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उस से छुटकारा पाने के लिए सुमन ने जोरशोर से लड़का देखना शुरू किया. अच्छा रिश्ता मिलना बहुत ही कठिन काम था, लेकिन उसे हर रिश्ता ही अच्छा लगता और फिर अच्छे रिश्ते की कोई विशेष परिभाषा तो होती नहीं. उसे बस एक ही चिंता रहती कि ज्यादा देर हो गई तो अर्चना को सामंजस्य बैठाने में परेशानी होगी. कितने जतन किए थे अर्चना की शादी के लिए. कितने झूठ बोले थे.

जहां परिचय बढ़ता वह चुस्त हो जाती. अपने चेहरे की मुसकान और मधुर व्यवहार से पहली ही मुलाकात में लड़के वालों को प्रभावित कर लेना चाहती थी, मानो उस के गुणों को देख कर ही वे लोग अर्चना से रिश्ते के लिए हां कर देंगे.

सुमन कहती, ‘‘मेरी बहन बहुत जिम्मेदार और मेहनती है. जौब के साथसाथ घर के कामों में भी निपुण है. घर सजाने और नएनए व्यंजन बनाने का बहुत शौक है इसे. मेरी बहन है, इसलिए नहीं कह रही. सच में शी इज वैरी नाइस, वैरी टैलेंटेड.’’

अर्चना सिर झुकाए उस की बेबसी पर मंदमंद मुसकराती रहती. कैसी विडंबना थी? जो मन का बोझ थी, उसी की तारीफ में कसीदे पढ़ती. उस के सारे अवगुण छिपा जाती. कहती कैसे? कोई अपने सिक्के को खोटा बताता है? अपनी बहन का अच्छाबुरा सोचना सुमन का फर्ज था. किंतु अर्चना इन सब परेशानियों से बेखबर, बिंदास जीवन जी रही थी. उसे किसी से कोई सरोकार नहीं था.

कभीकभी तो सुमन चिढ़ कर कहती, ‘‘भाड़ में जाए, मेरा क्या. जब उम्र निकल जाएगी और ठोकर खाएगी तब अक्ल आएगी.’’

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