आशंकाएं तो संविधान निर्माण समिति की बैठकों में भी व्यक्त की गई थीं कि राजद्रोह का मामला कभी हथियार की तरह इस्तेमाल न हो. लेकिन उस दौर में देश प्रेम से ओत प्रोत माहौल था और शायद उस माहौल में यह सोचना कुछ ज्यादा ही अविश्वासी होना होता कि भविष्य में कभी सरकारें ऐसा भी कर सकती हैं. लेकिन हाल के सालों में जिस तरह से राजद्रोह के आरोप बढ़ रहे हैं और खासकर युवाओं को में बढ़ रहे हैं, वह एक बड़ी चिंता का विषय है. पिछले दो सालों में 6,300 लोगों पर राजद्रोह का केस दर्ज हुआ है यानी इन पर गैरकानूनी गतिविधियां (रोकथाम) कानून यानी यूपीए के तहत केस दर्ज हुआ है. लेकिन इसका ये मतलब नहीं है कि ये सब राजद्रोही साबित हुए हैं. पिछले कई सालों से यूं तो राजद्रोह के आरोप में हजारों की संख्या में लोगों को गिरफ्तार किया जा रहा है, लेकिन अदालत में बमुश्किल अभी भी एक से दो फीसदी लोगों पर ही आरोप तय किये जा सकें हैं. इससे साफ पता चलता है कि जो भी लोग सरकार के खिलाफ आवाज उठाते हैं, उन्हें राजद्रोही मान लिया जाता है, फिर भले अदालत उन्हें ऐसा न माने और बाइज्जत बरी कर दें लेकिन अदालत से बरी होने के पहले तक जिस लंबे तनाव, परेशानियों और अपमान से गुजरना पड़ता है, वह किसी सजा से कम नहीं हैं.

साल 2020 में सीएए और दिल्ली दंगों के दौरान राजद्रोह के तहत 3000 लोगों को आरोपी बनाया गया. पर बाद में सीएए विरोधियों में से 25 और दिल्ली दंगों के आरोपियों में से 26 लोगों के खिलाफ राजद्रोह के मुकदमे दर्ज हुए और इनमें सिर्फ दो फीसदी लोगों पर अदालत में आरोप तय किये जा सके. इससे साफ पता चलता है कि किस तरह राजद्रोह कानून का इस्तेमाल बढ़ गया है. साल 2014 में 47, साल 2015 में 30, साल 2016 में 35, 2017 में 51, साल 2018 में 70, साल 2019 में 96, साल 2001 में 101 लोगों पर राजद्रोह के मुकदमे दर्ज हुए. यह तब है जबकि लगातार अदालतें चाहे वह विभिन्न हाईकोटर््स हो या सुप्रीम कोर्ट कह रही हैं कि हिंसा, असंतोष, अराजकता न फैले तो सरकार की आलोचना करना राजद्रोह नहीं है. इसके बावजूद सरकार लगातार युवाओं को राजद्रोही करार दे रही है.

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पिछले दिनों दिल्ली के अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश धर्मेंद्र राणा की अदालत में जब 21-वर्षीय पर्यावरण एक्टिविस्ट दिशा रवि ने अपने वकील के जरिये कहा, “अगर किसानों के विरोध-प्रदर्शन को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर उठाना राजद्रोह है, तो मैं जेल में ही बेहतर हूं.” दिशा के वकील का साफ कहना था कि ऐसा कोई साक्ष्य नहीं है जिससे यह साबित हो कि किसानों के आंदोलन से संबंधित टूलकिट का 26 जनवरी 2021 को दिल्ली में हुई हिंसा से कोई ताल्लुक है. लेकिन दिल्ली पुलिस का अदालत से कहना था कि दिशा रवि ‘किसान आंदोलन की आड़ में भारत को बदनाम करने व अशांति उत्पन्न करने की अंतर्राष्ट्रीय साजिश के इंडियन चैप्टर का हिस्सा हैं’. पुलिस के मुताबिक दिशा रवि उन लोगों के संपर्क में थीं, जो खालिस्तान की वकालत करते हैं. इन परस्पर विरोधी दावों पर अभी भी अंतिम फैसला नहीं आया कि कौन सही है और कौन गलत है? लेकिन जिस निरंतरता से युवाओं को राजद्रोह व यूपीए जैसे कठोर कानूनों के तहत सलाखों के पीछे भेजा जा रहा है, उन्हें जिस तरह सोशल मीडिया के जरिये सुनियोजित तरीके से बदनाम किया जा रहा है, उससे लगता है कि सरकार नहीं चाहती कि देश की नयी पीढ़ी सोचने, समझने और तर्क करने वाली हो.

इसका पता इस बात से चलता है कि राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के मुताबिक 2019 में राजद्रोह के तहत जिन लोगों पर आरोप मढ़े गये, उनमें से ज्यादातर की उम्र 18-30 साल के बीच थी. चाहे क्लाइमेट एक्टिविस्ट दिशा रवि हों, पिंजरा तोड़ फेमिनिस्ट देवांगना कलिता व नताशा नरवाल हों, स्टूडेंट एक्टिविस्ट गुलफिशा फातिमा हों. इन सबको इन्हीं कठोर कानूनों के तहत जेल में बंद किया गया. यही नहीं इस दौरान सोशल मीडिया में इनकी नैतिकता न केवल सवाल उठाये गये बल्कि इन्हें बदनाम किया गया और किया जा रहा है. मसलन दिशा रवि के बारे में सोशल मीडिया में खूब प्रचार किया गया कि वह गर्भवती हैं. सवाल है क्या गर्भधारण करना देश में कोई कानून अपराध है? मालूम हो कि इसी तरह से सीएए एक्टिविस्ट सफूरा जरगर की प्रेग्नेंसी पर भी खूब कीचड़ उछाला गया था. साल 2017 में बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी की छात्राओं ने जब लिंग भेदभाव के विरुद्ध प्रदर्शन किया था तो पुलिस ने न सिर्फ उनपर लाठियां बरसायी थीं बल्कि उनके ही उप-कुलपति ने उन पर ‘अपनी इज्जत नीलाम करने’ (मार्केटिंग देयर मोडेस्टी) का अति आपत्तिजनक आरोप लगाया था.

इससे साफ पता चलता है कि हमारा समाज 21वीं शताब्दी के 21वें साल में भी पितृसत्तात्मक सोच से बाहर नहीं निकल पाया. वह आज भी महिला को ‘संपत्ति’ व ‘संतान (बल्कि पुत्र) जनने की मशीन’ ही समझता है, जिसकी देखभाल व नियंत्रण की जिम्मेदारी केवल पुरुष की है. इसलिए वह नहीं चाहता कि महिलाएं इतनी स्वतंत्र हो जायें कि वह सोचने, समझने व आवाज उठाने लगें. संभवतः यही कारण है कि ‘जेल व बदनामी’ की पुरानी रणनीति अपनाते हुए कुछ युवा महिलाओं को प्रतीकस्वरूप टारगेट किया जा रहा है ताकि बाकी सब अपने आप खामोश हो जायें. लेकिन शायद बात इतनी सरल है नहीं. असल मुद्दे को समझने के लिए थोड़ा गहराई में जाने की आवश्यकता है क्योंकि निशाने पर केवल युवा महिलाएं ही नहीं हैं बल्कि युवा पुरुष भी हैं. आज अधिकतर इलेक्ट्रॉनिक चैनल तथ्यपरक व तटस्थ रिपोर्टिंग करने की बजाय अपने द्वारा निर्धारित बे-सिर पैर की बातों को मुद्दा बनाकर दिन रात बेतुकी बहसों से पब्लिक ओपिनियन बनाने का प्रयास करते रहते हैं. दैनिक अखबारों का चरित्र राष्ट्रीय कम, क्षेत्रीय अधिक हो गया है. इसलिए जनता को लगता है कि ‘ईश्वर स्वर्ग में है और संसार में सब कुशल है’. लेकिन ऐसा है नहीं. विभिन्न मुद्दों को लेकर अपने देश में अनेक जगहों पर विरोध-प्रदर्शन चल रहे हैं, और हम किसान आंदोलन की बात नहीं कर रहे हैं. मसलन, जम्मू में हाईकोर्ट का नया कैंपस बनाने के लिए बाहु कंजर्वेशन रिजर्व में राइका वन के 38,006 पेड़ काटे जा सकते हैं, जिसका विरोध करने के लिए ‘क्लाइमेट फ्रंट जम्मू’ के बैनर तले सैंकड़ों एक्टिविस्टों ने वैलेंटाइन डे पर 1973 के चिपको आंदोलन की याद दिलाते हुए पेड़ों को गले लगा लिया और इंफ्रास्ट्रक्चर विकास के नाम पर पेड़ों के काटे जाने व पर्यावरण को असंतुलित करने का विरोध किया.

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इन युवाओं ने वैलेंटाइन डे मनाने की बजाय पर्यावरण जागृति को वरीयता दी और कहा, “हम प्रकृति के साथ वैलेंटाइन डे मना रहे हैं. हमने पेड़ों को गले लगाकर, प्रेम की गांठ लगाकर और प्रेम पत्र लिखकर अपने प्रेम का इजहार किया ताकि यह संदेश पहुंच जाये कि हम अपने पर्यावरण की केयर करते हैं और उसकी रक्षा करना चाहते हैं.” जिस तरह आरे वन मुंबई के लंग्स हैं, जिन्हें बचाने के लिए युवा आंदोलन कर रहे हैं उसी तरह डुमना नेचर रिजर्व जबलपुर के लंग्स हैं, जिसमें 57 स्तनधारियों की प्रजातियां, 296 पक्षियों की प्रजातियां आदि का बसेरा था. एक समय था जब डुमना 10,000 हेक्टेयर में फैला हुआ था, अब सिमटकर लगभग 1800 एकड़ में रह गया और इसका भी बचा रहना मुश्किल है क्योंकि अन्य प्रोजेक्टों के लिए इसकी भूमि को आवंटित कर दिया गया, जिससे रिजर्व में वन्य जीवन को और जबलपुर में मानव जीवन को गंभीर खतरा उत्पन्न हो गया है. डुमना को बचाने के लिए तीन जनहित याचिकाएं मध्यप्रदेश हाईकोर्ट में दायर की गई हैं, और युवा मानव श्रृंखला बनाकर व अलग अलग तरह से प्रदर्शन करके प्रस्तावित प्रोजेक्ट्स का विरोध कर रहे हैं.

इस प्रकार के विरोध-प्रदर्शनों की एक लम्बी सूची है, लेकिन इन सबमें एक साझा बात यह है कि इनका नेतृत्व स्वतंत्र सोच रखने वाले वह युवा कर रहे हैं जो पर्यावरण, समता, सांप्रदायिक सौहार्द, महिला सुरक्षा, मानवाधिकार, रोजगार आदि मूल्यों को समझते व महत्व देते हैं. कॉर्पोरेट जगत इन युवाओं को अपने इरादों में अड़चन के रूप में देखता है और सियासी तंत्र अच्छी तरह से समझता है कि देश में अधिकतर सफल व मजबूत आंदोलनों की नींव शिक्षित युवाओं ने ही रखी है, जैसे 1970 के दशक में गुजरात का नव निर्माण आंदोलन और बिहार की छात्र संघर्ष समिति का आंदोलन, जो बाद में जेपी नारायण के नेतृत्व में श्रीमती इंदिरा गांधी की ‘तानाशाही’ को खत्म करने की बड़ी वजह बना. अब कहीं बढ़ती महंगाई, बेरोजगारी, पर्यावरण से छेड़छाड़ आदि के कारण युवाओं की छोटी छोटी चिंगारियां मिलकर शोला न बन जायें, इसलिए उन्हें ‘समय-रहते नियंत्रण’ करने का प्रयास दिखायी दे रहा है.

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