कहानी के बाकी भाग पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें

दोनों सहेलियां भोजन करने लगी थीं पर रचना की विचारशृंखला पहले की भांति ही चलती रही. रम्या आजकल में आने ही वाली थी. दोनों बहनों में एक क्षण को भी नहीं बनती. इस समस्या को कैसे सुलझाएं इसी ऊहापोह में डूबी थी. निमिषा ठीक ही कहती है कि मेरा घर तो पूरा अजायबघर है, इसे सचमुच छोड़ कर भाग जाने का मन होता है.

रचना घर पहुंची तो रम्या आ चुकी थी. उस का पति प्रतीक टीवी देखने में व्यस्त था जबकि रम्या अपना सामान खोल रही थी.

‘मां, अच्छा हुआ आप आ गईं. अब आप ही बता दीजिए कि मैं अपना सामान कहां लगाऊं? मैं दीदी से कह रही थी कि वह ऊपर का कमरा हमारे लिए खाली कर दे. वह अकेली जान नीचे के गेस्टरूम में सरलता से रह लेंगी. हम दोनों ऊपर का कमरा ले लेंगे,’ रम्या रचना को देखते ही बदहवास हो उठी थी.

‘मैं ने पहले ही कहा था कि मैं अपना कमरा किसी को नहीं देने वाली. अतिथियों के लिए अतिथिकक्ष होता है, उन्हें वहीं रहना चाहिए,’ नंदिनी ने रचना के कुछ बोलने से पहले ही अपना निर्णय सुना दिया था.

‘रहने दे रम्या. बड़ी बहन है तेरी. क्यों छेड़ती है बेचारी को. तुम दोनों अपना सामान अतिथिकक्ष में जमा लो. थोड़ा छोटा अवश्य है पर बहुत हवादार और आरामदायक कमरा है,’ रचना ने समझौता करवा दिया था.

‘ठीक है. हमें कौन सा यहां जीवन बिताना है? कहीं भी रह लेंगे...प्रतीक का काम जमते ही हम यहां से चले जाएंगे. हमें तो बड़ा सा, खुला घर चाहिए,’ रम्या ने मुंह बनाया था.

आगे की कहानी पढ़ने के लिए सब्सक्राइब करें

डिजिटल

(1 साल)
USD10
 
सब्सक्राइब करें

डिजिटल + 24 प्रिंट मैगजीन

(1 साल)
USD79
 
सब्सक्राइब करें
और कहानियां पढ़ने के लिए क्लिक करें...