सुप्रीम कोर्ट ने एक फैसले में औरतों को शेयर्ड हाउसहोल्ड में रहने का अधिकार दे कर एक नया दौर शुरू किया है. सताई हुई औरतें कहां जाएं, कौन सी छत ढूंढ़ें, यह सवाल बहुत बड़ा है. जो किसी कारण अकेली रह गई हों, पति हिंसक हो, बच्चे छोड़ गए हों, उम्र हो गई हो, लंबी बीमारी हो, पूजापाठी जनता ऐसी किसी भी बेचारी औरत को निकालने में जरा भी हिचकिचाती नहीं है.

सुप्रीमकोर्ट ने कहा है कि डोमैस्टिक वायलैंस ऐक्ट की धारा 17(1) ऐसी किसी भी औरत को, चाहे वह मां हो, बेटी हो, बहन हो, पत्नी हो, विधवा हो, सास हो, बहू हो घर में रहने का अधिकार रखती है चाहे उस के पास उस घर में संपत्ति का हक हो या न हो. यह अधिकार हर धर्म, जाति की औरत का है. कोई भी उस अनचाही औरत को घर से नहीं निकाल सकता, जो किसी अधिकार से उस घर में कभी आई थी.

एक पत्नी अपने पति के घर में रहने का हक रखती है चाहे घर पति का न हो, पति के मातापिता या भाईबहन का हो अगर पति वहां रह रहा है. उसी तरह घर की बेटी को घर से नहीं निकाला जा सकता. चाहे उस का विवाह हो गया हो और वह पति को छोड़ आई हो. कोई मां को नहीं निकाल सकता कि उसे अब दूसरे बेटे या बेटी के पास जा कर रहना चाहिए. कोई औरत छत से महरूम न रहे इस तरह का फैसला अपनेआप में क्रांतिकारी है.

सोनिया गांधी की सरकार के जमाने में 2005 में बना हुआ यह कानून व यह फैसला असल में उन पौराणिक कथाओं पर एक तमाचा है जिन में पत्नी को बेबात के बिना बताए घर से निकाल दिया गया क्योंकि कुछ लोगों को शक था. यह उन कथाओं और मान्यताओं पर प्रहार है जिन में औरतों को गलती करने पर पत्थर बना दिया जाता था, जो सड़क पर पड़ा रहे.

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