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‘‘यशिका, तुम्हारे पापा का औफिस कहां है?’’

‘‘क्यों आंटी? आप उन से मिलना चाहती हैं?’’

‘‘नहीं, ऐसे ही पूछ रही हूं.’’

‘‘एन. मौल के पीछे वाली रोड पर उन का औफिस है, कभी वहां जाते हैं, कभी घर में ही जो औफिस बना रखा है, वहां लोग आतेजाते रहते हैं.’’

अगले दिन नौशीन ने औफिस से छुट्टी ली. यशिका के पिता ललित के औफिस पहुंचीं, बाहर रखी एक चेयर पर बैठ गईं.

वहां काम करने वाले सुनील ने उन के पास जा कर आने का कारण पूछा तो नौशीन ने कहा, ‘‘ललितजी से मिलना है, जरूरी काम है, मु?ो उन की हेल्प चाहिए.’’

शिंदे ने जाकर ललित को बताया तो उन्होंने कहा, ‘‘अरे यार, इसे टरकाओ, अभी मु?ो बहुत लोगों से मिलना है.’’

‘‘बोला साहब. कह रही है आज आप नहीं मिल पाए तो कल फिर आएगी.’’

‘‘हां, ठीक है, बाद में देखेगें.’’

उस दिन नौशीन ललित से नहीं मिल पाईं, फिर वे घर जा कर अपना औफिस का काम करती रहीं. अब वह मन ही मन बहुत कुछ ठान चुकी थीं. अगले दिन वे फिर उन के औफिस पहुंचीं. इस बार ललित ने उन्हें अंदर बुला ही लिया. करीब 50 साल की बेहद स्मार्ट, स्टाइलिश नौशीन जैसे ही उन्हें ‘हैलो सर’ बोलती हुई अंदर आई, वे अचानक पता नहीं क्यों खड़े हो गए, फिर धम्म से अपना सिर हिलाते हुए उन्हें भी बैठने का इशारा किया. नौशीन के पास से आती कीमती परफ्यूम की खुशबू को उन्होंने गहरी सांस ले कर अपने अंदर उतारा.

नौशीन ने बेहद सभ्य तरीके से अपना परिचय देते हुए कहा, ‘‘मैं नीलकंठ वैली में फ्लैट लेना चाहती हूं, पर वहां का बिल्डर मुसलिम्स को कोई भी फ्लैट नहीं बेच रहा है. यह गलत बात है न? क्या हम इंसान नहीं?

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