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लेखक- जीतेंद्र मोहन भटनागर

अंशिका ने कार के पीछे वाले कांच पर पेंट से लिखा हुआ प्रचार विज्ञापन पढ़ा, “कोरोना विपदा की इस घड़ी में आप का सच्चा साथी 'जागृति सेवा संस्थान'. उस के नीचे ब्रैकेट के अंदर छोटे अक्षरों में लिखा था, “आप भी इस संस्था को कोई भी राशि दान कर सकते हैं. आप का छोटा सा सहयोग इस आपदा की घड़ी में गरीबों और जरूरतमंदों के काम आ सकता है.”

उन के जाते ही बाहरी दरवाजा बंद कर के अंदर आ कर अंशिका ने सामान एक तरफ रखा. कमरे में झांक कर मां को देखा. वे अभी भी सो ही रही थीं.

पूरे घर में उदास सा सन्नाटा पसरा था. फ्रेश होने के लिए बाथरूम की तरफ कदम बढ़ाने से पहले अंशिका ने हाथ में पकड़े कार्ड पर नजर डाली और संस्था के संस्थापक और संचालक का नाम पढ़ कर चौंक पड़ी, 'बनवारी लाल'.

फ्रेश होने के बाद वह चाय का थर्मस और 2 कप लिए हुए गहरी नींद में सो रही मां के पलंग के पास पड़ी कुरसी पर आ कर बैठ गई. उस ने एक बार और कार्ड को फिर से उलटपुलट कर देखा और सोचने लगी कि बनवारी अंकल तो बहुत बड़ी समाजसेवा में जुटे हैं. उन के प्रति अब तक तो वह बहुत गलत धारणा पाले हुए थी.

उस की नजरों मे वो दृश्य घूम गया, जब 4 साल पहले वह अपने मातापिता और भैया के साथ बनवारी अंकल की कार में बैठ कर उन का ये घर देखने आई थी. उसी साल उस के पिता फर्टिलाइजर फैक्टरी के स्टोर इंचार्ज पद से रिटायर हुए थे. पेंशन न के बराबर थी. फंड का जो पैसा मिला था, उस में से कुछ रकम उन्होंने एफडी में डाल दी थी और कुछ रुपया जमीन खरीदने में फंसा दिया था.

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