अपनी बेटी गंगा की लाश के पास रधिया पत्थर सी बुत बनी बैठी थी. लोग आते, बैठते और चले जाते. कोई दिलासा दे रहा था तो कोई उलाहना दे रहा था कि पहले ही उस के चालचलन पर नजर रखी होती तो यह दिन तो न देखना पड़ता.

लोगों के यहां झाड़ूबरतन करने वाली रधिया चाहती थी कि गंगा पढ़ेलिखे ताकि उसे अपनी मां की तरह नरक सी जिंदगी न जीनी पड़े, इसीलिए पास के सरकारी स्कूल में उस का दाखिला करवाया था, पर एक दिन भी स्कूल न गई गंगा. मजबूरन उसे अपने साथ ही काम पर ले जाती. सारा दिन नशे में चूर रहने वाले शराबी पति गंगू के सहारे कैसे छोड़ देती नन्ही सी जान को?

गंगू सारा दिन नशे में चूर रहता, फिर शाम को रधिया से पैसे छीन कर ठेके पर जाता, वापस आ कर मारपीट करता और नन्ही गंगा के सामने ही रधिया को अपनी वासना का शिकार बनाता.

यही सब देखदेख कर गंगा बड़ी हो रही थी. अब उसे अपनी मां के साथ काम पर जाना अच्छा नहीं लगता था. बस, गलियों में इधरउधर घूमनाफिरना... काजलबिंदी लगा कर मतवाली चाल चलती गंगा को जब लड़के छेड़ते, तो उसे बहुत मजा आता.

रधिया लाख कहती, ‘अब तू बड़ी हो गई है... मेरे साथ काम पर चलेगी तो मुझे भी थोड़ा सहारा हो जाएगा.’

गंगा तुनक कर कहती, ‘मां, मुझे सारी जिंदगी यही सब करना है. थोड़े दिन तो मुझे मजे करने दे.’

‘अरी कलमुंही, मजे के चक्कर में कहीं मुंह काला मत करवा आना.

मुझे तो तेरे रंगढंग ठीक नहीं लगते.

ये भी पढे़ं- Short Story: मलमल की चादर

आगे की कहानी पढ़ने के लिए सब्सक्राइब करें

डिजिटल

(1 साल)
USD10
 
सब्सक्राइब करें

डिजिटल + 24 प्रिंट मैगजीन

(1 साल)
USD79
 
सब्सक्राइब करें
और कहानियां पढ़ने के लिए क्लिक करें...