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लेखक- जीतेंद्र मोहन भटनागर

अंशिका पानी ले आई थी. खांसी थोड़ी शांत हुई, तो पत्नी कुमुद ने गिलास मधुसूदन के होंठों में फंसा कर जैसेतैसे पानी पिलाया.

पानी पीने के बाद थोड़ी राहत मिली तो वे बोले, “कुमुद, अपना मकान मालिक बनवारी रास्ते में मिल गया था. मुझे जबरदस्ती उस कैंप में ले गया, जहां वरिष्ठ नागरिकों को वैक्सीन की पहली डोज लग रही थी.”

“तो पापा, आप टीका लगवा आए,” अंशिका खुश होते हुए बोली.

“नहीं बेटी, तुम्हारे बनवारी अंकल तो सारे दंदफंद जानते हैं. मेरा आधारकार्ड मेरे पास होता तो मुझे भी लग जाता, लेकिन मैं अपना आधारकार्ड नहीं ले गया था.”

“ओह, कोई बात नहीं. आलोक कल धनबाद से इंटरव्यू दे कर लौट आए, तब हम दोनों साथ जा कर लगवा आएंगे," कहते हुए कुमुद अंशिका से बोली, “तू अपने पापा के पास बैठ. मैं इन के लिए काढ़ा बना कर लाती हूं.”

कुमुद काढ़ा बनाने चली गई, तो मधुसूदन ने अंशिका से कहा, “तेरी पढ़ाई तो पूरी हो ही चुकी है. अब ये लौकडाउन और कोरोना का हौआ खत्म हो तो अच्छा सा लड़का ढूंढ कर तेरी शादी करा दूं, वरना बैंक में जमा सारे रुपए मेरी बीमारी ही खा जाएगी.

"अब देख न, एकमात्र 10 लाख रुपए की एफडी मेरे हार्ट के आपरेशन में ही तुड़वानी पड़ी, जिस में से 4 लाख रुपए तो इलाज में ही खर्च हो गए. बाकी बची रकम से जैसेतैसे काम चल रहा है.”

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“उधर, प्लाट खरीदने के लिए जिस बिल्डर को 3 लाख रुपए एडवांस दिए थे, वह भी पिछले साल के शुरू तक तो बहलाता रहा, फिर तालीथाली बजाने के बाद जब कोरोना महामारी के चलते कंप्लीट लौकडाउन लगा कर पूरे देश को घरों में कैद कर दिया गया, तब सारा आवागमन ठप हो गया. इस का फायदा उठा कर वह ऐसा गायब हुआ कि न तो अब उस का फोन लगता है और न ही वह साइट पर दिखता है...”

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