अंधभक्ति के प्रलोभन के लिए धर्म के दुकानदारों ने अब उस पर देशभक्ति की परत चढ़ा दी है. उन्होंने शायद किसी गुप्त आदेश के तहत सारे मंदिरों, धार्मिक जलूसों, तीर्थयात्राओं, कांवड़यात्राओं, भगवती जागरणों, सड़क पर चल रहे अखंड दुर्गा पाठों में भगवा की जगह राष्ट्रीय तिरंगा अनिवार्य कर दिया है. यानी आप इस ढकोसलेपन की आलोचना करेंगे तो आप पर देशद्रोही होने का आरोप लगाया जा सकता है, क्योंकि ढकोसले और पाखंड को तिरंगे में जो लपेट रखा है.

कट्टर, पौराणिक, वर्ण व जाति व्यवस्था के घोर समर्थक मंदिरों, देवीदेवताओं, कुंडलियों, पूजाओं, व्रतों, उपवासों, निरंतर चलने वाले हवनों को बेचने के लिए तिरंगा बड़े काम का है. अब कठिनाई यह है कि तिरंगा तो चाहिए पर जो सस्ता हो, टिकाऊ हो, सुंदर हो. मुश्किल है कि यह टैस्ट तो चीनी ही पूरा कर सकते हैं इसलिए चीनी फैक्टरियां तिरंगों को वैसे ही कंटेनरों में भेज रही हैं जैसे उन्होंने स्वदेशी सरदार पटेल की 597 फीट ऊंची मूर्ति गुजरात में भेजी थी.

चीनी तिरंगे ने इस तरह मार्केट कैप्चर कर ली कि खादी ग्रामोद्योगों, जिन्हें इसे बनाने का एकाधिकार मिला हुआ था, सरकार के पास रोतेकलपते गए कि देश के राष्ट्रवादी तो चीनी तिरंगा खरीद रहे हैं और उन के महंगे तिरंगों का स्टौक अनबिका पड़ा है.

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वाणिज्य एवं उद्योग मंत्री पीयूष गोयल को यह ज्ञान देर से मिला और इस अक्तूबर में सरकार ने चीनी या कहीं और बने तिरंगे के आयात पर बैन लगा दिया है. अब आप को शुद्ध स्वदेशी हाथ से बुना और बना तिरंगा कई गुना दामों पर नया मिलेगा. अब स्कूलों में बच्चों के हाथों में तिरंगे दिखने बंद हो जाएं और यदाकदा चौराहों पर रैड लाइट के दौरान इन की बिक्री होते न दिखे, तो यह समझें कि राष्ट्रभक्ति का खुमार बढ़ती महंगाई के कारण उतर चुका है. खादी के तिरंगे इतने महंगे हैं कि वे आप को चौराहों पर नहीं मिलेंगे.

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