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आज रात भी मैं सो न सकी. आकाश के कहे शब्द शूल की भांति चुभ रहे थे. ‘मम्मी, तुम्हें मुझे मेरे पिता का नाम बताना ही पडेगा वरना...’ वरना क्या? यह सोच कर मैं भय से सिहर उठी.

आकाश मेरा एकमात्र सहारा था. उसे खोने का मतलब जीने का मकसद ही खत्म हो जाना. बड़ी मुश्किलेां से गुजर कर मैं ने खुद को संभाला था, जो आसान न था. एक बार तो जी किया कि खुद को खत्म कर लूं. मेरी जैसी स्त्री को समाज आसानी से जीने नहीं देता. इस के बावजूद जिंदा हूं, तो इस का कारण मेरी जिजीविषा थी.

अनायास मेरा मन अतीत के पन्नों पर अटक गया. तब मैं 14 साल की थी. भले ही यह उम्र कामलोलुपों के लिए वासना का विषय हो परंतु मेरे लिए अब भी हमउम्र लड़कियों के साथ खेलनाकूदना ही जिंदगी था. अपरिपक्व मन क्या जाने पुरुषों की नजरों में छिपे वासना का जहर? मेरे ही पड़ोस का युवक अनुज मेरी हमउम्र सहेली का भाई था. एक दिन उस के घर गई.

उस रोज मेरी सहेली घर पर नहीं थी. घर मे दूसरे लोग भी मौजूद नहीं थे. उस ने मुझे इशारों से अपने कमरे में बुलाया. यह मेरे लिए सामान्य बात थी. जैसे ही उस के कमरे में गई, उस ने मुझे बांहों मे जकड़ लिया. साथ में, मेरे गालेां पर एक चुंबन जड़ दिया. यह सबकुछ अप्रत्याशित था.

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मैं घबरा कर उस की पकड़ से छूटने का प्रयास करने लगी. जैसे ही उस ने अपनी पकड ढीली की, मैं रोने लगी. वह मेरे करीब आ कर बोला, ‘‘तुम मुझे अच्छी लगती हो, आई लव यू.’’ मैं ने अपने आंसू पोंछे. घर आई. इस घटना का जिक्र भयवश किसी से नहीं किया. आज इसी बात का दुख था. काश, इस का जिक्र अपने मांबाप से किया होता तो निश्चय ही वे मेरा मार्गदर्शन करते और मैं एक अभिशापित जीवन जीने से बच जाती. बहरहाल, वह मुझे अच्छा लगने लगा.

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