आधुनिक काल में परिवार को किसी एक खास दायरे में बांध कर नहीं देखा जा सकता है. यह हमारे समय की खूबसूरती को बखूबी दर्शाता है. आज हमें ऐसी पेरैंटिंग भी दिखती है जहां मातापिता 2 धर्मों के हो सकते हैं, समान लिंग के हो सकते हैं अथवा सिंगल भी हो सकते हैं. सरोगेसी और एडौप्शन के मामले भी काफी दिखते हैं.

मगर इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि कहीं न कहीं अब भी हमारे समाज में एक सिंगल पेरैंट को बेचारा के रूप में ही देखा जाता है. उसे हर कदम पर लोगों के सवालों का सामना भी करना पड़ता है, क्योंकि वे समाज में चल रहे कौमन पेरैटिंग के चलन से अलग जीवन जी रहे होते हैं.

सदियों से यह माना जाता रहा है कि बच्चे शादी के बाद की महत्त्वपूर्ण जिम्मेदारी होते हैं. मांबाप बन कर हमें समाज और परिवार के प्रति अपना दायित्व निभाना होता है. ऐसे में जाहिर सी बात है कि सिंगल पेरैंटिग के प्रति लोगों की भौंहें तो तनेंगी ही. ऐसे मामलों में लोग पेरैंट की नैतिकता और बच्चे की परवरिश पर भी सवाल उठाते हैं. सिंगल पेरैंट और उन के बच्चे जीवन के हर स्तर पर मानसिक प्रताड़ना का शिकार तो होते ही हैं, एक सिंगल पेरैंट को अपने बच्चे की परवरिश करने में भी काफी मुश्किलों का सामना करना पड़ता है. आइए, विस्तार से जानते हैं सिंगल पेरैंटिंग के कुछ मनोवैज्ञानिक पहलुओं और टिप्स के बारे में.

जिम्मेदारियों का एहसास बढ़ जाता है

सिंगल पेरैंट द्वारा बड़े किए जाने वाले बच्चों में जिम्मेदारी का एहसास कहीं अधिक होता है और यह एहसास उन के पेरैंट में भी अधिक होता है. पेरैंट जहां अपने जीवनसाथी पर निर्भर नहीं होते वहीं बच्चे भी कम उम्र में ही ज्यादा समझदार हो जाते हैं और अपनी जिम्मेदारियां महसूस करने लगते हैं. परिस्थितियां उन्हें आत्मनिर्भरता और जवाबदेही का महत्त्व स्वत: सिखा देती हैं. ऐसे गुण सिंगल पेरैंटिंग वाले बच्चों को बाकी बच्चों से अलग बनाते हैं. वे अधिक संतुलित और मैच्योर होते हैं.

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