कर्नाटक की कांग्रेस सरकार ने लिंगायत समुदाय को धार्मिक अल्पसंख्यक का दर्जा देने का प्रस्ताव कैबिनेट से पारित कर केंद्र को मंजूरी के लिए भेजा है. इस पर हिंदू समाज के भीतर तो कोई हलचल नहीं हुई पर राजनीतिक दलों, खासतौर से भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस, में घमासान शुरू हो गया. भाजपा और संघ का कहना है कि कांग्रेस हिंदू समाज का विभाजन कर रही है, जबकि कांग्रेस भाजपा व संघ पर लोगों को बांटने का आरोप लगा रही है. कर्नाटक में विधानसभा चुनाव सिर पर हैं, इसलिए लिंगायत समुदाय को अल्पसंख्यक का दर्जा देने का प्रस्ताव विशुद्ध राजनीतिक मुद्दा है. दोनों ही दलों के नेता कर्नाटक के दौरे में लिंगायत समुदाय के धर्मगुरुओं से जा कर मिल रहे हैं, उन के चरणों में लोट रहे हैं. भाजपा अध्यक्ष अमित शाह तुमकुर में लिंगायतों के सब से बड़े मठ सिद्धगंगा गए और धर्मगुरु श्रीश्री शिवकुमार स्वामी को दंडवत प्रणाम कर आशीर्वाद मांगा. इस के बाद वे शिवमोगा के बेक्कीनक्कल मठ भी गए.

उधर, कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी अब तक 5 बार कर्नाटक का दौरा कर चुके हैं. वे गुजरात विधानसभा चुनावों के मंदिर परिक्रमा अभियान की तरह यहां अब तक 15 मंदिरों में दर्शन कर चुके हैं. उन्होंने अपने दौरे की शुरुआत लिंगायत मंदिर हुलीगेमा से की थी. मंदिरमठों में जाते समय राहुल गांधी बाकायदा लिंगायत साधुओं जैसे वस्त्र पहने नजर आते हैं. कर्नाटक के मुख्यमंत्री सिद्धारमैया लिंगायतों को चुनावी मुद्दा बना रहे हैं. ऐन चुनाव के समय लिंगायतों को अल्पसंख्यक धर्म का दर्जा देने का प्रस्ताव भाजपा के लिए परेशानी का सबब है. राज्य में 17 प्रतिशत लिंगायत मतदाता हैं. यह भाजपा का परंपरागत वोट माना जाता रहा है. राज्य के पूर्र्व मुख्यमंत्री और इस बार मुख्यमंत्री पद के घोषित उम्मीदवार वी एस येदियुरप्पा लिंगायत समुदाय से हैं. राज्य की 224 विधानसभा सीटों में से 100 सीटों पर लिंगायत मतदाताओं का प्रभाव है और वर्तमान में 55 विधायक इसी समुदाय से हैं.

भाजपा का दावा है कि वह देश में विकास के बल पर राज्यदरराज्य विजय हासिल करती जा रही है. ऐसे में अगर भाजपा को अपने विकास पर भरोसा है तो उसे डर किस बात का है. उसे धर्मगुरुओं की शरण में जाने की क्या जरूरत है. असल में कांग्रेस और भाजपा दोनों का धार्मिक एजेंडा एक ही है. दोनों के मुंह धर्म का खून लग चुका है. दोनों ही धर्म को भुना कर सत्ता का मजा चखती आई हैं. भाजपा को दिक्कत यह है कि वह समझती है (और असल में है भी) कि हिंंदुत्व की अधिकृत ठेकेदार तो वह ही है. धर्म के नाम पर घृणा, बैर, कलह, मारकाट और समाज को बांटने का जो काम उसे करना चाहिए वह कांग्रेस क्यों कर रही है, उन कामों में कांग्रेस क्यों टांग फंसा रही है. समाज को जाति, धर्म, वर्ग, गोत्र, उपगोत्र में विभाजित करने की मूल मिलकीयत भाजपा की है.

सेंध लगाती कांग्रेस कांग्रेस पिछले दिनों गुजरात विधानसभा चुनावों में भाजपा के हिंदुत्व एजेंडे में सेंधमारी कर उसे छका चुकी है. राहुल गांधी गुजरात के मंदिरों, मठों में चक्कर लगाते दिखते थे. खुद को जनेऊधारी हिंदू और शिवभक्त प्रचारित करते घूम रहे थे. अब वही फार्मूला कर्नाटक में आजमाना शुरू कर दिया गया है. भाजपा को यह बुरी तरह अखर रहा है.

हिंदू समाज पहले ही पिछले 3 हजार वर्षों से विभाजित है. यह विभिन्न जातियों, वर्गों, पंथों और संप्रदायों में बंटा हुआ है. हिंदू समाज जातियों का एक ढेर है. समयसमय पर हिंदू समाज में सुधार के लिए नेता आगे आए और फिर कुछ समय बाद उन का अपना एक अलग पंथ बन गया. ब्रह्म समाज, आर्य समाज, रामकृष्ण मिशन, शैव, वैष्णव संप्रदाय, शाक्त, वल्लभ संप्रदाय, राम स्नेही, नाथ संप्रदाय, राधास्वामी, आनंदपुर, स्वामिनारायण, स्थानकवासी, कबीरपंथी, दादूपंथी, नामधारी, ब्रह्मकुमारी, निरंकारी, जयगुरुदेव, विश्नोई, अंबेडकरवादी जैसे सैकड़ों मत, पंथ और संप्रदाय समाज में अज्ञानता व द्वेष का बीज बो रहे हैं. इन के अलावा पहले से सुधारक पंथ बने, बाद में धर्म बन गए व अल्पसंख्यक का दर्जा प्राप्त जैन, बौद्ध, सिख धर्मों मे भी अलगअलग पंथ बन गए. जैनियों में श्वेतांबर और दिगंबर, बौद्धों में हीनयान और महायान, सिख धर्म में जटसिख और रविदासीय. इन के बीच एका नहीं है. आपस में अनबन, कलह चलती आईर् है. एक गुरु या देवता को मानते हुए भी आपस में बैर ही नहीं रहा, कट्टर दुश्मनी भी पनपती रही है.

धर्म एक मत अनेक भारत के बाहर से आए दूसरे धर्मों में भी अलगअलग मत बने हुए हैं. इसलाम में शिया और सुन्नी, ईसाइयों में कैथोेलिक और प्रोटेस्टैंट. भारत के हिंदू धर्म में तो जो भी गुरु आया उस ने अपनी अलग दुकान खोल ली, अलग ग्राहक बना लिए, उन्हें अलग पहचान चिह्न दे दिए और अपनेअपने अनुयायियों को दूसरों से अलग रहने का आदेश दे दिया.

भारत का एक विशाल समूह स्वयं को किसी न किसी धर्म से संबंधित अवश्य बताता है. शैव समाज की स्थापना बासवन्ना ने 12वीं शताब्दी में की थी. इसी मत के उपासक लिंगायत कहलाते हैं. बासवन्ना के अनुयायियों में अधिकतर दलित थे. हिंदू धर्म की भेदभाव वाली व्यवस्था के बीच उन्होंने समाज सुधार शुरू किया. उन्होंने जाति व्यवस्था में दमन के खिलाफ आंदोलन छेड़ा. वेदों को खारिज किया और मूर्तिपूजा का विरोध किया.

लिंगायत को अलग धर्म घोषित करने की मांग हमेशा से की जाती रही है. इस समुदाय के 2 वर्ग हैं. लिंगायत और वीरशैव. लिंगायत दक्षिण भारत के कर्नाटक, आंध्र प्रदेश की हिंदू धर्म की चातुर्वर्ण्य व्यवस्था की सताई निचली जातियां हैं जिन के साथ सदियों से छुआछूत, भेदभाव होता आया है. वे अब वेदों में विश्वास नहीं करते और हिंदू धर्मग्रंथों के अनुसार अपना जीवन नहीं जीते. इस के उलट, वीरशैव लिंगभाव वेदों में विश्वास करते हैं. वे चातुर्वर्ण्य व्यवस्था को भी मानते हैं और सभी परंपराओं व मान्यताओं का दृढ़ता से पालन करते हैं जो ब्राह्मण कहते या करते हैं?. आम मान्यता है कि लिंगायत और वीरशैव एक ही हैं पर कहा गया है कि एक हैं नहीं. वीरशैव लोगों का अस्तित्व बासवन्ना के आने से पहले था और वे शिव की पूजा करते हैं. उधर, लिंगायत समुदाय का कहना है कि वे शिव की पूजा नहीं करते, लेकिन अपने शरीर पर ईष्टलिंग धारण करते हैं. ईष्टलिंग एक गेंदनुमा आकृति होती है जिसे वे धागे से अपने शरीर से बांधते हैं.

हिंदू धर्म से जितने भी अलग पंथ, संप्रदाय बने हैं वे इस के भीतर की जातिगत भेदभाव, छुआछूत, ऊंचनीच जैसी बुराइयों को खत्म करने के नाम ले कर बने पर बाद में इन पंथों ने भी उसी तरह की बुराइयां अपना लीं. हर पंथ अपने अनुयायियों के लिए आचारसंहिता बनाता है और जोर दिया जाता है कि वे अपनी जीवन पद्धति को उस के बताए अनुसार चलाएं. हर पंथ में किसी न किसी तरह की जाति व्यवस्था पिछले दरवाजे से कहीं न कहीं आ बैठी है. गैरबराबरी का पेंच समाज में विभाजन के भेदभाव के चलते एकता बाधित रही है. हिंदू वर्णव्यवस्था के प्रति बढ़ते आक्रोश के कारण हाल के दशकों में हजारों दलित, अछूत बौद्ध और ईसाई धर्म की शरण में चले गए. इस की प्रतिक्रियास्वरूप भाजपा द्वारा शासित कई राज्यों द्वारा कानून बना कर इसलाम या ईसाई धर्म में धर्मपरिवर्तन करना मुश्किल बना दिया गया पर हिंदू धर्म में बराबरी पर ध्यान नहीं दिया गया. भेदभाव वाली व्यवस्था को अब भी जायज ठहराने की कोशिश की जाती है. बासवन्ना जैसे समाजसुधारकों का उद्देश्य विभिन्न जातियों, वर्गों में बंटे समाज को भेदभाव से मुक्त कर समानता, एकता के सूत्र में बांधना था, पर राजनीतिक दल और धर्म के कारोबारी अपने स्वार्थों के लिए समाज को विभाजित कर फायदा उठा रहे हैं.

1980 के दशक में लिंगायतों ने कर्नाटक में ब्राह्मण रामकृष्ण हेगड़े पर भरोसा जताया था. जब लोगों को लगा कि जनता दल स्थायी सरकार देने में विफल है तो उन्होंने कांग्रेस के वीरेंद्र पाटिल का समर्थन किया. 1989 में कांग्रेस की सरकार बनी और पाटिल मुख्यमंत्री चुने गए पर विवाद के चलते राजीव गांधी ने पाटिल को एयरपोर्ट पर ही मुख्यमंत्री पद से हटा दिया था. इस के बाद लिंगायत समुदाय ने कांग्रेस से मुंह मोड़ लिया और फिर से हेगड़े का समर्थन किया. हेगड़े की मृत्यु के बाद लिंगायतों ने भाजपा के बी एस येदियुरप्पा को अपना नेता माना और 2008 में येदियुरप्पा राज्य के मुख्यमंत्री बने पर कुछ समय बाद उन्हें भ्रष्टाचार के आरोपों के कारण पद से हटाया गया तो 2013 के चुनाव में लोगों ने भाजपा से मुंह मोड़ लिया.

अब विधानसभा चुनावों में येदियुरप्पा को एक बार फिर से भाजपा की तरफ से मुख्यमंत्री पद का प्रत्याशी घोषित करने की वजह है कि लिंगायत समाज में उन का मजबूत जनाधार है. कांग्रेस द्वारा लिंगायत समुदाय को अलग धर्म का दर्जा दे कर येदियुरप्पा के जनाधार को कमजोर करने की ही बड़ी कोशिश मानी जा रही है.

हिंदू समाज ने अपने धर्म के विभाजन से निकले बुरे नतीजों से कोई सबक नहीं सीखा. वह टुकड़ोंटुकड़ों में बंटता जा रहा है. जितना विभाजन बढ़ रहा है उतनी ही नफरत, संघर्ष और हिंसा बढ़ रही है. हिंदू धर्म हजारों समाजों, पंथों, संप्रदायों और विचारधाराओं का कूड़ाघर है. इस के कमजोर बौद्धिक आधार वाले भारतीय समाज की प्रकृति मूर्खता से सराबोर यों ही नहीं है जिसे आसानी से किसी भी दिशा में हांका जा सकता है.

नेपाल, भूटान, अफगानिस्तान, म्यांमार, पाकिस्तान, बंगलादेश, मलयेशिया, कंबोडिया, इंडोनेशिया के राजा अलगअलग थे, पर फिर भी मिथक रहा है कि यह अखंड भारतवर्ष था, वह टुकड़ेटुकड़े क्यों हुआ? वहां अब केवल अवशेष बचे हैं. 1947 में राजनीतिक कारणों से एक बड़ा भाग भारत बना और एक ही केंद्र के अंतर्गत है पर क्या यह आज भी एक ही समाज के लोगों का देश है? विभाजन और हिंसा एक ही धर्म में होने के बावजूद बराबरी न होना, समाज का अलगअलग विभाजन और इस विभाजन के कारण जंबूद्वीपे भारत का इतिहास विभाजनों के खून से सना हुआ है. मध्यकाल में शैव, शाक्त और वैष्णव आपस में लड़ते रहते थे. आर्यअनार्य के युद्ध, ब्राह्मणबौद्धों का संघर्ष इतिहास में दर्ज है. लिखित इतिहास के उदाहरणों में से 1310 महाकुंभ में महानिर्वाणी अखाड़े और वैष्णवों के बीच हुए खूनी संघर्ष में सैकड़ों जानें गईं. 1760 में शैव संन्यासियों और वैष्णव बैरागियों के बीच लड़ाई में सैकड़ों लोग मारे गए. 1984 सिख विरोधी दंगे इसी विभाजन से उपजी घृणा का परिणाम था. उस से पहले पंजाब में हिंदुओं की हत्याएं हुईं. सिखों में स्वयं आपसी ऊंचनीच के भेद पर दंगे, हिंसा आम हैं. देशभर में आएदिन दलितों के खिलाफ हिंसा जारी है.

यूरोपीय समाज ने अपने धर्म में फैलते पाखंड से सीख ली. वहां मध्यकाल में पुनर्जागरण आंदोलन शुरू हुआ. 14वीं से ले कर 17वीं शताब्दी तक आंदोलन चला. इस आंदोलन में ज्ञानार्जन ने जोर पकड़ा. शिक्षा में सर्वव्यापी सुधार हुआ. तकनीक का विकास हुआ और लोगों में दुनिया को समझने में आमूल परिवर्तन आया. असल में जितने धर्म, पंथ, संप्रदाय होंगे उतनी ही संकीर्णता बढे़गी. कहने को हर धर्म कहता है कि वह प्रेम, सहिष्णुता, शांति और एकता का पाठ सिखाता है पर पंथों ने उसे बांट दिया. पंथ एक संकीर्ण विचारधारा है जिस ने सिर्फ बांटने का काम किया है. और धर्म तो एक गांव को भी एक शामियाने के नीचे नहीं ला पाता, देश तो बहुत दूर की बात है.

स्वार्थी व पाखंडी लोग अलग पंथ का निर्माण कर लेते हैं. किसी वाकपटु प्रचारक के उपदेशों के नाम पर ढेर सारी आचारसंहिताएं, नियम, आचरण संबंधी लंबी फेहरिस्त बना कर समाज पर थोप दी जाती है. उस के नाम पंथ बन जाता है और फिर पंथ के नाम पर अलग किताबें बनेंगी, नियम बनेंगे, मूर्तियां बनेंगी, ध्वजा बनेंगी. फिर अपनेअपने पंथ का प्रचार किया जाने लगेगा. अनुयायी बनाने की होड़ लगेगी, इस से पंथों के बीच स्पर्धा, ईर्ष्या उपजेगी. और आपस में झगड़े होने लगेंगे. हर पंथ कहता है मेरा पंथ बड़ा है, सच्चा है, असली है. मेरी ध्वजा ऊंची है. इस तरह पंथ और उस के अनुयायी दूसरे पंथों और उन के अनुयायियों से अलग हो जाते हैं. बंटवारे से अपनापन भूल कर नफरत का मिजाज बन जाता है. आपस में आस्था और विचारधाराओं का बंटवारा हो जाता है पर, दरअसल, यह मानवता का बंटवारा होता है. शांति, प्रेम, एकता खत्म हो जाती है. पंथ कई बार धर्म बन जाता है, दूसरों के खून का प्यासा.

अंधविश्वासी भीड़ चतुर, पाखंडी लोगों द्वारा गुरु बन कर अंधविश्वासी जनता को अपना अनुयायी बना कर नया मत पेश कर चलाना व्यवसाय हो गया है. हिंदू समाज खुद ही टुकड़ों में बंट कर अपनी अलग पहचान बनाए रखना चाहता है. वह बराबरी की बात तो करता है पर जब फायदे की बात आती है जो स्वयं को धर्म, जाति, वर्ग, गोत्र, उपगोत्र से मुक्त नहीं कर पाता. इसी का फायदा धर्मगुरु उठा रहे हैं और अपने स्वार्थ के लिए उसे बांट रहे हैं. पंथों ने जनता की उत्पादक सोच को कुंद कर दिया है. क्या यह वजह नहीं है कि पिछले दशकों में देश में कोई नया उद्योग नहीं आया, सिर्फ धंधे आए हैं.

जो भी व्यक्ति जिस भी देवता, अवतार, गुरु, संत, नेता को पूज रहा है वह देश के टुकड़े कर रहा है. ये जितने पंथ, संप्रदाय बने हुए हैं या बन रहे हैं वे समाज के भले के लिए नहीं बन रहे. कोई भी पंथ समाज के भले के लिए कुछ नहीं कर रहा है. अगर सुधार के लिए बने हैं तो समाज में सुधार दिखता क्यों नहीं. अनगिनत पंथों, संप्रदायों के चलते चोरी, बेईमानी, अकर्मण्यता, अंधविश्वास, आडंबर, पाखंड कम नहीं हुआ. समाज में प्रेम, शांति कायम नहीं हुई है. इस के उलट, समाज, परिवार में कलह, अशांति बढ़ती जा रही है. पंथों, संप्रदायों की सत्ता में भ्रष्टाचार, ऐयाशी की गंगा मुहाने तोड़ रही है. आएदिन पंथों के गुरु बलात्कार, छेड़खानी के मामलों में जेल जा रहे हैं.

यह सब खंडखंड बंटते समाज के कारण है. यह भारतीय समाज के लिए एक चुना हुआ आत्मघात है. राजनीतिक दलों और धर्म के धंधेबाजों को हिंदुओं को बांट कर रखने में ही भलाई नजर आती है. कठिनाई यह है कि शिक्षित समाज भी कर्मठता से ज्यादा धर्मस्थलों की चिंता कर रहा है. कारखानों और प्रयोगशालाओं की जगह सदियों पुराने रीतिरिवाजों का मूर्खतापूर्ण पालन कर नए भारत की कल्पना की जा रही है. यह कमजोर नींव पर न होगा.

VIDEO : ट्रांइगुलर स्ट्रिप्स नेल आर्ट

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