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उन की तरफ के सारे लोग बेहूदगी से हंस पड़े और 2 लड़कियां फुर्ती से आ कर विहाग से लिपट गईं. तुरंत उन में से किसी ने छोटा सा कैमरा निकाल लड़कियों के साथ विहाग की तसवीरें लेने की कोशिश की. विहाग ने बिना वक्त गंवाए उस के हाथ से कैमरा झपट कर जमीन पर दे पटका. चारों तैश में आ गए. मिल कर उन्होंने विहाग को उठा लिया और बरामदे से नीचे घास की तीखी झाडि़यों में फेंक दिया. विहाग सा सख्त जान अब कमजोर पड़ने लगा था. बाकायदा आंसू आ गए थे उस की आंखों

में. उठ कर सामने अपने स्टेशन के प्लेटफौर्म के एक किनारे लगे पेड़ के नीचे बेंच पर बैठ गया. थोड़ी देर आंखें बंद किए बैठा रहा, अंदरूनी कोलाहल ने उस की विचारने की शक्ति छीन

ली थी.

अचानक आंखें खुली तो सामने मुझे बैठ उसे अपलक निहारता देख वह दंग रह गया, ‘‘सोचा भी नहीं था न. मुंबई वाली नौकरी छोड़ अब पापा के पास ही आ गई हूं. दीदी के औफिस से उसे जापान भेजा गया है, लगभग 3 साल उसे वहां रहना है. पापा अकेले न पड़ें इसलिए मैं वापस आई. 4 स्टेशन बाद एक जगह नौकरी करती हूं. अभी ही ट्रेन से उतर कर तुम्हें यों बेहाल बैठा देख...’’

विहाग मेरे सानिध्य में जाने कैसे अपनी तकलीफ और चिंताएं भूलने सा लगा. कहीं सच के संदूक में अगर वह ताकझांक कर लेता तो अपने मन को वह पहले ही जान पाता.

‘‘क्या हुआ? क्यों उदास से अमावस के चांद बने बैठे हो?’’

विहाग असमंजस में था. एक ओर सुंदर शालीन उस के सामने देविका यानी मैं और मेरा प्रफुल्लित करने वाला सरल सानिध्य, तो दूसरी ओर जिंदगी की कशमकश.

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