अब बच्चों को पालने में पहले से कई गुना मेहनत ही नहीं, पैसा भी लगने लगा है. पहले बच्चे कई होते थे और साधन कम तो बच्चों को अपनेआप पलने दिया जाता था. उन के खाने और सुरक्षा का इंतजाम तो होता था पर बाकी वे अपनी जिंदगी में क्या करेंगे यह उन पर छोड़ दिया जाता था. अब बच्चे चाहत का नतीजा हैं, किसी बायोलौजिकल सैक्स ऐक्शन का औटोमैटिक रिजल्ट नहीं हैं. बच्चे प्लान कर के किए जाते हैं और कानून के बावजूद कोशिश की जाती है कि मनचाहे सैक्स का बच्चा पैदा हो.

मगर इस पूरी 15-20 साल की ऐक्सरसाइज का आफ्टर इफैक्ट दिखने लगा है. बच्चों का जन्म ही प्लान नहीं किया जाता, वे क्या करेंगे, कैसे करेंगे यह भी प्लान किया जाने लगा है और उन से ढेरों उम्मीदें लगा कर उन पर खूब इनवैस्ट किया जाने लगा है. नतीजा है कि बच्चों के मांबाप तो टैंशन में रहते ही हैं, बच्चे भी मांबाप की टैंशन को अपने सिर पर ले लेते हैं.

गत 29 मार्च को मोहनलालगंज, लखनऊ, के डी फार्मा के फर्स्ट ईयर के आशुतोष श्रीवास्तव ने अपने कमरे में फांसी लगा कर आत्महत्या कर ली. उस ने जो नोट छोड़ा उस में लिखा था, ‘‘मुझे लगता है कि मैं कुछ नहीं कर पाऊंगा, मम्मीपापा के सपनों को साकार नहीं कर पाऊंगा. मुझे माफ करना...’’

22 साल का युवा जो अब तक कमाऊ हो जाता था न केवल घर पर बोझ बना हुआ था, लगता है पढ़ाई में पीछे रह गया था.

आजकल मांबाप से बहुत कहा जा रहा है कि वे अपने बच्चों पर दबाव न बनाएं, उन्हें अपनी मरजी के काम करने दें. काफी चली फिल्म ‘थ्री इडियट्स’ का मेन थीम भी यही था कि एमबीए की पढ़ाई में फर्स्ट आना और मोटा वेतन पाना जीवन का लक्ष्य हो जरूरी नहीं, जीवन में और भी बहुत कुछ है करने को. मांबाप बच्चों पर अब बहुत प्यार उडे़लते हैं, उन्हें नामी व महंगे स्कूलों में दाखिल कराने के लिए उन पर बहुत पैसा खर्चते हैं, बहुत पैसा कोचिंग क्लासों पर खर्च करते हैं तो बहुत सी उम्मीदें पाल लेते हैं. ये उम्मीदें युवाओं के सिर पर तलवार की तरह लटकती हैं. डिलिवर और पैरिश- सपने पूरे करो या नष्ट हो जाओ.

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