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नील व उस की मां को होटल वापस जाना था. तय हुआ कि अगले दिन नील व दिया लौंगड्राइव पर चले जाएं. दिया ने कुछ नहीं कहा परंतु अगले दिन वह समय पर तैयार थी.

उस दिन शाम को उस ने कामिनी से कहा, ‘‘वैसे, नील इंट्रैस्ंिटग तो है.’’

कामिनी हौले से मुसकरा दी.

‘‘तो तुम ने फैसला कर लिया है?’’ मां ने पूछा.

‘‘दादी के सामने किसी की चली है जो मेरी चलेगी?’’ दिया कुछ रुक कर बोली, ‘‘वैसे यह तय है कि मैं पढ़ूंगी.’’

नील ने कहा, ‘‘तुम्हारे पढ़ने में कोई बाधा नहीं आएगी.’’

तीसरे दिन नील व दिया की सगाई हो गई और हफ्तेभर में शादी का समय भी तय हो गया.

जीवन कभी हास है तो कभी परिहास, कभी गूंज है तो कभी अनुगूंज, कभी गीत है तो कभी प्रीत, कभी विकृति है तो कभी स्वीकृति. गर्ज यह है कि जीवन को किसी दायरे में बांध कर नहीं रखा जा सकता. शायद जीवन का कोई एक दायरा हो ही नहीं सकता. जीवन एक तूफानी समुद्र की भांति उमड़ कर अपनी लहरों में मनुष्य की भावनाओं को समेट लेता है तो कभी उन्हें विभिन्न दिशाओं में उछाल कर फेंक देता है.

क्या किसी व्यक्ति को वस्तु समझना उचित है? जाने दें, यही होता आया है सदा से. युग कोई भी क्यों न रहा हो, व्यक्ति की सोच लगभग एक सी बनी रही है. अपनी सही सोच का इस्तेमाल न कर के व्यक्ति समाज के चंद ऐसे लोगों से प्रभावित हो बैठता है जो उस के चारों ओर एक जाल बुनते रहते हैं. एक ऐसा जाल, जो व्यक्ति की संवेदनाओं व भावनाओं को सुरसा की भांति हड़पने को हर पल तत्पर रहता है.

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