हमारा विवाह कानून कितना अन्यायी है यह सुप्रीम कोर्ट के नए ताजे फैसले से स्पष्ट है. तीन तलाक पर 3 करोड़ आंसू बहाने वाली सरकार को क्या यह मालूम नहीं कि लाखों हिंदू औरतें हिंदू विवाह कानून के कारण वर्षों कारणअकारण अदालत के बरामदों में सैंडिल घिसतेघिसते जवान से बूढ़ी हो जाती हैं और न तो दूसरा विवाह कर पाती हैं और न ही विवाह बंधक से छुटकारा पा पाती हैं?

सुप्रीम कोर्ट की संजय किशन कौल और एम आर शाह की बैंच ने 2012 में दायर उच्च न्यायालय के फैसले पर की गई अपील को विशेष अधिकारों के ही तहत फैसला दिया और विवाह को अंतत: तोड़ दिया.

1993 में हुए विवाह के बाद पत्नी ज्यादातर समय पति के साथ न रह कर मायके रही. 1999 में पति ने तलाक का आवेदन हैदराबाद की फैमिली कोर्ट में दिया. तलाक

6 साल से अलग से रहने पर 10-20 दिनों में मिल जाना चाहिए था पर नहीं मिला. मामला उच्च न्यायालय से होता हुआ सुप्रीम कोर्ट की बैंच के पास 2019 के पास पहुंचा, जिस ने पति से ₹20 लाख दिलवा कर पतिपत्नी को अलग कर दिया.

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केवल कुछ दिनों साथ रही पत्नी से 1999 में से छुटकारे की कोशिश करता पति 20-25 साल बाद राहत की सांस ले पाया और इस दौरान पत्नी भी बंधी रहे यह कैसा समाज, कैसा कानून, कैसी औरतों की हमदर्द सरकार? यह 3 तलाक वाला नाटक कर के औरतों के हितों की तालियां पिटवाना नहीं कहा जाएगा तो क्या कहा जाएगा?

भारत की अदालतें, विधायक, मंत्री, प्रधानमंत्री आज भी पौराणिक विवाहों में विश्वास करते हैं जिस में सीता जैसी का पूरा जीवन जंगलों में बीते पर उसे बारबार 21वीं सदी में समाज में पूजा जाए. सीता सामाजिक, व्यक्तिगत नियमों का उदाहरण है कि यहां औरतों के साथ क्या हुआ और आज क्या हो रहा है.

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