मणिपुर में कुकी समुदाय की 2 महिलाओं को निर्वस्त्र कर के घुमाने और उन के साथ यौन हिंसा ने पूरे देश का सिर शर्म से झुका दिया. जिस तालिबानी संस्कृति की हम आलोचना करते हैं यह उस से भी बड़ी घटना है. मणिपुर हिंसा के 83वें दिन 2 महिलाओं के साथ जो हुआ उस के वीडियो बनाए गए और फिर उन्हें सोशल मीडिया पर प्रसारित किया गया जिस से समाज की मानसिकता का ही पता चलता है. यह किसी आदिम युग की घटना लगती है. इस घटना ने साबित कर दिया कि आजादी के 76 सालों के बाद भी महिलाओं को ले कर हमारी सोच नहीं बदली है. देश में 760 साल पहले महिलाओं की जो हालत थी वही आज भी कायम है.

इन महिलाओं को नग्न कर के सड़क पर घुमाते हुए दिखाया जा रहा है. उन के यौन अंगों से छेड़छाड़ की जा रही है. यह वीडियो पूरी दुनिया में चर्चा का विषय बन गया. पूरी दुनिया ने देख लिया कि भारत में महिलाओं की क्या हालत है. 83 दिनों से सो रही डबल इंजन सरकार को सोता देख कर सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले का स्वत: संज्ञान लिया. चीफ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ ने केंद्र और राज्य सरकार को सख्त काररवाई करने का निर्देश दिया. चीफ जस्टिस को यहां तक कहना पड़ा कि या तो सरकार काररवाई करे वरना हम खुद इस मामले में हस्तक्षेप करेंगे.

मानवजीवन का उल्लंघन

चीफ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ ने कहा कि हमारा विचार है कि अदालत को सरकार द्वारा उठाए गए कदमों से अवगत कराया जाना चाहिए ताकि अपराधियों पर हिंसा के लिए मामला दर्ज किया जा सके. मीडिया में जो दिखाया गया है और जो दृश्य सामने आए हैं, वे घोर संवैधानिक उल्लंघन को दर्शाते हैं और महिलाओं को हिंसा के साधन के रूप में इस्तेमाल कर के मानवजीवन का उल्लंघन करना संवैधानिक लोकतंत्र के खिलाफ है.

यह वीडियो 4 मई का बताया जा रहा है जब हिंसा शुरुआती चरण में थी. महिलाओं को निर्वस्त्र कर घुमाने का आरोप मैतई समुदाय के लोगों पर लगा. इस मामले में पुलिस ने अज्ञात हथियारबंद बदमाशों के खिलाफ थौबल जिले के नोंगपोक सेकमाई पुलिस स्टेशन में अपहरण, सामूहिक दुष्कर्म और हत्या का मामला दर्ज किया. हर घटना की ही तरह इस घटना में भी लीपापोती शुरू हो गई.

यह कोई नई घटना नहीं है. मणिपुर में दंगों की ही तरह गुजरात के दंगे भी लंबे समय तक चले थे. इन में भी महिलाओं के साथ बुरा व्यवहार किया गया. इस में सब से प्रमुख नाम बिलकिस बानो का आता है. 21 साल के बाद भी बिलकिस बानो को न्याय नहीं मिल सका. उस के दोषियों को ही रिहा कर दिया गया. 2002 में हुए गोधरा कांड के दौरान बिलकिस बानो से रेप किया गया था और उस के परिवार के लोगों की हत्या कर दी गई थी.

प्रधानमंत्री से सवाल

15 अगस्त, 2022 को गुजरात हाई कोर्ट ने दोषियों को समय से पहले ही रिहा कर दिया था, जिस के बाद बानो ने 30 नवंबर, 2022 को इस के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाते हुए याचिका दायर की.

2002 में गुजरात में हुए गोधरा कांड के बाद प्रदेश में दंगे भड़क गए थे. दंगाई बिलकिस बानो के घर में घुस गए थे, जिन से बचने के लिए बानो अपने परिवार के साथ एक खेत में छिप कर बैठ गई थी. इस दौरान दंगाइयों ने 21 साल की बिलकिस जो 5 महीने की गर्भवती थी, उस के साथ गैंगरेप किया. उन दंगाइयों ने उस की मां समेत 3 और महिलाओं के साथ भी दुष्कर्म किया और परिवार के 7 लोगों की हत्या कर दी.

इस दौरान बानो के परिवार के 6 सदस्य भी गायब हो गए जिन का कभी पता नहीं चल सका. इस के बाद गैंगरेप के आरोपियों को 2004 में गिरफ्तार किया गया. वहीं 2008 में स्पैशल कोर्ट ने 11 दोषियों को उम्रकैद की सजा दी थी. लेकिन गुजरात हाई कोर्ट ने उन्हें समय से पहले ही 15 अगस्त को रिहा कर दिया. बिलकिस बानो को आज भी न्याय की तलाश है. गुजरात दंगों के दौरान नरेंद्र मोदी मुख्यमंत्री थे. मणिपुर दंगों के दौरान वे देश के प्रधानमंत्री हैं. 83वें दिन बीत जाने पर भी हिंसा जारी है. देश के लोग प्रधानमंत्री से सवाल कर रहे हैं और वे चुप हैं.

जाति और धर्म की राजनीति

760 साल यानी मध्यकालीन युग में भारत में महिलाओं की जो हालत थी उस में 76 सालों में कोई बदलाव नहीं हुआ है. जाति और धर्म को ले कर रूढि़वादी विचारधारा आज भी कायम है. मणिपुर में 2 महिलाओं के साथ जो हुआ उस का भी जातिगत आधार है. मैतई समाज के लोगों ने कुकी समाज से बदला लेने के लिए उन के समाज की महिलाओं का अपमान करने के लिए यौन हिंसा की. इस के पहले उत्तर प्रदेश में हाथरस कांड हुआ जहां दलित लड़की की लाश को पुलिस ने बिना घर वालों की मरजी के जलवा दिया.

इस से पता चलता है कि 76 साल बाद देश में महिलाओं के वही हालत है जो 760 साल पहले थी. महिलाओं को बराबरी का हक नहीं था. पढ़ाई नहीं कर सकती थीं. उन के पहनावे पर भी रोक थी. आज भी लड़कियों और महिलाओं के पहनावे को ले कर टिप्पणियां की जाती हैं. अगर कम कपड़े पहने लड़की के साथ छेड़छाड़ हो जाती है तो दोष लड़के का नहीं लड़की के कपड़ों का दिया जाता है. मौडर्न कपडे़ पहनने वाली लड़कियों को अच्छा नहीं माना जाता. असल में यह पुरानी पुरुषवादी मानसिकता की निशानी है.

नहीं था स्तन ढकने का अधिकार

केरल में महिलाओं को स्तन ढक कर रखने का अधिकार नहीं था. इस के लिए उन को टैक्स चुकाना पड़ता था. एड़वा जाति की महिला नंगेली ने टैक्स दिए बगैर अपने स्तन ढकने का फैसला कर लिया. कर मांगने आए अधिकारी ने जब नंगेली की बात को नहीं माना तो नंगेली ने अपने स्तन खुद काट कर उस के सामने रख दिए. इस साहस के बाद खून ज्यादा बहने से नंगेली की मौत हो गई.

150 से 200 साल पहले की ही बात है. केरल के बड़े हिस्से पर त्रावणकोर के राजा का शासन था. जातिवाद की जड़ें बहुत गहरी थीं और निचली जातियों की महिलाओं को उन के स्तन न ढकने का आदेश था. इस को न मानने वालों को ‘ब्रैस्ट टैक्स’ यानी ‘स्तन कर’ देना पड़ता था. असल में उस दौर में पहनावे से ही व्यक्ति की जाति की पहचान की जाती थी.

‘ब्रैस्ट टैक्स’ का मकसद जातिवाद के ढांचे को बनाए रखना था. गरीब समुदायों के लिए टैक्स देना मुमकिन नहीं था. लिहाजा, वे स्तन नहीं ढकती थीं. केरल के हिंदुओं में नायर जाति को शूद्र माना जाता था. इन से निचले स्तर पर एड़वा और फिर दलित समुदायों को रखा जाता था. स्तन कर का नाम मलयालम में ‘मुलक्करम’ था.

राजा की ओर से नियुक्त टैक्स कलैक्टर

बाकायदा दलितों के घर आ कर इस कर की वसूली करता था. उस समय केरल में महिला हो या पुरुष, उच्च वर्ण हो या निम्न, सभी मुंडू (धोती) पहनते थे. इस वस्त्र से कमर से नीचे का हिस्सा ढका जाता था, जबकि महिला हो या पुरुष कमर से ऊपर बिना कपड़े के रहते थे.

क्या कहते हैं आंकड़े

महिलाओं की हालत बयां करती बहुत सारी कहानियां इतिहास के पन्नों में दर्ज हैं. इसी युग में गरीब और कमजोर वर्ग की महिलाओं को दासी बनाने की प्रथा भी थी जो बड़े घरों की लड़कियों के साथ ससुराल तक जाती थीं. राजा की हैसियत इस बात से आंकी जाती थी कि उस ने अपनी बेटी की सेवा के लिए कितनी दासियां भेजी हैं. आजादी के बाद भले ही दासी बनाने की प्रथा बंद हुई हो पर बाकी महिलाओं की हालत में सुधार नहीं हुआ है. आज भी कमजोर वर्ग की महिलाएं पैसे के लिए घर की गंदगी साफ करने से ले कर दूसरे काम तक करती हैं. गंदगी साफ करने का काम जाति विशेष की महिलाएं ही करती हैं.

इस के बाद भी गरीब और कमजोर वर्ग की महिलाओं के साथ अपराध बढ़ते ही जा रहे हैं. भारत के राष्ट्रीय अपराध रिकौर्ड ब्यूरो के अनुसार 2020 की तुलना में 2021 में महिलाओं के खिलाफ अपराध की घटनाओं में 15.3 फीसदी की वृद्धि हुई है. राष्ट्रीय अपराध रिकौर्ड ब्यूरो के अनुसार 2011 में 2,28,650 से अधिक घटनाएं दर्ज की गईं, जबकि 2021 में 4,28,278 घटनाएं दर्ज की गईं. भारत में 10 वर्ष से कम उम्र की लगभग 7.84 मिलियन बच्चियों की शादी हो जाती है.

जीवनसाथी के चुनाव का अधिकार

उत्तराखंड में पौड़ी गढ़वाल के नगर पालिका अध्यक्ष और भाजपा नेता यशपाल बेनाम की लड़की मोनिका ने उत्तर प्रदेश के मुसलमान परिवार के लड़के मोनिस से शादी का निमंत्रण कार्ड ही छपवाया था. कार्ड सोशल मीडिया पर वायरल हो गया. इस के बाद उन दोनों के परिवार पर इतना दबाव पड़ा कि उन को शादी कैंसिल करनी पड़ी. इस तरह की घटनाएं तमाम हैं. ये बताती हैं कि लड़कियों के लिए अपने जीवनसाथी का चुनाव करना मुमकिन नहीं है.

शादी में दहेज का दानव आज भी कायम है. 76 सालों में इस में सुधार नहीं आया. साल दर साल इस तरह की घटनाएं बढ़ती जा रही हैं. 2016 से 2021 के बीच 6 साल की अवधि में देश में महिलाओं के खिलाफ अपराध के करीब 22.8 लाख मामले दर्ज हुए. इन में से लगभग 7 लाख यानी करीब 30त्न आईपीसी की धारा 498ए के तहत दर्ज किए गए थे. धारा 498ए किसी महिला के खिलाफ पति या उस के रिश्तेदारों की कू्ररता से संबंधित है.

आंकडे़ बताते हैं कि बलात्कार और यौन उत्पीड़न के मामलों में भी कहीं ज्यादा दहेज उत्पीड़न के मामले हैं. एक अध्ययन में पाया गया कि 8,000 गर्भपातों में से 7,997 कन्या भू्रण के थे. राष्ट्रीय अपराध रिकौर्ड ब्यूरो के आंकड़ों के अनुसार 2014 से 2018 के बीच 5 वर्षों की अवधि में देश में एसिड हमलों के 1,483 मामले दर्ज किए गए.

जायदाद में नहीं है अधिकार

मध्यकाल में महिलाओं की स्थिति बहुत खराब थी. उन को पत्नी और बहन के रूप में सम्मान दिया जाता था. महिलाओं को मानसिक रूप से हीन सम?ा जाता था. उन का काम आंख मूंद कर अपने पतियों की आज्ञा का पालन करना था. उन्हें वेदों की पहुंच से वंचित रखा गया था. इस के अलावा लड़कियों की विवाह योग्य आयु कम थी ताकि उन के लिए शिक्षा के अवसर खत्म हो जाएं. लड़की की शादी के बाद जब वह ससुराल जाती थी तो उस के साथ दासियां भी जाती थीं जो वहां उस की सेवा करती थीं.

जाति और महिलाओं की सामाजिक स्थिति का अटूट संबंध है. जाति को पुन: उत्पन्न करने के लिए सजातीय विवाह और अन्य सामाजिक तकनीकों का उपयोग महिलाओं के शरीर को यौन रूप से वश में करने के लिए किया जाता था. इस वजह से मध्ययुगीन काल से जाति व्यवस्था की  कठोरता देखने को मिलती है. यह अभी भी किसी न किसी रूप में कायम है. 11वीं शताब्दी तक विधवाओं को जलाना, सती प्रथा, पूरे भारत में आम थी आज भले ही सती प्रथा खत्म हो गई हो पर समाज में विधवाओं को अधिकार नहीं हैं. उन का एक तरह से सामाजिक बहिष्कार ही होता है.

पुनर्विवाह और समाज

लड़कियों को भले ही संविधान ने उन के पिता की जायदाद में हिस्सा दे दिया हो पर अभी भी समाज इस को अच्छा नहीं मानता है. भाई के रहते पिता की जायदाद में बेटी हिस्सा न ले इस का सामाजिक दबाव रहता है. पितृसत्ता उसी तरह से समाज में कायम है जैसे 760 साल पहले कायम थी. 800-1200 के दौरान महिलाओं की स्थिति खतरनाक थी. लड़कियों की शादी 6 से 8 साल की उम्र के बीच कर दी जाती थी. आज भी 18 साल होतेहोते अधिक संख्या में शादियां हो जाती हैं.

पुनर्विवाह को अच्छा नहीं माना जाता है. यदि मजबूरी में पुनर्विवाह करना भी पडे़ तो उस में पहले विवाह जैसा उत्साह नहीं रहता. वह केवल खानापूर्ति भर रहता है. महिलाओं पर आमतौर पर अविश्वास किया जाता है. उन का जीवन पिता, भाई, पति या पुत्र जैसे पुरुषों द्वारा नियंत्रित किया जाता है. पत्नी का नाम पति के नाम के साथ खेती की पैत्रक जमीन में एकसाथ नहीं आता. पत्नी के नाम खेती की जमीन तभी आएगी जब उस का पति जिंदा नहीं रहता है. भूमि संपत्ति अधिकारों के विस्तार के साथसाथ महिलाओं के संपत्ति अधिकार भले ही कागज पर बड़े हों पर सामाजिक रूप से इस को स्वीकार नहीं किया गया है.

धर्म नहीं चाहता औरतों की आजादी

केरल के सबरीमला मंदिर, महाराष्ट्र के शनि शिगणापुर मंदिर और मुंबई के हाजी अली में भी महिलाओं के प्रवेश को ले कर विवाद रहा है. सबरीमला में 10 से 50 साल तक की उम्र की महिलाओं के प्रवेश की मनाही है. इस की वजह यह है कि इस उम्र की महिलाएं माहवारी वाली होती हैं. मंदिरों में इस अवस्था में महिलाओं का प्रवेश वर्जित होता है. इस को महिलाओं के मन में इस तरह से भर दिया गया है कि घरों में भी वे इस अवस्था में पूजा नहीं करतीं. माहवारी के दिनों में महिलाओं को अछूत माना जाता है. आज भी वे इस अवस्था में खाना नहीं बनातीं. अचार नहीं छूतीं.

सबरीमला में यह परंपरा 500 साल पुरानी, शनि शिगणापुर मंदिर में इसे 400 साल पुरानी और हाजी अली के बारे में भी ऐसे ही कुछ दावे हैं यानी 76 साल आजाद रहने के बाद भी हालात नहीं बदले हैं. आदमियों ने परंपरा का नाम ले कर महिलाओं के साथ भेदभाव जारी रखा है. इस दौर में वे खुद बदल गए हैं यानी आदमियों के लिए परंपरा नहीं है. आदमियों के लिए समुद्र पार न करने की परंपरा थी, मगर आज वे विदेश जाते हैं. परंपरा तो मंदिरोंमसजिदों में लाउडस्पीकर लगाने की भी नहीं थी यह भी होता है. पैसा ले कर कथा सुनाने की परंपरा नहीं थी. इस के बाद भी यह होता है.

यह कैसी सोच

कई लोग यह तर्क देते हैं कि आजादी के बाद यानी 76 सालों में महिलाओं की हालत में बहुत बदलाव हुए हैं. महिलाएं नौकरी करने, सिनेमा देखने, वायुसेना में भरती होने, संसद और विधानसभाओं में जा रही हैं. देखने वाली बात यह है कि कितनी महिलाएं यहां जा पा रही हैं. पुरुषों से तुलना करें तो यह संख्या बेहद कम है. महिला की पवित्रता का पैमाना महिला नहीं पुरुष तय करते हैं. जो मासिकधर्म महिलाओं की प्रजनन क्षमता का सूचक है, जिस के कारण पुरुष भी इस धरती पर पैदा होते हैं धर्म के कारण उसी को अपवित्र माना जाता है. गुवाहाटी के कामाख्या मंदिर की देवी की तब पूजा करना पुरुषों के लिए सब से पवित्र है, जब औरतें रजोधर्म से मानी जाती हैं.

स्वास्थ्य के हिसाब से महिलाओं की हालत सब से खराब है. भारत का मातृ मृत्यु अनुपात 2014-16 में 130 प्रति 1,00,000 जीवित से गिर कर 2017-19 में 103 हो गया है. भारत में 57त्न महिलाएं ऐनीमिया की शिकार हैं. 2019 और 2021 के बीच किए गए ‘राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-5’ में कहा गया है कि भारत में 23.3त्न महिलाओं की शादी 18 साल की उम्र से पहले हो गई थी.

आज भारत में महिलाएं अपने मासिकधर्म के दौरान सुरक्षा के स्वच्छ तरीकों का कम उपयोग करती हैं. नैपकिन, सैनिटरी नैपकिन, टैंपोन का प्रयोग मासिकधर्म के दौरान प्रयोग 70 फीसदी महिलाएं नहीं करती हैं.

धर्म की ऐसी पाबंदियां सामंती परंपराओं के अवशेष, उन के अपने मूल्य हैं जो धर्म का मुखौटा ओढ़ कर समाज को अपने वश में किए हुए हैं. धर्म का किसी तर्क, किसी वैज्ञानिक सोच से कोई लेनादेना नहीं होता है. वह पूरी तरह से आस्था पर टिका रहता है. सामंतवाद महिला के हर तरह के इस्तेमाल में विश्वास रखता है. सामंतवाद राजनीति को भी अनुकूल लगता है. इसलिए राजनीति भी धर्म के बारे में पंडेपुजारियों की तरह ही सोचती है. इसी कारण देश के आजाद होने के बाद भी सामंतवाद किसी न किसी रूप में कायम है. वह महिलाओं को किसी भी तरह से आजादी नहीं देना चाहता है.

यह बात और है कि कुछ महिलाओं ने अपनी ताकत से अपने हक लेने का काम किया है, जिस के उदाहरण महिलाओं की तरक्की की मिसाल के रूप में दिए जाते हैं. जिन महिलाओं ने पितृसत्ता से अधिकार छीन कर लेने हैं उन को शिक्षित और जागरूक होना पड़ेगा. धर्म की जंजीरों को तोड़ कर सोचना पड़ेगा. जब तक वे धर्म और रूढि़वादिता की शिकार रहेंगी उन की तरक्की नहीं होगी.

सैक्स के लिए महिलाओं का प्रयोग

पुरुषों के द्वारा महिलाओं का प्रयोग सैक्स के लिए हमेशा से होता आ रहा है. मध्ययुग में दसियों और रखैलों के साथ ऐसा होता था. जो लोग दासी और रखैल नहीं रख सकते थे वे बाजार जाते थे और वहां औरतों का प्रयोग सैक्स के लिए करते थे. यहां भी एक भेदभाव था. आदमी के लिए बाजार और दासियां रखैल थीं लेकिन महिलाओ को ऐसा करने की आजादी नहीं थी.

महिलाओं को दास के रूप में खरीदा और बेचा जा सकता था और उन्हें सब से गंदे काम करने के लिए मजबूर किया जाता था. उन के साथ शारीरिक और यौन शोषण भी किया जाता था. शाही दरबारों में पेशेवर नर्तकियों के साथसाथ देवदासियां या मंदिरों की वेश्याओं के रूप में कार्यरत महिलाओं का एक बड़ा वर्ग था. सैक्स के लिए नीची जाति की महिलाओं से भले ही परहेज नहीं था पर समाज के सामने उन को बराबरी का हक देने के लिए कोई तैयार नहीं था.

आज भी महिलाओं को अपमानित करने के लिए उन के साथ यौन हिंसा होती है. कई बार महिलाओं को सजा देने के लिए उन के कपड़े उतार कर टहलाया जाता है. मणिपुर की घटना अकेली घटना नहीं है. बिहार, उत्तर प्रदेश में इस तरह के कई उदाहरण हैं जहां महिलाओं के बाल काट कर उन को नंगा कर के अपमानित किया गया. कई इस तरह की घटनाएं भी देखने को मिलती हैं जिन में लड़की अगर इनकार कर दे तो उस के साथ बलात्कार किया जाता है. कई बार उन के चेहरों पर तेजाब फेंक कर बदला लिया जाता है. सैक्स के लिए आज भी महिलाओं का प्रयोग होता है. सैक्स की जरूरतों को पूरा करने के लिए महिलाओं के खिलाफ यौन अपराध बढ़ रहे हैं.

इन में ‘महिलाओं के शील भंग’ यानी आईपीसी की धारा 354 के तहत 2016 से 2021 के बीच 5.2 लाख मामले दर्ज किए गए. ये महिलाओं के खिलाफ अपराध से जुड़े कुल मामलों के 23 फीसदी हैं. अपराध, अपहरण और बंधक बनाने की करीब 4.14 लाख घटनाओं के साथ औसतन 18 फीसदी मामले दर्ज किए गए. इन 6 सालों में भारत में बलात्कार के लगभग 1.96 लाख मामले दर्ज किए गए, जो 2016-2021 में महिलाओं के खिलाफ कुल अपराधों में लगभग 8.6त्न थे.

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