लेखक- आदर्श मलगूरिया

‘बेचारी, जीवन भर दुख ही उठाती रही. अब ऊपर से वैधव्य...’

दुख और संवेदना प्रकट करती सब महिलाएं उठ कर चली गईं. रेवा जड़ सी बैठी रही.

‘‘आप चल कर जरा लेटिए. मैं चाय बना कर लाती हूं,’’ नीना ने आ कर उसे संभाला. बेजान गुडि़या सी रेवा पलंग पर आ कर लेट गई.

कितना झूठा सत्य? जो जीवन भर सर्पदंश सा उस के एकएक क्षण को विषाक्त करता रहा वही आज समुद्र मंथन से निकले गरल घट सा सहस्र धाराओं में बंट कर उसे व्याकुल कर रहा था, पर वह तो शिव नहीं थी जो इसे पी कर भी जीवित रहती. और वह अब जीना चाहती थी. किस के लिए मरे? किन मधुर क्षणों की थाती सहेजे? सोलह शृंगार कर सामाजिक मर्यादा की चिता पर चढ़ कर सती हो जाए? जीवन भर तो जल ही चुकी थी.

इंद्रधनुषी सपनों के रंग अभी सूखने भी न पाए थे कि वीरेन ने उपेक्षा की स्याही फेंक कर उन्हें बदरंग कर दिया था. फिर भी उस ने सजानेसंवारने का कितना प्रयत्न किया था. आंखकान पर  जबरदस्ती भ्रम की मनों रुई का भार डाल कर अंधीबहरी बन जाना चाहा था, परंतु यह भी क्या सहज था?

पागल सी हो कर मरीचिका के पीछे भागती वह सपनों के रंग समेटती, उन्हें क्रम से लगाती, पर वे बारबार उसे छलावा दे जाते, खंडखंड हो कर बिखर जाते और क्षितिज उतना ही दूर दिखता जितना प्रारंभ में था. भागतेभागते वह हांफ गई थी. शाम के ढलते सूरज की तरह घिसटघिसट कर पहुंचे भी तो कुछ हाथ आने वाला नहीं था. वहां बाकी था केवल एक स्याह अंधेरा.

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