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‘‘तुम्हारे पिता ने हमारी आर्थिक रूप से बहुत मदद की. इस खातिर, मैं चुप हो गई. उस के बाद मेरे पापा को तो मौका मिल गया. तुम्हारे पिता दारू पीने के लिए उन्हें खूब पैसे देते. कितना स्वार्थी होता है न इंसान, प्रीति? अपने बच्चे का दर्द देख कर भी अनजान बन जाता है और सिर्फ अपने बारे में सोचता है.

‘‘खैर, धीरेधीरे यहां आ कर कुछ समय के पश्चात मैं ने सबकुछ भूल कर तुम्हारे पिता को दिल से अपनाना चाहा. परंतु उन्हें तो सिर्फ मेरी खूबसूरती से प्यार था. मात्र खिलौना भर थी मैं उन के लिए. बहुत कोशिश की प्रीति, पर निराशा ही हाथ लगी. जब उन का मन करता, वे मु झ से मिलते अन्यथा महीनों वे मु झ से बात तक नहीं करते. यदि मैं कुछ कहती तो वे मु झे अपनी औकात में रहने को कहते. मु झ से कहते कि मु झे तो उन का शुक्रगुजार होना चाहिए कि उन्होंने मु झ से शादी की, मु झे इस बंगले में आश्रय दिया. चूंकि उन्होंने दीदी के इलाज के लिए पैसे दिए थे. मैं चुप हो जाती. उस के बाद मैं ने चुप रहना सीख लिया. तुम्हारे पिताजी जो चाहते थे, वह हो गया. सबकुछ उन के हिसाब से हो रहा था और यही तो वह चाहते थे.’’

वे आगे बोलीं, ‘‘फिर तुम भी मु झ से बात नहीं करना चाहती थीं और तब तक मैं इस कदर टूट चुकी थी कि तुम्हारे करीब जाने, तुम्हें सम झने की मैं ने कोशिश भी नहीं की. मु झे लगा कि न मेरे पिता अपने हुए, न मेरे पति अपने हुए तो तुम तो किसी और का खून हो, तुम कैसे मेरी अपनी हो सकती हो. फिर क्यों मैं यह बेकार की कोशिश करूं. क्यों हर बार अपना हमदर्द तलाशने की कोशिश करूं. मैं ने तुम में अपनी खुशी तलाशने के बजाय खुद को एक गहरे अंधकार में धकेल दिया. मु झे माफ कर देना, प्रीति.

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