सुप्रीम कोर्ट ने अब 18 वर्ष से कम उम्र की पत्नी के साथ शारीरिक संबंध बनाने को दुष्कर्म श्रेणी की व्यवस्था दी है. लड़की की शिकायत पर पुलिस पति पर रेप का केस दर्ज कर सकती है. यह फैसला देश के सभी धर्मों व वर्गों पर समानरूप से लागू होगा. मुसलिम पर्सनल ला में 15 वर्ष की लड़की को विवाहयोग्य माना गया है पर लड़की की शिकायत पर अब मामला दर्ज करना होगा. लड़की के विवाह की उम्र अभी तक धर्म तय करता आया है. उसी आधार पर धार्मिक वैवाहिक कानून बना दिए गए. अब उन में संशोधन किए जा रहे हैं.

मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा की पीठ ने एक पारसी महिला गूलरोख एम गुप्ता की याचिका पर आदेश दिया है जिसे हिंदू युवक से शादी करने के बाद पारसी समुदाय ने पारसी मानने से इनकार कर दिया था. गूलरोख गुजरात हाईकोर्ट गईं तो वहां भी कहा गया कि जब भी महिला अपने धर्म से बाहर किसी व्यक्ति से शादी करती है तो उस का धर्म वही हो जाता है जो उस के पति का है.

गूलरोख ने 1991 में विशेष विवाह कानून 1954 के तहत हिंदू युवक से विवाह किया था. गूलरोख को उस के पिता के अंतिम संस्कार में यह कह कर रोक दिया गया कि वह विवाह के बाद पारसी नहीं रही. गुजरात हाईकोर्ट ने गूलरोख की याचिका खारिज कर दी और कहा कि उसे पारसी अग्निमंदिर में प्रवेश नहीं देना सही है. इस पर मामला सुप्रीम कोर्ट में गया. यहां गूलरोख की वकील इंदिरा जयसिंह ने कहा कि गुजरात हाईकोर्ट का फैसला संविधान के अनुच्छेद 14, 15, 21 और 25 के खिलाफ है.

इस औरत के सामने समस्या यह है कि वह धर्म को देखे या दांपत्य को? धर्म की वजह से बने ऐसे कानूनों ने दांपत्य की जड़ें खोखली की हैं. परिवारों में जहर घोला है.

धर्म की दखलंदाजी

वैवाहिक कानूनों में धर्म की घुसपैठ के अनगिनत मामले हैं. अगर महिला या पुरुष धर्म बदले बिना शादी करते हैं तो ऐसी शादियां वैध नहीं मानी जाएंगी. ऐसा ही एक मामला मद्रास हाईकोर्ट में आया. कोर्ट ने फैसले में कहा कि एक हिंदू महिला और एक ईसाई पुरुष के बीच शादी तब तक कानूनन वैध नहीं है जब तक दोनों में से कोई एक धर्मपरिवर्तन नहीं करता. महिला के परिजनों द्वारा दाखिल बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका को खारिज करते हुए न्यायाधीश पी आर शिवकुमार और वी एस रवि ने कहा कि यदि यह जोड़ा हिंदू रिवाजों के अनुसार शादी करना चाहता है तो पुरुष को हिंदू धर्म अपनाना चाहिए और यदि महिला ईसाई रिवाजों के अनुसार शादी करना चाहती है तो उसे ईसाई धर्म ग्रहण करना चाहिए.

अगर वे दोनों बिना धर्मपरिवर्तन के अपनाअपना धर्म बनाए रखना चाहते थे तो विकल्प के रूप में उन की शादी विशेष विवाह अधिनियम 1954 के तहत पंजीकृत करानी चाहिए थी.

याचिका दाखिल किए जाने के बाद अदालत में पेश की गई महिला ने अदालत को बताया कि उस ने पलानी में एक मंदिर में शादी की थी. इस पर अदालत ने कहा कि यदि पुरुष ने धर्मपरिवर्तन नहीं किया है तो हिंदू कानून के अनुसार, शादी वैध कैसे हो सकती है.

इसी तरह विवाह के ईसाई कानून 1872 के भारतीय ईसाई विवाह अधिनियम द्वारा शासित मामले में सुप्रीम कोर्ट का एक अहम फैसला आया था. फैसले के अनुसार, पर्सनल ला के तहत चर्च से दिए गए तलाक वैध नहीं होंगे. अदालत ने फैसला सुनाते हुए कहा था कि क्रिश्चियन पर्सनल ला, इंडियन क्रिश्चियन मैरिज एक्ट 1872 और डायवोर्स एक्ट 1869 को रद्द कर प्रभावी नहीं हो सकता.

सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र की उस दलील को मान लिया जिस में 1996 के सुप्रीम कोर्ट के उस आदेश का हवाला दिया गया था कि किसी भी धर्र्म के पर्सनल ला देश के वैधानिक कानूनों पर हावी नहीं हो सकते. यानी, कैनन ला के तहत तलाक कानूनी रूप से मान्य नहीं होगा.

सुप्रीम कोर्ट ने उस जनहित याचिका को खारिज कर दिया जिस में चर्च से मिले तलाक को कानूनी मान्यता दिए जाने की मांग की गई थी. याचिका में कहा गया था कि चर्च से मिले तलाक पर सिविल कोर्ट की मुहर लगनी जरूरी न हो.

दरअसल, मंगलौर के रहने वाले क्लेंरैंस पायस की इस जनहित याचिका को सुप्रीम कोर्ट ने विचारार्थ स्वीकार कर लिया था. ईसाइयों के धर्मविधान के अनुसार, कैथोलिक ईसाइयों को चर्च की धार्मिक अदालत में पादरी द्वारा तलाक या अन्य डिक्रियां दी जाती हैं.

सुप्रीम कोर्ट में याचिकाकर्ता की ओर से कहा गया था कि चर्च द्वारा दी जाने वाली तलाक की डिक्री के बाद कुछ लोगों ने जब दूसरी शादी कर ली तो उन पर बहुविवाह का मुकदमा दर्ज हो गया. ऐसे में सुप्रीम कोर्ट घोषित करे कि कैनन ला यानी धर्मविधान में चर्च द्वारा दी जा रही तलाक की डिक्री मान्य होगी और उस पर सिविल अदालत से तलाक की मुहर जरूरी नहीं है.

बहुचर्चित शाहबानो को भी धार्मिक कानून की ज्यादती की शिकार बनना पड़ा. तलाकशुदा शाहबानो जब सुप्रीम कोर्ट गई तो उसे निर्वाह राशि मिल गई. सर्वाेच्च न्यायालय ने आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 125 के तहत अधिकार को मान्यता दी. मोहम्मद अहमद खान बनाम शाहबानो बेगम मामले में इंदौर की रहने वाली 62 वर्षीय शाहबानो को उस के पति मोहम्मद अहमद ने 1972 में तलाक देने के बाद केवल मामूली सी मेहर की रकम वापस की थी. शाहबानो ने सुप्रीम कोर्ट से गुहार लगाई तो कोर्ट ने धारा 125 के तहत फैसला सुनाते हुए मोहम्मद अहमद खान को शाहबानो को खानाखर्च देने का फैसला सुनाया पर कट्टरपंथी मुसलिम संगठनों ने इसे शरीयत कानून में दखल मानते हुए तब की राजीव गांधी सरकार पर दबाव बनाया. परिणामस्वरूप, राइट टू प्रोटैक्शन औन डिवोर्स-1986 कानून बना कर फैसला बदल दिया गया.

 अगर केंद्र सरकार ने दृढ़ता दिखाई होती तो इसलामिक कानूनों के जरिए महिलाओं के शोषण का मामला सालों पहले ही सुलझ गया होता पर सरकार कट्टरपंथियों के आगे झुक गई.

केंद्र सरकार मुसलिम महिलाएं (तलाक के अधिकार) बिल-1986 ले कर आई जो कि सुप्रीम कोर्ट के नियमों को बदल कर मुसलिम महिलाओं को बाकी सभी महिलाओं के अधिकारों से वंचित करता था.

अवैध विवाह

1985 में सरला बनाम यूनियन औफ इंडिया एवं अन्य का मामला सामने आया था. सरला मुद्गल सहित कई अन्य औरतों ने दूसरी शादी करने की मंशा से पुरुषों द्वारा धर्मपरिवर्तन के मामलों को चुनौती दी थी. मीना माथुर के पति जितेंद्र माथुर ने मीना को तलाक दिए बिना इसलाम धर्म स्वीकार कर मुसलिम औरत से शादी कर ली थी. 1992 में गीता रानी के पति प्रदीप कुमार ने भी इसलाम स्वीकार कर दूसरी शादी कर ली थी.

इन सभी याचिकाओं में ऐसे मामलों में रोक लगाने की सुप्रीम कोर्ट से गुहार की गई. इन मामलों में न्यायाधीश कुलदीप सिंह की पीठ ने भारतीय दंड संहिता की धारा 494 के तहत फैसला सुनाते हुए पहली बार पत्नी को तलाक दिए बिना विवाह को अवैध करार दिया था. जस्टिस कुलदीप सिंह ने कहा था कि इस तरह के मामलों पर रोक के लिए अनुच्छेद 44 पर विचार करना चाहिए.

एक एडवोकेट लिली थौमस ने वर्ष 2000 में दूसरी शादी के मकसद से इसलाम कुबूल करने को गैरकानूनी करार देने और हिंदू मैरिज एक्ट में ऐसा संशोधन करने के लिए याचिका डाली थी जिस से कि इसलाम को कुबूल कर लोग हिंदू धर्म के अनुसार ब्याहता को धोखा न दे सकें.

कुछ समय पहले हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री भजनलाल के बेटे चंद्रमोहन द्वारा इसलाम धर्म अपना कर दूसरी शादी करने का मामला सामने आया था. चंद्रमोहन ने अनुराधा बाली नाम की एक महिला से शादी करने के लिए धर्म बदल लिया और अपना नाम चांद मोहम्मद कर लिया. अनुराधा बाली का नाम फिजा रखा गया. चंद्रमोहन के इस कदम से परिवार के लोग नाराज हुए और उन से रिश्ता तोड़ कर दूरी बना ली. चंद्रमोहन को संपत्ति से वंचित भी कर दिया गया.

बाद में परिवार के बढ़ते दबाव के चलते चंद्रमोहन ने फिजा को तलाक दे दिया और वापस हिंदू धर्म अपना लिया. उधर तलाक दिए जाने से नाराज अनुराधा बाली ने फरवरी 2009 में चंद्रमोहन के खिलाफ बलात्कार, धोखाधड़ी और मानहानि का मामला दर्ज कराया था. हालांकि, बाद में 16 अगस्त, 2012 को फिजा की लाश सड़ीगली अवस्था में उस के घर में मिली थी.

भारत में शादियां सदियों पुरानी धार्मिक किताबों, सड़़ेगले रीतिरिवाजों और रूढि़वादी परंपराओं व उन पर बने कानूनों से होती आ रही हैं. हर धर्म का अपना पर्सनल ला है जिस के अंतर्गत विवाह संपन्न होते हैं. विवाह के इन कानूनों में पतिपत्नी के बीच पंडा, पादरी, मुल्ला और परंपराएं अनिवार्य अंग हैं. विवाह को संस्कार माना गया है, करार नहीं.

पर्सनल धार्मिक कानूनों ने विवाह नाम की संस्था की नींव खोखली कर दी है. विवाह में धर्म की फुजूल उपस्थिति ने औरत की मरजी को हाशिए पर धकेल दिया है. उस के साथ भेदभाव, असमानता, कलह, हिंसा के रास्ते खोल दिए गए. सीधेसीधे 2 मनुष्यों के बीच एक करार के बजाय विवाह को अनावश्यक बाहरी आडंबरों का आवरण ओढ़ा दिया गया.

अब धीरेधीरे कई मामले सामने आ रहे हैं जिन में या तो औैरत ऐसे आवरण को उतार कर फेंक रही है या रूढि़यों से बगावत कर रही है.

साथ ही साथ, सुप्रीम कोर्ट पर्सनल ला को स्त्रियों के लिए अन्याय, शोषण का जरिया नहीं बनने देने के निर्णय सुना रहा है. सुप्रीम कोर्ट ने हाल में कुछ ऐसे ही फैसले किए हैं या ऐसे मामले संविधान पीठ को सौंपे हैं.

धर्म के नाम पर बने कानून के माध्यम से कैसे एक औरत की जिंदगी न केवल बरबाद की जा सकती है, उसे मरने पर मजबूर भी किया जा सकता है.

तीन तलाक का मामला भी धर्म पर आधारित एकपक्षीय था. इस में औरत का पक्ष सुने बिना उसे त्याग देने का एकतरफा फैसला न्याय के सिद्घांत का खुला उल्लंघन था.

औरतों के साथ भेदभाव को ले कर सुप्रीम कोर्ट ने समयसमय पर न सिर्फ टिप्पणियां की हैं, सरकार को इस दिशा में निर्देश भी दिए हैं. फरवरी 2015 में सुप्रीम कोर्ट ने एक मामले की सुनवाई करते हुए कहा था कि यह बहुत ही आवश्यक है कि सिविल कानूनों से धर्म को बाहर किया जाए.

मई 1995 को एक सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने समान नागरिक संहिता को अनिवार्य रूप से लागू किए जाने पर जोर दिया था. कोर्ट का कहना था कि इस से एक ओर जहां पीडि़त महिलाओं की सुरक्षा हो सकेगी, वहीं दूसरी ओर राष्ट्रीय एकता बढ़ाने के लिए भी यह आवश्यक है.

कोर्ट ने उस वक्त यहां तक कहा था कि इस तरह के किसी समुदाय के निजी कानून स्वायत्तता नहीं, अत्याचार के प्रतीक हैं. भारतीय नेताओं के द्विराष्ट्र अथवा तीन राष्ट्रों के सिद्धांत को कोर्ट ने स्वीकार नहीं किया. भारत एक राष्ट्र है और कोई समुदाय मजहब के आधार पर स्वतंत्र अस्तित्व का दावा नहीं कर सकता.

जब भी धार्मिक पर्सनल कानूनों में बदलाव की बात उठती है, हर धर्म के ठेकेदार इसे धर्म में दखलंदाजी करार देते हुए धार्मिक स्वतंत्रता पर हमला बता कर विरोध पर उतर आते हैं. इन कानूनों में महिलाओं के साथ असमानता, भेदभाव व्याप्त हैं.

अलग धर्म, अलग रीतियां

हमारे देश में अलगअलग धर्मों के  लोग रहते हैं. यहां हर समुदाय के अपने पर्सनल ला हैं. हिंदू मैरिज एक्ट, क्रिश्चियन मैरिज एक् ट 1872, इंडियन डिवोर्स एक्ट 1869, भारतीय उत्तराधिकार नियम 1925. इसी तरह पारसी मैरिज ऐंड डिवोर्स एक्ट 1936, यहूदियों का मैरिज एक्ट है. इन के उत्तराधिकार और संपत्ति कानून भी अलग हैं. मुसलमानों के भी ऐसे ही हैं. हालांकि सभी कानूनों में समयसमय पर सुधार होते रहे हैं लेकिन मुसलिमों का शरीयत कानून तो करीब 100 वर्षों से वैसा ही है.

रूढि़वादी समाज में धर्म जीवन के हर पहलू को संचालित करता रहा है. आज भी धार्मिक रीतिरिवाज वैवाहिक कानूनों के आवश्यक हिस्से हैं. हिंदू विवाह में वैवाहिक वेदी, सप्तपदी, कलश, पंडित और मंत्र जरूरी हैं. दूसरे धर्मों में पादरी जैसे धार्मिक बिचौलिए की उपस्थिति आवश्यक है.

पौराणिक काल से हिंदुओं में विवाह को एक पवित्र संस्कार माना गया है और हिंदू विवाह अधिनियम 1955 में भी इस को इसी रूप में बनाए रखने की कोशिश की गई. हालांकि विवाह पहले पवित्र एवं अटूट बंधन था, अधिनियम के अंतर्गत ऐसा नहीं रह गया. पवित्र एवं अटूट बंधन वाली विचारधारा अब शिथिल पड़ने लगी है. अब यह जन्मजन्मांतर का बंधन नहीं, विशेष परिस्थितियों के उत्पन्न होने पर वैवाहिक संबंध को तोड़ा भी जा सकता है.

शारीरिक व मानसिक निर्दयता, 2 वर्षों तक त्याग, रतिज रोग, परपुरुष या परस्त्री गमन, धर्मपरिवर्तन, पागलपन, कुष्ठ रोग, संन्यास जैसी दशा में संबंध विच्छेद हो सकता है. स्त्रियों को द्विविवाह, बलात्कार, पशुमैथुन, अप्राकृतिक मैथुन जैसे आधार पर संबंध विच्छेद करने का अधिकार प्राप्त है.

अधिनियम द्वारा अब हिंदू विवाह प्रणाली में कई परिवर्तन हुए हैं. अब हर हिंदू स्त्रीपुरुष दूसरे हिंदू स्त्रीपुरुष से विवाह कर सकता है चाहे वह किसी जाति का हो. एक विवाह तय किया गया है, दूसरा विवाह अमान्य एवं दंडनीय है. न्यायिक पृथक्करण, संबंध विच्छेद तथा विवाह शून्यता की डिक्री की घोषणा की  व्यवस्था की गई है. प्रवृत्तिहीन तथा असंगत विवाह के बाद और डिक्री पास होने के बीच उत्पन्न संतान को वैध घोषित कर दिया गया है पर इस के लिए डिक्री का पास होना आवश्यक है.

न्यायालय पर यह वैधानिक कर्तव्य नियत किया गया है कि हर वैवाहिक झगड़े में समाधान कराने का प्रथम प्रयास किया जाए. बाद में संबंध विच्छेद पर निर्वाह व्यय एवं निर्वाह भत्ता की व्यवस्था की गई है. न्यायालय को इस बात का अधिकार दिया गया है कि वह अवयस्क बच्चों की देखरेख एवं भरणपोषण की व्यवस्था करे.

इस के बावजूद हिंदुओं में विवाह को अब भी संस्कार माना जाता है, जन्मजन्मांतर का बंधन माना जाता है. पर अब विवाह में लड़ाई, झगड़ा, शोषण भी दिखता है, हत्याएं भी होती हैं. पतिपत्नी में एकदूसरे को नीचा दिखाने की होड़ भी चलती है. विवाह होने पर युवती अपने पिता का घर छोड़ती है, वह अपने मांपिता को ही नहीं, अपना गोत्र, सरनेम और अपनी तरुणता भी छोड़ती है.

समान नागरिक संहिता की मांग

पर्सनल कानूनों में धर्म के आधार पर भेदभाव की वजह से समयसमय पर समान नागरिक कानून की  मांग की जाती रही है. कई बार सुप्रीम कोर्ट के सामने भी ऐसी स्थिति आई जब सरकार से जवाब मांगना पड़ा. समान नागरिक संहिता के निर्माण की मांग 1930 के दशक में उठाई गई थी और बी एन राव की अध्यक्षता में एक कमेटी गठित की गई. समिति ने 1944 में हिंदू कोड से संबंधित मसविदा सरकार को सौंपा था पर कोई कार्यवाही नहीं की गई.

आजादी के बाद अंबेडकर की अध्यक्षता वाली समिति ने हिंदू कोड बिल में विवाह की आयु बढ़ाने, औरतों को तलाक का अधिकार देने के साथ दहेज को स्त्रीधन मानने के सुझाव दिए थे.

समान नागरिक संहिता की वकालत करने वालों का दावा है कि यह आधुनिक और प्रगतिशील देश का प्रतीक है. इसे लागू करने से देश धर्म, जाति, वर्ग के आधार पर भेदभाव नहीं करेगा.

समान नागरिक संहिता के पक्षधर लोगों की दलील है कि एक धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक देश में प्रत्येक नागरिक के लिए कानूनी व्यवस्थाएं समान होनी चाहिए. सुप्रीम कोर्ट का बारबार तर्क रहा है कि कानून बनाना सरकार का काम है, इसलिए कोई इस में हस्तक्षेप नहीं कर सकता. न ही सरकार को कानून बनाने का आदेश दिया जा सकता है पर अगर कोई पीडि़त सुप्रीम कोर्ट जाता है तो कोर्ट को उस पर सुनवाई करनी पड़ती है.

हिंदू विवाह कानून 1955 में लागू हुआ था और अब तक इस में कई संशोधन हो चुके हैं.

पितृसत्तात्मक समाज व्यवस्था विवाह नामक संस्था में पत्नी को पति के बराबर आर्थिक अधिकार देने से रोकती रही है. औरतों के प्रति ऐसी सामाजिक जड़ता की कीमत उन्हें ही सब से अधिक चुकानी पड़ती है. दहेज के नाम पर औरतों से उन का संपत्ति से अधिकार छीन लिया गया. ब्रिटिश शासन के दौरान भूमि बंदोबस्त अभियान व संपत्ति संबंधी कानूनों में बहुत से स्त्रीविरोधी फेरबदल किए गए.

इस का मतलब है कि समाज में आज भी यह धारणा मजबूत है कि शादी होने के बाद लड़की पराई हो जाती है. मायके में वह मेहमान बन कर रह जाती है.

पैतृक संपत्ति में भले ही उसे कानूनन हक हासिल हो गया है पर इस का  इस्तेमाल कितनी महिलाएं करती हैं? सामाजिक तानेबाने की जकड़न व अपने हकों को मांगने वाली जागरूकता की कमी बड़ी बाधाएं हैं.

विवाह और भाग्यवाद

धर्म के बिचौलियों को विवाह के ज्यादा अधिकार दे दिए गए. धर्र्म पर आधारित कानूनों की जंजीरों से आजादी का एकमात्र रास्ता यह है कि विवाह धार्मिक बंधनों से मुक्त हों.

विवाह की बात आती है तो अकसर कहा जाता है कि जोड़ी ऊपर से बन कर आती है. वैवाहिक जीवन भाग्य पर छोड़ दिया गया है.

हालांकि पहले नानी, दादी, ताई, चाची सिखाती थीं पर उन बातों में व्यावहारिकता कम जबकि सेवा, पूजा, भक्ति की बातें अधिक होती थीं. मसलन, पति को परमेश्वर बताया गया. पत्नी उस की दासी बन कर सेवा करने का हुक्म दिया गया. बच्चे पैदा करना और गृहस्थ संभालना कर्तव्य माना गया. इस तरह की बातें इसलिए सिखाईर् जाती रही हैं ताकि धर्म के धंधेबाजों का रोजगार चलता रहे.

दिक्क्त यह है कि समाज का बड़ा तबका विवाह, तलाक और उत्तराधिकार जैसे मामलों को धर्म से जोड़ कर देखता है. कानूनों में धार्मिक दखलंदाजी की वजह से महिलाओं के बीच आर्थिक और सामाजिक असुरक्षा में बढ़ोतरी होती जा रही है.

दरअसल, विवाह एक करार है. पतिपत्नी दोनों एकदूसरे के पूरक हैं, यह बात समाज ने उन्हें नहीं सिखाई. वैवाहिक जीवन को ले कर व्यावहारिक बातें सिखाई जानी बहुत जरूरी हैं. अफसोस यह है कि विवाह संस्था को चलाने के लिए ठोस नियमकायदे और टे्रनिंग देने वाली कोई संस्था नहीं है.           

कन्यादान क्यों

धार्मिक अनुष्ठान के बाद कन्या का पिता विवाह संपन्न होने की कीमत के तौर पर अपनी बेटी को दान कर देता है. क्यों? 

लिंगभेद हर कानून में है. कानूनन वैवाहिक स्थिति में स्त्री की सुरक्षा का विशेष खयाल रखा गया है. वैवाहिक मुकदमों की प्रकृति देखें तो अकसर वधू पक्ष द्वारा वर पक्ष पर दहेज प्रताड़ना, शारीरिक शोषण और पुरुष के परस्त्री से अवैध संबंध, मानसिक प्रताड़ना जैसे मामले देखे गए हैं.

असल में स्त्री के प्रति जो सामाजिक सोच बनी हुई है उस से उसे बचाने के लिए कानून में सुरक्षा देने का प्रयास किया गया. वैसे, कई बार अदालत में यह भी साबित हुआ है कि वधू पक्ष द्वारा वर पक्ष को तंग करने के लिए अकसर दहेज के मामले दर्ज कराए जाते हैं. तिहाड़ जेल के महिला सेल में छोटे से बच्चे से ले कर 80-90 साल तक की वृद्धा दहेज प्रताड़ना के आरोपों में बंद हैं.

दहेज का मतलब विवाह के समय वधू पक्ष द्वारा वर पक्ष को दी जाने वाली संपत्ति से है. दहेज को स्त्रीधन कहा गया है. विवाह के समय सगेसंबंधियों द्वारा दिया गए धन, संपत्ति एवं उपहार दहेज के अंतर्गत आते हैं. अगर विवाह के बाद पति या  उस के परिवार वालों द्वारा दहेज की मांग को ले कर दूसरे पक्ष को किसी प्रकार का कष्ट, संताप या प्रताड़ना दी जाएं तो स्त्री को यह अधिकार है कि वह उस दहेजरूपी संपत्ति को पति पक्ष से वापस ले ले.

हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 27, स्त्री को इस प्रकार की सुरक्षा प्रदान करती है. 1985 में सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश फाजिल अली ने अपने एक फैसले में कहा था कि स्त्रीधन एक स्त्री की अपनी संपत्ति है. यह संपत्ति पति पक्ष पर पत्नी की धरोहर है और उस पर उस का पूरा अधिकार है. इस का उल्लंघन करना दफा 406 के तहत अमानत में खयानत का अपराध है.

पर सवाल है कि आखिर लड़की को विवाह के समय यह दहेज क्यों दिया जाए?

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