्नी बहन बन जाएगी,’’ दादी धीरे से कह उठीं.

अंतत: भाईबहन के बीच वर्षों से खड़ी नफरत और गलतफहमी की दीवार गिर ही गई. मैं खड़ी हुई सोच रही थी कि वह दृश्य कितना सुखद होगा, जब पिताजी बूआ को गले से लगाएंगे.

तलाक के बाद : आखिर अनिता से अरविंद क्या चाहता था ?

उस दिन इतवार था. अनीता अपने बालों में रम्मो से तेल लगता रही थी. बालों की जड़ों को 3-4 घंटे तेल मिल जाए, यही बहुत होता है. उस ने सोचा, दोपहर के भोजन से पहले नहाधो कर बाल सुखा लेगी. जब से ग्रेटर कैलाश, नई दिल्ली की इस नुक्कड़ की कोठी की रसोई वाली बरसाती किराए पर ली थी, तब से घर में कुछ शांति सी आ गई थी और घर का सा आराम मिला था. पुरानी दिल्ली के सदर बाजार में भले ही किराया यहां से आधा था पर हर समय की रोकटोक से अनीता परेशान रहती थी. इतनी पूछताछ तो घर पर मां भी नहीं करती थीं, जितनी वहां मकानमालकिन किया करती थी. हर समय की इसी पूछताछ से तंग आ कर उस ने वह मकान छोड़ा था.

अनीता का जब से अरविंद से तलाक हुआ था, तब से मां बराबर इसी सोच में रहती थीं कि जवान बेटी का अब क्या बनेगा. अगर अनीता कोई छुईमुई तो थी नहीं. स्वाभिमान खो कर पति के हाथों की कठपुतली बने रहना उसे कतई पसंद नहीं था, अपने बलबूते पर ही उस ने तलाक ले लिया था. एक बार तो अरविंद भी उस की हिम्मत का लोहा मान गया था. फिर भला ऐसी युवती को नौकरी की क्या कमी.

यह सच था कि पतिपत्नी के बीच की दरार को अरविंद की मां अपने होते हुए कभी भरने की सहिष्णुता नहीं कर सकती थीं. कचहरी में भी तारीख पर बेटे के साथ सुनहरे फ्रेम का चश्मा लगाए स्वयं हाजिर हो जाती थीं. उन का यह दबदबा ही अनीता को खलता था और उधर उन्हें अपनी हुक्मउदूली करती बहू बेहद अनुशासनविहीन लगती थी. ऐसी बहू को अपने अनुशासित बेटे के साथ देखना वे हरगिज

बरदाश्त नहीं करती थीं. उन्हें धुन सवार थी कि वे अपने इकलौते बेटे का अपनी मनपसंद की लड़की से दोबारा विवाह करेंगी. एक बार वे बेटे की पसंद देख चुकी थीं. तब अनीता के बच्ची भी नहीं हुई थी.

उस के बाद फोन पर वह कभी बात भी करता तो हांहूं कर के बंद कर देता. सिर्फ उसे वहीं जाना है या वह किसी के साथ रेस्तरां में है. मैसेजों का जवाब देना बंद कर दिया था.

5-6 रोज के लिए मां के पास आई अनीता को जिस लापरवाही से अरविंद ने छोड़ा, वह अनीता के साथसाथ उस के पिता को भी बेहद अखरा था. कई हफ्ते बीत जाने पर मां ने अनीता को सम?ाया, ‘‘अरविंद लेने नहीं आया तो तू स्वयं भाई के साथ चली जा. तेरा पांव भी भारी है. ऐसी स्थिति में पति से इस तरह नाराज हो कर मायके में रह जाना ठीक नहीं है.’’

मगर आत्माभिमानी अनीता मां के बहुत सम?ाने पर भी नहीं गईर्, दिल्ली प्रशासन के कार्यालय में उस ने शादी से पहले नौकरी कर रखी थी. वहीं तो किसी काम से आता था अरविंद. उधर रोजरोज मां व भैया की नसीहतों से तंग आ कर वह इस रस्मों का सहारा मिलते ही दिल्ली के शाहपुर में एक कमरा व रसोई किराए पर ले कर रहने लगी थी. उन्हीं दिनों अरविंद ने मां के दबाव में आ कर अदालत में तलाक की अर्जी दे दी थी और अनीता के विरोध न करने पर उसे सहज ही तलाक मिल गया था. बेटी के लिए उसे हर माह 15000 रुपए मिलते थे जो उस समय ठीकठाक लगे थे.

सदर बाजार में वह घर बड़ा तो बहुत था पर वहां चारों तरफ परिवार मधुमक्खी के छत्ते की तरह बसे हुए थे और वे एकएक के खानपान, पहनावे, बनावशृंगार, आनेजाने वाला स्त्री है या पुरुष, रिश्तेदार हैं या मित्र, सब की खबर रखते थे.

एक बार हद से ज्यादा टोकना अनीता को अखर गया था. यह तब की बात है जब हरबंस उस के पास आ कर ठहरा था. गरमी के दिन थे. वह इंटरव्यू के सिलसिले में दिल्ली आया था. उस के पति के अच्छे मित्रों में हरबंस भी एक था. पतिपत्नी का अलगाव हो गया तो क्या, उस के प्रशंसक उस से अभी भी वैसी ही आत्मीयता बनाए हुए थे. हरबंस इन दिनों वाराणसी में था और किसी कंपनी में इंटरव्यू देने दिल्ली आया हुआ था. रात 11 बजे वह अनीता के मकान पर पहुंचा तो हवेली आधी से ज्यादा अंधकार में डूबी हुईर् थी. अनीता के कमरे के आगे खूब बड़ी छत थी और खुली हवा. अनीता ने हरबंस की खूब आवभगत की और अपने कमरे में उस के सोने की व्यवस्था कर स्वयं मौम के कमरे के फर्श पर बिस्तर लगा कर सो गई थी.

सुबह सूरज को जल देने के बहाने रोज आने वाली मकानमालकिन अनीता के कमरे के बाहर मरदाने जूते देख कर ठिठक गई. उस ने दरवाजा खोल कर देख लिया. चादर तान कर सोया वह 6 फुटा मरदाना शरीर उसे अचंभे और संशय में डाल गया. वह अरविंद तो नहीं था क्योंकि अरविंद होता तो अनीता भी साथ होती. वह सीधी अनीता की मौम के कमरे में जा पहुंची जो अभीअभी उठी थी. अनीता को देख उसे कुछ तो संतोष हुआ कि कोई ऐसीवैसी बात नहीं है क्योंकि किराएदारनी मां के कमरे में सो रही थी पर फिर भी उस ने पूछ लिया, ‘‘यह बाहर कौन सो रहा है?’’

‘‘मेरे पति के मित्र हैं, वाराणसी से रात को ही आए हैं.’’

‘‘पति के मित्र हैं तो पर यहां क्यों आए हैं?’’

‘‘इंटरव्यू देने दिल्ली आए थे तो यहां मेरे पास ठर गए हैं.’’

‘‘पर जब तुम्हारा अपने पति से तलाक हो गया है तो उस के मित्र तुम्हारे पास क्यों आते हैं?’’ उस का पूछने का लहजा अखरने वाला था.

एक बार तो अनीता के मन में आया कि फटकार दे पर मेहमान के सामने चुप लगा गई. शायद हरबंस भी जाग गया था. वह उठ कर जिस अंदाज से अंगड़ाई ले रहा था उसे देख कर लगता था कि  उस ने सब सुन लिया है.

नाश्तेपानी के बाद जाते समय वह बोला, ‘‘भाभी, आप ने भी दफ्तर जाना होगा, मैं इंटरव्यू दे कर उधर से ही चला जाऊंगा, इसलिए ब्रीफकेस भी साथ ही ले जाऊंगा.’’

अनीता ने उसे रोकना चाहा. मन के किसी कोने में पति का हालचाल जानने की भावना कुलबुला रही थी पर वह वक्त की नजाकत देख कर चुप लगा गई. उस दिन उसे मकानमालकिन पर बेहद गुस्सा आया था. उस के बाद उस ने मां का घर छोड़ कर शाहपुर जाट में कमरा ले लिया. यहां बहुत चहलपहल रहती थी. इसलिए मन लगा रहता था.

ठंड बढ़ती जा रही थी. अक्तूबर खत्म हो रहा था. पेड़ों से पत्ते ?ार?ार कर सड़कों और बगीचों में फड़फड़ करते उड़ रहे थे. मेन रोड के बस स्टैंड पर खड़े 10-15 मिनट ही गुजरे होंगे कि मूंगफली का पैकेट उस की तरफ बढ़ाता हुआ ‘हैलो’ कह कर कोई उस के पास कब खड़ा हो गया, उसे पता भी नहीं चला. अचानक जब उस की हथेली से मूंगफली का लिफाफा छूआ तो वह चौंक गई. सहसा एक खनकती हुई हंसी के साथ आवाज आई, ‘‘बस का इंतजार हो रहा है?’’

‘‘और क्या.’’

‘‘हाय, इंतजार भी क्या बुरी चीज है?’’

दोहरे अर्थ वाले वाक्यों को अनीता खूब सम?ाती है. चाहे वह तलाकशुदा थी पर अपनी गरिमा को उस ने खोया नहीं था. किसी की क्या मजाल थी कि उस से गलत मजाक कर सके. इतने में महिलाओं की विशेष बस आई और वह उसे औपचारिक ‘ओके’ कहती बस पकड़ने को लपकी. वह जिस अदा से उसे विदाई दे रहा था, उसे उस ने देखा तक नहीं.

यह कोई नईर् बात नहीं थी. रोज ही दफ्तर में अनीता को ऐसी हरकतों को देख कर नजरअंदाज कर देना पड़ता था. उस दिन वह घर पहुंची तो थकान से उस की देह टूटी जा रही थी. रम्मो बच्ची को खिला रही थी और वह किलकारियां मार कर हंस रही थी. बच्ची को हंसते देख उस की थकान पलभर में रफूचक्कर हो गई.

तभी उस का मोबाइल खनखना उठा. अरविंद का फोन था जो अब बहुत कम उसे फोन करता था. उस ने ये शब्द बोल कर फोन काट दिया, ‘‘मौम का देहांत हो गया है.’’

उस के पति ने उसे सास की मृत्यु की सूचना दी. अब उसे रोतेबिसूरते पति के घर जाना है. वह सम?ा नहीं पाई कि अब उसे क्या करना चाहिए. ऐक्स पति के घर शोक में सम्मिलित हो या मैसेज कर दे. फिर दफ्तर में सहकर्मी उषा से सलाह लेने के लिए बात की.

उषा से बात हुई. फोन आया है, यह जान कर उषा को आश्चर्य भी हुआ और भविष्य की सुखद भूमिका का पूर्वाभास भी. उस ने अनीता को सु?ाया, ‘‘अभी चुप ही रहो, तलाक हो चुका है. ऐसी स्थिति में तुम्हारा वहां जाने का कोई हक नहीं बनता.’’

कई दिन बीत गए. अनीता फिर व्यस्त हो गई. फोन आने की बात को वह भूल भी गई. बच्ची के दांत निकल रहे थे. वह बेहद चिड़चिड़ी हो गईर् थी और दस्त व उलटियां भी खूब कर रही थी. बच्ची की देखभाल में ही उस का सारा समय निकल जाता. सुबह से रात तक की दिनचर्या में कहीं एक घड़ी की भी फुरसत नहीं थी.

उधर अरविंद को कौफीहाउस में कई महीने बाद उस का पुराना सहपाठी सुनील मिल गया. हाथ मिला कर औपचारिक कुशलक्षेम के बाद अरविंद ने सुनील से हंस कर पूछा, ‘‘कहो सुनील, नई पत्नी के साथ कैसी गुजर रही है?’’

सुनीता ने भी उसी की तरह तलाक लिया था पर अब उस ने दोबारा शादी कर ली थी. उस की मां की भी डैथ हो गईर् थी.

वह उदास हो कर बोला, ‘‘क्या बताऊं यार बस जिंदगी काट रहे हैं.’’

अरविंद हैरान हुआ, ‘‘क्यों, अब क्या बात है? अब की बार तो सब सोचविचार कर, सब की पसंद से ही विवाह हुआ था?’’

‘‘जो स्थिति पहले थी, वही अब भी है.

सच अरविंद तलाक ले कर बड़ी गलती की. जगहंसाई भी हुई और सुनीता को एक दिन भी भूल नहीं पाया हूं. पहले जिन बातों को देख

कर गुस्सा आता था, आज भी वही बातें होती हैं पर न गुस्सा आता है, न घर में कलह होती है. कुछ था, जो सुनीता के साथ ही चला गया. यह सोच कर खुद को माफ नहीं कर पाता कि सुनीता अभी भी अकेली रहती है, अब मौम भी नहीं है कि हल्ला कर सकूं. तेरी नई भाभी की त्योरियां चढ़ी रहती हैं. तलाकशुदा से शादी कर के एहसान किया है न उस ने,’’ कहतेकहते वह बेहद उदास हो गया.

यह सब सुन कर अरविंद को दुख तो हुआ पर कहीं मन में संतोष भी हुआ. वह दूसरी बार गलती करने से अभी बचा हुआ था. इस हद तक त्रस्त नहीं था. चलते हुए सुनील बोला, ‘‘तलाक के बाद संबंध तो टूट जाते हैं पर स्मृतियां नहीं टूटतीं, एहसास नहीं टूटते.’’

स्वयं अरविंद के पास उस के लिए सहानुभूति के चार शब्द भी नहीं थे. वह चुपचाप उस का हाथ सहलाता रहा. मां के बाद अरविंद नितांत अकेला रह गया था. मगर इतना क्षुब्ध नहीं था.

शनिवार की शाम को अनीता दफ्तर से घर पहुंची तो देखा कमरे में कोई पुरुष आकृति दिखी. रम्मो बच्ची को लिए बाहर छत पर घूम रही थी. अनीता ने नजदीक आतेआते पहचानने की कोशिश करते हुए रम्मो से पूछा, ‘‘घर में कौन बैठा है?’’

‘‘पता नहीं दीदीजी थोड़ी देर पहले ही आए हैं, चाय को पूछा तो कहने लगे, ‘‘मेमसाहब के साथ ही पीएंगे.’’

‘‘अच्छा, वीजू सो गई क्या?’’ उस ने बेटी को दुलारते हुए पूछा.

‘‘बस सोने को ही है.’’

अनीता ने कमरे में कदम रखा, आंखें चार होते ही उस के शरीर में एक अजीब सी सिहरन दौड़ गई. उस के मुंह से केवल इतना ही निकला, ‘‘आप?’’

‘‘हां, कैसी हो?’’

‘‘ठीक हूं, आप कैसे हैं?’’ धड़कन संयत नहीं हो पा रही थी.

‘‘देखने चला आया.’’

वह एकटक अरविंद को देखती रही. एक बार तो दिल में आया कह दे, बड़ी ममता उमड़ आई इतने दिनों बाद. तलाक ले कर भी? पर वह चुप रही.

‘‘अम्मां नहीं रहीं.’’

‘‘हां, बात तो हुई थी.’’

‘‘एक बार भी नहीं सोचा कि मृत्यु पर तो…’’

‘‘जी नहीं, तलाक के बाद किसी स्त्री

का अपने पूर्व पति से संबंध ही क्या रह जाता है,’’ उस ने एक ?ाटके में सब शिकायतें तोड़ दीं.

अरविंद उठापटक करती अपनी तलाकशुदा पत्नी को देखता रहा. अनीता अब भी वैसी ही लग रही थी जैसे ढाई वर्ष पूर्व थी. अरविंद को कहीं भी, कुछ भी बदलाव महसूस नहीं हो रहा था. ‘फिर, यह सब क्या हुआ? क्या अदालत से तलाक मिल जाने से ही सब संबंध टूट जाते है?’ सहसा उस की विचार शृंखला अनीता के लीजिए शब्द ने तोड़ दी. वह अपने हाथ में चाय का कप लिए खड़ी थी.

वे दोनों चाय पीने लगे. रम्मो सोती हुई बच्ची को कंधे से लगाए थपथपाती हुई कमरे में चली आई. अनीता ने इशारे से पूछा, ‘‘सो गई?’’

रम्मो ने ‘जी’ कहा और फिर उस ने बच्ची को पलंग पर सुला दिया.

सोती हुईर् बच्ची को अरविंद एकटक देखता रहा. वह उसे लगातार देख रहा था और अनीता अरविंद को देख रही थी.

सूरज छिप गया था, फिर भी आकाश अभी तक लाल था. फिर वह लाली धीरेधीरे कालिमा में बदलने लगी. अनीता खाना बनाने में व्यस्त हो गई. खाना बनते ही रम्मो ने अरविंद के आगे गोल मेज रख दी. प्लेट में परोसे व्यंजन देख कर अरविंद मुसकाए बिना नहीं रह सका. सब उस के मनपसंद व्यंजन थे.

रात हुई, बिस्तर लग गए. अनीता ने अपना पलंग अरविंद के लिए लगा दिया और स्वयं जमीन पर बिस्तर लगा कर लेट गई.

अरविंद ने बहुत मनुहार की, ‘‘मैं नीचे सो जाता हूं, तुम बच्ची को ले कर ऊपर पलंग पर सो जाओ. मगर वह नहीं मानी.’’

आखिर वह करीब आ कर बोला, ‘‘मानोगी नहीं, बहुत जिद्दी हो तुम.’’

पर अनीता कुछ नहीं बोली. रात गए तक अरविंद सब नातेरिश्तेदारों का हालचाल पूछता

रहा और वह दो टूट शब्दों में जवाब देती रही. कानून की दृष्टि से वे दोनों अब पतिपत्नी नहीं थे, पर दोनों में एकदूसरे के प्रति आत्मीयता जरूर थी. बहुत रात हो गई थी. अनीता ने जम्हाई लेते हुए कहा, ‘‘अब सो जाइए, क्या सुबह उठना नहीं है.’’

अरविंद को लगा जैसे कहीं कुछ नहीं बदला, सब ढाई साल पहले जैसा ही है. वह अनीता को देख कर मुसकराया. फिर हाथ से उसे छूने की कोशिश करते हुए बोला, ‘‘नीते.’’

मगर अनीता करवट बदल कर लेट गई. दोनों की आंखों में नींद नहीं थी, भविष्य एक प्रश्नचिह्न सा बन उन के सामने मुंह बाए खड़ा था. रात की निस्तब्धता में उनींदी अनीता की आंख अचानक अरविंद की सिसकियों से खुली. वह उठ बैठी.

करवट ले कर लेटा हुआ अरविंद तकिए में मुंह छिपाए रो रहा था. वह पलंग पर बैठ गई, ‘‘सुनिए…’’

‘‘नीते.’’

‘‘हां,’’ उस ने अधीरता से पूछा.

‘‘मु?ो सुबह जाना है. तुम साथ चलोगी?’’

‘‘मैं… मैं कैसे जा सकती हूं?’’

‘‘क्यों?’’

‘‘क्यों क्या? तलाक के बाद भी क्या सार्वजनिक रूप से साथ रहा जा सकता है?’’

‘‘देखो, ये बातें रहने दो.’’

‘‘इतना ही था तो पहले सोचना था.’’

‘‘सोचा बहुत था, पर तुम्हारे और मां के बीच में घुन सा पिसा जा रहा था. सचमुच तुम्हारे बिना ये दिन मैं ने कैसे…’’ वह आगे रुंध आए कंठ के कारण बोल नहीं सका.

हलके हो कर अरविंद ने पूछा, ‘‘बोलो.’’

‘‘क्या बोलूं?’’ कह कर अनीता अरविंद के सीने से लग कर रोने लगी.

Raksha Bandhan 2024 : इंसाफ- नंदिता ने कैसे निभाया बहन का फर्ज

नंदिता ने सपने में भी नहीं सोचा था कि जिस छोटे भाई को पढ़ा- लिखा कर उस ने अफसर की कुरसी तक पहुंचाया है, एक अच्छे परिवार में शादी करवा कर जिस की गृहस्थी बसाई है वही भाई उस के साथ ऐसा बरताव करेगा. उस ने नया फ्लैट खरीदने के लिए डेढ़ लाख रुपए देने से इनकार ही तो किया था. उस ने तब उस को समझाया भी था कि हमारा यह पुश्तैनी मकान है. अच्छे इलाके में है. 2 परिवार आराम से रह सकें, इतनी जगह इस में है.

तब नवीन ने बड़ी बहन के प्रति आदरभाव को तारतार करते हुए कह डाला, ‘दीदी, मां और बाबूजी के साथ ही इस पुराने मकान की रौनक भी चली गई है. अब यह पलस्तर उखड़ा मकान हमें काटने को दौड़ता है. मोनिका तो यहां एक दिन भी रहना नहीं चाहती. मायके में वह शानदार मकान में रहती थी. कहती है कि इस खंडहर में रहना पड़ेगा, उस को यह शादी के पहले मालूम होता तो वह मुझ से शादी भी नहीं करती. वह सोतेजागते नया फ्लैट खरीदने की रट लगाए रहती है. आखिर, मैं उस के तकाजे को कब तक अनसुना करूं.’

नंदिता ने बहुतेरा समझाया था कि छोटी बहन नमिता की शादी महीने दो महीने में करनी है. अगर जमापूंजी फ्लैट खरीदने में निकल गई तो उस की शादी के लिए पैसे कहां से आएंगे. उस का तो जी.पी.एफ. अकाउंट भी खाली हो चुका है.

नवीन उस दिन बहुत उखड़ा हुआ था. आव देखा न ताव, बोल पड़ा, ‘यह आप की चिंता है, दीदी. मैं इस पचड़े में नहीं पड़ना चाहता. नमिता की शादी करना आप की जिम्मेदारी है. उस को आप कैसे निभाएंगी, आप जानें.’

नंदिता आश्चर्य से छोटे भाई का मुंह देखने लगी. नवीन इस तरह की बातें कहेगा, उस ने तो सपने में भी नहीं सोचा था. वह भी बिफर उठी थी, ‘तुम नमिता के बड़े भाई हो, इस परिवार के एकमात्र पुरुष. इस तरह अपनी जिम्मेदारी से पिंड कैसे छुड़ा सकते हो तुम.’

‘देखो, दीदी, अब मैं कोई दूधपीता बच्चा नहीं हूं. सच बात तो यह है कि जिम्मेदारी जिस को सौंपी जाती है वही उस को निभाने के लिए पाबंद होता है. आप परिवार में सब से बड़ी हैं,’ नवीन ने आज अपने मन की सारी भड़ास निकालने का फैसला ही कर लिया था. बोला, ‘बाबूजी ने अंतिम समय हम लोगों की सारसंभाल की जिम्मेदारी आप को सौंपी थी और आप ने तब भी उन से वादा किया था कि आप अपनी इस जिम्मेदारी को निभाएंगी.’

यह कह कर तो नवीन ने नंदिता के मुंह पर ताला ही लगा दिया था. कुछ कहने, समझाने की उस ने गुंजाइश ही नहीं छोड़ी थी. वह चुपचाप ड्राइंगरूम से उठ कर अपने कमरे में जा कर बिस्तर पर पड़ गई. उस

का दिमाग पुरानी स्मृतियों के झंझा-वातों से भर उठा. बीती घटनाएं फिल्म के दृश्यों की तरह एक के बाद एक उस के स्मृतिपटल पर उभरने लगीं :

जब थोड़ी सी बीमारी के बाद मां की मृत्यु हुई वह बी.ए. फाइनल में थी. मेरिट में आने का मनसूबा बांधे बैठी थी वह. परिवार की सब से बड़ी संतान और लड़की होने से घर की देखभाल का जिम्मा न जाने कब उस के कमजोर कंधों पर आ पड़ा, वह समझ ही नहीं पाई. घर की गाड़ी के पहिए उस को धुरी मान कर घूमने लगे.

‘मेरी समझदार बेटी नंदिता सब संभाल लेगी,’ बाहरभीतर सब तरफ यह घोषणा कर के पिताजी ने तो घर की सारी जिम्मेदारियों से खुद को जैसे बरी कर लिया था.

नंदिता 3 भाईबहन हैं. नंदिता से छोटा नवीन है और नवीन से छोटी नमिता. नवीन को पढ़ने, दोस्तों के साथ मौजमस्ती करने और बाकी समय में क्रिकेट खेलने से फुरसत ही नहीं मिलती थी. नमिता तो परिवार की लाड़ली होने का पूरापूरा फायदा उठाती रही. कभी मूड होता तो घर के काम में नंदिता का हाथ बंटाती वरना सहेलियों और कालिज की पढ़ाई में ही अपने को व्यस्त रखती.

नंदिता जानती थी कि नमिता को आखिर एक दिन पराए घर जाना है. घर के रोजमर्रा के काम में भी वह रुचि ले, ऐसी कोशिश नंदिता करती रहती थी पर नमिता यह कह कर उस पर पानी फेर देती कि अभी तो मुझे आप अपने राज में आजाद पंछी की जिंदगी जी लेने

दो, जब ससुराल पहुंचूंगी तो सब सीख लूंगी. समय अपनेआप सब सिखा देता है. आप आज घर को जिस कुशलता से संभाल रही हैं वह भी तो समय की जरूरत

ने ही आप को सिखाया है, दीदी.

नंदिता ने इस के बाद तो किसी से शिकवाशिकायत करना छोड़ ही दिया था. प्रथम श्रेणी में बी.ए. करने के बाद वह समाजशास्त्र में एम.ए. कर के पीएच.डी. करना चाहती थी. पर सोचा हुआ सब कहां हो पाता है. पिताजी ने घर की जिम्मेदारियों का वास्ता दे कर बी.ए. करने के बाद उस को घर बैठा लिया था. बेचारी मन मसोस कर रह गई थी.

एक दिन भयानक हादसा हुआ. दौरे से लौटते समय एक सड़क दुर्घटना में उस के पिता इन तीनों भाईबहनों को अनाथ कर के संसार से विदा हो गए. नंदिता पर तो जैसे मुसीबतों का पहाड़ ही टूट पड़ा. तब कुल 25 वर्ष की उम्र थी उस की. पिता के दफ्तर वालों ने बड़ी मदद की. उस को पिता के दफ्तर में ही क्लर्क की नौकरी दे दी.

जैसेतैसे परिवार की गाड़ी चलने लगी. कई बार पैसे की तंगी उस का रास्ता रोक कर खड़ी हुई पर नंदिता ने नवीन और नमिता को यह एहसास नहीं होने दिया कि वे अनाथ हैं. उन की पढ़ाई बदस्तूर चलती रही.

नवीन पढ़ने में होशियार था. उस ने प्रथम श्रेणी में बी.ए. की परीक्षा पास की और खंड विकास अधिकारी के पद पर नौकरी पाने में सफल रहा.

एक दिन नंदिता के मन में आया कि अब नवीन की शादी कर दे. बहू के आने पर घर के काम में दिनरात खटने से उस को भी कुछ राहत मिल जाएगी. उस ने लड़की तलाशनी शुरू की. छोटे मामाजी की मदद से नवीन की शादी बड़े अफसर की बेटी मोनिका के साथ हो गई.

नंदिता ने मोनिका को ले कर जो आशाएं मन में पाल रखी थीं वे कुछ महीने बीततेबीतते मिट्टी में मिल गईं. बड़े बाप की बेटी ने ससुराल में ऐसे रंग दिखाए कि नंदिता को घर के काम में उस की तरफ से किसी भी तरह की मदद की उम्मीद छोड़नी पड़ी.

नंदिता को हालांकि सकारात्मक उत्तर की जरा भी आस नहीं थी, फिर भी हिम्मत बटोर कर एक दिन उस ने मोनिका से कह डाला, ‘मोनिका, मुझे भी 10 बजे दफ्तर जाना पड़ता है. मैं चाहती हूं कि रोटियां तुम सेंक लिया करो. किचन का बाकी काम तो मैं निबटा ही लूंगी. तुम से इतनी मदद मिलने पर दफ्तर जाने के लिए मैं अपनी तैयारी भी सहूलियत से कर सकूंगी.’

‘नहीं, दीदी,’ मोनिका ने रूखा सा जवाब दिया, ‘यह मुझ से नहीं होगा. मैं तो सो कर ही सुबह 9 बजे उठती हूं. नवीन के भी बहुत सारे काम मुझे करने पड़ते हैं. रोज रोटियां सेंकने का जिम्मा मैं नहीं ले सकती. वैसे भी किचन के गोरखधंधे में मेरी कोई दिलचस्पी नहीं है. हमारे यहां तो नौकर ही यह सब करते थे. मुझे तो आप बख्श ही दीजिए.’

इस के बाद तो नंदिता ने घर के कामकाज को ले कर चुप्पी ही साध ली. खुद ही गृहस्थी की गाड़ी को एक मशीन की तरह ढोती चली गई. परिवार के बाकी सदस्य तो सब देख कर भी अनजान बन बैठे. इस बीच मौसाजी की एक बात को ले कर घर में भूचाल ही आ गया और कई दिन उस का कंपन थमा ही नहीं. उस दिन मौसाजी ने सहज भाव से इतना ही तो कहा था कि उन्होंने भी नंदिता के लिए एक अच्छा सा लड़का देखा है. लड़का क्लास टू आफिसर है. परिवार भी खानदानी है, आदर्श विचारों के लोग हैं. दहेज की मांग भी नहीं है. नंदिता वहां बहुत सुखी रहेगी.

मौसाजी की बात सुन कर एक मिनट के लिए तो जैसे सन्नाटा ही छा गया. नवीन और मोनिका एकदूसरे का मुंह ताकने लगे. दोनों के चेहरों पर हैरानी और परेशानी की गहरी रेखाएं खिंचती चली गईं.

‘यह क्या बात ले बैठे आप भी, मौसाजी,’ नवीन ने सकुचाते हुए अपनी बात रखी, ‘दीदी तो इस घर की सबकुछ हैं. वह तो आत्मा हैं हमारे परिवार की. बाबूजी उन्हीं को तो घर की सारी जिम्मेदारियां सौंप गए थे. अभी नमिता की शादी होनी है. हम पतिपत्नी भी अभी ठीक से सैटिल नहीं हो पाए हैं. दुनियादारी की हम लोगों को समझ ही कहां है. दीदी दूसरे घर चली गईं तो इस घर का क्या होगा. हम तो कहीं के नहीं रहेंगे.’

मौसाजी हक्केबक्के थे. मोनिका के शब्दों ने तो उन्हें आहत ही कर डाला था. वह तैश में आ कर बोली थी, ‘दीदी यों ही सब संभालती रहेंगी, यह विश्वास कर के ही तो मैं नवीन के साथ शादी करने के लिए राजी हुई थी. वह हमें अधबीच में छोड़ कर इस घर से नहीं जाएंगी, यह आप साफसाफ सुन लीजिए, मौसाजी.’

नंदिता को लगा जैसे कई बिच्छुओं ने एकसाथ उस के शरीर में अपने जहरीले पैने डंक घुसेड़ दिए हैं और वह चीख भी नहीं पा रही है.

मोनिका की बात ने बुजुर्ग मौसाजी के दिल को छलनी कर डाला. एक लंबी जिंदगी देखी है उन्होंने, समझ गए कि माटी के पक्के बरतनों पर कोई रंग नहीं चढ़ता. बिना कुछ कहेसुने वह तुरंत घर से बाहर हो गए. वह जानते थे कि जिन की आंखों की शरम मर जाती है, जिन के मन में मानवीय रिश्तों की कोई कीमत नहीं रहती, ऐसे लोगों को अच्छी नसीहतें देना रेत का घरौंदा बनाने जैसा है. नंदिता भी वहां ज्यादा देर बैठी न रह सकी.

उस दिन के बाद घर में रोज की जिंदगी तो पिछली रफ्तार से ही चलती रही पर जैसे उस में जगहजगह स्पीड ब्रेकर खडे़ हो गए थे. इन स्थितियों ने नंदिता को काफी दुखी कर दिया. वह चुपचुप रहने लगी. सिर्फ नमिता के साथ ही वह खुल कर बात करती थी, नवीन और मोनिका के साथ उस के संवाद का दायरा काफी सिकुड़ता चला गया था. ज्यादातर वह अपने कमरे में कैदी सी पड़ी रहने लगी थी. कोई कुछ पूछता तो ‘हां’ या ‘ना’ में जवाब दे कर चुप हो जाती थी. जब अकेली होती तो खुद से पूछने लगती कि उस के स्नेह, परिश्रम और त्याग का उस को क्या यही प्रतिफल मिलना चाहिए था.

नवीन और मोनिका की निष्ठुरता से जूझते हुए भी नंदिता छोटी बहन के लिए अपनी जिम्मेदारी के बारे में बराबर सचेत रही. वह चुपचाप उस के लिए लड़के की तलाश में लगी रहती. एक अच्छा लड़का उस को पसंद आया. प्राइवेट कंपनी में एक्जीक्यूटिव था. अच्छी तनख्वाह थी. देखने में भी ठीक ही था. परिवार में पढ़ालिखा और उदार विचारों वाला था. उम्र में 7 साल का अंतर नंदिता की नजर में ज्यादा महत्त्वपूर्ण नहीं था. अमूमन लड़के और लड़की की उम्र में 5-6 साल का अंतर तो आजकल आम बात है.

लड़के का नाम था, कपिल. एक दिन रविवार को नंदिता ने कपिल को अपने घर चाय पर बुला लिया. उद्देश्य था वह नमिता को ठीक से देख ले, आपस में जो भी पूछताछ करनी हो, कर ले. बाकी बातें तो कपिल के मातापिता से मिल कर उस को स्वयं ही तय करनी हैं. मौसाजी और मामाजी को भी अपने साथ ले लेगी. नवीन और मोनिका को इस बात की भनक लग चुकी थी पर नंदिता ने इस काम में उन की कोई भूमिका तय नहीं की थी इसलिए दोनों चुप थे.

कपिल वक्त का पाबंद निकला. शाम के 5 बजतेबजते पहुंच गया. एक सलोना सा युवक भी उस के साथ था.

‘कपिलजी, एक बात पूछूं?’ नंदिता ने शुरुआत की, ‘आप पिछले कुछ दिनों से मेरे दफ्तर में खूब आजा रहे हैं. कोई काम तो वहां नहीं अटका है आप का?’

‘जी नहीं, कोई काम नहीं अटका. यों ही आया होऊंगा.’

‘आप सरीखा समझदार आदमी किसी सरकारी दफ्तर में यों ही चक्कर काटेगा, यह बात मेरे गले नहीं उतर रही.’

‘समझ आने पर बात आप के गले उतर जाएगी…आप बिलकुल चिंता न करें. अभी तो बस, इतना ही बताइए कि मेरे लिए क्या आज्ञा है?’

नंदिता ने जांच लिया कि लड़का सचमुच तेज है. उस को बातों में भरमाया नहीं जा सकता. सो बिना भूमिका के उस ने काम की बात शुरू कर दी, ‘आजकल शादीब्याह के मामले में आगे बढ़ने के लिए पहली और सब से जरूरी औपचारिकता है लड़कालड़की के बीच सीधा संवाद. मैं चाहती हूं कि आप कमरे में जा कर नमिता से बात करें. जो पूछना हो पूछ लें और जो बताना हो वह बताएं.’

‘मैं भला क्यों करूं यह सब पूछताछ नमिता से,’ कपिल ने शरारती लहजे में कहा.

‘आप को नमिता को अपने लिए चुनना है. इसलिए नमिता से पूछताछ आप नहीं करेंगे तो भला कौन करेगा,’ नंदिता पसोपेश में पड़ गई. सच बात तो यह थी कि कपिल की पहेली को वह समझ ही नहीं पा रही थी.

‘आप से यह किस ने कह दिया कि नमिता को मुझे अपने लिए चुनना है?’

‘कपिलजी, आप को आज यह हो क्या गया है. कैसी उलटीपुलटी बातें कर रहे हैं आप.’

‘मेरी बात तो एकदम सीधीसीधी है, नंदिताजी.’

‘सीधी किस तरह है. मैं ने नमिता के बारे में ही तो आज आप को यहां बुलाया है. आप यह बेकार का कन्फ्यूजन क्यों पैदा कर रहे हैं?’

‘कन्फ्यूजन वाली कोई बात नहीं है, मैं तो बस, आप से बात करने आया हूं.’

‘मतलब.’

‘यही कि मुझे तो जिंदगी में एक का चुनाव करना था, सो मैं ने कर लिया है.’

‘किस का?’

‘नंदिताजी का, नमिताजी की बड़ी बहन का.’

नंदिता को लगा जैसे वह आसमान से गिर पड़ी है. एक बार तो उसे महसूस हुआ कि कपिल उस के साथ ठिठोली कर रहा है. पर उस के हावभाव से तो ऐसा कुछ भी नहीं लग रहा था.

वह बोली, ‘यह क्या गजब कर रहे हैं आप. मैं इतनी स्वार्थी नहीं हूं कि अपनी लाड़ली बहन के सौभाग्य का सिंदूर झपट कर अपनी मांग में सजा लूं. नमिता मेरी छोटी बहन ही नहीं मेरी प्यारी बेटी भी है. मां के देहांत के बाद मैं ने प्यारदुलार दे कर उसे बड़े जतन से पाला है. मैं उस के साथ ऐसा अनर्थ तो सपने में भी नहीं कर सकती.’

नंदिता की आंखों में आंसू छलछला आए. सारा वातावरण संजीदगी से भर गया.

कपिल ने बात को स्पष्ट करते हुए कहा, ‘नंदिताजी, आप सच मानिए, पिछले एक महीने से मैं आप के बारे में ही सारी जानकारी इकट्ठी करने में लगा था. उसी की खातिर आप के दफ्तर भी जाया करता था. आप के साथ घोर अन्याय हुआ है, फिर चाहे वह हालात ने किया हो, आप के पिता ने या फिर आप के भाई ने. आप ने अपने परिवार के लिए जो तपस्या की है उस के एवज में तो आप को वरदान मिलना चाहिए था. पर सब जानते हैं कि अब तक अभिशाप ही आप के पल्ले पड़ा है. क्या अपनी गृहस्थी बसाने का आप का कोई सपना नहीं है? सचसच बताइए?’

नंदिता ने संयत होते हुए कहा, ‘वह सब तो ठीक है पर नमिता के सौभाग्य को अपने सपने पर कुर्बान करने के लिए मैं न तो कल तैयार थी और न आज तैयार हूं. उसे मैं जिंदगी भर कुछ न कुछ देती ही रहना चाहती हूं. उस के अधिकार की कोई वस्तु छीनना मुझे कतई गवारा नहीं है. यह मुझ से कभी नहीं होगा. आप जा सकते हैं. आप का प्रस्ताव मुझे कतई मंजूर नहीं है.’

‘आप को मेरा प्रस्ताव मंजूर हो या न हो पर हम तो इस घर से जल्दी ही दुलहनियां ले कर जाएंगे,’ कपिल ने वातावरण को हलका बनाने की गरज से कहा.

‘मेरे जीते जी तो यह कभी नहीं होगा.’

‘जरूर होगा. इस घर से एक दिन 2 दूल्हे 2 दुलहनियां ले कर ही विदा होंगे.’

नंदिता जैसे सोते से जाग उठी. पूछा, ‘और वह दूसरा लड़का?’

‘यह रहा,’ साथ में बैठे सलोने युवक की ओर इशारा करते हुए कपिल ने जवाब दिया, ‘और इन दोनों को किसी कमरे में जा कर आपस में पूछपरख करने की जरूरत भी नहीं पड़ेगी.’

‘क्यों?’

‘क्योंकि ये दोनों कालिज के सहपाठी हैं. एकदूसरे को खूब जानते हैं. साथसाथ जीनेमरने की कसमें भी खा चुके हैं, बहुत पहले.’

‘पर ये हैं कौन? परिचय तो दीजिए इन का.’

अचानक नमिता ड्राइंगरूम में आई. वह पास के कमरे में नंदिता और कपिल की बातें कान लगाए सुन रही थी.

‘मैं देती हूं इन का परिचय,’ नमिता बोली, ‘दीदी, इन का नाम विकास है और यह कपिलजी के चचेरे भाई हैं. डिगरी कालिज में 3 साल हम क्लासमेट रहे हैं. मेलजोल अब भी है. दोनों ने साथसाथ जीवन का सफर तय करने का फैसला बहुत पहले कर लिया था.’

‘लेकिन पगली, इस बारे में मुझे तो बताती. मैं तेरी दुश्मन थोड़े ही हूं,’ नंदिता ने नमिता को अपने पास सोफे पर बिठाते हुए कहा.

‘आप वैसे भी इन दिनों काफी परेशान रहती हैं, दीदी. मैं विकास और अपने बारे में आप को बता कर आप की परेशानियों को बढ़ाना नहीं चाहती थी. मैं ने आप से यह बात छिपाने की गलती की है. मुझे माफ कर दो, दीदी.’

‘इस में माफी जैसी कोई बात नहीं है मेरी प्यारी बहना. तू ने जो भी किया अपनी समझ से अच्छा ही किया है. विकासजी, इस बारे में आप को कुछ कहना है या फिर फैसला सुना दिया जाए?’

‘मुझे कुछ नहीं कहना. जो कहना था वह नमिता कह चुकी है. नंदिताजी, आप तो बस, फैसला सुना दीजिए,’ विकास बोला.

‘कपिलजी ने ठीक ही कहा है, इस घर से जल्दी ही 2 दूल्हे, 2 दुलहनियां ले कर विदा होंगे,’ इतना कह कर नंदिता ने नमिता को गले लगा लिया.

आज बरसों बाद नंदिता की सूखी आंखों में खुशी के आंसू छलछला आए. उसे लगा आज पहली बार कुदरत ने उस के साथ इंसाफ किया है. इस तरह अचानक मिले इंसाफ से कितनी खुशी होती है, इस का एहसास भी उसे पहली बार हुआ.

अगर तुम साथ दो : क्या चारू अपने पति को सुधार पाई ?

Writer : रीशा गुप्ता

चारू अस्पताल के कमरे में बैड पर दुलहन बनी लेटी थी. उस के सिर पर लाल चुनरी सजी हुई थी. इस बीमारी में भी उस का चेहरा इस वक्त चांद सा दमक रहा था. शायद यह मिहिर का प्यार ही था जिस का तेज उस के चेहरे पर चमक बन बिखरा हुआ था. औक्सीजन सिलैंडर… तमाम तरह की मशीनें उस कमरे में उस के बिस्तर के चारों ओर थीं और साथ में थे मिहिर… चारू के मम्मीपापा, मिहिर के घर वाले, उस के दोस्त, डाक्टर्स, नर्स और पंडितजी. कुछ मंत्र और पूजा के बाद पंडितजी ने मिहिर से चारू की मांग में सिंदूर भरने को कहा. मिहिर जिस का हाथ चारू के हाथ में था उस ने उसी हाथ से सिंदूर की डब्बी अपने हाथ में ली और उस में से सिंदूर अपनी उंगली में ले चारू की मांग में भर दिया. चारू की आंखें खुशी से छलछला आईं… आंसुओं का तूफान पूरे वेग के साथ उस की आंखों से उतर उस के तकिए को भिगोने लगा. मिहिर ने चारू के माथे पर एक चुंबन अंकित किया और उस के आंसू पोंछने लगा.

भावनाओं का एक ज्वार इस वक्त दोनों अपने अंदर समेटे थे जिसे बांधना दोनों के लिए मुश्किल हो रहा था. खुद मिहिर की आंखें इस वक्त भर आई थीं पर उस ने खुद पर काबू कर रखा था. कमरे में मौजूद हर शख्स की आंखें भीगी हुई थीं.

मिहिर ने चारू के हाथों को एक बार फिर से अपने हाथों में लिया और बोला, ‘‘वादा करो तुम हिम्मत नहीं हारोगी… मैं यही तुम्हारा इंतजार करूंगा… एक सुनहरा भविष्य हम दोनों का इंतजार कर रहा है. तुम जानती हो मैं तुम्हारे बिना जी नहीं पाऊंगा. तुम्हें वापस आना ही होगा मेरे लिए, अपने मिहिर के लिए.’’

चारू ने मिहिर से वादा किया और कस कर उस के गले लग गई. इस वक्त शब्दों से ज्यादा दोनों को एकदूसरे के एहसासों की जरूरत थी जिन्हें वे सिर्फ और सिर्फ महसूस करना चाहते थे. मिहिर देर तक चारू की पीठ सहलाता रहा.

इधर चारू के पापा ने वहां मौजूद सभी लोगों का मुंह मीठा कराया. डाक्टर ने मिहिर से कुछ पेपर्स पर हस्ताक्षर करवाए जोकि औपरेशन से पहले की काररवाई थी. चूंकि मिहिर अब चारू का पति था इसलिए इस औपरेशन की मंजूरी, हर संभावना की जिम्मेदारी उस ने खुद के ऊपर ली. डाक्टर ने मिहिर को बताया कि अब चारू के औपरेशन का समय हो रहा है. मिहिर ने वहां मौजूद सभी से हाथ जोड़ कुछ देर के लिए दोनों को अकेला छोड़ने को कहा. सब के जाने के बाद मिहिर ने चारू के चेहरे को अपने दोनों हाथों में भर लिया और बोला, ‘‘चारू, तुम्हारा मिहिर यही तुम्हारा इंतजार करेगा…. तुम्हें मेरे लिए वापस आना है… अपने मन में कोई शंका मत रखना… तुम मु?ो हर रूप में स्वीकार हो… मैं ने तुम्हारे शरीर से नहीं तुम्हारी रूह से प्यार किया है.’’

मिहिर की बातों से चारू को अपने पहले पति नीलेश की याद आ गई जिस ने सिर्फ उस के जिस्म से प्यार किया. रूह तक तो कभी पहुंच ही नहीं पाया. यह सोच उस का मन आज भी कसैला हो गया. नर्स कमरे में आ चुकी थी चारू को नर्स ने स्ट्रेचर पर लिटाया और औपरेशन थिएटर की ओर बढ़ गए. चारू के हाथों में मिहिर का हाथ अब भी था. औपरेशनरूम के बाहर मिहिर ने चारू को कस कर गले लगाया तो चारू ने मिहिर से कहा, ‘‘मिहिर, बहुत डर लग रहा है मु?ो… वापस आना है तुम्हारे लिए… आऊंगी न वापस?’’

मिहिर उस के कानों में फुसफुसाते हुए बोला, ‘‘बिलकुल आओगी चारू. मु?ो हमारे प्यार पर यकीन है… हमारा प्यार कमजोर नहीं हमारी ताकत है और इसी ताकत के भरोसे तुम जीत कर आओगी.’’

नर्स चारू को अंदर ले गई औपरेशनरूम का दरवाजा बंद होने लगा. चारू और मिहिर जब तक संभव था एकदूसरे को देखते रहे.

दरवाजा बंद होते ही मिहिर बेचैनी से इधरउधर टहलने लगा. चारू के लिए उस की फिक्र उस के चेहरे पर साफ देखी जा सकती थी.

तभी चारू के पापा उस के पास आए और मिहिर के कंधे पर हाथ रख कर बोले, ‘‘बेटा औपरेशन लंबा चलेगा तुम थोड़ा आराम कर लो.’’

मिहिर बोला, ‘‘आप ठीक कह रहे हैं पापा… मैं चारू के कमरे में जा रहा हूं… कुछ देर अकेले रहना चाहता हूं,’’ और मिहिर थके कदमों से चारू के कमरे की ओर बढ़ गया.

कमरे में चारों ओर फूल बिखरे हुए थे जो कुछ देर पहले के ही थे जब मिहिर ने चारू को हमेशाहमेशा के लिए अपनी जीवनसंगिनी बनाया था. कितने ताजा थे वे फूल बिलकुल उन दोनों के प्यार की तरह.

मिहिर चारू के बिस्तर के पास रखी कुरसी पर बैठ गया. चारू की लाल चुनर अभी भी मिहिर के हाथों में ही थी जो चारू ने उसे औपरेशन थिएटर के बाहर दी थी और कहा था कि जब वह औपरेशन थिएटर से बाहर आए तो उसे अपने हाथों से वह चुनर ओढ़ाए. 2 बूंद आंसू निकल कर मिहिर के गालों पर छलक आए. बहुत देर से खुद को संभाल रखा था उस ने पर अब मुश्किल हो रहा था.

आंख बंद करते ही मिहिर 7 साल पहले की यादों में चला गया. किसी चलचित्र की भांति चारू की जिंदगी का वह भयानक अतीत उस की आंखों के आगे मंडराने लगा…

चारू और मिहिर दोनों कालेज में साथ पढ़ते थे. मिहिर शुरू से चारू को पसंद करता था पर चारू शायद कभी उस के प्यार को सम?ा नहीं पाई. उस ने हमेशा मिहिर को सिर्फ एक दोस्त सम?ा. चारू का कालेज अभी खत्म भी नहीं हुआ कि उस का एक बहुत ही रईस खानदान से रिश्ता आया. चारू ने थोड़ी नानुकुर भी की पर उस के मम्मीपापा ने इतना अच्छा रिश्ता हाथ से न जाने का दबाव बनाया और चारू को हां कहनी पड़ी. वैसे भी मध्यवर्गीय परिवार में अपनी पसंद, मरजी की जगह कम ही होती है. इधर मिहिर के अरमां दिल के दिल में रह गए. उस ने अपने प्यार का इजहार करने की हिम्मत कभी की ही नहीं.

हालांकि एक दफा सगाई के बाद जब चारू की सहेली ने चारू को मिहिर के दिल की बात बताई तो चारू बोली, ‘‘काश एक बार तो कहते मिहिर,’’ और वह काश बस उस दिन उस के दिल में एक कसक बन दफन हो गया.

पहली रात से ही चारू के सामने उस के पति नीलेश की हरकतें आ गईं वह सुहाग सेज पर नख से शिख तक तैयार हो कर अपनी भावी दुनिया के सपनों में खोई हुई बैठी थी… सोचसोच कर उस का तनमन रोमांचित हो रहा, गाल शर्म से लाल हो रहे थे पर नीलेश बहुत देर तक नहीं आया. अब तो नींद से उस की आंखें बोली होने लगीं.

तभी उस की ननद उस के कमरे में आई, ‘‘अरे भाभी कब तक ऐसे ही बैठे रहोगी? भाई का कुछ पता नहीं. आप सो जाओ. सुबह भी जल्दी उठना है. मुंह दिखाई की रस्म है.’’

नीलेश का अभी तक न आना और अपनी ननद के ऐसे रूखे बरताव से एक पल में उस के सारे सपने चकनाचूर हो गए. जल्द ही उसे मालूम चल गया जब अमीर मांबाप का लाडला उन के हाथ से निकल गया तो उसे सुधारने के लिए चारू के रूप में बली चढ़ाई गई इसी आस में कि शायद शादी के बाद सुधर जाए.

चारू को याद ??नहीं कभी नीलेश ने उसे प्यार से देखा हो, उस से 2 घड़ी बैठ कर बात करी हो. उसे तो अपने आवारा दोस्तों और उन की गंदी सोहबत से ही फुरसत नहीं थी.

रात नीलेश बहुत पी कर आता और अपनी जरूरत के हिसाब से चारू के शरीर को भोगता. इन पलों में ही सही चारू को उस के पास आने का मौका मिलता. वह सोचती एक दिन अपने प्यार से वह नीलेश को बदल देगी.

अचानक एक दिन नीलेश के मुंह से निकल गया, ‘‘माहिका आई लव यू, मैं सिर्फ और सिर्फ तुम्हारा हूं.’’

चारू जो अब तक नीलेश का साथ दे रही, सुनते ही उस का शरीर बिलकुल ढीला पढ़ गया. वह सम?ा गई कि वह नीलेश की बांहों में जरूर है, पर उस के मन में नहीं.

सुबह जब नीलेश को होश आया तो चारू ने उस से माहिका के लिए पूछ लिया. नीलेश ने भी सब बता दिया कि उस से शादी तो उस की मजबूरी थी, उस की जिंदगी में जो भी है बस माहिका है और उस की जगह कभी कोई नहीं ले सकता. वह तो घर वाले उस की पसंद के खिलाफ थे, इसलिए जल्दबाजी में तुम मेरे गले पड़ गई और फिर नीलेश कमरे से बाहर चला गया.

चारू धम्म से पलंग पर बैठ गई. आंसू कब उस की आंखों के बाहर निकल गए उसे पता ही नहीं चला. उस को लगा था शायद उस के प्यार से नीलेश सुधर जाए पर नीलेश आज उस की उस बची आस को भी तोड़ गया.

चारू मन मान कर सबकुछ सहन कर रही थी. उस दिन के बाद तो वह एक मशीन की तरह बन गई. दिन में घर वालों की जरूरत, रात को नीलेश की. सच जीतीजागती लाश बन गई, जिस में न कोई उम्मीद, न उमंग न उत्साह.

कुछ दिन से चारू की तबीयत सही नहीं रह रही थी. 1-2 बार तो चक्कर खा कर गिर गई पर उस घर में कभी चारू को गंभीरता से नहीं लिया तो उस की तबीयत को कौन लेता. आखिर जब एक दिन चारू की तबीयत ज्यादा ही खराब हुई तो डाक्टर को दिखाया. जांच में पता चला उसे ब्रैस्ट कैंसर है. ससुराल वालों को वैसे ही उस से कोई लगाव नहीं था. उस की बीमारी की बात से किसी को कोई फर्क नहीं पड़ा और एक दिन उसे बो?ा सम?ा उस के पीहर छोड़ आए और कहा, ‘‘इस के इलाज में जितना पैसा लगेगा हम लगाएंगे पर तब तक इसे अपने पास ही रखिएगा.’’

चारू को लगा जैसे वह इंसान नहीं कोई सामान है जिस की जब तक जरूरत थी नीलेश और उस के घर वालों ने भोगा पर अब जब वह सामान किसी काम का नहीं तो उसे उठा कर बाहर फेंक दिया. उसे खुद से घिन आने लगी. आखिर उस ने एक कठोर फैसला लिया और अपने पापा को तलाक के पेपर मंगाने को कहा. चारू के मम्मीपापा ने उसे बहुत सम?ाया पर चारू ने कहा, ‘‘यह फैसला उस ने बहुत सोचसम?ा कर लिया है. अगर तलाक नहीं हुआ तो वह अपना इलाज भी नहीं करवाएगी.’’

हार कर जब चारू के पापा ने नीलेश को तलाक के पेपर्स भिजवाए तो उसे कोई आपत्ति ही नहीं थी. वह तो कब से इस बंधन से छुटकारा पाना चाहता था और आखिरकार आपसी सहमति से जल्द ही दोनों का तलाक हो गया.

इधर चारू जितनी अपनी बीमारी से नहीं टूटी उस से कहीं अधिक नीलेश और उस के घर वालों के बरताव से टूट गई. उस की जैसे जीने की इच्छा ही खत्म हो गई. डाक्टर्स ने साफ कहा कि हम इलाज तो करेंगे पर सहयोग तो चारू को ही करना होगा. उसे अपने अंदर इच्छाशक्ति जगानी होगी वरना कोई इलाज काम नहीं करेगा.

चारू के मम्मीपापा अपनी बेटी की हालत देख अंदर ही अंदर घुले जा रहे थे. पर चारू तो जैसे बस अब मौत को ही गले लगाना चाहती थी. एक दिन चारू की मां ने उस की सब से अच्छी सहेली शैलजा को फोन किया और उसे सब बताया. अगले दिन शैलजा और उस के 2 दोस्त उस से मिलने आए, चारू अपने खयालों में खोई थी कि हैलो चारू कैसी हो? इतने दिन बाद जानीपहचानी आवाज सुन चारू ने आंख उठा कर देखा. उस के सामने शैलजा, विनीता और मिहिर खड़े थे. उन चारों की कालेज में चौकड़ी थी. सब उन की दोस्ती से चिढ़ते भी थे और मिसाल भी देते थे. चारों एकदूसरे के हर सुखदुख में हाजिर.

एक बार तो अपने सामने उन तीनों को देख उस की आंखों में चमक आ गई पर फिर उस ने मुंह फेर लिया.

शैलजा चारू के पलंग के पास आ कर बैठ गई. चारू के मम्मीपापा बोले, ‘‘तुम लोग बात करो हम बाहर बैठे हैं.’’

‘‘चारू हम चारों इतने दिन बाद इकट्ठे हुए, बात नहीं करेगी… तेरे साथ इतना कुछ हो गया और हमें बताना जरूरी नहीं सम?ा… हम सब तु?ो कितने फोन और मैसेज करते पर तूने तो हमारे फोन उठाना बंद कर दिया, धीरेधीरे हम भी अपनी पढ़ाई में व्यस्त हो गए.’’

‘‘शैलजा बोले जा रही थी कि चारू की आंखों से आंसू बह रहे थे. आसुंओं से उस का तकिया पूरा भीग चुका था. फिर वह अचानक शैलजा के गले लग गई, ‘‘शालू मैं क्या करती, पता नहीं कुदरत मु?ो किन पापों की सजा दे रही है… क्या बताती तुम सब को… मेरे पास बताने को भी कुछ नहीं बचा.’’

उस दिन चारू खूब रोई, उस के दोस्तों ने भी उसे रोने दिया. उस दिन के बाद अब रोज उस के दोस्त उस से मिलने आने लगे, चारू भी अब कुछ बातें करने लगी, थोड़ा खुश रहने लगी, पर कई बार उस की बातों से लगता जैसे उस के अंदर जीने की इच्छा बिलकुल नहीं बची.

एक दिन मिहिर अकेला आया, शैलजा और विनीता को कुछ काम था. मिहिर को अपने सामने  देख चारू के चेहरे पर मुसकान आ गई, ‘‘कैसे हो मिहिर? आजकल बड़े चुपचुप रहते हो? कालेज में तो कितना बोलते थे और शादी कब कर रहे हो?’’

एकाएक पता नहीं क्यों मिहिर अकेले चारू का सामना नहीं कर पा रहा था. उस का गला भर आया. उस ने अपनी आंखें फेर लीं. चारू ने मिहिर के हाथ पर अपना हाथ रखा, ‘‘मैं जानती थी मिहिर तुम मु?ो पसंद करते थे पर मैं ने तुम्हारे लिए ऐसा कभी नहीं सोचा था, मैं सिर्फ तुम्हें दोस्त मानती थी.’’

मिहिर चारू की तरफ मुंह कर के बोला, ‘‘पसंद करता था नहीं चारू आज भी पसंद करता हूं, मैं तुम्हें चाहता हूं, मेरे दिल में तुम्हारे सिवा कोई नहीं है.’’

चारू के चेहरे पर एक फीकी मुसकान आ गई, ‘‘अब मु?ो पा कर क्या करोगे मिहिर, मेरे पास तुम्हें देने को कुछ नहीं, मैं तो खुद खुश नहीं तो तुम्हें क्या खुश रखूंगी.’’

‘‘क्यों नहीं चारू अब भी कुछ नहीं बिगड़ा, मैं आज भी तुम्हें उतना ही प्यार करता हूं, तुम से शादी करना चाहता हूं.’’

‘‘पागल हो तुम, सबकुछ जानबू?ा कर कैसे ऐसा बोल सकते हो, कहीं तुम मु?ा पर दया तो नहीं कर रहे?’’ चारू चिल्ला कर बोली. उस की आंखें गुस्से से लाल थीं. कुछ देर कमरे में सन्नाटा रहा. जब चारू थोड़ा सामान्य हुई तो मिहिर से बोली, ‘‘मिहिर, मु?ो उस शीशे के सामने ले चलो.’’

मिहिर के सहारे वह धीरे से बैड से उतरी, ‘‘देखा मिहिर क्या हालत हो गई, बिना सहारे के उठ भी नहीं सकती,’’ चारू के स्वर में बहुत दर्द था.

मिहिर उसे शीशे के सामने ले आया.

‘‘देखो मिहिर मेरी हालत देखो, मेरे बाल देखो, धीरेधीरे जितने बचे हैं वे भी ?ाड़ जाएंगे, मैं खुद शीशा देखना पसंद नहीं करती, तुम्हारी जिंदगी कैसे बरबाद कर दूं और जानते हो न मेरे औपरेशन के बाद तो… मेरे शरीर का एक हिस्सा मु?ा से काट दिया जाएगा. मैं कैसे तुम्हारी जिंदगी बरबाद कर सकती हूं.’’

मिहिर ने उसे पास रखे सोफे पर बैठाया और खुद उस के पास जमीन पर बैठ गया. उस का हाथ अपने हाथ में ले बोला, ‘‘चारू यह जीवन है, यहां पत?ाड़ आता है तो वसंत भी आएगा, बस तुम हां कर दो मैं तुम्हारे जीवन में वसंत ले कर आऊंगा और हां मैं तुम पर कोई दया नहीं कर रहा बल्कि अपने को खुशहाल सम?ांगा और हां मैं ने तुम्हारे जिस्म से नहीं तुम से, तुम्हारी रूह से प्यार किया. अगर शादी के बाद कुछ होता तो? और अगर मेरे साथ कुछ ऐसा हो तो क्या तुम मु?ो छोड़ दोगी?’’ चारू ने मिहिर के मुंह पर हाथ रख दिया.

‘‘नहीं मिहिर मैं ऐसा नहीं कर सकती. इतनी स्वार्थी नहीं हो सकती… मैं तो जीना ही नहीं चाहती… मु?ो मर जाने दो,’’ चारू अपने मुंह पर दोनों हाथ रख फूटफूट कर रोने लगी.

मिहिर ने चारू के चेहरे पर से उस के हाथों को हटा उस के आंसू पोंछे और बोला, ‘‘तुम्हें जीना होगा… मेरी खातिर जीना होगा, आज से तुम्हारी जिंदगी पर मेरा भी हक है, अपने लिए नहीं तो मेरे लिए जीना होगा, वादा करो मुझ से.’’

एकाएक चारू मिहिर की बांहों में समा गई, ‘‘मिहिर मैं जीना चाहती हूं, तुम्हारे लिए… अपने लिए. क्या मेरे जीवन में फिर से वसंत आ पाएगा?’’ इतने दिन बाद शायद मिहिर का प्यार उसे खुशी दे गया.

मिहिर उसे सीने से लगाए बोला, ‘‘क्यों नहीं आएगा, जरूर आएगा… बस अगर तुम साथ दो.’’

चारू ने अपना हाथ मिहिर के हाथ में दिया जैसे साथ देने का वादा कर रही हो.

चारू के मम्मीपापा, शैलजा और विनीता पीछे खड़े थे. सब की आंखों में आंसू थे पर आंखें कई अरमानों से सजी हुई थीं. मिहिर ने कहा कि वह चारू के औपरेशन से पहले ही उस से शादी करना चाहता है और चारू से वादा लिया कि हमारी शादी के उपहार में उसे सहीसलामत वापस आना है.

इधर मिहिर अभी अपने खयालों में ही था कि तभी चारू के पापा कमरे में आए. उन की आंखें आंसुओं से भरी थीं. मिहिर उन्हें अपने सामने देख किसी अनहोनी की आशंका से कांपने लगा. उस का शरीर बिलकुल सफेद पड़ गया मानो किसी ने उस के शरीर से सारा खून चूस लिया हो.

मिहिर के पापा उस के पास आ उसे गले लगाते हुए बोले, ‘‘मिहिर बेटा तुम्हारा प्यार… तुम्हारा विश्वास जीत गया… औपरेशन सफल हुआ… चारू को कुछ देर में बाहर ला रहे हैं.’’

मिहिर चारू के पापा के गले लग रोने लगा फिर रुंधे गले से बोला, ‘‘पापा, मेरी चारू… चुनर… मु?ो चारू को दुलहन बनाना है उसे यह चुनर,’’ और बात पूरी करने से पहले वह बाहर की ओर भागा. उस के हाथ में लाल चुनर थी. अपनी चारू को फिर से दुलहन के रूप में देखने को बेकरार था वह.

नुमाइश : क्यों नहीं शादी करना चाहता था संजय

सुबह 10 बजे के करीब मीना बूआ हमारे घर आईं और आते ही जबरदस्त खलबली सी मचा दी. उन के साथ उन की सहेली सरला अपनी बेटी कविता और बेटे संजय को लाईर् थी.

‘‘मुकेश और कांता कहां है?’’ मीना बूआ ने मेरे मौमडैड के बारे में सवाल किया.

‘‘वो दोनों तो सुबहसुबह ताऊजी के यहां चले गए,’’ मैं ने जवाब दिया.

‘‘क्यों?’’

‘‘किसी जरूरी काम से ताऊजी ने फोन कर के बुलाया था.’’

‘‘अंजलि कहां है?’’ बूआ ने मेरी छोटी बहन के बारे में पूछा.

‘‘नहा रही है.’’

‘‘तू तो नहा ली है न, रेणु?’’

‘‘हां, बूआ, लेकिन यह तो बताओ कि मामला क्या है? क्यों इतनी परेशान सी लग रही हैं?’’ मैं ने धीमे स्वर में प्रश्न पूछा.

बूआ ने ऊंची आवाज में जवाब दिया, ‘‘मेरी इस सहेली सरला की बेटी को देखने के लिए कुछ लोग 12 बजे यहां आ रहे हैं. सारा कार्यक्रम बड़ी जल्दबाजी में तय हुआ है. तेरी मां तो घर में है नहीं. अब सारी तैयारी तुम्हें और अंजलि को ही करनी है. सब से पहले इस ड्राइंगरूम को ठीक कर लो.’’

‘‘बूआ, पहले से खबर कर दी होती…’’

‘‘रेणु, इस मामले में कुसूरवार हम हैं. यह कार्यक्रम अचानक बना. मेरे घर में रिपेयर का काम चल रहा है. मीना के घर इस की ससुराल से मेहमान आए हुए हैं. इसलिए यहां देखनादिखाना करना पड़ रहा है. आशा है यों तकलीफ देने का तुम बुरा नहीं मानोगी,’’ सरलाजी इन शब्दों ने मेरे मन में उठी खीज व चिड़ के भावों को जड़ से ही मिटा दिया.

‘‘तकलीफ वाली कोई बात नहीं है आंटी. आप फिक्र न करें. सब काम अच्छी तरह से निबट जाएगा,’’ मैं ने मुसकराते हुए जवाब दिया और अपनी मां की भूमिका अदा करते हुए काम में जुटने को कमर कस ली.

मां की अलमारी से निकाल कर बैठक में पड़े सोफे  के साथसाथ दोनों डबल बैड की चादरें भी बदल डालीं. घर में आने वालों मेहमान किसी भी कमरे में जा सकते थे.

अंजलि तब तक नहा कर आ गई थी तो बाथरूम भी साफ कर दिया. वह मेकअप करने की ऐक्सपर्ट है. उस के जिम्मे कविता को सजानेसंवारने का काम आया.

‘‘अंजलि, मेकअप हलका रखोगी या ज्यादा?’’ संजय ने सवाल पूछा.

अंजलि के जवाब देने से पहले ही मैं बोल पड़ी, अंजलि, हलका मेकअप ही करना, नहीं तो कविता की नैचुरल ब्यूटी दब सी जाएगी.’’

‘‘मगर रेणु अकसर तो यह माना जाता है कि मेकअप ब्यूटी को निखारता है. फिर तुम ब्यूटी दब जाने की बात कैसे कह रही हो?’’ संजय ने उत्सुकता दर्शाई.

मु?ो अनजान लड़कों से एकदम खुल कर बातें करने में बड़ी हिचक होती है. फिर भी मैं ने हिम्मत कर के  जवाब दिया, ‘‘मेरा मानना है कि ज्यादा मेकअप उन्हीं लड़कियों को करना चाहिए जो अपने को डल मानती हों. असली ब्यूटी को मेकअप की जरूरत नहीं होती. वह उसे बदल या बिगाड़ कर देखने वालों की नजरों से छिपा लेता है और मेरी सम?ा से ऐसा करने का कोई फायदा नहीं.’’

‘‘मैं बिलकुल सहमत हूं आप से, रेणु. कविता का मेकअप हलका ही रखना, अंजलि,’’ संजय की इस सहमति ने मेरा दिल खुश कर दिया पर अंजलि बुरा सा मुंह बनाने के बाद कविता को हमारे कमरे में ले गई.

अंजलि मु?ा से कहीं ज्यादा सुंदर है. वह अपने को काफी सजासंवार कर रखने की शौकीन भी है. मैं उस के बिलकुल उलट हूं. तड़कभड़क मु?ो पसंद नहीं. कपड़े मैं वैसे ही पहनती हूं जो कंफर्टेबल हों और भीड़ में चाहे मु?ो लोगों की नजरों का केंद्र बनाएं.

करीब 15 मिनट में ड्राइंगरूम की शक्ल बदल दी मैं ने. बिखरा सामान करीने से लगा दिया. परफ्यूम भी छिड़क दिया. संजय ने मेरा इस काम में साथ दिया. बूआ मेहमानों के लिए पिज्जा, स्प्रिंग रोल और्डर कर आई थीं, वह डिलिवर भी हो गया था. वे अपनी सहेली के साथ आने वाले मेहमानों के बारे में पूछताछ करने में मग्न थीं.

मैं ने रात के कपड़े पहन रखे थे. जरा ढंग के कपड़े बदलने को मैं अपने कमरे में आ गई.

‘‘रेणु, मु?ो अजीब सी घबराहट हो रही है,’’ कविता की आंखों में मैं ने बेचैनी के भाव साफ पढ़े. आज के जमाने में यह देखादेखी कुछ अजीब लगती है.

‘‘दीदी इस मामले में तेरी कोई हैल्प नहीं कर सकती है, कविता,’’ अंजलि ने कहा.

‘‘लड़कियों को यों सजासंवार कर अनजान आदमियों के सामने उन की नुमाइश करना है ही बेहूदा काम,’’ मैं अपने अनुभवों को याद कर के तैश में आ गई, ‘‘कोई भी साधारण लड़की बिना डरे, घबराए ऐसी स्थिति में नहीं रह सकती. उस की असली पर्सनैलिटी बिलकुल खो जाती है और तब लड़के उसे रिजैक्ट कर एक नया टीसने वाला जख्म सदा के लिए उस लड़की के दिलोदिमाग पर लगा जाते हैं.’’

‘‘रेणु दीदी, इस मामले में लड़़की कर भी क्या सकती है?’’ कविता ने सहानुभूतिपूर्ण स्वर में पूछा.

‘‘वाह प्रेमविवाह कर सकती है,’’ अंजलि ठहाका मार कर हंसी, ‘‘तब यह देखनेदिखाने का चक्कर बचता ही नहीं, बहनो.’’

‘‘अंजलि, तुम तो वाकई बहुत मस्त और निडर लड़की हो,’’ कविता ने मेरी छोटी बहन की प्रशंसा करी.

‘‘इस की पर्सनैलिटी बिलकुल ही अलग है. इसे कभी देखने के लिए कोई आया भी तो यह बिलकुल डरेघबराएगी नहीं. अरे, पिछली बार जो लोग मु?ो देखने आए थे वे मु?ो भूल इस का रिश्ता ही मांगने लगे. आज इसे हम ड्राइंगरूम में उन लोगों के सामने जाने ही नहीं देंगे,’’ मैं ने वैसे सारी बात मजाकिया लहजे में कही, पर कहीं न कहीं मेरा मन शिकायत व गुस्से के भावों को भी महसूस कर रहा था उस घटना को याद कर के.

अचानक उन दोनों से बातें करना मु?ो अरुचिकर लगने लगा तो मैं अपने कपड़े उठा कर बाथरूम में घुस गई.

मु?ो मौमडैड ने 2 बार लड़के व उस के परिवार वालों को दिखाया था. मेरे लिए दोनों ही अनुभव बड़े खराब रहे थे.

पहली बार जबरदस्त घबराहट व डर का शिकार हो मैं  उन लोगों के सामने बिलकुल गुमसुम हो गई थी. किसी भी सवाल के जवाब में ‘हां’ या ‘न’ बड़ी कठिनाई से कह पाई थी. हाथपैर ठंडे पड़ गए थे और पूरे शरीर में उस नुमाइश के दौरान कंपकंपाहट बनी रही थी. लड़के से अकेले में बात कर के भी खुल नहीं पाई थी. पूरी जिंदगी का फैसला 15 मिनट में, यह सोच ही घबराहट पैदा कर रही थी.

उन लोगों ने मु?ो पसंद नहीं किया और ऐसे ही जवाब की हमें उम्मीद थी क्योंकि उस दिन वाकई मैं ने खुद को दयनीय हालत में सब के सामने पेश किया था.

दूसरी बार हिम्मत कर के मैं कुछ बोली. उन लोगों के सवालों के सम?ादारी से जवाब दिए. मेरा हौसला बढ़ाने को अंजलि मेरे साथ बैठी थी. उसे जरा भी डर नहीं लगा था और उस ने सारी बात को काफी संभाला.

लोगों के कमीनेपन का भी कोई हिसाब नहीं. वहां से जवाब आया कि बेटे को छोटी बहन पसंद आई है. गुस्से से भरे मम्मीपापा ने उन्हें जवाब देना भी जरूरी नहीं सम?ा पर इस घटना ने मेरा दिल बिलकुल खट्टा कर दिया था.

‘‘अब जो भी मु?ो देखने आएगा मैं बिलकुल साधारण, सहज अंदाज में उन से मिलूंगी. भविष्य में अपनी नुमाइश कराना मु?ो कतई स्वीकार नहीं है,’’ मेरी इस घोषणा का विरोध घर में वैसे किसी ने नहीं किया पर मम्मीपापा बेहद तनावग्रस्त नजर आने लगे थे. मेरा अपना ऐसा सर्कल नहीं था जिस में कोई लड़का हो. ज्यादातर सहेलियों की शादियां हो चुकी थीं.

कविता की मनोदशा में बखूबी सम?ा सकती थी. इसीलिए कपड़े बदलने

के बाद मैं कुछ देर उस के पास बैठी. बोली, ‘‘उन लोगों की ‘हां’ या ‘न’ की टैंशन तुम मत लो कविता. इस मुलाकात को इंपौर्टैंट मानो ही मत. अगर शांत रह सकी तो तुम्हारी असली पर्सनैलिटी सब के दिलों को निश्चय ही प्रभावित करने में सक्षम है. लड़़का तुम्हें जरूर पसंद कर लेगा…’’ इस अंदाज में उस का हौसला बढ़ाने के बाद मैं ड्राइंगरूम में चली आई.

वहां मुझे अलग तरह की मुसीबत की जानकारी मिली.

‘‘रेणु, उन लोगों का फोन आया है. वे लंच यहीं करेंगे. पहले ऐसा कार्यक्रम नहीं था. बाजार का खाना खाने से उन लोगों ने इनकार कर दिया है. अब क्या होगा?’’ सरला आंटी बड़ी परेशान नजर आ रही थीं.

‘‘कब तक पहुंचेंगे वे लोग?’’

‘‘करीब 1 बजे तक लगभग 2 घंटे बाद.’’

‘‘इतनी देर में तो लंच तैयार हो ही जाएगा, आंटी. मु?ो बाजार जाना पड़ेगा.’’

‘‘चलो, मैं चलती हूं तुम्हारे साथ,’’ वे फौरन उठ खड़ी हुईं. वे खुद कार चला कर ले गईं. बाजार से जरूरी सब्जियां, फल व पनीर ले कर हम घर लौट आए.

मैं बड़ी चुस्ती से खाना बनाने के काम में लग गई. शिमलामिर्च पनीर की सब्जी के साथसाथ मैं ने मिक्स बैजिटेबल भी बनानी थी. बूंदी का रायता, सलाद और मीठे में फू्रट कस्टर्ड बनाना था. गरमगरम पूरियां उसी समय तैयार करनी थीं. ये सब जल्दी बन जाने वाली चीजें थीं.

बूआ ने थोड़ाबहुत मेरा काम में हाथ बंटाया. सरला आंटी भी कुछ करना चाहती थीं, पर मेहमान होने के नाते मैं ने उन्हें काम नहीं करने दिया. सलाद काटने का काम अंजलि बड़ी सुंदरता से करती थी. आंटी और उस ने यही काम पूरा किया. पूरियों का आटा बूआ ने गूंदा. फ्रूट कस्टर्ड बनाने का काम संजय ने मेरे मार्गदर्शन में किया. एक समय तो ऐसा भी था कि हम सभी रसोई में एकसाथ मेहमानों के लंच की तैयारी में जुटे थे. कविता कुछ नहीं कर रही थी, पर थी वह भी रसोई में ही.

1 बजने तक पूरियों को छोड़ कर सारा खाना तैयार हो गया. सरला आंटी ने मेरा माथा चूम कर मु?ो धन्यवाद दिया.

‘‘आंटी, काम मैं ने अकेली ने नहीं किया है. हम सभी को यों फटाफट खाना तैयार करने का श्रेय जाता है,’’ मैं ने शरमा कर सब के साथ अपनी खुशी बांटने का प्रयास किया.

‘‘मेरे विशेष प्रयास की खास सराहना होनी चाहिए क्योंकि जिंदगी में पहली बार मैं ने कस्टर्ड बनाया है,’’ संजय की इस बात पर हम सब हंस पड़े.

‘‘अब नईनई चीजे सीखते रहिएगा. कल को जब आप की शादी हो जाएगी तो आप की पत्नी को सराहना करने के खूब मौके मिलेंगे,’’ अंजलि के यों छेड़ने पर लगा सम्मिलित ठहाका पहले से ज्यादा तेज था.

‘‘मैं ने जिसे ढूंढ़ा है, वह गृहकार्यों में बहुत कुशल है, अंजलि. इसलिए मु?ो कुछ सीखने की जरूरत नहीं है.’’

‘‘तो आप ने अपने लिए लड़की ढूंढ़ रखी है?’’

‘‘बिलकुल ढूंढ़ रखी है.’’

‘‘तसवीर है उस की आप के पर्स में?’’

‘‘तुम्हें उसे देखना है?’’

‘‘हां.’’

‘‘मिलवा दूंगा उस से जल्द ही.’’

‘‘कुछ तो बताइए उस के बारे में,’’ अंजलि संजय के पीछे ही पड़ गई.

‘‘मैं बताती हूं,’’ सरला आंटी ने बीच में कहा, ‘‘वह बड़ी भोली, प्यारी और सम?ादार है, शिक्षित है, सलीकेवान है और मेरे घर की जिम्मेदारियां बड़ी कुशलता से निभाएगी, इस का मु?ो विश्वास है.’’

‘‘आंटी, पहले कविता की शादी करोगी या संजय की?’’

‘‘संजय की.’’

‘‘हमें जरूर बरात में ले चलिएगा,’’ अंजलि की इस फरमाइश को सुन कर बूआ, आंटी, संजय और कविता पर हंसी का अजीब सा दौरा पड़ गया और हम दोनों बहनें इन का मुंह उल?ान भरे अंदाज में ताकती रह गईं.

संजय के मोबाइल की घंटी बज उठी. वह फोन सुनने रसोई से बाहर चला गया. वह 5 मिनट बाद लौटा और परेशान स्वर में बोला, ‘‘वे लोग लंच पर नहीं बल्कि शाम को चाय पर आएंगे. सारे दिन के लिए परेशान कर दिया और खाना बनाने की मेहनत बेकार गई सो अलग.’’

‘‘मेहनत क्यों बेकार गई?’’ मैं ने मुसकरा कर कहा, ‘‘हम सब जम कर खाएंगे. अब लड़के वालों के नखरे ऐसे ही होते हैं. उन लोगों से सम?ादारी की उम्मीद रखना नासम?ा ही है.’’

‘‘रेणु, सब लड़के वाले एकजैसे नहीं होते. संजय के लिए कड़वे अनुभवों की कहानी मीना ने मु?ो सुनाई है. वे लोग बेवकूफ और अंधे रहे होंगे जो तुम जैसे हीरे को गलत ढंग से परख गए. तुम जिस घर में बहू बन कर जाओगी, उस की इज्जत में 4 चांद लग जाएंगे,’’ सरला आंटी ने मेरे सिर पर आशीर्वाद भरा हाथ रख दिया.

‘‘आंटी, उन को मैं कोई दोष नहीं देती. आप लड़कियों की नुमाइश की प्रथा को प्रोत्साहन देंगे तो लड़के वाले लड़की को वस्तु सम?ोंगे ही और उसी घर से रिश्ता जोड़ेंगे जहां से फायदा होगा. लड़की के व्यक्तित्व को, उस के मनोभावों को गहराई से सम?ाने की रूचि और सुविधा ऐसी नुमाइशों में नहीं होती है,’’ अपनी बात कह कर मैं पानी पीने को फ्रिज की तरफ चल पड़ी क्योंकि मु?ो लगा कि मेरी पलकें नम हो चली हैं.

कुछ देर बाद हम सब ने मिल कर डाइनिंगटेबल पर खाना खाना शुरू किया. मेरी बनाई सब्जियों की सब ने बड़ी तारीफ करी.

अपने बनाए कस्टर्ड की संजय ने हम सब से जबरदस्ती खूब प्रशंसा कराई. वह 1 घंटा बड़े हंसतेहंसाते बीता.

हम ने भोजन समाप्त किया ही था कि मौमडैड ताऊजी के यहां से लौट आए. मेहमानों से बातें करने की जिम्मेदारी अब उन दोनों की हो गई. मन ही मन बड़ी राहत महसूस करते हुए मैं रसोई समेटने के काम में लग गई.

बाद में कौफी बना कर अंजलि ने सब को पिलाई. मैं कमरे में जा कर कुछ देर आराम करने को लेट गई.

करीब डेढ़ घंटे बाद मु?ो बूआ फिर ड्राइंगरूम में ले गईं. यह देख कर कि सरला आंटी, संजय और कविता विदा लेने को तैयार खडे़ थे, मैं जोर से चौंक पड़ी, ‘‘वे लोग आ नहीं रहे है क्या?’’ मैं ने हैरान स्वर में सरला आंटी से पूछा.

‘‘नहीं. उन का फोन आ गया है कि लड़की उन्हें पसंद है… रिश्ता स्वीकार कर लिया है उन्होंने,’’ आंटी ने मुसकराते हुए जवाब दिया.

‘‘अच्छा. यह तो खुशी की बात है, आंटी. मुबारक हो,’’ मैं ने कहा.

‘‘तुम्हें भी… तुम सब को भी रेणु,’’ आंटी ने मेरे कंधों पर प्यार से हाथ रख दिए.

‘‘हमें क्यों?’’ मैं ने अचरज भरे स्वर में पूछा.

‘‘इस रिश्ते के होने में तुम ने बड़ी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है.’’

‘‘खाना तैयार करना कोई बड़ा काम नहीं

है आंटी.’’

‘‘मेरी नजरों में है. तुम ने खाना ही नहीं तैयार किया, घर को सजाया. बाजार से खरीदारी कराई और बिना माथे पर शिकन डाले बड़ी कुशलता से सारा उत्तरदायित्व निभाया. मेरे मन को भा गई तुम तो.’’

‘‘थैंक यू, आंटी,’’ अपनी इतनी तारीफ सुन कर मैं लजा उठी थी.

‘‘अब तुम इनकार मत कर देना नहीं तो मेरा दिल टूट जाएगा… हम सब का दिल टूट जाएगा.’’

‘‘किस इंकार की बात कर रही हैं आप?’’ मैं ने उल?ान भरे स्वर में पूछा.

जवाब में आंटी ने मेरा माथा प्यार से चूमा और सब ने जोरदार तालियां बजाईं.

तभी संजय सामने आ खड़ा हुआ. फिर घुटनों के बल बैठ गया. मैं हैरान सी देख रही थी कि क्या हो रहा है. उस ने इत्मीनान से जेब से मखमली डिब्बी निकाली और उसे खोला. उस में हीरे की अंगूठी थी, ‘‘रेणु विल यू मैरी मी?’’ यह बोल कर वह मेरी आंखों में ?ांकने लगा. पहले तो मैं घबराई कि यह क्या नाटक है पर फिर सम?ा आने लगा.

मैं बोली, ‘‘यस आई विल मैरी यू इफ यू टेक मी एज ए पार्टनर ऐंड नौट एज ए मेड.’’

इस पर सब ने मेरी हाजिर जवाबी पर तालियां बजाईं.

बाद में पता चला कि यह सब नाटक मौमडैड और बूआ की प्लानिंग थी जो संजय के लिए लड़की ढूंढ़ रहे थे. संजय एमबीए कर के एमएनसी में काम कर रहा है, यह वह बातोंबातों में दिनभर बताता रहा था. सब से बड़ी बात यह थी कि लंच के बाद उस ने जबरदस्ती किचन में घुस कर बरतन साफ कर डाले थे जबकि अंजलि उसे टोकती रह गई. यह सारी प्लानिंग उस मुई कविता की है. संजय को कोई लड़की पसंद नहीं आ रही थी तो कविता ने मेरे बारे में उसे बताया था.

अब रात का खाना बाहर से आया. न मैं और न संजय किचन में घुसे. हम तो छत पर सब से अलग फ्यूचर प्लानिंग कर रहे थे न.

तुम्हारी मरजी : जब बीवी की मरजी का न खाना खाए पति

रविवार की दोपहर का वक्त है, एक औसत मध्यवर्गीय परिवार का घर.

सुष्मिता: भई, कितनी बार कह चुका हूं कि आज रविवार दोपहर में खाने में क्या और्डर करना है., कम से कम यह तो बता दो.

‘‘अच्छा तुम कहो तो सांभरबड़ा और मसाला डोसा मंगा लेती हूं.’’

‘‘हां, यही और्डर कर दो,’’ भुनेंद्र ने कहा.

फिर सुष्मिता ने सांभरबड़ा और मसाला डोसा और्डर कर दिया.

शाम का समय

‘‘सुष्मिता, अब शाम का तो बता दो कि खाना क्या बनाऊं? सुबह तो तुम्हारी पसंद का सांभरबड़ा और मसाला डोसा खाया था. भई, सम?ा में नहीं आता कि कैसी होममेकर हो तुम. यह सब तुम्हारा काम है… मुझे इतनी सारी फाइलें देखनी हैं. तुम्हारी जौब में होमवर्क नहीं है, मेरी जौब में तो है. इन्हें आज ही निबटाना है मु?ो.’’

‘‘इन्हें तो जैसे घर से कोईर् मतलब ही नहीं है. जब देखो दफ्तर का काम,’’ सुष्मिता बड़बड़ाई.

मंगलवार की प्रात:

‘‘क्या औफिस के लिए खाने में कुछ तैयार है? मु?ो आज दफ्तर जरा जल्दी जाना है.’’

‘‘अभी कहां, मैं तो बस तुम से पूछने ही

आ रही थी कि  औफिस लंच के लिए कल के पिज्जा स्लाइस रखूं या फिर आलू के परांठे बनाऊं?

‘‘उफ, फिर वही ?ागड़ा. कुछ अपने दिमाग का भी इस्तेमाल किया करो. मु?ो तो तुम अगर तैयार हो तो वही दे दो नहीं तो मैं चला. आज कैंटीन में ही खा लूंगा.’’

‘‘ठीक है फिर कैंटनी में खा लेना…. तुम्हारी मरजी ही चलेगी.’’

शाम

‘‘आज तो घर आने में बड़ी देर कर दी, कहां भटक गए थे? 4 घंटे से अकेले घर में

पड़ी हूं.’’

‘‘दफ्तर में काम ज्यादा था. अच्छा, लाओ खाना, बड़े जोरो की भूख लगी है.’’

‘‘बस, अभी 5 मिनट में बना देती हूं. तुम्हारी पसंद की ही सब्जी बनाने के लिए रुकी हुई थी.’’

‘‘अच्छा तो कोफ्ते बना लो.’’

‘‘कोफ्तों में तो बहुत टाइम लगता है. बहुत भूख है तो शाही पनीर का रैडीमेड पैकेट रखा है. तुम्हारी मरजी हो तो खोल दूं?’’

बुधवार की सुबह

‘‘बताओ, आलूपालक की सब्जी बनाऊं या कद्दू की? तुम्हें ही बताना पड़ेगा… तुम्हारी मरजी से ही चलेगा न.’’

‘‘तो फिर आलू, शिमलामिर्च, पालक ही बना लो.’’

‘‘ठीक है तुम्हारी मरजी तो यही बना

देती हूं.’’

‘‘पर पालकआलू, शिमलामिर्च साफ करतेकरते तो बड़ी देर हो जाएगी. आप की बस न निकल जाए कहीं. ऐसा करती हूं ?ाटपट कद्दू काट कर छौंक देती हूं.’’

‘‘अच्छी बात है, फिर कद्दू ही बना लो.’’

‘‘ठीक तुम्हारी मरजी तो कद्दू ही बना

देती हूं.’’

शाम

‘‘क्या बात है आज तुम ने पूछा नहीं कि कौन सी सब्जी बनानी है? आज मेरी चटपटा खाना खाने की बड़ी इच्छा हो रही है. मसालेदार छोले बनाओ तो मजा आ जाए.’’

‘‘आज रमा के साथ चायपकौड़े खा कर आ रही हूं. थक गईर् हूं. सिर भी थोड़ा दुख रहा है. आज तुम ही अपने और मेरे लिए थोड़ी सी रैडीमेड नूडल्स बना लो.’’

‘‘अच्छा तो मैं टोस्ट से पैटी बना लेता हूं.’’

‘‘ठीक है तुम्हारी मरजी.’’

गुरुवार की प्रात:

‘‘आज क्या बनाऊं?’’

‘‘मेरे खयाल में कद्दू कैसा रहेगा? आता है न? वैसा बनाना जैसा मेरी मां बनाती है.’’

‘‘कद्दू, कल ही तो खाया था कद्दू. मु?ा से नहीं खाया जाता रोजरोज यह कद्दू. मैं तो आलूपरवल बनाने जा रही हूं.’’

‘‘ठीक है आलूपरवल बना लो.’’

‘‘तुम्हारी मरजी है न तो ?ाटपट बना लेती दूं वरना दोनों को देर हो जाएगी.’’

शाम

‘‘सुबह आलूपरवल में थोड़ा नमक क्या

तेज हो गया सारी सब्जी ही वापस ले आए.

इस महंगाई के जमाने में यह बरबादी ठीक है क्या? मैं ने उसी बची हुई सब्जी में टमाटर डाल कर मिक्सी में चला कर सूप बना दिया है.’’

‘‘तुम जानती हो, मु?ो परवल वैसे ही पसंद नहीं हैं. फिर भी सुबहशाम वही खिलाती हो.’’

‘‘लो तुम्हारी मरजी थी तो ही तो आलूपरवल बनाए थे.’’

शुक्रवार की प्रात:

‘‘जल्दी से बताओ, क्या सब्जी बनाऊं नहीं तो थोड़ी देर में ही हायतोबा मचाना शुरू कर दोगे?’’

‘‘भई, मेरी मरजी तो आज गोभीमटर की सब्जी खाने की है.’’

‘‘बड़ी शान से बोल दिया, गोभीमटर की सब्जी बनाओ. जानते हो इन दोनों का मौसम

नहीं है?’’ फिर बेमौसम सब्जी का भाव भी मालूम है?’’

‘‘तो फिर बैगन ही बना लो.’’

‘‘तुम तो सम?ाते ही नहीं, आजकल बैगन कड़वे आ रहे हैं. तुम्हारी मरजी हो तो मैं लौकी बना लेती हूं.’’

‘‘अच्छा, वही सही तुम ने मु?ा से पूछा

तो मैं ने बता दिया. लौकी भरवां बना सकती हो?’’

‘‘भरवां लौकी 2 जनों के लिए सिर्फ? न बाबा. मैं तो तुम्हारी मरजी की रसे की लौकी बना देती हूं.’’

शाम

‘‘कुछ बताओ तो सब्जी क्या बनेगी या कुछ बाहर से मंगाओगे?’’

‘‘ठीक सम?ो तो भरवां आलू बना लो.’’

‘‘तुम्हें तो हमेशा ?ां?ाट की चीजें ही

सू?ाती हैं. अब कौन बैठ कर मसाला पीसेगा?

मैं आलू यों ही काट कर भून लेती हूं या

तुम्हारी मरजी हो तो चनादाल मंगवा लूं?

वही और्डर कर देती हूं तुम्हारी मरजी की

ब्लैक दाल.’’

शनिवार की प्रात:

‘‘हरी सब्जी घर पर नहीं है.’’

‘‘आलू तो होंगे वही बना लो.’’

‘‘आलू हैं तो मगर खाली आलू की सब्जी खाने में बिलकुल मजा नहीं आता. मैं बेसन की पकौडि़यों की सब्जी बना लूं? तुम्हारी मां ने सिखाई थी.’’

‘‘ठीक है, वह भी चलेगा.’’

‘‘अच्छा तो तुम्हारी मरजी है तो पकौड़ी की सब्जी बना लेती हूं.’’

शाम

‘‘अब क्या बना रही हो?’’

‘‘हफ्ते में एक शाम तो मु?ो भी छुट्टी मिलनी चाहिए. आज कहीं बाहर चलें क्या?’’

‘‘हांहां… क्यों नहीं. एक नया जौयंट खुला है डिफैंस ऐनक्लेव में.’’

‘‘ठीक है तुम्हारी मरजी तो वहीं चलते हैं.’’

‘‘आज ब्रेकफार्स्ट क्या बनाऊं?’’

रविवार की प्रात:

‘‘आज छुट्टी के दिन तो चैन से सोने दो. सबेरे से ही खाने का राग अलापने लगती हो… जो चाहो बना लो.’’

शाम

‘‘आज मैं ने नमक, कालीमिर्च भर कर

शुद्ध घी में परवल बनाए हैं, देखो तो कैसे बने हैं?’’

?ां?ाला कर, ‘‘तुम्हें मालूम है कि मु?ो परवल पसंद नहीं हैं. फिर भी जानबू?ा कर बारबार परवल क्यों बनाती हो? आगे से घर में परवल नहीं बनने चाहिए.’’

‘‘रोज सुबहशाम तुम्हारी मरजी का खाना मिलता है. आज एक बार अपनी मरजी से परवल क्या बना लिए लगे चिल्लाने- इस घर में तो मेरी कुछ पूछ ही नहीं. अपनी पसंद की सब्जी तक नहीं बना सकती,’’  सुष्मिता की आंखों से टपाटप आंसू गिरने लगते हैं. भुनेंद्र हत्प्रभ उसे देखता रह जाता है.

काश : अभिनय और उसकी पत्नी के बीच क्यों बढ़ रही थी दूरियां

Writer- भावना ठाकर ‘भावु’

आज हलकीहलकी बारिश और खुशनुमा मौसम ने अभिनय के मिजाज को रोमांटिक बना दिया. अभिनय ने अपनी पत्नी संगीता की कमर में हाथ डालते हुए ‘टिपटिप बरसा पानी, पानी ने आग लगाई…’ गाना गुनगुनाते थोड़ा रोमांस करना चाहा.

मगर ‘‘हटिए भी… जब देखो आप को बस रोमांस ही सू?ाता है,’’ कह कर नीरस और ठंडे मिजाज वाली संगीता ने अभिनय का हाथ ?ाटक कर उसे खुद से अलग कर दिया. अभिनय आहत होते चुपचाप बैडरूम में चला गया और म्यूजिक सिस्टम पर गुलाम अली खान साहब की गजलें सुनते व्हिस्की का पैग बनाने लगा. एक पैग पीने के पश्चात अभिनय ने आंखें बंद कर लीं और गजल सुनने लगा…

‘‘चुपकेचुपके रातदिन आंसू बहाना याद है, हम को अब तक आशिकी का वो जमाना याद है…’’

गुलाम अली साहब की गहरी आवाज में गजल चल रही हो तो कोई नीरस इंसान ही होगा जिसे जवानी के मस्ती भरे दिन और इश्क का रंगीन जमाना याद न आए. अभिनय को भी वह जमाना याद आ गया जब शीतल के साथ पहली बार लिव इन रिलेशनशिप में रहने लगा था. भरपूर जवानी थी, जोश था और पहलेपहले इश्क का सुरूर था ऊपर से बैंगलुरु की हवाओं में गजब का खुमार था.

अभिनय का मन अतीत की गलियों में आवाजाही करने लगा कि शीतल के साथ बिताया हुआ हर लमहा मु?ो रोमांटिक बना देता था. कहां संगीता ठंडे चूल्हे सी जब प्यार करने जाता हूं तब हटिए कह कर पूरे मूड का सत्यानाश कर देती है. कहां अपने नाम से विपरित मिजाज रखने वाली लबालब उड़ते शोले जैसी शीतल, जो अभिनय के हलके स्पर्श पर धुआंधार बरस पड़ती थी. जब दोनों एकदूसरे में खो जाते थे तो शीतल के अंगअंग में इतना नशा होता था कि उस नशे में मैं पूरी तरह डूब जाता था. शीतल बालों में उंगलियां घुमाती थी और मैं नींद की आगोश में सो जाता था. उस के साथ समय बिताने में हर पल मु?ो एक नया अनुभव होता था और हर बार नया आकर्षण.

शीतल अभिनय का प्यार पा कर कहती, ‘‘अभि, तुम से मु?ो बहुत संतुष्टि मिलती है. ऐसा लगता है जैसे मैं ने स्वर्ग का सुख पा लिया हो. कभी मेरा साथ मत छोड़ना. तुम्हारे बिना मैं जी नहीं पाऊंगी.’’

अभिनय की आंखें भर आईं. सोचने लगा कि शीतल से अलग हो कर अकेला रह कर मैं ने 1-1 पल उसे ही याद कर कर के जीया है. क्या शीतल भी मु?ो याद करती होगी?

अभिनय के खयालों की जंजीरों को तोड़ते पीछे से संगीता ने अनमने लहजे में पूछा, ‘‘खाना लगा दूं या बाद में खाएंगे? मु?ो नींद आ रही है. बाद में खाना है तो खुद परोस लेना,’’ और अभिनय का जवाब सुने बिना ही संगीता सोने के लिए चली गई.

इसी बात से जुड़ा कोई वाकेआ अभिनय को याद आ गया. ‘मु?ो भूल नहीं जाना’ कहने पर शीतल का अपनी कसम दे कर अपने हाथों से खाना खिलाना याद आते ही अभिनय अतीत की गलियों में पहुंच गया…

आईटी इंजीनियरिंग पास करते ही अभिनय को बैंगलुरु में एक अमेरिकन कंपनी में अच्छी जौब मिल गई. एक साल अच्छे से बीत गया. घर से मांपापा बारबार फोन पर जोर डाल कर कहते कि अभि अब तो तू सैटल हो गया है शादी के लिए हां कर दे तो लड़कियां देखना शुरू करें लेकिन अभिनय को फिलहाल बैचलर लाइफ ऐंजौय करनी थी तो हर बार बहाना बना कर टाल देता.

एक दिन कंपनी में शीतल नाम की नई लड़की ने जौइन किया. देखने में हीरोइन की टक्कर की. गोरा रंग, छरहरा बदन, कर्ली हेयर, बादामी आंखें किसी भी लड़के को घायल करने वाले सारी भावभंगिमाओं की मालकिन शीतल

को पाने के सपने औफिस के सारे लड़के देखने लगे. शीतल की नजर में आने के लिए हरकोई पापड़ बेलने लगा. मगर शीतल किसी को भाव नहीं देती. एक अभिनय ऐसा था जो अपने काम से मतलब रखता. उस की शीतल को पाने में

कोई दिलचस्पी नहीं थी. अभिनय शीतल को रिझाने के लिए न कोई हथकंडा अपनाता न बगैर काम के बात करता और अभिनय का यही ऐटिट्यूड शीतल को घायल कर गया.

देखने में अभिनय भी बांका जवान था. 6 फुट लंबा, हलका

डार्क रंग, घुंघराले बाल और फ्रैंच कट दाढ़ी में कहर ढाता कामदेव का रूप

लगता था. शीतल जैसी तेजतर्रार लड़की के

जेहन में बस गया. हर छोटीबड़ी बात के लिए अभिनय की सलाह लेने शीतल जानबू?ा कर

पहुंच जाती.

आहिस्ताआहिस्ता 2 जवां दिल एकदूसरे से आकर्षित होते करीब आने लगे. अब तो औफिस के बाद अभिनय और शीतल कभी मूवी देखने, कभी पिकनिक, कभी शौपिंग तो कभी डिनर के लिए निकल जाते. बैंगलुरु की हर फेमश जगह दोनों प्रेमियों के मिलन की गवाह बन गई.

एक दिन शीतल ने कहा, ‘‘अभि, मु?ो

2 दिन में पीजी छोड़ना होगा क्योंकि जहां में

रहती हूं वह बिल्डिंग रिडैवलपमैंट में जा रही है इसलिए रूम खाली करवा रहे हैं. अब इतने शौर्ट टाइम में कैसे मैनेज होगा. क्या तुम कुछ कर सकते हो?’’

अभिनय ने कहा, ‘‘बुरा न मानो तो एक

बात कहूं?’’

शीतल ने कहा, ‘‘यार… येह औपचरिकता मत करो सीधा बोल दो इतना हक तो मैं तुम्हें दे चुकी हूं.’’

अभिनय ने शीतल का हाथ अपने हाथ में ले कर कहा, ‘‘जब दोनों एक ही मंजिल के मुसाफिर हैं तो क्यों न एक छत के नीचे रैन बसेरा करें. मैं जिस फ्लैट में रहता हूं वह काफी बड़ा है. आ जाओ अपना सारा सामान ले कर मेरे घर में. आजकल हरकोई लिव इन रिलेशनशिप में रहता है. इस से एक बात और भी होगी कि हम दोनों को एकदूसरे को अच्छे से जानने का मौका भी मिल जाएगा और कंपनी भी बनी रहेगी. पर अगर तुम चाहो तो.’’

शीतल खुशी से उछलते हुए बोली, ‘‘अरे नेकी और पूछपूछ, मैं कल ही बोरियाबिस्तर उठा कर आ रही हूं तुम्हारी सियासत पर कब्जा करने.’’

दूसरे दिन संडे था तो दोनों ने मिलकर

सारा सामान सेट कर लिया. दोनों खुश थे. शुरुआत में साथसाथ रहते हुए दोनों का प्यार परवान चढ़ने लगा. अभिनय शीतल की हर जरूरत पर जान छिड़कता था. अब तो औफिस भी साथसाथ आनाजाना होता. दोनों एकदूसरे का साथ पा कर बेहद खुश थे. दोनों ने अपने आने वाले भविष्य तक की प्लानिंग बना ली. कितना समय लिव इन में रहेंगे, कब शादी करेंगे और कब फैमिली प्लानिंग होगी सब फिक्स हो गया. दोनों को लगने लगा कि अपनीअपनी तलाश पूरी हो गई. जीवनसाथी के रूप में जैसी कल्पना की थी वैसा ही पार्टनर मिल गया. मानसिक तौर पर दोनों ने एकदूसरे को भावी पतिपत्नी के रूप में भी स्वीकार कर लिया. अब दोनों बिंदास एकदूसरे पर हक जताते प्यार करने लगे.

रोज औफिस से आने के बाद शीतल

कौफी बनाती और दोनों बालकनी में बैठ कर आराम से लुत्फ उठाते. आहिस्ताआहिस्ता

2 बिस्तर सिंगल में तबदील हो गए. शीतल की मुसकान पर फिदा होते अभिनय शीतल को कमर से पकड़ कर अपनी ओर खींचता और अपने अंगारे जैसे लब शीतल के लबों पर रख देता. उस स्पर्श की कशिश से उन्मादित हो शीतल जंगली बिल्ली की तरह अभिनय पर प्रेमिल हमला करते लिपट जाती और फिर दोनों एकदूसरे पर मेघ जैसे बरस जाते.

शीतल अभिनय के घुंघराले बालों में उंगलियों को घुमाते अभिनय का चेहरा चूम

लेती उस पर अभिनय शीतल को बांसुरी सा उठा कर तन से लगा लेता. यों दोनों ने प्रिकौशंस के साथ कई बार शारीरिक संबंध की सारी हदें पार कर लीं.

मगर कहते हैं न कि ‘दूर से पर्वत सुहाने’  कभीकभार मिलना हमेशा लुभाता है लेकिन साथ रह कर जब एकदूसरे की कमियां और खूबियां पता चलती है तब असल में प्रेम की सही परख होती है. किसी भी चीज में तुष्टिगुण का नियम लागू होता ही है. इंसान को जो आनंद खाने का पहला निवाला देता है वह तीसरा, चौथा या

10वां नहीं देता. शुरुआत में अभिनय और

शीतल को लगता था कि कुदरत ने दोनों को एकदूसरे के लिए ही बनाया है लेकिन जब जिम्मेदारियां बांटने और घर चलाने की बात

आती है वहां प्यार का वाष्पीकरण हो जाता है. अभिनय और शीतल के रिश्ते में जीवन की जरूरी चीजों पर पैसे खर्च करने से ले कर घर को साफसुथरा रखने जैसी हर छोटीबड़ी बात पर तूतू, मैंमैं होने लगी. कल तक दोनों को अकेले अपनी मनमरजी से जीने की आदत थी और आज एकदूसरे की पसंदनापसंद और तौरतरीकों से सम?ाता करने की नौबत आ गई.

अभिनय टिपीकल बैचलर लाइफ जीने का आदी था इसलिए अपनी चीजें जैसे कपड़े, जूते, टौवेल, लैपटौप लगभग सारी चीजें इधरउधर

फैला कर कहीं भी रख देता. पहलेपहल तो

शीतल खुद प्यार से सब बरदाश्त करते सहज लेती और अभिनय को सुधारने की कोशिश करती. लेकिन जब ये सब रोज का हो गया तो चिड़ने लगी और बहस करतेकरते दोनों के बीच छोटेमोटे ?ागड़े भी होने लगे. उस से विपरीत शीतल को अपनी सारी चीजें सुव्यवस्थित और सहेज कर रखने की आदत थी. उसे हर काम में परफैक्शन चाहिए होता जिस की वजह से दोनों में कभीकभी तनाव पैदा हो जाता.

जैसेतैसे दोनों एकदूसरे के साथ एडजस्ट करते जीने की कोशिश कर रहे थे. ऐसे में चुनाव नजदीक आ रहे थे तो एक दिन कौनसी पार्टी देश के लिए सही है और कौन देश के लिए हानिकर उस पर चर्चा करते दोनों के बीच जंग छिड़ गई. दोनों ही पढ़ेलिखे अपने विचार का समर्थन करते अपनी दलीलों पर डटे रहे. नतीजन वैचारिक असमानता का सब से मजबूत पहलू दोनों के सामने आ गया. दोनों में से कोई भी समाधान के मूड में नहीं था. शीतल का कहना था कि कांग्रेस पार्टी में छोटी उम्र के पढ़ेलिखे नेता आजकल की टैक्नोलौजी को सम?ाते देश को नई दिशा देने में सक्षम हैं. वहां अभिनय का कहना था भाजपा पार्टी के उम्रदराज, शक्तिशाली और अनुभवी नेता ही देश की बागडोर संभालने में काबिल हैं. दोनों एकदूसरे पर अपनी चुनी सरकार को वोट देने के लिए दबाव तक डालने लगे.

तभी इस वाकयुद्ध को अलग ही मोड़ देते हुए शीतल ने कहा, ‘‘देखो अभिनय मैं कोई 18वीं सदी की लड़की नहीं जो मर्द की बातों को पत्थर की लकीर सम?ा कर सिरआंखों पर चढ़ाती रहूंगी और न हर सहीगलत बात में तुम्हारी हां में हां मिलाती रहूंगी. मैं 21वीं सदी की लड़की हूं मेरे अपने स्वतंत्र विचार हैं, अपना अस्तित्व है, अपनी मरजी है. मु?ो दबाने की कोशिश हरगिज मत करना… तुम अपनी सोच अपने पास रखो. मैं

24 साल की बालिग लड़की हूं. संविधान ने मु?ो सरकार चुनने का अधिकार दिया है, तो जाहिर सी बात है मैं अपनी मरजी से देशहित में फैसला ले कर ही अपने नेता को वोट दूंगी. और सुनो, मैं किस की प्रेमिका या बीवी बन सकती हूं गुलाम कतई नहीं. अभी भी सोच लो. मैं अपने रहनसहन में कोई बदलाव नहीं करूंगी, इन्फैक्ट तुम्हें कुछेक मामलों में सुधरना होगा तभी हम भविष्य में साथ रह पाएंगे.’’

शीतल की बातों से अभिनय भड़क गया और ताव में आ कर उस ने भी

बोल दिया, ‘‘सुधरना होगा? मैं किसी के भी लिए अपनेआप को नहीं बदलूंगा ओके और तुम भी सुन लो, मैं भी तुम्हारे जैसी अकड़ू लड़की के साथ जिंदगी नहीं बिता सकता. दुनिया में लड़कियों की कमी नहीं. मु?ो सम?ाने वाली

और मेरे विचारों के साथ तालमेल बैठाने वाली मु?ो भी मिल जाएगी. हर बात पर टोकाटोकी

और बहस करने वाली लड़की के साथ मैं पूरी जिंदगी नहीं बीता सकता. तुम चाहो तो इस रिलेशनशिप से आजाद हो सकती हो. 1 हफ्ते

का समय देता हूं अपना इंतजाम कहीं और

कर लेना.’’

अभिनय का फैसला सुन कर शीतल के दिमाग का पारा चढ़ गया. अभिनय का कौलर पकड़ते शीतल दहाड़ उठी क्या मतलब है तुम्हारा? अभिनय तुम रिश्ते को गुड्डेगुड्डियों

का रोल सम?ाते हो क्या? सुनो अभिनय मैं ने

मन के साथ अपना तन भी तुम्हें सौंपा है और

वह भी एक भरोसे के साथ, तुम तो रिश्ता

तोड़ने पर उतर आए. मेरे तन के साथ खेलते हुए तो मैं परी लगती हूं. आज इतनी सी बात पर छोड़ने पर उतारू हो गए? तुम किसी लड़की के भरोसे के लायक ही नहीं. मानसिक तौर पर नपुंसक हो नपुंसक.’’

नपुंसक शब्द सुनते ही अभिनय को अपने वजूद पर किसी ने तेज धार वाली शमशीर से प्रहार किया हो ऐसा महसूस हुआ. अत: उस ने अपनाआपा खोते हुए शीतल के गाल पर जोर से थप्पड़ जड़ दिया, ‘‘बदतमीज लड़की मैं तुम्हारे तन से खेला हूं तो सैटिस्फाइड तुम भी हुई हो सम?ा और जो होता था हम दोनों की मरजी से होता था, कोई बलात्कार नहीं किया मैं ने.’’

अभिनय ने जो तमाचा मारा वह शीतल के मन पर लगा था. अत: वह यह घरेलू हिंसा कैसे सह लेती. पास ही टेबल पर पड़ा फ्लौवर वाज उठा कर अभिनय के सिर पर दे मारा और यू बिच मु?ा पर हाथ उठाने की तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई कहते शीतल ने एक पल भी अभिनय के साथ रहना मुनासिब नहीं सम?ा. उसी पल अपना सामान ले कर अपनी फ्रैंड रूही के घर चली गई.

यों एकदूसरे को बेइंतहा प्यार करने वाले 2 प्रेमियों का प्यारा सा रिश्ता तूतू, मैंमैं से आगे बढ़ते हुए असमान विचारधारा की बलि चढ़ गया.

अभिनय को अपनी गलती का एहसास और पश्चात्ताप होने लगा.

आज संगीता के रूखे व्यवहार को कड़वे घूंट की तरह पी जाने वाला अभिनय शीतल के सख्त व्यवहार पर बिफर पड़ता था क्योंकि शीतल पत्नी नहीं प्रेमिका थी जिस का अभिनय पर कोई कानूनी हक तो था नहीं. आज अभिनय सोच रहा है जब संगीता ऐसा व्यवहार करती है तो मन मार कर सह लेता हूं क्योंकि वह बीवी है, न उगल सकता हूं. न निगल सकता हूं इसलिए एक अनमना रिश्ता भी ढो रहा हूं. अगर शीतल की बातों को सम?ा कर, उस के विचारों का सम्मान करते हुए रिश्ते को एक मौका दिया होता तो शायद जिंदगी कुछ और होती. प्यार तो दोनों के बीच बेशुमार था, बस अपनेअपने अहं और स्वतंत्र विचारधारा का सामने वाले की विचारधारा के साथ तालमेल नहीं बैठा पाने की वजह से दोनों ने रिश्ते का गला घोट दिया.

हर रिश्ता स्वतंत्रता चाहता है. सब की अपनी सोच और जिंदगी जीने का तरीका होता है.

क्यों मैं ने शीतल को सम?ा नहीं और शीतल ने क्यों मु?ो अपने सांचे में ढालने की कोशिश की? अगर शीतल अपनी जिंदगी अपने तौरतरीके से जीना चाहती थी तो क्या गलत था और मैं भी अपनी कुछ आदतें बदल लेता तो कौन सा पहाड़ टूट पड़ता? क्या एकदूसरे को स्पेस दे कर अपनेअपने स्वतंत्र विचारों का पालन करते

जिंदगी नहीं काट सकते थे? सैकड़ों कपल्स असमान विचारधारा के बावजूद एकदूसरे को आजादी देते हुए जिंदगी आसानी से काट लेते हैं. यहां तक कि आपस में बगैर प्रेम के कई जोड़े मांबाप भी बन जाते हैं. फिर मैं और शीतल छोटेछोटे मुद्दों को अपनी प्रतिष्ठा का प्रश्न बनाते क्यों अलग हो गए?

इंसान का स्वभाव ही इंसान का दुश्मन

होता है या शायद वह उम्र ही ऐसी होती है जो ऐसी बातों को सम?ाने के लिए छोटी पड़ती है. आज जब सारी बातें, सारी गलती सम?ा में आ रही है तब चिडि़या चुग गई खेल वाली गत है. काश, मैं ने और शीतल ने उस वक्त सम?ादारी दिखाई होती तो आज यों पश्चात्ताप की आग में जलना नहीं पड़ता.

‘‘वक्त करता जो वफा आप हमारे होते,’’ गुनगुनाते हुए अभिनय नम आंखों से खिड़की

के पास जा कर दूर आकाश में ताकने लगा

जैसे सैकड़ों सितारों के बीच किसी अपने को ढूंढ़ रहा हो.

मशीन : खुद को क्यों नौकरानी समझती थी निशा

Writer- कुलदीप कौर बांगा ‘गोगी’

ट्रिन… ट्रिन… अलार्म की आवाज के साथ ही निशा की आंख खुल गई. यह कोई आज की बात नहीं, रोज ही तो उसे इस आवाज के साथ उठना पड़ता है. फिर यह तो उठने के लिए बहाना मात्र है. रातभर में न जाने कितनी बार वह बत्ती जला कर समय देखती है.

रात्रि की सुखद नीरवता एवं शांति को भंग करते प्रात:कालीन वेला में इस का बजना आज उसे कुछ ज्यादा ही अखर गया. उस ने अलार्म का बटन दबा कर उसे शांत कर दिया.

निशा रोज ही उठ कर मशीन की तरह घर के कामों में लग जाती है, पर न जाने क्यों आज उस  का मन कर रहा है कि वह पड़ी रहे. ‘ओह, सिर कितना भारी हो रहा है,’ सोचते हुए उस ने रजाई को कस कर और अपने इर्दगिर्द लपेट लिया. ‘आज शायद ठंड कुछ ज्यादा ही है,’ उस ने सोचा.

‘आखिर यों कब तक चलेगा,’ वह सोचने लगी. अब और खींच पाना उस के बस का नहीं है पर क्या वह नौकरी छोड़ दे? तब घर की गाड़ी कैसे चलेगी?

कैसी विडंबना है. जिस नौकरी को पाने के लिए वह रोरो कर सिर फोड़ लेती थी, जिसे पाने के लिए उस ने जमीनआसमान एक कर दिया था आज वही नौकरी कर पाना उस के बस का नहीं रहा है.

निशा ने एक ठंडी आह भरी और न चाहते हुए भी वह उठी और स्नानघर में घुस गई. आज उस का मन बरबस ही बचपन की दहलीज पर जा पहुंचा. मां उसे जगाजगा कर थक जाती थी, तब कहीं बड़ी मुश्किल से वह उठती थी. तैयार होती नाश्ता करती और स्कूल चली जाती. घर वापस आने पर किसी न किसी सहेली के यहां का कार्यक्रम बन जाता था.

सर्दियों की दोपहरी में टांगें फैला कर 5-6 सखियां घंटों बैठी रहतीं. रेवड़ी, मूंगफली से भरी ट्रे कब खत्म हो जाती और चाय के कितने प्याले पीए जाते हंसीठिठोली के बीच पता ही न चलता. फिर कालेज में आने पर मुकेश की गजलें, गीत सुन कर मन जाने कहां भटक जाता और हाथ की सलाइयां रुक जातीं.

‘‘कहां खो गई निशा?’’ किरण चुटकी लेती और इस के साथ सब सखियों का सम्मिलित ठहाका गूंज उठता. पढ़ाई के बाद उस ने नौकरी शुरू कर ली थी और उसी की वजह से अमित से मिलना हुआ, प्रेम हुआ, फिर विवाह हो गया. अब 2 गुना काम करना पड़ रहा था.

कितना मन करता है उन आलमभरी दोपहरियों की तरह पड़े रहने का. धूप सेंके तो मानो बरसों हो गए हैं. अमित कम से कम रविवार को तो धूप सेंक लेते हैं, उसे तो उस दिन भी यह नसीब नहीं.

‘अरे, अमित को तो अभी तक जगाया ही नहीं, पारुल और स्मिता को भी स्कूल के लिए देर हो जाएगी,’ निशा ने सोचा और फिर तेजी से आंच पर कुकर चढ़ा कर अमित को जगाने चली गई.

अमित को जगा कर जैसे ही निशा पारुल को जगाने लगी वह

चौंक पड़ी, ‘‘अरे, इसे तो बुखार लग

रहा है.’’

‘‘क्या?’’ अमित भी घबरा सा गया. उस ने पारुल को छूआ और आहिस्ता से बोला, ‘‘आज तो तुम छुट्टी कर लो निशु.’’

‘‘छुट्टी कैसे करूं रोजरोज? अभी उस दिन जब छूट्टी ली थी तो पता है बौस ने क्या कहा था?’’

‘‘क्या?’’

‘‘यही कि महिलाओं को शादी और बच्चों के बाद नौकरी देने का मतलब है रोज की सिरदर्दी. आज यह काम तो कल वह काम. रहता हैं तो नौकरी करती ही क्यों हो.’’

उसे अचानक याद आए वे दिन जब उस की नौकरी लगी ही थी. तब तो वह छुट्टी ही नहीं लेती थी. उसे जरूरत ही नहीं पड़ती थी इस की. आराम से तैयार होना. रोज एक से एक बढि़या सूट या साड़ी पहनना और 4 इंच की हील वाले सैंडल पहन कर खटखट करते हुए निकल जाना. अब तो शादी और बच्चों के बाद किसी तरह उलटीसीधी साड़ी लपेटी और कभीकभी तो बस निकल जाने के डर से चप्पल बदलने का भी ध्यान नहीं रहता.

‘‘चलो, आज मैं छुट्टी ले लेता हूं. पारू

को डाक्टर के पास तो ले जाना ही पड़ेगा?’’ अमित ने कहा तो निशा थोड़ी सहज हो कर रसोई में चली गई. चाय के लिए पानी चढ़ाने लगी तो देखा गैस खत्म हो चुकी थी. वह रोंआसी सी हो गई. एक तो महरी सप्ताहभर के लिए बाहर गई हुई है, ऊपर से गैस खत्म- अगर उसे दफ्तर न जाना होता तो वह इत्मीनान से सारा काम कर लेती, पर अब?

8 बज चुके हैं और उसे सवा 9 बजे वाली बस पकड़नी है. क्यों ?ां?ाट मोल लिया, उस ने

नौकरी के बाद शादी करने का? कालेज के दिनों में कितनी छुट्टियां होती थीं. परीक्षाएं खत्म होने पर तो बस मजा ही आ जाता था. पढ़ाई की चिंता भी खत्म. गरमी की लंबी दोपहरियों में अपने कमरे के सारे परदे गिरा कर ठाट से ट्रांजिस्टर सुनती थी. एसी की ठंडी हवा कभी कोई पेंटिंग बनाती तो कभी खर्राटे लेते हुए शाम तक पड़ी रहती. शाम होते ही किरण, मधु, शशि सब पहुंच जाती थीं. फिर उन की सरपट भागती स्कूटियां होतीं और वे कभी फिल्म तो कभी किसी मौल में फूड कोर्ट में लंच.

‘‘निशा, तु?ो बांधने का

कोई खूंटा ढूंढ़ना ही पड़ेगा, यह नौकरी पूरा खूंटा नहीं है,’’ पड़ोस वाली रीता भाभी अकसर उसे

छेड़ा करतीं.

‘‘देखो भाभी, मैं तुम्हारी तरह खूंटे से यों ही बंधने की नहीं, नौकरी के साथ शादी करूंगी तो भी वह खूंटा नहीं देगी. आजादी कायम रहे. जो घरेलू ?ां?ाट मिलबांट कर पूरे हो जाएंगे अपने बस के नहीं,’’ और किसी नन्हे बच्चे की तरह भाभी को चिढ़ा कर भाग जाती थी वह.

‘‘क्या बात है निशा, चाय नहीं बनी अभी? भई, स्मित को स्कूल छोड़ने भी जाना है, उसे भी दूध दे दो,’’ कहतेकहते अमित रसोई में आ गए. इलैक्ट्रिक चूल्हे पर खाना धीमे पकता था. निशा के आंसू टपटप गिर रहे थे.

‘‘अरे, क्या गैस खत्म हो गई? तुम तो रो रही हो? निशा, तुम्हीं तो कहा करती हो, जहां संघर्ष खत्म हो जाता है वहां जिंदगी ठहर जाती है. पगली चलो उठो, मैं बरतन कर देता हूं,’’ अमित मुसकराते हुए बोले, पर उन की आवाज में खीज निशा से छिपी न रह सकी.

बच्चों की बीमारी, मेड की छुट्टियां, कभी अपनी तबीयत खराब तो कभी मेहमानों का आना यह  तो गृहस्थी में हमेशा ही चलता रहता है पर जाने क्यों कई दिनों से निशा बड़ी अनमनी सी हो गई है. शायद रोज ही इस भागदौड़ से वह अब थक सी गई है. रोज 5 बजे उठना, घर भर की सफाई करना, बच्चों को दूध, नाश्ता करा कर और लंच दे कर स्कूल भेजना. फिर अपना तथा अमित का नाश्ता व साथ ले जाने के लिए दोपहर का खाना तैयार करना, 9 बजने का पता ही नहीं चलता था और जब कभी महरी न आए तो बरतनों का ढेर भी उस के जिम्मे था. वह अकसर भाग कर ही बस पकड़ पाती थी. देर होने पर बौस की खा जाने वाली निगाहें, फाइलों का ढेर और दोपहरी में सुबह का बना ठंडा खाना. घर लौटतेलौटते 6 बज जाते. थकान से टूटता बदन और घिसटते कदम. दिनभर अकेले रहे बच्चों पर उसे डेर सा प्यार उमड़ आता और वह उन्हें प्यार करतेकरते खुद रो पड़ती.

एक रविवार आता तो अनेक ?ां?ाट रहते. पड़ोस में किसी के बच्चा हुआ है, बधाई देने जाना है. कोई रिश्तेदार अस्पताल में दाखिल है, उसे देखने जाना है. कहीं से शादी का कार्ड आया है, जाना तो पड़ेगा ही. किसकिस को अपनी परेशानी सुनाई जाए और फिर कपड़ों का ढेर तो रविवार के लिए निश्चित है ही. किसी का बटन टूटा है, तो किसी कमीज की सिलाई उधड़ी है. कभी दालों को धूप दिखानी है तो कभी अचार खराब होने के आसार नजर आ रहे हैं.

‘‘आप जाइए, दफ्तर,’’ निशा ने नाश्ते की प्लेट अमित को पकड़ाते हुए कहा, ‘‘मैं ही ले लूंगी छुट्टी, आज. मेरा सिर भी आज भारीभारी सा हो रहा है. और हां, आज खाना भी कैंटीन में ही खा लेना,’’ कहतेकहते वह कमरे में जा कर पलंग पर पड़ गई.

मन कर रहा था कि  2 घंटे चुपचाप पड़ी रहे तथा कुछ न सोचे पर आज वह स्वयं को बड़ा अशांत अनुभव कर रही थी. उसे शादी से पहले डायरी में लिखे वे शब्द याद आ रहे थे, हम

कोई भी कार्य उत्साह से शुरू करते हैं पर अंत भी उसी उत्साह से होगा या नहीं, कोई नहीं जानता. उस के अनुभव ने उसे आज सही साबित किया है. हो सकता है, आने वाला कल उसे गलत साबित कर दे पर आज यह एकदम सही है. अब डायरियां भी कहां रह गईं. मोबाइलों पर घिसेपिटे मैसेज आते. इस देवता को पूज लो उस देवी की मन्नत मान लो.

यही तो हुआ है उस के साथ. जब वह एमए कर चुकी थी तो नौकरी के लिए उत्सुक थी. चाहती थी एक क्षण भी न लगे और उसे नौकरी मिल जाए पर 2-3 साक्षात्कार दे कर ही वह नौकरी पा गई.

शादी के बाद वह सोचती थी कि 2 वेतनों से उस के दुखों का अंत हो जाएगा पर अब अकसर निशा सोचती, वह उस के दुखों का अंत नहीं बल्कि शुरुआत थी. कितना घृणित होता है पुरुषों का साथ?

अनिल को ही देखो. जब भी कोई फाइल लेने आएगा तो सिगरेट का धुआं जानबू?ा कर मुंह पर ही छोड़ेगा और रमेश तो जानबू?ा कर किसी मोबाइल के मैसेज के शीर्षक को भी इतनी जोर से पढ़ेगा कि वह सुन ले. अभी कल भी तो कुछ पढ़ रहा था. हां, याद आया, ‘‘युवतियों से छेड़छाड़ के लिए युवतियां दोषी हैं?’’

‘‘अरे वाह, क्या सही बात लिखी है लेखक ने,’’ कहते हुए कितनी भद्दी हंसी हंसा था वह.

उस के बदन पर निगाहें टिका कर सुरेश कितनी ही बार दिनेश से कह चुका है,

‘‘यार, कुछ औरतें तो 2 बच्चों की मां हो कर भी लड़की सी लगती हैं. पता नहीं क्या खाती हैं.’’

हुंह क्या खाक कंधा मिलाएं इन पुरुषों से. बड़ी इच्छा होती है अब तो कोई कह दे, निशू, नौकरी छोड़ दो. पर जब सब मना करते थे तो वह रोती थी, अब वह नहीं चाहती तो कोई मना नहीं करता. काश, अमित एक बार आग्रह कर दे कि निशू नौकरी छोड़ दो, अब तुम्हारी हालत मु?ा से देखी नहीं जाती.

हुंह, उसे अपने घर की हालत का पता नहीं. अमित के 25 हजार रुपए से क्या होता है. इन दोनों के 45 हजार रुपए से तो मुश्किल से गुजारा होता है. मकान का किराया, दूध का बिल, फल, सब्जी, कपड़े, मेहमान, बच्चों की प्राइवेट स्कूलों में पढ़ाई, बीमारी आखिर किसकिस में कमी करेगी वह. देखा जाए तो कितना अच्छा लगता है यह सब, कितना सुकून मिलता है जब वह संघर्ष से अर्जित आय से घर चलाती है.

हर महीने कुछ न कुछ बचा कर जब वह कोई वस्तु खरीदती है तो इतनी खुशी मिलती है मानो सबकुछ मिल गया हो. ‘अगले महीने यह खरीदूंगी,’ की कल्पना ही कितनी सुखद होती है. बचत कर के कुछ न कुछ खरीदने का मजा भी कुछ और ही है. उसे अपने घर की हर वस्तु से संतोष की ?ालक और मेहनत की खुशबू आती है और फिर घर तो चलाना ही है. क्यों न खुशीखुशी से यह सब किया जाए.

हां, घर तो चलाना ही है. सहसा उसे याद आ जाता है कि आज मेड नहीं आएगी और

रसोई में रात के जूठे बरतनों का ढेर लगा है जबकि आधे तो अमित धो गया था. वह तेजी से उठ जाती है और मशीन की तरह घूमने लगती है. वह सोचती है कि मशीन बन जाना ही उस की नियति है.

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