Smoking Kills : पुरुषों की स्मोकिंग नाम की बुराई और नुकसानदेह लत की नकल कर बराबरी का सपना देख रही महिलाएं दरअसल में उनसे और नीचे चली जाती हैं. सवाल कतई धर्म द्वारा उनकी गढ़ी गई परम्परागत इमेज का नहीं बल्कि उस इमेज का ज्यादा है जो खुद उन्होंने बाते 7 दशकों में गढ़ी है. यह इमेज है कामयाबी की शिक्षा और नौकरी की और उससे भी ज्यादा तमाम दबावों से उबरते मुख्यधारा में अपनी जगह बना लेने की.

किसी पब्लिक प्लेस पर या फिर कहीं भी बेफिक्री से सिगरेट का धुआं उड़ाती मौडर्न युवती को देखकर पुरुषों के मन में जो जो ख्याल आते हैं उनकी गिनती एक से आगे नहीं बढ़ती यह इकलौता ख्याल यह होता है कि अच्छा… औरत होकर हम मर्दों की बराबरी करने की कोशिश कर रही है… देखते हैं कैसे मिलती है यह और इसे देता कौन है. यह पुरुषोचित अहम है जो बराबरी के दर्जे के ख्याल और सवाल से अब चिढ़ने, जलने और भुनने के साथ साथ खौफ भी खाने लगा है.

खौफ इसलिए कि वाकई महिलाओं ने खुद को साबित कर दिखाया है. शिक्षा में, कैरियर में घर से लेकर अंतरिक्ष तक में और राजनीति में भी, कोई क्षेत्र ऐसा नहीं जहां महिला पुरुष के लिए चुनौती बनकर न उभरी हो सिवाय धर्म के जो यह कहता रहा है कि औरत पांव की जूती दासी और शूद्र समान है. दिक्कत तो यह है कि पुरुषों और कुछ महिलाओं ने भी इस बकवास को इतना आत्मसात कर लिया है कि दोनों इसके आगे कुछ सोचना ही नहीं चाहते.

कहीं भी देख लें खासतौर से स्मोकिंग एरिया में युवतियां सिगरेट पीती दिख जाएंगी. मुंह से धुआं उड़ाते वक्त उनके चेहरे पर विकट का आत्मविश्वास दिखेगा जबकि पुरुष देखना चाहता है गिल्ट, डर और लिहाज जो नहीं दिखता तो वह खीझ उठता है और खुद को तसल्ली यह सोचते दे लेता है कि कभी 70 – 80 के दशक में मर्दों सरीखे कपडे पहनकर भी इन्होंने बराबरी का ख्बाव देखा था.

इसके बाद ड्राइविंग करते वक्त भी, ओलम्पिक में मैडल हासिल करते वक्त भी और कम्पनियों से लेकर देश के ऊंचे ऊंचे ओहदों की जिम्मेदारी संभालते भी इन्हें यह खुशफहमी हो आई थी कि बस अब हमने पुरुषों की न केवल बराबरी कर ली बल्कि उन्हें पछाड़ भी दिया.

यह गलतफहमी जल्द दूर हो जाती है जब उन्हें यह समझ आता है कि एक दफा पुरुषों की बराबरी तो की जा सकती है लेकिन उसका सर्टिफिकेट हासिल नहीं किया जा सकता. सिगरेट के धुएं के छल्ले बनाना भी ऐसा ही काम है. लेकिन दरअसल में बात या मुद्दा बराबरी का नहीं बल्कि चिंता का ज्यादा है. जिस तेजी से युवतियां स्मोकिंग की तरफ आकर्षित हो रही हैं उससे उनके स्त्रीत्व पर फर्क पड़े न पड़े पर मातृत्व पर जरूर पड़ता है.

स्मोकिंग की तरफ लत की हद तक झुकाव सिर्फ पुरुषों के बराबर दिखना है या इसकी कुछ और वजहें भी हैं मसलन कार्पोरेट के इस दौर में काम का दबाब, फेशनेबुल व स्टाइलिश दिखने की चाहत और स्ट्रेस से राहत, पीजी और होस्टल्स में रह रही छात्राओं को पढ़ाई का टेंशन, घर और दफ्तर की परेशानियां वगैरह सब कुछ इस मानसिकता में काउंट होता है.

भोपाल के एक दैनिक में कार्यरत एक पत्रकार की मानें तो अहम वजह तो पुरुषों के बराबर दिखना ही है क्योंकि स्मोकिंग को मर्दानगी का दर्जा मिला हुआ है. महिलाओं के लिए यह वर्जित ही है और वर्जनाएं तोड़कर ही पुरुषों को चुनौती दी जा सकती है फिर यह एब है या टेलेंट यह देखा जाना जरुरी नहीं.

दुनिया हमें सिगरेट पीते हुए देखते क्या सोचती है या क्या राय हमारे बारे में कायम करती है हम इस झंझट में नहीं पड़तीं क्योंकि हम कुछ भी हासिल कर लें हमे वास्तविक रूप से एप्रिशिएट दुनिया नहीं करती. यह पुरुषों का पूर्वाग्रह है हमारा नहीं. इन पत्रकार महोदया के मुताबिक सेहत से ताल्लुक रखते खतरे हैं लेकिन वे भी बराबरी से हैं और ये खतरे हैं क्या … हमें डर दिखाया जाता है कि स्मोकिंग से प्रिगनेंसी में दिक्कत पेश आएगी, अबार्शन हो सकता है, टीबी हो सकता है, कैंसर हो सकता है वगैरह. लेकिन हकीकत यह है कि हमसे हमेशा बहन जी छाप इमेज की उम्मीद की जाती है जो हमे गवारा नहीं.

तो क्या सिगरेट पीने से यह इमेज ध्वस्त हो जाती है या पुरुषों को तो छोडिए खुद महिलाएं भी इससे सहमत हैं. इस सवाल का जवाव भले ही एक खास अंदाज में कंधे उचकते वी डोंट केयर की स्टाइल में मिले लेकिन जब यही सवाल मध्यप्रदेश के गृहशोभा के व्हाट्स एप ग्रुप में शामिल महिलाओं से किया गया तो उन्होंने असहमति ही जताई उलटे कुछ ने तो सनातनी मानसिकता वाली बातें और उपदेश भी दिए मसलन नारी जननी है, संस्कृति की ध्वजवाहक है और यह आदत औरत की धार्मिक और परंपरागत इमेज से मेल खाती नहीं.

इनमें से कुछ चुनिंदा जवाब प्रकाशित किए जा रहे हैं लेकिन कुछ महिलाओं के इन तर्कों जो दुराज्ञान की देन हैं से सहमत नहीं हुआ जा सकता कि महिलाओं को सिर्फ इसलिए सिगरेट नहीं पीना चाहिए क्योंकि इससे उसकी स्त्रीवादी इमेज और साख पर बट्टा लगता है.

सपना साहू `स्वप्निल इंदौर की सपना साहू `स्वप्निल  का कहना है कि सिगरेट पीना कभी भी सफलता का सूचक नहीं हो सकता नारी समानता का अर्थ स्वास्थ को नुकसान पहुंचाने वाली आदते अपनाना नहीं बल्कि स्त्रियों के लिए अवसरों की समानता सम्मान और अधिकारों की बराबरी से है . महिलाओं का सिगरेट पीना सामाजिक स्तर में गिरावट व पश्चिमी संस्कृति का अन्धानुकरण है जो उन्हें पुरुषों के बराबर खड़ा नहीं कर सकता.

यह मान लेने में कोई हर्ज नहीं कि इस वर्ग या मानसिकता की महिलाओं ने बिना किसी हिचक या झिझक के यह मान लिया है कि औरत गुलाम है और मर्द उसका मालिक है. महिलाओं के इस वर्ग का प्रहार सिगरेट पर कम औरतों की आजादी पर ज्यादा है क्योंकि सिर्फ धर्म ही यह निर्देश देता रहता है कि धार्मिक आयोजनों में कलश ढो, बाबाजी के दरबारों में जाओ, सत्संगों में शिरकत करो और इफरात से व्रत उपवास करो यही नारी जीवन की सार्थकता है.

यहां मकसद धूम्रपान को बढ़ावा या प्रोत्साहन देना कतई नहीं है. दिल्ली प्रेस पत्रिकाओं का तो दशकों पुराना प्रयास या अभियान कुछ भी कह लें इसे हर स्तर पर हतोत्साहित करने का रहा है जो आज भी जारी है. इसलिए इन पत्रिकाओं में कभी तंबाकू, सिगरेट, पानगुटखा और शराब वगैरह के विज्ञापन प्रकाशित न कर करोड़ों के रेवन्यू को ठोकर मार एक मिसाल कायम की है जिसकी तारीफ पत्रिकाओं की विचारधारा के विरोधी भी न केवल करते हैं बल्कि लोहा भी मानते हैं.

स्त्रीपुरुष बराबरी के पैमाने क्या हों इस पर सटीक बहस की तमाम गुंजाइशें मौजूद है. स्मोकिंग तो किसी के लिए भी लाभप्रद नहीं उलटे इसके नुकसानों से हर कोई वाकिफ है. वे युवतियां भी जिन्होंने सिगरेट पीने को आधुनिकता और बराबरी का पैमाना मान लिया है. चिंता की नई बात स्मोकिंग करने वाली महिलाओं की बढ़ती तादाद है. इंदौर की किंशुल्क शुल्क कहती हैं कि मेरे हिसाब से तो महिला और पुरुष की बराबरी नहीं हो सकती दोनों की अपनी अलग अलग जिम्मेदारियां हैं एक महिला का ओहदा हमेशा पुरुष से ऊंचा ही है सिगरेट पीने से बराबरी की बात बिलकुल ही गलत है आज की जनरेशन में लड़कियां कह रही हैं कि जब लड़के पी रहे हैं तो हम क्यों नहीं पी सकते वजह कोई भी हो कूल दिखने की या स्टाइलिश दिखने की बराबरी के लिए यह बिलकुल भी जायज नहीं है .

महिलाओं के सिगरेट पीने का रोग और उसका विरोध दोनों अमेरिका से शुरू हुए थे. 1960 के दशक में वहां महिलाओं में फेफड़ों के कैंसर पाए जाने लगे थे जो स्तन कैंसर से ज्यादा थे. तब अमेरिका की एक तिहाई महिलाएं सिगरेट का सेवन करती थीं.

1986 की एक रिपोर्ट से यह साबित हुआ था कि महिलाओं में फेफड़ों का कैंसर पुरुषों से ज्यादा होने लगा है तो अमेरिका में महिलाओं के धुम्रपान का विरोध भी हुआ था लेकिन यह एक ऐसी लत है जिसके बारे में यही कहा जा सकता है कि लागी छूटे न . अमेरिका के कुछ राज्यों में महिलाओं की स्मोकिंग की लत पर काबू करने कानून भी बने थे लेकिन ये भी बेअसर साबित हुए थे . तब झल्लाकर 1979 में तत्कालीन स्वास्थ मंत्री ए  कैलीफानो जूनियर ने महिलाओं को दुर्वासा की तरह श्राप सा देते कहा था कि जो महिलाएं पुरुषों की तरह स्मोकिंग करती हैं , वे स्मोकिंग करने वाले पुरुषों की तरह ही मरती हैं .

भारत में यह चलन 1930 के लगभग सामने आने लगा थे जो अब भीषण होता जा रहा है .   विश्व स्वास्थ संगठन की 2024 की एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत में 15 साल से ज्यादा उम्र के कोई 25.3 करोड़ लोग किसी न किसी तम्बाकू का सेवन करते हैं इनमे महिलाओं की संख्या 5.3 करोड़ है.

भोपाल की मंजू गुप्ता का मानना है कि महिलाओं और पुरुषों में किसी भी पैमाने पर बराबरी का कोई हिसाब नहीं है. नैतिक मूल्य और सामाजिक व  पारिवारिक स्तर पर पुरुष कभी महिलाओं की बराबरी नहीं कर सकते आजकल शराब व स्मोकिंग जैसी आदतों को महिलाएं अपना शौक बना रहीं हैं तो यह सिर्फ पश्चिमी सभ्यता को अपनाने की होड़ है और स्वतंत्रता और आधुनिकता का घिनोना रूप है. भारतीय संस्कृति एवं सभ्यता में नारी के लिए इन बुरी आदतों का कोई स्थान मान्य नहीं है.

एक संस्था सूपनूप की 2023 की एक रिपोर्ट की माने तो भारत में 13 फीसदी महिलाएं सिगरेट पीती हैं. स्वास्थ मंत्रालय की इंडिया टोबेको कंट्रोल रिपोर्ट नाम की 2024 की एक रिपोर्ट बताती है कि टीनएज लड़कियों में सिगरेट पीने की दर 2019 में 6.2 फीसदी तक हो गई थी जो कि 2009 में 2.4 फीसदी थी. अब यह और बढ़ी होगी ऐसा न कहने की कोई वजह नहीं.

भोपाल के ही 6 नवंबर स्थित हाकर्स कार्नर पर खुलेआम सिगरेट पीती एक नामी इंजीनियरिंग कालेज की कुछ छात्राओं से इस प्रतिनिधि ने जब चर्चा की तो उन्होंने बताया शुरशुरू में दुकान या गुमटी से सिगरेट खरीदने में हिचक होती थी. तब साथ पढ़ रहे लड़के लाकर देते थे लेकिन अब डर खत्म हो जाने के चलते हम खुद खरीद लेती हैं. इन 4 छात्राओं में से 3 भोपाल के बाहर की थीं और एमपी नगर के एक गर्ल्स होस्टल में रहती हैं .

इनमे से एक के मुताबिक सिगरेट पीने से रिलेक्स लगता है और लगातार पढ़ाई में मन लगा रहता है . हम लोग होस्टल में भी सिगरेट पीती हैं, इसमें कोई हर्ज महसूस नहीं होता. जब लडके पी सकते तो हम क्यों नहीं पी सकते .

इस बातचीत में दिलचस्प बात यह हकीकत उजागर होना रही कि लड़कियों को सिगरेट की लत लगाने में लड़कों का रोल अहम रहता है और घर से बाहर रहकर पढ़ रही लड़कियां और नौकरी कर रही युवतियां इस लत की ज्यादा शिकार होती हैं क्योंकि उन पर कोई बंदिश नहीं रह जाती. इंदौर की डॉ ज्योति गुप्ता का विचार है कि मैं मानती हूं कि स्त्री पुरुष की बराबरी नहीं हो सकती. सिगरेट या शराब पीने से क्या हासिल होता है बराबरी करने की होड़ में स्त्री ने अपनी नारी सुलभ कोमलता ही खो दी है. विडंवना यह है कि नारी खुद को सम्पूर्ण बनाने के लिए पुरुषोचित गुण भी ले रही है जो अनुचित है. समाज ने सुदृढ़ परिवार के लिए मापदंड बनाये हैं उसमे नारी और पुरुष के अलग अलग कार्य निर्धारित किये हैं उन पर अमल होना चाहिए.

मेट्रो सिटीज में मुमकिन है नये दौर के कपल्स भी लंच और डिनर की तरह सिगरेट भी साथ बैठकर पीते हों क्योंकि इनकी वीकैंड पार्टियों में शराब बेहद आम होती है और शराब और सिगरेट का साथ चोली दामन सरीखा होता है. इस अनुमान की पुष्टि करते मूलतय धनबाद के रहने वाले बेंगलुरु में जॉब कर रहे एक 32 वर्षीय साफ्टवेयर इंजीनियर सुबोध सिन्हा ( बदला नाम ) ने टेलीफोन पर बातचीत के दौरान बताया, हां यह वाकई बेहद आम बात हो चली है कि पति पत्नी और लिव इन में रहने वाले सिगरेट पीते हैं और यह भी सच है कि लड़कियों को यह आदत आमतौर पर लड़कों के जरिये ही लगती है.

हालांकि स्मोकिंग की आदी हो चुकी युवतियां भी इसकी जिम्मेदार हैं. युवकों को ऐसी बिंदास माडर्न लड़कियां ज्यादा पसंद आती हैं जो इसमें भी उनका साथ दे सकें. महिलाओं में स्मोकिंग को लेकर इंदौर की डॉ. पूजा महेश्वरी का मानना है कि सिगरेट पीना हो या एल्कोहल का सेवन हो यह सब करने से महिलाएं खुद को कमजोर ही साबित करती हैं दरअसल में वे पुरुषों से ज्यादा सहनशील होती हैं. असल में महिलाएं पुरुषों से एक कदम आगे ही हैं वे एक साथ पांच काम कर सकती हैं जबकि पुरुष दो काम भी एकसाथ नहीं कर सकते. सिगरेट वगैरह से महिलाओं की सहनशक्ति कम हो रही है उन्हें इससे बचना चाहिए.

अब सोशल मीडिया पर बिखरा कचरा और गंद भी महिलाओं को सिगरेट पीने उकसा रहा है जिसमें सिगरेट निर्माताओं की मिलीभगत से इंकार नहीं किया जा सकता. बिना किसी सार्वजनिक प्रचार के यह धारणा स्थापित हो गई कि महिलाओं के ब्रांड थोडा अलग होते हैं. इनकी सिगरेटें स्लिम और खुशबूदार होती हैं जिनका फिल्टर भी तगड़ा होता है.

मसलन वर्जिनिया स्लिम्स, डनहिल फाइन कट , मेन्थाल मिस्ट बगैरह यह प्रचार ठीक वैसा ही था जैसे 70 के दशक में हुआ करता था कि असली मर्दों के सिगरेट ब्रांड्स कैमल, केवेंडर, पनामा और चारमीनार हैं . फिर दौर शुरू हुआ बिल्स ब्रिस्टल वगैरह का जो अब शबाब पर है .

इसके पहले टीवी धारावाहिकों ने भी यह साबित करने की कोशिश की थी कि सिगरेट पीती महिला ज्यादा आकर्षक और स्मार्ट होती है. इसके और पीछे चलें तो हौलीवुड से प्रभावित हिंदी फिल्मों में भी नायिकाओं ने सिगरेट के चलन को बढ़ावा दिया. कम ही ऐक्ट्रेस होगी जिन्होंने परदे पर सिगरेट न फूंकी हो.

प्रियंका चौपडा ( फेशन -2008 ) , करीना कपूर ( चमेली – 2004 ) , विद्या बालन   ( द डर्टी पिक्चर – 2011 )और एश्वर्या राय ( गुजारिश -2010 ) की पीढ़ी से पहले रेखा , जीनत अमान ( हरे रामा हरे कृष्णा -1971 ) मुमताज ( रोटी -1974 ) और शर्मिला टेगोर ( मौसम – 1975 ) शबाना आजमी ( गाड़ मदर – 1999 ) की पीढ़ी भी सिगरेट का धुआ उड़ाती नजर आई थी.

खलनायक तो हर फिल्म में सिगरेट पीता ही था  इसी तर्ज पर नादिरा , अरुणा ईरानी , बिंदु और हेलेन का तो वैम्प होने के नाते सिगरेट पीना कहानी की मांग कही जा सकती है लेकिन यह सिलसिला 30 के दशक से ही शुरू हो गया था जब देविका रानी को भी प्रतीकात्मक तौर पर ही सही सिगरेट पीते देख दर्शको को हैरत हुई थी क्योंकि उस दौर में औरतों की सामाजिक और पारिवारिक हालत वाकई गुलामों सरीखी थी.

1937 में पृथ्वीराज कपूर अभिनीत प्रदर्शित फिल्म मिलाप में हिंदी फिल्मो की पहली वैम्प कही जाने वाली अभिनेत्री रांप्यारी को सिगरेट पीते देख खासी प्रतिक्रिया हुई थी लेकिन इसके बाद ये दृश्य बेहद आम होते गये. 1957 में प्रदर्शित फिल्म नो दो ग्यारह में शशिकला को सिगरेट पीते दिखाया गया था . 1961 में आई फिल्म प्यार का सागर में मीना कुमारी ने सिगरेट पी थी हालांकि अपनी जाती जिन्दगी में भी वे शराब और सिगरेट पीने को लेकर कुख्यात थीं और सुर्ख़ियों में रहती थीं.

अमिताभ बच्चन और रेखा अभिनीत फिल्म दो अनजाने 70 के दशक की चर्चित फिल्म थी जिसमे रेखा को सिगरेट पीने के जरिये यह दिखाने की कोशिश की गई थी कि महत्वकांक्षी महिला सिगरेट पीती है .

जिन फिल्मों ने महिलाओं को सिगरेट पीने उकसाया उनमे सबसे चर्चित दीवार थी जिसमे अमिताभ बच्चन की रखैल की भूमिका निभा रहीं परवीन बाबी के मुंह में पूरी फिल्म में  सिगरेट दबी ही रहती है .आज जो दलीलें स्मोकर महिलाएं देती हैं खासतौर से बराबरी की उनमे फिल्मों का असर  साफ़ झलकता है कि जब देवानंद और राजकुमार से लेकर अमिताभ बच्चन की कामयाबी में सिगरेट का रोल अहम रहा है और इसी के चलते यह नायिकाओं को भी पिलाई गई तो हम क्यों पुरुषों की नकल कर सकते .

लेकिन किसी बुराई की नकल कर न तो कामयाब हुआ जा सकता और न ही मर्द बना जा सकता . महिलाओं को सिगरेट निर्माताओं और पुरुषों के प्रोत्साहन की साजिश समझते इस एब से दूर ही रहना चाहिए . वैसे भी सिगरेट क्या कोई भी नशा हर लिहाज से नुकसानदेह हो होता है यह बात जानते बूझते हुए भी धुएं की लत में फसना बुद्धिमानी की बात तो कतई नहीं . smoking kills

 

 

 

 

 

 

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