Payal Kapadia : पायल कपाडि़या का जन्म उस मुंबई में हुआ, जो बांबे हुआ करता था. 1980 के दशक में जन्मी कपाडि़या आर्थिक उदारीकरण के दौर में बड़ी हुईं. यह वह वक्त था जब देश और खुद उन का शहर मुंबई कई परिवर्तनों से गुजर रहे थे. इस के बाद तकनीक का आगाज हुआ और हर चीज पर मानो पंख लग गए. इस के बावजूद कपाडि़या के घर में तेजी से अधिक ठहराव को महत्त्व दिया जाता था और इसी महौल में कपाडि़या के सपनों ने आकार लिया. उन के मातापिता ने उन्हें जिज्ञासा की अहमियत सिखाई, अपने सपनों को साकार करने का हौसला दिया और कला के विभिन्न स्वरूपों को अपनाने की छूट दी. यह सीख उन के व्यक्तित्व में आज भी बारीकी से झलकती है.

पायल कपाडि़या
पायल कपाडि़या

‘‘मुझे करैक्टर और स्थानिकता आज भी अपनी ओर खींचते हैं,’’ कपाडि़या ने मुझे बताया. हम दोनों दक्षिण मुंबई के एक ईरानी रैस्टोरैंट कैफे डे ला पैक्स में नाश्ता करते  हुए बात कर रहे थे. कपाडि़या का घर वहां से ज्यादा दूर नहीं था.

कपाडि़या की मां नलिनी मालिनी जानीमानी कलाकार हैं, जिन का सिंधी परिवार बंटवारे के वक्त कराची से मुंबई आ कर बसा था. मां मालिनी का प्रभाव कपाडि़या पर बहुत छोटी उम्र से ही पड़ने लगा, ‘‘एक कलाकार मां का होना सौभाग्य है,’’ कपाडि़यां मानती हैं. यहां तक कि कांस फिल्म महोत्सव में ग्रैंड प्रिक्स पुरस्कार से सम्मानित उन की फिल्म ‘आल वी इमेजिन एज लाइट’ उन की मां के सालों पहले के एक प्रयोगात्मक काम से प्रेरित है, जो कश्मीरीअमेरिकी कवि आगा शाहिद अली से प्रभावित था.

बचपन में कपाडि़या ने अपना बहुत सारा वक्त मां के स्टूडियो में बिताया. वे बताती हैं, ‘‘मैं स्कूल के बाद सीधे मां के स्टूडियो पहुंच जाती थी,’’ मां ने उन के लिए एक ‘मनोरंजन की पेटी’ बना दी ताकि वे व्यस्त रहें.

‘‘आखिरकार वे एक कामकाजी महिला. उस पेटी में पेंट्स, पेस्टल्स, इंक, ओरिगामी और कार्ड हुआ करते थे. बहुत सारी खिचपिच. वह आज भी मेरे पास है,’’ कपाडि़या ने हंसते हुए बताया.

कपाडि़या का कहना है कि उन में चित्रकारी का कोई खास हुनर नहीं था. यानी वे अंगरेजी भाषा में जिन्हें गिफ्टेड आर्टिस्ट कहा जाता है वैसी नहीं थीं, बल्कि मां के नजरिए से उन्हें इस बात में यकीन हुआ कि हर चीज को किस तरह रचनात्मक ढंग से परखा जा सकता है.

कपाडि़या ने याद किया कि एक दिन किचन का पाइप फट गया और पूरे फर्श पर पानी भर गया. कपाडि़या ने कहा, ‘‘मेरी मां यह बताने लगीं कि उस पानी पर लाइट किस तरह करतब कर रही थी और कैसे मैं अपनी कल्पना से कला का निर्माण कर सकती हूं,’’ कपाडि़या ने सीखा कि जिंदगी के हर पहलू में खूबसूरती मौजूद है, बस हमारा नजरिया तय करता है कि क्या हम उस का दीदार कर सकते हैं.

कपाडि़या ने अपने गुजराती पिता से तफरी करना और नईनई जगहों को जाननासमझना सीखा. वे बताती हैं, ‘‘गुजराती में हम इसे ‘राकदोइंग’ कहते हैं,’’ अकसर कपाडि़या पिता के साथ सप्ताहांत में जलेबी और सब्जी खरीदने मंडी जाती थीं. वे कहती हैं, ‘‘मेरी मां के लाख मना करने पर भी वे हमेशा जोश में आ कर बहुत सारी खरीदारी कर लेते थे.’’

कपाडि़या के पिता मनोविश्लेषक थे. इसलिए सपनों का अध्ययन उन के काम का अभिन्न हिस्सा था. उन्होंने कपाडि़या और उन की बड़ी बहन को हट कर सोचने के लिए प्रेरित किया. उन के पिता किस्सागोई में माहिर थे और मुंबई में उन के जीवन की कहानियां, कभीकभी बनावटी होने पर भी मजेदार होती थीं. कपाडि़या बताती हैं, ‘‘पिता की कहानियों में मुंबई हमेशा ही बड़ा रूमानी शहर मालूम होता था. मुझ में भी यह थोड़ा झलकता है.’’

कपाडि़या के फिल्मी कैरियर की जमीन इसी तरह तैयार हुई. मां उन्हें अकसर फिल्म दिखाने ले जातीं. कपाडि़या ने मां के साथ मां के फिल्म निर्माता दोस्तों, आनंद पटवर्धन और मधुश्री दत्ता की पिक्चरें देखीं. कपाडि़या बताती हैं, ‘‘मैं उन फिल्मों को बहुत समझ तो नहीं पाती थी लेकिन स्क्रीनिंग के बाद अकसर सवालजवाब का सैशन होता था जिस में क्राफ्ट पर बातें होती थीं. इन चर्चाओं ने मेरे दिमाग पर असर डाला.’’

इस बीच कपाडि़या की मां ने अपने काम का दायरा बढ़ा लिया. यह 1990 के दशक के मध्य की बात है. मालिनी और उन के दोस्त का घर से काम करना कपाडि़या के लिए सहज बात थी. कपाडि़या ने कहा, ‘‘उन का बजट बड़ा नहीं था और वे लोग किराए पर कोई स्टूडियो नहीं ले सकते थे. वे टीवी पर वीएचएस टेप देख कर लौग बनाते थे और हर फिल्म को शौट दर शौट रिकौर्ड करते थे. कपाडि़या के लिए वह सब बहुत रहस्यमयी था जब तक कि मां ने नहीं बताया कि वे फिल्म एडिटिंग कर रहे हैं. कपाडि़या ने कहा, ‘‘यह उन के द्वारा रचित काम का वह पक्ष था जो मेरे काम में भी नजर आता है.’’

मालिनी अपने काम को ले कर बहुत अनुशासित थीं. कपाडि़या ने बताया, ‘‘चाहे कुछ भी हो जाए, चाहे वे बीमार हों, वे हमेशा काम करती रहती थीं. उन से मैं ने परिश्रम करना सीखा. मैं भी इसे बहुत मान्यता देती हूं,’’ कपाडि़या ने बताया, ‘‘जब आप खुद का काम कर रहे होते हैं, खासकर एक महिला हो कर खुद का काम करते हैं, तब आप अन्य कामों में बहुत आसानी से फंस सकते हैं. लेकिन मेरी मां ने हमेशा यह सुनिश्चित किया कि ऐसा न हो.’’

बांबे के मुंबई बन जाने से पहले यह शहर एक मुश्किल दौर से गुजरा और इस दौर की शहर पर अमिट छाप पड़ी. बाबरी मस्जिद गिरा दिए जाने और मुंबई में शृंखलाबद्ध बम धमाकों के बाद, 1992 और 1993 के बीच बांबे में सांप्रदायिक हिंसा हुई. हिंसा में सैंकड़ो लोगों की मौत हुई और हजारों घायल हुए. 1995 में शिवसेना और भारतीय जनता पार्टी ने मिल कर सरकार बनाई. इस के बाद जल्द बांबे का नाम बदल कर मुंबई कर दिया गया.

इस दौरान कपाडि़या की उम्र बहुत कम थी और वे इन सब बातों के मायने नहीं समझ सकती थीं. वे मुंबई से दूर अपनी बड़ी बहन के साथ आंध्र प्रदेश के चित्तूर जिले में स्थित ऋषि वैली स्कूल में पढ़ रही थीं. उन्हें वह स्कूल तुरंत पसंद आ गया, ‘‘वहां 9वीं कक्षा तक परीक्षा नहीं ली जाती थी,’’ उन्होंने बताया.

इस कोएड स्कूल की स्थापना दार्शनिक जिद्दू कृष्णमूर्ति ने 1926 में की थी. यहां देश के अलगअलग भागों से आए विद्यार्थी पढ़ते हैं और इन विद्यार्थियों में कपाडि़या ने अपना समुदाय पाया. स्कूल के शैक्षिक वातावरण ने रचनात्मकता को निखारा. कपाडि़या को याद है कि स्कूल के शिक्षक कला के प्रति बेहद संवेदनशील थे और कला के प्रति झुकाव रखने वाले विद्यार्थियों की मदद करने में आगे रहते थे, ‘‘स्कूल के प्रति उन का लगाव इतना बढ़ गया कि छुट्टियों में भी वे स्कूल में ही अपने दोस्तों के बीच रहना चाहती थीं,’’ उन्होंने बताया.

जब कपाडि़या कालेज की विद्यार्थी के रूप में मुंबई लौटीं, तो वह शहर के साथ पुराना जुड़ाव महसूस नहीं कर सकीं. कला क्षेत्र की अनिश्चितता उन्हें परेशान कर रही थी. वे कहती हैं, ‘‘मैं खुद से यह सवाल कर रही थी कि क्या मैं इस काम के सहारे जीवनयापन कर पाऊंगी.’’

कपाडि़या ने सैंट जेवियर कालेज में अर्थशास्त्र का अध्ययन किया ताकि वे उन नीतिगत बदलावों का अध्ययन कर सकें, जो भारत को बदल रहे थे. उन्होंने बताया कि उन के शिक्षकों ने उन्हें अर्थशास्त्र को एक सिद्धांत तक सीमित न रख कर रोजमर्रा के जीवन के हिस्से के रूप में समझना सिखाया. समाजशास्त्र के प्रोफैसर फादर अरुण डिसूजा ने कपाडि़या को मुंबई में हो रहे बदलावों को देखने का नजरिया दिया.

ग्रैजुएशन पूरा करने के बाद कपाडि़या ने सोफिया कालेज से मीडिया अध्ययन का कोर्स किया. यहां लेखक जैरी पिंटो पत्रकारिता पढ़ाते थे. पिंटो का उन पर खासा असर हुआ. पिंटो के दिए एक असाइनमैंट के चलते कपाडि़या का मुंबई के उत्तरपश्चिम सबअर्बन से वास्ता पड़ा. यहीं से शहर के साथ उन के संबंध का एक नया अध्याय प्रारंभ हुआ. वे कहती हैं, ‘‘अब मैं मुंबई को उस तरह से नहीं देख रही थी जिस तरह यहां रहने वाले उसे देखते हैं, बल्कि शहर को ले कर मेरे अंदर बड़ी जिज्ञासा पैदा हो गई थी.’’

इस दौरान कपाडि़या ने फिल्मों के प्रति अपने रु?ान को आगे बढ़ाते हुए मुंबई के फिल्म महोत्सव में वालंटियर के रूप में भाग लेना शुरू किया. ऐसे ही एक महोत्सव में उन्होंने पुणे स्थित सरकारी संस्थान, ‘फिल्म एंड टैलिविजन इंस्टिट्यूट औफ इंडिया’ के छात्रों द्वारा बनाई फिल्में देखीं.

कपाडि़या बताती हैं, ‘‘फिल्में प्रयोगात्मक थीं और इन का नैरेटिव भी सीधा नहीं था, ये स्वप्निल थीं,’’ कपाडि़या को इन के निर्माताओं की आजादी ने बहुत उत्साहित किया, ‘‘मैं सिनेमा को एक अलग नजरिए से देखने लगी और यही वक्त था जब मुझे समझ आया कि मैं फिल्में बनाना चाहती हूं.’’

खुशकिस्मती से कपाडि़या को घर में किसी विरोध का सामना नहीं करना पड़ा. वे बताती हैं, ‘‘मुझे इसलिए संघर्ष नहीं करना पड़ा क्योंकि मेरी मां ने मुझ से पहले अपना रास्ता चुन कर एक मिसाल पहले ही बना दी थी.’’

एफटीआईआई में दाखिले की कपाडि़या की पहली कोशिश असफल रही लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी. उन्होंने फिल्म निर्माता शिवेंद्र सिंह डूंगरपुर के प्रोडक्शन हाउस में नौकरी कर ली. डूंगरपुर मुंबई स्थित गैर लाभकारी संस्था फिल्म ‘हेरिटेज फाउंडेशन’ भी चलाते हैं. कपाडि़या की एक प्रोफैसर डूंगरपुर के प्रोडक्शन हाउस में काम कर रही थीं. कपाडि़या ने बताया कि डूंगरपुर उस वक्त विज्ञापन फिल्में बना रहे थे और फीचर फिल्म बनाने की कोशिश में थे, ‘‘तब मुझे नहीं पता था कि सेट में होने का एहसास कैसा होता है. वह बहुत कठिन काम था और मैं ने वहां बहुत कुछ सीखा,’’ उन्होंने फिल्म निर्माण कला के महत्त्वपूर्ण पहलुओं की जानकारी हासिल की, जैसे कौस्ट्यूम डिजाइन, सेट डिजाइन, लोकेशन खोजना और अलगअलग भूमिकाओं के लिए कलाकारों का चयन करना.

जब कपाडि़या की प्रोफैसर फिल्म निर्माता अनुष्का शिवदासानी ने डूंगरपुर की कंपनी छोड़ी और नई कंपनी शुरू की तो कपाडि़या उन के साथ हो लीं. वे कहती हैं, ‘‘वह एक छोटी कंपनी थी इसलिए मेरे पास बहुत सारी जिम्मेदारियां आ गईं और इस के चलते मैं बहुत कुछ सीख सकी.’’

4 साल बाद 2012 में कपाडि़या ने एफटीआईआई में दोबारा आवेदन किया. लेकिन इस बार वे निर्देशन का अध्ययन करना चाहती थीं. देश से बाहर जा कर पढ़ाई करने में उन की कोई दिलचस्पी नहीं थी. वे कहती हैं, ‘‘ऐसा इसलिए क्योंकि मुझे लगता था कि मुझे वहां वे संपर्क नहीं मिलेंगे जो मैं यहां बनाना चाहती हूं,’’ कपाडि़या को इस बार दाखिला मिल गया.

जब मैं ने उन से पूछा कि क्या यह संस्थान उन की अपेक्षाओं पर खरा उतरा तो उन का कहना था, ‘‘शुरू में मुझे लगा कि मैं सीखने में पीछे हूं,’’ फिर कुछ देर की चुप्पी के बाद उन्होंने बताया, ‘‘लेकिन बाद में मुझे एहसास हुआ कि ऐसे संस्थानों से आप को खुद ही सीखना होता है. यहां आए छात्र अलग पृष्ठभूमि के थे और हम सब एकसाथ तैयार हो रहे थे.’’

कपाडि़या का काम जिस में 4 शौर्ट फिल्में और 2 फीचर फिल्म शामिल हैं, उन में संगीत सा एहसास है. वे मानती हैं कि ऐसा एफटीआईआई के असर के चलते हुआ है.

उन्होंने याद किया कि वहां छात्र जापानी कविता हाइकू का अध्ययन उन की छवि निर्माण की क्षमता के लिए करते थे. एक बार एक प्रोफैसर ने छात्रों को जापानी उपन्यासकार यासुनारी कुवाबाटा और उन के कहानी संग्रह ‘पाम औफद हैंड स्टोरीज’ से परिचित कराया. वह उन की 146 लघु कहानियों का संकलन है. कपाडि़या बताती है कि वे सभी कहानियां किसी एक नैरेटिव का हिस्सा न हो कर छोटेछोटे क्षणों में घटी घटनाओं का गुलदस्ता थीं. लेकिन एकसाथ मिल कर वे छोटी कहानियां एक व्यापक विस्तार वाला नैरेशन बनाते थे. कपाडि़या फिल्मों को भी इसी तरह समझने लगीं.

कपाडि़या के पूर्व अनुभव की बदौलत उन के लिए चीजें सहज थी लेकिन वे बताती हैं कि एफटीआईआई एक पुरुष प्रधान स्पेस है और यहां एक औरत को हमेशा खुद को साबित करना पड़ता है. कपाडि़या को याद है कि दाखिले के इंटरव्यू में उन की कुछ महिला दोस्तों से पूछा गया था कि जब आगे चल कर उन्हें शादी ही कर लेनी है तो उन्हें दाखिला देने का फायदा क्या है.

2015 में एफटीआईआई में असंतोष फूट गया. इस ने कपाडि़या के नजरिए, उन के सिनेमा और उन के उद्देश्य को भी बदल दिया. उस साल जून में सूचना और प्रसारण मंत्रालय ने अभिनेता और नेता गजेंद्र चौहान को एफटीआईआई का अध्यक्ष नियुक्त किया. छात्रों ने आरोप लगाया कि चौहान, जो दूरदर्शन पर प्रसारित होने वाले लोकप्रिय धारावाहिक ‘महाभारत’ में युधिष्ठिर की भूमिका के लिए जाने जाते हैं, ने यह पद अपनी साख के कारण नहीं, बल्कि सत्तारूढ़ बीजेपी के साथ अपनी निकटता के कारण हासिल किया है. आने वाले दिनों में तनाव बढ़ गया और छात्रों ने हड़ताल कर दी. छात्र 4 महीने से अधिक समय तक हड़ताल पर रहे. कपाडि़या उन में से एक थीं.

कपाडि़या ने बताया कि इस वक्त तक बात बहुत आगे जा चुकी थी. 2013 में एफटीआईआई के कुछ छात्रों ने अनंत पटवर्धन की डाक्यूमैंट्री ‘जय भीम कामरेड’ की स्क्रीनिंग का आयोजन किया था, जो 1997 में मुंबई की रमाबाई कालोनी में दलित प्रदर्शनकारियों की पुलिस द्वारा हत्याओं पर आधारित थी. खबरों के मुताबिक, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की छात्र शाखा अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के सदस्यों ने कुछ आयोजकों की पिटाई कर दी, जिस से हंगामा मच गया. उस घटना के 2 साल बाद हुई चौहान की नियुक्ति पर टकराव तेज हो गया.

कपाडि़या के मुताबिक, हड़ताल में बहुत सारी बातें होती हैं. वे बताती है, ‘‘हर शाम हम कई घंटो के लिए मिलते थे. दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के छात्रों ने भी एकजुटता का इजहार किया. प्रोफैसरों और कलाकारों से भी काफी समर्थन मिला.’’

कपाडि़या ने बताया कि वह देश के उच्च शिक्षा संस्थानों में उबाल का दौर था. जनवरी 2016 के अंत में, जब हैदराबाद सैंट्रल यूनिवर्सिटी के दलित पीएचडी छात्र रोहित वेमुला ने आत्महत्या कर ली, तो जातिगत भेदभाव के खिलाफ देशव्यापी विरोध प्रदर्शन शुरू हो गया. फरवरी में जेएनयू के 5 छात्रों को गिरफ्तार कर लिया गया. उन्हें देशद्रोही कहा गया. आंदोलनों की लहर चल पड़ी.

कपाडि़या का व्यक्तित्व इस दौरान विकसित हुआ. उन के इन अनुभवों ने उन्हें फिल्म निर्माण की भाषा दी, ‘‘जो मेरे नजरिए और मेरी राजनीति से प्रेरित है,’’ एफटीआईआई की हड़ताल खत्म करने के लिए पुलिस बुलाई गई. 35 छात्रों के खिलाफ दायर एफआईआर में कपाडि़या का भी नाम था. उन्हें अनुशासनात्मक काररवाई का सामना करना पड़ा. उन की छात्रवृत्ति रोक दी गई और जब वे एक फौरेन ऐक्सचैंज प्रोग्राम के लिए चुनी गईं, तो उन्हें उस में भाग लेने से प्रतिबंधित कर दिया गया.

लेकिन अब व्यक्तिगत सफलता से भी बड़ी कोई चीज दांव पर थी, ‘‘बात यह है कि हम वैसे भी सबकुछ खो देते,’’ कपाडि़या ने कहा, ‘‘अगर जिस मुद्दे के खिलाफ हम हड़ताल कर रहे थे, वह नहीं उठता, तो हम एफटीआईआई की भावना को मिटा देते. हम अपनी फिल्मों में जिस स्वतंत्रता की बात करते थे, जिन विषयों को हम उठाना चाहते थे और जिन फिल्म निर्माताओं को हम आमंत्रित करना चाहते थे, सब खत्म हो जाता.’’

प्रेस कौन्फ्रेंस-कांस, फ्रांस-25 मई (बाई से दाई तरफ दूसरी) पायल कपाड़िया 'आल वी इमेजिन एज लाइट' के लिए 'ग्रैंड पिक्स' अवार्ड विजेता, साथ में कनी कुश्रुति, दिव्या प्रभा और छाया कदम फ्रांस के कांस में 25 मई 2024 को 77वें कांस फिल्म फेैस्टिवल के पैलेस औफ फेस्टिवल्स में पाल्मे डी'ओर विनर्स प्रेस कौन्फ्रेंस के दौरान
प्रेस कौन्फ्रेंस-कांस, फ्रांस-25 मई (बाई से दाई तरफ दूसरी) पायल कपाड़िया, ‘आल वी इमेजिन एज लाइट’ के लिए ‘ग्रैंड पिक्स’ अवार्ड विजेता, साथ में कनी कुश्रुति, दिव्या प्रभा और छाया कदम फ्रांस के कांस में 25 मई 2024 को 77वें कांस फिल्म फेैस्टिवल के पैलेस औफ फेस्टिवल्स में पाल्मे डी’ओर विनर्स प्रेस कौन्फ्रेंस के दौरान

चौहान 2017 में अपनी सेवानिवृत्ति तक एफटीआईआई के अध्यक्ष बने रहे. लेकिन कपाडि़या को लगा कि हड़ताल एक ‘बौद्धिक जीत’ थी जिस ने संस्थान को छात्रों की आवाज सुनने के लिए मजबूर किया. उन्होंने कहा, ‘‘हमें अपने सार्वजनिक संस्थानों की रक्षा करनी होगी.’’

2024 में, जब कपाडि़या ने कांस पुरस्कार जीता, तो पत्रकारों ने टिप्पणी के लिए चौहान से संपर्क किया. उन्होंने कहा, ‘‘मुझे गर्व है कि जब वह एफटीआईआई में कोर्स कर रही थी, उस समय मैं चेयरमैन था.’’

कपाडि़या के काम में परिवार, राजनीति और स्थानिकता का तनाव साफ दिखाई देता है. उन्होंने एफटीआईआई में अध्ययन के समय ‘आफ्टरनून क्लाउड्स (2017),’ ‘वाटरमैलन फिश एंड हाफ घोस्ट (2014)’ जैसी लघु फिल्में बनाई हैं जो यूट्यूब पर उपलब्ध हैं. उन के पात्र अकसर प्रेतआत्माओं से घिरे और डरे रहते हैं. उन की फिल्म ‘आल वी इमेजिन एज लाइट’ में उन का यह भाव मुखर रूप से प्रकट है.

कपाडि़या के विचार उन के अपने अनुभवों को निखरे हैं. वे अपनी नानी के बेहद करीब थीं जो अपने जीवन के आखिरी दिनों में अपनी याद्दाश्त खोने लगी थीं. कपाडि़या ने उन्हें एक डायरी रखने के लिए प्रेरित किया. कपाडि़या याद करती हैं कि नानी की डायरी में नाना जयराम का अकसर जिक्र होता था गोया वह वहीं मौजूद हों, जबकि उन के नाना का देहांत 4 दशक पहले हो चुका था. कपाडि़या अपने नाना से कभी नहीं मिली थीं. लेकिन उन्हें मां ने बताया था कि नाना नानी का वैवाहिक जीवन खुशहाल नहीं था. कपाडि़या ने कहा, ‘‘मेरे मन में ये बातें घर कर गईं. ये ऐसे पुरुष हैं जो कभी नहीं छूटते. यदि उन की फोटो न भी हो तो वे भूत की तरह आसपास मौजूद रहते है. मेरी जानने वाली औरतों के जीवन में ऐसे भूत पुरुषों की उपस्थिति के बारे में मैं विचार करने लगी.’’

2021 में कपाडि़या ने पूरी दुनिया का ध्यान अपनी तरफ तब खींचा जब उन की पहली लंबी डाक्यूमैंट्री ‘ए नाइट औफ नोइंग नथिंग’ ने कांस फिल्म महोत्सव में पुरस्कार जीता.

यह कहानी एफटीआईआई की एक काल्पनिक युवा छात्रा द्वारा अपने प्रेमी को लिखे गए पत्रों के माध्यम से कही गई है, जिस के मातापिता उस के संबंध के खिलाफ हैं क्योंकि छात्रा दूसरी जाति से है. पत्रों के माध्यम से फिल्म में उन छात्र आंदोलनों को दर्शाया गया है, जिन्होंने दमनकारी संरचना के खिलाफ आवाज उठाई.

फिल्म, एफटीआईआई में हुई हड़ताल को रिकौर्ड करने के मकसद से शुरू की गई थी क्योंकि मुख्यधारा के मीडिया में इसे गलत तरीके से पेश किया जा रहा था. कपाडि़या ने मु?ो बताया, ‘‘मीडिया विभाग को लगा कि हमें भी यह बताना चाहिए कि असल में क्या चल रहा है. आखिरकार, हम एक फिल्म स्कूल हैं. अंत तक हमारे पास एक बहुत बड़ा संग्रह बन गया था,’’ अन्य संस्थानों में छात्रों के नेतृत्व वाले विरोध प्रदर्शनों की फुटेज आसानी से उपलब्ध हो गई थी.

कपाडि़या ने इस बात पर विचार किया कि वीडियो के साथ क्या करना है. उन को प्रेरणा मिली उन फैसलों से जो उन के बैचमेट्स स्नातक की तैयारी में ले रहे थे. कपाडि़या याद करती हैं, ‘‘मुंबई आ कर काम की तलाश करने और यह सब कैसा होगा, इस बारे में घबराहट होती थी,’’ संस्थान के एकांत में पनप रहे रिश्ते धर्म या जाति के अंतर के कारण मातापिता की अस्वीकृति के कारण बिखर रहे थे.

कपाडि़या को लगता है कि यह सब देश की बदलती राजनीति के कारण हैं. उन्होंने कहा, ‘‘मैं ने इस पल को कैद करने की जरूरत के बारे में सोचना शुरू किया और कैंपस को फिल्माना शुरू कर दिया क्योंकि वे

पुरानी परंपराओं को तोड़ कर नई परंपराएं स्थापित करने में लगे थे. मैं हम सभी को उसी तरह फिल्माना चाहती थी जैसे हम असल में हैं. मैं भी इस में शामिल हूं.’’

2019 में कपाडि़या को लगा कि वे जो फिल्म बनाना चाहती थीं, उसे समझने के लिए वे भावनात्मक रूप से तैयार हैं. उन्होंने राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार विजेता लेखक और निर्देशक हिमांशु प्रजापति, जो एफटीआईआई के पूर्व छात्र भी हैं, के साथ मिल कर पटकथा लिखी. उन्होंने कहानी को बुनने के लिए पुरानी तसवीरों, अखबारों की कतरनों, दोस्तों से उधार ली गई फुटेज और काल्पनिक पत्रों का इस्तेमाल किया. उन्होंने खुद को एक नीलकंठ पक्षी जैसा माना जो ‘अपना घोंसला बनाने के लिए अलगअलग चीजें और विचार इकट्ठा कर रही थी.’

कपाडि़या ने मुझे बताया कि उनके दोस्तों ने उन का खूब साथ दिया. उन के सब से नजदीकी साथियों में उन के साथी एवं एफटीआईआई में उन के सीनियर, राणाबीर दास हैं. कपाडि़या ने बताया, ‘‘संवाद और सिनेमा के मामले में राणा और मैं दोनों एक साथ बड़े हुए हैं. हम फिल्मों पर खूब चर्चा करते थे और नए फिल्म निर्माताओं की खोज करते थे. हमारी राजनीतिक सोच भी विकसित हो रही थी, खासतौर पर हड़ताल और उस से निबटने के तरीकों को ले कर.’’

दास ने ‘आल वी इमेजिन एज लाइट’ की सिनेमैटोग्राफी की है, जो मुंबई के एक अस्पताल में काम करने वाली 3 महिलाओं के इर्दगिर्द घूमती है. जिन में 2 नर्स हैं, और तीसरी खाना बनाने वाली है. फिल्म लिखने के दौरान वे और दास भरपूर मौनसून में लोकल ट्रेन या पैदल ही शहर घूमने निकल पड़ते थे. फिल्म का नीला रंग इन यात्राओं का परिणाम है. दास की दृश्यदृष्टि ने कपाडि़या की पटकथा को आकार दिया. उन्होंने कहा, ‘‘मैं थोड़ा लिखती, दास को देती और फिर वे तसवीरों के साथ वापस आते. मुझे वाकई लगता है कि यह प्रक्रिया मेरे लिए सही है.’’

‘आल वी इमेजिन एज लाइट’ का विचार कपाडि़या को तब आया जब उन के पिता अस्पताल में भर्ती थे. जब वे गलियारों, प्रतीक्षा कक्षों और वार्डों के बीच घूमती थीं, तो नर्सों की बातचीत सुनती थीं. कपाडि़या को एक वर्दी पहने महिला के विरोधाभास में दिलचस्पी हुई, जिसे सार्वजनिक स्थान पर अपनी आंतरिक उथलपुथल को दबाने के लिए मजबूर होना पड़ता है. आखिरकार, ये मुखौटे हम सभी की जिंदगी का हिस्सा हैं, लेकिन कुछ पेशे, जैसेकि नर्सिंग, इन की और भी ज्यादा मांग करते हैं. कपाडि़या ने कहा, ‘‘दूसरों की देखभाल करते समय आप की अपनी व्यक्तिगत चिंताएं ओझल हो जाती हैं.’’

इस फिल्म को बनाने में 5 साल लगे, जिस में 3 साल का प्रीप्रोडक्शन भी शामिल है. फिल्म में 3 मुख्य किरदारों के दैनिक संबंधों को बेहद अंतरंगता के साथ दिखाया गया है. इस के साथ यह फिल्म मुंबई की हलचलों को भी सामने लाती है. फिल्म नाजुक प्रतिरोध और महिलाओं के बीच दोस्ती को दर्शाती है. कपाडि़या ने कहा, ‘‘मुझे निश्चित रूप से लगा कि एक महिला होने के नाते, एक खास नजरिया था जो मैं चाहती थी. मैं यह भी चाहती थी कि पात्रों को एक निश्चित स्वायत्तता मिले.’’

कपाडि़या चाहती थीं कि फिल्म सिनेमाघरों में रिलीज हो. उन्होंने कहा, ‘‘मुझे इस धारणा पर यकीन नहीं था कि यह एक आर्ट फिल्म है और इसे आम लोग नहीं देख सकते. यह धारणा सच नहीं है और अभिजात वर्ग की बनाई हुई है,’’ कांस में जीत ने इस फिल्म का रिलीज होना आसान बना दिया.

इस फिल्म ने कपाडि़या को उन पितृसत्तात्मक पूर्वाग्रहों से सामना कराया, जिन्हें उन्होंने अनजाने में स्वीकार लिया था. कपाडि़या ने कहा, ‘‘जब मैं छोटी थी, तो मैं बड़ी उम्र की महिलाओं और उन के व्यवहार की आलोचना करती थी. और जब मैं बड़ी हुई, तो मैं छोटी उम्र की महिलाओं की आलोचना करती थी.’’

उन्होंने उन विचित्र परंपराओं को उठाया जिन में महिलाओं को लगातार एकदूसरे के खिलाफ खड़ा किया जाता है, ‘‘मुझे लगता है कि एक डर है कि अगर महिलाएं एकजुट हो गईं, तो यह सभी के लिए एक बड़ी समस्या होगी.’’

इस फिल्म ने कपाडि़या को खुद की उन कमजोरियों से रूबरू होने का अवसर दिया जिस के चलते वे ऐसी संरचनाओं को ध्वस्त करने में सफल हुईं. उन्होंने कहा कि विभिन्न पीढि़यों की महिलाओं को एकदूसरे से बहुत कुछ सीखना है. ‘लेकिन यह तभी संभव है जब सभी एकदूसरे को स्वीकार करें.’

लेखक-  जेन बोरजिस 

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