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छोटी सी सोसायटी थी. कुल मिला कर 4 टावर. गेट पर चौबीस घंटे का पहरा. कालोनी के बीच में बड़ा सा मैदान, जिस में बच्चों के लिए झूले लगे थे. शहर से थोड़ी दूर थी कालोनी, पर थी बहुत सुंदर. एक ही सप्ताह में दोनों अपनाअपना परिवार ले कर सामान समेत पहुंच गए. दोनों सपरिवार साथसाथ रह कर खुश भी थे. दिनभर औफिस का काम निबटा कर शाम को दोनों परिवार एकसाथ बैठ कर गपशप करते. कई बार रात का डिनर भी हो जाता था. कुछ सौरभ की पत्नी आरुषि पका लेती, तो कुछ शालू पका लेती... पिकनिक, पिक्चर, शौपिंग का प्रोग्राम भी साथसाथ ही चलता रहता था. दिन मजे से कट रहे थे.

एक दिन आरुषि सुबहसुबह शालू के पास आई. कुछ परेशान थी. बोली, ‘‘शालू, आज अचानक चीनी खत्म हो गई. मैं सोच रही थी डब्बे में होगी, पर डब्बा भी खाली था. गलती मेरी ही थी. शायद मंगाना ही भूल गई थी. गुडि़या दूध के लिए रो रही है. 1 कटोरी चीने दे दे. बाजार से मंगा कर वापस दे दूंगी.’’

शालू हंस दी थी, ‘‘हो जाता है कभीकभी. औफिस के काम में हमारे पति भी इतने मशगूल हो जाते हैं कि कई बार घर का सामान लाना ही भूल जाते हैं.’’

आरुषि खुश हो कर बोली, ‘‘शाम को वापस कर दूंगी.’’

‘‘अब 1 कटोरी चीनी वापस करोगी? बस इतनी ही दोस्ती रह गई हमारी...’’ शालू ने आरुषि के संकोच को दूर करने की गरज से कहा, ‘‘लेनदेन तो पड़ोसियों में चलता ही रहता है,’’ और फिर काफी देर तक उदाहरण समेत एक पड़ोसी ने दूसरे पड़ोसी की किस तरह सहायता की, इन भूलीबिसरी बातों की चर्चा छिड़ गई.

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