स्वच्छ भारत की कल्पना करना आसान है, पर इसे साकार करना आदमी को चांद पर भेजने से भी कठिन है. आदमी को चांद पर भेजने के लिए कुछ सौ कर्मठ इंजीनियरों व वैज्ञानिकों की जरूरत है, जो एक जगह बैठ कर फैसले ले सकें और हरेक पर निगरानी कर सकें पर कूड़ा उठाने के लिए करोड़ों की जरूरत है और कहीं एकदूसरे पर नजर नहीं रखी जा सकती. कूड़ा ऐसी चीज है जिस पर नजर रखी ही नहीं जा सकती. लखनऊ की एक कालोनी में आनबान से निजी कंपनी को कूड़ा उठाने पर लगा दिया पर थोड़े ही दिनों में बिल तो घरघर पहुंचने लगे पर कूड़े के ढेर सरकारी तौरतरीके से उठाए जाने लगे. ऐसा देश के हर कोने में हो रहा है. निजीकरण तो हो रहा है पर कूड़े की महत्ता न होने के कारण उस का निबटाना ऐसावैसा ही है.

कठिनाई यह है कि कूड़े को अंतिम स्थान तक ले जाना टेढ़ी खीर है. घर से उठा कर इलाके में एक जगह ले जाने तक की कंपनियां तो बनने लगी हैं पर उस के आगे काम नहीं हो पा रहा. शहर की सड़कों से कूड़ा उठाना और फिर उसे किसी बड़े ढलाव तक ले जाना या सैनिटरी लैंडफिल पर डालना कालोनी वाली कंपनी नहीं कर सकती और अगर घर से लैंडफिल तक का काम एक कंपनी को दे दिया जाए तो इन का प्रबंध करना अच्छेअच्छों के बस की नहीं. इस में मध्यम शहर के लिए ही सैकड़ों वाहन, औटोमैटिक लोडर डंपर, कंप्रैशर मशीनें व लैंडफिल मैनेजमैंट आदि चाहिए. नतीजा यह है कि जो थोड़ाबहुत विकास हो भी रहा है वह बढ़ते कूड़े की दुर्गंध के कारण सहा नहीं जा रहा. देश में जहां सड़कों के जाल बनाए जा रहे हैं, वहीं कूड़े के ढेरों की गिनती भी बढ़ती जा रही है. देश में नारेबाजी ज्यादा हो रही है, सौलिड काम कम हो रहा है.

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