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मम्मीपापा के साथ बिताए गए सुखद पलों को अपने मन में समेट कर आयुषी वापस मुंबई आ गई. प्रतीक तब तक नहीं आया था. उस ने फोन किया तो फोन बंद मिला. आयुषी को थोड़ी चिंता हुई. 1 हफ्ते में उन दोनों के बीच फोन पर कोई बात नहीं हुई. 2 साल बाद मम्मीपापा का प्यार और स्नेह मिला तो वह प्रतीक को बिलकुल भूल गई.

प्रतीक दूसरे दिन सुबह तक भी नहीं पहुंचा था. घर बड़ा सूनासूना लग रहा था. आयुषी का मन उदास हो गया. इस घर में वह उस के साथ

2 साल से रह रही थी. प्रतीक कैसा भी था, कपटी और कंजूस, परंतु आयुषी ने उसे प्यार किया था, उसे अपना तन सौंपा था. इसी भावना के तहत उसे अपनाया था और चाहती थी कि जीवन के अंतिम क्षण तक उस की ही हो कर रहे, परंतु शायद प्रतीक के मन में कुछ और था.

उदास और खाली मन से वह औफिस जाने के लिए तैयार होने लगी. प्रतीक का फोन अभी तक बंद था. औफिस में वह अपने कैबिन में जा कर बैठी ही थी कि शिवांगी आ गई. दोनों एकदूसरे के काफी निकट थीं और आपस में काफी अंतरंग बातें भी कर लेती थीं. उस ने मुसकरा कर कहा, ‘‘आओ, शिवांगी कैसी हो?’’

शिवांगी ने अपने बारे में कुछ न बताते हुए उसी से पूछा, ‘‘तुम बताओ, तुम कैसी हो? प्रतीक नहीं आया तुम्हारे साथ?’’ उस का स्वर गंभीर था. वह आयुषी के चेहरे के भाव पढ़ने का प्रयास कर रही थी.

आयुषी के मन पर जैसे किसी ने एक बड़ा पत्थर रख दिया. वह एक पल सकते की सी हालत में बैठी रही. बोली, ‘‘पता नहीं, क्यों नहीं आया? उस का फोन भी बंद है.’’

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