मां बनना किसी भी महिला के लिए बहुत खास और खूबसूरत अहसास होता है. वह अपने आने वाले बच्चे को ले कर कितने ही सपने संजोती है. मगर कभीकभी परिस्थितियां ऐसी हो सकती हैं जब मां बनना उसकी अपनी जिंदगी के लिए ही घातक या अंधकारमय हो सकता है. ऐसे में क्या उसे यह अधिकार नहीं मिलना चाहिए कि वह अपने बच्चे को जन्म न देने का फैसला ले और अपना अबौर्शन कराए. एक बच्चा जिस ने अपनी आँखें नहीं खोलीं हैं, जिस का शरीर अभी बना भी नहीं है क्या उस के लिए एक जीतीजागती महिला के प्राण दांव पर लगा देना न्यायसंगत है?

महिलाओं की जंदगी से जुड़ा यह अहम मसला अक्सर उठता रहा है. इस से जुड़े क़ानून भी बनाए गए हैं और ऐसा ही एक क़ानून है मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेगनेंसी बिल, 1971 ( MTP बिल ) यानी चिकित्सा अबौर्शन अधिनियम, 1971. इस क़ानून के अनुसार यदि कोई महिला किसी कारण से अबौर्शन कराना चाहती है तो वह 5 महीने या 20 हफ्ते तक ही अबौर्शन करवा सकती है . इस समय के बीत जाने पर कानूनी रूप से अबौर्शन नहीं कराया जा सकता.

इस कानून की वजह से बहुत सी महिलाओं को अपनी जान जोखिम में डालनी पड़ती थी क्योंकि 20 सप्ताह का समय प्रैग्नैंसी के कॉम्प्लीकेशन्स समझने के लिए पर्याप्त नहीं थे. कितनी ही महिलाओं को अबौर्शन की अनुमति हेतु यह समय सीमा बढ़ाए जाने के लिए याचिकाएं डालनी पड़ती थीं.

इन्ही सब जटिलताओं के मद्देनजर भारत की केंद्रीय कैबिनेट ने आखिर चिकित्सा अबौर्शन अधिनियम, 1971 में संशोधन करने को मंजूरी दे दी है. इस के मुताबिक़ अब महिलाएं या लड़कियां 20 के बजाए 24 हफ्ते तक अबौर्शन करा सकने का कानूनी हक़ पाएंगी.

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