जिस स्नेह और अपनेपन से मेरी मम्मी ने पापा के पूरे परिवार को अपना लिया था, उस का एक अंश भी अगर पापा उन की बेटी को यानी मुझे दे देते तो... लेकिन नहीं, पापा मुझे कभी अपनी बेटी मान ही नहीं सके. उन के लिए जो कुछ थे, उन की पहली पत्नी के दोनों बच्चे थे अमन और श्रेया. अमन तो तब मेरे ही बराबर था, 7 साल का, जब उस के पापा ने मेरी मम्मी से शादी की थी और श्रेया मात्र 3 बरस की थी.

दादी के बारबार जोर देने पर और छोटे बच्चों का खयाल कर के पापा ने मम्मी से, जो उन्हीं की कंपनी में मार्केटिंग मैनेजर थीं, शादी तो कर ली. लेकिन मन से वे उन्हें नहीं अपना पाए. मम्मी भी कहां मेरे असली पापा को भुला सकी थीं.

अचानक रोड ऐक्सीडैंट में उन की डैथ हुई थी. उस के बाद अकेले छोटी सी बच्ची यानी मुझे पालना उन के लिए पुरुषों की इस दुनिया में बहुत मुश्किल था. पापा के जाने के बाद 2 साल में ही इस दुनिया ने उन्हें एहसास करा दिया था कि एक अकेली औरत, जिस के सिर पर किसी पुरुष का हाथ नहीं, 21वीं सदी में भी बहुत बेबस और मजबूर है. उस का यों अकेले जीना बहुत मुश्किल है.

ननिहाल और ससुराल में कहीं भी ऐसा कोई नहीं था जिस के सहारे वे अपना जीवन काट सकतीं. इसलिए एक दिन जब औफिस में पापा ने उन्हें प्रपोज किया तो वे मना नहीं कर सकीं. सोचा, कि ज्यादा कुछ नहीं तो इज्जत की एक छत और मुझे पापा का नाम तो मिल जाएगा न. और वैसा हुआ भी.

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