नरेंद्र मोदी ने सुषमा स्वराज को विदेश मंत्रालय दे कर यह सिद्ध करने की कोशिश की है कि मंत्रिमंडल में महिलाएं केवल दिखावटी, सजावटी चेहरा नहीं होतीं, उन से गंभीर काम भी कराए जा सकते हैं.

विदेश मंत्रालय आजकल एक तौर से गृह मंत्रालय और वित्त मंत्रालय से भी ज्यादा महत्त्व का मंत्रालय बन गया है, क्योंकि सारे देशों की अर्थव्यवस्थाएं अब रेल के डब्बों की तरह एकदूसरे से जुड़ गई हैं और 1 डब्बे की आग दूसरे को खतरा पहुंचा सकती है. सभी देशों के साथ तालमेल बैठाए रखना एक टेढ़ी खीर है.

सुषमा स्वराज पहले आमतौर पर घरेलू राजनीति पर ही ज्यादा बोलती थीं पर आशा है कि वे हिलेरी क्लिंटन की तरह विदेश मंत्रालय को और प्रभावशाली बना सकेंगी.

भारत इस समय ज्वालामुखियों के बीच में है. पाकिस्तान, नेपाल, म्यांमार, श्रीलंका, चीन सब विदेशी मामलों से जूझ रहे हैं, क्योंकि उन की आतंरिक स्थिति का निर्णय कहीं बाहर हो रहा है.

पाकिस्तान अमेरिका पर निर्भर है, तो चीन को तिब्बत व अपने मुसलिम इलाकों की वजह से विदेशी समर्थन चाहिए. श्रीलंका में तमिल संहार की खून भरी कहानी अभी फीकी नहीं पड़ी है, तो म्यांमार कब फिर फौजियों के हाथों चला जाए पता नहीं, क्योंकि उस के पड़ोस का थाईलैंड अच्छे भले लोकतंत्र से मुड़ कर सैनिक शासन की ओर जा रहा है.

विदेश मंत्री को अफगानिस्तान का मसला न दिल्ली, न काबुल और न इसलामाबाद बल्कि ब्रुसैल्स, लंदन, न्यूयार्क और वाशिंगटन में सुलझाना होगा. भारत के हित अफगानिस्तान से जुड़े हैं और कोई भूलचूक बहुत महंगी पड़ सकती है.

इंदिरा गांधी और सोनिया गांधी सरकारों को चलाती रही हैं पर विदेश मंत्रालय में जो औपचारिकता निभानी होती है, वह विलक्षण होती है और वहां हलकी सी बात को भी गंभीर रूप से लिया जाता है. सौम्य व्यक्तित्व से वैसे काफी देशों की विदेश मंत्री काम बनाती रही हैं और उम्मीद करिए कि सुषमा स्वराज भी चूल्हे की गैस को उपयोगी बना कर रखेंगी.

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