आर्थिक मंदी घरों को बुरी तरह आहत कर रही है. जिस तरह घरेलू चीजों की खपत कम हुई है उस से साफ है कि घर चलाने वालों को कटौतियों पर मजबूर होना पड़ रहा है. पर सिर्फ रोनेधोने से काम नहीं चलेगा. सरकार गलत है पर यह सोच कर चलिए कि सरकारी फैसलों पर आप का वैसे ही कोई कंट्रोल नहीं है जैसे बारिश या गरमी पर नहीं. आज तो इस से हंस कर निबटने में चतुराई है.

हम लोग असल में काफी कम में काम चला सकते हैं. अगर कमाई कम हो गई है तो हंसना न छोड़ें, बल्कि ज्यादा हंसें, जम कर हंसें. रोनी सूरत गम को बढ़ा देती है, दर्द कमर को  झुका देता है. आज जो हालात हो रहे हैं वे जल्दी सुधरेंगे इस के आसार नहीं हैं इसलिए हर तरह के पर्यायों के साथ खुल कर जीने के उपाय ढूंढ़ें. न घर पर, न कपड़ों पर और न ही चेहरे पर आफत की शिकनें आएं यह जरूरी है, यह संभव है.

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यदि पुराने लोगों से कुछ सीखें तो पता चलेगा कि वे कैसे कम में गुजारा करते थे. हंस कर तो वे नहीं रहते थे, क्योंकि पुराने लोगों को रोनेधोने का पाठ पढ़ाया जाता था. हर जना रोता रहता था ताकि दूसरा कुछ दया कर के दे जाए. आज जमाना है खुद कुछ कर के, हंस कर के जीवन सुखी बनाने का और इस में कठिनाई क्या है. अकेले स्वीगी या जोमैटो का भेजा गया चीज, मशरूम, चिकन, टौपिंग वाले पिज्जा से ज्यादा स्वाद पूरी में आ सकता है अगर घर के सब लोग मिल कर बनाएं, साथ खाएं.

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