Writer- Vimla Rastogi
सुबह व दोपहर के बाद शाम भी होने जा रही थी. समय के हर पल के साथ मेरी बेचैनी भी बढ़ती जा रही थी. हर आहट पर मैं चौंक उठती. दुविधा, आशंकाएं मेरे सब्र पर हावी होती जा रही थीं. खिड़की पर जा कर देखती, कुसुम का कहीं पता न था. क्यों नहीं आई अब तक? शायद बस न मिली हो. देरी का कोई भी कारण हो सकता है. मैं अपने मन को सम झाने का असफल प्रयास करती रही. तभी मैं ने संतोष की सांस ली. सामने बैग लिए कुसुम खड़ी थी. इस से पहले कि मैं अपनी बेचैनी जाहिर करती, उस के पैरों की शिथिलता ने मु झे भी शिथिल बना दिया. वह रेंगते कदमों से सोफे पर धंस गई.
‘‘बात नहीं बनी?’’ मैं ने स्वयं को संयत कर पूछा.
‘‘हां, तरू. अशोक किसी भी कीमत पर सम झौता करने को तैयार नहीं है.’’
‘‘तू ने मेरी तरफ से…’’
‘‘हां, मैं ने हर तरीके से सम झा दिया. वह यही कहता रहा कि अब हम दोनों के धरातल अलगअलग हैं. एक ही मकान अलगअलग नींवों पर खड़ा नहीं हो सकता.’’
‘‘सच है उस का कहना. अपनी बरबादी का कारण मैं स्वयं हूं. मु झे अपने किए का फल मिलना ही चाहिए ताकि दूसरी लड़कियां मु झ से कुछ सीख सकें. मेरे जैसी गलतियां दोहराई न जाएं.’’
‘‘सच तरू तू ने अकारण ही अपना बसाबसाया घर उजाड़ डाला.’’
‘‘हां कुसुम मेरे झूठे अहं ने मु झे कहीं का न छोड़ा. तू तो मेरे बारे में बहुत कुछ जानती है. पर जिंदगी के कुछ खास अध्याय मैं तु झे विस्तार से बताना चाहती हूं. पश्चात्ताप की जलन ने मु झे मेरी भूलों का एहसास करा दिया है. उस दिन भी मंगलवार ही था. मैं दफ्तर से आई थी तो उठी तो 7 बज चुके थे. खुद को ठीक किया. कमरा सुबह से अस्तव्यस्त पड़ा था. तभी अशोक आ गए.
‘‘बुक करा लिया टिकट?’’ प्रश्न बंदूक की गोली सा उन पर दाग दिया गया.
‘‘बताता हूं. पहले एक कप चाय हो जाए.’’
‘‘चाय पीने में देर हो जाएगी, वहीं कैफे में पी लेंगे,’’ मैं ने कहा.
‘‘हम तो तुम्हारे हाथ की बनी चाय ही पीएंगे,’’ अशोक बोले.
‘‘देखो, बातों में मत फुसलाओ. साफसाफ बताओ कि टिकट बुक किया या नहीं?’’
‘‘दरअसल…’’
‘‘हांहां, सोच लो कोई बहाना,’’ मैं ने कहा.
‘‘बहाना नहीं, सच कह रहा हूं. आज
दफ्तर में बहुत काम था. बीच में 1-2 बार ट्राई किया पर साइट विजी थी इसलिए हो न सका.’’
‘‘यह काठ का रैक बुक करने की फुरसत तुम्हें मिल गई, म्यूजिक कंसर्ट के टिकट के
लिए नहीं.’’
‘‘अरे बाबा, यह तो सुबह और्डर कर दिया था. सख्त जरूरत थी इस की. डब्बे इस रैक में लग जाने से कमरा खाली दिखाई देगा.’’
‘‘जब देखो कमरे की सफाई, सामान को ठीक ढंग से लगाने पर जोर, इस तरह के कभीकभार होने वाले लाइव व म्यूजिक को
जाने को मन ही कब करता है तुम्हारा? तुम तो खुश होगे कि 3-4 हजार रुपए भी बच गए.’’
‘‘तरू, तुम हर बात कितनी आसानी से कह जाती हो.’’
‘‘क्या गलत कहा है? तुम हर समय पैसे का खयाल करते हो.’’
‘‘कहीं भी कुछ भी शुरू करने से पहले अपनी जेब तो देखनी ही पड़ती है.’’
‘‘जेब को इतना ही देखना था तो फिर शादी क्यों की?’’ मेरा क्रोध अग्नि बनता जा रहा था और उन का धैर्य पानी.
‘‘‘तरू, नाहक परेशान न हो. यह स्टार तो आतेजाते रहते हैं. अगली बार चल चलेंगे.’’
इस सिंगर को लाइव देखने का कितना मन था. स्टेडियम का मैदान पूरा भरा होगा. जो थ्रिल होगी उस की कल्पना नहीं कर सकते. फिर कब होगा किसे पता? हो सकता है तुम्हारा कोई दोस्त, पुरानी गर्लफ्रैंड, रिश्तेदार ही आ धमके.
‘‘तरू, बात कहने से पहले सोच तो लिया करो.’’
‘‘तुम ने शादी से पहले कुछ सोचा था? लोगबाग अपनी बीवियों के लिए क्या कुछ नहीं करते? एक तुम हो कि एक कमरे के मकान में ला कर डाल दिया कि लो बना लो अपने रहनसहन का स्तर. एक दिन भी खुशी प्राप्त नहीं हुई. मेरी नौकरी न होती तो इस का किराया भी न दे पाते.’’
‘‘खुशी मन की होती है. तुम कभी किसी बात से संतुष्ट ही नहीं होतीं. मेरी तो बराबर तुम्हें खुश रखने की कोशिश रहती है.’’
‘‘बातें खूब कर लेते हो.’’
‘‘क्यों? तुम्हारे कहने पर ही तो मैं ने
यहां शहर में बदली कराई है वरना मौमडैड
के साथ रहते. खर्चा भी कम होता, तुम्हें आराम भी मिलता.’’
‘‘मेरे बस का नहीं था उस छोटी सी
जगह घर में घुसते ही सिर ढकेढके काम करना, दब कर रहना. मौम की किट्टी सहेलियों की
सेवा करना.’’
‘‘पर अफसोस तो यह है कि तुम यहां आ कर भी खुश नहीं हो.’’
‘‘यहां कितना घुमाफिरा रहे हो तुम मु झे?’’
‘‘केवल घूमना ही सुख नहीं है. शादी से पहले क्या घूमती ही रहती थी? हम लोग डेटिंग करते समय 5 सालों में कब कहां जा पाए थे?’’
‘‘तब सोचते थे शादी के बाद घूमेंगे, हम ने शादी से पहले भी मनचाहा खाया, पहना, क्या पता था कि…’’ मेरी हिचकियां तेज हो गई थीं.
वे फिर भी मेरे आंसुओं की लडि़यां संजोते हुए बोले, ‘‘बचपना छोड़ दो, तरू. अब तुम अकेली नहीं हो, कोई और भी है जो तुम्हारे प्यार पर बिछबिछ जाता है. तुम्हारा अपना घर है, अपनी जिम्मेदारियां हैं और जहां जिम्मेदारियां होती हैं, वहां कुछ परेशानियां भी होती हैं. कुछ पाने के लिए खोना भी पड़ता है.’’
‘‘साफसाफ सुन लो अशोक, मैं परेशानियां ढोने वाला कोई वाहन नहीं हूं. मेरी सब सहेलियां कितने ठाट से रहती हैं, एक मैं ही…’’
‘‘तो किसी करोड़पति वाले से शादी की होती. सुबह देर से उठती हो, सारा दिन दफ्तर पर रहती हो, संडे को इधरउधर चल देती हो. घर कभी व्यवस्थित नहीं रहता. मैं कुछ नहीं कहता, जो मु झ से बन पड़ता है करता हूं. फिर भी…’’
‘‘अशोक, मैं तुम्हारी नौकरानी बनने नहीं आई हूं.’’
‘‘तरू, बहुत हो चुका. अब चुप हो जाओ वरना…’’
‘‘वरना क्या कर लोगे मेरा? मारोगे? घर से निकालोगे? ब्रेकअप करोगे जो कसर बाकी हो, वह भी पूरी कर लो,’’ दोनों तरफ से तड़ातड़ वाक्यबाण चलते रहे.
‘‘तरू, मेहरबानी कर के चुप हो जाओ. क्यों घर बरबाद करने पर तुली हो?’’
‘‘यह घर आबाद ही कब हुआ था?’’
‘‘बात में बात निकाल कर बढ़ाती जा रही हो. चुप नहीं रह सकतीं क्या?’’
‘‘मैं ने कभी अपने मांबाप की नहीं सुनी… तभी तो तुम जैसे अपनी से नीची जाति वाले से शादी कर ली.’’
‘‘तो वहीं जा कर रहो.’’
‘‘हांहां, वहीं चली जाऊंगी. खुली हवा में सांस तो ले सकूंगी. एक कमरे का कोई घर होता है? न बैठक, न खाने का कमरा. न फर्नीचर, न क्रौकरी. क्या सजाऊं, क्या संवारूं?’’
‘‘एक कमरे को सजानेसंवारने की ज्यादा आवश्यकता होती है, एक बार याद रखो, आलीशान इमारतें और फर्नीचर से होटल बनते हैं, घर नहीं. घर बनता है प्यार से, अपनेपन से.’’
‘‘रहने दो अपने उपदेश. अब मुझे यहां नहीं रहना.’’
‘‘तरू, जल्दबाजी में उठे कदम हमेशा पतन और पश्चात्ताप की ओर जाते हैं.’’
‘‘तुम्हारी बला से मैं मरूं या जीऊं. तुम खर्च से बचोगे.’’
‘‘तरू, क्या हम दोनों अलग रहने के लिए एक हुए थे?’’
‘‘अब मु झे कुछ नहीं सुनना, मैं जा रही हूं,’’ गुस्सा मेरे विवेक पर हावी हो चुका था. मैं ने बैग में कपड़े डालने शुरू कर दिए.
‘‘पागल हुई हो? मैं रात में तुम्हें अकेले नहीं जाने दूंगा,’’ कह कर अशोक ने मेरे हाथ से बैग छीन लिया.
‘‘जीभर कर परेशान कर लो पर मैं ने भी सोच लिया है मु झे यहां नहीं रहना… नहीं रहना…’’ और मैं औंधे मुंह पलंग पर गिर कर सिसकती रही.
बिन बुलाए मेहमान सी साधिकार रात आ चुकी थी. हम दोनों की आंखें नींद से कोरी थीं. कुलबुलाते पेट, बेचैन दिल और करवटें बदलते हम. रात पंख लगा कर उड़ती रही, पर मेरा क्रोध कम न हुआ. अशोक का आत्मसम्मान भी जाग चुका था. वे भी कुछ नहीं बोले. भोर होते ही मैं ने 2 कप चाय बनाई, जो प्यालों की खनखनाहटट के बीच पी ली गई. मैं ने बैग उठाया, 2 मिनट रुकी. मैं जानती थी अशोक कुछ न कुछ जरूर कहेंगे. ऐसा ही हुआ. वे बोले, ‘‘तरू, गुस्सा कम होते ही मैसेज कर देना, मैं आ जाऊंगा. चाहो तो स्वयं चली आना.’’
मैं बिना जवाब दिए ही आगे बढ़ गई. रास्तेभर मेरे दिमाग में अनेकानेक विचार आतेजाते रहे.
मु झे अचानक और अकारण आया देख कर घर में सब लोग आश्चर्यचकित रह गए. सब की हमदर्दी से मु झे रुलाई आ गई.
‘‘और तू ने खूब बढ़ाचढ़ा कर अपने घरवालों से कह दिया कि अशोक ने तु झे मारा, घर से निकाला और घर के लिए रुपए लाने को कहा है?
‘‘हां कुसुम, मैं पूरी तरह अपना विवेक खो चुकी थी. मु झ पर अशोक को नीचा दिखाने का जनून सवार था. मेरी बातें सुन कर मेरा भाई राकेश भड़क उठा. बोला, ‘‘उस नीच जाति के अशोक की इतनी हिम्मत कि मेरी बहन पर हाथ उठाए? लालची कहीं का… रुपए मांगता है. ऐसा सबक सिखाऊंगा कि जिंदगीभर याद रखेगा. देख लेना यहीं आ कर तु झ से माफी मांगेगा. मैं कल ही अपने दोस्त विनोद के साथ उस के पास जाऊंगा,’’ कह कर राकेश चला गया.
और अगले दिन अशोक के घर पहुंच कर विनोद और राकेश ने उसे खूब खरीखोटी सुनाई.
वे दोनों जाते ही अशोक पर बस पड़े. विनोद ने कहा,
‘‘बनो मत, अशोक. हम आप जैसे लालची युवकों की नसनस से वाकिफ हैं. शर्म नहीं आती आप को. आप जैसों के अच्छी तरह सम झते हैं हम और इसीलिए 2 साल शादी नहीं होने दी. खुद तो कभी सलीके से नहीं रहे, हमारी बहन को भी उसी तरह रखना चाहते हो.’’
‘‘विनोद, आप को गलतफहमी हुई है. तरूणा को मारना तो दूर, मैं ने उस से कटु शब्द भी नहीं कहे. आप का धन, आप की जाति आप को मुबारक हो.’’
‘‘भोले मत बनो अशोक, हम से टकराना महंगा पड़ेगा. हम दब्बू लड़की वाले नहीं हैं.’’
‘‘मेरे घर में मेरा अपमान करने का आप को कोई हक नहीं है.’’
‘‘खैरियत इसी में है अशोक आप 2 दिन के अंदर ही हमारे घर आ कर तरूणा से माफी मांगें अन्यथा अंजाम अच्छा न होगा, पछताओगे.’’
‘‘कुसुम, ये लोग आंधी की तरह गए और तूफान की तरह आ गए. इन लोगों ने लौट कर मु झे केवल इतना ही बताया कि 1-2 दिन में अशोक यहां आएंगे,’’ मैं ने कुसुम से कहा.
‘‘तरू, अशाक ने तुम से शदी की थी, अपना स्वाभिमान नहीं बेचा था. तुम्हारे घर आ कर तुम से माफी मांग कर वह अपने अपमान पर मुहर नहीं लगाना चाहता था.’’
‘‘हां, इसीलिए वह नहीं आया और 4 दिन बाद ही तुम्हारे भाई ने किराए के आदमियों से उसे पिटवा दिया. कितना नीच काम किया.’’
‘‘मैं ने ऐसा नहीं कहा था. मु झे यह बात काफी दिन बाद पता चली.’’
‘‘अपने भाई को तुम पहले ही काफी भड़का चुकी थीं. बस जवानी के जोश में राकेश ने भलाबुरा कुछ भी न सोचा. उस ने बारबार पढ़ रख था कि वे लोग ताड़न के अधिकारी हैं. उस का जाति अहम जाग चुका था. तुम्हें मालूम है न आज का माहौल कैसा है?’’
‘‘कुसुम, अपने घर को मैं ने खुद ही आग लगाई है. फिर किस से दोष दूं?’’
‘‘जिंदगी की हकीकतों से घबरा कर तुम जैसी पलायनवादी लड़कियां अपने साथ अपनी जिंदगी को भी ले डूबती हैं. सभी लड़कियों को दहेज के कारण नहीं मारा जाता. उन में से आधी धैर्य व साहस के अभाव में या बदले की भावना से आत्महत्या कर बैठती हैं या तलाक ले कर जीवनभर नए की तलाश करती रहती हैं.’’
‘‘तुम ठीक कहती हो. मैं भी अशोक को नीचा दिखा कर ऊंची बनना चाहती थी. शायद मेरा पुश्तैनी झूठा अहं भी इस से संतुष्ट होता.’’
‘‘तरू, तू ने अपने साथ अशोक को भी कहीं का न छोड़ा. बेचारे ने मारे शर्म के उस शहर में नौकरी छोड़ दी. अपने मांबाप के पास भी उस का मन नहीं लगा क्योंकि घर वालों की सहानुभूति और बाहर वालों के व्यंग्य दोनों ही उस से बरदाश्त नहीं हुए. वह फिर नौकरी की तलाश में भटकता रहा. जैसेतैसे उसे एक नौकरी मिल गई. उस की जिंदगी में न कोई चाह है, न कोई उमंग, बढ़ी दाढ़ी, आंखों के नीचे काले गड्ढे, दुबला शरीर, असमय ही बूढ़ा हो गया है वह.’’
‘‘मेरी जिंदगी भी कम वीरान नहीं. अब न सुबह होने की खुशी होती है, न रात होने का अवसाद. न सुबह को किसी की विदाई, न शाम को किसी का इंतजार. नौकरी पर जाती हूं पर कोई उत्साह नहीं. मशीन की तरह काम करती हूं. सबकुछ गड्डमड्ड हो गया. मैं ने जीती हुई बाजी हार दी है. क्या मु झे हारी हुई बाजी ले कर ही बैठे रहना होगा? कुसुम मु झे कोई तो रास्ता बता?’’ मैं ने कहा.
मैं ने अशोक को बहुत सम झाया. यह भी कहा कि तरूणा अपने किए पर बेहद शर्मिंदा है उसे माफ कर दो पर वह यही कहता रहा कि झूठे लांछनों से प्रताडि़त मैं तरूणा को कभी माफ नहीं कर सकता. हम दोनों कभी एक नहीं हो सकते. तरूणा ने मु झ से किस जन्म का बदला लिया है, मैं आज तक सम झ नहीं पाया. तुम्हारे भाई ने न जाने उस की जाति को ले कर क्याक्या कह दिया कि अब वह बदलने को तैयार की.’’
‘‘हां, कुसुम, वे मु झे बहुत चाहते थे. मैं ही सपनों के रंगमहल में खोई रहती. सचाई के धरातल पर पैर ही न रखना चाहती थी. मैं मांबाप की बहुत मुंहचढ़ी थी. मैं ने कभी किसी की एक भी बात बरदातश्त नहीं की थी. जब मैं गुस्से में घर छोड़ कर चली आई, उस दिन काश, मेरी मां मु झे बजाय आंचल में छिपाने के फटकार कर अशोक के पास भेज देतीं तो कुछ और होता. मौमडैड ने तो यही कहा कि इन छोटी जातियों वालों में तो यही होता है. अब तलाक दिला कर तेरी शादी कुलीन घर में कराएंगे.’’
‘‘पीहर वालों की शह भी लड़की की जिंदगी में सुलगती लकडि़यों सा काम करती है, तरू.’’
‘‘अब सब अपनीअपनी दुनिया में मगन हैं. राकेश से कुछ कहो तो वह भी मेरी गलती बताता है. मां भी मेरे झूठे बोलने को दोष देती हैं. मैं अकेली वीरान जिंदगी लिए समाज की व्यंग्योेक्तियां, दोषारोपण कैसे सह पाऊंगी? वकील ने कह दिया कि अगर सहमति से तलाक न हुआ तो केस 4-5 साल चलेगा और 5 लाख रुपए तो लग जाएंगे. अब इतने पैसे न भाई खर्च करने को तैयार न मौमडैड. मेरी सैलरी भी उन्हें मिल रही है तो वे क्यों चिंता करें.
‘‘हर इंसान अपने किए को भोगता है, तरू. रो कर सहो या चुप रह कर, तुम्हें सहना ही होगा. अशोक तुम से इतनी दूर जा चुका है कि तुम्हारा रुदन, तड़प कुछ भी उस तक नहीं पहुंच सकता.’’
‘‘एक भूल की इतनी बड़ी सजा?’’
‘‘दियासलाई की एक तीली ही सारा घर फूंकने की सामर्थ्य रखती है.’’
‘‘कुसुम, तुम भी मु झे ही…’’
‘‘मैं क्या करूं, तरू? अलगअलग धरातलों पर खड़े तुम दोनों किसकिस को दोष दोगे? अब मैं चलूंगी, तरू, देर हो रही है.’’
‘‘जाओ कुसुम, कहीं लौटने में बहुत देर न हो जाए. घर पर कोई तुम्हारा इंतजार कर रहा होगा,’’ मैं ने हार कर कहा.
कुसुम चली गई. मैं निर्विकार भाव से उसे जाती हुई देखती रही. रह गया केवल सन्नाटा, जिस के साए में ही मुझे दिन गुजारने हैं.